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इस हाथ दे उस हाथ ले

राशिदुल ख़ैरी

इस हाथ दे उस हाथ ले

राशिदुल ख़ैरी

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    ये ख़्याल कि इफ़्तिख़ार कुलसूम आशिक़ ज़ार माँ थी, यक़ीनन ग़लत। इरशाद और फ़िर्दोसी दोनों उसके अपने पेट के बच्चे थे और ये वाक़िया है कि इरशाद पहलौंटी का बच्चा लड़के की ज़ात, मगर जो लगन इफ़्तिख़ार को फ़िर्दोसी की थी उससे आधी क्या बल्कि चौथाई भी बच्चा की थी। दस ग्यारह बरस का बच्चा और गंदा संदा नहीं, मैला कुचैला नहीं, साफ़ सुथरा और गोरा सफ़ेद लेकिन सारी सारी रात बुख़ार में तड़पा और उस नेक बख़्त ने आँख उठा कर देखा। ताज्जुब तो कम होता नहीं मगर दिल को ये कह कर तस्कीन दे लो कि माँ इरशाद को फ़क़त दूध पिलाने की गुनहगार थी। वो भी डेढ़ दो बरस नहीं, गिनती के आठ सात महीने, वर्ना वो पला दादी की आग़ोश में और बूढ़ा बाप की गोद में। पूरे पाँच बरस का भी था कि कलकत्ता भेज दिया गया और गया गया लौटा चार साल बाद। इस जुदाई ने अगर इफ़्तिख़ार को इतना सब्र दे दिया कि उसने ज़िंदा बच्चा को मुरदा समझ लिया तो उसी का दिल गुर्दा था। हाँ फ़िर्दोसी के साथ उसको मुहब्बत और इश्क़ कैसा, परवाना थी, फ़िदा थी, क़ुरबान थी। उसका बस चलता तो शायद कलेजा चीर कर बच्ची को अंदर बिठा लेती कि उसको किसी दुनयावी अज़ीयत की हवा भी लगे।

    तहय्ये की इतनी तेज़ और मिज़ाज की इस क़दर कड़वी कि दूसरे रिश्तेदार और अज़ीज़ तो रहे ताक़ में, इफ़्तिख़ार की हक़ीक़ बहन भाई की इतनी मजाल थी कि भांजी को टेढ़ी आँख से देख लें। जवान बेवा हुई और बीस पच्चीस रुपया की आमदनी के सिवा कोई माक़ूल असासा भी था। मगर अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद अलग चुनी। माँ ज़िंदा, बाप जीता, बहनें मौजूद, भाई मौजूद, पर मुहल्ला बसा अलग घर में रही और ये गवारा किया कि फ़िर्दोसी को कोई अज़ीज़ आँख भर कर देख ले।

    छोटी बहन की शादी में बीसियों नकतोड़ों और सैंकड़ों नखरों से आई और सिर्फ़ इतनी सी बात पर कि और किसी ने नहीं, फ़िर्दोसी की हक़ीक़ी नानी, इफ़्तिख़ार की सगी माँ ने सिर्फ़ इतना कह दिया कि मेरा आठ आने का आईना तुम्हारी बच्ची ने तोड़ दिया, इफ़्तिख़ार अठन्नी आगे फेंक डोली मंगवा चलती हुई। हर चंद माँ ने सर पटका, बाप ने मिन्नतें कीं, बहनों ने हाथ जोड़े, भाईयों ने ख़ुशामदें कीं, हद ये है तमाम मेहमानों ने कहा मगर उसको रुकना था रुकी और ये भी कह गई कि मेरी बच्ची शरीर है इस वक़्त तो आठ आने का मुआमला था मैंने भर दिया, कोई बड़ा नुक़्सान कर दिया तो क्या करूंगी, आप भली और अपना घर भला। भरा घर देखता रहा और इफ़्तिख़ार ये जा वो जा।

    यूं तो इफ़्तिख़ार की ज़िंदगी के अक्सर वाक़ियात ताज्जुब अंगेज़ हैं लेकिन वो ताज्जुब जो अचमम्भे और हैरत से बढ़ कर दिल को मुश्किल से लगता और क़ियास में दिक़्क़त से आता है, माँ बेटों के ताल्लुक़ात हैं। बाप के बाद इरशाद का कलकत्ता रहना नामुमकिन था। मगर तक़दीर ने बाप की मौत के साथ ही माँ का कलेजा इतना पत्थर कर दिया था कि उसको देस और परदेस दोनों यकसाँ थे। ये फ़ैसला सर और आँखों पर कि फ़िर्दोसी की मुहब्बत ने उसको इतना अंधा और बहरा कर दिया था कि वो सुनने और देखने दोनों से माज़ूर थी। मगर मुक़ाबला ऐसा ताज्जुब अंगेज़ और हैरत फ़ज़ा है कि अक़्ल चकराती है, क़ियास टकराता है और समझ में नहीं आता कि फ़िर्दोसी की आशिक़ ज़ार माँ इरशाद के वास्ते ऐसी डायन हुई कि दुनिया ने पनाह मांगी। मजबूरी या माज़ूरी दुनिया दिखाने को या ख़ुदा के ख़ौफ़ से खाना तो वो दोनों वक़्त यतीम इरशाद को पेट भर कर दे देती, वो भी फ़िर्दोसी के बाद, और उसका बचा खुचा। लेकिन फ़सल का मेवा, मौसम की तरकारी, ये नहीं कि आती हो, फ़िर्दोसी के लिए सब कुछ आती मगर इरशाद के वास्ते हराम थी। दोनों बच्चों में बेगम और ग़ुलाम का फ़र्क़ था। हम को ये भी ताज्जुब है कि इफ़्तिख़ार ने ये क्यों जायज़ समझा कि इरशाद आपा कहे हालाँकि वो नौकरों की तरह मिन्नत-व-ख़ुशामद करता, पीछे पीछे फिरता, लड़ाई झगड़ा तो दरकिनार इतनी हस्ती थी कि उसके हुक्म पर ना कर सके। सिर्फ़ इतनी सी बात पर कि बहन का खिलौना और वो भी मिट्टी का लंगड़ा घोड़ा ताक़ से नीचे उतार लिया था, दो थप्पड़ माँ ने उस ज़ोर से रसीद किए कि कल्ला लाल हो गया।

    इफ़्तिख़ार औरत क्या खुर्रा चना थी कि सब से अलग थलग रहती। ख़ुद कहीं जाती किसी को बुलाती। ज़ालिम का हाफ़िज़ा इस ग़ज़ब का था कि अगर किसी से बिगड़ती तो बावा-दादा के वक़्त की बातें बयान करती। शब-ए-बरात के मौक़ा पर दो ढाई आने रोज़ की आतिशबाज़ी फ़िर्दोसी मंगवाती और इरशाद छोड़ता। कमबख़्त की क़ज़ा जो आई तो माँ से कहने लगा, अगर तुम मुझ को इकट्ठा सौदा मंगवा दो तो सब चीज़ें मैं ख़ुद तैयार कर लूं और एक रुपया में चार पाँच रुपया का माल हो जाये।

    नेकी और पूछ पूछ, इफ़्तिख़ार को क्या उज़्र हो सकता था, बच्ची के लिए जान तक हाज़िर थी। रुपया निकाल दे दिया और लड़का झटपट जा सौदा ले आया। बारूद पीस रहा था कि रगड़ लगी और इस ज़ोर का धमाका हुआ कि ग़रीब की दोनों आँखें और एक टांग रुख़्सत हुई।

    इफ़्तिख़ार में मुरव्वत, मुहब्बत, शफ़क़त, इंसानियत अगर कोई चीज़ होगी तो शायद शौहर की ज़िंदगी में। अब तो उसकी दुनिया-व-दीन, जन्नत-व-दोज़ख़ जो कुछ थी वो फ़िर्दोसी और सिर्फ़ फ़िर्दोसी। लुतफ़ ये था कि ज़ख़्मी इरशाद हुआ और बुख़ार चढ़ा फ़िर्दोसी को। इफ़्तिख़ार अगर उसके इख़तियार में होता तो इरशाद जैसे सात लड़के और पराए नहीं अपने पेट के फ़िर्दोसी पर क़ुर्बान कर देती। ग़रीब पड़ा तड़प रहा था और माँ बच्ची को गोद में लिए उसके ज़ख़्मों पर ये कह कह कर और नमक छिड़क रही थी कि तू तो मर्द ज़ात है लोटपोट कर अच्छा हो जाएगा, मेरी फूल सी बच्ची कैसी पड़ी, अगर ऐसी वैसी हो गई तो मैं तेरा क्या कर लूँगी।

    फ़िर्दोसी का बुख़ार मामूली था सुबह को उतर गया मगर इरशाद की हालत रोज़ ब-रोज़ रद्दी होती गई, दवा हुई नहीं आराम किस तरह होता। ख़ुदा भला करे दादी का कि वो पोते को अपने हाँ ले गई और बदनसीब बच्चे का दम बजाय माँ की गोद के, बाप की माँ की गोद में निकला।

    जिस माँ ने इरशाद जैसा बच्चा फ़िर्दोसी पर क़ुर्बान कर दिया उससे ये किस तरह मुम्किन था कि वो एक ग़ैर मर्द के हाथ में हाथ दे कर बच्ची को छोड़ बैठती। जो पैग़ाम आता वो हक़ारत से नामंज़ूर और नफ़रत से मुस्तरद। लेना चाहती थी घर दामाद, मगर शर्त ये थी कि अपनी दौलत लाए और यहां बैठ कर लुटाए। फ़िर्दोसी की उम्र ढल रही थी मगर बात ढंग की आई। अज़ीज़ों में से किसी की इतनी मजाल थी की इफ़्तिख़ार को टोक सकता, मुहल्ले वाले या मिलने वाले तो हक़ ही क्या रखते थे, मगर जिन ढूंढियाँ उन पाइयाँ। दुनिया देखती की देखती रही और बी फ़िर्दोसी की शादी रच गई। तहरीरी इक़रार और ज़बानी मुआहिदों में जिस तरह इफ़्तिख़ार ने दामाद को जकड़ा उसको देख देख कर और सुन सुन कर मर्द भी दंग थे। दामाद दो सौ (200) रुपे का मुलाज़िम और बीवी और सास दोनों का ग़ुलाम था। फ़िर्दोसी की तरफ़ से ऐसी लग़ज़िशें हुईं कि दूसरा शौहर मुश्किल से सब्र करता, मगर उसने अगर टेढ़ी आँख से भी बीवी को देख लिया तो इफ़्तिख़ार ने हश्र बरपा कर दिया और साफ़ कह दिया कि तुम अपने घर में ख़ुश और मैं अपने। मेरी बच्ची रिज़्क की मारी नहीं, सिलाई सिएगी और उसका पेट पालूंगी।

    उस कामयाबी की तह में कि एक बुढा शौहर जवान बीवी की नाज़ बर्दारी कर रहा है, जो मुसीबत पिनहां होती है वो इफ़्तिख़ार और फ़िर्दोसी दोनों के सर पर मंडला रही थी। ये दुरुस्त है कि सुहाग के दस बारह साल फ़िर्दोसी के ऐसे गुज़रे कि सुब्हान अल्लाह। मगर बिल आख़िर शौहर की मौत ने फ़िर्दोसी की गोद में दो मासूम बच्चे डाल सुहाग का ख़ातमा किया। और अब उस दौर-ए-ऐश की यादगार ये दो बच्चे थे।

    हम इफ़्तिख़ार के इस्तिक़लाल की दाद देते हैं कि इस नाज़ुक वक़्त में भी उसका क़दम डगमगाया और उसने मुतलक़ किसी अज़ीज़ की परवाह की। दामाद ने जो थोड़ा सा ज़ेवर छोड़ा था उसको फ़रोख़्त किया और उस मुर्गी की तरह जो चील के झपटे से बचाए अपने बच्चों को परों में लिए बैठी है, फ़िर्दोसी और उसके बच्चों को कलेजे से लगाए मर्दानावार हर तकलीफ़ का मुक़ाबला करती रही और घर की हवा बिगड़ने दी। ज़ेवर ख़त्म हो चुका तो अब वो मकान था जो इफ़्तिख़ार की दूर अंदेशी से फ़िर्दोसी की मिल्कियत हो चुका था। मगर इस ख़्याल से कि बच्ची किसी की नज़रों में ज़लील हो उसने अपने दोनों मकान अलैहदा कर के बच्चों की परवरिश की और फ़िर्दोसी की हवेली पर आंच आने दी।

    फ़िर्दोसी का बड़ा लड़का ज़हीर जिस ने बाप के बाद चने खा कर पढ़ा, इन्ट्रेंस के बाद डाक्टरी में पहुंचा और वो मंज़र देखने के क़ाबिल था जब इफ़्तिख़ार इम्तिहान के दिनों में नवासे के साथ दरवाज़े तक आती, एक बासी रोटी उसको देती और कहती इस वक़्त घर में इस के सिवा कुछ मौजूद नहीं। ख़ुदा तेरे साथ है, हिम्मत हार, बेड़ा पार है।

    ज़हीर तीन सौ रुपया माहवार का नौकर है। चार हज़ार रूपये उसकी तनख़्वाह में से माँ जमा कर चुकी है और जिस घर में मुट्ठी भर चने के लाले थे। आज उसमें गहमा गहमी हो रही है। ज़हीर की शादी हो रही है, मेहमान भरे हैं, दुलहन का जोड़ा और ज़ेवर कश्तीयों में चुना हुआ है। मर्दाना में देगें चढ़ी हुई हैं। कमरों में उजली चांदनियाँ, दालानों में नए क़ालीन। अंगनाई में कोरे तख़्त, फ़िर्दोसी बाग़ बाग़ और निहाल निहाल इधर उधर फिर रही है। चारों तरफ़ से मुबारकबादें मिल रही हैं और हंस हंस कर और खिल खिल कर शुक्र अदा कर रही है।

    इस मकान के चप्पा चप्पा और कोना कोना पर ख़ुशी की छड़ियाँ लग रही हैं और ऐसा मालूम होता है कि रंज-व-ग़म का इस सरज़मीन पर कभी गुज़र ही नहीं हुआ। अलबत्ता सदर दालान की बराबर वाली कोठड़ी में एक बुढ़िया जिसकी उम्र नौवे बरस के क़रीब है और जो अब हड्डियों की माला है। इसलिए कि फ़ालिज ने उसका एक हाथ और एक टांग बेकार कर दी। ख़ामोश पड़ी आँखें फाड़ फाड़ कर छत की कड़ियां गिन रही है। उसके क़वा बेकार हैं, बसारत जवाब दे चुकी है, हाथ पांव का सकत जाता रहा। चलने फिरने के क़ाबिल नहीं, खांसी ने जान पर बना दी, कमर झुक गई, चुपकी लेटी है। मगर मालूम उम्र-ए-गुज़शता के क्या क्या ख़्यालात उसके दिमाग़ में चक्कर लगा रहे हैं।

    बिरयानी और मुतंजन की ख़ुशबू उसके दिमाग़ में आई और उसने ख़्याली पुलाव पकाने शुरू किए। “खाना गया, सब से पहले फ़िर्दोसी मुझ को ला कर देगी। मैं खाऊंगी ही कितना, ऐसे में तो गर्म गर्म है, फिर ठंडा किस काम का।”

    “हाएं! ये तो सब खा भी रहे हैं, क्या फ़िर्दोसी मुझे भूल गई, उसको मेरी मुतलक़ परवाह नहीं।”

    इफ़्तिख़ार दिल ही दिल में बल्कि थोड़ी बहुत आवाज़ से भी ये बातें कर रही थी कि किसी के क़दमों की आहट उसके कान तक पहुंची और उसकी अफ़सुर्दगी ख़ुशी से बदली। मगर जब आवाज़ इधर आने की बजाय उधर जाती मालूम हुई तो इफ़्तिख़ार ने आहिस्ता आहिस्ता पुकारा,

    “फ़िर्दोसी, बी फ़िर्दोसी! मगर उसकी आवाज़ का किसी ने जवाब भी दिया। मेहमानों के खाने पीने की आवाज़ें बराबर कान में आती रहीं और आज इफ़्तिख़ार को मालूम हुआ कि उसने अपनी उम्र में अच्छे बीज बोए। यहां तक कि खाना ख़त्म हुआ और एक बीवी जो किसी ज़रूरत से इधर निकलीं थीं घबरा कर बाहर आई और कहा,फ़िर्दोसी बेगम! तुम ने तो दिमाग़ सड़ा दिया। तुमहारी अम्मां वाली कोठरी से तो ऐसी बदबू रही है कि मग़ज़ फटा जाता है।

    फ़िर्दोसी ने बगै़र किसी ताम्मुल के कहा,बूवा क्या करूं, मर भी तो नहीं चुकतीं, दम नाक में है, सारी कोठरी बलगम और ग़लाज़त से सड़ा रखी है। और फिर मिज़ाज सातवें आसमान पर, एक कहूं तो हज़ार सुनूं।”

    इतना कह कर फ़िर्दोसी माँ के पास आई जिसके कानों में ये आवाज़ अच्छी तरह रही थी और कहा,

    “मेहमानों तक में नाक कटवा दी। इस कोठरी को तीन दफ़ा बंद कर चुकी हूँ कि अंदर मरी रहो, मगर बगै़र खोले चैन नहीं, अब तो हाथ ख़ासा उठ जाता है।”

    बुढ़िया छः सात रोज़ से दमा में मर रही थी मगर सूखी पंचियों में जोश गया। जवाब का क़सद किया लेकिन सांस ने ज़बान उठने दी और शिद्दत की खांसी उठी। एक मैली सी डिपिया इफ़्तिख़ार के सिरहाने जल रही थी। वो खांसी में बेचैन थी मगर उसकी निगाह बेटी के चेहरे पर थी और उस निगाह में इज़हार-ए-मजबूरी-व-लाचारी के सिवा उम्र-ए-गुज़शता की पूरी दास्तान थी। वो आँखें जो इस बे-कसी के आलम में अपनी गुज़शता ख़िदमात अपना इश्क़-व-फ़रेफ़्तगी जता कर सिर्फ़ चावलों के एक निवाला की ख़्वास्तगार थीं, अभी ज़बान से कुछ कहने ना पाई थीं कि हमेशा के लिए सो गईं।

    इफ़्तिख़ार का अंजाम माओं के वास्ते दर्स-ए-इबरत है। फ़िर्दोसी के इश्क़ में इरशाद के हुक़ूक़ का पामाल करना आसान था और वो यक़ीनन उस सुलूक की सज़ावार थी, मगर बदनसीब फ़िर्दोसी जिसने इफ़्तिख़ार जैसी आशिक़ ज़ार माँ की ये गति बनाई, क़ुदरत की ज़बरदस्त ताक़त से उस वक़्त आगाह हुई कि अभी वो खड़ी माँ का चेहरा देख रही थी कि ये आवाज़ उसके कान में पहुंची,

    “ग़ज़ब हूवा, दूल्हा मोटर से गिर पड़ा और मग़ज़ फट गया।”

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