इंफ़ेकशन
रोज़ाना की तरह आज भी प्रोफ़ेसर घोष रेंगते हुए आए। चश्मा उतार कर मेज़ पर रखा। धोती के कूँचे से पेशानी और चेहरे का पसीना पोंछा। कुर्सी पकड़ कर दो-चार लंबी-लंबी साँसें भरीं। चॉक उठा कर क्लास में मौजूद तालिब-ए-इल्मों पर एक सरसरी निगाह दौड़ाई। ब्लैक-बोर्ड पर आज का टॉपिक Revolution and it's Techniques लिखा और शुरू’ हो गए।
वो लेक्चर दे रहे थे और मैं आँखें फाड़े उनका मुँह तक रही थी। सोच रही थी, “ये आज उनके दाँतों को क्या हो गया? रह-रह कर इतने लंबे और नोकीले क्यों हो जा रहे हैं?”
और इसके साथ ही मेरी नज़रों के सामने मुरली का चेहरा फिरने लगा। उसके दाँत भी ऐसे ही लंबे और नोकीले हैं! एक दम ड्रैकुला जैसे! कभी-कभी तो मैं शरारत से कह देती थी, “ख़बरदार, ये दाँत किसी की गर्दन में न चुभोना वर्ना वो भी तुम्हारे जैसा हो जाएगा। मैंने फिल्मों में देखा है, हाँ!”
और वो मुस्कुराते हुए कहता, “हाँ हाँ, मैंने भी देखा है। जब ड्रैकुला अपने तेज़ नोकीले दाँत किसी लड़की की गर्दन में चुभो देता है, तो वो भी ड्रैकुला बन जाती है, लेडी ड्रैकुला! उसके भी चारों दाँत ये लंबे-लंबे, तेज़ और नोकीले हो जाते हैं। लाल-लाल, ख़ून में डूबे हुए...!”
और मैं रूठ जाती। उसकी छाती पर मुक्के बरसाने लगती। वो मुझे बाँहों में जकड़ लेता। मेरे होंट पर अपने होंट धर देता।
मैं अपनी ज़बान उसके दाँतों की नोक पर बारी-बारी मुस करने लगती। कभी दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे हिला कर गुदगुदाहट से लुत्फ़-अन्दोज़ होती। नस-नस में सनसनाहट महसूस करती। कभी हल्के-हल्के दबा कर मीठी-मीठी चुभन और कभी दबा कर टीस और जलन का मज़ा लेती। सच तो ये है कि उस वक़्त मुझे उसके दाँत और भी प्यारे लगते थे।
प्रोफ़ेसर घोष लेक्चर दे रहे थे... मार्क्सिज़्म, लेनिनिज़्म, सोशलिज़्म, माओइज़्म, Revolution, Contradiction, Struggle of Opposites और न जाने क्या-क्या बके जा रहे थे और मैं थी कि उनके नोकदार दाँतों पर नज़रें टिकाए माज़ी की कड़ियाँ जोड़ती जा रही थी।
(दो)
हम दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। वो थर्ड ईयर में था, मैं फ़र्स्ट ईयर में।
वहाँ से बी.ए करने के बा’द मुरली यहाँ चला आया। एम.ए करने। शुरू’-शुरू’ तो मुझसे मिलने जाता था। दो-चार चिट्ठियाँ भी भेजीं। लेकिन धीरे धीरे ये सिलसिला भी मुनक़ते’ हो गया।
मैं भी बी.ए पास कर लेने के बा’द एम.ए करने यहाँ चली आई।
यहाँ आकर मेरी मुलाक़ात पराबी से हुई। हम दोनों एक ही हॉस्टल में रहते हैं, एक ही कमरे में। इस अजनबी शहर में वही मेरी दोस्त है और वही मेरी हमराज़। एक दिन मैंने उससे मुरली का तज़्किरा किया तो वो मेरी मदद को तैयार हो गई। उसी ने ये सुराग़ लगाया कि मुरली गाहे-गाहे स्टूडेंट यूनियन के दफ़्तर में आता है। हम रोज़ाना यूनियन के दफ़्तर का चक्कर काटने लगे। वहाँ घंटों बैठे उसकी राह तकते रहे। बिल-आख़िर मेरी उम्मीद बर आई। एक दिन मुरली आया। हिरासाँ, परेशाँ, उलझा-उलझा सा! मुझे देखकर ठिटक गया। दो क़दम पीछे हटा। फिर हिचकिचाता हुआ आगे बढ़ा। क़रीब आया। मेरा हाथ दबोच कर खींचता हुआ मुझे पास वाले पार्क में ले गया।
मैं सिसकियाँ भरती रही, वो बहाने तलाशता रहा। बे-कसी, बेरोज़गारी का राग अलापता रहा। मुझे समझाने, फुसलाने की कोशिशें करता रहा।
उसके बा’द से हम इसी पार्क में मिलने लगे। मगर मुझे अक्सर ऐसा लगता था कि वो किसी गहरे सोच में डूबा हुआ है। मुहब्बत का इज़हार कम, किसान, ज़मीन, ज़ुल्म, तशद्दुद और इस्तेहसाल की बातें ज़ियादा करता है। रह-रह कर इंक़िलाबी नज़रिया बखानने लगता और जब वो अपने इंक़िलाबी नज़रिए की बखान करता तो उस वक़्त मुझे महसूस होता था कि उसके दाँत पहले से कहीं ज़ियादा तेज़, नोकीले और लंबे हो गए हैं।
और एक दिन जब मैं उसके इस बदलाव से आजिज़ आ गई तो मैंने उसे पकड़ कर अपनी तरफ़ खींच लिया। बाँहों में भर कर भींचने लगी। उसके मुँह पर अपना मुँह रख दिया। उसके होंट चूसने लगी। मगर जूँ ही ज़बान उसके दाँत की नोक पर रखी कि मुझे ज़ोरों की चुभन महसूस हुई और इससे पहले कि वो दाँत मेरी ज़बान में धँस जाते, मैंने जल्दी से अपनी ज़बान बाहर निकाल ली। लेकिन तब तक मेरा जिस्म पूरी तरह उसकी गिरफ़्त में आ चुका था। अब वो मुझे सीने से चिमटाये मेरी गर्दन चूम रहा था। मैं कसमसा रही थी। फिर दफ़अ’तन मुझे ऐसा लगा कि उसके दाँत मेरे जिस्म में पैवस्त हो रहे हैं।
मैंने पूरी ताक़त से उसे झटका। वो तिलमिलाता हुआ पीछे सरक गया। अब वो सामने खड़ा दाँत निकाले हँस रहा था। मैंने देखा, उसके चारों दाँत डरावने लग रहे थे।
(तीन)
प्रोफ़ेसर घोष अब भी लेक्चर दे रहे थे..., “स्टालिन का कहना है कि सोशलिज़्म के क़ाएम होते ही क्लास-वॉर ख़त्म हो जाएगा। माओ का मानना है कि सोशलिज़्म के क़याम के बा’द भी क्लास-वॉर चलता रहेगा।
वैसे भी इस वक़्त मेरा ज़ेहन इस तरह की रद्द-ओ-क़दह का मुतहम्मिल न था। कौन क्या कहता है और किसका क्या मानना है, किसके क़याम के बा’द क्या ख़त्म हो जाएगा और किसके ख़ात्मे के बा’द क्या बाक़ी रह जाएगा, इन बातों से भला मुझे क्या सरोकार? मैं तो प्रोफ़ेसर घोष के लंबे नोकीले दाँत के बारे में सोच रही थी, जो धीरे-धीरे ख़ौफ़नाक सूरत इख़्तियार करते जा रहे थे। मुरली के दाँतों से भी ज़ियादा ख़ौफ़नाक।
मैं सरासीमा उन्हें घूर रही थी।
पराबी ने कई बार मुझे टहोका भी दिया। लेक्चर नोट करने का इशारा किया। लेकिन में अपनी जगह ख़ामोश बैठी रही। नज़रों के सामने प्रोफ़ेसर घोष का चेहरा था और ज़ेहन के पर्दे पर मुरली की तस्वीर।
मुरली फिर से ग़ायब हो गया था। तीन माह होने को आए थे। उसका कोई अता-पता नहीं।
और फिर मैंने खाता क़लम बैग में रखे और, दबे-पाँव क्लास से बाहर निकल आई। कंधे से बैग झुलाए तेज़-तेज़ क़दमों से पार्क की जानिब बढ़ने लगी। शाम हो चली थी, मगर अब भी धूप की तपिश और पेच की सड़क से उठने वाली लहरों से बदन झुलस रहा था। गर्म हवा नाक के रास्ते जिस्म में पैवस्त हो रही थी। फेफड़ों और साँस की नली को भपका रही थी। मगर मैं थी कि मुरली की धुन में मगन गुनगुनाती, मुस्कुराती, ग़म खाती चली जा रही थी।
पसीने में शराबोर पार्क के मेन गेट के सामने वाले घनेरे दरख़्त के नीचे आकर खड़ी हो गई। रूमाल से चेहरे और पेशानी पर जमे पसीने की बूँदें पोंछने लगी। अभी पसीना पूरी तरह ख़ुश्क भी नहीं हो पाया था कि दो आदमी मेरे दाएँ-बाएँ आ खड़े हुए। मैं सहम गई। ख़ौफ़-ओ-तहय्युर से उन्हें देखने लगी। बाईं तरफ़ वाला आदमी लाँबे क़द का था और दाईं तरफ़ वाला गोरा-चिट्टा छोटी-छोटी आँखों वाला। उसकी पलकें भी सुकड़ी हुई थीं। लाँबा आदमी जिसका बायाँ कंधा ज़रा झुका हुआ था, नर्म लहजे बोला, “मिस नैना, हम पुलिस वाले हैं। आपको हमारे साथ थाने चलना होगा एक तफ़तीश के सिलसिले में, मुरली हेम्ब्रम के बारे में।”
“मुरली के बारे…!”, मैं अभी अपनी बात पूरी भी न कर पाई थी कि काले रंग की एक सूमो कार सामने आकर खड़ी हो गई। अंदर एक फ़र्बा-अंदाम ख़ातून बैठी थी।
“प्लीज़, मिस नैना।”, लाँबे आदमी ने मुझे इशारे से कार में बैठने को कहा।
(चार)
कुछ देर चलने के बा’द कार एक बाग़ नुमा कम्पाऊँड में दाख़िल हुई। कार से उतर कर लाँबे आदमी ने बाएँ शाने को हल्की सी जुंबिश दी और कहा, मैडम सेन, आप उन्हें अंदर बठईए और शेरपा, तुम उन्हें इत्तिला' कर दो।
शेरपा ने ‘यस सर’ कहा और लपकता हुआ सामने वाली इ’मारत में दाख़िल हो गया। मैडम सेन मुझे एक कमरे में ले आई।
कमरा ख़ासा वसीअ’ और ख़ूबसूरत था। अलमारी, मेज़, कुर्सियाँ, कम्पयूटर सारी चीज़ें क़रीने से सजी हुई थीं। एक तरफ़ कोने में दीवार से मुत्तसिल एक सोफ़ा-सेट भी था। मैडम सेन ने मुझे सोफ़े पर बैठ जाने को कहा।
मैं बुलबुल-ब-दाम थरथराती हुई सोफ़े पर दुबक गई। कभी ख़ौफ़-ज़दा निगाहों से मैडम सेन का मुँह ताकती और कभी मुतजस्सिसाना नज़रों से कमरे का कोना-कोना छानती। मैडम सेन इधर-उधर की बातें कर के मुझे बहलाने की कोशिश करने लगीं। जब काफ़ी वक़्त गुज़र गया तो धीरे-धीरे मेरी घबराहट भी काफ़ूर होती गई और जभी एक सरदार जी कमरे में दाख़िल हुए। मैडम सेन ने मुस्कुराते हुए उन्हें वश किया। वो जवाबन मुस्कुराते हुए एक तरफ़ बैठ गए। फिर सफ़ेद धोती कुर्ता पहने एक उधेड़ उम्र शख़्स आया, जिसे देखते ही मैडम सेन दम साधे एक दम से खड़ी हो गईं। इसके बा’द दो आदमी और आए। मैडम सेन ने उन्हें भी एहतिरामन ‘गुड इवनिंग’ कहा। मेरा ख़ौफ़ जो कुछ देर पहले काफ़ूर गया था, फिर से लौट आया। थोड़ी देर बा’द लाँबा आदमी और उसके पीछे शेरपा दाख़िल हुआ। मेरी धड़कनें तेज़ से तेज़तर होती गईं।
लाँबे आदमी ने उन चारों से बारी-बारी हैंड-शेक किया और आकर मेरे रू-ब-रू बैठ गया। धीरे से बायाँ हाथ सोफ़े के बाज़ू पर रखा और धोती कुर्ता वाले आदमी की तरफ़ दाएँ हाथ से इशारा करते हुए मुझसे मुख़ातिब हुआ, “मिस नैना, ये हैं इस इलाक़े के एम.एल.ए, श्री हारो मजुमदार।” इसके बा’द उसने बारी-बारी तमाम लोगों का त’आरुफ़ कराया, “ये हैं सी.बी.आई अफ़सर कुलदीप सिंह, ये हैं एस.डी.ओ, श्री समीर त्रिवेदी; वो हैं चीफ़ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, श्री सुनीति पाखीरा। ये लोग Anti Terrorist Advisory Committee के मेम्बर हैं और ये हैं इंसपेक्टर ठंडोप शेरपा, ये सब-इंसपेक्टर ज्याति सेन और अपनी तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “और ये नाचीज़ एहतिशाम हसन, डी.सी.पी, स्पेशल स्क्वाड।” और फिर उन सभों को मुख़ातिब कर के कहा, “और जनाब, ये हैं, मिस नैना!”
इसके बा’द उन्होंने मैडम सेन से इशारतन कुछ कहा। मैडम सेन मेज़ तक गईं। उन्होंने दराज़ से एक पर्ची निकाल कर मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए पूछा, “मिस नैना, क्या ये हैंडराइटिंग आपकी है?”
मैंने पर्ची पर नज़रें गड़ा दीं। हैंडराइटिंग तो मेरी ही लग रही थी। शायद वो ख़त था जो मैंने मुरली को लिखा था। लेकिन कब लिखा था कुछ याद नहीं आ रहा था।
मैं ज़ेहन झटकने लगी। श’ऊर ला-श’ऊर का समंदर खंगालने लगी।
वैसे भी मेरे और मुरली के दरमियान ख़त-ओ-किताबत की नौबत कम ही आती थी। वो ख़त लिखने में बुख़ालत करता था और कभी-कभार लिखता भी था तो दो तीन सतरों से आगे नहीं बढ़ता था। जो दो-चार ख़त उसने लिखे थे, सब के सब मुझे ज़बानी याद थे। उसने एक ख़त में लिखा था।
“नैना, तुम पहाड़ की गोद से निकलने वाला शफ़्फ़ाफ़ झरना हो। इठलाती बल खाती नदी हो तुम। नदी से ज़मीन सैराब होती है और तुमसे मेरी ज़िंदगी!”
मुरली का ख़त पढ़ कर मैं फ़ौरन जवाब लिखने बैठ जाती थी। उस रोज़ भी बैठ गई थी। कहीं ये वही ख़त तो नहीं।
“मिस नैना, बताइए ये तहरीर आपकी है?”, हसन साहब की आवाज़ सुनकर मैं तसव्वुर की दुनिया से लौट आई। कमरे में मौजूद सभी लोग मुझे घूर रहे थे। मैंने झिजकते हुए हाथ आगे बढ़ा दिया। देखा, हाँ वही ख़त है। मैं मन ही मन पढ़ने लगी।
“हाँ मैं एक नदी हूँ। लेकिन नदी तो सागर में जा मिलती है। तुम सागर हो। मैं तुम में मिलकर अपना सब कुछ अर्पित कर देना चाहती हूँ…”
“मिस नैना, आप चुप क्यों हैं? बताइए ये ख़त आपने लिखा है?”, हसन साहब ने अपना सवाल दुहराया।
मैंने इसबात में गर्दन हिला दी और फिर धीरे से पूछ लिया, “लेकिन वो है कहाँ?”
ये पूछते ही कमरे में सन्नाटा छा गया। जैसे, सभों को साँप सूंघ गया हो। सब एक दूसरे को ख़ाली-ख़ाली निगाहों से घूरने लगे। मैं बारी-बारी सब का चेहरा तकने लगी। अजब सी घुटन महसूस होने लगी और इससे पहले कि मेरा दम घुट जाता त्रिवेदी साहब ने ख़ामोशी तोड़ी, “अच्छा, मिस नैना, मुरली के सम्बंध में आप क्या जानती हैं?”
“आप लोगों ने तो ये ख़त पढ़ ही लिया है। फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हैं?”
इस बार सी.बी.आई अफ़सर, कुलदीप सिंह ने मूंछों पर ताव देते हुए कहा, “मिस नैना, आप जिसे प्यार करती थी वो कोई हीरो-वीरो नहीं था। बुज़दिल क़ातिल था वो। छुप-छुप के वार करना उस का पेशा था।”
लफ़्ज़ ‘था’ सुनकर मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। मैं रोनी सूरत बना कर चीख़ी, “था मतलब!”
“वो पुलिस मुड़भेड़ में मारा गया है।”, मजिस्ट्रेट, श्री सुनीति पाखीरा ने नर्मी से जवाब दिया।
“पुलिस मुड़भेड़ में!”, मेरा हल्क़ सूखने लगा।”
“हाँ पुलिस मुड़भेड़ में। वो ग़रीब किसानों पर अत्याचार किया करता था। उनकी खड़ी फ़सलें तबाह कर देता था। उन्हें उनके मौलिक अधीकार से वंचित करके, उन पर अपना पराभाओ डालता था। उन्हें अपने वश में करना चाहता था।”
“नहीं नहीं, वो ऐसा नहीं कर सकता। वो तो ग़रीबों का हमदर्द था। किसानों, मज़दूरों का दोस्त था…”,
इतना सुनना था कि एम.एल.ए, हारो मजुमदार का चेहरा तमतमा उठा। झुँजला कर कहने लगे, “होनहा, वो ग़रीबों का हमदर्द था। किसानों, मज़दूरों का दोस्त था और हम क्या हैं? किसान मज़दूरों के दुश्मन? हमें ग़रीबों से हम-दर्दी नहीं?” और फिर थोड़े से तवक़्क़ुफ़ के बा’द अपने आप पर क़ाबू पा कर बोले, “देखो, बेटी, तुम तो जानती हो। आज Production और Mode of Production का Concept कितना बदल चुका है। अब मज़दूर आग की भट्टी के सामने खड़े हो कर अपना ख़ून पानी नहीं करते। ख़तरनाक मशीनों पर काम कर के जान नहीं गँवाते। बल्कि एयर-कंडीशन कमरे में कम्पयूटर के सामने बैठ कर उत्पादन करते हैं। जो लोग मेहनत के बदलते हुए Concept ही से वाक़िफ़ नहीं वो मज़दूर और किसानों की भलाई क्या करेंगे।”
“मिस नैना, एम.एल.ए साहब ठीक कह रहे हैं। आपने उसे पहचाना नहीं।” हसन साहब ने मुदाख़लत करते हुए कहा, वो हमारी तरह गोश्त-पोस्त का इन्सान नहीं। Terror था वो।”
ऐसे अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करने के बावजूद हसन साहब के लहजे में मेरे लिए हमदर्दी का शाइबा साफ़ झलक रहा था। ऐसा ही शाइबा पराबी की बातों में भी झलकता है। जब मैं मुरली के अंदर बदलाव का तज़्किरा करती तो वो मुझे समझाती है, “देख नैना, ऐसे लोग हमारी तरह हाड़-मास के इन्सान नहीं होते। एक अज़्म बन जाते हैं। तमाम रिश्तों से बाला-तर। तमाम बंदिशों से आज़ाद।”
मैं पेशानी पर बल डाले उसकी बातें सुनती रहती। उसकी आँखों के सुर्ख़ डोरों को तकती रहती। वो कहती जाती, “नैना, ऐसे लोग किसी के हाथ नहीं आते, साया बन कर अंधेरे में गुम हो जाते हैं।”
और तब हसन साहब ने मुझे समझाया, “मिस नैना, चलिए अच्छा हुआ, उस साये से आपका पीछा छूट गया, नहीं तो आप भी किसी बड़ी मुसीबत में पड़ जातीं।”
“साहब ठीक कह रहे हैं, मिस नैना!”, कुलदीप सिंह मुस्कुराते हुए बीच में टपक पड़े, “बाई दी वे, अगर आप चाहे तो हम आपकी सहेली, क्या नाम है...? हाँ, मिस पराबी, उसे इत्तिला कर दें कि आप यहाँ हैं? पुलिस चौकी में। लौटने में देर होगी।”
मैंने हैरत से पूछा, “क्या आप पराबी को जानते हैं!”
सिंह साहब बड़ा सा मुँह बना कर बोले, “जानना पड़ता है, भई। आख़िर पुलिस वाले जो ठहरे! आपके माँ-बाप, भाई-बहन, मकान, गाँव, ज़िला, तमाम चीज़ों की तफ़सील है हमारे पास...!”
हसन साहब ने मुदाख़लत की, “घबराइए नहीं, हम पराबी को मना कर देंगे कि वो किसी से कुछ न कहे। आपने हमारे साथ इतना त’आवुन किया है अगर…”
“अगर क्या? मैंने त’अज्जुब से पूछा।
“अगर अपना मोबाइल दें, तो। यू, नो रूटीन इन्क्वारी…”
हसन साहब ने नर्मी से कहा।
और फिर मुझसे मोबाइल ले कर उन्होंने शेरपा के हवाले किया और कहा, चेक करवा के रिपोर्ट लाओ, फ़ौरन।”, फिर मुझसे मुख़ातिब हुए, “दर-अस्ल मु’आमला बड़ा गंभीर है, मिस नैना। गुज़िश्ता हफ़्ते पंचम-तुला के पास मुसाफ़िरों से भरी एक बस को बम से उड़ा डाला। अठारह लोगों की जानें चली गईं। छः स्कूली बच्चे भी थे। ग्यारह लोग अस्पताल में हैं, पाँच की हालत तशवीश-नाक है।”
“लेकिन आप ये मुझे क्यों सुना रहे हैं। ऐसी ख़बरें तो आए दिन अख़बारों में छपती रहती हैं। सभी पढ़ते हैं।”, मैंने ऊब कर कहा।
“सुनाने की ज़रूरत है, मिस नैना।”, हसन साहब के लहजे में थोड़ी सी तल्ख़ी आ गई थी, “कल रात उन्होंने घुमटाल गाँव में धावा बोल दिया। ग़रीब गाँव वालों को गाँव से खदेड़ कर उनकी ज़मीनों और मकानों पर क़ब्ज़ा करना चाहा। जब हम वहाँ पहुँचे तो हम पर गोलीबारी शुरू’ कर दी। दोनों तरफ़ से घंटों फायरिंग होती रही। तीन लोग मारे गए। हमारा एक सिपाही भी शहीद हो गया। कई ज़ख़्मी हो गए। मैं भी बाल-बाल बच गया। गोली पसली छू कर निकल गई। देखिए!”, हसन साहब ने बाएँ तरफ़ की क़मीज़ का दामन उठाया। बाज़ू से पसली तक पट्टी बंधी हुई थी।
इसके बा’द हसन साहब ने खड़े होते हुए कहा, “आईए, मिस किरन, हमारे साथ आईए।”
कमरे में मौजूद सभी लोग उनके साथ खड़े हो गए। मुझे पीछे वाले कमरे में ले गए। मेज़ पर दो लाशें पड़ी थीं। पहली लाश के चेहरे से कपड़ा सरकाते हुए हसन साहब ने पूछा, “इसे पहचानती हैं?”
मेरा दिल बैठा जा रहा था। मैंने अपने आप पर क़ाबू पाते हुए, होंट पर होंट दबा कर नफ़ी में सर हिला दिया।
इसके बा’द हसन साहब ने दूसरी लाश पर से कपड़ा हटाया।
मैं तड़प उठी, दिमाग़ सन से हो गया। नज़रों के सामने अँधेरा छा गया।
और जब होश आया तो मैंने ख़ुद को सोफ़े पर पड़ा हुआ पाया। मैडम सेन मेरा सर सहला रही थीं।
हसन साहब नर्म लहजे में बोले, “मिस नैना, आपका वो ख़त इसी लाश की जेब से बरामद हुआ है।” उन्होंने चमड़े का एक काला बटुवा मेरे सामने उछाला, “इस बटुए में था।”
मैंने आँखों पर हथेलियाँ फेरते हुए पूछा, “क्या आप मुझे ये बटुवा दे सकते हैं?”
“नहीं। क़ानूनी मु’आमला है।” हसन साहब ने सर हिलाते हुए कहा।
इसके बा’द हसन साहब का चेहरा मेरी निगाहों में धुँदलाता चला गया।
और तब एम.एल.ए हारो मजुमदार की आवाज़ आई, “मिस नैना, आप किस की ख़ातिर रो रही हैं? इस अपराधी की ख़ातिर? आपको तो ख़ुश होना चाहीए। इससे आपका पीछा छूटा।”
मैं फूट फूटकर रोने लगी। मजुमदार साहब ने कहा, “ठीक है, रो लीजिए। मन हल्का हो जाएगा” और फिर हसन साहब को मुख़ातिब कर के कहा, “रात ज़ियादा हो गई है, हम चलते हैं। रिपोर्ट तैयार कर के भेजवा दीजिएगा, हम दस्तख़त कर देंगे।”
और फिर वो सब हसन साहब को गुड नाइट कह कर चले गए।
मैं आँसू पोंछने लगी। हसन साहब मेरे सर पर हाथ फेर कर मुझे तसल्ली देने लगे। इंसपेक्टर शेरपा कमरे में दाख़िल हुए। हसन साहब को मेरा मोबाइल थमा कर उनके कान में धीरे से कुछ कहा।
हसन साहब ने मुझे मोबाइल लौटा कर कहा, “मिस नैना चलिए, आपको होस्टल तक छोड़ दूँ।”
(पाँच)
रात के ग्यारह बज चुके थे। गर्मी की तपिश कम हो गई थी। शहर के शुमाल में पहाड़ी सिलसिला है। अब वहाँ से फ़रहत-बख़्श हवाएँ आने लगी थीं। जब आसमान पर चाँद पूरे आब-ओ-ताब से चमकता है तो पहाड़ी सिलसिला गहरे नीले रंग की चादर में लिपट जाता है। ऊँचे घने पेड़ों की झुण्ड से छन-छन कर आने वाली चाँदनी ज़मीन पर रौशनी के ख़ुश-नुमा धब्बे फैला देती है। मैं अफ़्सुर्दा हाल, चाँद पर नज़रें टिकाए, हसन साहब के पीछे-पीछे चलने लगी। चाँदनी में डूबा हुआ इस शहर का मंज़र बड़ा दिलकश होता है। लेकिन इसकी दिल-कशी अब मेरे लिए बे-मा’नी हो चुकी थी।
गाड़ी सुनसान सड़क पर तेज़ी से भाग रही है। हसन साहब अगली सीट पर बैठे सिगरेट का कश ले रहे हैं। मैं पिछली सीट पर बैठी सिसकियाँ दाबे सोच रही थी, “होस्टल में सभी जाग रहे होंगे। बिस्तर पर औंधे पड़े मेरे बारे में उल्टी सीधी बातें कर रहे होंगे, अच्छा हुआ मुरली मारा गया। दहशतगर्दों का यही अंजाम होना चाहिए। मुरली दहशतगर्द था। नैना दहशतगर्द है। दहशतगर्दों के लिए हमारे समाज में कोई जगह नहीं। उसे होस्टल से निकाल दो। यूनीवर्सिटी से निकाल दो…”
(छः)
गाड़ी एक झटके से होस्टल के फाटक पर आ रुकी। मैं गाड़ी से उतरी। हसन साहब का शुक्रिया अदा किया। हाथ हिला कर उन्हें अलविदा’ कहा। उन्होंने भी मुस्कुराते हुए जवाबन हाथ हिला दिया। इसके बा’द गाड़ी अपने पीछे धुआँ छोड़ती हुई चली गई।
गाड़ी की आवाज़ सुनकर आस-पास की खिड़कियाँ खुल गई थीं। पराबी बाल बिखेरे कान से मोबाइल सटाए फाटक के पास आ कर खड़ी हो गई थी। उसे देखते ही मेरी आँखें छलक उठीं। मैं लपक कर उसके सीने से लग गई। रोते हुए बोली, “पराबी, सब ख़त्म हो गया! सब कुछ...!”
थोड़ी देर मैं पराबी से लिपटी रोती रही। वो बे-हिस-ओ-हरकत खड़ी रही और तभी अचानक मेरा मोबाइल बज उठा! स्क्रीन पर एक अजनबी नंबर नमूदार हो रहा था।
मैंने फ़ोन कान से लगाया। एक जानी-पहचानी आवाज़ सुनकर चौंक पड़ी, “मिस नैना, वो बस हमने नहीं उड़ाई! न हमने ग़रीब गाँव वालों को खदेड़ा है। हम ऐसे घिनौने काम नहीं करते...!”
मेरे औसान ख़ता हो गए। ज़बान से बे-साख़्ता निकल पड़ा, “तो क्या पुलिस चौकी में भी... कोई नोकीले दाँत वाला...!”
मैं अब भी पराबी से लिपटी हुई थी कि अचानक मुझे अपनी गर्दन पर चुभन सी महसूस हुई!
मैंने हौले से उसको झटका दिया और ठिटक कर पीछे हट गई!
ख़ौफ़-ओ-तहय्युर से काँपने लगी!
पराबी सामने खड़ी क़हक़हा लगा रही थी!
आस-पास की खिड़कियों से भी बहुत सारे नोकीले दाँत झाँक रहे थे!
(तरकश, कोलकाता, 2011)
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