जानी मियाँ
स्टोरीलाइन
इस कहानी के तीन मुख्य किरदार हैं। रीवा, जब्बार और जानी मियाँ। तीनों की अलग-अलग कहानी है। रीवा तवाएफ़ है, जानी मियाँ उसका चाहने वाला है और जब्बार जानी मियाँ का दोस्त है। लेकिन तीनों ही खु़फ़िया विभाग से जुड़े हुए हैं और राजस्थान के इर्द-गिर्द पनप आए अफ़ीम के एक सिंडिकेट को पकड़ने के मिशन पर निकले हुए हैं।
ये कहानी तीन आदमी सुना रहे हैं। एक तो मैं हूँ रावी, अलग थलग रह के क़िस्सा सुनाने वाला। मैं कहानी में चलता फिरता नज़र नहीं आऊँगा। दूसरा ज़व्वार है। ये सुलतान भाई की गोल पेठे वाली दुकान, ग्वालियर साइकिल मार्ट पर नौकर है। उनका अस्सिटेंट समझ लो। तीसरा जानी मियाँ का चमचा वहीद है। ये उनका रखवाला है। इसे जानने के लिए जानी मियाँ को समझना ज़रूरी है। जानी मियाँ रामपुर के ज़मींदार हैं। चालीस के क़रीब उनकी उम्र होगी, मगर हाथ पैर बेचारे के क़ाबू में नहीं और दिमाग़ ऐसा है जैसे छोटे बच्चे का। वहीद चमचे के साथ वो कई बरस से गोल पेठे आ रहे हैं क्योंकि यहीं कहीं आगे पीला हाऊस के पास या फ़ारस रोड की किसी बिल्डिंग में रीटा बाई का कोठा है। जानी मियाँ उस रीटा बाई पे आशिक़ हैं। साल में तीन चार बार अपनी अम्माँ जानी से सैंकड़ों बल्कि शायद हज़ारों रुपये लेकर बंबई आते हैं और रीटा पे निछावर करके अपने रखवाले का हाथ पकड़ गाड़ी चढ़ जाते हैं। दोबारा आने के लिए रामपुर चले जाते हैं। सुलतान भाई से कहीं उन लोगों की जान पहचान हो गई थी। इसलिए बंबई में ये दुकान, ग्वालियार साइकिल मार्ट, जानी मियाँ और वहीद चमचे का पहला अड्डा बनती है।
रावी,
तो एक रोज़ गोल पेठे के मैन बाज़ार में, ग्वालियार साइकल मार्ट के आगे फिर टैक्सी रुकी और दोनों एक एक थैला उठाए उतर पड़े। वहीद ने टैक्सी वाले को पैसे थमाए और जानी मियाँ का हाथ पकड़ दुकान की तरफ़ चला। दुकान को पहचान के जानी मियाँ किलकारियाँ मारने लगे।
नए रुम पर तानें कसते हूई एक फ़ज़ूल से लौंडे ने उन्हें देखा और ठठ्ठा मार के दूसरे फ़ज़ूल से लौंडे से कहा, “ले बे! फिर आ गए दोनों।”
दूसरे ने काम से सर उठा के देखा और पेट पकड़ के हंसना शुरू कर दिया। “अबे शौकत! अबे ओ शौकत! अबे आ के देख। ये सुलतान भाई के रंडी बाज़ फिर आ गए।”
दुकान मिनट भर में जैसे तलपट हो गई। अंदर स्टोर से और बराबर की गली से थड़े के साथ क़तार दर क़तार सजी किराए की चमचमाती साइकलों के दरमियान से उठ उठ के, अपने काम रोक के, तरह तरह के मददगार लड़के और मिस्त्री और पंक्चर जोड़ने वाले, मुस्कुराते, दाँत दिखा दिखा के हंसते हुए, ठठ्ठा लगाते हुए आए और उन्हें घेर के खड़े हो गए।
एक पुराना मिस्त्री बहुत से नए टायरों को दोनों बाज़ुओं में पहने बराबर वाली दुकान से निकला। उसने लड़कों को भीड़ लगाते देख के डाँटा, “चलो बे, क्या भीड़ लगा रखी है? काम के टैम काए को उधम कर रहे हो?” फिर जब लड़के मुंतशिर हुए तो पुराने मिस्त्री ने जानी मियाँ और उनके चमचे को साइकिल मार्ट के बीचों बीच स्टूलों पर टिके, अपने थैले गोदों में रखे चुपचाप दीदे घुमाते देखा तो लड़कों के जोश-व-ख़रोश की असल वजह समझ के उस की झोंझल ख़त्म हो गई। वो मुस्कुरा दिया और जानी मियाँ की तरफ़ देख के बोला, “अच्छा! ये आया है। तो फिर आ गया बे घोंचू...?” जभी तो कहूं ये लमडे काए को भीड़ लगाए खड़े हैं। फिर वो ख़ुश दिली से हँसता हुआ स्टोर में चला गया।
लड़कों में से वो जिस ने सब से पहले उन्हें देखा था और दूसरों को उनके आने की ख़बर दी थी, उठा और मुस्कुराता हुआ पास आ खड़ा हुआ। वो भी असल तवज्जे जानी मियाँ को दे रहा था। उसने उनकी गोद में रखे बैग का तस्मा पकड़ के खींचा, “हए हए! आशिक़ जानी! क्या क्या ले आए अपने माशूक़ के लिए, हमें तो दिखाओ।”
जानी मियाँ ने बैग अपनी तरफ़ खींचा और छोटे बच्चे की झुंझलाई हुई चिनचिनी आवाज़ में कहा, अरे ए... नईं कज़ो ओ” उनके चेहरे पर सताए जाने की उलझन और बेबसी थी। वहीद चमचे ने लड़के का हाथ तस्मे से हटा दिया और कहा, मत सताओ उन्हें। मैं सुलतान भाई से शिकायत कर दूंगा।
धमकी कारगर हुई, फिर भी लड़के ने लोफ़रपन से कहा, “चल बे... सुलतान भाई से शिकयत करेगा। साले बोंगे! कह के तो देख। भूल गया पिछली दफे का?”
दूसरे लड़के और मिस्त्री पिछली बार का क़िस्सा याद करके हँसने लगे।
ज़व्वार जो हमेशा का भलामानस था और हंस नहीं रहा था, सबको घूर के देखने लगा। वहीद चमचे ने उसी से पूछा, “काँ गए हैं सुलतान भाई? कुछ पता है?”
ज़व्वार संजीदगी से बोला, “बल्टी छुड़ाने गए हैं। देर से आएँगे।”
“कितनी देर से?”
दूसरे सब काम में मसरूफ़ हो चुके थे। ज़व्वार मिस्त्री ने कनखियों से क़रीब के लड़कों को पड़ताला, उन्हें मुतवज्जे न पाकर धीरे से बोला, “देर लग जाएगी। खाना खा लिया तुम लोग ने?”
जानी मियाँ जो बड़ी तवज्जे से ज़व्वार की बातें सुन रहे थे और उसकी सूरत तके जा रहे थे, कुंद ज़हनी से मुस्कुराए और ऊंची आवाज़ में ख़ुश होके बोले, “नहीं खाया खाना... बोहोत भूंक लग रई है।”
ज़व्वार ने हाथ का काम छोड़ दिया। उठा और अपनी पतलून की सीट पे दोनों हाथ साफ़ किए। उसी तरह संजीदगी से बोला, “जोज़िफ के स्टाल पर चलो तुम दोनों। मैं उधर ही आता हूँ।”
जानी मियाँ ने हलक़ से ख़ुशी की आवाज़ निकाली और बैग फ़र्श पर रख के उठ खड़े हुए, डगमगाते हुए चले दुकान के बाहर। ज़व्वार जो अब फिर उसी पतलून पर हाथों का गुरेज़ साफ़ कर रहा था, आहिस्ता से कहने लगा, “थैला छोड़ के मत जाओ... वापस आओगे तो इस में कुछ नहीं मिलेगा।”
वहीद चमचे ने जानी मियाँ का बैग भी उठा लिया। दोनों साइकल मार्ट से निकल कर जोज़िफ के स्टाल की तरफ़ चल पड़े। जानी मियाँ वहीद की बांह पकड़े ना-हमवार क़दमों से जा रहे थे, ज़व्वार धीरे धीरे चलता हुआ उनसे पहले पहुँच गया।
जोज़िफ का स्टाल सड़क के किनारे रेल की पुरानी पटरियों पर टिका हुआ लक्कड़ी की केबिन में था। केबिन में एक आदमी के खड़े होने की जगह थी और वो एक आदमी अंदर मौजूद था। उसने सब सौदा सलफ़ तीन रुखों पे लगे तख़्तों पर सजा रखा था। केबिन में दो समोवार और बिस्कुटों, पेस्ट्रियों, क्रीम रोलों से भरा, शीशे लगा नेअमतख़ाना था। दस बारह आदमी चीनी की मोटी उथली प्यालियों में ख़ूब गहिरी चाय पी रहे थे। जानी मियाँ को देख के अंदर खड़ा आदमी “वेल वेल” कह के हंसा। उसके सामने के दोनों नुकीले दाँतों पर सोने का ख़ौल चढ़ा था। किसी भी तरह से तौहीन न करते हुए वो जानी मियाँ को “डीम ब्लॉडी” कर करके ख़ुश आमदीद कह रहा था। वहीद या ज़व्वार को देखे बगै़र वो जानी मियाँ में मसरूफ़ हो गया। “कम आन ज्वानी! प्रिंस रैमपोरी! साला इतना दिन किदर रिया तुम?आशिक़ी करने अपना ग्रेटा गार्बो के पास काईको नहीं आया?”
जानी मियाँ फूल की तरह खिल उठे। “जोसफ भाई! बोहोत भूंक लग रई है।”
जोज़िफ ठठ्ठा मार के बोला, “आई नो, आई नो... ओ के, साला जोनी प्रिंस! मैं तेरे को अबी मस़्का पाँव देता है। सब्र करो।”
जानी मियाँ ने तालियाँ बजाते होई वहीद और ज़व्वार को बारी बारी मश्वरा दिया, “सब्ज़ करो... सब्ज़ करो।” फिर वो नदीदेपन से जोज़फ़ के दूसरे ग्राहकों को बिस्कुट पेस्ट्री खाते चाय पीते देखने लगे।
जोज़फ़ ने बन बराबर छोटी डबल रोटियों पर अपनी चौड़ी पितरे जैसी छुरी से नमकीन पीले मक्खन की एक टिकिया लगाई। बंबई की ज़बाँ में ये मस्का पाँव था जिसे उसने दो निस्फ़ दायरों में काट के एक एक पेस्ट्री के साथ ताम चीनी की प्लेटों में रख के उन दो की तरफ़ सरका दिया और मशीनी अंदाज़ में कहा, “दो फ़ुल मस़्का पांव, दो पेस्ट्री, दो डबल चाय, पाउली कम दो रुपया...” यानी एक रुपये बारह आने। वहीद ने पैसे निकालने को जेब में हाथ डाला तो ज़व्वार बोला, “रुक जाओ, रहने दो। पैसे मैं दूँगा।”
जानी मियाँ ने अपना मस़्का पांव मुँह की तरफ़ बढ़ाया और ज़व्वार की बातें सुनके रुक गए। तोते की तरह उसकी बात दोहराने लगे, “ज़ुक जाओ, ज़ैने दो, पैसे मैं दूंगा... ज़ुक जाओ, ज़ैने दो, पैसे... ज़ुक जाओ ज़ैने दो” फिर जब वहीद ने उनका कंधा थपक दिया तो मस़्का पांव मुँह में ठूंस के उन्होंने बे-तर्तीबी से मुँह चलाने शुरू कर दिया।
नाशता करके दोनों साइकल मार्ट में वापस आ गए। ज़्यादा तर मिस्त्री और लड़के इधर उधर बैठे खा पी रहे थे। दोनों फिर दरमियान में पड़े स्टूलों पर जा टिके और गोदों में बैग रख के हवन्नकों की तरह उन मुस्कुराते हुए लड़कों मिस्त्रियों को देखने लगे। लड़के ख़ामोशी से आपस में इशारे कर रहे थे और बे आवाज़ हंस रहे थे। कुछ ही देर बाद उनकी ख़ामोशी की वजह समझ में आ गई। सुलतान भाई आ गए थे। वो स्टोर में थे। बाहर आए तो उन दोनों को दुकान में देख के बोले, “अरे शहज़ादे! कब आए?”
जानी मियां सुलतान भाई को देख, किलकारी मार के बोले, “हूँ ऊँ...! अभी आए...बोहोत भूंक लग ज़ई थी। जोसफ भाई ने पेस्टी खिलाई चाय पिलाई।”
सुलतान भाई जानी मियाँ की तरफ़ लाड से देख रहे थे। धीरे से बोले, “अच्छा? वावा!” वहीद से पूछने लगे, “सीधे स्टेशन से आ रहे हो?”
वहीद चमचे ने कहा, “हाँ।”
“घर क्यों नहीं चले गए? खाना खा के शाम तक वहीं लेटते बैठते।”
जानी मियाँ बोल पड़े, “घर नहीं गए। बोहोत भूंक लग ज़ई थी। पेस्टी खाई चाय पी।”
सुलतान भाई प्यार से बोले, “हाँ? और कुछ खाओगे?”
“हाँ आँ” जानी ने हलक़ से ख़ुशी की कोई आवाज़ निकाली जिससे सामने काम करता बैठा एक लड़का जो देर से हंसी रोकने की कोशिश कर रहा था “फप फू!” करके हंसी में फट पड़ा।
सुलतान भाई के चेहरे की नर्मी पलक झपकते में ग़ायब हो गई। उन्होंने हाथ में उठाया हुआ स्क्रू ड्राईवर खींच के लड़के को मारा तो ठक की आवाज़ के साथ उसका हैंडल लड़के के घुटने पर लगा। लड़का चीख़ा। सुलतान भाई ने उसे बहुत भारी गाली दी। लड़का बिसुरता, लंगड़ाता हुआ दुकान से बाहर चला गया।
जानी मियाँ लड़के की चीख़ और गाली सुन के ख़ुद बिसूरने लगे थे। वहीद ने तसल्ली देते हुए उनके शाने पे हाथ रख दिया। जानी मियाँ ठीक हो गए।
सुलतान भाई चोर से बन गए। उनका मूड बिगड़ा हुआ देख के सब मिस्त्री मददगार अपना अपना काम सँभाल दुकान से निकल गए। कुछ किराए वाली साइकलों के पास जा खड़े हुए और बिला ज़रूरत कपड़ा मारने लगे। कुछ ने बीड़ी सुलगाई। का वक़्त अभी ख़त्म नहीं हुआ था।
सुलतान भाई ने जेब से चाबियों का गुच्छा निकाला, तिजोरी खोली, पाँच पाँच रुपये के नोट निकाल के चमचे की तरफ़ बढ़ा दिए। “लो वहीद! जानी मियाँ को घर ले जाओ। टैक्सी पकड़ लेना। रस्ते में करीम सूरती के होटल से चिकन रोस ले लेना। बोलना सलाद भी दे। दही भी लेते जाना।”
वहीद पैसे नहीं ले रहा था। बोला, “ हैं मेरे पास।” , “ जानी मियाँ की वालिदा ने बारह सौ रुपये दिए हैं इस दफे।” बारह सौ उस ज़माने में बहुत बड़ी रक़म थी।
सुलतान भाई ने वहीद का कंधा थपका। “वो सँभाल के रखो। जाओ... इन्हें हाथ पकड़ के सड़क पार कराना।”
वहीद ने कहा, “अच्छा” और सुलतान भाई के दिए हुए पैसे जेब में डाल, जानी मियाँ के पंजे में पंजा फंसा, दुकान से उतर गया।
ज़व्वार,
सुलतान भाई को पूरे इलाक़े में उनके नर्म और सख़्त मिज़ाज की वजह से और कारोबार में ईमानदारी और पैसे की वजह से पसंद किया जाता था। उन्हें इस वजह से भी पसंद किया जाता था कि वो शराब, सिगरेट और फ़ारस रोड की औरतों से दूर रहते थे। सुलतान भाई जुमेरात की जुमेरात कव़्वाली सुनने सोनापुर के क़ब्रिस्तान ज़रूर जाते थे और वो भारी भारी गालियाँ दे कर मारधाड़ करके अपने सब मिस्त्रियों और लड़कों को टाइट रखते थे। उन्हें फ़ारस रोड और उससे निकलने वाली गलियों की तरफ़ देखने भी नहीं देते थे। कहते थे इन बातों से बीमारियाँ होंगी और रोज़गार में नहूसत फैलेगी और कहते थे, “रोज़ी, भय्या, सब से बड़ी चीज़ है। ख़िलाफ़वर्ज़ी करने वाले को सुलतान दो बार धमकी देते थे। तीसरी बार की रिपोर्ट पे बेद ले के जम के उसकी ठुकाई करते और हिसाब साफ़ करके सामान उसका सड़क पे फेंकवा देते और बस, हाथ झाड़ लेते।
मगर ये जानी मियाँ तो रामपुर से आते ही थे गाना वाना सुनने को। वो और उनका चमचा रीटा बाई के कोठे पे एक दो रोज़ पड़े रहते, फिर जाने से पहले सुलतान भाई किसी जुमेरात को सोनापुर में उनके साथ कव़्वाली सुनते और बॉम्बे वी.टी के स्टेशन पर ले जा के रामपुर का टिकट दिला देते और उन्हें गाड़ी पर चढ़ा देते।
तीन चार बरस से ऐसा ही चल रहा था।
इस दफे जो जानी मियाँ आए तो सुलतान भाई की चाली के नए फ़्लैटों में पानी का कोई मसला था, इसलिए उन्होंने मुझे भेजा कि जाओ कुछ करो। मैंने उनके नौकर और फ़्लैटों के चौकीदार को बालटियाँ देकर बराबर वाली बिल्डिंग में भेजा, पानी मंगाया, किसलिए कि शाम को जानी मियाँ नहाएँगे, धोएँगे, गाना सुनने जाएँगे। खाने के बाद सुलतान भाई ने फिर मुझे भेजा कि टैक्सी ला दूँ। टैक्सी आ गई तो जानी मियाँ को सवार कराते होई वहीद को समझाने लगे कि “रात में जब भी मियाँ घर आने को कहें टैक्सी कर लेना। पैदल मत लाना। तुम्हें पता है, फ़ारस रोड के फ़लाँ नुक्कड़ पर रात भर टैक्सी मिलती है। टैक्सी वाले को चार आने ज़्यादा देना, वो आगे बढ़ के बिल्डिंग के चौकीदार को उठा देगा। जब तक तुम लोग गाड़ी में ही बैठना। उतरना मत और भी पता नहीं क्या क्या... ” हालांकि सुलतान भाई जानते थे कि जानी मियाँ सुब्ह से पहले रीटा का ठिकाना नहीं छोड़ेंगे।
रावी,
रीटा बाई वाली बिल्डिंग के सामने दोनों टैक्सी से उतर गए। वहीद चमचे ने टैक्सी को फ़ारिग़ कर दिया। इन गलियों में सलाखों वाले शोकेस या पिंजरे नहीं थे जो उस पाड़े की पहचान हैं। फ़्लैटों पर टिक्की हुई बेस्वाएँ यहाँ ज़रा रख रखाव से कारोबार करती थीं। पिंजरों में खड़ी मुर्ग़ियों, बतखों की तरह वो ख़ुद किटकिटाती चीख़ती नहीं थीं। उनकी जगह ऊंची आवाज़ में यहाँ रेडियो सैलून बजाया जाता था। चाबी वाले ग्रामोफोन बाजों पर सज्जो बाई बड़ोदकर, कालू क़व्वाल मेरठ वाले और कमला झरिया के रिकॉर्ड लगाए जाते थे। कहीं “रोज़नदारी” साज़िंदे अपने साज़ों को ठोंक बजा के ग्राहकों को मुतवज्जे करते और इस तरह अपनी दिहाड़ी पक्की करते थे।
रीटा बाई वाली बिल्डिंग के नीचे पहुंचे तो वहीद ने सुना पहले माले के फ़्लैट में गीत बज रही थी। वहाँ मुजरा शुरू था। शायद शोशो नाच रही थी। रीटा भी नाच के शायक़ीन के लिए रोज़नदारी पर शोशो ही को बुलवाती थी। नाचने के नाम पर वो जो कुछ करती थी उससे ग्राहकों की तसल्ली हो जाती होगी, जभी तो वो डेढ़ दो साल से इमरजैंसी डांसर के तौर पर कोठों पे बुलवाई जाती और सारे साल मस्रूफ़ रहती थी। कोठों पर शोशो डांसर की तरह रोज़नदारी म्यूज़ीशियन भी बुलाए जाते थे जो अपना “काम बजा के” , पैसे ले के चले जाते थे। ये बड़े फ़ित्ना-अंग़ेज़, फ़िक़रे बाज़ क़िस्म के लोग होते थे। ख़ुद को ये मिरासी या मीरासी कहते थे। साज़ बजाना चाहे जानते न हों, फुलका उड़ाना ख़ूब जानते थे। रीटा बाई का कोठा इन साज़िंदों के लिए जैसे घर आंगन था। कहीं काम न मिलता तो वैसे ही आ के रीटा की बैठक में पड़े साज़ों की सर्विसिंग करके चले जाते।
अगर रीटा बाई या कोई मेहमान आर्टिस्ट गाने का इशारा देती तो ये साज़िंदे वाइलन सारंगी के तार मिला के, तब्लों के लंगर लंगोट कस के, हारमोनियमों की सांसें संवार के अपनी अपनी जगह सँभाल लेते, वर्ना ग्राहकों के इंतिज़ार में बीड़ियाँ पीते, ग़ीबत करते और उस वक़्त तक आपस में छेड़छाड़ करते रहते कि जब तक सीढ़ियों पे तमाशबीनों के क़दमों की चाप न सुनाई दे। गाहक के आते ही वो सारंगियों पर गज़ फेरने लगते, तब्ले खड़काना शुरू कर देते और धुंकनियाँ धोंक धोंक के हारमोनियमों की चाबियों पर उंगलियाँ दौड़ाते जैसे बस रीटा बाई के इशारे की देर है।
रीटा बाई की तरह ये साज़िंदे भी सीढ़ियां चढ़ के आने वाले नए मुलाक़ातियों को पहले तीन चार मिनट में जान लेते थे कि क्या हैं। गाने की समझ रखने वाला तो ख़ैर यहाँ क्या आता होगा। ज़्यादा तर तो फ़िल्मी गानों के रसिया आते थे। साज़िंदे फ़ौरन समझ लेते थे कि फ़िल्मी गाने चलेंगे, ग़ज़ल सुनी जाएगी, राग रागिनियों की फ़रमाइश होगी या कुछ नहीं चलेगा क्योंकि ये गाहक एक दम ऊपर के माले का है। कुछ देर यहाँ झक मार के ऊपर वाले माले की सीढ़ियाँ चढ़ जाएगा और वहां झक मारेगा।
रोज़नदारी साज़िंदे बैठक में होते तो अपनी कोड ज़बान में बात करते थे। जैसे ही कोई नया पंछी बैठक में दाख़िल होता ये एक दूसरे को सिगनल दे के धीमी आवाज़ में जैसे उसका इस्तक़बाल करते। अगर कोई ख़ूब पिए हुए लड़खड़ाता चला आ रहा है तो एक साज़िंदा दूसरे को ख़बरदार करता, “ले बे सँभाल! ये तैरता हुआ आ रहा है।” दूसरा सर हिलाते हुए इत्तिफ़ाक़ करता कि “हाँ भई अब तो वही चलेगी कि जालिम सराब है अबे जालिम सराब है।” ग़ज़लों की फ़रमाइश करने वाले उनके कोड में चिपकू, जोंक या “साहिब-ए-जोंक” कहलाते थे और बहुत पुराने गीतों के शाइक़ “सरोता कहाँ भोलियाए ग्रुप।” कभी साज़िंदों का अंदाज़ा ग़लत भी हो जाता था यानी कोई देखे से ग़ज़ल सुनने वाला लगता मगर आते ही सरौता कहाँ भूलयाए टाइप गाने की फ़रमाइश कर देता तो साज़िंदे आपस में बड़े ख़फ़ीफ़ होते थे। इनमें से कोई भन्ना के सर खुजाते होई पास वाले से कह देता देखा? साले ने कैसा दायाँ दिखा के बायाँ मारा है। “ बराबर वाला आगही में सर हिलाता, ज़माने का शिकवा करता कि “हाँ भाई! ईमानदारी तो जैसे उठती जा रही है...कोठों से।”
जानी मियाँ और वहीद एक दूसरे का हाथ थामे रीटा बाई की बैठक में दाख़िल हुए तो बिलोचन तबलिए ने तब्ले पे हाथ मार के नारा सर किया, “जानी! आओ मेरे जानी!” और बैठक से आवाज़ों की ऐसी भिन भिनाहट उठी जैसे एक फ़ायर पे भरे खलियान से सौ चिड़ियाँ भर्रा मार के उठती हैं। फिर इस आवाज़ पे तब्ले की चाल ग़ालिब आ गई। बिलोचन ने अपनी जोड़ी पे ततत था, ततत था, ततत था, तिरी गतत था निकाल के जानी मियाँ का इस्तक़बाल बजाया।
जानी मियाँ मुँह खोल के हंसे और ख़ुशी से उमंग के आवाज़ दी, “है ऐ ऐ री ता!”
रीटा बाई फूलों के गहने पहने तकिए से टीकी बैठी छोटी सी एक डिबिया के शीशे में अपने दाँतों की मिस्सी चेक कर रही थी और इस कोशिश में अपने ख़ूबसूरत दहाने को तोड़-मोड़ रही थी। उसने बिलोचन का नारा सुनके शीशा सामने से हटा के देखा कि जानी मियाँ अपने चमरौधे जूतों समेत फ़र्शी नशिस्त पर चढ़े चले आते हैं तो फ़िलहाल उसने दरगुज़र किया और लोफ़र मर्दों की तरह सीने पे हाथ मार के बोली, “हाय जानी! तू आ गया मेरे माशूक़?” फिर वो अपने सर-व-क़द से उठी और पाज़ेब बजाती जानी मियाँ की तरफ़ चली। बिलोचन ने बजाया: नादिर धिन ना, नादिर धिन ना, नादिर धिन ना। रीटा ने क़दम बदला। तिरी कट धिन न। बिलोचन इस चाल की संगत में था, उसने सच्ची ताल दी। रीटा ने उसे देख के एक बार तारीफ़ में सर ख़म किया। बिलोचन दाद वसूल करते हुए जोड़ी पे एक दम झुक गया। रीटा बढ़ गई। उसका शाहाना ख़िराम पस्त दर्जे के इस तमाम छिछोरे बाज़ारी गर्द-ओ-पेश में यूँ लगता था जैसे बुलबुले उठाती कीचड़ पे ज़र-ए-ख़ालिस की छूट पड़ती हो, जानी मियाँ ने अपनी रेशमी कुरते की जेब में हाथ डाला, ऊबड़ खाबड़ पंजे में दबोचे हुए पाँच रुपये वाले छः आठ नोट निकाले और जब रीटा बाई तंवलकर का शमशाद क़द मियाँ के आगे सलाम को झुका तो उन्होंने हलक़ से बे-इंतिहा मसर्रत की आवाज़ें निकालते और अपने कुरते पे तक़रीबन राल गिराते होई मुठ्ठी को चार छः बार रीटा के सर के गिर्द घुमाया, फिर सारे नोट बराबर में बैठे जगन हारमोनियम वाले को पकड़ा दिए।
रीटा ने कनखियों से देखा और “हराम के!” कहते हुए जगन हारमोनियम वाले के पंजे में आए मुड़े तुड़े नोटों पे झपटा मारा, फिर हंसते और जानी मियाँ को आदाब करते हुए वो सब उसने अपने ब्लाउज़ के गिरेबान में ठूंस लिये। जगन के सिवा तमाम साज़िंदों और पड़ोस की आई हुई नायिका ने मसर्रत का नारा बुलंद किया। “है ऐ शाबास!”
बिलोचन तबलिए ने सलामी बजाई। जानी मियाँ उस ताल पर अपने बेडौल सरापे को गर्दिश देते हुए उठे ही थे कि रीटा ने शानों पे हाथ रख के वज़न डालते हुए उन्हें बिठा दिया। फिर उसने बराबर में उदास बैठे अपने बूढ़े सारंगिए की तरफ़ हाथ बढ़ाया। “ददा फ़ेजू! एक इकन्नी देना।” फ़ेजू ने उसी उदासी से अपनी क़मीस की जेब में हाथ डाला, रेज़गारी निकाली, एक इकन्नी मुंतख़ब की और रीटा को पकड़ा दी।
रीटा जानी मियाँ पे झुकी तो फूलों में गुँधी उसकी चोटी मियाँ के चेहरे से आ लगी। उन्होंने बड़ी पुर शोर छींक मारी और नायिका हंस के बोली, “है शाबास!”
रीटा ने हंसते हंसते मांगे की वो इकन्नी मियाँ के सरके गिर्द तीन बार घुमाई और जगन हारमोनियम वाले की गोद में डाल दी। जगन ने बुरा सा मुँह बना के चुटकी से वो इकन्नी उठाई, जैसे सिक्का न हो मुर्दा कीड़ा हो और “आ आ आ इ इ इ” के साथ लैकारी करते और पेटी के “ऊपरले” नोट पे उंगली टिका के, गायकों की तरह हाथ चलाते हुए उसे खिड़की से बाहर उछाल दिया।
बूढ़ी नायिका ने एक बार और “है शाब्बास!” कहा।
जानी मियाँ ताली बजाने लगे। अब सीढ़ियों पे लोगों के चढ़ने की आहट सुनाई दी। सब संजीदा हो गए। रीटा के इशारे पर जगन हारमोनियम वाला उठा। उसने अपना भद्दा हाथ बढ़ा के जानी मियाँ को बांह से पकड़ के उठाना चाहा। मियाँ ने एहतिजाज की तेज़ आवाज़ निकाली “नाईं! नहीं कज़ो!” जगन ने मज़बूत गिरफ़्त में उनकी बांह को झटका दिया। रीटा ने समझाने की आवाज़ में मगर गुस्से से आँखें दिखा के कहा, “जाओ। उधर जा के बैठो। चलो।”
जानी मियाँ मान गए। वहीद चमचे ने जगन के हाथ से मियाँ की बांह छुड़ाई और जहाँ दीवार के साथ बैठने को कहा गया था मियाँ को उधर ले चला। वो अभी तक जूते पहने हुए थे। रीटा ने खुरदुरी, बे मुरव्वत आवाज़ में वहीद से कहा, “जूते उतार उसके और उसे समझा के रख। बोल ख़ामोश बैठने का है... मैमान आरए हैं।”
जानी मियाँ ने हाँ में सर हिलाया और धीरे से रीटा की बात दोहराई, “मैमान आ रए हैं... मैमान आ रए हैं।”
बैठक पे तमाशबीन चढ़ आए थे। जगन ने हारमोनियम खींच के गति बजानी शुरू कर दी। बिलोचन तबलिया, जो कोई तबलची मीरासी नहीं ज़ाति का धोबी था और इसीलिए बिलोचन (ब्लीचिंग पाउडर) के नाम से मशहूर था, एक दम जोश-व-ख़रोश से संगत करने लगा।
काम का वक़्त शुरू हो गया था।
रीटा का गाना शुरू हुआ तो जानी मियाँ ने वही सब किया जो दूसरे तमाशबीन कर रहे थे। वो ख़ुश हो हो के ताली बजाते, जब जी चाहता जेब से नोट निकाल के रीटा बाई को पेश कर देते। फिर वो दीवार से टेक लगा के बैठे बैठे सो गए तो किसी छिछोरी नोची ने, जो उन्हें पहली बार देख रही थी, खूंटी पे टंगी गोटा लगी पिशवाज़ उतार मियाँ पर टाँग दी। उनका छोटा सा घूंघट भी निकाल दिया। तमाशबीनों में से एक, जो नोची को बराबर घूरे जा रहा था, ज़ोर से क़हक़हा मार के हंसा। वहीद ने जानी मियाँ के ऊपर से पिशवाज़ हटा ली। उस वक़्त वो नींद में आसूदा बच्चे की तरह मुस्कुराए थे। ये देख के बाक़ी के तीन तमाशबीन भी हंस पड़े। ददा फ़ेजू ने उदासी से और रीटा ने ख़ंजर आँखों से बे-ढब ठिठोल करने वाली नोची को देखा। वो समझ गई कि इस बे-ज़ाब्तगी पर बाद में रीटा उसे गालियाँ सुनाएगी। हो सकता है कि दो एक हाथ भी जड़ दे।
बारह बजे तक...जो तमाश बीनी का सरकारी वक़्त था...ये आवन जावन लगी रही। बारह के बाद इलाक़े के थाने वालों ने कुछ देर और सिर्फ़ इमरजैंसी केसों को कुछ ले लिवा के कोठों की सीढ़ियाँ चढ़ने दीं। फिर ये सिलसिला भी ख़त्म हुआ। एक-एक, दो-दो करके कोठों की रोशनियाँ बुझने लगीं। साज़ों की आवाज़ें ख़त्म हुईं। ऊपरले माले तक इंतिहाई हंगामी ज़रूरत में जाने वाले भी इक्का-दुक्का रह गए। फिर पुलिसियों ने ख़्वाह मख़्वाह मंडलाने वालों को गालियाँ देना, बेद मारना और सीटियाँ बजा-बजा के इलाक़े से निकालना शुरू कर दिया। एक बजे तक सब जा चुके थे।
रीटा तनोलकर ने सीढ़ियों पर जा के क़ुफ़ल डाल दिया। उसने बैठक के क़ालीन पर लांड्री की ताज़ा धुली चादर फैला दी। तब कहीं आबकारी महकमे के इन्वेस्टीगेटिंग एजेंट को, जिसका असल नाम आई.बी.झा था, उसने अपनी सह माही रिपोर्ट लिखानी शुरू की।
वो जो जानी मियाँ बना हुआ था, अपना स्वांग भुला के गाव तकिए पे सर रखे बे आरामी में भी बे-ख़बर सो गया।
जानी मियाँ का चमचा वहीद,
आपको अभी अभी मालूम हुआ होगा कि मेरा नाम आई.बी.झा है और मैं सरकारी आदमी हूँ।
क़िस्सा ये था कि राजस्थान और सेंट्रल इंडिया की सरहदी बेल्ट पर बहुत सी जगह चोरी छिपे अफ़ीम की पैदावार शुरू हो गई थी। वो सीधी बंबई लाई जाती थी, आगे पहुंचाने के लिए।
यूपी के तयशुदा ओपियम कल्टीवेषन के बेहतरीन इलाक़ों से भी किसी क़िस्म की एंट्री, इंदिराज के बिना चोरी की अफ़ीम इधर बॉम्बे आने लगी तब सेंट्रल गर्वनमेंट को फ़िक्र हुई। आबकारी पुलिस की नाकामी के बाद मुआमला ऊपर तक पहुँच गया तो सेंटर से मुझे इन्वेस्टीगेटिंग एजेंट मुक़र्रर किया गया।
रीटा तनोलकर को चार बरस पहले ऊपर वालों ने भर्ती किया था। बड़ी एफ़ीशेंट और दिलेर औरत थी। वैसे मुझे उसकी बैग ग्रांऊड नहीं मालूम। मुझसे तो बस ये कहा गया था कि इस इस तरह करके मैं गोल पेठा बंबई के इलाक़े में सुलतान भाई की दुकान को अपना लॉंचिंग पैड बनाऊँ और हर तीन चार महीने पीछे रीटा से रिपोर्ट ले ले के एडवाइस करता रहूँ।
मैं ख़ुद हैरान हुआ था कि जानी मियाँ कैरेक्टर का और एक प्रोफ़ैशनल ऐक्टर को हाएर करने का ख़याल सेंट्रल गर्वनमेंट को आया कैसे, मगर उस वक़्त एक गोरा (आयरलैंड वाला) हमारा बॉस था। सुना है आयरिश लोगों को ड्रामा और अदाकारी का बड़ा शौक़ होता है।
ख़ैर, उस नौटंकी टाइप काम से आख़िर आख़िर मैंने समझौता कर लिया। फिर सुलतान भाई ने (जिसे ख़बर नहीं इस प्लान की कितनी जानकारी थी, या बिल्कुल नहीं थी)बहुत कोऑपरेट किया और मेरा काम चल पड़ा।
इस दौरान में बहुत से लोग पकड़े गए। समझो तो हमने पूरा नेटवर्क अफ़्यून ट्रैफ़िक का तोड़ के रख दिया।
बंबई की ये मेरी आख़िरी विज़िट थी। मुझे तीन महीने की रिपोर्ट लेना थी कि कितने गधे पकड़े गए (अपने सामान में या बदन पर छुपा के अफ़ीम ले जाने वाले गधे कहलाते हैं)। तो कितने गधे, रीटा और सुलतान भाई स्ट्रेजी से इस मुद्दत में अरेस्ट हुई ये रिपोर्ट ले के मुझे बॉम्बे को गुडबाय कहना था।
एक रात और जानी मियाँ को रीटा बाई के कोठे पे गुज़ारनी थी। फिर अपना तान तंबूरा लपेट के हमें बंबई छोड़ देनी थी। इन दोस्तों, रीटा, जोज़फ़, सुलतान भाई और ज़व्वार से ये हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी।
गवालियार साइकिल मार्ट से सुलतान भाई के घर पहुंचे थे तो हमने टेलीफ़ोन घुमाने शुरू किए थे। रीटा बाई को फ़ोन किया था। सब से पहले तो उसे मालूम होना चाहिए कि जानी मियाँ और उनका चमचा बंबई आ गए हैं।
रीटा सो रही थी। उ सकी गुजराती नौकरानी से मैंने कह दिया कि “ऐ सुनो! बाई सो के उठे तो उसे जरूर जरूर बोल देना की भोला भाई जौहरी का फोन आया था। बाई जरूर जरूर मेरे को दुकान पर फोन कर लेवी।”
नौजवानी में ए आई आर पे ये सब ड्रामे बहुत किए थे मैं ने, तो वो चस्का तो था ही। रीटा की नौकरानी को भोला भाई जौहरी की तरफ़ से छोटे-मोटे गिफ्ट, लिविंग, छल्ला, लॉकेट मिलते रहते थे। वो जौहरी नाम सुन के “हाहा भाई...! है भला, है भला” करती रही। रीटा के उठते ही पहली ख़बर वो यही सुनाएगी कि भोला भाई का फोन आया था। ये इस बात का सिगनल था कि जानी मियाँ बंबई आ गए हैं। आज रात में किसी वक़्त रीटा की बैठक पे पहुंच जाएँगे।
पर्सनली मैं उस औरत से बड़ा इम्प्रेस हुआ हूँ। कभी वक़्त मिला तो उसे, रीटा बाई तनोलकर को, उसकी लाईफ़ को इनवेस्टीगेट ज़रूर करूंगा।
किसी अनोखे सिस्टम के हिसाब से रीटा बाई नाकाम एक्टरों, जुवारियों और स्मगलरों के गदहों में बहुत पापूलर थी। तमाशबीनों की ये तीन क़िस्में सारे साल रीटा के फ़्लैट की सीढ़ियाँ चढ़ती उतरती रहती थीं। नाकाम एक्टरों वाली बात समझ में आती थी, क्योंकि मशहूर था कि रीटा ख़ुद अपने वक़्त की बड़ी मशहूर नाकाम ऐक्ट्रेस थी। फिल्मों में चांस, शौहरत और बड़ी बड़ी रकमों के ख़्वाब देखने वाले एक्टरों को कहीं से पैसे हाथ आ जाते तो वो इस मशहूर नाकाम ऐक्ट्रैस रीटा के पास ज़रूर आते थे। ऐसे केसों को ये बहुत महारत से हैंडल करती थी। उनसे कहती थी कि ख़ुद उसे फिल्मों में नाकाम होना ही था क्योंकि उस में वो बात नहीं है जो किसी उठने वाली ऐक्ट्रैस या ऐक्टर में होनी चाहिए। रीटा उस तमाशबीन नाकाम ऐक्टर में वो बात ढूंढ के बता देती कि ये देखो, तुम को तो जीतना ही जीतना है, ज़्यादा दिन मार नहीं खा सकते। फिर वो ऐक्टर रीटा की सीढ़ियाँ उतर के नए वलवले से फ़िल्म स्टूडियो के रस्तों पर जूतियाँ चटख़ाने, ख्वार होने को चल पड़ता और बाद में भी बार बार आता।
जुवारियों के साथ रीटा अपना गुड लक वाला खेल खेलती थी। कहती थी मैं इस पाड़े की सबसे लकी लड़की हूँ। परसों तंबोले मैं सवा सौ रुपये जीते। दो महीने पहले मेरे नाम पाँच हज़ार की लॉटरी खुली थी। इससे मैं ने अंधेरी में एक प्लाट ख़रीद लिया है। अब संडे को रेस खेलूँगी। देखना जीतूँगी ज़रूर।
स्मगलरों के गदहों को रीटा शक भी नहीं होने देती थी कि वो उन्हें पहचान गई है। उन्हें वो बंबई के बड़े शानदार धंदे बाज़ों, स्मगलरों के कड़की के दिनों का हाल सुनाती थी। फिर उनका मुक़ाबला अपने उस फ़र्ज़ी ठेकेदार से करती थी जिसने उसे ये फ़्लैट ख़रीद के दिया था और जो हराम का जना रीटा की आमदनी का अस्सी परसेंट खींच के ले जाता है। मैं तो उधर की उधर ही हूँ। उसने देखो, वर्ली में फिर एक बिल्डिंग ख़रीद ली है, मेरी कमाई से। स्मगलर के गधे में ख़ुद इसी के लिए रहम जगाने के बाद रीटा उसे और नहीं छेड़ती थी। वो दूसरे तीसरे फिर आता और शराब के नशे में, या वैसे ही अपने दिल की कड़वाहट में, बीच के बड़े आदमी को, जिसका सिर्फ़ नाम गधे ने सुन रखा होता, ख़ूब गालियाँ देता। रीटा भी अपने फ़र्ज़ी ठेकेदार को गालियाँ देती, कोसती और इस तरह ये बात पक्की हो जाती कि ये आदमी फ़लाँ स्मगलर का गधा है। ज़रा टाइम दे के पहले बीच के बड़े आदमी को, फिर गधे को पक्के सबूत शहादतों के साथ उठा लिया जाता। अक्सर तो गधे को शुबहा भी न होता कि जो दो चार साल के लिए वो अंदर हो गया है तो ये ख़ुद उसकी अपनी बकबक की वजह से हुआ है।
इस तरह बीच के आदमियों और गदहों की सप्लाई क़रीब-क़रीब बंद हो गई है।
इसका क्रेडिट रीटा... साइकिल मार्ट... जानी मियाँ प्राजेक्ट को जाता था।
ख़ैर। हमने प्रॉजेक्ट वाइंड अप किया। वो ऐक्टर जो जानी मियाँ का रोल करता रहा था, बॉम्बे छोड़ते हुए एक दम सेंटीमेंटल हो गया। कहने लगा, “मैं सुलतान भाई से मिले बिना बंबई नहीं छोड़ूँगा। वो ग्रेट आदमी है। उसको थैंक्स ज़रूर बोलने का है।” फिर बोला कि जोज़फ़ और ज़व्वार को भी मिलूँगा। मैं ने समझाया भी कि मिस्टर! चैप्टर क्लोज़ करो। रात गई बात गई। मगर वो सर हो गया कि नहीं झा साहब! प्लीज़! फ़ार गाडज़ सेक। तो हमने सुलतान भाई के घर से अपने बैग उठाए और नॉर्मल कपड़ों में हम ग्वालियार साइकिल मार्ट पहुंच गए। ऐक्टर ने रामपुरी ज़मींदारों के कुरते वास्कट की बजाय सफ़ेद शर्ट और सुरज की काली पेंट पहनी हुई थी, टाई भी खींच ली थी उसने। मैंने भी वहीद चमचे का कुरता पैजामा लपेट के बैग में डाल दिया था। मैं बस कोट पैंट में था।
हम टैक्सी से उतरे तो जानी मियाँ खेलने वाले ऐक्टर के हाथ में दोनों बैग थे। उसने जेब से वालेट निकाल के टैक्सी का किराया दिया और जमे हुए क़दमों से साइकिल मार्ट की सीढ़ियाँ चढ़के वो मेरे पीछे आ खड़ा हुआ। ताज़ा शेव बनाए, क्लोन लगाए, वो वही नज़र आ रहा था जो वो था: प्रोफ़ेशनल ऐक्टर और मज़े का आदमी।
सुलतान भाई, ज़व्वार और दो लड़के उस वक़्त दुकान में मौजूद थे। वो सभी ऐक्टर को आँखें फाड़े देख रहे थे।
हैरत उनकी नेचुरल थी। वो जानी मियाँ के हमशक्ल एक दुनियादार को देख रहे थे जो वकील, डाक्टर, इंजीनियर...कुछ भी हो सकता था। लड़खड़ाता, राल गिराता, कमज़ोर दिमाग़ बच्चे की तरह एक ही बात दोहराता वो क़ाबिल-ए-रहम मिडिल उजड्ड आदमी कहीं नहीं था जिसे इतने बरस से वो जानते थे।
मैंने और उसने...जानी मियाँ ने...हाथ बढ़ा के सुलतान भाई से शेक हैंड किया। हम हल्के से हंसे भी।
सुलतान भाई की समझ में अभी तक कुछ नहीं आया था। वो हकला रहे थे, “आप? तुम लोग...? मतलब तुम वहीद होना? और ये...”
मैं ने कहा, “हाँ सुलतान भाई! मैं वहीद था... अब नहीं हूँ। आई.बी.झा मेरा नाम है। आइए... अंदर चलते हैं। यहाँ लड़के भीड़ लगा रहे हैं।”
“नहीं ठीक है” , सुलतान भाई उलझ के बोले, “बात समझाओ मुझे।”
मैं समझ गया। उन्हें ओरिजनल प्लान की जानकारी नहीं थी।
इसलिए डीटेल में जाए बिना मैंने उन्हें बताया कि हम रीटा के साथ किस मिशन पे थे। “और सुलतान भाई, आपने न जानते हुए भी अपने दिल की नेकी में साथ दिया है हमारा। गर्वनमेंट का हाथ बटाया है। ये एक तरह से बहुत बड़ी पब्लिक सर्विस है आपकी। सुलतान भाई! यू आर ग्रेट।”
वो स्टूल पे टिक गए। एक एक बार हम दोनों को देखा। मुस्कुराए। बोले, “तो तुम गधे पकड़ने आए थे?”
मैंने हाँ में सर हिलाया। वो बोले, “भय्या! सब से पहला गधा तो तुमने यही पकड़ा, सुलतान भाई?”
वो जो जानी मियाँ बनता था, हंसा। सुलतान भाई ने उसकी तरफ़ देखा भी नहीं। मुझे घूरते रहे। मैंने समझाना शुरू किया कि रीटा की जान को ख़तरा था इसलिए कि वो अफ़ीम वाले लोग बड़े पावरफुल हैं। वो कोठों पे आते जातों पर बराबर नज़र रखे हुए थे। हमारे बॉस का एडवाइस ये था कि एजेंट को रीटा के पास भेजो तो वो चोरी छूट नहीं जाए। जलूस बना के घुसे, उजागर में, क्योंकि जलूस का कोई नोटिस नहीं लेता। हहा हाहा! जैसे ट्रॉय शहर के लोग लकड़ी के जासूसी घोड़े का जलूस बाजे गाजे के संग ख़ुद अपने शहर में ले गए थे... तो इस तरह...”
जो जानी मियाँ बनता था बराबर सुलतान भाई को तके जा रहा था। ख़ैर नहीं उसने क्या देखा कि जो लाया था जल्दी से वो गिफ्ट पैक उसने बढ़ा दिया। बोला, “सुलतान भाई! सर! ये हाथी दांत का घोड़ा लाया हूँ। उन दिनों की याद में की जब...”
सुलतान भाई ने उसके हाथ पे हाथ मारा। पैकेट गिर गया। वो फंसी हुई आवाज़ में बोले, “मादर खोदो! ये घोड़ा उठाओ और दो मिनट में गोल पेठे से निकल जाओ और अगर देरी की तो उलट के हम ये घोड़ा तुम्हारी पतलून में डाल देंगे। चिलोत... तुम्हारी!” और ये कहते हुए वो स्टोर में चले गए।
हम ने ज़व्वार की तरफ़ देखा। उसने सामने पड़ा पाइप पाना उठा लिया था।
हम दोनों जल्दी में साइकिल मार्ट की सीढ़ियाँ उतर गए।
पता नहीं कैसे लोग हैं बंबई के!
ज़व्वार,
वो दोनों दुकान से उतर गए, नहीं तो ज़रूर कोई रफड़ा बन जाता। अलल्ला जानता है सुलतान भाई तो फिर टाइम लेते, मेरा दिल ये करता था कि उन हरामी सरकारी आदमियों पर पाना ले के पिल पड़ूँ।
उन सालों को कुछ पता ही नहीं... मालूम है सुलतान भाई इशटोर में घुसे थे तो रोते हुए घुसे थे। आज तक, अल्लाह जानता है, किसी ने उन्हें ऐसी पोजीशन में नहीं देखा।
मेरे को पिछला सब पता है।
सुलतान भाई से पाँच छः बरस छोटा एक भाई था, कमज़ोर दिमाग़ का... जान मोहम्मद... सब जानो जानो कहते थे। यही सुलतान भाई उसको लिये लिये फिरते थे सब जगे। अपने हाथ से खाना खिलाते थे। नौ दस बरस का हो के वो जान मोहम्मद मर गया तो बाप को, सौतेली माँ को छोड़ छाड़ ये बंबई आ गए। फिर नहीं गए। चोरी छिपे याद भी करते थे उस जान मोहम्मद को। जब से ये हरामी लोग ने आना जाना शुरू किया था, ख़ुश रहने लगे थे सुलतान भाई।
उन्हें सरकारी आदमियों को तो कुछ पता ही नहीं है सालों को।
अच्छा है टाइम से निकल गए, नहीं रफड़ा बन जाता।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.