इकतारा
इकतारा मेरे हाथ में था।
सामने चिटयल मैदान के दूसरे सिरे पर रेत के टीलों से दूर नारियल के दो मुतवाज़ी दरख़्त साकित और महव-ए-हैरत खड़े हुए थे। सब कुछ उदास था। सारे में मायूसी की एक लहर फैली हुई थी और इकतारा मेरे हाथ में था।
रेजिमेंट आज एक साल के बाद जज़ीरे से वापस लौट रही थी। जवानों का सामान बाँधा जा चुका था और लकड़ी के मज़बूत तख़्तों की बनी हुई लंबी, कई दरवाज़ों और छोटी-छोटी खिड़कियों वाली बैरक में जगह-जगह रोल किए हुए बिस्तर और सियाह ट्रंक बे-तर्तीबी से बिखरे पड़े थे। सिगरेटों के ख़ाली पैकेट, पुराने अख़्बार और ख़ाली डिब्बे इधर-उधर लुढ़क रहे थे। दीवारों पर जवानों की लगाई हुई फ़िल्म एक्टरों, एक्ट्रेसों की तस्वीरें, कैलण्डर और अंग्रेज़ी मैगज़ीन से निकाले हुए मनाज़िर के सफ़्हात हवा से उड़ रहे थे। जवानों के भारी बूटों के नीचे बैरक के किर्म-ख़ुर्दा तख़्ते चरचरा रहे थे जो ट्रक का इन्तिज़ार करते हुए बे-मक़्सद इधर-उधर आ जा रहे थे। कुछ जज़ीरे के एक साल पुराने मुलाक़ातियों और दोस्तों को अलविदा' कहने गए थे। एक साल की रिफ़ाक़त के बाद हमेशा की जुदाई ने सब ही को मलूल कर दिया था।
मेरी पैकिंग हो चुकी थी। मैं सारा मन्ज़र देखते हुए 'अजीब सा महसूस कर रहा था। मेरे सामने हद-ए-नज़र तक रेत के छोटे बड़े टीले फैले हुए थे जिनके पीछे ख़लीज-ए-बंगाल की तुन्द-ओ-तेज़ बिफरी हुई लहरें साहिल समुंदर पर नर्म-ओ-सफ़ेद झाग उछाल रही थीं और तेज़ नम हवा बैरक की खिड़कियों में सरसरा रही थी। लेकिन नारियल के मुतवाज़ी दरख़्त चुपचाप महव-ए-हैरत खड़े हुए थे जिनके क़दमों में छोटी-छोटी बे-रंग सी झाड़ियाँ उगी हुई थीं और हमको चटगाँव ले जाने वाला स्टीमर साएँ-साएँ कर रहा था। बैरक से सिर्फ़ स्टीमर का तिकोना झंडा नज़र आ रहा था।
ये एक छोटा सा ज़ज़ीरा है जिसमें रूपचंद नामी मछलियाँ हैं। दरियाँ, सारियाँ और चटाइयाँ बुनने वाली हसीन और कम-गो लड़कियाँ हैं। चीख़-चीख़ कर और हाथ हिला-हिला कर तेज़-तेज़ बातें करने वाली बूढ़ी और अधेड़ 'औरते हैं, मदक और लाँबी बदबूदार बीड़ियाँ पीने वाले कमज़ोर ज़र्द-रू मर्द हैं और नंग-धड़ंग गलियों में शोर मचाने और कीचड़ में खेलने वाले बच्चे हैं जो लकड़ियों और चटाइयों के कानों में रहते हैं। मर्द सुब्ह से शाम तक मछलियाँ पकड़ते हैं और रात को केले या कटहल के साथ चावल खाने के बाद होम-मेड पाइप में मदक भर कर ईंट या पत्थर का सिरहाना बनाकर ज़मीन पर लेट जाते हैं और मदक के फूँक मारते हुए सो जाते हैं।
उनका इस जज़ीरे के बाहर की दुनिया से सिर्फ़ इतना तअल्लुक़ है कि स्टीमर पर आने वाले ताजिरों को मछलियाँ, दरियाँ और सारियाँ दे कर अपनी ज़रूरत की चीज़ें ख़रीद लेते हैं। इस जज़ीरे से बाहर कोई और दुनिया भी है, इनको इसका क़त'ई एहसास नहीं है। उनकी ज़िन्दगी मछलियों और मदक तक महदूद है। इस जज़ीरे से बाहर जाना उनके नज़दीक अपने पुरखों की रूह से बग़ावत है। जवान लड़कियाँ तमाम दिन घरों में लगी हुई खटियों पर दरियाँ और कपड़े बुनती हैं और रात में खुली हवा में निकल कर गाती हैं और बूढ़ी 'औरतें पत्ते की बीड़ियाँ पीती हुई लड़कियों को गानों के बोल और रक़्स के अन्दाज़ बताती रहती हैं। उनमें से बाज़ जोश में आकर लड़कियों के रक़्स में शरीक हो जाती हैं।
सब ही गाने के बोल दोहराते रहते हैं।
ये समुंदर जिसने हमें जन्म दिया।
धरती जिसने हमें दाने दिए।
और ये आज़ाद हवाएँ जिन्होंने हमें सेहत और हुस्न दिया।
ये सब हमारे हैं।
ऐ समुंदर तू हमें 'अज़ीज़ है।
इसलिए कि तूने हमें जन्म दिया।
ऐ ख़ुदा हमारे दिलों को कभी वीरान न होने देना।
तू हमारे दिलों को भर देगा।
हमें मालूम है।
नौजवान लड़कियों के गीत, सुरीली आवाज़ों के दोश पर सारे जज़ीरे में फैल जाते हैं और सारी फ़िज़ा सेहर-ज़दा हो जाती है। नग़्मा जिस्मों में हरारत और दिलों में उमंग भर देता है। ज़िन्दगी से भरपूर क़हक़हे इस तरह सुनाई देते हैं जैसे मंदिर में बे-शुमार घंटियाँ बज रही हों। चाँद एक लम्हे के लिए रुक जाता है और आसमान बे-इन्तिहा नीला और बहुत दूर महसूस होने लगता है और नारियल के मुतवाज़ी दरख़्त एक दूसरे पर झुक कर सरगोशियाँ करने लगते हैं। उनके क़दमों में उगी हुई बे-रंग झाड़ियाँ सियाही माइल सब्ज़ लगने लगती हैं और उनमें जंगली फूलों की बे-नाम महक बस जाती है। सितारे आँखें मूँद कर ठंडी-ठंडी साँसें लेने लगते हैं। तब मदक के नशे में झूमते हुए मर्द अपने-अपने बिस्तरों की तरफ़ लौट आते हैं।
हमारा कैंप समुंदर के किनारे है और शुमाल की तरफ़ छालियों के दरख़्तों से घिरा हुआ लकड़ियों के तख़्तों और चटाइयों से बुने हुए मकानों पर मुश्तमिल ख़ूबसूरत गाँव है। इस गाँव के रहने वाले हमारे कैंप तक दूध और मछलियाँ लाते हैं। जब गाँव के मर्द सुब्ह अपने कँधों पर जाल उठा कर समुंदर की तरफ़ चले जाते हैं तो गाँव की सलोनी लड़कियाँ सरों पर दूध के मटके लिये हमारे कैंप की तरफ़ आती हैं। उनकी नज़रें हमेशा ज़मीन पर गड़ी होती हैं और चेहरे पर बला की सन्जीदगी होती है। वो बहुत कम बोलती हैं और बहुत ज़ियादा सहमी और सिमटी सी रहती हैं। मुअम्मर औरतें ज़ियादा-तर घर के दूसरे कामों में मसरूफ़ रहती हैं।
इस जज़ीरे में बसने वालों में तवह्हुम परस्ती आम है। इनकी रसमें अजीब हैं। ये तूफ़ानों को ख़ुदा की नाराज़गी तसव्वुर करते हैं और जानवरों और अनाज को समुंदर में फेंक कर ख़ुदा को भेंट देते हैं। वबाई अमराज़ की सूरत में मछलियाँ धागे में गूँध कर गले में पहन लेते हैं। गीतों की देवी को रक़्स-ओ-सुरूद से मनाते हैं। पूर्णमाशी की रात को शादियाँ करते हैं और बहुत से चिराग़ रौशन करके झील में तैराते हैं और फूलों की पत्तियाँ गहरे पानी में दूर तक फैला देते हैं। मौत को पोशीदा रखते हैं। मरने वाले को चुप-चाप रात के अँधेरे में समुंदर में बहा देते हैं और न रोते हैं न एक दूसरे से मरने वाले का ज़िक्र करते हैं। जब कई दिनों तक कोई नज़र न आए तो ख़ुद ही उसको मुर्दा तसव्वुर करके भूल जाते हैं और किसी से उसके बारे में दर्याफ़्त नहीं करते। हफ़्ते में एक मर्तबा डाक आती है और एक शिकस्ता सी इमारत में सरकारी हस्पताल है जिसमें न डॉक्टर होता है न दवाएँ। यहाँ के लोग इलाज के क़ाइल ही नहीं हैं। अपने उसूलों, रिवायतों और रस्मों पर हमेशा से क़ायम हैं और उनमें किसी तरह की कोई तब्दीली या रद्द-ओ-बदल को पसन्द नहीं करते।
मुझे यहाँ आए हुए तीसरा दिन था। सूरज ग़ुरूब हो रहा था। मैं छालियाें के दरख़्तों के बीच में घिरे हुए गाँव की तरफ़ निकल गया। बदबूदार कीचड़ और धुएँ से भरी हुई गलियों में नंग-धड़ंग बच्चे आपस में लड़ रहे थे। शोर मचा रहे थे या खेल रहे थे। मर्द कंधों पर जाल डाले टोकरियों में मछलियाँ लिये घरों को लौट रहे थे। औरतें दिन का काम ख़त्म करके मकानों के साइबान या गलियों के किनारे सूरज की अलविदाई किरनों से जिस्म सेंक रही थीं। गाँव की दूसरी जानिब आख़िर में जहाँ छालियाें के दरख़्तों का सिलसिला अचानक ख़त्म हो गया था, लकड़ी के एक ख़ुशनुमा मकान के साइबान में मैंने उसे पहली बार देखा।
मकान के दरवाज़े की दोनों जानिब गहरे सुर्ख़ फूलों वाली बेल चढ़ी हुई थी। वो दरवाज़े में बेल की बनी हुई मेहराब के दर्मियान ख़ामोश खड़ी हुई थी। चुप-चुप उदास-उदास जैसे किसी का इन्तिज़ार कर रही हो। तवील और मुसलसल इन्तिज़ार ने जैसे उसे थका दिया हो। उसने ख़ाली-ख़ाली नज़रों से मुझे देखा, उसके चेहरे पर पत्थर की मूर्ति जैसी बे-हिसी और बे-तासीरी थी। वो अपने सपाट चेहरे और ख़ाली-ख़ाली नज़रों से मुझे मुसलसल देखे गई हत्ता कि मैं गली के मोड़ पर मुड़ गया।
पूर्णमाशी की रात को मैं लेटा हुआ गाँव की उसी पुर-असरार लड़की के बारे में सोच रहा था, जिसे मैं हर रोज़ ही सुर्ख़ फूलों वाली मेहराब के दर्मियान डूबते सूरज की नर्म ख़ुश-गवार धूप में पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ी हुई देखा करता था कि गाँव से गाने की आवाज़ें आने लगीं। नींद आँखों से कोसों दूर थी, बिस्तर पर करवटें बदलना अज़ाब लग रहा था। मैं गाँव की तरफ़ चल दिया। गाँव के वस्त में एक झील थी जिसके गिर्द गाँव के मर्द, औरतें सब ही जमा थे। थोड़े-थोड़े फ़ासले पर छोटे-छोटे अलाव जल रहे थे जिनसे ख़ुशबू की लपटें उठ रही थीं। झील में बे-शुमार दिए तैर रहे थे और पानी पर फूल की रंग-बिरंगी बे-शुमार पंखुड़ियाँ तैर रही थीं। झील के इर्द-गिर्द टोलियों में लड़कियाँ रक़्स कर रही थीं। कुछ लड़कियाँ एक जानिब बैठी मिल जुल कर गा रही थीं और ऐसा महसूस हो रहा था जैसे जज़ीरे में रंग-ओ-नूर की बारिश हो रही है।
गाने वाली लड़कियों में वो भी बैठी हुई थी। उसी तरह चुप-चुप उदास-उदास, खोई-खोई सी। उसने सफ़ेद साड़ी पहन रखी थी, गले में सफ़ेद मोतियों की एक माला पड़ी हुई थी और बाईं क्लाई में एक पतली सी चूड़ी थी। कानों में एक-एक सफ़ेद फूल और जोड़े में कलियों का गुँधा हुआ हार लिपटा हुआ था। मुझे ऐसा लगा जैसे वो ये नहीं है, कोई आसमानी मख़्लूक़ है जो चंद लम्हों के लिये बरकतों की बारिश करने गुनाहगार इन्सानों में आ गई है और ये तमाम इन्सान उसके वजूद से ना-आशना उसकी बरकतें समेट रहे हैं।
गाँव वालों ने अज़-राह-ए-मेहमान-नवाज़ी मुझे भी अपने साथ बिठा लिया और बताया कि पूर्णमाशी की रात वो अपनी कुँवारी लड़कियों के ब्याह करते हैं और जब ऐसा कोई मौक़ा न हो तो भी उस रात को वो ख़ुशियाँ मनाते हैं। बहारों के गीत गाते हैं। ये रात उनके लिये ख़ुशियों और बरकतों की रात होती है। मेरे इर्द-गिर्द बैठे हुए लोगों से मछली और तंबाकू की बू आ रही थी और सामने कुँवारियाँ रक़्स कर रही थीं। कुँवारियाँ गा रही थीं।
मेरे माही-गीर
नौका खेते जाओ खेते जाओ।
दूर समुंदर की ऊँची लहरों में।
अपने कंधों पर जाल उठाए।
जहाँ लहरें आकाश से मिल जाती हैं।
जब सूरज सुर्ख़ हो जाएगा।
जब धूप सुनहरी और ख़ुश-गवार हो जाएगी।
अपने जाल में चाँदी सी मछलियाँ उठाए।
तुम घर लौटोगे।
नौका खेते जाओ।
झील के चारों तरफ़ रक़्स हो रहा था। टोलियाँ अलाव के गिर्द रक़्स कर रही थीं। लड़कियाँ गा रही थीं। चाँदनी और अलाव की रौशनी में सब कुछ ख़्वाब-नाक सा महसूस हो रहा था।
उस रात जब रक़्स ख़त्म हो गया तो मुझे मालूम हुआ कि उस लड़की का बाप गठिया की वजह से चलने फिरने से माज़ूर हो गया है। दूसरी सुब्ह मैं बूढ़े को देखने गया। उन लोगों ने बड़ी गर्म-जोशी से मेरा इस्तिक़बाल किया और ख़ुशबूदार कॉफ़ी पिलाई। मैंने बड़ी मुश्किल से उसे इलाज पर मजबूर किया और ग़ालिबन मेरी दिल-शिकनी के ख़याल से उसने रस्मन आमादगी ज़ाहिर कर दी। मैंने कैंप के डॉक्टर से उसके लिये दवाएँ हासिल कीं और ख़ुद शाम को अपने हाथों से उसकी मालिश करता और दवा पिलाता, जिसे वो मुस्कुराता हुआ बे-दिली से पी लेता। इस तरह वो पुर-असरार और मुन्तज़िर सी लड़की मेरे क़रीब-तर होती गई।
उसका नाम यूजी था। उसने मुझे बताया कि गाँव के आख़िर में लकड़ी के तख़्तों के मकान के अलावा छालिया के बहुत से दरख़्त भी उनकी मिल्कियत हैं। उसका बाप क़बीले का सरदार है। इस बीमारी के सिलसिले में अब तक उन्होंने कई मन चावल और सैंकड़ों जानवर समुंदर की भेंट चढ़ा दिये हैं। मैं रोज़ाना शाम को मालिश करने और बूढ़े को दवा पिलाने जाता और ख़ुशबू दार तंबाकू वाले सिगरेट उसे दे आता। वो बहुत ही मुन्कसिर-उल-मिज़ाज और नर्म-गो था। उसने मेरे यूजी से मिलने पर भी कभी ऐतिराज़ न किया। रात में जब चाँद बुलन्द होकर नारियल के दरख़्तों में उलझ जाता तो हम उन दरख़्तों के क़रीब चले जाते। वहाँ एक दूसरे के पीछे भागते, एक दूसरे पर रेत उछालते। फिर रेत पर घरौंदे बनाते और तोड़ देते हत्ता कि चाँद नारियल के दरख़्तों से परे खिसक जाता और सर्दी बढ़ जाती।
एक रात हम नारियल के मुतवाज़ी दरख़्तों के नीचे बैठे हुए थे। वो कोई गीत गा रही थी। उसके लहजे और चेहरे के तअस्सुरात से महसूस होता था कि वो कोई ग़मग़ीन गीत है जिसमें महबूब की जुदाई का ग़म है। मैंने नारियल के दरख़्तों पर अपना और यूजी का नाम चाक़ू से लिख दिया। उसने मुझसे पूछा ये क्या लिखा है। मैंने उसे बता दिया। वो उदास हो गई।
यहाँ रानू का नाम लिख दो।
रानू कौन है?
वो ख़ामोश हो गई। मैंने जिस दरख़्त पर यूजी का नाम लिखा था, उसी पर रानू का नाम लिख दिया। वो मुस्करा दी।
रानू कौन है? मैंने पूछा।
मेरा मँगेतर।
मेरे सीने में कुछ टूट सा गया।
रानू कहाँ रहता है?
उसने समुंदर की तरफ़ इशारा किया।
मैं समझा नहीं? मैंने कहा।
रानू समुंदर में डूब गया है। वो बड़ी भयानक रात थी। तूफ़ान आया था। वो उदास हो गई।
उसे मरे हुए कितना अर्सा हो गया।
दो साल।
फिर तुमने शादी क्यों नहीं की।
मैं उसका इन्तिज़ार कर रही हूँ। वो ख़ामोश हो गई। उसकी आँखों की अफ़सुर्दगी सारे माहौल में फैल गई। चाँद नारियल के दरख़्तों से दूर चला गया और सर्दी बढ़ गई तो हम वापस आ गए।
मेरी यूजी से फिर कई रोज़ तक मुलाक़ात न हो सकी। वो भी नारियल के दरख़्तों की तरफ़ न आई। मुझे शुब्हा हुआ कि कहीं यूजी नाराज़ न हो गई हो। मुझे उससे शादी के बारे में कुछ न कहना चाहिये था। शायद ये बात उसे पसन्द न आई हो। उसने मुझे एक दो इस तरह के वाक़िआत बताए थे जिनमें लड़कियों को इस सिलसिले में जान दे देनी पड़ी। उस शाम मैं यूजी के घर गया। सूरज ग़ुरूब हो रहा था। यूजी हसब-ए-मामूल सुर्ख़ फूलों वाली मेहराब के वस्त में खड़ी रानू का इन्तिज़ार कर रही थी कि उसने सूरज ग़ुरूब होने से क़ब्ल घर लौटने का वादा किया था। उसके चेहरे पर सूरज की अलविदाई किरनों और सुर्ख़ फूलों ने शफ़क़ की सुर्ख़ी मल दी थी। यूजी की माँ के चाँदी के तारों जैसे सफ़ेद बाल चमक रहे थे। वो मुझे देख कर मुस्करा दी। जब मैं बूढ़े से मिज़ाज-पुर्सी के बाद साइबान में आया तो यूजी साइबान में मेरा इन्तिज़ार कर रही थी। मैंने उससे नारियल के दरख़्तों तक न आने का सबब पूछा तो मुस्करा दी।
मैं चाहती थी तुम मुझे बुलाने आओ।
मैं आ गया।
माँ तुमसे मिल कर आज बहुत ख़ुश हुई है।
एक बात कहूँ।
न।
तुम्हारे बारे में।
सिर्फ़ एक बात।
हाँ।
मेरे बारे में बहुत सी बातें कहो।
अच्छा सुनो।
सुन रही हूँ।
शादी के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है?
वो सन्जीदा हो गई और चुप-चाप अन्दर चली गई।
उस रात जब हम नारियल के दरख़्तों के क़रीब मिले तो यूजी बहुत ख़ुश थी। उसने अपने क़बीले का ख़ास लिबास पहन रखा था, जिसमें वो बे-इन्तिहा ख़ूबसूरत दिखाई दे रही थी। सर पर मोतियों की बनी हुई टोपी और क्लाई में ताज़ा फूलों के कड़े उसे और भी दिलकश बना रहे थे। उस शाम उसने रेशम के सुर्ख़ रूमाल में लिपटा हुआ नन्हा सा इकतारा मुझे दिया और कहा कि दरख़्त से रानू का नाम मिटा दो क्योंकि वो मर चुका है और मैं वहाँ नहीं खड़ी रह सकती जहाँ उसने दो साल पहले मुझे छोड़ा था। अब सब कुछ बदल गया है। मैंने इकतारा उससे ले लिया।
उस शाम हमने रेत पर घरौंदे बनाए जिन्हें यूजी ने तोड़ने नहीं दिया। वो बे-इन्तिहा ख़ुश थी। उसने मुझ पर रेत भी नहीं उछाली, घरौंदे भी नहीं तोड़े। वो मुझसे शहरों के बारे में पूछती रही जहाँ रातों को रंगीन रौशनियाँ बिखर जाती हैं, जहाँ चमकते हुए लिबास हैं, ख़ुशियाँ हैं और सुख हैं। उसने मुझ से मेरे घर वालों के बारे में भी पूछा। उसका ख़याल था मेरी माँ बहुत बूढ़ी और मेरी जुदाई में कमज़ोर हो गई होगी। उस रात उसने चाँद के बुलन्द होने का इन्तिज़ार नहीं किया। मैंने यूजी को जाते हुए बहुत दूर तक देखा। वो दूर होती रही और मैं उसे देखता रहा। उसकी चाल में जाने कहाँ से दुल्हनों का बाँकपन आ गया था। उसका गाया हुआ नया गीत मेरे कानों में गूँजता रहा।
तुम आ गए?
मेरा माही-गीर आ गया।
मैं तन्हा नहीं हूँ।
आज रात जब तुम फूलों का हार पहन कर मेरे घर आओगे।
मैं तुम्हारे क़दमों की धूल बन जाऊँगी।
कल का सूरज निकलने से पहले तुम मुझे अपनी आग़ोश में छिपा लेना।
ये ही रीत है।
मैं तुम्हारी हूँ।
मेरा माही-गीर आ गया है।
जब वो गा रही थी मुझे ऐसा लगा जैसे उस गीत में कोई पैग़ाम है।
दूसरी सुब्ह मेरे लिये अपने साथ राख और रेत लाई। ये सुब्ह यूजी ने नहीं देखी। वो सूरज निकलने से क़ब्ल ही मर चुकी थी। उस दिन गाँव का कोई माही-गीर जाल लेकर समुंदर की तरफ़ नहीं गया।
लड़कियाँ भी दूध लेकर कैंप की तरफ़ नहीं आईं। सारा गाँव जैसे सुकूत में डूबा हुआ था। जब मैं गाँव पहुँचा तो यूजी को जलाने वाली चिता बुझती जा रही थी। बूढ़ी माँ निढ़ाल हो चुकी थी और बाप गठिया से जकड़ी हुई टाँगों को पकड़े पथराई हुई आँखों से चिता के सर्द होते हुए शोलों को देख रहा था। यूजी के मकान के सामने केले के मुरझाए हुए पत्ते लटक रहे थे और ज़मीन पर रंगीन बुरादे से बनाए हुए नक़्श-ओ-निगार मिटते जा रहे थे। फूलों के बे शुमार हार मस्ले और टूटे हुए पड़े थे और फूलों की पँखुड़ियाँ हवा में इधर-उधर बिखर गई थीं। ऐसा महसूस होता था जैसे कोई जश्न होते-होते कोई सानिहा पेश आ गया हो। गाँव के लोगों ने मुझे देखा तो उनके चेहरे पर तनाव और कशीदगी आ गई। कुछ लोगों ने मुझे देख कर मुँह फेर लिया। लड़कियाँ घरों में घुस गईं। गाँव का कोई फ़र्द मुझसे मुख़ातिब न हुआ। सब लोग चुप-चाप चिता को देखते रहे।
यूजी को मरे हुए आज दूसरा दिन है। आज भी गाँव के लोग जाल लेकर समुंदर की तरफ़ नहीं गए। न लड़कियाँ दूध और मछलियाँ लेकर कैंप की तरफ़ आईं। सारा गाँव जैसे मर गया हो।
रेजिमेंट के सारे जवान अब स्टीमर पर आ चुके हैं। बैरक ख़ाली हो चुकी है। मेरा सामान भी स्टीमर के केबिन में पहुँच गया है। मैं यूजी का दिया हुआ यादगार नन्हा सा इकतारा लिये हुए अर्शे पर खड़ा हुआ छालिया के दरख़्तों के पीछे छुपा हुआ यूजी का गाँव और नारियल के दो मुतवाज़ी दरख़्त देख रहा हूँ, जिनमें से एक पर मेरा और दूसरे पर यूजी का नाम अब भी लिखा हुआ है। स्टीमर रवाना होने में अब चंद मिनट बाक़ी हैं। इसके बाद यूजी-यूजी का गाँव और ये मह्व-ए-हैरत खड़े नारियल के मुतवाज़ी दरख़्त कभी न देख सकूँगा। और ये इकतारा...
बड़ा ख़ूबसूरत इकतारा है। स्टीमर के बूढ़े मल्लाह ने इकतारा मेरे हाथ से लेकर कहा, आपने बनाया है।
नहीं मुझे तोहफ़ा मिला है।
ख़ूब... किसने दिया। मल्लाह कुछ ज़ियादा ही सुराग़-रसी पर उतर आया।
उस गाँव की एक लड़की ने। मैंने सच-सच बतला दिया।
वो मुझे तक़्रीबन खींचता हुआ केबिन में ले गया।
अब बताओ ये इकतारा तुम्हें कब और किसने दिया। वो क़तई सन्जीदा दिखाई दे रहा था।
मैंने यूजी से अपनी मुलाक़ात से उसकी मौत तक का वाक़िया बयान कर दिया। वो रोने लगा।
मेरा तअल्लुक़ उसी जज़ीरे से है। बूढ़े मल्लाह ने कहा।
उस जज़ीरे की रीत है कि जब कोई लड़की अपने शौहर का इन्तिख़ाब कर लेती है तो अपने होने वाले शौहर को पूर्णमाशी की रात से क़ब्ल किसी वक़्त अपने हाथों का बना हुआ कोई खिलौना पेश करती है। फिर लड़के का ये फ़र्ज़ होता है कि वो उसी पूर्णमाशी की रात को लड़की को ब्याह लाए या फिर तोहफ़ा क़ुबूल करने से इंकार कर दे। लेकिन अगर लड़का पूर्णमाशी की रात को लड़की को ब्याहने नहीं पहुँचता तो उसे सारे क़बीले का अपमान समझा जाता है और सज़ा के तौर पर सूरज निकलते ही लड़की को जला दिया जाता है और गाँव का कोई शख़्स लड़के से कभी गुफ़्तगू नहीं...
लड़की को जला दिया जाता है। मैं चीख़ा।
हाँ जनाब। जब लड़की वालिदैन को अपने शौहर के इन्तिख़ाब की इत्तिला देती है तो वालिदैन ख़ुशी से उसका फ़ैसला क़ुबूल कर लेते हैं और लड़का जब तोहफ़ा क़ुबूल कर लेता है तो वो लड़की को रुख़सत करने का ऐलान करके सारे क़बीले को मद्ऊ कर लेते हैं और रुख़्सती का जश्न शुरू हो जाता है। लेकिन अगर लड़का तोहफ़ा लेने के बावजूद न पहुँचे तो फिर लड़की को जल कर जान देनी पड़ती है।
बूढ़ा मल्लाह ना-मालूम और क्या-क्या बताता रहा। मैं केबिन से भाग कर दीवानों की तरह बाहर निकला। स्टीमर चल रहा था। नारियल के मुतवाज़ी दरख़्त आँखों से ओझल हो चुके थे। हद्द-ए-नज़र तक पानी ही पानी था। मेरा सर चकरा गया और मैं रेलिंग के सहारे खड़ा हो गया। स्टीमर के साथ-साथ उड़ने वाले सफ़ेद परिन्दे अब जज़ीरे की तरफ़ लौट रहे थे। यूजी के गाँव की तरफ़। यूजी-यूजी जो एक मुद्दत तक रानू का इन्तिज़ार करती रही। फिर मैंने यूजी की आँखों में सारी ज़िन्दगी का इन्तिज़ार एक रात का लम्हा बना दिया। इकतारा दे कर उसने मेरा इन्तिज़ार शुरू कर दिया होगा। एक-एक पल क़दमों की आहट पर कान लगाए गुज़ारा होगा। फिर उस इन्तिज़ार में सारा गाँव शरीक हो गया होगा। शोलों की तरफ़ बढ़ते हुए यूजी ने कई बार मुड़-मुड़ कर बड़े एतिमाद से देखा होगा। शोलों ने यूजी-यूजी का इन्तिज़ार चाट लिया। गीत जल गए।
नारियल के चुप-चाप मह्व-ए-हैरत खड़े हुए दरख़्त उसी तरह टीलों से दूर अब भी खड़े होंगे। उन पर मेरा और यूजी का नाम अब भी लिखा होगा। रेत पर हमारे बनाए हुए घरौंदे जिन्हें यूजी ने न तोड़ा था, अब भी बने होंगे।
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