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ज्वालामुखी

अबुल फ़ज़ल सिद्दीक़ी

ज्वालामुखी

अबुल फ़ज़ल सिद्दीक़ी

MORE BYअबुल फ़ज़ल सिद्दीक़ी

    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे व्यक्ति की कहानी, जिसे फ़ालिज मार देता है। इस बीमारी में उसकी बीवी उसका बहुत ख़याल रखती है। वह भी उससे बहुत मोहब्बत करता है। मगर जब उसे पता चलता है कि उसके बड़े भाई के साथ उसकी बीवी के अवैध संबंध हैं तो वह अपने दोनों हाथों में उसकी गर्दन को दबाकर, उसकी नाक को पूरी तरह चबा जाता है।

    मा’लूम किधर से ई’दू के अंदर का मर्द जैसे तड़प उठता! आँखों में रस सा छलक पड़ता और सीधा होते होते होंट ख़ातून के रुख़्सारों पर से फिसलते बीर बहूटी से होंटों से चिपक जाते और निहायत चाबुकदस्ती के साथ भरे-भरे बदन के गुदाज़ नुक़ूश और मख़्मली ख़ुतूत के नशेब-ओ-फ़राज़ का जायज़ा लेने लगते और फिर बड़े ज़ोर से भींच लेते और वो जैसे काठ के शिकंजे में कस जाती।

    यही नहीं कि ख़ातून ही का ख़ून मथ हो जाता। ई’दू के होंट भी चिपचिपा कर दब से जाते। बीमार आँखों में लाल डोरे उछल जाते, सांस थरथरा जाती। गोया भूला हुआ सबक़ याद जाता और पिछले पाँच साल की रात शब-ए-बरात और दिन ई’द के हंगामों में से बस इतनी ही इस्ति’दाद बाक़ी रह गई थी जैसे सर कुचलने के बाद साँप में बल और एँठ बाक़ी रहती है और फ़ालिज के मारे हुए ई’दू के अंदर जैसे शहद की सूरत ज़हर लहराता और ख़ातून को तो सच-मुच उस वक़्त साँप डस लेता...!

    बक़ौल शख़्से... “ज़िंदा दर-गोर, क़ब्र में पांव लटकाए”, ज़ेर-ए-नाफ़ कुल्लिया मफ़लूज... निचला धड़ बेकार और हरकत से मा’ज़ूर, और कमर के ख़ास आ’ज़ा को तो बिलकुल ही मुर्दा कहिए। मगर बक़ीया पूरी रीढ़ तंदुरुस्त थी और ऊपर का बदन बिल्कुल सही फिर भी ख़ुद उठकर बैठ सकता था और जब ख़ातून उठा कर बिठा देती तो खूँटा सा बैठा तो रहता लेकिन बस बैठा ही रह जाता और बग़ैर सहारे लेट सकता और लेट कर भी तख़्ते की तरह पड़ा ही रहता और बग़ैर थोड़े से सहारे के पूरी लाश के साथ आसानी से करवट भी ले सकता था।

    और ख़ातून जब खाना लेकर आती तो बिलउ’मूम रात के खाने के बाद लिटाते हुए सहारा देते वक़्त मफ़लूज ई’दू में डेढ़ साल पहले वाला शौहर जाग पड़ता और फिर वो करमो जली सरशाम की छड़ी मुफ़्त में सुबह तक फुंकती रहती... ख़ातून में शौहर गुदगुदाता रहता और ये बे-ख़बर पड़ा सोता रहता... छः फ़ुटा कोरों का लट्ठा सा खड़ा, चलते-फिरते, कूदते-फाँदते ख़्वाबों में गुम, जब उस के बीस गिरह सीने और सोलह गिरह चौड़े पेट के नीचे भैंसे की तरह चबूतरा सी कमर थी जिसमें जमुना पारो की तरह मज़बूत दो टांगें थीं ,जमुना पारो बैल की तरह मज़बूत और काठियावाड़ी घोड़े की तरह तुंद टांगें जिनकी धमक के मारे धरती पानी छोड़ती और पाताल थरथराता... ई’दू को लिये लिये फिरती और ई’दू तो ख़्वाब में ही ई’दू होता। मगर ख़ातून पर सारी रात जागते ई’दू ही ई’दू सवार रहता...!

    फ़ालिज गिरने के बाद छः सात महीने तो ई’लाज की मस्रूफ़ियत और तंदुरुस्ती की उम्मीद रही। फिर जब गांव और क़स्बों तक के सब वेदों, हकीमों और डाक्टरों ने जवाब दे दिया तो कुछ दिनों अबदी मा’ज़ूरी का शदीद एहसास और दाइमी नाउम्मीदी, संगीन क़ुनूतियत सी तारी रही मगर फिर हालात के इस्तिक़लाल और वक़्त के मरहम ने सब्र की कैफ़ीयत पैदा कर दी और मजबूर हालत से मुतमइन होते ही भोली बातें याद आने लगीं। बेमा’नी सी रुजूईयत ने ऊ’द किया। पहले दो एक रोज़ तो ज़रा डरते-डरते शुरूआ’त की और फिर ये मुहमल इख्तिलात और प्यार रात के खाने के बाद का मा’मूल बन गया।

    जैसे ख़ुद को धोका देते हुए ख़ातून ने शुरू-शुरू में तो कुछ दिनों तक मा’लूम क्यों शौहर की दिल-शिकनी के लिहाज़ में शायद बातिल ख़ुद फ़रेब सी उम्मीदी में इस झूट-मूट के खेल का तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया मगर उसका जवाब तो उसका सवाल ही हो सकता था और जब सिरे से सवाल ही ग़ायब है तो जवाब क्या हो सकता था जैसे कुछ अपना मुँह आप ही चिढ़ा कर रह जाती और उसके गुलाबी रुख़्सारों ,पंखुड़ी से होंटों पर जैसे काला नाग सर-ए-शाम मा’लूम कितने फन मार देता। उसके सीने, बाज़ुओं और पुश्त पर और मा’लूम कहाँ-कहाँ मशा’ल सी फिर जाती और फिर पूरी रात अंगारों पर कट जाती। चट चट, चटाचट, कबाब की तरह चटख़्ते, भुनते, सुलगते और एक मर्तबा अंदर ही अंदर झुँझला कर ज़रा संजीदगी के साथ शौहर की इस तलब मजहूल पर ए’तराज़ किया और इसका जवाब मांगा तो ई’दू टटोलता -टटोलता दिल से उतर कर ख़ातून की बात का जवाब तलाश करता पेट तक पहुंचा। ख़ैर यहां तक तो शायद कुछ बाज़गश्त जैसी आवाज़ महसूस भी होती थी। मगर एक ज़रा बढ़कर कमर पर तो मौत का सन्नाटा था और वो मुहमल चीज़ भी मा’दूम थी...! और मस और बोसा ख़्वाह हक़ीक़ी हो या मजाज़ी तहरीक तो रखता ही है और ये तो ‘ये’ होता है ‘वो! मगर उस बेचारी के लिए तो किसी मद में होते हुए भी तूफ़ान सा तुंद और आग सा तेज़ होता और बग़ैर किसी जवाब के ई’दू अपनी हरकत से बाज़ आने वाला था। उस शोख़ बच्चे की तरह जो तालाब के ठहरे हुए पानी में कंकरियां फेंक कर गोल-गोल मुतलातिम लहरों का तमाशा देखता है और वो बेचारी हर रात जैसे पिछले पाँच साल ऐश कोशियों और शब बाशियों के रद्द-ए-अ’मल से दो-चार हो कर सुबह को ख़ुमार ज़दा शराबी की तरह उठती जिसके पस-ए-मंज़र में शराब के सुरूर का भी कोई सुराग़ होता... ख़ुमार ही ख़ुमार सर-ए-शाम का चढ़ा सुबह तक...! ! और सुबह से शाम तक आ’ज़ा शिकनी और पटख़न ही पटख़न! हमा वक़त जलन ही जलन... ? प्यास ही प्यास सारा दिन! भूक ही भूक तमाम रात!

    ख़ातून नौजवान थी। ग़ज़ब की तंदरुस्त बला की हसीन, और कल की बात है उसकी नौजवानी, तंदुरुस्ती, निसाइयत और ज़ौजियत के पूरे-पूरे हुक़ूक़ ई’दू कंधे से कंधा मिलाए निहायत मुस्तअ’दी के साथ अदा करता रहा था। अच्छे भले पर फ़ालिज गिरा, अगर मर जाता तो उसका सोख़्ता नसीब जवान मिट्टी भी सहारे लग ही जाती और कहीं नहीं तो चार पाँच बिरादर दो बोल पढ़वा कर शबराती से ही पल्लू बांध देते, घर के घर ही में, इससे क्या कि शबराती दो बच्चों का बाप था और अपनी जोरू का ख़सम, था तो ई’दू का बड़ा भाई, बाप की जायदाद और भाई की नाक किसी और के कैसे हवाले कर देता। मरे पार भरे पार। घर की बहू थी। बेवा भावज सही दूसरी बीवी बना कर भरता ही मरता और अब अकेला अपाहिज भाई को चारपाई पर पड़े-पड़े खिला ही रहा था और पामर्दी से अकेला धड़ी भर आटा और खाने वाले कुन्बे को ज़रासी आबाई ज़मीन जोत कर पाल रहा था। मगर ख़ातून तो साँप के मुँह में छछूंदर थी और साँप भी गिरिया टूटा... और साँप भी नहीं मसले हुए संडे के पल्ले बंधी हुई... और ख़ातून की ज़िंदगी का धारा हर शाम चढ़ता रहा और हर सुबह उबलता रहा और बहता पानी तो अपनी सतह ख़ुद तलाश करता है... और पस्ती में सुकून पा कर ही दम लेता है।

    कमर, टांगों से अपाहिज ई’दू के हवास-ए-ख़मसा बड़े ज़की-उल-हिस हो गए थे। कोई मौसम हो वो बाहर तो निकल ही सकता था, जाड़ा हो या गर्मी मुआ’लेजीन ने हर मौसम में बंद जगह पर लिपटे लिपटाए पड़े रहने की हिदायत कर दी थी। थोड़ा बहुत ‘ईलाज-ओ-मुआ’लिजा रस्मी मालिश टकोर मुस्तक़िल चलती रहती थी। जाड़े के बाद पहली गर्मी आने पर ख़ातून ने अंदर कोठरी में उस चारपाई के बराबर अपनी चटाई बिछाली और बदस्तूर वहीं लेटती रही... मगर जेठ-बैसाख और सावन भादों की जलती-उबलती रातों में वो कैसे अंदर सो सकती थी, फिर भी शिकायत की मगर ई’दू को ख़ुद ही एहसास हो गया और उसने इसरार कर के उसका बिस्तर कोठरी के सामने छप्पर के बरामदे में लगवा दिया और फिर जाड़ों में बरामदे के एक गोशे में उसने अपना पियाल डाल लिया और ये उसकी मुस्तक़िल सोने की जगह हो गई और बरामदे में तो ख़ातून और भी चौकन्नी नींद सोने लगी। फिर इतने अ’र्से में शौहर की नींद और मर्ज़ के मिज़ाज की भी पूरी मुहरम हो गई थी।

    रात के हर हिस्से में पहली मठार पर मछली की तरह तड़प कर बिस्तर से निकल आती और शौहर की पट्टी से खड़ी होती, एक दफ़ा’ कोठरी में आवाज़ देने की नौबत जाती थी। मगर बरामदे में तो जैसे पहली सांस सुन लेती और ई’दू के दिमाग़ पर तो फ़ालिज गिरा था। उसे तीमारदारी और ख़िदमत का शदीद एहसास था... इसके साथ अपनी ज़िंदगी के पाँच साला अज़दवाजी दिनों की चिपक़लशों और हंगामों की यादें रंगीन ख़्वाबों की तरह अ’लील ख़ून में गूंजती थीं। जैसे स्टेज पर नग़मा रेज़ी करते हुए दो मुग़न्नी आहिस्ता-आहिस्ता नग़मा ख़त्म कर के चले जाते हैं और, फिर बड़ी दूर से मीठी-मीठी मद्धम निसाई आवाज़ मर्मरीं सामिआ’ नवाज़ी करती रहती है और अब! अब तो यकतरफ़ा नग़मा! दूसरा सुर, कन सुरा भी नहीं, ख़ामोश, गूँगा! ! और आज! आज भी उसे उसकी नौजवानी के शदीद तक़ाज़े मा’लूम थे और वो ख़ातून के हर पहलू का आश्ना था और सच्चा महरम -ए-राज़! और अब तो उसे ऐसा महसूस होता कि जैसे क़हर गिराने के साथ अल्लाह मियां ने उसके हक़ में फ़रिश्ता रहमत भी नाज़िल कर दिया है और प्रोग्राम की पहली शिक़ से लेकर आख़िरी शिक़ तक रात को बिस्तर पर लेट कर सोने से पेश्तर रोज़ाना उसकी बंद आँखों के सामने घूमती, सुबह ही सुबह पेशाब पाख़ाने के बर्तन ले आना और बिठा कर रफ़ा हाजत कराना, फिर तहमद की घुंडी लगा कर लिटाना और पेशाब-पाख़ाना उठा कर ले जाना। थोड़ी देर बाद गर्म-गर्म दूध का प्याला लेकर आना और फिर उठा कर हाथ से पिलाना।

    दोपहर तक एक दोबार पेशाब कराना और वक़्त, वक़्त पर करवट बदलवाना, फिर दोपहर को शोरबे या दाल में गली हुई रोटी लेकर आना। और खड़े हो कर खिलाना... सह पहर तक दो मर्तबा फिर पेशाब कराना और चार करवटें बदलवाना और पांव कमर पर मालिश करना। सर में तेल डाल कर कंघी करना। जुमे के जुमे गर्म पानी नाँध भर कर लाना और रुई के गालों से तमाम बदन पर पुजारा फेरना। सर में पड़ा और खली डाल कर सफ़ाई करना और मा’लूम क्या-क्या करना। जितनी ‘क’रें थीं सब बीवी ही के ज़िम्मे थीं। और शौहर के सर एक भी नहीं और शायद इन्ही ‘करों’ के शदीद एहसास से उसके ठंडे ख़ून में रात के खाने के बाद लहर सी उठती और उसके हाथ ख़ातून के बदन पर नाचने लगते। और होंट रुख़्सारों पर फिसल कर होंटों से जा चिपकते... मालूम क्यों? और ई’दू फिलोस्फ़र तो था नहीं आदमी था, आदमी भी एक चहारुम, और तीन चहारुम मिट्टी का तोदा। अगर चहारुम भी आदमी होता और सब का सब मिट्टी का तोदा ही होता तो भी कहते हैं कि मिट्टी का तोदा भी एहसास कर लेता है। लेकिन इस चहारुम आदमी में ही पूरे चार आदमियों की हिस थी और तीन चौथाई मिट्टी का तोदे में बिच्छू के डंक जैसी सोज़िश! वो ख़ूब समझता था कि वो उसकी रोज़ी का ख़ुद कफ़ील नहीं, उसको बड़े भाई की मेहनत से मिलती है। उसकी नौजवानी के लहराते जज़्बात का कफ़ील नहीं और शायद उसकी किफ़ालत किसी पर नहीं है जो रोज़ी से ज़्यादा शदीद तक़ाज़ा है और वो भरा भर जवानी चौकड़ी भोली हिरनी है रेत के टीलों में गुम! जिसे अपना रास्ता याद नहीं, बस जस्तें ही जस्तें और तलाश ही तलाश मुक़द्दर है... और माघ पूस की एक यख़-बस्ता अँधेरी रात में ख़िदमत और तीमारदारी के एहसान की चट्टान के तले दबे बीमार-ओ-नज़ार ई’दू की ख़िलाफ़-ए-मा’मूल आँख खुल गई।

    कोठरी के दरवाज़े का एक किवाड़ बंद था, दूसरा आधा खुला हुआ था। सामने बरामदे में पियाल पर ख़ातून का बिस्तर था, और जैसे पियाल पर उठने की सर सराहट हुई और फिर बरामदे की दहलीज़ पर साया सा जाता मा’लूम हुआ, और साये की हरकत से ई’दू ने अंदाज़ा लगाया कि ख़ातून उठकर बाहर गई और सेहन में दूसरी जानिब एक और साया बढ़ा, और कोहरे और धुंए की डोलती हुई मुतहर्रिक काली चादर में लिपटे होने के बावजूद उसने बड़े भय्या के साये को पहचान लिया और समझ गया कि शबराती अपनी कोठरी से बाहर निकल आया। सेहन में दोनों साये जमा हो गए। सामने कोठार का दरवाज़ा था और जैसे दोनों कोठार की जानिब बढ़े और कोठार की ज़ंजीर और किवाड़ खुलने का मख़्सूस खटका, जिससे इर्द-गिर्द के कान बचपन से ख़ूब मानूस थे और फिर ख़्वाह कितने ही आहिस्ता किवाड़ बंद हुए मगर उस की चर्ख़ चूँ तो ई’दू के कानों में, पोतड़ों में पड़ी थी... और ई’दू की कोठरी अंधेरे को चीरती, सेहन के अंधेरे को फाड़ती कोठार के किवाड़ों को तोड़ कर उस पार की तारीकियों में सब कुछ देख रही थी और अंदर गर्मी की नमी और नमी से जैसे नाक को टिसुवे पर महसूस हो रही थी, बरसात की सीलन सी, बदबू, भकरांद... गोया स्क्रीन पर दो खेलती मूरतें, ज़िंदा! एक जान और दो क़ालिब, रोंगटा-रोंगटा, मुतहर्रिक ही मुतहर्रिक, गर्म ही गर्म, गर्म और नम और उसे एक झुरझुरी सी महसूस... माघ-पूस की मिली-जुली रात में लू की सी झुरझुरी...! मगर वो तो हरकत से भी मा’ज़ूर था, गर्मी से भी महरूम... मगर नाक के ठंडे टिसुवे से लेकर नाक तक सनसनाहट हो गई... जैसे कोई चीज़ बड़ी तेज़ी से रेंगती चली गई। सन. सन सना. नाना. साएँ...! अ’लील ख़ून में जवार भाटा सा उठा और किनारे दूर कहीं आधे रास्ते पहुंच कर मंधा गया... लेकिन दिल तो मफ़लूज नहीं था और दिमाग़ भी तंदुरुस्त था, और दिल ने ख़ून की मोटी धारें साफ़ कर के दिमाग़ की जानिब अंधा धुंद फेंकनी शुरू कीं... और दिमाग़ ने तजज़िया किया और एक लहर सीधी नीचे को बढ़ी मगर कमर के पथरीले बंद से टकरा कर वापस आई, और जैसे रद्द-ए-अ’मल में सरसराते नागों की तरह लहराती दिमाग़ की जानिब लपकी, और सीने में से गुज़रते हुए लहराते साँप कतरा कर जैसे दिल के किसी सुराख़ में जा छुपे और फिर ख़ून साफ़ हो कर सलामत-रवी की चाल चलने लगा। चंद मिनट में पूरी एक किताब दिल-ओ-दिमाग़ के मुजावले पर मुरत्तिब हो कर सीने के संदूक़ में महफ़ूज़ हो गई।

    खटके पर कान चौंके, कोठार के किवाड़ खुले और बीवी और भाई के साये फिर सेहन में काँपते हुए मा’लूम हुए, पियाल के तिनके भीन-भिनाए और ख़ातून का साया सामने बिस्तर में दुबक गया और मा’ज़ूर मफ़लूज के अंदर सवाल उभरे और अंद रही अंदर जवाब मिल गया। “हूँ! जिन्स का जायज़ा लेने गए होंगे भावज जेठ कोठार में...” मगर आधी रात जिन्स के जायज़े का कौन सा वक़्त है?... हुँह! नहीं-नहीं चोर का शुब्हा हुआ होगा... चूहों के खटके पर... हूँ,उंह ... और उसने आँखें भी बंद कर लें और लिहाफ़ में मुँह भी ढक लिया और आँख बंद करते ही सुबह की पेशाब पाख़ाने से लेकर निगाह सोते वक़्त के दूध कटोरे तक पहुंच गई, और फिर ज़ोर से बढ़कर हफ़्तों, महीनों और सालों तक पीछे देखती चली गई और उल्टी चल कर फिर और फिर आगे गई तो ज़िंदगी का रोज़गार था, तारीक और ला महदूद, और उसका किनारा तो आँख फाड़-फाड़ कर देखने के बावजूद कहीं दूर दूर दिखाई पड़ा, ख़ातून या मा’ज़ूरी का सहारा, बुढ़ापे की टेक और बीमारी की दवा... और ई’दू देहाती, दिल और मजबूरी में समझौता करा कर सो गया और सुबह को बिल्कुल मुतमइन उठा, जैसे शेर ख़्वार बच्चा बेदार होता है माँ के हाथों का थपका मीठी लोरी पर गहरी बे-ख़बर नींद सो कर... और सूरज की पहली किरन के साथ तो जैसे उस पर सातों तबक़ रोशन हो गए। ख़ातून हस्ब-ए-मा’मूल पेशाब पाख़ाने का बर्तन लेकर आई, अपनी मा’ज़ूरी और बीमारी... उस की ख़िदमत और तीमारदारी... और फिर जैसे रात के वाक़िया’त का हल्का सा साया सा दिमाग़ के पर्दे पर मुना’किस हुआ और फ़ौरन ही मा’दूम हो गया... ख़ातून की भरभराती जवानी... शबराती की जाँ-फ़िशानी... जो अपने बल पर अकेला ज़रासी आबाई ज़मीन के सहारे पूरे कुन्बे का बार उठाए हुए है... और सबसे ज़्यादा ख़ुद उसका अपना बार, चारपाई पर पड़े पड़े! और वो और ख़ातून दोनों उसी पर तो लदे हुए हैं... और समझौता रासिख़ तर हो गया। बार टल गया... उधार चुक सा गया... दिन का दिन चढ़ गया और रात उतरता हुआ क़र्ज़ सुबह के सुबह पाक!

    बहार की एक नमनाक ख़ुन्क सुबह को ई’दू की आँख जैसे किसी शोर पर खुली... चिड़ चिड़... चिड़ा चिड़ छत से दो चिरौंटे लड़ते हुए चारपाई के बराबर ज़मीन पर गिरे और गुथ गए। और चिड़ियों के दो जोड़े हमेशा से छत में रहते थे और ई’दू की तन्हाई के रफ़ीक़ थे और ई’दू उनमें से हर एक की जिबल्लत का पूरा महरम और दिन के सुनसान घंटों में उनके मशाग़ल देख-देख कर वक़्त काटता और दिल बहलाता था, दो तीन रोज़ से बड़े चिड़े की चिड़िया ग़ायब थी। शायद किसी और चिड़े के साथ चली गई थी या बाज़ शक्रे ने झपट ली थी और छोटे चिड़े की चिड़िया उस वक़्त मह्व-ए-नाज़ थी। नीचे पहुंच कर दो मिनट फ़ुदक फ़ुदक कर चोंच पंजों से चलती रही फिर कुश्ती होने लगी। कभी ये ऊपर कभी वो... कुछ दूर पर चिड़िया बैठी देखती रही जैसे नतीजे की मुंतज़िर, चारपाई पर पड़ा ई’दू देखता रहा शायद नतीजे से बाख़बर... और जैसे दोनों चिड़ों के ख़ून का जोश ई’दू के सीने में सनसना या, चिड़ियों का दल का दल गर्दन से रेंग कर कमर की जानिब बढ़ता महसूस हुआ... मगर आगे तो रास्ता बंद था जैसे कुछ अपना था ही नहीं, गोया किसी और के, शायद शबराती के कमर, कूल्हे, रानें, पिंडलियां फ़ुट थीं और ऊपर नीचे में रब्त था, और जब उसने गर्दन उठा कर देखा तो छोटा चिड़ा शिकस्त खा कर फ़रार हो रहा था, और दूसरी निगाह डाली तो सामने खूँटी पर बड़ा चिड़ा उस चिड़िया के साथ इख्तिलात कर रहा था... ई’दू ने एक लंबी सांस ली... ये तो गर्दन से लेकर दुम तक पूरे गिर्यों वाला भी शिकस्त खा गया...! और शिकस्त खाने की क़ुव्वत तो थी उसमें! और यहां तो ये भी नहीं... शिकस्त खा कर भी शिकस्त के लिए उसे किसी की मदद दरकार है। पांव से लेकर कमर तक उफ़्तां-ओ-ख़ीज़ां निगाह चढ़ी और जैसे रौंगटे-रौंगटे पर ठोकर खाती कमर पर पहुंच कर चारों ख़ाने चित्त जा पड़ी, आँखें बंद हो गईं, ज़रा देर में भावज की गरज और बीवी की चनचनाहट पर कान चौंके, सेहन में दोनों लड़ रही थीं।

    शुरू-शुरू में तो मकालमे गोल-गोल रहे मगर वो दोनों के मकालमे अच्छी तरह समझता रहा और लफ़्ज़-लफ़्ज़ की वज़ाहत उसके दिमाग़ में गूँजती रही, मगर वो यही समझे रहा कि देवरानी जिठानी की रिवायती तू-तू, मैं-मैं है... उंह! घरेलू... दाल, आटे, चावल, गुड़, तेल, घी के गिर्द घूमती हुई लड़ाई जैसी घर-घर में हुआ करती है। और उसने आँखें बंद कर के दबीज़ रज़ाई भी मुँह पर ढक ली। और ख़ैर आँखें तो बंद किए बंद भी हो जाती हैं, मगर ये कान! ये कान कमबख़्त तो हर वक़्त खुले ही रहते हैं और सात तहों में दबाओ लाख उंगलियां ठूँसो, ज़ालिम सुनते ही रहते हैं। और ई’दू के कान तो जैसे उसके दिमाग़ के अंदर की आवाज़ों से पनपना पनपना कर भावज का कहा सुन रहे थे। और ई’दू की आँखें तो अंधेरे में भी देखती थीं। खुली बंद यकसाँ और अंधेरे कोठार में और भी ज़्यादा और भी वाज़िह...! ये तो रोज़-ए-रौशन था! और भावज क़ियास और शुब्हे पर कह रही थी मगर ई’दू के कान भी सुन रहे थे और आँखें भी देख रही थीं... और समझी समझाई को क्या समझाना, और उसने तो दिल तक को समझा लिया था, ख़ातून के तिलाई मक्खन से चिकने-चिकने हाथ जिनमें सुहाग की चूड़ियां झनझनाती हैं वो बर्फ़ की चोटी सा सीना है जिसमें लावा भड़ भड़ाता है, रेशम की पोट सी कमर जिसमें मछलियाँ सी तड़पती हैं और उन्हें के बल पर खड़ी हो कर वो उसके केचुवे जैसे वजूद को पालती है, और केचुवा तो सुन सकता है देख सकता है... और फिर कमर टूटा केचुवा तो रेंगने का भी अह्ल नहीं होता, तो वो फिर क्यों देखे और क्यों सुने।

    मगर कमर टूटा अंधा, बहरा केचुवा तो सब सुनता रहा और सब कुछ होता रहा और सब कुछ होता रहा और देखता भी रहा।

    “हूँ छिनाल...! तेरा तो अल्लाह ने छीन लिया और तूने मुझ पर हाथ साफ़ किया... दिन-दहाड़े।”

    “चुप, छिनाल होगी तू, आई बड़ी तोह्मत धरती।” ख़ातून ने बड़ी मुश्किल से झेंप दबा कर कहा।

    “अच्छा रंडी, तोह्मत! क्या मैं अंधी हूँ? और तो तू अनधला गई है आग में बेस्वा।” जैसे शबराती की बीवी के मुँह से यके बाद दीगरे शो’ले ही शो’ले निकल पड़े।

    “चल सत्तर ख़समी...” ख़ातून ने सँभलते हुए जैसे किसी और के हलक़ से निकाला।

    “जा-जा छिनाल! चोरी और सीना ज़ोरी बात करने के क़ाबिल है तूभी।” दरवाज़े पर शबराती की मठार सुन के मद्धम आवाज़ में कहा।

    “छिनाल तू या मैं, आई बड़ी कोई वो बन के।” शबराती की चाप सुनकर ख़ातून ने रुहांसी आवाज़ में कहा...

    और इतने में शबराती की शेर जैसी गरज सुनाई दी, जिसके लोहे की लाट से क़द में भैंसे की तरह मज़बूत और काठियावारी घोड़े की तरह तुंद पड़ी हुई टांगें लगी थीं, जिनकी धमक के मारे धरती पानी छोड़ती और पाताल थर्राता था। जो सब का कफ़ील था और हर बात का अह्ल... और कमर टूटा केचुवा भी तो उसी की अह्लीयत के बल पर बिलबिलाया करता था।

    शबराती की गरज पर ख़ातून सहम कर चुपकी हुई, शबराती की बीवी एक दो दफ़ा चीख़ी चिल्लाई और फिर बैल हाँकने के हंटर के डंडे (आर) की आवाज़ सुनाई दी और बराती के दोनों बच्चों की चीख़ पुकार और बीवी की आह बका ज़रा देर बस शोर ही शोर! और फिर डंडा पीटने की धमाधम, और फिर मद्धम शोर! और फिर मुकम्मल ख़ामोशी।

    और ये रोज़ाना का नहीं तो अठवाड़े में चार दिन का मा’मूल बन गया और हमेशा शबराती का डंडा बेच बचाओ करा देता, और जब शबराती खेत पर होता और लड़ते-लड़ते सुबह से दोपहर को ख़ातून ई’दू के लिए दूध-रोटी लेकर आती तो ई’दू की आँखें उससे चार होतीं, गर्दन झुकाए ही झुकाए कटोरा ले लेता और एक दम सड़ोप जाता जैसे जरा चिरा डरा-डरा सा और खा-पी कर बग़ैर रस्मी हूँ, हाँ कर के लेट जाता और आँखें बंद कर लेता, मबादा ख़ातून कहीं आज की लड़ाई की बात छेड़ दे...

    और बात तो कोठार से निकल कर पहले शबराती की बीवी की कोठरी में पहुंची थी, और जब वहां शबराती का अघोरी,अस्तर,जूता ख़त्म कर सका तो निकल कर सेहन में नाचने लगी। और उस नाच को शबराती का डंडा भी रोक सका और सब घर वालों ने हत्ता के ज़हीन और तेज़ गोश क़िस्म के पड़ोसियों तक पहुंच चुकी थी अलबत्ता ई’दू के मुँह दर मुँह पहुंची थी, मगर सबको यक गो हैरत हुई और सबसे ज़्यादा ई’दू को, बात तो बदस्तूर चलती रही मगर शबराती की बीवी ख़ामोश हो गई और छः महीने रोज़-रोज़ की चख़-चख़ और धायं-धायं के बाद उसकी ये सुकून की कैफ़ीयत हैरत-ज़दा थी। हत्ता कि अब शबराती के कोठरी से भी ये भूत-चुड़ैल के चीख़ने की आवाज़ें आतीं।

    शबराती की बीवी की पहाड़ सी अटल निसाइयत का बड़ा इक़तिसादी मस्लिहत के साथ समझौता हुआ, अगरचे उनकी औरत वाली जिबिल्लत अंदर ही अंदर लावे की तरह पकती रही मगर ख़ारिजी तौर पर पर सुकून सा रहा और मस्लिहत का पल्ला तो हमेशा से भारी रहा है और वो भारी भरकमपन के साथ सब कुछ बर्दाश्त करती रही जैसे किसी ख़ास मुत्महे नज़र के तहत ख़ूनी आँखों से सब कुछ देखकर भी अंधी रही, और लालच तो अंधा कर देता है और बहरा और गूँगा भी, और आबाई ज़मीन से तो बड़ी मुहब्बत होती है और शबराती ने आबाई ज़मींदारी का सब्ज़-बाग़ उस के दोनों लड़कों के हक़ में दिखाया, और ई’दू और ख़ातून को निकाल देने से आधी ज़मींदारी निकल जाने का ख़तरा ज़ाहिर किया... और ज़न, ज़र, ज़मीन के रिवायती जज़्बात पर ज़मीन का लालच ग़ालिब आया और औलाद के मुस्तक़बिल के लिए मामताओं ने बड़ी-बड़ी क़ुर्बानियां दी हैं और उनमें से एक ये भी थी।

    मगर आज आसार शदीद थे जैसे छय्यों महीने के शोर आज एक दम सेहन में फट पड़े थे। ख़ातून तो ख़ैर अलैहिदा थी। आज मुँह दर मुँह और उसकी बीवी में हो रही थी। और ख़िलाफ़-ए-मा’मूल शबराती ढीला और बीवी तनी हुई थी... थोड़ी तू-तू, मैं-मैं के बाद शबराती की बीवी गले में रस्सी डाल कर छप्पर के शहतीर में लटकने लगी। बच्चों ने दौड़ कर शोर मचाया और चौपाल से उठकर शबराती अंदर भागा और ख़ैरीयत गुज़री कि वक़्त पर आगया और अभी लटकने पाई थी कि गुलू ख़लासी कर के पकड़ लिया, तो दीवारों से ज़ोर-ज़ोर से सर टकराने लगी। और आज पहली मर्तबा शबराती ने अपना डंडा कटहल महसूस किया, फांसी उतारते गले पर डंडा तो डंडा तलवारें भी कटहल हो जाती हैं। और शबराती ने हमेशा लात से उतारने वाला भूत बात से उतारना चाहा और फांसी के फंदे से निकली हुई औरत के रौंगटे-रौंगटे से ज़ख़्मी शेरनी की सी चिनगारियां चटख़ पड़ीं और शबराती के “क्यों-क्यों, क्या बात है! के रस्मी सवाल-जवाब में जैसे छः महीने की सैकड़ों ख़ामोश औरतें जाग पड़ीं।” “तो नहीं मानता क्या बात है! तेरी वो होती-सोती तो सब जानती है। निगोड़ी छिनाल ने तुझे ये नहीं बताया पाँच महीने बीत गए बेस्वा को और तू तो मेरी छाती पर साल भर से दिख दिखाते मूंग दल रहा है। मोट्टा छिनाला कहीं का मक्कार!”

    और पाँच महीने बीत गए, सुनकर तो एक दफ़ा शबराती उछल पड़ा कुछ कहते बन पड़ी, सिटपिटा कर सॅभला , चोर ज़रूर था मगर कोतवाल से साज़-बाज़ किया हुआ चोर था। ढिटाई के साथ बोला,

    “झूट बिल्कुल झूट बकती है।”

    “मैं झूट बकती हूँ। कल सब पर खुल जाएगा। और दूर क्यों जाओ अपनी इस निगोड़ी बेस्वा से पूछ लो और पूछ भी काहे को लो, देख लो ना! वो सामने खड़ी है छिनाल, मटका सा पेट लिए...”

    और ख़ातून मज़लूमियत के अंदाज़ में पगहे की आड़ पकड़ने लगी जैसे कोई फंसा हुआ चोर... और कन-अँखियों से उस जानिब देखकर शबराती अच्छी तरह सँभल गया और ढिटाई के साथ बोला,

    “तू ही सच्ची! चल! तो क्या बात है!”

    और जैसे शबराती की बीवी के नथनों से साँप फुंकार पड़े, “चल छिनाले, मक्कार, झूटे, फ़रेबी और साल भर से मुझे दम दिलासे दे रहा है, बता तेरे मेरे बीच क्या बात हुई थी जो में साल भर से मुँह सिये बैठी भीतर-भीतर फुंक रही हूँ और तू गुलछर्रे उड़ा रहा है।

    “क्या बात हुई थी?” शबराती ने अपने ढीले अंदाज़ को झटकेदार लहजे से सहारा देते हुए कहा।

    “हूँ...”और जैसे सर से पांव तक नागिनें ही नागिनें लहरा पड़ीं। अदब, लिहाज़, तमीज़, मियां-बीवी सब रिश्ते कट ही गए थे ,जवाब तलबी ही जवाब तलबी थी। “आज कैसा बहरा बनता है,मुआ मक्कार साल भर से मुझ रंडिया को दम दिलासे दे रहा है कि बाप की सब जायदाद तेरे लड़कों को मिलेगी और मेरी आँखों में तकले घोंप-घोंप कर सामने...”

    “तो क्या ई’दू बाप का बेटा नहीं”, ढिटाई और उज़्र लंग के सहारे जैसे शबराती ने बात बदलनी चाही।

    और जैसे शिकारी कुत्ता ख़रगोश को भँभोड़ कर फेंक देता है, “चल-चल दूर रहो मत बनो! झूटे, सब मा’लूम है, कौन-कौन हरामी बाप का है और तू क्या जानेगा ज़ानी कार, हरामीबच्चे! तेरी अम्मां छिनाल को भी मा’लूम था हलाल क्या होता है, मोट्टे छिनाले! निगोड़े पापी! मुए कुत्ते! अब बता जो तूने साल भर से मुझे दम दिलासे दिए।” और सौतिया डाह का ज्वाला-मुखी भड़ भड़ा कर लावा उगल रहा था। मगर साल भर की ढील में शबराती की ढिटाई चट्टान की तरह बे-हिस और अटल हो गई थी, कुछ शोख़ी और बे-हयाई के मिले जुले अंदाज़ में कहता हुआ बाहर निकल चला गया, “ख़ैर यही सही” मुझे इससे क्या, मरे तो तीनों को मिलेगी।”

    और शबराती के पीठ फेरते ही छतों और छड़ियों पर गिलहरियों और छिपकलियों की तरह चुपकी पड़ोसनें सेहन में उतर आईं, और बात तो सबकी सब जाने कब से जाने पड़ी थीं, आज नया शगूफ़ा खुला था, नीचे आते ही तजाहुल-ए-आ’रिफ़ाना से दो तरफ़ा सवालात जवाबात का रोग़न छिड़का और भट्टियां फिर भड़क उठीं, एक हंसोड़ पैहम क़हक़हे लगा रही थी, दूसरी मसखरी हँसने पर मख़्सूस संजीदगी से डाँट रही थी, तीसरी बोल पड़ी, “घर बैठे आया पोता, बोया ना जोता।” कोई ठंडी पंचायतन बोली पड़ी, “बोया जोता क्यों बुआ? इसका तो सात हाथ का ख़सम बैठा है।” जब तक एक बड़ बूढ़ी ने लुक़्मा दिया, “बैठा कहाँ है बहन, लेटा है जभी तो...!” और आँख-मार कर शबराती की बीवी की जानिब इशारा किया और शबराती और ई’दू की बीवीयां गुर्राती बिल्लियों की तरह लड़ते-लड़ते गिटपिट सी हो गईं। ये लपकी वो सहमी और बरामदे में हटी और बात “ड्रग्स ड्रॉन” से बढ़कर “लिटिल प्वाईंट” पर पहुंच गई, दना दन होने लगी, बर आमदे की दहलीज़ पर पहुंच कर शबराती की बीवी बड़े तड़ाख़ के साथ बोली, “नहीं आज तो बुआ को छोड़ूँगी।” इतनी पंच बीबियों के सामने मुँह पे बेस्वा छिनाल बारह ताली से! और फिर ज़हर का घूँट भर कहा ,बता छिनाल बता! ये कहाँ से लाई? रंडी!” और एक दम बर आमदे में बढ़ी, ख़ातून बे-चारी दो क़दम पीछे हटी और ई’दू की कोठरी के दरवाज़े पर पहुंच गई। ई’दू तो बड़ी देर से सब कुछ ख़ामोश पड़ा सुन रहा था, और ये तो औरतों की लड़ाई थी।

    धड़मार अपाहिज क्या बोलता! लेकिन जब बढ़ते-बढ़ते उसके बिस्तर तक पहुंचे गई तो कमर कूल्हे ही तो मफ़लूज थे। ज़बान, हलक़ पर तो लक़वा गिरा और शबराती की बीवी ने जिस वक़्त एक क़दम चौखट के अंदर बढ़ा कर मुँह से एक शो’ला सा निकाला, “नहीं आज कहलवा कर छोड़ूँगी छिनाल से, बोल किसी अपने निकम्मे का नहीं मिला तो मेरे का रख लिया, ऐसी लात मरूँगी जो पिल से निकल कर जा पाड़े”, तो जैसे ई’दू के इस कूल्हे से उस कूल्हे तक करंट ने शाक मार दिया। वो बिजला कर जाग पड़ा। सिली बारूद के तोदे पर अँगारा सा पड़ा, मुँह से ग़लीज़ धुआँ निकला और गोया कमर का मफ़लूज गिरिया चटाख़ से बोला “तूभी निकम्मा कहती है सीती सता! ज़रा गिरेबान में मुँह डाल कर तो देख! अभी तो ई’दू की आँखें खुली हैं कहे तो बाल-बाल बीन कर रख दूं। सब भूल गई नेक-बख़्त!” और फिर मख़्सूस अंदाज़ में लहजा बदल कर कहा, “इसका ख़ैर आज शबराती का है फिर मैं निकम्मा होता तो तेरे दोनों कहाँ से आते? कुछ याद है, कल की सी तो बात है...”

    उधर ई’दू के ढेर में से गोया दो मर्दों ने तन कर बीवी को पाक दामनी की चादर में ढाँप लिया। उधर ख़ातून सीना दन दनाती बर आमदे में पड़ी और शबराती की बीवी एक धक्के से उलट कर बाहर सेहन में जा पड़ी, आवाज़ हलक़ में बंद सारी अकड़ फ़ूं ढीली ग़ुस्सा काफ़ूर, या तो लाल भभूका हो रही थी, या पीली पटका पड़ गई, आँखें अपने आप झुक गईं और कड़ी सी चाटने लगी। जैसे ई’दू ने उसके सर गू से भरे हुए दो घड़े धड़ से टकरा कर फोड़ दिए... और ख़ातून सेहन में पंच बीबियों में गरज रही थी... “ले हयादार जब तो नहीं अब खा फांसी...! लौंडे घेरनी बड़ी नाक वाली है तो लटक जा...” और हिक़ारत के साथ होंट पिचका-पिचका कर पड़ोसनों से दाद तलब कर रही थी, जब तक ज़हीन तेज़ पड़ोसनें बात ले उड़ीं।

    “हे हे बीबियो! बुरा ज़माना है।”

    “चौदहवीं सदी है चौदहवीं! हराम हलाल है हलाल हराम!”

    “अरे जिसका बाप ज़िंदा उसे कौन हरामी कहे!”

    “और बुआ किसी के कहे कोई हरामी हो जाता है?”

    “ए लो बहन वो तो पिछली पोलें खोल रहा है, और अब तो मा’लूम है गौर में पांव लटकाए बैठा है।”

    “हाँ बीबियो! अल्लाह जाने तीन बरस तो मुँह पर मूँछें रखवाए कँवारा हथियार भावज के कूल्हे लग्गा खाता रहा था।”

    “हूँ बहन! तीन-चार बरस भर के कमाई खाई तो बुरे जीवन बुरे हवालों कहीं जा कर चौथे बरस ब्याह मंगनी की बात उठाई।”

    “हाँ हाँ सो उस वक़्त सब समझे, देवर के माल कमाई हिस्सा बांट के मारे बिसूरती है।”

    “हाँ बी-बी हम भी यही समझे थे माल खा रही है कँवारे देवर का इसलिए ब्याह मंगनी नहीं पलटने देती, लो आज गुल खिला!”

    “कुछ मत कहो बीबियो तौबा करो तौबा! चौदहवीं सदी है चौदहवीं, शैतान मुआ पलक मारते ही डिगाता है।”

    “और देख लो ना आज इस बे-चारी ख़सम वाली पे कैसे दन दना दन दना कर चढ़ बैठती थी और अपनी सब भूल गई नुतफ़ा लपक!”

    “धोई धाई चंदा सी।”

    “क्यों ना ज़माना सीधा है आज, मुस्टंडे ख़सम वाली जो है लंबी नाक है और चंदा से बेटों की अम्मां है”, (क़हक़हा लगाया)।

    “फिर आज पूंछ जड़ से ली इस लुंजे ने!”

    और शबराती की बीवी कटी पतंग की तरह डोलती अपने कोठारे में चली गई और बड़े ज़ोर से पटख़ कर किवाड़ बंद कर लिये और किवाड़ों के धमाके पर सब पड़ोसनों ने ड्राप सीन वाला क़हक़हा लगाया और जो कुछ बाक़ी रह गया था, वो बड़ बड़ाती अपने-अपने घरों को चली गईं।

    शाम को ख़ातून कोठरी में आई ई’दू पर छाई हुई सी, जैसे बैसाख जेठ की गर्मियों में पेच दर पेच आकाश बेल शादाब हो कर गोबिंद की सूरत चढ़ी हुई सूखे-सूखे चूसे हुए दरख़्त की मठराई-मठराई पत्तियों और एँठी-एँठी रोड़ी बे-जान सी शाख़ों को ढाँपे होती है। क़दम मुट्ठी भर खिंचा हुआ सा, सीना पेट से आगे उबला पड़ता और पेट सीने से आगे जाता था और कूल्हों पर तो जैसे दो दंबियों की चकतियां, थल थला कर कपड़ों से बाहर निकली पड़ती थीं। ई’दू ने ऊपर से नीचे तक भांपा, दाएं से बाएं तक परता और वो ख़ातून के जोड़-जोड़ बंद-बंद का आश्ना था, पाँच साला महरम-ए-राज़ और तीन साला रफ़ीक़-ए-हयात... अंदर से बाहर तक देखकर अंदाज़ा किया कि ख़ातून बंद तोरी की तरह फूल रही है।

    ऐंडती अकड़ती, लाल-लाल बीर बहूटी जैसे फल से लदी हुई... गुलाबी रुख़्सारों पर बरसात की शफ़क़ फूट पड़ी है और पंखुड़ी से होंटों पर या क़ुव्वत की छूटें तड़प रही हैं और सरापे में बिजली सी लहरा लहरा जाती है, बशरा क़ा हिरनी जैसा मख़्सूस इंतिशार इत्मिनान और सुकून से बढ़कर बांकपन और इस्ति़ग़ना तक पहुंच रहा है जैसे अभी-अभी नींद सो कर दो-चार अंगड़ाइयाँ लेकर खड़ी हो।

    ई’दू ने कुछ अ’जीब सी निगाह डाली, और ख़ातून ने आँखों ही आँखों में अल्हड़पन से जवाब दिया मगर जैसे उसका जवाब उल्टा हो कर उस के मुँह पर पड़ा... और ई’दू ने मालूम क्या सोच कर बाल की नोक से लेकर पांव की उंगली तक नशेब-ओ-फ़राज़ का जायज़ा लिया और अपाहिज नज़रें वालों के घूंघर से निकल कर चमकती पेशानी से फिसलती रुख़्सारों और होंटों के पेच-ओ-ख़म में नाचती आहिस्ता-आहिस्ता सुराहीदार गर्दन से घूम कर उतरती और सीने की गोलाइयों और बाज़ुओं के उतार चढ़ाव में चकरा गईं और वहां से कलाबाज़ी खा कर कमर कूल्हों के गुदाज़ में फंसती लड़खड़ाती रहीं और फिर! भटक भटका कर जब पेट के “पुरमा’नी” ढलाव पर पहुंचीं तो जम कर रह गईं बहुतेरी फुसलाईं टस से मस हुईं। और ई’दू ने देखा कि ख़ातून अँगीठी सी दहक रही है। अँगारे ही अँगारे भरे और जैसे जोहड़ के गदले पानी को शफ़क़ का अ’क्स चमका देता है और ई’दू की अ’लील आँखों के धुँदले आईने पर ख़ातून की तमाम सुर्ख़ियाँ मचल पड़ीं... और उस वक़्त तो ई’दू के लिए दूध मिलाई लेकर आई थी।

    तमाम दिन लड़ाई की भेंट चढ़ा था, दोपहर चूल्हा गर्म हुआ था, अब... घर भर में किसी के मुँह पर उड़ कर खील गई थी। सुबह का एक कटोरा दूध पिये ई’दू तमाम दिन यूँही पड़ा था... शाम का दूध दूह कर शबराती ख़ामोशी के साथ रखकर बाहर चला गया था। और वो तो अटवाई खटवाई लिए अंदर पड़ी थी। ख़ातून ने चुपके से दूध गर्म किया। जल्दी-जल्दी दो रोटियाँ पकाईं और खांड मिला कर मलीदा किया और दूध में डाल कर ले आई... कटोरा बराबर तिपाई पर रखा, और मा’मूल के मुताबिक़ उठने को सहारा देने के ई’दू पर झुकी , और एक गर्दन के पीछे दूसरा कमर के नीचे डाल कर हस्ब-ए-मा’मूल सहारा दिया, और सहारा देते वक़्त दोनों के चेहरों में तीन चार इंच का फ़ास्ला रह जाया करता था और आँख एक दूसरे से भिड़ सी जाया करती थी, और ई’दू की आँखों में तो शोले से लपक उठे। नथुने फूल गए, कनपटियां फड़क गईं और बीमार, मफ़लूज, अपाहिज बिस्तर-ए-मर्ग की अर्ज़ल तरीन सतह से उचक कर ज़िंदगी की इन हैबतनाक बुलंदियों तक जा पहुंचा जहां मलिक-उल-मौत के भी पर जलते हैं, ई’दू के अंदर का मर्द फटा, टाइम बम की तरह तुंद और तलवार की तरह तेज़ तीन साल की मा’ज़ूरियों और मस्लहतों और समझौतों का थपका मर्द! और बैठ कर सीधे होते-होते गों, गाऊं, गप्प! ! ख़ातून का सर ई’दू के हाथों के शिकंजे में था और पतली खड़ी नाक जबड़ों में! और जैसे ई’दू के जबड़ों में नौनिहारों का ज़ोर सिमट आया था, और ख़ातून के होंटों पर उसकी थोड़ी की डाट लग गई थी, बेचारी की चीख़ भी मुँह से बाहर निकल सकी और जब कच-कच गाजर की तरह चबा कर पूरी नाक निगल गया तो ख़ातून का चेहरा गिरफ़्त से अपने आप आज़ाद हो गया।

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    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

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