इकाई
उसने अपनी जान पर खेल कर उस लड़की को डूबने से बचाने की कोशिश की मगर जब वो उसे दोनों हाथों पर उठाए किनारे पर पहुंचा तो वो दम तोड़ चुकी थी। लेकिन क़त्ल का इल्ज़ाम उसके सर थोप दिया गया। किसी ने भी उसे लड़की को बचाते हुए नहीं देखा था। सब का ख़याल था कि उसने किसी पुरानी रंजिश की बिना पर उसे पानी में डुबो कर हलाक किया है। आख़िर काफ़ी सोच बिचार के बाद क़बीले के सरपंचों ने मुत्तफ़िक़ा तौर पर उसके लिए ये सज़ा मुक़र्रर की कि वो अपने दोनों हाथों, पैरों में से किसी एक जोड़ी को कटवाने या अपनी दोनों आँखें निकलवाने का इंतिख़ाब ख़ुद करे। इस इंतिख़ाब के लिए उसे सिर्फ़ रात भर की मोहलत दी गई और वो भी इस कड़ी शर्त के साथ कि अगर उसने पौ फटे तक कोई फ़ैसला न किया तो उसका सर क़लम कर दिया जाएगा।
जब वो उसे कोठरी में बंद करके चले गए तो उसने दो तीन गहरे सांस लेकर ख़ुद को ज़ह्नी तौर पर मुजतमा करने की कोशिश की। उसे एक हत्मी फ़ैसले पर पहुंचना था और इस फ़ैसले पर ही उसकी आइन्दा ज़िंदगी का सारा दार-ओ-मदार था। उसका एक ग़लत क़दम उसको तबाही-ओ-बर्बादी के दहाने पर ला सकता था। यक-बारगी उसके तन-बदन में तनाव की सी कैफ़ियत
पैदा हो गई। दिल सीने की बंद कोठरी की दीवारों से यूं दीवानावार टकराने लगा जैसे उसे तोड़ कर फ़रार हो जाना चाहता हो। फिर उसे यूं लगा जैसे कोई सीलन ज़दा बोझ कोनों खद्दरों से उसकी जानिब ख़ामोशी से सरकता चला आरहा है। वो निढाल सा हो कर सरकण्डों से बनी चटाई पर चित्त लेट गया। मगर थोड़ी ही देर में दुबारा उठकर बैठ गया और बेक़रारी से अपनी हथेलियों को मसलने लगा। ये सोच उसे बार-बार डस रही थी कि अजीब-ओ-ग़रीब नौईयत की ये सज़ा आख़िर उसके लिए क्यों तजवीज़ की गई है! फ़र्द-ए-जुर्म आइद करने के बाद फ़ैसला भी सरपंचों को ही सुनाना चाहिए थे। शायद वो मुझे ख़ुद मेरे हाथों क़त्ल कराना चाहते हैं। इंतिक़ाम लेने का ये कैसा भयानक अंदाज़ है! ये दुहरी चाल है, मकरूह साज़िश है। ख़ुद अपने लिए सज़ा का ताय्युन करना कितना जानलेवा मरहला होता है इस बात का तजुर्बा उसे हो रहा था।
सबसे पहले उसकी आँखों ने उस लड़की को दरिया में ग़ोते खाते हुए देखा था और फिर उसके दोनों पांव अंधा धुंद भागते हुए दरिया किनारे पहुंचे थे। उसके बाद उसके दोनों हाथों ने बेइख़्तियार आगे बढ़कर दरिया में डुबकियां खाती लड़की को पकड़ लिया था और उसे उठाकर किनारे पर ले आए थे। मतलब ये कि इसकी आँखें, हाथ-पांव सब इस अमल में बराबर के शरीक थे। मगर इन तीनों में से पहल किस ने की? आँखों ने, नहीं पैरों ने या फिर शायद हाथों ने? लेकिन इस 'ग़लती' की असल ज़िम्मेदारी किस के सर थी? यक़ीनन उसकी आँखों ने उसे मौत के कुँवें में धकेला था। मगर आँखें तो बेबस थीं। वो तो सिर्फ़ मौक़ा की गवाह थीं। ग़लत क़दम तो पैरों ने उठाया था कि एक दम दौड़ पड़े थे। लेकिन असल काम तो हाथों ने ही अंजाम दिया था। मान लिया कि आँखों और पैरों से ग़लती सरज़द हो गई थी लेकिन कम-अज़-कम हाथों को इसमें शरीक नहीं होना चाहिए था। अगर वो उस वक़्त रुक जाते तो आज उसे इन जांकनी के लम्हों से तो न गुज़रना पड़ता। मगर सच तो ये है कि इस वक़्त कुछ सोचने समझने की मोहलत ही नहीं मिली थी। बस अंदर से हुक्म हुआ था और उसने झट उसकी तामील में लड़की को बचाने के लिए दरिया में छलांग लगा दी थी। कौन था ये हुक्म सादर करने वाला!...दूसरी तरफ़ गुज़रता हुआ हर पल और दिल की धड़कन उसे सुबह की जानिब धकेल रही थी। पहली बार उसे सुबह के वजूद से शदीद नफ़रत होने लगी उसका अंदर चीख़ चीख़ कर वावेला करने लगा कि ए काश बाहर ऐसी काली आंधी उमड पड़े कि सुबह मुल्तवी हो जाये।
रात का पहला पहर ख़त्म होने को था जब उसने अपने दोनों पैर कटवाने का इरादा कर लिया और क़दरे पुरसुकून हो गया। मगर जब अचानक उसे शदीद प्यास लगी और वो कोठरी के दूसरे कोने में दो ईंटों पर रखी मलगजी सी सुराही में से पानी पीने के लिए उठा और चल कर वहां तक पहुंचा तो यकायक एक सनसनाहट भरी लहर उसके पैरों के तलवों में से रेंगती हुई उसके सारे वजूद में फैल गई। उसी पल उसकी प्यास भी एक दम मादूम हो गई और वो उल्टे क़दमों दुबारा सरकण्डों की चटाई पर आकर ढेर हो गया और बे-इख़्तियार अपने दोनों पैरों को प्यार से सहलाने लगा। ये सोच कर उसका दम रुकने लगा कि बग़ैर पैरों के ज़िंदगी कैसे गुज़रेगी। फ़क़त! एक क़दम उठाने के लिए दो बैसाखियों का सहार लेना पड़ेगा। यूं भी जो कोई अपने पैरों पर खड़ा न हो सके उस की मिसाल उस इमारत ऐसी होती है जो बुनियाद खोदे बग़ैर खड़ी की जा रही हो। ज़ाहिर है वो ज़्यादा देर तक अपनी जगह क़ायम नहीं रह सकती, ज़मीनबोस हो जाना उसका नविश्ता-ए-तक़दीर है।
रात का दूसरा पहर तक़रीबन आधा गुज़र चुका था और वो इंतिख़ाब करने की उधेड़ बुन में ग़लतां-ओ-पेचां था। यकायक उसने अपने दोनों हाथ कटवाने का फ़ैसला कर लिया। ये फ़ैसला इसके लिए तने हुए रस्से पर बग़ैर किसी सहारे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चलने का मरहला था और ये इस वजह से और भी ज़्यादा ख़ौफ़नाक शक्ल इख़्तियार कर गया था कि नीचे गहराव था जिसमें नाग फन उठाए शूकरें भर रहे थे और बिच्छू अपने ज़हरीले डंक लहरा रहे थे। मअन उसे यूं लगा जैसे सारे साँपों और बिच्छूओं ने बैयक वक़्त उस पर हल्ला बोल दिया हो। वो पागलों की तरह अपने दोनों हाथों से उन मूज़ियों को अपने बदन से नोच नोच कर परे फेंकने लगा। उसी लम्हे उसे अपने दोनों हाथ कटवा देने के फ़ैसले की संगीनी का इल्म हो गया। एक बार तो इस दहशतनाक तसव्वुर से ही उसके रौंगटे खड़े हो गए कि तुंड मुंड बाज़ुओं के साथ आदमी कितना बेबस और बे यारो मददगार हो जाता है। हाथ तो दो ऐसे पतवार हैं जो वजूद की नाव को ज़िंदगी के पुरशोर दरिया में सफ़र जारी रखने के क़ाबिल बनाए रखते हैं। उनको कटवाना, ज़िंदगी की नाव को बे पतवार करने के मुतरादिफ़ है। तब दोनों हाथ उसके सामने दो ऐसे वर्क़ बन गए जिन पर उसकी आने वाली ज़िंदगी की पूरी कहानी लिखी हुई थी। उसने पढ़ा के बग़ैर रोटी के एक लुक़्मे और पानी के एक घूँट के लिए भी उसे दूसरों का मुहताज होना पड़ेगा। मोहताजी और बेबसी की ऐसी ज़िंदगी आदमी को ज़मीन पर रेंगने वाले केंचुए से भी बदतर बना देती है।
रात का तीसरा पहर आख़िरी हिचकियाँ ले रहा था जब उसने अपनी दोनों आँखें निकलवा देने का हत्मी फ़ैसला कर लिया। ये फ़ैसला उसने काफ़ी सोच बिचार के बाद किया था। उसने सोचा कि हाथों से टटोल कर ज़िंदगी किसी न किसी तरह गुज़ारी जा सकती है। बल्कि अगर हाथ में छड़ी थाम ली जाये तो आदमी गढ़ों में गिरने से भी बच जाता है और कुछ नहीं तो किसी का हाथ थाम कर भी ये सफ़र तय हो सकता है। कम अज़ कम इस फ़ैसले के नतीजे में जिस्म का ज़ाहिरी ढांचा तो बह्र-तौर सलामत ही रहेगा। आँखें तो यूं भी बड़ी भूकी होती हैं। सारी बुराईयां, ख़्वाहिशें और तवक़्क़ुआत इन्हीं दो रौज़नों के रास्ते दिल-ओ-दिमाग़ में जा गज़ीन होती हैं। आँखों की रोशनी के बजाए दिल की रोशनी से काम लिया जा सकता है। ये सब सोच कर उसने रात भर जागी अपनी थकी हारी आँखों को मूंद लिया। फिर शायद उसकी आँख लग गई। तब अचानक चिड़ियों के चहचहों ने उसकी आँखों के पपोटों का पर्दा उलट दिया और वो हड़बड़ा कर उठ बैठा। कुछ लम्हों तक वो ख़ाली ख़ाली नज़रों से सामने दीवार की जानिब एक तारा देखता रहा और जब हवास कुछ बहाल हुए तो उसके जी में पौ फटने के मंज़र को देखने की शदीद ख़्वाहिश तड़प कर जाग उठी। वो एक अजीब सी बेख़ुदी के आलम में अपने पैरों को घसीटता हुआ कोठरी के इकलौते रौज़न की जानिब बढ़ा। वहां पहुंच कर उसने एड़ीयां उठा कर बमुश्किल तमाम रौज़न में से बाहर झाँका तो उसके सामने सुब्ह-ए-काज़िब के बाद का सह्र अंगेज़ मंज़र फैलाहुआ था। देखते ही देखते बगुलों की सफ़ेद बुराक़ डार सफ़ेद झालर की सूरत उसके सामने से गुज़री। यकायक उसका सारा अंदर एड़ीयां उठा कर उस की आँखों के रौज़नों से बाहर झाँकने लगा। चंद लहज़ों के बाद नीम के एक घने दरख़्त पर से चिड़ियों का एक झुण्ड यूं ऊपर उठा जैसे किसी ने मुट्ठी भरे चमकते सिक्कों को हवा में उछाल दिया हो और ठीक उसी लम्हे उस पर ये इन्किशाफ़ हुआ कि ज़िंदगी की सारी रंगारंगी, शादाबी और दिलकशी इन दो रोशन खिड़कियों ही की अता है। उनसे महरूम हो कर ज़िंदगी से समझौता करना बहुत मुश्किल है। तब मअन दो दहकती सलाख़ों को अपनी आँखों की जानिब बढ़ते तसव्वुर करके वो ख़ौफ़ से चीख़ उठा। मगर फिर दूसरे ही लम्हे वो ज़मीन पर बैठ गया और अपनी आँखों को दोनों हाथों से ढाँप कर फूट फूट कर रोने लगा। जब उस के आँसू थमे तो उसे अपने बदन से कोई चीज़ बाहर को सरकती हुई साफ़ महसूस होने लगी, फिर एक अजीब सी कपकपी ने उसे अपने शिकंजे मैं किस लिया। जैसे जो चीज़ बाहर को आरही थी वो गले में पहुंच कर अटक गई है। उसकी पेशानी पर पसीने के मोटे मोटे क़तरे मुर्दा हुरूफ़ की सूरत उभर आए, गर्दन की तनाबें खिंच गईं और फिर उसका सारा वजूद सुन हो गया। ऐन उस वक़्त कोठड़ी के ज़ंगआलूद आहनी दरवाज़े को किसी ने पूरे ज़ोर से पीछे की जानिब धकेला। दरवाज़ा दर्द से कराह उठा। भारी भरकम जूतों की आहटें कोठड़ी में यके बाद दीगरे दाख़िल हुईं। फ़ैसले पर अमल दरआमद करने वालों की सफ़्फ़ाक आँखों ने अंदर आकर देखा कि कोठड़ी के इकलौते रौज़न के बिल्कुल नीचे सिल ज़दा संगी फ़र्श पर घुटनों में आँखें छुपाएं टांगों के गिर्दागिर्द मज़बूती से हाथों का हलक़ा बनाए वो गछोमछो सा गठड़ी बना बे-हिस-ओ-हरकत यूं बैठा हुआ था जैसे उसके आज़ा मोम के एक गोले की सूरत बाहम जुड़ कर एक नाक़ाबिल-ए-तक़्सीम इकाई में ढल गए हों।
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