जैनी
हवाई जहाज़ पर सवार होते वक़्त मुझे कुछ शुबा हुआ। नीले लिबास वाले लड़की से पूछा तो उसने भी इस्बात में सर हिलाया, जब हम जहाज़ से उतरे तो मुझे यक़ीन हो गया और मैंने पाइप पीते ऑक्सफ़ोर्ड लहजे में अंग्रेज़ी बोलते हुए पायलट को दबोच लिया। हम मुद्दतों के बाद मिले थे। कॉलेज में देर तक इकट्ठे रहे। कुछ अर्से तक ख़त-व-किताबत भी रही। फिर एक दूसरे के लिए मादूम हो गए। इतने दिनों के बाद और इतनी दूर अचानक मुलाक़ात बड़ी अजीब सी मालूम हो रही थी।
तय हुआ कि ये शाम किसी अच्छी जगह गुज़ारी जाए और बीते दिनों की याद में जश्न मनाया जाए। मैंने अपना सफ़र एक रोज़ के लिए मुल्तवी कर दिया।
जब बातें हो रही थीं तो मैंने देखा कि वो काफ़ी हद तक बदल चुका था। मोटापे ने उसके तीखे ख़द-व-ख़ाल को बदल दिया था। उसकी आँखों का वो तजस्सुस, निगाहों की वो बे-चैनी, वो ज़हीन गुफ़्तगू सब मफ़क़ूद हो चुके थे। वो आमियाना सी गुफ़्तुगू कर रहा था। यूँ मालूम होता था जैसे वो अपनी ज़िंदगी और माहौल से इस क़दर मुतमईन है कि उसने सोचना बिल्कुल तर्क कर दिया है। देर तक हम पुरानी बातें दोहराते रहे। सह-पहर को वो मुझे एक ऐंग्लो इंडियन लड़की के हाँ ले गया जिसे वो शाम को मदऊ करना चाहता था। लड़की ने बताया कि शाम का वक़्त वो गिर्जे के लिए वक़्फ़ कर चुकी है। हम एक और लड़की के हाँ गए। उस ने भी माज़रत चाही क्यूँकि उसकी तबीयत नासाज़ थी। फिर तीसरी के घर पहुँचे। अगर्चे दूसरे कमरे से खूशबूएँ भी आ रही थीं और कभी कभार आहट भी सुनाई दे जाती थी लेकिन दरवाज़ा नहीं खुला। वो एक और शनासा लड़की के हाँ जाना चाहता था लेकिन मैंने मना कर दिया था कि कोई ज़रूरत नहीं और फिर अगर कोई और साथ हुआ तो अच्छी तरह बातें न कर सकेंगे। वापस आ कर उसने टेलीफ़ोन पर कोशिश की। चौथी लड़की घर पहुँच चुकी थी लेकिन शाम को उसकी अम्मी उसे नानी जान के हाँ ले जा रही थी।
शाम हुई तो हम वहाँ के सब से बड़े होटल में गए। रक़्स का प्रोग्राम भी था। उसने पीना भी शुरू कर दिया। मेरे लिए भी उंडेली और इसरार करने लगा। ये उसकी पुरानी आदत थी।
मैंने गिलास उठा कर होंटों से छुआ, कुछ देर गिलास से खेलता रहा फिर टहलता टहलता दरीचे तक गया। एक बड़े से गमले में उंडेल कर वापस आ गया उसने दूसरी मर्तबा उंडेली मुझे भी दी मैं फिर उठा और अपना हिस्सा खिड़की से बाहर फेंक आया।
वो अपनी रोज़ाना ज़िंदगी की बातें सुना रहा था। कंपनी की लड़कियों के मुतअल्लिक़ जो निहायत तोता चश्म थीं। शराब के मुतअल्लिक़ जो दिन ब-दिन महंगी होती जा रही थी। अपने मआशक़ों के मुतअल्लिक़ जो उसे बे-हद परेशान रखते थे। उसकी बीवी भी उसी शहर में रहती थी लेकिन वो उसे महीनों न मिलता। जब कभी भूले से घर जाता तो इतने सवाल पूछती कि आजिज़ आ जाता। इतना नहीं समझती कि एक हवा बाज़ की ज़िंदगी किस क़द्र ख़तरनाक ज़िंदगी है। अगर्चे ये उसने ख़ुद मुंतख़ब की थी।
ये बातें हो रही थीं कि दफ़्फ़अतन हमने उस लड़की को रक़्स गाह में देखा जिसे उस वक़्त गिर्जे में होना चाहिए था। वो एक लड़के के साथ आई हुई थी। उसके बाद वो लड़की आ गई जिस की तबीयत नासाज़ थी फिर मालूम हुआ कि चौथी लड़की भी हमारे सामने रक़्स कर रही है अपनी अम्मी या नानी जान के साथ नहीं, एक दूसरे हवाबाज़ के साथ।
वो अपनी क़िस्मत को कोसने लगा। न जाने ये लड़कीयाँ हमेशा उसी को क्यूँ धोका देती हैं।हमेशा टर्ख़ा देती हैं। आज तक किसी लड़की ने उसे दिल से नहीं चाहा। ये उसकी ज़िंदगी की सब से बड़ी ट्रेजडी है। वो गिलास पर गिलास ख़ाली किए जा रहा था। मेरे हिस्से की सारी शराब गमलों और पौदों को सैराब कर रही थी। उसे हैरत थी कि मुझ जैसा लड़का जो कॉलेज के दिनों में बाक़ायदा सिगरेट भी न पीता था अब ऐसा शराबी हो गया कि इतनी पी चुकने के बाद भी होश में है। उसके ख़याल में ऐसे शख़्स को पिलाना क़ीमती शराब का सत्यानास करना था।
फिर इन अजनबी चेहरों में एक जाना पहचाना मानूस चेहरा दिखाई दिया। ये जेनी थी। जो रक़्स का लिबास पहने एक अधेड़ उम्र के शख़्स के साथ अभी अभी आई थी। हम दोनों उठे। हमें देख कर जेनी का मुस्कुराता हुआ चेहरा खिल गया। वो बड़े तपाक से मिली। तआरुफ़ हुआ मेरे ख़ावंद से मिलिए और ये दोनों मेरे पुराने दोस्त हैं
मैंने हाथ मिलाते वक़्त उसके ख़ावंद को मुबारकबाद दया और कहा कि वो दुनिया का सब से ख़ुशनसीब इंसान है।
मैंने उसे ग़ौर से देखा वो चालीस से ऊपर का होगा। अच्छा ख़ासा सियाह रंग, धुंदली थकी थकी आँखें, बेहद मामूली शक्ल, पस्ता क़द। अगर वो जेनी का ख़ावंद न होता तो शायद हम उसकी तरफ़ दूसरी मर्तबा न देखते लेकिन जेनी की मुस्कुराती हुई आँखें उसके सिवा और किसी की तरफ़ देखती ही न थीं। वो उसकी तारीफ़ें कर रही थी कि वो क़रीब की बंदरगाह का सब से बड़ा बैरिस्टर है। इस इलाक़े में सब से मशहूर शख़्स है। मैंने जेनी को रक़्स के लिए कहा। उसने आँखों आँखों अपने ख़ावंद से इजाज़त ली। रक़्स करते हुए मैंने महसूस किया कि वो बेहद मसरूर है। इस क़दर मसरूर शायद मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा और उसके चेहरे की चमक दमक वैसी ही है। उसके होंटों की वो दिल-आवेज़ और मख़्मूर मुस्कुराहट जूँ की तूँ है। वो मुस्कुराहट जो इस क़दर मशहूर थी जिसे मोनालिज़ा की मुस्कुराहट से तशबीह दी जाती थी निहायत पुर-इसरार और ना-फ़हम मुस्कुराहट, जिस की गहराइयों का किसी को इल्म न हो सका। जो हमेशा राज़ रही।
और यही मुस्कुराहट मैंने सालहा साल से देखी थी। इस मुस्कुराहट से मैं मुद्दतों से शनासा रहा। जेनी के ख़ावंद के दोस्त आ गए और मक़ामी बातें होने लगीं। कुछ देर के बाद मैं और मेरा दोस्त उठ कर वापस अपनी जगह चले आए, जहाँ बोतल उसकी मुंतज़िर थी।
मैंने उस से जेनी के मुतअल्लिक़ बातें करना चाहीं लेकिन उसने जैसे सुना ही नहीं। वो उन तीन लड़कियों के लिए उदास था जो उसे धोका दे कर दूसरों के साथ चली आईं। आज ये पहली मर्तबा ऐसा नहीं हुआ, पहले भी कई बार हो चुका था और ये लड़कियाँ अजनबी नहीं थीं, पुरानी दोस्त थीं उसके साथ बाहर जा चुकी थीं। उस से बेशक़ीमत तहाएफ़ ले चुकी थीं। दर-अस्ल अब ऐसी ठोकरें उसे हर तरफ़ से लग रही थीं, रेस, बुरज, सट्टा, हर जगह वो हार रहा था। एक अदना फ़िल्म कंपनी की एक्स्ट्रा लड़की जिस के लिए उसने समुंद्र के किनारे मकान लिया, उसे छोड़कर किसी बूढ़े सेठ के साथ चली गई और में दज़-दीदा निगाहों से उस तरफ़ देख रहा था जहाँ जेनी थी। वफ़ूर-ए-मसर्रत से उसका चेहरा जगमगा रहा था। उसकी आँखें रौशन थीं। वही आँखें जो कभी ग़मगीं और नमनाक रहा करतीं, अब मसरूर थीं। रुख़्सार जिन पर मुद्दतों आँसुओं कि की लड़ियाँ टूट कर बिखरती रहीं, अब ताबाँ थे। वो खुली हुई मुस्कुराहट शाहिद थी कि दिल से उस शदीद अलम का एहसास जा चुका है जो जेनी की क़िस्मत बन चुका था। इस ख़ुशी में अब ग़म की रमक़ तक नहीं दिखाई देती थी।
लेकिन इतनी ज़ाएद मसर्रत कैसी थी? ये इंबिसात कैसा था? और इस पुर-इसरार मुस्कुराहट के पीछे क्या था? मैं सिर्फ़ उसके चेहरे को देख सकता था। उसकी रूह बहुत दूर थी। वहाँ तक मेरी निगाहें नहीं पहुंच सकती थीं। क्या वहाँ कोई अज़ीम तूफ़ान बपा था? अज़ीअत कुन, कर्ब नाक शदीद तलातुम? या जलते हुए शोलों की तपिश ने बहुत कुछ भस्म कर दिया था? या वहाँ सब कुछ यख़ हो चुका था? बर्फ़ के तोदों के सिवा कुछ भी न रहा था? इस का जवाब मैंने उसकी मुस्कुराहट से मांगा।
वो लगातार अपने ख़ावंद के साथ रक़्स करती रही। उसकी आँखों में आँखें डाल कर कई मर्तबा वो बिल्कुल क़रीब से गुज़रे। उसने मेरी तरफ़ देखा और मुस्कुराई फिर जैसे वो मुस्कुराहट फैलती चली गई। उसने माज़ी और हाल की हदों को मुहीत कर लिया। वो सब तस्वीरें सामने आने लगीं जो ज़हन के तारीक गोशों में मदफ़ून थीं।
मैंने बरसों पहले अपने आप को यूनीवर्सिटी के मुबाहसे में देखा। मेरे साथ मेरा पुराना दोस्त रफ़ीक़ और हम जमाअत भी था। वो इन दिनों बेहतरीन मुक़र्रिर था। स्टेज पर हमेशा फ़ातेह की तरह जाता और फ़ातेह की तरह लौटता। उसकी तक़रीर ख़त्म हुई तो एक लड़की स्टेज पर आई। घुंघरियाले बाल, झुकी हुई आँखें, लबों पर महज़ूब मुस्कुराहट, मिला जुला अंग्रेज़ी लिबास पहने।
हाल में सरगोशियाँ होने लगीं, हमें बताया गया कि ये नई नई कहीं से आई है। इस का नाम कुछ और है लेकिन उसे लैला कहते हैं। शायद उसकी मलीह रंगत और घुंघरियाली परेशान ज़ुल्फ़ों की वजह से। कुछ देर वो शरमाती रही, बोल ही न सकी, फिर ज़रा संभल कर उसने जी बी की तक़रीर की मुख़ालिफ़त शुरू की ऐसे ऐसे नुक्ते लाई कि सब हैरान रह गए। जी बी की तक़रीर बिल्कुल बे-मानी मालूम होने लगी।
जब वो स्टेज से उतरी तो देर तक तालियाँ बजती रहीं। फिर मालूम हुआ कि पहला इनाम जे बी और उस लड़की में तक़सीम किया जाएगा लेकिन जी बी ने जजों से दरख़्वास्त की कि इनाम की वही हक़दार है और उसी को मिलना चाहिए। जे बी के रवैय्ये को सराहा गया। हुजूम में हैजान फैल गया। मुद्दतों के बाद एक लड़की पहला इनाम जीत रही थी, वो भी ऐसी लड़की जो बिल्कुल नौ वारिद थी।
जब लैला स्टेज पर चांदी का बड़ा सा वज़नी कप लेने आई तो उसकी परेशान ज़ुल्फ़ें और परेशान हो गईं। निगाहें झुक गईं। जब उस से इतना बड़ा कप न संभाला गया, तो जी बी ने लपक कर चूबी हिस्सा ख़ुद उठा लिया। लैला ने जी बी को झुकी हुई निगाहों से एक मर्तबा देखा।
इस भोली भाली अल्हड़ लड़की से हमारा तआरुफ़ यूँ हुआ। इसके बाद मुलाक़ातों का तांता बंध गया। जी बी कॉलेज का हीरो था। लड़कों और उस्तादों में हर दिल अज़ीज़। कॉलेज में सब से ज़हीन, चुस्त, हंसमुख और ख़ुशपोशाक। बड़े अमीर वालदैन का इकलौता बेटा। उसकी कार प्रोफ़ैसरों की कारों से भी बढ़िया थी। जहाँ भी अदबी तक़रीब होती मुझे और बी जी को मदऊ किया जाता। हमारे कहने पर लैला को भी बुलाया जाता लैला के ख़द-व-ख़ाल हसीन नहीं थे। अगर उसे ऩाक़िदाना तौर से देखा जाता तो वो हसीन हरगिज़ नहीं थी लेकिन अगर हसीन ख़द-व-ख़ाल के बगै़र भी कोई ख़ूबसूरत हो सकता है तो वो लैला थी। उसकी लहराती हुई ज़ुल्फ़ें, झुकी हुई शर्मीली आँखें, मुस्कुराते हुए नन्हे होंट, मलीह चम्पई रंगत और निहायत मासूम बातें सब मिल कर निराली जाज़िबिय्यत पैदा कर देते। बअज़ औक़ात तो वो बेहद प्यारी मालूम होती।
वो होस्टल में रहती थी, सब से अलग थलग। कभी हमने उसे किसी के साथ नहीं देखा। उसके वालदैन के मुतअल्लिक़ तरह तरह की अफ़्वाहें सुनने में आतीं। उनके ख़ानदान में अंग्रेज़ी और पुर्तगाली ख़ून की आमेज़िश थी। उसकी वालिदा जुनूबी हिंदोस्तान की थी। इस लिए न उनका कोई ख़ास मज़हब था न कोई नस्ल। लैला का नाम भी अजीब था, उसका लिबास भी मिला जुला होता वो अपने वालदैन के ज़िक्र से एहतिराज़ करती। ये मशहूर था कि उनकी ख़ानगी ज़िंदगी निहायत ना-ख़ुशगवार है। वो हमेशा जुदा रहते हैं एक दफ़ा उनका तनाज़ा अदालत तक भी पहुँच चुका है।
फिर किसी ने यूँ ही कह दिया कि लैला जी बी की तरफ़ देखती रहती है। ये अफ़्वाह बनी, फिर आम हो गई। हर जगह उस नए मआशक़े पर तबसरे होने लगे। सब ने देखा कि लैला के दिल का राज़ अयाँ हो चुका था। वो बी जी को चाहती है। तरह तरह के बहानों से वो उसे मिलती। जाने पहचाने रास्तों से ऐसे गुज़रती कि बी जी नज़र आ जाता। बी जी को देख कर उसे दुनिया भर की नेअमतें मिल जातीं। ये नौ ज़ाइदा मोहब्बत उसकी ज़िंदगी में तरह तरह की तबदीलियाँ ले आई। वो मसरूर रहने लगी। अदबी सरगर्मियों में नुमायाँ हिस्सा लेने लगी। उसका अजनबी लहजा दुरुस्त होता गया। उसकी गुफ़्तगु में मिठास आ गई।
लेकिन जी बी कुछ इतना मुतअस्सिर नहीं हुआ। उसके लिए ये कोई नई बात नहीं थी। कितनी ही मर्तबा उसे मोहब्बत ख़राज के तौर मिली थी।
वो लैला से मिलता, उसे मिलने के मौक़ा देता, ख़ूब बातें करता। बड़ी शोख़ और चंचल क़िस्म की गुफ़्तुगू, जिस का वो आदी था।
चाँदनी रात में दूर एक बाग़ में तक़रीब हुई। लड़कियों के साथ लैला भी आई। जी बी हमारे साथ नहीं आया, मालूम हुआ कि वो एक अंग्रेज़ लड़की को लेकर आएगा जिस का शहर भर में चर्चा था। जो नौजवानों की गुफ़्तगु का महबूब तरीन मौज़ू थी। ये उसकी नई महबूबा थी।
जी बी देर में पहुँचा, कार से वो अकेला उतरा। वो लड़की उसके साथ नहीं थी, वो मायूस और खोया सा था और फ़ौरन वापस जाना चाहता था लेकिन उसे इजाज़त न मिली, वो तो ऐसी महफ़िलों की जान था। जब वो अपना ग़ज़ल सुना रहा था तो लैला उसे ऐसी नज़रों से देख रही थी जैसे आइने में ख़ुद अपना अक्स देख रही हो। जैसे ख़ुद अपनी रूह को किसी और रूप में देख रही हो। जी बी ने ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो ग़म आमेज़ अशआर सुनाए जिन में शिकवे थे, इल्तिजा थी और वो अशआर किसी ख़ास हस्ती के लिए थे जो वहाँ नहीं थी।
लैला ने कई मरतबा उस से बातें करने की कोशिश की लेकिन वो बदस्तूर ख़ामोश रहा। मैंने उसे टोका, एक तरफ़ ले जा कर डाँटा भी लेकिन वो जैसे वो वहाँ था ही नहीं। हम दोनों अकेले खड़े थे कि लैला आ गई। जी बी कुछ देर उसकी तरफ़ यूंही देखता रहा फिर उसका हाथ पकड़ा और एक ऊंचे सर्व के पीछे ले गया। वो मबहूत बनी चुपचाप चली गई। जी बी ने उसे बाज़ुओं में लेकर चूम लिया। पहले बोसे से वो काँप उठी। अनजानी लज़्ज़त से मग़्लूब हो कर उसने आँखें बंद कर लीं और जी बी के सीने पर सर लगा दिया। वो उसे फीके होंटों से चूमता रहा ऐसे अलफ़ाज़ उसके लबों से निकलते रहे जो लैला के लिए नहीं किसी और के लिए थे। उसके बाज़ुओं में लैला नहीं थी, कोई और बेवफ़ा हसीना थी जिस के लिए वो बेताब था।
लैला शिद्दत-ए-एहसास से आँखें बंद किए ख़ामोश खड़ी रही, वो जी बी और उसके बोसों की दुनिया से दूर निकल गई। वो शेर-व-नग़्मे की वादीयों में जा पहुँची जहाँ उसके सहमे हुए ख़्वाबों की ताबीरें आबाद थीं, जहाँ फ़िज़ाओं में उसकी मासूम उमंगें तहलील हो चुकी थीं, जहाँ कैफ़-व-ख़ुमार छाए हुए थे जहाँ सिर्फ़ रानाइयाँ थीं और मोहब्बत पाशियाँ!
इसके बाद लैला की नई ज़िंदगी शुरू हुई। उसकी दुनिया में हर चीज़ पर नया निखार आ गया जो पहले महज़ तख़य्युल था, वो तख़्लीक़ हो गया। गुंचे चटके, ख़ुशइलहान तेवर चहचहाने लगे। रंग बिरंग फूलों की ख़ुशबूओं ने हवाएँ बोझल कर दीं। ज़मीन से आसमान तक क़ौस-व-क़ज़ह के रंग मचलने लगे, हर शय का ख़्वाबीदा हुस्न जाग उठा और इसके बाद न दुनिया रही और न ज़िंदगी महज़ ख़्वाब तख़य्युल और हक़ीक़त की हदों पर छा गया।
बहुत देर के बाद लैला इस ख़्वाब से चौंकी।दफ़्फ़अतन उस पर इस भयानक हक़ीक़त का इन्किशाफ़ हुआ कि वो जी बी के लिए महज़ एक खिलौना थी। जी बी को उस से मोहब्बत नहीं थी और वो जी बी के लिए उन मुतअद्दिद लड़कीयों में से एक थी जो उसका तआक़ुब करती थीं और बगै़र किसी सिले के उसे चाहती थीं।
जब बात बहुत मशहूर हुई तो जी बी कतराने लगा। उसने तक़रीबों में आना बंद कर दिया। लैला को देख कर कार तेज़ कर देता। उसकी तरफ़ से मुँह फेर लेता।
अपनी पहली मोहब्बत की शिकस्त पर लैला को यक़ीन न आया। उसके वहम-व-गुमान में भी न था कि यूँ भी हो सकता है। इस सदमे को उसने अपनी रूह की गहराइयों में छिपा लिया लेकिन उसकी मोहब्बत जूँ की तूँ रही। वो उस से मिलने के बहाने तलाश करती। उसे ख़त लिखती, तहाएफ़ भेजती।
एक रोज़ सब ने लैला के ख़ुतूत को नोटिस बोर्ड पर देखा। ये वो मुहब्बत भरे ख़ुतूत थे जो उसने जी बी को लिखे। बहुत से लड़के ये ख़ुतूत देखने गए मैं भी गया। सब ने मज़े ले लेकर ख़ुतूत को पढ़ा, दिलचस्प फ़िक़रे नक़्ल किए। ख़ूब हंसे भी।
बाद में जब मुझे कुछ ख़याल आया तो मैंने जी बी को बुरा भला कहा, उसे ये हरकत हरगिज़ नहीं करनी चाहिए थी। वो कहने लगा कि लैला ने उसे इस क़दर बदनाम कर दिया है कि अब वो उसके नाम से नफ़रत करता है। वो उस से मिलता ज़रूर रहा है लेकिन किसे इल्म था कि मामूली सा मज़ाक़ ऐसी शक्ल इख़्तियार कर लेगा और वो मुफ़्त में बदनाम हो जाएगा। महज़ लैला की वजह से बक़िया लड़कीयाँ उस से दूर दूर रहने लगी हैं। वो समझती हैं कि पहल बी जी की तरफ़ से हुई थी।
जी बी मेरा गहरा दोस्त था। हम दोनों हमउमर थे, हमारे ख़यालात एक से थे। में ख़ामोश हो गया। देर तक ख़ुतूत का चर्चा रहा। लैला कई हफ़्ते कॉलेज में नहीं आई। तन्हा गोशों में बैठ कर रोया करती। उसने किसी से शिकायत नहीं की। जो कुछ उसे कहा गया उसने ख़ामोशी से बर्दाश्त किया।
जी बी ने लैला की सहेलियों की मिन्नतें कीं कि उसे समझाएँ कि किसी तरह उसे दूर रक्खें। उस ने उन रास्तों से गुज़रना छोड़ दिया जहाँ लैला के नज़र आने का एहतिमाल होता। अपने कमरे की वो खिड़कियाँ मुक़फ़्फ़ल कर दीं जो सड़क की तरफ़ खुलती थीं जिन की तरफ़ से लैला गुज़रते हुए उसे देख लिया करती। एक दिन मुझे तरस आ गया। मैं जी बी से ख़ूब लड़ा कि जहाँ हम इतनी लड़कियों से मिलते रहते हैं वहाँ कभी कभी लैला से मिल लेने में क्या हर्ज है। वो कहने लगा। तुम्हें मासूमियत और सादगी पसंद है मुझे नहीं। मुझे ना पुख़्ता और अल्हड़ लड़कीयाँ अच्छी नहीं लगतीं। ज़रा ज़रा सी बात पर आँसू निकल आते हैं। ख़ुश हुईं तो रोने लगीं। ग़मगीं हुईं तो आँसू बहने लगे। दुनिया की किसी चीज़ का भी उन्हें इल्म नहीं। हर चीज़ ख़ुद बतानी पड़ती है और मेरे पास इतना वक़्त नहीं मुझे तजर्बाकार और खेली हुई लड़कियाँ ज़्यादा पसंद हैं।
जी बी के इस रवैय्ये का असर ये हुआ कि लैला उस से डरने लगी। वो उसे दूर दूर से देखती। कहीं आमना सामना होता तो वो कतरा जाती। दूसरों से जी बी के मुतअल्लिक़ पूछती रही। कई मर्तबा मैंने ख़ुद उसे जी बी के बारे में बातें बताईं। उसकी तस्वीरें भी दीं जिस पर वो मुझ से ख़फ़ा हो गया। फिर जी बी को कुछ अर्से के लिए अपनी तालीम छोड़ देनी पड़ी। उसके कुछ रिश्तेदार दूसरे मुल्क में बहुत बड़े तिज्जार थे। इसी सिलसिले में जी बी के वालिद उसे बाहर भेजना चाहते थे और उनके लिए तालीम इतनी अहम न थी। हम दोनों को एक दूसरे से बिछड़ने का बहुत अफ़सोस हुआ। एक शाम हम उदास बैठे थे कि मैंने उसे लैला से आख़िरी मर्तबा मिलने को कहा। उस ने इनकार कर दिया। जब मैंने पुरानी दोस्ती का वास्ता दिया तो वो राज़ी हो गया। मैंने लैला को बताया तो उसे यक़ीन न आया। उसने आँसू ख़ुश्क किए, अपना बेहतरीन लिबास पहना। सहेलियों से मांग कर ज़ेवर पहने। उनके मश्वरे से सिंगार किया। अपने चेहरे पर मुस्कुराहट और दिल में आरज़ुएँ लिए अपने महबूब से मिलने गई। उस रात बी जी पिए हुए था। बाद में उसने बताया कि उसने महज़ इस मुलाक़ात की वजह से पी थी ताकि वो लैला से प्यार भरी बातें कर सके।
उसने लैला से बहुत सी बातें कीं। उसे हमेशा मसरूर रहने को कहा। जल्द लौटने के वअदे किए। लैला को एक बार फिर उस फ़िरदौस-ए-गुमशुदा की झलक दिखाई दी जिसे मोहब्बत के पहले बोसे ने तख़्लीक़ किया था। लैला ने इक़रार किया कि वो हमेशा ख़ुश रहेगी और उसका इंतिज़ार करेगी। अगर उसकी वजह से जी बी को कोई तकलीफ़ पहुँची हो तो वो सज़ा की तालिब है। अगर जी बी हुक्म दे तो वो कहीं दूर चली जाए। अगर वो चाहे तो लैला मर जाए। जुदा होते वक़्त उसने अपना रूमाल जी बी को निशानी के तौर पर दिया। ये रूमाल जी बी ने मुझे दे दिया। कहने लगा शायद तुम्हारे पास महफ़ूज़ रहे वर्ना मैं तो इसे कहीं इधर उधर फेंक दूंगा। रूमाल से भीनी भीनी ख़ुशबू आ रही थी। एक कोने में सुर्ख़ धागे से नन्हा सा दिल बना हुआ था जिसे लैला ने ख़ुद काढ़ा था।
जी बी के चले जाने पर लैला ज़रा भी ग़मगीं न हुई। उसके वादों को दिल से लगाए इंतिज़ार करती रही। ये इंतिज़ार तवील होता गया।
पत्ते ज़र्द हो कर गिर पड़े, फूल मुरझा गए, टहनियाँ लुंज मुंज रह गईं, ख़िज़ाँ आ गई। वो न आया। झक्कड़ चले, सूखे पत्ते उड़ने लगे। गर्द-व-ग़ुबार ने आसमान पर छा कर चांदनी उदास कर दी। तारों को बेनूर कर दिया। वहशतें फैल गईं। वो न आया।
कोन्पलें फूटीं, हरियाली में पीली पीली सरसों फूली, रंगीन तितलियाँ उड़ने लगीं। गुंचे मुस्कराने लगे, परिन्दों के नग़मों से वीराने गूंज उठे। बहार आ गई लेकिन वो न आया।
दिन लंबे होते गए। लंबी लंबी झड़ियाँ लगीं। सफ़ैद बगुलों की क़तारें सियाह घटाओं को चीरती हुई गुज़र गईं। नीले बादल आए और बरस कर चले गए। झीलों के किनारे क़ौस-व-क़ज़ह से रंगीं हो गए लेकिन वो फिर भी न आया।
बहुत दिनों तक लैला खोई खोई सी रही। काफ़ी देर के बाद वो सब कुछ समझ सकी। जब जी बी लौटा तो वो संभल चुकी थी। जी बी अकेला नहीं आया, उसके साथ उसकी बीवी भी थी। गोरी चिट्टी फ़र्बा औरत जो किसी लख पती की बेटी थी। जिस का गोल मोल चेहरा किसी क़िस्म के इज़हार से मुबर्रा था। जिस के दिल में जज़्बात के लिए जगह न थी। जो इस ठोस और माद्दी दुनिया में पैदा हुई और इसी दुनिया से तअल्लुक़ रखती थी। ऐसे ऊंचे और अमीर घराने में शादी हो जाने पर सब ने जी बी को मुबारकबाद दी। उसकी क़िस्मत पर रश्क किया। मैं लैला को भी जानता था और जी बी को भी। ये महज़ इत्तिफ़ाक़ था कि वो दोनों उस वक़्त रक़्स गाह में थे। जी बी वो मेरा पुराना दोस्त था जो मेरे साथ बैठा था और लगातार पी रहा था और लैला वो जेनी थी जो मेरे सामने अपने ख़ावंद के साथ रक़्स कर रही थी।
लैला को बदस्तूर छेड़ा जाता। ताने दिए जाते। सब उसका मज़ाक़ उड़ाते। एक रोज़ हमने सुना कि वो कॉलेज छोड़कर घर चली गई। कुछ दिनों तक उसका इंतिज़ार किया गया लेकिन वो वापस न आई। आहिस्ता आहिस्ता उसकी बातें भी भूलती गईं। कुछ अर्सा के बाद लैला का ज़िक्र एक पुरानी बात हो गई।
एक रोज़ वो कहीं से आकर कॉलेज में दुबारा दाख़िल हुई। अब वो शरमाती, लजाती, सहमी हुई लैला नहीं बल्कि शोख़-व-बेबाक जेनी थी। ये नया नाम उसने ख़ुद अपने ईसाई नाम से चुना था। वो कॉलेज के क़रीब ही एक ईसाई कुन्बे के साथ रहती थी। सुब्ह सुब्ह जब गर्दन ऊंची किए, निगाहें उठाए साइकल पर आती तो लड़के ठिठुक कर रह जाते। हर वक़्त उसके लबों पर निहायत बेबाक मुस्कुराहट होती।
यूनियन का जलसा है तो जेनी तक़रीर कर रही है। ड्रामा है तो वो ज़रूर हिस्सा लेगी। मुबाहिसा है तो जैनी अच्छे अच्छों की धज्जियाँ उड़ा देगी। उसकी दिलेरी और साफगोई से लोग डरते थे। जैनी की बेबाकी को सराहा जाने लगा और सब उसे इज़्ज़त की निगाहों से देखने लगे थे।
डे यूनियन का सदर था, वो दुबला पतला सा बंगाली लड़का था। उस में सिर्फ़ ये ख़ूबी थी कि वो कई साल से यूनीयन का सदर था। मेरी उसकी जान पहचान तब से हुई जब वो हॉस्टल में मेरा पड़ोसी बना। उसकी शायराना बातें, उसके अनोखे नज़रिए, उसका हस्सास पना, वाइलन पर ग़मनाक नग़मे। ये सब मुझे अच्छे मालूम हुए लेकिन मजमूई तौर पर बतौर-ए-इंसान के मैंने उसे कभी पसंद नहीं किया। वैसे उस में कोई नुमायाँ ऐब या ख़ामी नज़र नहीं आई। शायद ये उसका उजड़ा सा हुलिया, उसकी आँखों की मुजरिमाना बनावट, उसके चेहरे का फ़ाक़ाज़दा इज़हार था जो मुझे हमेशा उस से दूर रखता।
कभी कभी शाम को उसे भी हमराह ले जाता। इस तरह उसकी जैनी से मुलाक़ात हुई।
ग़ालिबन डे की सब से बड़ी ख़ूबी उसका इन्किसार था। उसे अपनी कमज़ोरियों का हमेशा एहसास रहता। बअज़ औक़ात तो वो इस क़दर कसर-ए-नफ़सी से काम लेता कि तरस आने लगता। यूँ मालूम होता जैसे वो रहम का तालिब है। शुरू शुरू में शायद जेनी को उसकी यही अदा भा गई। देखते ही देखते जैनी में ज़रूरत से ज़्यादा दिलचस्पी लेने लगा। फिर जैसे जैनी भी उसकी जानिब मुल्तफ़ित होती गई। जब वो वाइलन पर दर्द भरे नग़्मे सुनाता तो उसकी निगाहें जैनी के चेहरे पर जम जातीं। नग़्मे की परवाज़ निहायत मुख़्तसर होती। डे की उंगलियों से लेकर जैनी के दिल तक!
जब वो दोनों फ़लसफ़े की किताबें हाथ में लिए बहस में मसरूफ़ होते तो अक्सर बहक बहक जाते, आँखों आँखों में कुछ और गुफ़्तगु होने लगती।
उन दोनों की दोस्ती इशारों और कनाइयों की हदूद से निकल कर खुल्लम खुल्ला मुलाक़ातों तक पहुँच चुकी थी। जेनी को बंगाली मौसीक़ी से लगाव हो चला था। वो बंगाली ज़बान सीख रही थी। जब वो बालों में फूल लगा कर साड़ी को एक ख़ास वज़ा से पहन कर निकलती तो बिल्कुल बंगाली लड़की मालूम होती। कॉलेज की कई लड़कियाँ उसे देख कर बालों में फूल लगाने लगीं।
उन दिनों हम ड्रामा कर रहे थे, दोपहर से रीहर्सल शुरू हो जाती। शाम भी इकट्ठे गुज़रती। अक्सर मैं उसे घर छोड़ने जाता। उसके कमरे की ज़ेबाइश ख़ूब होती। किसी रोज़ तो यूँ मालूम होता जैसे कमरा नहीं जंगल है। दीवारों पर गहरा सब्ज़ वॉलपेपर चस्पाँ है जिस पर दरख़्त और घनी झाड़ियाँ बनी हुई हैं। गुलदानों में लंबी लंबी घास और बड़े बड़े पत्ते हैं। सब्ज़ क़ुमक़ुमे रौशन हैं। फ़र्श पर बिछे हुए क़ालीनों के नक़्श-व-निगार, दीवार से टंगी हुई तस्वीरें, सब्ज़ी माइल पर्दे, गमलों में रखे हुए पौदे। यूँ मालूम होता जैसे दरिंदों की ये तस्वीरें अभी मुतहर्रिक हो जाएँ गीफर किसी रोज़ सब कुछ ज़र्द होता। दीवारें, पर्दे ग़िलाफ़, क़ालीन, क़ुमक़ुमों के शैड, गुलदानों में सहराई फूल और ख़ुश्क टहनियाँ होतीं। अँगीठी के सामने रेत के छोटे छोटे ढ़ेर। ख़्यालात कहीं के कहीं पहुँच जाते। तसव्वुर में लक-व-दिक़ सहरा का नज़ारा फिरने लगता। तारों की छत तले हिदी खवानों का नग़्मा गूंजने लगता।
फिर किसी रोज़ बरफ़बारी के नज़ारे आँखों के सामने आ जाते। और कभी कभी यही आराइश तूफ़ान ज़दा समुंद्र की याद दिला देती। झाग उड़ाती हुई चिंघाड़ती लहरें। हवा के तुंद-व-तेज़ थपेड़े और आंधियों में पत्ते की तरह कांपता हुआ सफीना!
उसके कमरे में कभी एक जैसा गुलदस्ता मैंने दो मर्तबा नहीं देखा। गुलदान में बड़े बड़े फूल भी हैं। शोख़ फूल भी हैं लेकिन सब से नुमायाँ सिर्फ़ नन्ही मुन्नी कलियाँ हैं। बाक़ी सब रंग आपस में घुल मिल के खो गए हैं। कभी गुंचे, कलियाँ, फूल सब कहीं जा छुपे हैं, सिर्फ़ ख़ुशनुमा वज़ा के पत्ते सामने आ गए हैं। उसके तर्तीब दिए हुए गुलदस्तों को देख कर मुझे हैरत होती कि ऐसे हसीन-व-जमील फूल भी आसमान तले खिलते हैं जिन्हें गुलशन में निगाह पहचानती तक नहीं।
एक प्रोफ़ैसर के तबादले पर बाग़ में पार्टी हुई। तय हुआ कि वहीं शाम को बारहदरी में छोटा सा ड्रामा भी किया जाए। जैनी को अलमिया पार्ट मिला। वो दिन उसने अकेले गुज़ारा। किसी से बात नहीं की। दिन भर उदास रही। लैम्पों की रौशनी में ड्रामा शुरू हुआ। जैनी ने अपना गाना बिल्कुल आख़िर में रक्खा। लैम्प बुझा दिए गए। सब ने देखा कि दरख़्तों के झुंड से चांद तुलूअ हो रहा था। वो एक बंगाली नज़्म गा रही थी जिस में चौधवीं के चांद को मुख़ातब किया गया था। डे वाइलन बजा रहा था। वो सादा सा गीत और वाइलन का थरथराता हुआ नग़्मा चांद से नई नई उतरी हुई जिला का जुज़्व मालूम होने लगे। फिर जेनी का रक़्स शुरू हुआ। उसकी उंगलियों की जुंबिश जिस्म के लोच और घुंघरु की ताल पर चांद तारे नाचने लगे। फिर जैसे मंदिरों में घंटियाँ बजने लगीं, देव-दासियाँ सिंगार किए किए, कंवल के फूल थामे आ गईं। पुजारियों के सर झुक गए। फ़िज़ाओं में तक़द्दुस बरसने लगा। फिर जैसे चराग़ों से धुआँ उठा और धुंद बन कर छा गया। सब कुछ आँखों से ओझल हो गया। सिर्फ़ जैनी रह गई और उसका महबूब, पुजारी और देवता।
ये ग़नाइआ बाग़ की उस चांदनी रात में ख़त्म नहीं हुआ। साज़ और लै देर तक हम आहंग रहे। डे ने उन प्यार भरे जज़बात का इज़हार कर दिया जिन्हें वो देर से छुपाए बैठा था। उसने अपने बेपायाँ मोहब्बत का यक़ीन दिलाया। ये भी कहा कि मरते दम तक वो जेनी से उसी शिद्दत के साथ मोहब्बत करता रहेगा। और ये कि उसने अपने वालदैन को सब कुछ लिख दिया है। अनक़रीब उसकी वालिदा आएंगी और जैनी से मिलेंगी। फिर वो जेनी को रस्म के मुताबिक़ सुनहरा हार देगा जिस में दिल की शक्ल का लॉकेट पिरोया हुआ होगा। उन दोनों को एक बहुत बड़ी क़ुव्वत ने आपस में मिला दिया है। आर्ट ने। वो दोनों आर्टिस्ट हैं। इंसान फ़ना हो जाते हैं। आर्ट जाविदाँ है।
फिर मैंने जैनी के कमरे में साज़ देखे। मालूम हुआ कि वो हिंदोस्तानी मौसीक़ी सीख रही है। मग़रिबी मौसीक़ी से वो शनासा थी। मैंने उसे जाने पहचाने नग़्मे गुनगुनाते सुना था। प्यानो पर उसकी उंगलियाँ ख़ूब चलती। कई मर्तबा यूँ हुआ कि रेडियो पर आरकैस्टरा सिम्फनी बजा रहा है और जैनी मुझे समझा रही है कि सिम्फनी एक नग़्मा नहीं मुख़्तलिफ़ नग़्मों का मुरक्कब है। ऐसे नग़्मे जो मुख़्तलिफ़ कैफ़ीयतों को ज़ाहिर करते हैं और ये कैफियतें बगै़र किसी तसलसुल के आती हैं। रंज-व-मसर्रत, इंबिसात-व-हसरत आशामियाँ, शक, वस्वसे, उम्मीद-व-बीम,एतराफ-ए-ग़म। हमारी मसर्रतें कभी ज़ंज की आमेज़िश से ख़ाली नहीं होती। इसी तरह ग़म की घटाएँ भी अक्सर बहुज्जत की किरणों से जगमगा उठती हैं।इंसान के दिल में कोई जज़्बा मुकम्मल और देरपा नहीं होता। ये कैफियतें बदलती रहती हैं। तभी सिम्फनी में इतने उतार चढ़ाव आते हैं और कई कई गतीं साथ साथ चलती हैं।
मैंने उसे हिंदोस्तानी राग रागिनियों के कुछ रिकार्ड दिए जिन्हें उसने बड़े शौक़ से सुना। उसे ये नग़्मे निहायत दिलकश मालूम हुए। उसे ये भी महसूस हुआ कि ये सब राग मुख़्तलिफ़ जज़्बों और
कैफ़ियतों को ज़ाहिर करते हैं।
मैंने दरबारी की तशरीह की कि जैसे एक बहुत बड़ा हाल है। सामने तख़्त पर बादशाह बैठा है। क़ंदीलें रौशन हैं, फ़ानूस जगमगा रहे हैं। दूर दूर तक उमरा और वुज़रा बैठे हैं। पर हाल ख़ामोशी तारी है। मौसीक़ार को बुलाया जाता है। ऐसे माहौल में शोख़ मौसीक़ी बे-अदबी में शुमार होगी। ग़मगीं मौसीक़ी भी मौज़ूं नहीं। हल्की फुल्की चीज़ों से मौसीक़ार गुरेज़ करेगा क्यूँकि वो अपने जौहर दिखाना चाहता है। इन सब बातों को मद्द-ए-नज़र रख कर वो जो चीज़ चुनेगा वो दरबारी है। इसी तरह और राग रागिनियों के मुतअल्लिक़ भी बताया।
जैनी सुनती रही। फिर एक रोज़ उसने मुझे चंद तस्वीरें दिखाईं जो उसने ख़ुद बनाई थीं। उसे मुसव्विरी का शौक़ ज़रूर था लेकिन मामूली सा। ये उसकी पहली कोशिश थी। उन तस्वीरों में उसने ज़हनी तअस्सुरात बरशश के ज़रीये काग़ज़ पर मुंतक़िल किए थे वो तअस्सुरात जो मुख़्तलिफ़ रागनियाँ सुन कर उसने महसूस किए। ये नग़मे उसने पहले कभी नहीं सुने थे। हिंदोस्तानी मौसीक़ी इसके लिए बिल्कुल नई चीज़ थी। जोगिया की तस्वीर में ताहद-ए-उफ़क़ नन्हे मुन्ने ख़ुदरौ फूल खिले हुए थे, छोटे छोटे रंग बिरंगे फूल जिन में कलियाँ भी शामिल थीं और अध खुले हुए गुंचे भी। पत्तियों पर शबनम के क़तरे चमक रहे थे। पस-ए-मंज़र दूर उफ़क़ के परे बर्फ़ानी चोटियाँ थीं, ऊँची ऊँची बर्फ़ से लदी हुई चोटियाँ, जिन से नूरानी शुआएं मुनअक़्स थीं। पौदों के साय, शबनम के चमकीले क़तरे और जगमगाती चोटियाँ। सब इस अमर के शाहिद थे कि सूरज अभी अभी निकला है और सारे नज़ारे पर एक उदास सी धुंद फैली हुई थी। हल्की हल्की नौज़ाएदा धुंद जिस ने फ़िज़ा में रंग-व-बू के इस तूफ़ान के बावजूद एक ग़मगीं तअस्सुर पैदा कर दिया था।
दूसरी तस्वीर माल्कोस की थी, उसमें समुंद्र की लहरों को प्यानो के पर्दों से खेलते हुए दिखाया था सफ़ैद और सियाह पर्दों की लड़ियाँ नहरों पर तैर रही थीं। कभी कभी एक ऊंची सी लहर आती तो सारे पर्दों को एक सख़्त बुलंदियों पर ले जाती। राग की रवानी और ज़ेर-व-बम को लहरों के खेल से ज़ाहिर किया गया था।
छाया नट की तस्वीर मंजूम मौसीक़ी की तस्वीर थी जिस में मचलते हुए शोख़ नग़्मे मुरतइश थे। चंचल रक़्कासाएं घुंघरू बांधे नाच रही थीं। हर जुंबिश में बला का लोच था, मख़मूर कर देने वाली मस्ती थी।
जैनी इनकार करती रही लेकिन मैंने उन तस्वीरों को नुमाइश में रखवा दिया। एक रोज़ हम नुमाइश में थे। किसी ने यूँ ही जैनी का नाम ले लिया। चंद लम्हों में हुजूम इकट्ठा हो गया ये सब जैनी के मद्दाह थे जो उसकी तारीफ़ें करने लगे। उस रोज़ मालूम हुआ कि जैनी मशहूर होती जा रही है। क़रीब ही अखाड़े के गिर्द लोग इखट्टे हो रेहे थे। एक चीनी पहलवान की कुश्ती थी। सांगया कुछ ऐसा ही नाम था लोग दूर दूर से उसे देखने आए थे। उसे हुजूम ने घेर रखा था। जहाँ वो इस क़दर हर दिल अज़ीज़ साबित हो रहा था वहाँ उसके हरीफ़ को जो मक़ामी पहलवान था कोई पूछता ही न था। कुश्ती शुरू हुई और गुल मच गया। कुछ देर बराबर का मुक़ाबला रहा। फिर दफ़्अतन मक़ामी पहलवान ने सांग को दोनों हाथों से पकड़ कर सर से ऊँचा उठा लिया और ज़मीन पर से मारा। साँग बे-होश हो गया। उसी हुजूम ने जो उसकी तारीफ़ें कर रहा था उस पर आवाज़े कसने शुरू कर दिए। इस पर इश्तिहार और काग़ज़ों के टुकड़े फेंक कर अखाड़े में तन्हा छोड़ दिया। सांग एक बेंच पर अकेला बैठा था जैनी मुस्कुराती हुई गई और उस से बातें करने लगी। उसे पसीना पोंछने के लिए अपना छोटा सा मुअत्तर रूमाल दिया जिसे उस ने शक्रिए के साथ ले लिया। जैनी की प्यारी मुस्कुराहट और दिलकश बातों ने उसे मोह लिया।
इन बातों में ऐसी हलावत थी कि सांग को अपनी ज़बूँ हालत का एहसास न रहा। सारी शाम हम ने इकट्ठे गुज़ारी। जब वो रुख़्सत हुआ तो उसके होंट लरज़ रहे थे और आँखों में आँसू थे। डे के वालदैन आ गए और वो हॉस्टल से चला गया। उसकी वालिदा ने जैनी को देखा। जैनी को उनके घर बुलाया गया लेकिन ये आना जाना बहुत जल्द ख़त्म हो गया। एक रोज़ डे जैनी से मिला और जी बी के मुतअल्लिक़ पूछने लगा। जैनी ने शुरू से अख़ीर तक सारी कहानी सुना दी सब कुछ बता दिया। डे उस पर बरस पड़ा ये बातें उस से पोशीदा क्यूँ रक्खी गईं। उसे पहले क्यूँ नहीं बताया गया। जी बी के अलावा और भी न जाने कितने आशिक़ होंगे अब उसे क्यूँ कर यक़ीन आ सकता है कि जैनी की मोहब्बत सादिक़ है। ये तो महज़ ढ़ोग था। खेल था। अब इस खेल को फ़ौरन ख़त्म हो जाना चाहिए।
मैंने सुना तो डे को समझाया कि जिन दिनों वो जी बी से मिला करती थी, डे बंगाल से आया भी न था। भला वो डे पर इतनी दूर क्यूँ कर आशिक़ हो सकती थी और वो भी बिला देखे और सुने और फिर वो ख़ुद जैनी के अलावा कई लड़कियों से मोहब्बत जता चुका था। जैनी जानती थी फिर भी उसने बाज़-पुर्स न की लेकिन डे नहीं माना। उसके ख़याल में हर मर्द का फ़ित्री हक़ है कि ख़ुद दुनिया भर की लड़कियों से चहलें करता फिरे, लेकिन महबूबा से ये तवक़्क़ो रक्खे कि वो ज़िंदगी भर सिर्फ़ उसी को चाहेगी। उसकी मुंतज़िर रहेगी। बचपन ही से उसे इल्हाम हो जाएगा कि फ़लाँ मर्द आज से इतने साल बाद उसे चाहने आएगा जो ख़ुद हरजाई होगा और चाहने से पहले लड़की की गुज़श्ता ज़िंदगी को अच्छी तरह कुरेद कर अपनी तसल्ली कर लेगा।
जैनी ने उसे वो सारे वअदे याद दिलाए जो उसने कसमें खा खा कर किए थे। वो मोहब्बत भरी बातें याद दिलाईं जो हज़ारों बार दोहराई गई थीं। वो ख़्वाब बताए जो दोनों ने इकट्ठे देखे थे लेकिन उस पर कोई असर न हुआ। वो तो जैसे किसी बहाने की तलाश में था। देखते देखते जैनी में बेशुमार नुक़्स निकल आए। न उसका कोई ख़ानदान था न मज़हब। सोसाइटी में उसके लिए कोई जगह न थी। उसके ख़ून में आमेज़िश थी। उसकी तर्बियत ऐसे वालदैन के जे़र-ए-साया हुई जिन की ज़िंदगी हमेशा ना-ख़ुशगवार रही। जिन में सब से बड़ा ऐब ये था कि वो ग़रीब भी थे और फिर जैनी कुछ इतनी ख़ूबसूरत भी नहीं थी। उस से कहीं हसीन और बेहतर लड़कियाँ डे को मिल सकती थीं। एक हसीन लड़की तो डे की वालिदा ने ढूंढ भी ली थी। लड़की के वालिद राय बहादुर थे और लड़की के साथ लाखों की जायदाद दे रहे थे। उन्होंने डे को इंग्लिस्तान भेजने का वअदा भी किया था।
शादी की तारीख़ मुक़र्रर हुई। मेरे नाम दावती रुक़्का आया। मैं ख़ामोश रहा। जब जैनी के नाम रुक़्का भेजा गया तो मुझे बहुत ग़ुस्सा आया। तैश में आ कर मैंने कई मंसूबे बांधे। सब से पहला मंसूबा डे की हड्डी पसली एक कर देने का था लेकिन जैनी के कहने पर मैंने इरादा तर्क कर दिया।
शादी पर हम दोनों गए। जैनी शादी का तोहफ़ा लेकर गई। सब के सामने ये तोहफ़ा खोला गया। डे की बीवी के लिए सुनहरा हार था जिस में दिल की शक्ल का लॉकेट पिरोया हुआ था। अगले महीने जैनी ने कॉलेज छोड़ दिया और घर चली गई।
एक पार्टी में मेरा तआरुफ़ डे की बीवी से हुआ। मालूम हुआ कि उसे दुनिया में अगर किसी चीज़ से नफ़रत थी तो वो आर्ट से। ये सारे मुसव्विर, मौसीक़ार, शायर उसे ज़हर दिखाई देते थे और सब से ज़्यादा चिड़ उसे उन अमीर लोगों से थी जो इस क़िस्म की फुज़ूलियात में पड़ कर अपना वक़्त ज़ाए करते थे। भला सितार या वाइलन सीखने की क्या ज़रूरत है जब सुब्ह से शाम तक रेडियो पर साज़ बजते रहते हैं। मुसव्विरी सीखने में क्या तुक है, जब बाज़ार में हर क़िस्म की तस्वीरें आसानी से मिल जाती हैं। अगर किसी ने अलफ़ाज़ को तोड़ मरोड़ कुछ शेर धड़ लिए तो उस पर आँसू बहाने या बेक़ाबू हो जाने की क्या ज़रूरत है।
आख़िरी इम्तिहान पास कर के में कॉलेज से चला आया। मस्रूफ़ियतों ने आन दबोचा। मुल्क के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में फिरता रहा। मुद्दतों तक मैंने जैनी के मुतअल्लिक़ नहीं सुना।
फिर एक दिन एक पुराना दोस्त मिला। मैंने जैनी का ज़िक्र किया तो उसने बातें सुनाईं कि वो पहले से बिल्कुल बदल चुकी है। हर जगह यही मशहूर है कि वो मोहब्बत के बगै़र ज़िंदा नहीं रह सकती। एक मआशक़ा ख़त्म हुआ है तो दूसरा अनक़रीब शुरू होगा। कॉलेज छोड़कर उसने मुलाज़िमत कर ली और अब बिल्कु आज़ादाना तौर पर रहती है हर शाम उसके हाँ लोगों का जमघटा रहता है। क़िस्म क़िस्म के लोग आते हैं। निहायत अजीब-व-ग़रीब हुजूम होता है। फिर ख़ूब अफ़्वाहें उड़ती हैं। लोग शेख़ियाँ मारते हैं कि हम ने ये किया वो किया, मेरे कोट के कालर से जो बाल चस्पाँ है वो जैनी का है। ये तस्वीर जैनी ने मुझे दी थी। मेरे रूमाल पर जो सुर्ख़ी है वो जेनी के होंटों की है। उसने ये भी बताया कि पिछले साल वहाँ सैलाब आया था। लोग बेघर हो गए, क़ह पड़ा। जैनी ने कुछ लड़कों, लड़कियों को साथ लिया। गाँव गाँव फिर कर मुसीबत ज़दा मख़्लूक़ की मदद की। अमीरों से फ्लर्ट कर के चंदा इकट्ठा किया। अपनी सेहत और आराम का ख़याल न रखा। रात दिन मेहनत की। कई मर्तबा बीमार हुई कुछ औबाश क़िस्म के लोग महज़ जैनी की वजह से मुहताजों की इमदाद पर तैय्यार हो गए। उसे छेड़ा, तंग किया। एक शाम बहाने से अपने साथ ले गए और उसे शराब पिलानी चाही। जैनी ने गिरोह के सरग़ने के बाल नोच लिए। उसका मुँह तमांचों से लाल कर दिया। वो ऐसे घबराए कि उसी वक़्त जैनी को वापस छोड़ गए।
फिर किसी ने जैनी की तस्वीर अख़्बारों में निकलवा दी। उसकी तारीफ़ भी शामिल थी। जिस पर सब ने यही समझा कि महज़ सस्ती शोहरत की ग़र्ज़ से जैनी ने लोगों की मदद की थी।
कुछ अर्से के बाद ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ कि एक तबादले ने मुझे जैनी के क़रीब पहुँचा दिया। महज़ चंद घंटों की मुसाफ़त थी। हर दूसरे तीसरे हफ़्ते में उसे मिलने जाता। सचमुच अब वो पुरानी जैनी नहीं थी। पहले से कहीं तंदरुस्त और चुस्त मालूम होती थी। उसके चेहरे पर ताज़गी थी, नया निखार था, होंटों में रसीला पन और रुख़सारों पर सुर्ख़ी आ चुकी थी। अब वो इक शोला-ए-फिरोज़ाँ थी। वो तरह तरह से मेकअप करती, शोख़-व-भड़कीले लिबास पहनती। जगमग जगमग करते हुए ज़ेवर, क़िस्म क़िस्म की खूशबुएँ। वो हर मौज़ू पर बिला धड़क गुफ़्तुगू कर सकती थी। कलबों और रक़्स गाहों में उसे बाक़ाएदगी के साथ देखा जाता। हफ़्ते भर की शामें पहले ही मुख़्तलिफ़ मस्रूफ़ियतों के लिए वक़्फ़ हो जातीं। पुरानी सीधी सादी जेनी की जगह उस शोख़-व-शुंग लड़की को देख कर मैं कुछ चिड़ सा गया। ये जज़्बा महज़ हसद-व-रश्क का जज़्बा था। मैं शायद बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि गुफ़्तुगू करते वक़्त मुझे बार बार ये एहसास हुआ कि वो मुझ से ज़्यादा जानती है। हर बहस में वो मुझे हरा दे। ताश खेलते वक़्त मैं बग़लें झांकने लगूँ। रक़्स गाह में बअज़ दफ़ा मुझे एक लड़की भी न मिले और उसके लिए बीसियों लड़के बेक़रार हों। वो ऐसी चीज़ों का ज़िक्र करती रहे जिनका मुझे शौक़ तो है लेकिन उन तक पहुँच ज़रा मुश्किल है।
शाम को उसके हाँ लोगों का हुजूम होता। उनमें ज़्यादा तादाद उश्शाक की होती जो तरह तरह से अपनी मोहब्बत का इज़हार करते। शादीशुदा हज़रात अपनी ग़मगीं इज़दिवाजी ज़िंदगी का रोना रोया करते कि किस तरह क़ुदरत ने उनको दग़ा दी और निहायत बद-मज़ाक़ और ठुस तबीयत की रफीक़ा पल्ले बांध दी। अब उनके लिए दुनिया जहन्नम से कम नहीं। अब ये अज़ाब बर्दाश्त नहीं हो सकता। ख़ुदकशी के सिवा और कोई चारा नहीं लेकिन इस सियाह ख़ाने में उम्मीद की एक नूरानी किरण नज़र आती है। वो है जैनी।
पुर-मग़्ज़ और ज़हीन क़िस्म के लोग अक्सर सियासत और अदब पर बहस करते। कार्ल मार्क्स, फ्रायड और मौलाना रोम के तज़किरे छेड़ते। सियासतदानों की गलतियाँ गिनवाते। मशाहीर पर तन्क़ीदें करते। बेलौस और सच्ची दोस्ती का दम भरते लेकिन मौक़ा पा कर इश्क़ भी जता देते।
एक तब्क़ा नफ़ासत पसंद और नाज़ुक इंदाम लोगों का था। ये लोग हर वक़्त अपनी कमज़ोरियाँ गिनवाते रहते। अपनी बीमारियों का ज़िक्र करते। अपने आप को बेहद अदना और कमतर समझते। बार बार जैनी से पूछते: अगर तुम्हें बुरा मालूम होता हो तो मैं आइन्दा न आया करूँ। अगर्चे ऐसा करने से मुझे कलबी, जिग्री और रुहानी सदमा पहुँचेगा। मगर हर शाम को आ धमकते।
कई ऐसे शर्मीले भी थे जो छुप-छुप कर ख़ुतूत लिखते। जैनी पर नज़्में कह कर उसे बदनाम करते। सामने आते तो शर्मा शर्मा कर बुरा हाल हो जाता।
सब से घटिया वो आशिक़ थे जो अपने आप को जैनी का भाई कहते। भाइयों की सी दिलचस्पी लेते। उसकी हिफ़ाज़त और बहबूदगी के ख़ाहाँ रहते लेकिन दिल में कुछ और सोचते रहते।
मुझे ये तमाशा देख कर ग़ुस्सा आता। आख़िर ये लड़की चाहती क्या है कि सब के सब तो उसे पसंद आने से रहे। सारे हुजूम को बरख़ास्त कर के इन में से एक दो से मिलती रहा करे। मेरा इरादा भी हुआ कि उसे टोकूँ। फिर सोचा कि भला मैं उसका क्या लगता हूँ, देखा जाए तो मैं भी ख़ुद उसी हुजूम में से एक हूँ। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि मैं उसे ज़रा पहले से जानता हूँ।
फिर मैंने देखा कि वो एक शख़्स की जानिब मुल्तफ़ित होती जा रही है। ये इंसान बिल्कुल अजीब था। पहले पहल तो में उसे समझ ही न सका। यही सोचता कि आख़िर उसकी ज़िंदगी का मक़सद क्या है। उसे क़रीब से देखने पर मालूम हुआ कि उसकी ज़िंदगी का वाक़ई कोई मक़सद नहीं। उसे किसी चीज़ पर यक़ीन नहीं था। मोहब्बत, नफ़रत, ज़िंदगी, मौत, इंसान, ख़ुदा। सब से मुनकिर था। बात बात पर बहस के लिए तैय्यार हो जाता। सब उस से कतराते थे। उसे कॉमरेड के नाम से पुकारा जाता। महज़ जैनी की वजह से मैं उस से मिलता वर्ना मेरे दिल में उसके लिए नफ़रत थी। ये नफ़रत शायद उस दिन पैदा हुई, जब हम ने पहली और आख़िरी बहस की। कामरेड औरतों को हमेशा बुरा भला कहता। ए पर नुक्ता चीनियाँ करता। एक रोज़ मैंने इख़्तिलाफ़ किया। औरत की ज़िंदगी की अनगिनत मजबूरियाँ जतलाईं। लड़की की पैदाइश को ना-मुबारक समझा जाता है। लड़कों के मुक़ाबले में उसकी परवरिश में कोताही बरती जाती है। भाई उसे डाँटते धमकाते हैं। उसका हिस्सा छीन लेते हैं। उसके दिल में एहसास-ए-कमतरी पैदा कर देते हैं। फिर बड़ी होने पर कुंबे और पड़ोसियों की तन्क़ीद शुरू हो जाती है। दोपट्टे का ज़रा सर से उतर जाना ख़ानदान की नाक पर असर अंदाज़ होता है। ज़रा सी भूल उसे ज़िंदगी भर के लिए मुजरिम बना देती है। कॉलेज में उसे फ़लसफ़ा सिखाया जाता है। मुसावात और आज़ादी के सबक़ दिए जाते हैं लेकिन जब शादी का सवाल आता है तो उस से कोई नही पूछता। उसे वही करना पड़ता है जो चंद ख़ुश्क मिज़ाज बुज़ुर्ग चाहते हैं लेकिन लड़कों की ज़िंदगी बिल्कुल मुख़्तलिफ़ है। वो बड़ी आसानी से झूटी क़स्में खा कर लड़कियों को धोका दे सकते हैं। मोहब्बत का वास्ता दिला कर सब कुछ मनवा लेते हैं। फिर चंद ख़ानदानी मजबूरियों का बहाना कर के उन्हें बड़ी आसानी से धुतकार सकते हैं और स्लेट की तरह बार बार सब कुछ धुल जाता है। उनका माज़ी कोई मानी ही नहीं रखता। उनके लिए ब्याह शादी खेल है लेकिन लड़कियों के लिए शादी नई मुसीबतों का पेश ख़ेमा बनती है। बीवी बन कर बच्चों की परवरिश, मआशी बे-बसी, ज़रा ज़रा सी बात के लिए ख़ावंद की तरफ़ देखना पड़ता है। उम्र रसीदा हो जाने पर औलाद बे-मसरफ़ समझती है, मज़ाक़ उड़ाती है।
कामरेड को मेरी बातें फ़ुज़ूल मालूम हुईं। वो यही कहता रहा कि वैसे औरत और मर्द बराबर हैं लेकिन मर्द का रुतबा दिमाग़ी और जिस्मानी लिहाज़ से बुलंद है। उसने दोनों के दिमाग़ की बनावट और वज़न का ज़िक्र भी किया। मर्द के लिए लंबे क़द और मज़बूत बाज़ुओं का हवाला दिया।
इस के बाद मेरी और उसकी कभी बहस नहीं हुई।
पता नहीं उसका ज़रिया-ए-मआश क्या था, वो रहता कहाँ था। उसकी गुज़श्ता ज़िंदगी कहाँ और कैसे गुज़री। बस ये मशहूर था कि वो जैनी का मद्दाह है।
जैनी उन दिनों बड़ी ठोस क़िस्म की किताबें पढ़ती। मुश्किल से मौज़ू पर ख़ुश्क और संजीदा किताबें। जब वो दोनों बातें करते तो बहुत कम लोग समझ सकते कि किस मौज़ू पर गुफ़्तुगू हो रही है। उन दोनों की दोस्ती का ये पहलू मुझे बहुत अच्छा मालूम होता। जैनी की मुदल्लल और ज़हीन बातें ज़ाहिर करतीं कि वो दिमाग़ी इर्तिक़ा की मंज़िलें बड़ी तेज़ी से तय कर रही है।
हम पिकनिक पर गए। एक तारीख़ी इमारत को हम ने बार बार देखा था, लेकिन जब जैनी ने एक ख़ास ज़ाविए से हमें देखने को कहा तो यूँ मालूम हुआ कि जैसे उस बाग़ और इमारत को आज पहली मर्तबा देखा है। कामरेड उछल पड़ा। बोला सिर्फ़ एक आर्टिस्ट की आँख उस ज़ाविए को चुन सकती थी। जब क़िस्से कहानियाँ हो रही थीं तो एक लड़का अपना रोमान सुनाने लगा। उसे एक लड़की दूर दूर से देखा करती, इशारे होते, पत्थरों से लिपटे हुए ख़ुतूत फेंके जाते, अह्द-व-पैमान होते, लेकिन वो फ़ासिला उतने का उतना था। न वो ख़ुद क़रीब आती न आने देती। तंग आ कर उसने छत पर जाना छोड़ दिया। कई दिनों के बाद गया तो लड़की ने बड़ी सख़्त समाजत की। उसने साफ़ कह दिया कि अगर अब भी क़रीब न आने दोगी तो आइन्दा कभी छत पर नहीं आऊँगा। बड़ी मुश्किलों के बाद वो रज़ामंद हो गई। बार बार यही कहती आप वअदा कीजिए कि मुझ से नफ़रत तो नहीं करने लगेंगे। उसने वअदा किया तो मानी। ये उसे मिलने गया लड़की निहायत हसीन थी लेकिन उसकी आँखों में नुक़्स था। वो भैंगी थी। उस पर बड़े क़हक़हे पड़े। हंसते हंसते लोग दोहरे हो गए लेकिन जजैनी ख़ामोश रही, उसकी आँखें नमनाक हो गईं। देर तक वो चुपचाप रही मुझे भी इस कहानी ने उदास कर दिया। ये कहानी हरगिज़ मज़्हका अंगेज़ नहीं थी।
बाग़ के गोशे में एक कुँआं था जिस के मुतअल्लिक़ मशहूर था कि उसमें झांक कर जो ख़्वाहिश की जाए पूरी हो जाती है। हर एक ने कुछ मांगा। जब जैनी की बारी आई तो उसने कहा कि मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए, मुझे किसी की मदद की ज़रूरत नहीं, कोई अर्ज़िया समावी ताक़त मुझे कुछ नहीं दे सकती। बस मुझे एक ज़िंदगी मिली है और मुझे ज़िंदा रहना है।
कॉमरेड अश अश कर उठा। कहने लगा कि जैनी का ये नज़रिया सही तरीन नज़रिया है। ऐसी दुनिया में जहाँ लोग अब तक बारिश के लिए दुआ मांगते हैं, उस से बेहतर नज़रिया नहीं हो सकता। कोई किसी के लिए कुछ नहीं कर सकता, तक़्दीर और क़िस्मत वग़ैरा फ़ुज़ूल चीज़ें हैं। हर शख़्स अपने गिर्द बिछे हुए जाल में गिरफ़्तार है। अपने हालात से मजबूर है। ज़िंदगी के अटल इरादे, शदीद जज़्बे, सब हवादिस के ग़ुलाम हैं। हम इस लिए एक दूसरे के दोस्त हैं कि इत्तिफ़ाक़ ने हमें मिला दिया। इसी तरह महज़ इत्तिफ़ाक़ से हम उन लोगों की रिफ़ाक़त से महरूम हैं। जिन्हें अगर मिलते तो शायद गहरे दोस्त बन जाते।
फिर एक रोज़ वही कॉमरेड जो अफ़लातूनी दोस्ती और ख़ुलूस के गुन गाया करता था, जैनी को अपने साथ ले गया। उन्होंने इकट्ठे चाय पी, पिक्चर देखी, छोटे मोटे तोहफ़े ख़रीदे जब टैक्सी में दोनों वापस आ रहे थे तो उसने जैनी को चूमने की कोशिश की। जैनी ने टैक्सी ठहरा ली जितने रुपये कॉमरेड ने उस शाम सर्फ़ किए थे उसके मुँह पर मारे और पैदल वापस चली आई।
कॉमरेड कई रोज़ तक ग़ायब रहा फिर माफ़ी मांगने आया। जैनी ने कहा कि मुझे तैश नहीं आया, मायूसी हुई है। मैं तुम्हें उन सब से मुख़्तलिफ़ समझती थी। मेरा ख़याल था कि तुम इस हुजूम में से नहीं हो लेकिन तुम में और दूसरों में फ़र्क़ नहीं।
कामरेड नादिम था, बोला मेरे नज़रिए ख़्वाह कैसे हों, मैं इंसान भी हूँ। तुम में इतनी ज़बरदस्त कशिश है कि मेरी जगह कोई और भी होता तो यही करता। मैंने कभी तुम्हारे चेहरे को ग़ौर से नहीं देखा। तुम्हारी बे-चैन रूह को देखा है और यही रूह मुझे अज़ीज़ है। अगर तुम्हारे ख़द्द-व-ख़ाल बेहतर होते और तुम ज़्यादा ख़ूबसूरत होतीं तो तुम्हारी ज़िंदगी मुख़्तलिफ़ होती। अगर तुम किसी बेहतर घराने में पैदा होतीं तो तुम्हारी ज़िंदगी मुक़ाबिलतन आसान होती लेकिन तुम इतनी सलाहियतों की मालिक न होतीं। तुम्हारी रूह इतनी हसीन न होती।
जैनी औरत थी, कामरेड के रंगीं फ़िक़रों ने उसे मोह लिया। उसकी आँखें झुक गईं। दिल धड़कने लगा। रुख़्सार सुर्ख़ हो गए। जब कॉमरेड ने बाज़ू फैलाए तो जैनी ने मज़ाहमत न की। उसके बाद कॉमरेड की गुफ़्तुगू का अंदाज़ बदल गया। मोहब्बत एक दूसरे की तरफ़ देखने रहने का नाम नहीं बल्कि दोनों का एक सिम्त में देखते रहने का नाम है मोहब्बत में अगर रिफ़ाक़त की आमेज़िश हो तो वो इंतिहाई बुलंदियों तक जा पहुँचती है। इसी क़िस्म की बातें बार बार दोहराता।
कभी कभी वो मुझे काफ़ी दिलचस्प मालूम होता। उसकी चंद चीज़ें मुझे पसंद थीं। उसकी सहरा नवरदियाँ, बेचैन तबीयत, सैलानी पन लेकिन उसके शिकस्त ख़ुर्दा नज़रिए, बिला वजह का हज़न, तल्ख़ ख़यालात बुरे मालूम होते। वो क़ुनूती था और अज़ीयत पसंद। उसने कभी ज़िंदगी का मुक़ाबिला नहीं किया। मुसीबत को आते देख वो हमेशा रास्ता कतरा जाता। अपने आप को मज़लूम समझता। दुनिया भर का सताया हुआ। उसका इरादा था कि उम्र भर इसी तरह सरगरदाँ रहेगा। उसकी मंज़िल कहीं नहीं।
मेरा तबादला हुआ तो जैनी मुझे छोड़ने स्टेशन पर आई, जुदा होते वक़्त मैंने रूमाल मांगा। पूछने लगी रूमाल लेकर क्या करोगे? कहा रूमाल तुम्हारी शोख़ मुस्कुराहटों की याद दिलाता रहेगा बोली तुम हर मर्तबा रूमाल ही क्यूँ मांगते हो। बताया कि उसकी मख़्मो रुक्न ख़ुशबू और नन्हे से सुर्ख़ दिल की वजह से।
अगले साल मुझे किसी ने बताया कि कॉमरेड जैनी को छोड़कर चला गया। वो बिल्कुल वैसे का वैसा रहा। जैनी की तमाम कोशिशें इस में कोई तब्दीली न ला सकीं। चलते वक़्त उसने जीनी से कहा कि बे सर-व-सामानी उसकी तक़दीर में है। उसकी मंज़िल-ए-मफ़क़ूद है। वो जैनी से मोहब्बत करता रहेगा। उसकी तस्वीर दिल से लगा कर रखेगा। दूसरे शहरों से उसे ख़त लिखा करेगा। उसे हमेशा याद रक्खेगा और बस!
जैनी ने उसका तआक़ुब करना चाहा। जो कुछ उसके पास था फ़रोख़्त कर दिया। पता नहीं वो उसे मिला या नहीं जब वो वापस आई तो तरह तरह की अफ़्वाहें फैली हुई थीं। जैनी के वालिद ने जो तन्हा रहता था उसे सख़्त सुस्त कहा और घर से निकाल दिया। कुछ औबाश क़िस्म के लोगों ने उसकी मदद करनी चाही लेकिन जैनी वो शहर छोड़कर कहीं निकल गई।
केन्री से में समुंद्र पार मिला। वो हिंदोस्तानी था। लोग उसकी हरकतों की वजह से उसे केज़ा नोवा कहते, इसी से ये नाम पड़ गया। पहली मुलाक़ात पहाड़ों के एक कैंप में हुई। हम ने क़स्बे से कुछ शहरियों को खाने पर बुलाया हुआ था। मेस के खे़मे में बातें हो रही थीं कि वो एक रूसी अफ़्सर से लड़ पड़ा। लड़ाई की वजह एक रूसी लड़की थी। केन्री ने फ़ौरन उसे डोइल की दावत दी। रूसी ने अपने रिवोलवर से चार गोलीयाँ निकाल लीं और केन्री से बोला हम उसे बारी बारी अपने कान से छुआ कर चलाएँगे। इस में सिर्फ़ दो गोलीयाँ हैं जिस की क़िस्मत में गोली लिखी होगी, उसके दिमाग़ में से निकल जाएगी। केन्री पिए हुए था फ़ौरन राज़ी हो गया। पहला फ़ायर केन्री ने अपने आप पर किया, वो ख़ाना ख़ाली निकला। दूसरा फ़ायर रूसी ने किया, कुछ न हुआ। केन्री तीसरा फ़ायर कर चुका तो हम ने बड़ी मुश्किलों से उन्हें अलाहदा किया। केन्री को यक़ीन नहीं था कि रिवोलवर में गोलीयाँ हैं। उसने यूँही लबलबी दबा दी, धमाका हुआ। गोली खे़मे की दीवार चीर गई।
उसका तबादला हुआ और वो हमारे कैंप में आ गया। हम दोनों बहुत जल्द दोस्त बन गए।
शहर के हाकिम ने हमें दावत दी। हम दोनों गए। निहायत दिलचस्प प्रोग्राम था। आग़ा ने केन्री का तआरुफ़ एक निहायत ख़ूबसूरत लड़की से कराया।
केज़ी उस से घुल मिल कर बातें कर रहा था। महफ़िल गर्म होती जा रही थी कि यकायक घड़ी देख कर केनरी उठ खड़ा हुआ। असिन मुझे बताया कि दूसरे कैंप की क़रीब किसी लड़की से रात को मिलने का वअदा किया था। सर्दियों की अंधेरी रात थी। कैंप वहाँ से सौ मील के लग भग था। हमें सब ने मना किया, लेकिन केन्री का वअदा था क्यूँ कर पूरा न होता। हम जीप में रवाना हुए तो हल्की हल्की बर्फ़बारी हो रही थी। पहाड़ों की पेचीदा दुशवार गुज़ार सड़क बर्फ़ से सफ़ैद हो चुकी थी। हम इतनी तेज़ी से जा रहे थे कि मोड़ो पर जीप हवा में उठ जाती। रास्ते भर वो अपनी महबूबा के लाफ़ानी हुस्न की तारीफ़ें करता रहा। जब हम वहाँ पहुँचे तो दावत ख़त्म हो चुकी थी। लड़की मुंतज़िर मिली। केन्री ने मेरा तआरुफ़ कराया। उन दिनों मैं बेहद उदास था। महीनों से किसी दोस्त या अज़ीज़ का ख़त नहीं मिला था। मैंने बड़ी जज़्बाती क़िस्म की गुफ़्तगु शुरू कर दी। उसे ये बातें अच्छी मालूम हुईं। हम एक गोशे में जा बैठे। केनरी एक दो बार हमारे पास आया लेकिन जल्द उठ कर चला गया। जब लोग जाने लगे तो उसने मुझे एक तरफ़ बुला कर कहा। मैं जा रहा हूँ। बाद में तुम्हारे लिए जीप भेजवा दूँगा।
और ये लड़की मैंने हैरान हो कर पूछा।
ये अब तुम्हारी है। मैं यारों का यार हूँ। मैं तुम्हारे चेहरों का मुताला करता रहा हूँ। मैंने तुम दोनों की आँखों में उस रौशनी की चमक भी देखी है जो पहली मुलाक़ात पर बिला वजह पैदा नहीं होती। मैं उसे चाहता ज़रूर हूँ, लेकिन तुम भी मेरे दोस्त हो।
उसकी शख़्सिय्यत अजीब थी। न उसे किसी ख़तरे का एहसास था न किसी मुसीबत का डर। वो हमेशा काम कर चुकने के बाद ये सोचता कि ये काम उसे किस तरह करना चाहिए था। उसके मिज़ाज में बला की तुंदी और गर्मी थी। कैसी ही आफ़त आन पड़े वो कभी न घबराता। ज़रा ज़रा सी बातों पर बड़े से बड़ा ख़तरा मोल लेने को तैय्यार हो जाता। उसे सुकून से नफ़रत थी। इस से लड़, उस से झगड़। महाज़ से वापस आया है तो डोइल लड़ रहा है, जुए में आज हज़ारों जीते तो कल सब हार दिए।
सब उसके कामियाब मआशक़ों पर रश्क करते, इस कामियाबी का राज़ पूछते। वो सर हिला कर कहता ये तो कुछ भी नहीं, हज़ारों मोहब्बतें ऐसी भी थीं जो अधूरी रह गईं। जो कभी भी न पनप सकीं। जिन्होंने बार बार मेरा दिल तोड़ा।
हमारे क़रीब एक छोटा सा ख़ुशनुमा क़स्बा था गुलशन, आस पास के बाशिंदों में केन्री शहंशाह-ए-गुलशन के नाम से मशहूर था।
पहले कभी उस पर क़त्ल का मुक़द्दमा बन गया था, मौत की सज़ा थी, फिर अजीब से हालात में वो बरी हो गया। आज़ाद हो कर उसने तहय्या कर लिया कि वो हमेशा ज़िंदगी को एक नई ज़िंदगी समझेगा जो उसे तहफ़न मिली है। उस ज़िंदगी का गुज़श्ता ज़िंदगी से वास्ता नहीं। वो हमेशा मसरूर रहेगा, आज़ाद रहेगा। जो चीज़ ना पसंद हुई उसे फ़ना कर देगा, जो भा गई उस पर छा जाएगा।
महज़ इत्तिफ़ाक़ था कि ऐसा शख़्स ज़िंदगी की शाहराह पर जैनी से मिला।
उसका प्यार आंधी की तरह उमड़ा, आनन फ़ानन में छा गया और तूफ़ान की तरह उतर गया।
वो छूट्टी पर हिंदोस्तान आया। शाम को किसी शनासा लड़की से मुलाक़ात का प्रोग्राम बना। उसे मिलने गया, वो नहीं मिली मगर वहाँ एक और लड़की से मुलाक़ात हो गई। ये लड़की जैनी थी जो अपनी सहेली से मिलने आई थी। केन्री ने जैनी को अपनी महबूबा का नइम-उल-बदल समझा और जितने दिन वो वहाँ रहा उसे नइम-उल-बदल समझता रहा। उसने क़ीमती तोहफ़ों की बारिश कर दी। अपनी दिलचस्प बातों और रंगीन कहानियों से जैनी पर जादू कर दिया। भड़कीली कारों में उसे लिए लिए फिरा। एक चाँदनी रात को जब वो समुंद्र में तैरने गए तो रेत पर बैठ कर उसने मोहब्बत का वास्ता दे कर जैनी को शैंपियन पिलाई। उम्र भर बा-वफ़ा और सादिक़ रहने का हल्फ़ उठाया। हमेशा इकट्ठे रहने के अह्द-व-पैमाँ किए। ये सब कुछ इस क़द्र पुर-ख़ुलूस था कि जैनी ने सच्च मान लिया।
इस आग़ाज़ के बाद अंजाम वही हुआ जिस की तवक़्क़ो की जा सकती थी, जो नागुज़ीर था। जैनी की ज़िंदगी में वो जिस तरह आया था उसी तरह चला गया।
लेकिन जैनी की याद उसके दिल से मुकम्मल तौर पर न गई। जब कभी उसे कोई ठुकरा देता, जब देर तक तन्हा रहना पड़ता, कोई बुरी ख़बर सुनने में आती, उदासियाँ ऊद कर आतीं तो उसे जैनी की मासूमियत, उसका ख़ुलूस और प्यार याद आता। रात की तन्हाई में हम दोनों देर तक खे़मे में बैठे रहते। बाहर सर्द हवाओं के झक्कड़ चलते तो वो जैनी को याद करता। अपने झूटे वादों को याद कर के शर्मिंदा होता, अपने आप को गुनाहगार समझता। बार बार कहता कि जैनी उन सब लड़कियों से मुख़्तलिफ़ थी जो उसकी ज़िंदगी में आईं। अगर उसकी ज़िंदगी में शादी की कोई गुंजाइश होती तो वो जैनी से ज़रूर शादी करता। वो निहायत ग़ैरमामूली लड़की थी। उसे किसी ने समझा नहीं। किसी की निगाहें उसके ख़द्द-व-ख़ाल से आगे नहीं पहुँचीं। उसकी रूह की अज़मत को किसी ने नहीं पहचाना। उस में किसी मुसव्विर की रूह थी, किसी अज़ीम शायर और बुत-तराश की रूह। उस में इतनी सलाहियतें थीं कि उनकी रिफ़ाक़त किसी की भी ज़िंदगी चमका सकती थी। उस में बला की मासूमियत थी उस में सीता का तक़द्दुस था। मरियम की पाकीज़गी थी। उसने कई मर्दों से मोहब्बत नहीं की बल्कि सिर्फ़ एक एक मर्द से मोहब्बत की, एक मर्द जिसे उसने कुलबुलाते रेंगते हुजूम से चुना और दूसरों से मुख़्तलिफ़ समझा लेकिन उस मर्द ने उसे हमेशा धोका दिया। उसकी मुस्कुराहट कैसी थी, बिल्कुल मोनालिज़ा की मुस्कुराहट, मासूम, अथाह और पुर-इसरार, उसकी मुस्कुराहट के सामने केन्री जैसा इंसान भी काँप उठा था।
लेकिन ऐसी बातें वो कभी कभी किया करता और अगली सुब्ह अक्सर भूल जाता।इसके बाद एक तवील वक़्फ़ा आया। ये वक़्फ़ा ऐसा था कि उसने सब कुछ भुला दिया। जैनी भी याद न रही। मैं हज़ारों मील के फ़ासले से वापस मुल्क में आया तो दोबारा दूर भेज दिया गया। इस अर्से में कभी कोई पुरानी याद ताज़ा हो जाती और ख़यालात के तसलसुल में जैनी आ जाती तो यही सोचता कि ग़ालिबन अब उस से कभी मुलाक़ात नहीं होगी।
लगातार तन्हाई और बहुत से कठिन लम्हों के बाद मुख़्तसर सी छुट्टी मिली। मैं क़रीब की पहाड़ियों पर चला गया। वो इलाक़ा निहायत सरसब्ज़-व-शादाब था। दूर दूर तक चाय के बाग़ात थे और मालदार सौदागरों की आबादियाँ। जहाँ मैं गया वहाँ ख़ूब रौनक थी। मेरी तरह बहुत से अजनबी छुट्टियाँ गुज़ारने आए हुए थे। चंद ही दिनों के बाद महसूस होने लगा कि बावजूद इतनी चहल पहल और शोर शग़ब के वो एहसास-ए-तन्हाई कम नहीं हुआ जो मुझे वहाँ खींच कर लाया था। एक रोज़ मैं यूँ ही खोया खोया सा फिर रहा था कि जैनी मिल गई। ऐसे दूर दराज़ ख़ित्ते में उसे पा कर मुझे अज़ हद मसर्रत हुई। इस मर्तबा तो वो पहले से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ मालूम हुई। उसकी बातों में हज़्न की आमेज़िश थी। उसके चेहरे पर पज़मुर्दगी थी लेकिन ऐसी पज़मुर्दगी जिस में अजीब जाज़िबियत थी, जो हुस्न-व-शबाब की ताज़गी से कहीं दिलफ़रेब मालूम हो रही थी, उस मुस्कुराहट में अफ़्सुर्दगी की रमक़ ने एक अजीब वक़ार पैदा कर दिया था।
वो वहाँ अपने किसी अज़ीज़ के हाँ रहती थी जो चाय का सौदागर था। वो भी अपने आप को तन्हा महसूस कर रही थी। कलब, रक़्स, पार्टियाँ, पिकनिक। सब बेहद उकता देने वाले थे। वहाँ उसका सिर्फ़ एक वाक़िफ़ था, उसी कंपनी का एक बूढ़ा मुलाज़िम जो तन्हा रहता। जिस की ज़िंदगी का सब से क़ीमती ख़ज़ाना किताबें थीं। काम से लौट कर वो बड़े एहतिमाम से किताबें निकालता। दोनों पढ़ते, बहस करते, झगड़ते... अब हम तीन साथी हो गए। छुट्टी के बक़िया दिन यूँ गुज़रे कि पता भी न चला। वापस आ कर मैंने तबादला करा लिया और जैनी के पास चला गया। हम जंगलों में निकल जाते, सैरें करते, किताबें पढ़ते, बच्चों की तरह हंसते खेलते। मैं उसे जितना क़रीब से देखता उतनी ही नई खूबियाँ पाता। वो बेहतरीन रफ़ीक़ थी। अक्सर यूँ महसूस होता जैसे मैं उसे पहले कभी मिला ही नहीं, उसकी बेपनाह जाज़बिय्यत से आश्ना नहीं हुआ। हम रक़्स पर जाते तो वो लगातार मेरी जानिब मुतवज्जा रहती। उसकी निगाहें मेरे चेहरे पर जमी रहतीं। मुझे उस पर फ़ख़्र होने लगता।
हम एक दूसरे के क़रीब ख़ामोश बैठे पढ़ते रहते। कई कई घंटों तक एक बात भी न होती, लेकिन हमारे ख़यालात हम आहंग होते, दिलों में तमानियत होती। ख़ामोशी और गोयाई का फ़र्क़ यूँ मिट जाता जैसे हम बातें कर रहे हों। पता नहीं वो कौन सा रिश्ता था जिस ने अब तक हम दोनों को क़रीब रखा। ग़ालिबन दोस्ती का जज़्बा। ये क़र्ब इस क़दर अहम हो गया कि ज़रा सी जुदाई भी शॉक गुज़रने लगी।
एक रोज़ मैंने उसकी किताबों में नज़्मों की कापी देखी। ये नज़्में जैनी ने लिखी थी। ये नज़्में किस क़दर हज़्निया थीं, कितनी कर्ब अंगेज़ और दर्दनाक। मैंने उस से पूछा कि ये उसने कब और किन हालात में लिखीं? ये उसकी लिखी हुई हरगिज़ नहीं मालूम होतीं, क्यूँकि जिस जैनी को मैं जानता हूँ वो तो दिलेर और निडर है। उसने कोई जवाब न दिया और ख़ामोश रही।
एक सहपहर को हम सैर से वापिस आ रहे थे कि बारिश शुरू हो गई। पहले तो दरख़्तों के नीचे छुपते रहे। जब मोसलाधार मीना बरसने लगा तो भाग कर एक शिकस्ता झोंपड़ी में पनाह ली। मैंने अपना कोट सूखी हुई घास पर बिछा दिया। हम दोनों बैठ गए। कुछ देर ख़ामोशी रही। मैं नज़्मों की बातें करने लगा। यूँ ही तंग करने को कहा कि पहले तो कभी भूले से भी कोई शेर उसकी ज़बान पर न आता था अब हज़ारों अशआर ज़बानी याद हैं। कहीं उसे कोई शाएर तो पसंद नहीं आ गया था? उसका चेहरा उतर गया। आँखों में आँसू आ गए। मैंने माफ़ी मांगी। शाएद कोई दुखती हुई रग छेड़ दी थी या तल्ख़ यादें ताज़ा करा दी थीं। उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। दोबारा माफ़ी मांगी। एक फीकी सी मुस्कुराहट उसके लबों पर आ गई। जब वो मेरे शाने से सर लगाए बैठी थी, तो ऐसी नन्ही मुन्नी बच्ची मालूम हो रही थी जो रास्ता भूल गई हो। बिल्कुल बे यार-व-मददगार हो और सहारे की तालिब हो। मैंने उसके आँसू ख़ुश्क किए। दोनों हाथों से उसके चेहरे को थाम कर उसे प्यार किया। उन बा-रहा चूमे हुए होंटों पर अब तक ताज़गी थी। उन आँखों में अब तक मासूमियत थी। उन रुख़्सारों पर वही जला थी। ये लड़की अब तक वही लड़की थी जिसे मैंने बरसों पहले जी बी के साथ मुबाहसे में देखा था। उसकी ज़िंदगी की एक कहानी ऐसी भी रह गई थी जो मैंने नहीं सुनी थी। ये कहानी उसने ख़ुद सुनाई। ये एक शायर के मुतअल्लिक़ थी जो शराबी था, जुवारी था, ग़ैर ज़िम्मेदार था, झूटा था। अपनी ख़ुद्दारी और इन्फ़िरादियत को ख़ैर बाद कह चुका था। जिस की हरकतें देख कर अफ़सोस की बजाए ग़ुस्सा आता। जैनी हमेशा उस पर तरस खाती। हर मुम्किन तरीक़े से उसकी मदद करती सिफारिशें कर के उसका कलाम छपवाया। उसे इधर उधर मुतआरिफ़ कराया। उसकी हौसला अफ़्ज़ाई की कि शायद ये इसी तरह सुधर जाए। इसकी ज़िंदगी बेहतर बन सके और वो बेशुबहा ख़ज़ाना जो उसके दिमाग़ में महफ़ूज़ है कहीं ज़ाए न हो जाए। तरस का ये जज़्बा दिन ब-दिन बढ़ता गया। जैनी ग़ैर शऊरी तौर पर उसके क़रीब होती गई। फिर इस जज़्बे ने एक और शक्ल इख़्तियार की। जैनी को ख़ुद इल्म नहीं था कि जिसे वो महज़ जज़्बा-ए-तरहम समझ रही है एक दिन मोहब्बत का पेशख़ेमा साबित होगा। जैनी ने एक आवारा-व-बे-ख़ानमाँ को पनाह दी। अपनी तवज्जा और अपना प्यार ऐसे इंसान पर ज़ाए किया जो हरगिज़ उसका हक़दार न था। वो सुधरता जा रहा था। उसकी हालत पहले से बेहतर होती जा रही थी। वो कहा करता कि कि उसे जैनी की गुज़श्ता ज़िंदगी से कोई सरोकार नहीं। अब तो उसे अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी से भी तअल्लुक़ नहीं रहा था। उसकी ज़िंदगी तब से शुरू हुई जब उसने जैनी को पहली मर्तबा देखा। पता नहीं उस से पहले वो क्यूँ कर जीता रहा लेकिन अब वो जैनी के बगै़र ज़िंदा नहीं रह सकता। उसने अपनी नज़मों में बारहा जैनी को मुख़ातब किया था। तुम्हारे दिल में ख़ुलूस के चश्मे उबलते हैं। मोहब्बत का क़ुलज़ुम रवाँ है। तुम्हारे दिल में वो जज़्बात हैं जिन पर रात दिन का तसलसुल क़ायम है। ज़मीन-व-आसमान की गर्दिश क़ायम है। वो जज़्बात जब फ़ना हो गए इंसानियत फ़ना हो जाएगी। दुनिया चांद सितारों की तरह उजाड़ और सुनसान हो जाएगी। यहाँ कुछ भी न रहेगा।
एक रोज़ उसने जैनी को बताया कि वो बीमार है, उसे दिक़ है। कभी कभी ये बीमारी ऊद कर आती है। काश कि वो तंदरुस्त होता, तब किसी रोज़ वो दोनों शादी कर लेते। ज़िंदगी कितनी सुहानी हो सकती थी। कैसी कैसी राहतें मयस्सर होतीं। तब वो सब अज़ीयतें भूल जातीं जो दुनिया के जहन्नम में अब तक बर्दाश्त की थीं।
वो यूँ ही आवारगी में मरना चाहता था लेकिन बड़ी मुश्किलों से जैनी ने उसे सेनीटोरियम में भेजवाया। उसका फ़ालतू ख़र्च बर्दाश्त करने के लिए वो दिन भर दफ़्तर में काम करती। रात को ट्यूशन पर लड़कियों को पढ़ाती। लगातार मशक़्क़त ने उसे कमज़ोर कर दिया। वो बीमार रहने लगी। वक़्त गुज़रता गया। एक दिन उसे मालूम हुआ कि शायर सिर्फ़ इसी के लिए नज़्में नहीं कहता। उसके तख़य्युल में कोई और भी शरीक है। ये सैनीटोरियम की एक नर्स थी जिसे वो बाद में मिला था।
जैनी ने इस अफ़्वाह पर तवज्जे न दी, यूँ ही किसी ने उड़ा दी होगी। वो वहाँ रात दिन एक से माहौल में रह रह कर दिखा गया होगा। उसे तफ़रीह भी तो चाहिए। किसी से हंसने बोलने में कोई हर्ज नहीं। जब वो उस से मिलने जाती तो नर्स के लिए भी तहाएफ़ ले जाती। उन दोनों की दोस्ती पर उसने कभी शुबा नहीं किया लेकिन ये अफ़्वाह महज़ अफ़्वाह नहीं रही। शायर सैनी टोरियम से तंदरुस्त हो कर आया तो उसने शादी कर ली। नर्स के साथ। जैनी फिर भी उस से मिलती रही, उसे माली मदद देती रही। आख़िर नर्स ने इन मुलाक़ातों पर एतिराज़ किया कि जैनी जैसी लड़की से मिलना बदनामी मोल लेना है। शायर ने इस एतिराज़ को सर आँखों पर लिया और जेनी से मिलना छोड़ दिया। मौक़ा मिलने पर वो उसे बदनाम भी करता। ग़ज़लों में अपने कारनामे बयान करता और जैनी के पुराने आशिकों के क़िस्से दोहराता।
जब वो कहानी सुना चुकी तो मैंने उसे बताया कि हम पुराने दोस्त हैं। दोस्ती अज़ीम तरीन रिश्ता है। ख़ुलूस पर मेरा ईमान है। मैं इंसानी कमज़ोरियों से हरगिज़ मुनकिर नहीं। शायद मुझे अच्छे बुरे की तमीज़ न हो लेकिन इन जज़्बात की क़द्र करता हूँ, जिन में ख़ुलूस कारफ़रमा हो ख़्वाहाँ जज़्बात का अंजाम कैसा ही हो। ज़िंदगी में तब्दीलियाँ आती रहती हैं ज़हनी कैफियतें भी देर पा नहीं होतीं लेकिन वो जज़्बात जो अपने वक़्त पर सादिक़ थे, हमेशा सादिक़ रहते हैं। इस लिए वो मद-व-जज़्र जो तुम्हारी ज़िंदगी में आए नागुज़ीर थे। तुम सच्ची थीं। तुम्हारे जज़्बात सच्चे थे। मैंने तुम्हें बहुत क़रीब से देखा है। तुम्हें पसंद करने के अलावा मैं तुम्हारी इज़्ज़त भी करता हूँ।
आहिस्ता आहिस्ता उसने लोगों से मिलना छोड़ दिया। बाहर जाना बंद कर दिया। वो हर वक़्त मेरी मुंतज़िर रहती लेकिन अब वो मसरूर नहीं थी। अब उसे माज़ी या हाल का इतना ख़याल नहीं रहा था जितना कि मुस्तक़बिल का, वो तन्हा और उदास थी। कई मर्तबा मैंने उसे क़ब्रिस्तान में बैठे देखा। एक रोज़ मैं वहाँ उसके पास चला गया। वो अजीब सी बातें करने लगी। कभी ऐसे पुर-सुकून लमहात भी आएँगे जब मैं भी इसी तरह सो जाऊंगी। वो ख़ामोशी कितनी सुहानी होगी? मौत के बाद अगर्चे महज़ खुला होगा, दिलदोज़ तारीके होगी लेकिन वो तारीकी इस कर्ब अंगेज़ उजाले से हरगिज़ बुरी नहीं होगी।
फिर अंग्रेज़ी में लिखा हुआ ये शेर दोहराया मैं उन बदनसीबों में से हूँ जिन्हें हर सुब्ह निहायत क़लील रोशनी मिलती है। उम्मीद की इतनी सी जला कि सिर्फ़ दिन भर ज़िंदा रह सकीं। जिस रोज़ ये रौशनी न मिल सकी मैं ज़ुलमतों में खो जाऊँगी।
मैंने रंगीन और ख़ुशनुमा चीज़ों की बातें कर के मौज़ू बदलना चाहा लेकिन वो बोली। काश तुम अंदाज़ा लगा सकते कि मैं किस क़दर ग़मगीं हूँ? किस क़दर अफ़्सुर्दा हूँ? अगर अब मुझे सहारा न मिला तो मेरे ख़्वाब तमाम हो जाएँगे। उसूल ख़त्म हो जाएँगे। मैं गुम हो जाऊँगी।
फिर एक दिन जब मैं इन अफ़्वाहों की तरदीद करना चाहता था जो हम दोनों ने बा-रहा अपने मुतअल्लिक़ सुनी थीं वो कहने लगी तुम मुझे जानते हो, समझते हो। मैं भी तुम्हारी सय्याह रूह से आश्ना हू। तुम्हारे अनगिनत मशगलों, तरह तरह के ख़्वाबों का मुझे एहसास है। मैं तुम से सिर्फ़ ज़रा सी तवज्जे मांगती हूँ। बिल्कुल ज़रा सा सहारा। अपनी ज़िंदगी का क़लील सा हिस्सा मुझे दे दो, मैं हमेशा क़ाने रहूँगी। मैं कभी तुम पर बार नहीं हूँगी। तुम मेरा साथ न देना मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।
मैं इस इशारे को समझ गया। पहले भी कई मर्तबा उसने ऐसी बातें की थीं। मैं ये भी जानता था कि औरत और मर्द की दोस्ती निहायत महदूद है इस पर कई अख़लाक़ी और समाजी बंदिशें आएद हैं। ये बंदिश एक हद तक दुरुस्त भी हैं। आख़िर एक मुक़ाम आता है जहाँ फ़ैसला करना पड़ता है।
मैं स मुक़ाम से लौट आया।
फ़ैसला करने का वक़्त आया तो मैं बुज़दिल साबित हुआ मैं ख़ामोश हो गया। ख़ामोश हो कर मैं उस गिरोह में शामिल हो गया जो जैनी की ज़िंदगी में मुझ से पहले आया। गिरोह जो ब-ज़ाहिर अपने आप को बाग़ी ज़ाहिर करता, लेकिन दर-अस्ल समाजी रिवायात का ग़ुलाम था। जैनी समझ गई। फिर उसने कभी ऐसी बातें नहीं कीं। हम दोनों में एक मुआहदा सा हो गया। अगर्चे ये मुआहदा ज़बान पर नहीं आया, लेकिन तय हो गया कि जब तक एक दूसरे के क़रीब हैं, महज़ पुराने दोस्तों की तरह रहेंगे।
फिर मैंने तबादले के लिए कहा तो मुझे दूसरी जगह भेज दिया गया। चलते वक़्त जैनी मुझे छोड़ने आई उसकी आँखों में आँसू थे। पहली मर्तबा मैंने उसे सब के सामने रोते देखा। उन आँसुओं के बावजूद वो मुस्कराने की कोशिश कर रही थी। बार बार वो आँखें ख़ुश्क करती और जब मैंने रूमाल मांगा तो उसने बिल्कुल पहली सी शोख़ी से पूछा कि रूमाल लेकर क्या करोगे? मैंने कहा इसे यादगार के तौर पर रखूँगा।
और मेरे आँसू क्यूँ कर ख़ुश्क होंगे? उसने गीला रूमाल देते हुए पूछा।
चंद महीनों के बाद मैंने सुना कि उसने किसी से शादी कर ली।
जो जवाब मैंने उसकी मुस्कुराहट से माँगा था वो नहीं मिला। फिर यकलख़्त मालूम हुआ कि मौसीक़ी ख़त्म हो चुकी है। रक़्स ख़त्म हो चुका है और लोग खाने के लिए दूसरे कमरे में जा रहे थे। मैं और जी बी भी चले गए। जब देर के बाद वापस आए तो जैनी जा चुकी थी। उसका ख़ावंद भी वहाँ नहीं था।
मुझे यूँ ही ख़याल सा आया कि इस मर्तबा जैनी से बहुत कम बातें हुईं। मैं उस से दूर दूर रहा। न उस से कुछ पूछा न बताया। उस से रूमाल भी तो नहीं मांगा।
न जाने क्यूँ मैं उस गोशे में चला गया जहाँ जैनी और उसका ख़ावंद बैठे रहे थे। मैंने देखा कि मेज़ के नीचे एक मसला हुआ रूमाल पड़ा है जो रक़्स करने वाले लोगों के क़दमों तले आ चुका था। मैंने उसे उठा लिया, झाड़ा, सलवटें दूर कीं। जानी पहचानी ख़ुशबू से फ़िज़ा मुअत्तर हो गई। ये रूमाल यहाँ कैसे आया? जैनी जानबूझ कर मेरे लिए छोड़ गई, या यूँ ही इत्तिफ़ाक़ से रह गया।? देर तक मैं इस रूमाल को लिए वहीं खड़ा रहा। इस रौंदे हुए, मसले हुए सुर्ख़ दिल को देखता रहा जो अब तक ख़ुमार आगीं ख़ुश्बू में बसा हुआ था।
जेनी का दिल औरत का दिल।
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