कच्चे शहतूत
बहार के शुरू शुरू के दिन थे। हवा के झोंकों में हरतरफ़ फूलों की महक ऐसे बसी थी जैसे क़ुदरत ने आसमान से ज़मीन पर चारों तरफ़ एयर फ्रेशनर से स्प्रे कर दिया हो... ये जिन दिनों का ज़िक्र है मैं शायद आठवीं के इम्तिहान से फ़ारिग़ हो कर नौवीं क्लास की तैयारी में मगन था...
अजब उम्र थी और अजीब दिन... अपनी ज़ात के अलावा मुझे कुछ दिखाई ही नहीं देता था... मैं अपने कमरे में बैठा कुछ पढ़ रहा था कि मम्मी ने आवाज़ दी... बाहर निकला तो वो किचन के दरवाज़े में खड़ी थी... वहीं उन्होंने मुझे बुला कर पैसे दिये और मार्केट से बिस्कुट और विमटो स्क्वैश की एक बोतल लाने को कहते हुए ताकीद की...
रूमी... देखो हमेशा की तरह खेल में ना लग जाना... तुम्हारे पापा के एक दोस्त अपनी फ़ैमिली के साथ हमारे हाँ आरहे हैं...
मैंने हमेशा की तरह मम्मी की हाँ में हाँ मिलाते हुए पैसे लिए और साईकल निकाल कर घर से निकल खड़ा हुआ... कोई आधे घंटे के बाद जब घर पहुंचा तो एक रेडीमेड बहाना मेरे पास मौजूद था और वो मैंने मम्मी के सामने निहायत सलीक़े से पेश करते हुए कहा।
मम्मी घर के क़रीब वाली मार्केट से बिस्कुट तो मिल गए थे... लेकिन विमटो स्वैीतश की बोतल लेने के लिए मुझे सदर बाज़ार जाना पड़ा...
मम्मी ने घूरते हुए मुझे शक भरी नज़रों से देखा... और किचन में चाय बनाने में लग गईं...
मैं बजाय ड्राइंगरूम में जा कर पापा के दोस्त और उनकी फ़ैमिली से मिलता वहीं से वापस अपने कमरे में आगया... और दुबारा अपनी किताबों में खो गया... कुछ ही देर गुज़री होगी कि पापा की आवाज़ आई...
अरे भई रूमी... इधर आओ बेटे... मैं ड्राइंग रुम में पहुंचा... तो वहां पापा और मम्मी के अलावा... पापा के दोस्त अपनी मिसेज़ और एक लड़की के साथ बैठे थे... मैंने एक सरसरी नज़र वहां बैठे हुए लोगों पर डाली... पापा के दोस्त और उन की बेगम को छोड़ते हुए जब मेरी नज़र वहां मौजूद अपनी हम उम्र लड़की पर पड़ी तो उस में मुझे कोई ऐसी ख़ास बात न नज़र आई... जिसके बाइस मैं उसे कोई अहमियत देता... हाँ अलबत्ता एक चीज़ जो मुझे पहली ही नज़र में महसूस हुई थी वो उस लड़की के देखने का मख़्सूस अंदाज़ था... उसके चेहरे पर दो बड़ी बड़ी स्याह आँखें न सिर्फ़ जाज़िब-ए-नज़र थीं... बल्कि वो उस लड़की के ज़हीन और ख़ुद-एतिमाद होने की ग़म्माज़ भी दिखाई दीं...
लतीफ़ साहब ... ये मेरा बेटा रूमी है... और पापा मेरी तरफ़ मुड़के कहने लगे...
बेटे ये आपके अंकल और आंटी हैं इन्हें सलाम करें... और हाँ ये उनकी बेटी... अनीला है... तुम... ऐसा करो अनीला को अपने साथ कमरे में ले जाओ या फिर बाहर लॉन में जा कर खेलो कूदो...
मैंने कमरे में मौजूद पापा के दोस्त और उन की मिसिज़ को सलाम किया और उन की बेटी अनीला को अपने साथ चलने के लिए बददिली से दावत दे दी...
हाँ हाँ ... बेटी अनीला जाओ... और रूमी को अपना दोस्त बनालो... पापा के दोस्त लतीफ़ साहब ने अपनी बेटी की तरफ़ देखते हुए कहा...
अनीला वहां से उठकर मेरे साथ ड्राइंगरूम से बाहर निकल आई... सेहन में बरामदे के दुरूँ में लगी बेलों को देखकर वो एक लम्हे को रुकी और मुझसे पूछने लगी...
यहां... पौदे... मेरा मतलब इन बेलों से है... ये किस ने लगाए हैं...?
मैंने अनीला की बात सुनी अन-सुनी करते हुए कहा...
ये शौक़ मेरी मम्मी का है... उनका बस चले तो सारे घर को बाग़ में बदल डालें...
मेरी बात को सुनकर वो हैरानी से मुझे देखते हुए बोली...
इस का मतलब ये हुआ कि तुम्हें पौदे... बेलें... और फूल अच्छे नहीं लगते...?
पहली बार इस लड़की की बात सुनकर जिसे अब तक मैंने कोई अहमियत नहीं दी थी... मैं अपने ख़यालात के गिर्दाब से बाहर आगया... और चौंक कर उसे हैरत से देखा... वहां मेरे सामने एक तेरह चौदह बरस की दुबली पतली सी लड़की... ज़र्द और सब्ज़ फूलों की फ़्राक पहने सफ़ैद सॉक्स और स्कूल शू में मलबूस अपने कंधे पर झूलते हुए बालों में सुर्ख़ रिबन लगाए अपनी बड़ी बड़ी स्याह आँखों को खोले हुए... मेरी तरफ़ ऐसे देख रही थी... जैसे सहरा में से गुज़रते हुए किसी दश्त-ए-नौरिद को अचानक कोई सराब नज़र आ जाये... और मैं उस महव-ए-हैरत लड़की को बीच सेहन में खड़ा यूं देखे जा रहा था जैसे मेरी आँखों के सामने चारों तरफ़ दियों के दिल उठने से चांदना हो गया हो... इतने में मम्मी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी...
रूमी... अनीला बेटी को... यहां बीच सेहन में ऐसे क्यों लेकर खड़े हो गए हो... अपने कमरे में ले जा कर बैठो... मैं तुम लोगों के लिए विमटो के गिलास वहीं लाकर देती हूँ... तुम अनीला को अपनी किताबें वग़ैरा दिखाओ... या पीछे लॉन में जा कर खेल लो...
मम्मी की आवाज़ मुझे दश्त-ए-हैरत से वापस ले आई और मैं अनीला को लेकर अपने कमरे में पहुंच गया...
वो मेरे कमरे में दाख़िल हो कर एक बार फिर कमरे को ऐसे हैरत से देखने लगी... जैसे कोई माहिर आसार-ए-क़दीमा किसी नई दरियाफ़्त को बग़ौर देखता हो... जब मैंने उसे कुर्सी पर बैठने को कहा... तो वो कुर्सी पर बैठते हुए मुझसे बोली...
तुम्हारा नाम तो बड़ा अच्छा है रूमी... मगर तुम इसे कैसे लिखते हो...?
अनीला की बात सुनकर मैंने हंसते हुए कहा...
इस में क्या ख़ास बात है ये तो बहुत आसान सा नाम है...
और मैंने वहीं अपने सामने मेज़ पर पड़े काग़ज़ पर अपना नाम इंग्लिश में लिख कर उसे दिखाया... और कहा...
ऐसे... क्या इस नाम में कोई ख़ास बात है...?
मेरे लिखे हुए नाम को देखते ही वो मुस्कुराई और कहने लगी...
मुझे मालूम था कि तुम यही लिक्खोगे... रुम से रूमी... लेकिन... रुम का मतलब तो कमरा होता है... और तुम कमरा तो नहीं हो... तुम तो इन्सान हो... तुम्हें चाहिए कि अपने नाम के स्पेलिंग में... ओ की जगह... यू... का इस्तेमाल करो... तो लफ़्ज़ रूमी का सही मतलब निकलेगा... और ये अच्छा भी लगेगा...
मैं जो अब तक ख़ुद को बेहद अक़लमंद समझा करता था अपने सामने मौजूद इस छोटी सी एक दुबली पतली सी लड़की के सामने हवन्नक़ बना... उस की शक्ल उसे देखे जा रहा था... जैसे आज से पहले कभी किसी लड़की को न देखा हो... मेरी महवियत को तोड़ते हुए आख़िर-कार वो बोली...
रूमी... अब मेरी शक्ल ही देखते रहोगे... या मुझे कुछ दिखाओगे भी...? मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अनीला को क्या दिखाऊँ... मेरे कमरे को तो उसने दाख़िल होते ही आसार-ए-क़दीमा से मुताल्लिक़ कर दिया था... बिलआख़िर न जाने क्या सोचते हुए मैंने उसे अपने कॉमिक्स निकाल कर दिखाए... इतने में मम्मी ट्रे में हम दोनों के लिए विमटो स्क्वैश के गिलास और फल रख के ले आईं... अनीला ने बजाय स्क्वैश के गिलास उठाने के मेरे कॉमिक्स को दिलचस्पी से देखा और फिर मेरी तरफ़ एक हैरत से देखकर कहने लगी...
रूमी तुम किस क्लास में पढ़ते हो...?
मुझे यूं लगा जैसे मेरा सारा एतिमाद और अपनी ज़ात के बारे में सारा ज़ोअम... हाथों पर लगे साबुन के झाग की मानिंद बह गया। मैंने रुंधी हुई आवाज़ में... जैसे मैं किसी जॉब के हुसूल के लिए इंटरव्यू बोर्ड के सामने बैठा अपनी क़िस्मत का फ़ैसला सुन रहा हूँ...। डरते डरते आहिस्ता से जवाब दिया...
नौवीं में...
मेरा इतना ही कहना था कि वो खिलखिला कर हंसी... और स्क्वैश का गिलास हाथ में थामे हुए मुझसे कहने लगी...
और अभी तक कॉमिक्स पढ़ते हो... ये तो मैंने छट्टी क्लास में पढ़ना छोड़ दिये थे... अब मैं आठवीं में हूँ... और आजकल लूज़िया स्कॉट का नावल... लिटिल वूमेन... जो मेरे मामूं ने बर्थ डे पर दिया था, पढ़ रही हूँ... और तुम... तुम्हारा नाम तो इतने बड़े फ़ल्सफ़ी शायर पर है और पढ़ते कॉमिक्स हो...
अनीला ने मेरे सारे एतिमाद का भुरकस निकाल के रख दिया था... मैं जो अब तक ख़ुद को हर चीज़ से ला-तअल्लुक़ समझा करता था... इस दुबली पतली साँवली सी लड़की के सामने ख़ुद को इस क़दर बेबस समझ रहा था... और अभी मैं इसी सोच में गुम था... कि किस तरह इस तेज़ तर्रार लड़की से अपनी शिकस्त का बदला लूं कि उसने कॉमिक्स को वहीं मेज़ पर रखते हुए मुझसे कहा...
आओ बाहर लॉन में चलते हैं... यहां तुम्हारे कमरे में तो कॉमिक्स के अलावा कुछ और है ही नहीं...
और मैं उस के कहने पर फ़ौरन ही उस के साथ बाहर लॉन में ऐसे चला गया... जैसे या तो ख़ुद मैं इसी बात के इंतिज़ार में था... और या फिर उस ब-ज़ाहिर सीधी-सादी लड़की ने अपनी बातों से मुझे मस्हूर कर दिया था... बल्कि अगर ये कहूं तो कहीं ज़्यादा मुनासिब होगा... कि अनीला की ना-क़ाबिल-ए-फ़हम शख़्सियत... और फिर उस की बातों ने मुझे मुकम्मल तौर पर मसमराइज़ करके रख दिया था...
लॉन तमाम रात होने वाली बारिश की वजह से धुला धुला दिखाई दे रहे थे... ये मौसम-ए-बहार की शायद पहली बारिश थी... दरख़्तों और पौदों पर हर तरफ़ रंग बिखरे पड़े थे... हल्के हल्के हवा के झोंकों में मर्तुब मौसम की ख़ुनकी के साथ साथ लॉन में खिले हुए फूलों की ख़ुश्बू फैली हुई थी...
अनीला पलक झपकते में लॉन के मर्कज़ में लगे शहतूत के दरख़्त के नीचे जा खड़ी हुई... उसने मुड़ कर एक दफ़ा मेरी तरफ़ देखा... जैसे अपनी इस मुहिम में मुझे भी शरीक करना चाहती हो लेकिन दूसरे ही लम्हे कुछ कहे बग़ैर दरख़्त पर चढ़ने लगी... मैंने ये सोचते हुए कि कहीं वो गिर ना जाए... फिर ये भी सुन रखा था कि शहतूत के दरख़्त की लकड़ी कच्ची होती है और अचानक टूट जाती है... उसे इस बात से बाज़ रखने की कोशिश की... और दौड़ कर उसे मना करने के लिए शहतूत के दरख़्त तक पहुंचा लेकिन वो इतनी देर में दरख़्त पर चढ़ चुकी थी और मैं नीचे खड़ा उसे एक शाख़ से लटकता हुआ कच्चे शहतूत तोड़ने में मगन देख रहा था... अब वहां मेरी निगाहों के सामने शाख़ से लटकते हुए शहतूत के गुच्छों के बजाय... अनीला की फ़्राक में से नज़र आती उस की गंदुमी रंग की दुबली पतली टांगें दिखाई दे रही थीं... मैं उसी मंज़र में गुम था कि वो वहीं शाख़ से लटके हुए मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुराते हुए बोली...
रूमी... क्या देख रहे हो... शहतूत... या कुछ और...?
और मैं जैसे चोरी करते हुए पकड़े जाने के ख़ौफ़ से घबरा कर अपने दिफ़ा में कुछ कहने ही वाला था... कि वो तड़ाख़ से बोली...
क्यों नहीं कहते कि मेरी टांगें देख रहे हो... मगर कॉमिक्स पढ़ने वालों के हाँ तो हर चीज़ कामुक होती है... शायरी तुम कहाँ समझोगे...?
ये कहते हुए अनीला ने वहीं से इक दम नीचे छलांग लगाई और मुझ पर आ गिरी... और हम दोनों भीगे हुए लॉन की घास में एक दूसरे पर ढय गए... अनीला का चेहरा मेरे चेहरे के इतना क़रीब था... कि उस के होंट मेरे होंटों को मस कर रहे थे... उसके एक हाथ में कच्चे शहतूतों का गुच्छा था... जो मेरे गालों को छू रहा था... मेरी साँसों में शहतूत की मानूस ख़ुश्बू के साथ... उसके गर्म जिस्म की एक ग़ैर मानूस महक बस गई थी... जिसकी वजह से मुझे अपना सांस बोझल होता महसूस होने लगा था... और लगता था जैसे अगर यही कैफ़ियत कुछ देर और रही... तो शायद मेरा सांस रुक जाएगा... हाँफती हुई वो मुझ पर से उठी और अपनी फ़्राक को दुरुस्त करते हुए खड़ी हो गई... और मेरा हाथ थाम कर कहने लगी...
आओ रूमी... अब अंदर चलते हैं... आज के लिए इतना ही काफ़ी है... अगली बार आऊँगी तो तुम्हारे लिए कुछ किताबें लाऊँगी...
कुछ देर बाद वो अपने वालदैन के साथ चली गई...
अनीला के चले जाने के बाद आज पहली बार मुझे एहसास हुआ कि मेरा कमरा वाक़ई एक आसार-ए-क़दीमा से कम नहीं था... लेकिन अनीला की कुछ देर की मौजूदगी ने इस कमरे में... एक नया रंग भर दिया था... देखने में इक छोटी सी दुबली पतली लड़की... जिसे मैंने पहली नज़र में दर ख़ुर-ए-एतिना न समझा था... मेरी ज़ात में इस क़दर क़लील सी मुद्दत में एक इन्क़िलाब बरपा कर गई थी... मेरे बेड और पढ़ने की मेज़ पर बिखरे कॉमिक्स मेरा ही मज़ाक़ उड़ाते हुए नज़र आने लगे... टेबल के ऊपर लगे आइने में ख़ुद पर नज़र डाली तो ऐसा लगा... न जाने कितना वक़्त तेज़ी से गुज़र गया था... यूं लगता था जैसे इस मुख़्तसर से वक़्त में... मैं एक नौ उम्र लड़के से एक नौजवान में तब्दील हो गया था... मैंने वहीं टेबल के ऊपर लगे आईने में करेयन से अपना नाम RUMI लिख डाला... लेकिन एक तब्दीली के साथ... ओ के बजाय यू से।
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