Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

कफ़न दफ़न

MORE BYअहमद नदीम क़ासमी

    स्टोरीलाइन

    मियां सैफ़-उल-हक़ एक अच्छी और भरपूरी ज़िंदगी जी रहे थे कि अचानक एक रोज़ मस्जिद जाते वक़्त रास्ते में उन्हें लाश के साथ एक आदमी मिला। उस आदमी का नाम ग़फू़र है। ग़फू़र के पास इतने पैसे नहीं है कि वह अपनी मरी हुई बीवी का कफ़न-दफ़न कर सके। मियाँ साहब यह सोचकर उसकी सारी ज़िम्मेदारी उठाते हैं कि वह अपने बेटे हामिद का कफ़न-दफ़न कर रहे हैं। हामिद कई बरस पहले गुमनामी की मौत मर गए थे। ग़फू़र अपनी बीवी के कफ़न-दफ़न के बाद चला जाता है और काफ़ी अर्से बाद फिर वापस आता है और मियाँ साहब को कुछ रुपये देकर कहता है कि मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि मेरी बीवी का कफ़न-दफ़न नहीं हुआ है। आपने उसे हामिद समझकर दफ़नाया था। मेरी बीवी तो ऐसी ही रह गई। मना करने पर भी वह मियाँ साहब को रुपये देता हुआ कहता है, मैंने तो आज ही अपनी कली को अपने हाथों से क़ब्र में उतारा है मियाँ जी।”

    बरसों से मियां सैफ़ उल-हक़ का मा’मूल था कि “अस्स्लातो ख़ैर मेनन-नौम” की आवाज़ पर जागते और नीला रूमाल कंधे पर रखकर मस्जिद की राह लेते और अभी सुबह की कली पूरी तरह चटक ना पाती कि संदल की तस्बीह पर इस्तिग़फ़ार का विर्द करते हुए घर वापस आते। ताज़ा अख़बार की आमद तक क़ुरआन शरीफ़ के चंद रुकुअ’,दुआ’-ए- गंज उल-अर्श और क़सीदा बुरदा पढ़ लेते। अख़बार वाला अख़बार को गोल कर के उसे खिड़की के टूटे हुए शीशे में से अंदर फेंक देता और कहता, “अस्सलामु अ’लैकुम मियां जी।” सीने को छू के मियां सैफ़उल-हक़ “आगए मियां?” पहले कहते और “वाअ’लैकुम अस्सलाम रहमत अल्लाह” बाद में। फिर वो अख़बार उठा लेते और दिन शुरू होजाता।

    मियां सैफ़ उल-हक़ जब नौकरी से अलग हुए थे तो डिप्टी कमिशनर के दफ़्तर में सुपरिटेंडेंट थे। तीनों बेटे बड़े बड़े दफ़्तरों में बड़े बड़े क्लर्क थे। चौथा तार के महकमे में क्लर्की का उमीदवार था जब फ़सादाद हुए तो वो बाज़ार से गुज़रते हुए मार डाला गया। तीनों बेटियां लाहौर के मुख़्तलिफ़ महलों में अपने अपने घर और गोदें आबाद किए बैठी थीं। मियां सैफ़ उल-हक़ की ज़िंदगी बिल्कुल हमवार लुक फिरी चमकती हुई सड़क थी जो हद-ए-नज़र तक ख़त-ए-मुस्तक़ीम में जाती थी और उसके दोनों तरफ़ कद्दावर दरख़्त साया किये खड़े थे। वो उस सड़क पर कुछ ऐसी बे-तकल्लुफ़ी और रवानी से चल रहे थे जैसे इन्सान खाना खाते वक़्त चाहे बात जलियांवाला बाग़ की कर रहा हो मगर निवाला सीधा मुँह को जाये। अलबत्ता कभी कभी इस सड़क पर एक फ़सील सी उभर आती और वो ठीटक कर ख़ला में घूरते रह जाते जहां उन्हें अपने हामिद की कटी फटी लाश सड़क के ऐ’न वस्त में पड़ी हुई दिखाई दे जाती और वो सोचते “तो क्या मेरा बेटा क़ियामत तक इसी तरह पड़ा रहेगा?” ये ख़्याल आते ही वो असतग़फ़ेरल्लाआ रब्बी मन कुल ज़न्ब का विर्द करने लगते। संदल की तस्बीह के मनके उनकी पूरों से रगड़ कर भीनी भीनी ख़ुशबू छोड़ते। फ़सील गिर जाती और मियां सैफ़ उल-हक़ आगे बढ़ जाते।

    आज भी वो सुबह की नमाज़ के बाद घर वापस जा रहे थे और अपनी ख़ुशबूदार तस्बीह पर इस्तग़फ़ार पढ़ रहे थे। सुबह अभी पूरी तरह नहीं चमकी थी। फ़िज़ा नीली हो रही थी। इक्का दुक्का परिंदे यूं उड़े जा रहे थे जैसे नींद से बोझल हो रहे हूँ और अभी गिर पड़ेंगे। शरीफ़ चरसी की सिगरेट पान की दुकान से वो हमेशा कतरा कर निकलते थे। एक-बार सुबह सुबह, नूर पीर की घड़ीयों में, चरस के धुंए के एक भभके ने उन्हें कुछ ऐसा चकरा दिया था कि दिन-भर हलक़ तक जैसे चरस से ठुँसे फिरते रहे। आज भी वो दुकान से बच कर निकले गए मगर चंद क़दम आगे जाकर रुक गए। पलट कर देखा और सोच कर जेब टटोलने लगे।

    सड़क पर एक शख़्स सर से पैर तक एक चादर ओढ़े सीधा सीधा लेटा हुआ था और दूसरा उसके पास बे-हिस-ओ-हरकत बैठा था। मियां सैफ़ उल-हक़ की ज़िंदगी में ये पहला इत्तिफ़ाक़ था कि सूरज उभरने से पहले ही उन्हें पटड़ी पर भिकारी बैठा नज़र आया हो। वो दिन में चंद आने की ख़ैरात ज़रूर तक़सीम करते थे लेकिन उनकी हमेशा ये तमन्ना रही कि सूरज निकलने से पहले भी उन्हें कोई भिकारी मिलता क्योंकि उनके अ’क़ीदे के मुताबिक़ यही वो वक़्त था जब ख़ुदा और इन्सान के दरम्यान फ़रिश्तों की फ़ौजें हाइल नहीं होती थीं।

    उन्होंने जेब से एक चवन्नी निकाली और दूर ही से भिकारी की तरफ़ फेंक दी। उन्होंने कुत्ते के सामने हड्डी फेंकने के अंदाज़ में ख़ैरात आज तक नहीं दी थी लेकिन शरीफ़ चरसी की दुकान क़रीब थी और अगरचे वो बंद थी मगर मियां सैफ़ उल-हक़ को हमेशा ऐसा महसूस होता था जैसा किवाड़ों की झिर्रियों में से चरस का धुआँ बाहर उमडा पड़ रहा है।

    मियां सैफ़ उल-हक़ की चवन्नी लेटे हुए शख़्स के पेट पर गिरी और बैठा हुआ शख़्स कुछ यूं तड़प कर उठ खड़ा हुआ जैसे अब तक सो रहा था। मियां जी भिकारी की इस बदहवासी को सोलह पैसों की ख़तीर रक़म के जलाल-ओ-जबरूत पर महमूल कर के ख़ुद आसूदगी से मुस्कुराए और तस्बीह के मनके गिराते और ख़ुशबू उड़ाते हुए अपनी राह जाने लगे।

    अचानक उन्हें अपने पीछे तेज़ क़दमों की आवाज़ आई। इन्होंने मुड़ कर देखा। भिकारी उनके बिलकुल पास आगया और फिर उसने मियां सैफ़ उल-हक़ की चवन्नी मियां सैफ़ उल-हक़ के तस्बीह वाले हाथ में दे दी।मियां जी ने देखा कि भिकारी का चेहरा बिल्कुल कीचड़ हो रहा था। मटियाले रंग पर फैले हुए आँसू कीचड़ ही की तो कैफ़ीयत पैदा करते हैं। वो कुछ ऐसा मसला और निचुड़ा हुआ लग रहा था जैसे रस निकालने वाले शिकंजे में से कुचला हुआ गन्ना लटक रहा हो। मियां जी को उस पर तरस आगया और वो अपनी जेब को टटोलते हुए बोले, “चवन्नी कम थी क्या?”भिकारी की लिपटी हुई और बंधी हुई आवाज़ में कुछ ऐसी कैफियत थी जैसे उसने अपने सर पर गिरती हुई छत को दोनों हाथों से बमुश्किल रोक रखा है। वो बोला, “मैं भिकारी तो नहीं हूँ जी। पर चवन्नी बहुत कम थी। मुझे तो पंद्रह बीस रुपये और चंद आदमी भी चाहिऐं।”मियां सैफ़ उल-हक़ का हाथ जेब से निकल रहा था मगर अचानक यूं रुक गया जैसे सन हो कर रह गया है। भिकारी ने बहुत सी हवा को पानी के एक बड़े से घोंटे की तरह निगल कर बोलने की कोशिश की और आँसू उसके चेहरे पर फैलते चले गए। “अगर कफ़न एक आने में मिल जाता तो मैं आपको तीन आने वापस कर देता, पर आज तो जी कपड़ा बड़ा महंगा हो रहा है। में एक चवन्नी लेकर क्या करूँगा।”

    मियां जी उसी तरह सुन्न खड़े रहे।

    “ये मेरी बीवी की मय्यत है।” वो बोला, “वो मरगई है।इन्ना लिल्लाहे इन्ना इलैहे राजेऊन।” मियां सैफ़ उल-हक़ ने लरज़ती हुई आवाज़ में कहा और फिर अपना निचला होंट दाँतों मैं कस कर दबा लिया। उनके नथुने ज़ोर ज़ोर से फड़के और आन की आन में उनकी डाढ़ी के बालों ने उनके बहुत से आँसू पिरो लिए और वो कुछ यूं फ़क़ से हो गए जैसे उन्हें भी रस निकालने वाले शिकंजे में से गुज़रना पड़ता है।

    अख़बार बेचने वालों का एक अंबोह सड़क पर से चीख़ता चिल्लाता हुआ गुज़र गया। शरीफ़ चरसी की दुकान के बंद दरवाज़े में से शरीफ़ की बजती हुई खांसी की आवाज़ के साथ चरस की बू से लदा हुआ धुआँ भी आज सच-मुच बाहर आने लगा। बाज़ारी कुत्तों का एक ग़ोल कुदकड़े लगाता एक गली से निकल कर दूसरी गली में घुस गया। दरख़्तों पर चिड़ियों के अंबोह उतर आए और सुबह की कली का सीना-चाक होने लगा।

    मियां सैफ़ उल-हक़ लाश से कुछ फ़ासले पर जाकर रुक गए। उनका निचला होंट इसी तरह दाँतों में दबा हुआ था। उनके चेहरे पर ग़ैर क़ुदरती सी सुर्ख़ी आगई थी और डाढ़ी के बालों में अटके हुए आँसू नए आँसूओं के लिए जगह ख़ाली करते हुए उनके सीने पर टपक रहे थे। “तो क्या अपनी बीवी की लाश को दफ़नाने के लिए तुम्हारे पास कफ़न भी नहीं?” वो एक अ’जीब अजनबी सी आवाज़ में बोले, “तो क्या मेरे मौला की दुनिया में ऐसा भी होता है।” ज़रा सा रुक कर बेहद घुटी और पिसी हुई आवाज़ में बोले, “तो क्या मेरे हामिद की लाश भी...” वो बच्चों की तरह बिलक बिलक कर रोने लगे और उन्हें ये तक ख़्याल ना आया कि उन्होंने शरीफ़ चरसी की दुकान के तख़्ते का सहारा ले लिया है और हवा में चरस की बू बस रही है।

    अचानक उन्होंने कंधे पर से रूमाल उठा कर अपने चेहरे को यूं माथे से गर्दन तक पोंछ डाला जैसे वुज़ू करके उठे हैं। फिर वो लाश के पास आगए और गला साफ़ कर के बोले, “तुम्हारा यहां कोई भी नहीं?”

    “जी नहीं।” वो बोला। वो लाश के पास उसी तरह बैठ गया और उसकी आँखों से मुसलसल आँसू गिर रहे थे जैसे आँसू रुक गए तो वो मर जाएगा। “तो फिर यहां आए क्यों?” मियां जी ने पूछा।

    वो कुछ यूं बोलने लगा जैसे सर पर से एक बहुत भारी गठड़ी उतार रहा है और जैसे मियां सैफ़ उल-हक़ उसका हाथ बटा रहे हैं। “जब कली को तकलीफ़ शुरू हुई है...” वो रुक गया। एक लम्हे के बाद बोला, “मेरी बीवी का नाम कली है।” वो फिर रुक गया और उसकी आँखों से बहुत से आँसू इकट्ठे बह गए। “कली था।” उसने अपनी तसहीह की। उस वक़्त उसने कहा था, “देख ग़फ़ुरे, मेरी आँखों के सामने ये जो तिर मिरे से नाच रहे हैं तो माँ कहती थी ये हज़रत इज़राईल के आने की निशानी है।”

    “फिर सुनेंगे।” मियां सैफ़ उल-हक़ एक-बार फिर रूमाल से चेहरा पोंछते हुए एक बैलगाड़ी की तरफ़ बढ़े। “अरे रीढ़े वाले भाई।” उन्होंने पुकारा। “सुनो तो,ज़रा सा काम कर दोगे?”रीढ़े वाले ने बेल रोक लिए। मियां सैफ़ उल-हक़ ने उसे बताया कि यहीं एक फ़र्लांग के फ़ासले पर “एक बीबी की लाश ले जानी है।”रीढ़े वाला जैसे हवास बाख़्ता हो कर रीढ़े से कूद पड़ा। “क्या लोगे?” मियां सैफ़ उल-हक़ ने पूछा। रीढ़े वाले ने हैरत और मलामत के मिले जुले जज़्बात से मियां सैफ़ उल-हक़ की तरफ़ देखा। “जनाज़ा उठाने के भी किसी ने कभी दाम लिये हैं भोले बादशाह।” वो बोला, “पर बीबी सड़क पर कैसे मरगई।”

    “मेरे मौला की दुनिया में ऐसा भी होजाता है।” मियां सैफ़ उल-हक़ बोले, “ख़ुदा तुम्हारा भला करे। रेढ़ा इधर ले आओ।”

    मियां सैफ़ उल-हक़ वापस लाश की तरफ़ गए तो ग़फूरा हैरत और अदब के जज़्बात से उठ खड़ा हुआ और मियां जी जैसे मुक़द्दमे का फ़ैसला सुनाते हुए बोले, “लाश मेरे घर जाएगी। “आप!” गफूरा हकला कर रह गया।

    “ये मेरी बेटी है।” वो बोले, “इस का कफ़न दफ़न मेरे ज़िम्मे है, मेरे हामिद के जनाज़े को भी तो किसी ने अपने ज़िम्मे लिया होगा।” “जी!” गफूरा हैरान रह गया।

    मगर जब तक रेढ़ा आगया था। लाश को उठाने से पहले मियां सैफ़ उल-हक़ ने ग़फ़ुरे से पूछा, “इजाज़त है?”और ग़फूरा ज़ोर ज़ोर से रोता हुआ मियां जी की टांगों से लिपट गया। सड़क पर जाते हुए इक्का दुक्का लोग ठीटक गए और उनकी तरफ़ आने लगे। शरीफ़ चरसी की दुकान का दरवाज़ा चीख़ता चिल्लाता हुआ खुला और वो अंदर से बोला, “क्या हो गया भई लोगो?”

    बुलंद आवाज़ से “अशहदो अन ला इलाह इल-लल्लाह” पढ़ते हुए मियां सैफ़ उल-हक़ और ग़फ़ूर ने लाश उठाई तो चूड़ियां बज उठीं और ग़फूरा यूं टूट कर रो दिया कि अगर मियां सैफ़ उल-हक़ लाश को सँभाल ना लेते तो वो सड़क पर गिर पड़ती। हवास बाख़्ता लोग मदद देने के लिए बढ़े मगर मियां जी ने सबको रोक दिया। “बीबी है।” वो बोले, “बीबी है!” किसी ने हैरत से कहा, “और बीबी सड़क पर मरगई!पुलिस को बुलाना चाहिए।”दूसरा बोला, “तुम इसके चचा लगते हो?” पहले ने पूछा।

    और फिर मियां सैफ़ उल-हक़ की आवाज़ आई। “ले चल भई, सीधा ले चल, कलमा-ए-शहादत पढ़ता जा।” और वो ख़ुद ज़ोर ज़ोर से कलमा-ए-शहादत पढ़ने लगे।

    रेढ़े ने ज़रा सी हरकत की तो अचानक ग़फ़ुरे ने चीख़ कर रीढ़े वाले को रोका।

    “रोकना भाई, ठहरना ज़रा! कली का सर हिल रहा है।” मियां सैफ़ उल-हक़ ने कंधे का रूमाल कली के सर के एक तरफ़ रखा। ग़फ़ुरे ने अपनी पगड़ी दूसरी तरफ़ रख दी और रेढ़ा चला।तीनों ज़ेरलब कलिमा पढ़ते रहे और रेढ़े के पहिए जैसे हिचकियाँ लेते और रोते रहे और जब रेढ़ा मियां जी के मकान के सामने रुका तो एक दम सारा मुहल्ला जमा हो गया और मियां सैफ़ उल-हक़ किसी को कुछ बताए बग़ैर अंदर लपक गए।

    ज़रा सी देर के बाद मियां सैफ़ उल-हक़ के घर में कुहराम सा मच गया और आस-पास के घरों से औरतें खिड़कियों से आधी आधी लटक कर मियां जी के घर की तरफ़ देखने लगीं। मियां जी की बीवी और नौकरानी के रोने की आवाज़ें गली में खड़े हुए लोगों तक पहुंचने लगीं और मियां जी अपने बेटों के साथ एक पलंग लेकर बाहर आए। उन्होंने मुहल्ले के एक बुज़ुर्ग को अलग ले जाकर उसे सारी बात मुख़्तसर लफ़्ज़ों में समझाई और फिर ये बात सारे मज्मे में नशर हुई। सारे मुहल्ले में फैल गई। आस-पास के मुहल्लों में भी इसका ज़िक्र होने लगा और लोग मियां जी की गली में जौक़ दर जौक़ जमा होने लगे।

    ग़फ़ुरे और मियां सैफ़ उल-हक़ ने कली की लाश को पलंग पर रखा मगर ग़फ़ुरे ने अब के कली की चूड़ियां नहीं बजने दीं। पहले चूड़ियां बजी थीं तो ग़फ़ुरे को ऐसा लगा था जैसे कली की लाश पर से चादर उतर गई है। मियां जी ने ग़फ़ुरे से कहा, “ये मेरे बेटे हैं उन्हें मरहूमा बीबी के भाई समझ लो।”

    उसका गला भर आया था इसलिए सिर्फ “जी” कह कर रह गयाऔर हुजूम से अपने आँसू छिपाने के लिए वहीं गली में बैठ कर सर घुटनों में छुपा लिया और लोग उसके इर्द गिर्द जमा हो गए जैसे उन्हें कोई अ’जूबा हाथ आगया है।

    मियां सैफ़ उल-हक़ और उनके बेटे कली की लाश को अंदर ले गए और जब पलंग को सेहन में उतारा तो उस वक़्त पड़ोस के घरों से बहुत सी औरतें छतें फाँद कर मियां जी के हाँ पहुंच चुकी थीं। रोने का इतना बड़ा शोर बुलंद हुआ कि मा’लूम होता था सारा लाहौर मातम कर रहा है।

    मियां जी का एक लड़का क़ब्रिस्तान की तरफ़ चला। दूसरा गुसालन को बुलाने निकल गया। तीसरे को मियां सैफ़ उल-हक़ ने इ’त्र ख़स और मुश्क काफ़ूर ख़रीदने के सिलसिले में हिदायात दें और फिर कहा, “कफ़न बेहतरीन लट्ठे का हो। महंगा हो तो हुआ करे। यूं समझो कि तुम हामिद के लिए कफ़न ला रहे हो।”

    फिर उन्होंने मुहल्ले के हमदर्द बुज़ुर्गों को बैठक में बिठाया। नौजवान गली में टोलियां बनाए खड़े रहे और मियां जी ग़फ़ुरे को साथ लेकर उस कमरे में चले गए जहां मेज़ पर धरे हुए रेहल में क़ुरआन शरीफ़, दुआ’ए गंज उल-अर्श और क़सीदा बुरदा रखे थे और टूटे हुए शीशे वाली खिड़की के नीचे ताज़ा अख़बार पड़ा था।और वहां ग़फ़ुरे ने अपने सर पर से भारी गठड़ी उतार दी और उसे खोल कर अपना एक एक दुख मियां सैफ़ उल-हक़ के सामने रख दिया। “कली उमीद से थी।” उसने बोलना शुरू किया, मगर गला भर आया और रुक गया। फिर बोला, “माफ़ करना मियां जी, रोना मर्दों का काम नहीं पर कली तो मेरा सारा ग़रूर ले गई।”

    मियां सैफ़ उल-हक़ की आँखें भी भीग गईं जैसे ग़फ़ुरे की ताईद कर रहे हों।

    अब ग़फ़ुरे ने मुसलसल बोलना शुरू कर दिया। उसकी आवाज़ कभी घट जाती।कभी भर्रा जाती कभी आँसुओं में घुल कर बह जाती मगर वो बोलता चला गया और मियां सैफ़ उल-हक़ भीगी हुई आँखों से उसे टिकटिकी बाँधे देखते चले गए।

    “कली उमीद से थी।” उसने कहा, “वो कहती थी देख ग़फ़ुरे ये जो मेरी आँखों के सामने तिर मिरे नाचने लगे हैं तो ये तो दूसरी दुनिया की निशानियां हैं। पिछले दस दिन उसे इतनी तकलीफ़ हुई कि अगर उसकी उम्र सोलह सत्रह की होती। मेरी तरह पैंतीस चालीस की होती तो वो उसी तकलीफ़ में मरगई होती। मैं चुनियाँ में डाकखाने के एक बाबू का नौकर हूँ। वहां एक सियानी से बात की। वो बोली, “कली का पेट कटेगा। नहीं कटेगा तो बच्चा मर जाएगा और बच्चा पेट में मर गया तो ये भी मर जाये गी।

    कली बोली, देख ग़फ़ुरे, मेरा पेट कटवा दे, मैं मरना नहीं चाहती। मैंने तो तुमसे अभी बहुत थोड़ा सा प्यार किया है। ऐसा कहा था उसने। मैंने सियानी से कहा, काट दो। वो बोली, लाहौर ले जाओ, पेट लाहौर में अच्छा कटेगा। मैं उसे बच्चे की तरह उठा कर लारी में बैठा और यहां आगया। यहां मिस ने कहा कि कोई पलंग ख़ाली नहीं है। मैंने कहा, हम पलंगों वाले नहीं, हमें तो खटोला भी ना मिले तो ज़मीन पर पड़ रहते हैं। इतना बड़ा हस्पताल है उसे किसी कोने खदरे में ज़मीन पर ही डाल दो, पर इस का कुछ करो। मिस ने मेरी बात नहीं मानी। फिर कली ने कहा, हम किसी दरख़्त तले पड़ रहते हैं पर उस मिस को तरस आगया और उसे एक पलंग दे दिया और मुझसे कहा, जाओ सब ठीक हो जाएगा। कली ने ये सुना तो ज़ोर ज़ोर से रोने लगी और कहने लगी, देख ग़फ़ुरे तू चला गया तो मैं मर जाऊँगी। पर मिस मुझे वहां से ज़बरदस्ती बाहर ले आई और मुझसे मेरा पता पूछने लगी। मैंने चुनियां का पता लिखवाया तो बोली, यहां का पता भी बताओ। मैंने कहा, मैं तो हर वक़्त हस्पताल के दरवाज़े पर मिल जाऊँगा। मैं तो यहां से कहीं नहीं जाऊँगा। मैं कहीं जाकर क्या करूँगा। फिर मेरे पास इतनी रक़म भी नहीं थी और कली कहती थी। क़र्ज़ कभी लेना वर्ना उम्र-भर क़र्ज़ ही लेते रहोगे। परसों शाम को मैं हस्पताल में गया तो वहां कोई और मिस बैठी थी। बोली, पेट काटने से पहले ही बच्चा हो गया है। पर तुम कली को नहीं देख सकते। वो बेहोश है। उसका ख़ून नहीं रुकता। फिर बोली, जाओ बच्चे का नाम सोचो। कल शाम को मैं फिर अंदर गया। मिस बोली, अब उसकी नाक से भी ख़ून बहने लगा है। मैं कली के पास गया। वो आँखें बंद किए लेटी थी। मैंने कहा, “कली!” तो उसने आँखें खोल दीं और मुस्कुराने लगी। ख़ुदा की क़सम! मियां जी वो मुस्कुराई। फिर वो रो दी और बोली, “देख ग़फ़ुरे, तूने मुझे ये क्यों नहीं बताया था कि बच्चा होता है तो ऐसा भी होजाता है।” मैंने मियां जी उस वक़्त उसके माथे में मौत की लाट जलती देख ली थी। पीली तो वो बहुत हो गई थी। पर ये मैला रंग पहले इतना चमकता नहीं था। परसों रात चमक रहा था। मैंने कहा, तू रो नहीं कली। तूअब ठीक हो जाएगी। बोली, देख ग़फ़ुरे दोपहर को जब मेरी नाक से ख़ून जारी हो गया था तो इस साथ वाली ने मिस को बुला कर कहा था, देखो ये लड़की मर रही है, तब से मैं बड़ी डर गई हूँ। ग़फ़ुरे एक-बार मिस बच्चे को मेरे पास लाई ऐसा लगा जैसे ग़फूरा सिमट कर नन्हा सा हो गया है वो मेरे पास आया पर मुझे तो दूध पिलाना ही नहीं आता मैंने कहा, कैसे पिलाऊँ। तो ये इधर उधर वालियाँ हँसने लगीं। तब से मुझे बड़ा रोना आरहा है। उनको पता नहीं कि ये मेरा पहला बचा था और मैं बेचारी तो चुनियां की रहने वाली हूँ। मैं जब हस्पताल से आने लगा तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। बोली, “आज रात ना जाओ।” फिर जब मैंने कहा, सब मुलाक़ाती उठे जा रहे हैं और वक़्त हो गया है तो वो बोली, “दातागंज बख़्श लाहौर में है ना ग़फ़ुरे,उसके पास जाओ और कहो। दाता कली मरे नहीं, कली ने तेरे नाम की मन्नत मानी थी तो ग़फ़ुरे को पा लिया था और कली ने ग़फ़ुरे से अभी ज़रा सा छंगुलिया के नाख़ुन जितना प्यार किया है।” उसका हाथ बड़ा ही ठंडा था मियां जी बर्फ़ भी ठंडी होती है पर वो कुछ और तरह ठंडी होती है। कली के हाथ में कुछ अजीब सी ठंडक थी जो मेरी हड्डीयों तक में उतर गई और मैं काँपने लगा और मैं वहां से भाग आया। फिर मैं दाता के पास गया और जब वापस हस्पताल के दरवाज़े पर आया तो वो पहले दिन वाली मिस अध खुले दरवाज़े से लगी खड़ी थी। उसने मुझे अपने पास बुलाया और बोली, कली ने तुमको सलाम बोला है। मैंने ख़ुश हो कर कहा, कली तो लाहौर में आकर मेम हो गई है। सलाम बोलने लगी है। मिस ने मेरा हाथ बड़ी सख़्ती से पकड़ लिया। बोली देखो कली ने तुमको आख़िरी सलाम बोला है। मैं वहां से पागलों की तरह भागा। मेरे पीछे चौकीदार भागने लगा। चौकीदार के पीछे मिस भागने लगी और मियां जी जब मैं कली के पास पहुंचा तो उसे वहां से कहीं और ले जाने की तैयारियां हो रही थीं और मिहतरानियाँ आई हुई थीं और आस-पास की औरतों ने करवटें बदल ली थीं। मिहतरानियों ने मुझे रोका, चौकीदार ने मुझे पकड़ लिया मगर फिर मिस आगई। उसने बताया कि ये कली का घरवाला है। मैंने कली के मुँह पर से कपड़ा हटाया तो मियां जी मैंने देखा कि कली मरगई है। उसके ऊपर के होंट पर कहीं कहीं ख़ून जम गया था और उस की नाक में मिसों ने रुई दे दी थी। उसकी आँखों पर भी किसी ने हाथ नहीं रखा था उसका डाठा भी किसी ने नहीं बाँधा था। ऐसा लगता था जैसे वो अभी कहेगी, “देख ग़फ़ोरे।” पर मियां जी। वो तो मर गई थी। मिस ने मुझे मेरा बच्चा दिखाया ऐसा लगता था कली सिमट कर बिलकुल नन्ही सी हो गई है। मिस बोली, तुम कली को दफ़न कर आओ, फिर आकर ले लेना। फिर जब लाश को हस्पताल से बाहर लाया गया तो मैंने उसे यूं उठा लिया जैसे बच्चे को उठाते हैं। मेरे हरक़दम पर कली की चूड़ियां बज उठी थीं मियां जी। पहले तो जी चाहा कि उन्हें तोड़ डालूं फिर जब मैंने कली को ज़मीन पर लिटाया और उसकी कलाई देखी तो वो बड़ी अच्छी लग रही थी। मैं वहां सड़क पर बैठ गया और सारी रात बैठा रहा। पुलिस वालों ने बार-बार पूछा तो मैंने सच्च सच्च बता दिया और वो बोले, “ख़ुदा किसी को ग़रीब ना करे।” एक दो बार तो जी चाहा मियां जी कि वहीं पंजों से ज़मीन खोद कर कली को सड़क किनारे दफ़न कर दूं, पर जनाज़ा भी तो पढ़ना था। सुबह को अल्लाह ने आपको भेज दिया। आप आते तो मैं कली को यूं उठाए फिरता जैसे बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को चिमटाये फिरतीर रहती है। बस ये बात है मियां जी।”

    उसने एक लंबी गहरी सांस ली और सर को झटक कर पगड़ी के पल्लू से आँखें पोछीं और फिर यूं बोला जैसे एक ज़रूरी बात कहना भूल गया था, “कली को मुझसे बड़ा प्यार था मियां जी। मैं उम्र में उससे कितना बड़ा हूँ पर वो सबसे लड़ कर मेरे पास आगई थी और मैंने भी सबसे लड़ कर उससे शादी करली। हमने सारी दुनिया से लड़ कर प्यार किया था मियां जी।”

    फिर वो ज़रा देर को कुछ सोच कर मियां सैफ़ उल-हक़ के क़दमों से लिपट गया और बोला, “मैं आपके सामने कैसी बातें करने लगा हूँ। मैंने तो सारी बातें कर दीं आपके सामने, आप भी क्या कहेंगे आप बुरा तो नहीं मानेंगे मियां जी?”

    मियां सैफ़ उल-हक़ ने उसके कंधे को थपथपाया और रूमाल से मुँह साफ़ कर के बाहर चले गए। कुछ देर बाद वापस आए और बोले, गुसालन आगई है, कफ़न भी आगया है, क़ब्र के लिए शफ़क़त कह आया है।” ग़फूरा उनके क़रीब आया और बच्चे के से भोलपन से बोला, “ग़ुसल हो जाएगी मियां जी तो एक-बार में कली को देखूँगा।”

    और मियां सैफ़ उल-हक़ मुँह में रूमाल ठूँस कर बाहर चले गए।फिर जब वो आए तो उनके हाथों से इ’त्र ख़स और काफ़ूर की बू आरही थी। ग़ुसल दिया जा चुका था। वो ग़फ़ुरे से कुछ नहीं बोले। बस कमरे में आए तो वो मेज़पोश के एक कोने को हाथ पर फैलाए कढ़े हुए फूल देख रहा था। उसने मियां सैफ़ उल-हक़ को देखा तो उठ खड़ा हुआ। उनके पास आया और बोला, “मियां जी मैं आपको ये तो बताना भूल ही गया था कि कली बड़ा अच्छा कशीदा काढ़ती थी।” मियां जी कुछ बोले बग़ैर वापस जाने लगे और गफूरा उनके पीछे पीछे हो लिया फिर दरवाज़े पर रुक कर बोला, “आजाऊँ मियां जी?” “तुमसे कौन पर्दा करेगा भई?” वो बोले और आगे बढ़ गए। ग़फूरा उनके पीछे था। सेहन में बहुत सी औरतें जमा थीं। अक्सर ज़ार-ज़ार रो रही थीं। चंद एक तरफ़ बैठी क़ुरआन शरीफ़ की तिलावत कर रही थीं और ग़फूरा अंदर गया तो उससे किसी ने पर्दा नहीं किया। उसके पहुंचते ही रोने में ज़्यादा शिद्दत पैदा हो गई। सबसे पहले मियां जी ने पाँच रुपये का एक नोट निकाल कर गुसालन की तरफ़ बढ़ाया मगर वो सुर्ख़ सुर्ख़ आँखें मलकर बोली, “मियां जी एक दिन मुझे भी मरना है, क्या ख़बर इसी तरह सड़क किनारे दम निकल जाये, नहीं जी मैं नहीं लूँगी।” “सड़क किनारे!” मियां जी की बीवी की चीख़ें निकल गई। “मेरे हामिद की तरह।”

    और मियां सैफ़ उल-हक़ भी औरतों की मौजूदगी में बेपर्वा हो कर टूट कर रो दिए। फिर इन्होंने रूमाल को मुँह में ठूँसा और ग़फ़ुरे के कंधे पर हाथ रखकर खड़े हो गए। कुछ देर के बाद उन्हों ने रूमाल निकाला और बोले, “मेरे मौला की दुनिया में क्या कुछ नहीं होता। ये भी होता है कि कोई सड़क किनारे मर गया पर ये भी तो होता है कि उसे अच्छा कफ़न दफ़न मिल गया। तुम कहती हो हामिद बरसों पहले मरा था। मैं तो कहता हूँ वो आज मरा है और उसका जनाज़ा ये हमारे सामने रखा है।” औरतें फिर ज़ोर ज़ोर से रोने लगीं। ग़फूरा चुप-चाप खड़ा कली की लाश पर बिछी हुई रेशमी गुलाबी चादर को हवा के ग़ैर महसूस झोंकों में हिलते हुए देखता रहा। मियां जी की बीवी ने अच्छी तरह रो लेने के बाद चादर एक तरफ़ से उठाई, कलमा-ए-शहादत पढ़ते हुए कली के चेहरे पर से कफ़न सरका दिया और ग़फ़ुरे की तरफ़ देखने लगीं। सब औरतें ग़फ़ुरे की तरफ़ देखने लगीं। मियां सैफ़ उल-हक़ ने भी घबरा के ग़फ़ुरे को देखा और बोले, “क्यों मियां, पहचाना नहीं क्या, ये मेरा हामिद है, ये तुम्हारी कली है।”

    ग़फ़ुरे की आँखों में उमडे हुए आँसू भी जैसे सूख गए थे और देर तक पलकें झपके बग़ैर कली के चेहरे को देखता रहा और औरतें बिलकुल ख़ामोश हो गईं।

    फिर ग़फ़ुरे के जिस्म में हरकत पैदा हुई। उसने कली को छूने के लिए हाथ बढ़ाया तो मियां जी की बीवी बोलीं, “ना ना, ऐसा नहीं करते। बीवी के मरने के बाद अब तुम उसके महरम नहीं रहे, तुम्हारा तो इस पलंग को छूना तक गुनाह है।”

    ग़फ़ुरे पर जैसे सकता तारी हो गया वो ज़रा देर तक झुका हुआ हाथ बढ़ाए यूं खड़ा रहा जैसे मुंजमिद हो कर रह गया है। फिर वो सीधा हो गया और कली के चेहरे पर टिकटिकी बाँधे रखी।

    अचानक मियां सैफ़ उल-हक़ ने उसे दोनो कंधों से पकड़ कर झिंझोड़ डाला और बोले, “रोओ, ख़ूब रोओ, खुल कर रोओ। तुम रोओगे नहीं तो मर जाओगे। तुम्हारे दिल की हरकत बंद हो जाएगी। तुम्हें सकता हो जाएगा। हामिद मरा था तो मुझे भी ऐसा हो गया था। यूं समझो कि ये छे बरस मैंने सकते की हालत में गुज़ारे। मैं आज रोया हूँ तो जैसे नई ज़िंदगी पा गई है।”

    “मैं ठीक हूँ मियां जी।” ग़फ़ूर आहिस्ता से बोला। फिर वो चलने लगा। वो सेहन के उस कोने में जाकर रुक गया जहां कली को ग़ुसल दिया गया था। उसने मुजरिमों की तरह मियां सैफ़उल-हक़ की तरफ़ देखा। फिर झुका, टूटी हुई चूड़ीयों के टुकड़े चुने और जेब में डाल लिये।

    और औरतें यूं एक दम कड़क कड़क कर रोने लगीं कि बाहर बैठक में बैठे हुए और गली में खड़े हुए लोग भी एक-बार तो दहल कर रह गए।

    और जब गफूरा चूड़ियोंके टुकड़ों को जेब में डाले वापस आरहा था तो मियां सैफ़ उल-हक़ ने कहा, “सब बीबियाँ एक तरफ़ चली जाएं, मैं फ़तवा देता हूँ कि ग़फूरा अपनी बीवी की मय्यत को छू सकता है। छू सका तो पागल हो जाएगा।” उन्होंने क़रीब खड़ी हुई बेटी के कान में सरगोशी की।

    ग़फूरा उसी सकते के आ’लम में आगे बढ़ा। कली के चेहरे पर झुक गया। उसके चमकते हुए ज़र्द माथे पर से एक बाल हटा कर ऊपर गीले बालों में मिला दिया और बजाय इसके कि कली को मुख़ातब करता। बोला, “देख ग़फ़ुरे।”

    फिर वो उसी तरह ख़ुश्क आँखें और ज़र्द चेहरा लिये बाहर चला गया।और मियां जी बोले, “मुझे तो अब इस बदनसीब की फ़िक्र पड़ गई है।”

    जब कली का जनाज़ा उठा तो उसके साथ बहुत बड़ा हुजूम था। बहुत बारौनक़ नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ी गई। निहायत ख़ूबसूरत क़ब्र तैयार हो चुकी तो ग़फ़ुरे ने जेब में हाथ डाला और टूटी हुई चूड़ी का एक टुकड़ा निकाल कर क़ब्र पर रख दिया।

    और मियां सैफ़ उल-हक़ लोगों से कह रहा थे, “मुझे हामिद के कफ़न दफ़न का मौक़ा मिलता तो मैं इससे ज़्यादा और क्या करता। मैंने तो सिर्फ अपना फ़र्ज़ अदा किया है।”

    मियां सैफ़ उल-हक़ जब क़ब्रिस्तान से पलटे तो एक अ’क़ीदतमंद हुजूम उनके हमराह था। हर शख़्स की ज़बान पर मियां जी की ख़ुदातरसी और नेक नफ़सी के क़िस्से थे और सब लोग इस बात पर मुत्तफ़िक़ थे कि इस चौदहवीं सदी में भी आदमियत मरी नहीं। अभी इसमें ज़िंदगी की रमक़ बाक़ी है और इस रमक़ का नाम मियां सैफ़ उल-हक़ है।

    मियां सैफ़ उल-हक़ ये बातें सुनते तो घबरा जाते। “अरे भई मैं किस लायक़ हूँ।”

    एहतिजाज करते, “बंदा किस लायक़ है, ये तो तौफ़ीक़ की बात है और तौफ़ीक़ देने वाला मेरा मौला है, ये तो सब मेरे मौला का एहसान है दोस्तो।”

    फिर उनकी आँखों में अ’जीब चमकते दमकते से आँसू आजाते और वो एक लंबी गहरी सांस लेकर कहते, “मैंने एक मिस्कीन बीबी को नहीं दफ़नाया। मैं तो आज छ: बरस के बाद अपने हामिद को दफ़ना के आरहा हूँ। मैं तो हर मुहर्रम-उल-हराम में इस तुर्बत पर फ़ातिहा पढ़ने और पानी छिड़कने आऊँगा।” और लोग उनके चेहरे के इर्द-गिर्द हाला उभरता हुआ देखने लगते।

    अपनी गली में आकर मियां सैफ़ उल-हक़ ने लोगों को रुख़्सत किया चंद बुज़ुर्गों को वो बैठक में ले आए और फिर अचानक बोले, “ग़फूरा कहाँ है?”

    बैठक में चारों तरफ़ नज़रें दौड़ा कर वो गली में आगए और बुलंद आवाज़ में जैसे अपने आपसे पूछा, “अरे भई ग़फूरा किधर गया?” वो गली के उस पार सड़क तक क़रीबन दौड़ते चले गए और उन्हें उसी हालत में देखकर घरों को जाते हुए लोग उनके आस-पास जमा हो गए। “जाने वो ग़फूरा कहाँ गया?” मियां जी बोले। “अरे हाँ।” लोगों ने एक दूसरे की तरफ़ देखकर कहा “वो तो सारे रस्ते नज़र नहीं आया।”

    वापस आकर वो सीधे ज़नान ख़ाने में चले गए और बोले, “जाने वो गफूरा कहाँ ग़ायब हो गया।”

    लेकिन उनकी बीवी ने सवाल का जवाब सवाल में दिया, “अब मुझे कब ले चलेंगे क़ब्र दिखाने?” “ले चलेंगे।” मियां सैफ़ उल-हक़ बोले।

    और दूसरे रोज़ वो अपनी बीवी, तीनों बेटों और चारों बेटियों के हमराह क़ब्र देखने गए। कली की रस्मे क़ुल भी अदा हुई। चालीसवें तक हर जुमे’रात को मुहल्ले की मस्जिद के इमाम साहिब को दा’वत पर भी बुलाया और फ़ातिहा पढ़वाई। फिर चालीसवां भी हुआ और उस रोज़ हामिद की तस्वीर को उसकी बहनों ने हार पहनाए।

    और बहुत बड़े नशेब के बाद मियां सैफ़ उल-हक़ की ज़िंदगी बिलकुल हमवार लक फिरी चमकती हुई सड़क बन गई जो हद-ए-नज़र तक ख़त-ए-मुस्तक़ीम में जाती थी और जिसके दोनों तरफ़ कद्दावर दरख़्त साया किए खड़े रहते थे। वो उस सड़क पर फिर से कुछ ऐसी बे-तकल्लुफ़ी और रवानी से चलने लगे जैसे इन्सान खाना खाते वक़्त चाहे बात जलियांवाला बाग़ की कर रहा हो मगर निवाला सीधा मुँह को जाये। अब इस सड़क पर वो फ़सील भी नहीं उभरती थी जिसके पास कभी कभी ठिटक कर वो ख़ला में घूरते रह जाते थे। अब हद-ए-नज़र तक मतला’ साफ़ था।

    ये कोई साल भर बाद का ज़िक्र है कि मियां सैफ़ उल-हक़ अस्सलात ख़ैर मन उल-नौम की आवाज़ पर जागे और नीला रूमाल कंधे पर रखकर मस्जिद की राह ली। संदल की तस्बीह पर इस्तग़फ़ार का विर्द करते हुए पलटे। शरीफ़ चरसी की दुकान से बच कर निकले और घर आगए। क़ुरआन शरीफ़ के चंद रुकुअ’,दुआए गंज उल-अर्श और क़सीदा बुरदा पढ़े, अखबारवाले ने अख़बार गोल कर के उसे खिड़की के टूटे हुए शीशे में से अंदर फेंक दिया और बोला, “अस्सलामु अ’लैकुम मियां जी। सीने पर छू कर मियां सैफ़ उल-हक़ ने कहा, “आगए मियां? वाअ’लैकुम अस्सलाम रहम अल्लाह और अख़बार उठाने को उठे।

    अचानक एक-बार फिर आवाज़ आई, “अस्सलामु अ’लैकुम मियां जी।” “आगए मियां?” उन्होंने आ’दतन कहा और वाअ’लैकुम अस्सलाम कहने ही को थे कि उनका मुँह खुला का खुला रह गया और टूटे हुए शीशे के उस पार उन्होंने कुछ यूं आँखें सुकेड़ कर देखना शुरू किया जैसे उनकी नज़रों को किसी ने कस कर तान लिया है। मियां जी की फिर आवाज़ आई और मियां सैफ़ उल-हक़ ने इस दौरान में पहली बार आँखें झपकीं और दरवाज़े की तरफ़ लपके। “आ जाओ भई, जाओ, सुनाओ कहाँ रहे तुम? कहाँ ग़ायब हो गए थे? मैं तो इस रोज़ तुम्हें गली गली पूछता फिरा और ये क्या हालत बना रखी है? आओ अंदर जाओ, कमाल है भई। मैं तो समझा था कि तुम...”

    ग़फूरा अंदर आगया। उसने एक मैली सी चादर लपेट रखी थी। सर पर खद्दर की एक पुरानी चीकट टोपी थी। आँखें बहुत पीछे हट गई थीं और भवों और गालों की हड्डियां ग़ैर फ़ित्री तौर पर उभरी हुई मा’लूम होती थीं। नाक झुक आई थी। डाढ़ी बढ़ी हुई थी और बिल्कुल खिचड़ी हो रही थी। होंट आपस में कुछ यूं पैवस्त थे जैसे अलग हुए तो उनसे ख़ून बहने लगेगा। वो मियां सैफ़ उल-हक़ के पीछे आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ कमरे में आया और वहीं जाकर खड़ा हो गया जहां बैठ कर उसने मियां जी को अपनी सारी कहानी अलिफ़ से इए तक सुना डाली थी।

    मियां सैफ़ उल-हक़ ग़फ़ुरे को देखते हुए भी ख़ला में घूरते हुए मा’लूम हो रहे थे। वो भी वहीं जा खड़े हुए जहां बैठ कर उन्होंने ग़फ़ुरे की कहानी सुनी थी। फिर मियां जी बैठे तो ग़फूरा भी बैठ गया। खिड़की के नीचे ताज़ा अख़बार पड़ा था और सामने मेज़ पर धरे हुए रेहल में क़ुरआन शरीफ़,दुआ’ए गंज उल-अर्श और क़सीदा बुरदा रखे थे। यूं मा’लूम होता था जैसे ग़फ़ुरे ने जो कहानी आज से एक साल पहले शुरू की थी वो अब तक जारी है और इस शिद्दत से जारी है कि वो जिस पहलू से बैठे थे उसी पहलू से जम कर रह गए हैं।

    “हम तो समझे थे”, मियां सैफ़ उल-हक़ बोले कि “तुम हमें भूल भाल गए होगे।”

    “मैं आपको कैसे भूल सकता हूँ मियां जी।” ग़फूरा बोला, “जब तक मैं कली को नहीं भूलता, आपको भी नहीं भूलूँगा और मैं कली को तो उम्र-भर नहीं भूल सकूँगा मियां जी।” ज़रा से वक़्फ़े के बाद ग़फूरा बोला, “मियां जी! आप कितने नेक आदमी हैं और मैं कितना ख़ुद-ग़र्ज़ आदमी हूँ। मैंने पहली ख़ुदग़र्ज़ी तो ये की कि कली दफ़न हो गई तो आपसे मिला तक नहीं और चला गया। दूसरी ख़ुदग़र्ज़ी ये है मियां जी कि मुझे कुछ ऐसा लगता है कि...” रुक कर उसने आँखें मलीं और बोला, “मुझे ऐसा लगता है जैसे कली अब तक सड़क किनारे बे-कफ़न पड़ी है।” “पागल तो नहीं हो गए तुम।” मियां जी ने प्यार से डाँटा। “मैंने उस दिन कहा था ना कि खुल कर रोओ, नहीं तो पागल होजाओगे।”

    “नहीं मियां जी।” ग़फूरा बोला, “पागल कहाँ हुआ हूँ। पागल होना होता तो उसी दिन ना होजाता जब मरी हुई कली की कलाइयों में चूड़ियां बजी थीं। मैं सच्च कहता हूँ मुझे इस एक साल में एक दिन भी तो ऐसा नहीं मिला जब कली की याद ने मुझे गाली दी हो और ये कहा हो कि देख ग़फ़ुरे मैं तो अब तक सड़क किनारे चादर में लिपटी रखी हूँ।”

    “तुम्हें कुछ हो गया है भई।” मियां जी ने परेशान हो कर कहा।

    “मियां जी।” अब ग़फ़ुरे के आँसू आज से एक बरस पहले की तरह बहने लगे और इस की आवाज़ भर्राने और घुटने लगी। “कली को मुझसे बड़ा प्यार था मियां जी। मैं उम्र में उससे कितना बड़ा था, पर वो सबसे लड़ कर मेरे पास आगई थी। हमने सारी दुनिया से लड़ कर आपस में प्यार किया। पर मैं कैसा बुरा हूँ कि मैं उसके जनाज़े पर एक पैसा भी तो ना लगा सका। मैंने कली के मरने के बाद उसका तो कोई हक़ अदा किया मियां जी। मैंने इस एक साल में बड़ी मेहनत की। मैं बीमार भी हो गया। मैं हस्पताल में पड़ा रहा। पर जो कुछ मुझसे हो सका वो किया। मैं नहीं जानता आपने कली के जनाज़े पर कितना ख़र्च किया था। बहुत क्या होगा क्योंकि आपने तो उसे बिलकुल अपना बना लिया था। अगर मैं ख़ुद उसके जनाज़े पर ख़र्च कर सकता तो...” उसने जेब में हाथ डाल कर चंद नोट निकाले। उन्हें फ़र्श पर रख दिया और बोला, “तो इससे ज़्यादा क्या करता कुछ कम ही करता। लम्हा भर को वो ख़ामोश रहा। मियां जी भी ख़ामोश रहे। कहीं अंदर से क्लाक की टिक-टिक की दबी-दबी आवाज़ आने लगी। फिर वो बोला, “मियां जी! ये आप ले लीजीए।” मियां सैफ़ उल-हक़ तड़प कर उठ खड़े हुए। “नहीं मियां जी।” “ग़फूरा भी उठ खड़ा हुआ, “मैं आपको दुख देने नहीं आया। ये रक़म आप ले लीजीए। आप ले लेंगे तो मेरे दिल को तसल्ली होगी। मैं समझूँगा मैंने कली के कफ़न-दफ़न का सामान ख़ुद किया। कली भी मुझे गालियां नहीं देगी और उसकी रूह भी ख़ुश होगी। ले लीजिए मियां जी।”

    मियां सैफ़ उल-हक़ जो इस दौरान में हांपने लगे थे, गरज उठे, “तो क्या मैंने तुमसे कोई सौदा किया था? ले जाओ ये रुपये। क्या मैं तुम्हारे इन चंद रूपयों का भूका हूँ? क्या तुमने मुझे अपनी तरह...” और उन्होंने नोट उठा कर ग़फ़ुरे की तरफ़ फेंक दिए। ये नोट एक एक करके फ़र्श पर बिखर गए और ग़फूरा ख़ामोश खड़ा रहा।

    फिर जब उसने देखा कि मियां सैफ़ उल-हक़ काँपने भी लगे हैं तो वो आहिस्ता से बोला, “मियां जी देखिए, ख़फ़ा ना होजिए। आपने मुझ पर इतना बड़ा एहसान किया है। मैं ऐसा कमीना नहीं हूँ कि उस एहसान को भूल जाऊं। पर बात ये है मियां जी कि आपने तो कली की जगह हामिद मियां को दफ़न किया था और मेरी कली तो वहीं सड़क किनारे बे-कफ़न पड़ी रह गई। इन रूपयों को चाहे आप नाली में फेंक दीजिए, पर मैंने तो आज ही अपनी कली को अपने हाथों से क़ब्र में उतारा है मियां जी।”

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY
    बोलिए