कहीं ये पुरवाई तो नहीं
स्टोरीलाइन
तक़सीम से पैदा हुए हालात के दर्द को बयान करती कहानी है। अचानक लिखते हुए जब खिड़की से पुर्वाई का एक झोंका आया तो उसे बीते हुए दिनों की याद ने अपनी आग़ोश में ले लिया। बचपन में स्कूल के दिन, झूलते, खाते और पढ़ाई करते दिन। वे दिन जब वे घर के मुलाज़िम के बेटे रब्बी दत्त के पास पढ़ने जाया करते थे। रब्बी दत्त, जो उन्हें अपनी बहन मानता था और उनसे राखी बंधवाया करता था। मगर अब न तो राखी बंधवाने वाला कोई था और न ही उसकी दक्षिणा देने वाला।
तीन सौ पैंसठ दिनों का भारी बोझ एक बार फिर हाल के हाथों से फिसल कर माज़ी के अँधियारे ग़ार में जा गिरा है।
इस उजाड़ से कमरे की खिड़कियाँ चौपट खुली हैं, गहरे सब्ज़ दरख़्तों के अक़ब में सुरमई बादलों में लिपटा हुआ आसमान कितना अजीब नज़र आ रहा है। मालूम होता है किसी ने ख़लाई फ़िज़ाओं में बड़ा सुहाना और दुखी-दुखी सा हुस्न बिखेर दिया है। बड़ी तपिश और िजला-कुन के बाद ठंडी-ठंडी हवा चल रही है।
कहीं ये पुरवाई तो नहीं?
मेरे आगे मेज़ पर काग़ज़ों और किताबों का बे-तर्तीब ढेर है। मैंने लिखते-लिखते हाथ रोक लिया है और अपना क़लम बन्द करके गले में लगा लिया है। इसलिए नहीं कि रुत सुहानी है और अंगूर की बेल पागल-कुन हद तक ख़ूबसूरत नज़र आ रही है और ऐसे समय इन्सान डेरी फ़ार्मिंग पर किताब नहीं लिख सकता। वो दूध की कीमियावी अज्ज़ा और मवेशियों की ख़ुराक में सरसों की खली और भूसे के अज्ज़ा की अहमियत पर बहस नहीं कर सकता है। हाँ ठीक है, मैं इस वक़्त गाय-भैंसों के मुतअल्लिक़ एक लफ़्ज़ नहीं लिखूँगी।
और बात ये है कि मैं बड़ी बे-ध्यान हूँ, क़लम गले में लगा होता है और मैं सारे में ढूँढती फिरती हूँ। बहुत बार के देखे हुए चेहरे देख कर सोचा करती हूँ, ये कौन हैं। मैंने तो इनको पहले कभी नहीं देखा। मेरा हाफ़िज़ा इतना ख़राब है कि मुझे ये भी याद नहीं रहता कि किसने मुझे दुख पहुँचाया है और किसके मुतअल्लिक़ ये तै किया था कि उससे हमेशा ख़फ़ा रहना है। और जिस दिन मुझे कोई बहुत ज़रूरी काम करना होता है तो उस दिन कोई और ही और बहुत ही वाहियात सा प्रोग्राम बना कर बैठ जाती हूँ। हाँ तो भई मेरा क्या ठीक है कभी ऐसा न हो कि मेरी यादों के नगर वीरान और ढंडार रह जाएँ और सारी जानी पहचानी बातों को सिरे से पहचान ही न पाऊँ, इसीलिए तो मैंने काग़ज़ डाल दिए हैं और क़लम गले में लगा लिया है। इसी लिए कि मैं चाहती हूँ कि ज़रा पीछे की तरफ़ टेक लगा कर आँखों को चुँधिया कर दूर उफ़ुक़ की ओर ताक कर तो देखूँ। क्या ख़बर माज़ी के बेकराँ रास्तों पर जाता हुआ वो वक़्त मुड़ कर पीछे देख ही ले।
अरे हाँ, ख़ूब वो देखो, गए हुए वक़्त ने पलट कर मुझे पुकारा है। और अब मेरे सामने से गिर्द-ओ-पेश का हर मन्ज़र तहलील हो रहा है और ख़लाओं में से वो खोया हुआ उफ़ुक़ नमूदार हो रहा है। हाँ ये बड़ा अच्छा सा फाटक वही तो है जिसकी लोहे की सलाख़ों से चिमट कर हम पहरों झूला करते थे, टिकट बनते और बेचे जाते, गार्ड हरी झंडी दिखाता और सवारियाँ रेलिंग पर पैर जमा कर सलाख़ों से चिमट कर रेल की सवारी करते और बाक़ी लोग उसको ज़ोर से बाहर की तरफ़ धकेल देते थे। बाहर को सड़क चलती थी और फाटक के बिल्कुल सामने को लोहार की भट्टी दहकती थी। सुर्ख़ सुर्ख़ लोहा झन-झन, ठन-ठन ठान करके पीटा जाता था। अन्दर को जाते थे तो बड़े और छोटे बाग़, नरबसी की बाढ़ और गुलाब की बेलें चढ़े हुए नाज़ुक गेट नज़र आते और हम फ़र्ज़ कर लेते कि गाड़ी जंगलों और खेतों से गुज़र रही है। जब गाड़ी को स्टेशन में दाख़िल करना होता तो अँगूठा ठोड़ी के नीचे और शहादत की उँगली नाक की सीध में माथे पर चिपका लेते और अँगूठे और उँगली की घाटी से होंट जमाकर पूरी ताक़त से चीख़ मारते... कूदा और बिल्कुल होता कि गाड़ी स्टेशन में दाख़िल हो रही है।
गर्मी की सारी छुट्टियाँ यूँ ही फाटक के दरवाज़ों पर झूलते और समर हाउस के अन्दर मार धाड़ से भरपूर खेल खेलते गुज़र जातीं, डाकू पकड़े जाते और पुलिस और डाकुओं में बड़ी ज़बरदस्त झड़पें होतीं और फिर एक दम डाकू तौबा करके कच्चे अमरूदों और शहतूतों की दुकानें लगा लेते। गमले फोड़-फोड़ कर और घिस-घिस कर सेर आध सेर के बट्टे और सिक्के बनाए जाते और बस यूँ ही खेलते-खेलते एक दिन मालूम होता कि बस छुट्टी ख़त्म, कल स्कूल जाना है और उस कल वाले दिन हम नौ बजे तक मक्र किए पड़े रहते। स्कूल की बस आकर पलट जाती, लेकिन ताबके। फिर दूसरी कल चार बजे रात से झिंझोड़-झिंझोड़ कर जगा लिया जाता। फिर हर बार जब स्कूल खुलता, तो एक न एक नई मुसीबत साथ आती। और उस मर्तबा ये आई कि एक नई मोटी सी साहबा क्लास में आईं। बग़ैर कोर की साढ़ी बाँधे और ऐनक लगाए। उन्होंने क्लास की मुसलमान लड़कियों को हिन्दी के क़ायदे दिए। और कहा कि इसके हर्फ़ सीख कर आना। ये किताब देख कर मैं बुरा मान गई। पाँचवें क्लास में हो कर हम ये क़ायदा क्यों पढ़ें। एक बार तो ऐसा ही क़ायदा पढ़ चुके थे। सारी तस्वीरें वही बनी थीं। ख़ैर उन्होंने बताया था कि पाँचवें जमाअत में हिन्दी ज़रूर पढ़ना है और हमने उसको बसते में एहतियात से रख दिया और वो पड़ा रहा। दो दिन के बाद वो फिर आईं तो हमने बड़े इत्मीनान से सुना दिया। अलिफ़ से अनार। ब से बकरी। ह से हुक़्क़ा और ड से ढोल। पागल, दीवानी। वो ग़ुस्से से बेहाल हो गईं। फिर से सीख कर आओ।
भई ये क्या मुसीबत है, मगर कौन बताता क्लास की सारी लड़कियाँ हमसे दो-दो हाथ ऊँची थीं। वो ख़ाली घंटों में बैठ कर क्रोशिया की लेसें और लाल सब्ज़ ऊनों के स्वेटर बुनती थीं। हम उन सबसे शरमाते थे और टूटी चूड़ियाँ और गोलियाँ खेला करते थे। इसलिए किताब फिर रख ली और सोचा ये ख़ुद ही पागल हैं। साफ़-साफ़ तो हुक़्क़े और बकरी की तस्वीर बनी है और ये बुरा मानती हैं, मगर जब हर बार फटकार पड़ने लगी तो हमने अम्माँ से रुजू किया। वो ख़ुद तो पढ़ाती नहीं, कहती हैं घर से सीख कर लाओ।
तुम रबी दत्त से कहो वो तुमको पढ़ा देगा। अम्माँ ने मश्वरा दिया।
और फिर हमने उस लड़के को ख़ुशामदें शुरू कीं जिसके बाप को हम महाराज कहा करते थे, वो बाहर कोठड़ियों में रहता था।
रबी दत्त ने बड़ी-बड़ी आँखों में मोटा-मोटा काजल और माथे पर नज़र का बड़ा-सा काला टीका लगाए, काले डोरे में पिरोया हुआ सोने का तावीज़ पहने, आँखें मटकाईं और अपनी शराइत पेश कीं।
तुम हमारी चुटिया तो नहीं खींचोगी?
नहीं।
झूला झूलने दोगी?
हाँ।
बीस झोंटे दोगी?
हाँ।
गोस रोटी खिलाओगी?
और यहाँ हम सिटपिटा गए। हम उसकी फ़रमाइश पर उसको गोश्त खिलाते तो अम्माँ नाराज़ होतीं। ख़बरदार जो उसको गोश्त दिया है कभी।
मत खिलाओ, हम भी नहीं पढ़ाते।
खिलाएँगे।
और उनकी तशरीफ़ आती तो घुस कर पलंग या तख़्त के नीचे बैठ जाते। फिर घसीट-घुसाट कर निकालती तो बड़े रोब फ़रमाते, पढ़ो। छोटा उ, बड़ा ऊ, ई। सारे तस्वीरों वाले वरक़ लगा कर पढ़ा दिए।
फिर एक दिन पढ़ाया, मोहन अच्छा लड़का है। भोर भए जागता है और अश्नान करता है। भई मुझे यक़ीन न आया कि इतने अजनबी हर्फ़ों में से इतने मानूस बोल निकल सकते हैं।
कमबख़्त गधा, पढ़ाता नहीं ठीक से।
पढ़ाए तो रहे हैं और का तुमरा सर पढ़ाएँ।
झूटा मक्कार। अंग्रेज़ी में से अंग्रेज़ी की आवाज़ निकलती है और तू हिन्दी में उर्दू पढ़ा रहा है!
जाओ हम नहीं पढ़ाते। वो मैदान छोड़ कर भाग निकलता क्योंकि ये मामला ख़ुद उसकी समझ से बालातर था, हिन्दी में से उर्दू की आवाज़ क्यों निकलती है।
बड़ी मुश्किल से इस बात से समझौता किया कि इन अजीब-ओ-ग़रीब और बिल्कुल ही नए हर्फ़ों में से वही आवाज़ें निकलती हैं जिन्हें हम उर्दू में पढ़ा करते हैं।
अब लिखाई शुरू हुई,ये-ये क्या लगी है ओके ऊपर पुछिया सी। मैं मात्रा को देख कर पूछती।
और वो फिर गड़बड़ा जाता,ये ऐसे ही है तुम इससे मत बोलो, अपना काम करो।
ग़रज़ उसने मात्राएँ न बताना थीं, न बताईं।
मेरे दिल में एक उलझन सी रही ये क्या धाँधली है। कि वही बात उर्दू में पढ़ो, वही इन अजीब-ओ-ग़रीब हर्फ़ों में पढ़ो। ज़रूर कोई साज़िश है पढ़ने वालों को परेशान करने के लिए। तबियत ज़िदिया सी गई। बेकार कौन सर मारे और रबी दत्त भी मेरी रोज़ की झक-झक से तंग आ चुका था। हमने हिन्दी का क़ायदा एक तरफ़ डाल दिया। एक ये भी बात थी कि अब हम एक ऐसे स्कूल जाने वाले थे कि जिसमें झगड़ा ही न था। और यूँ वो उस्तादी शागिर्दी का रिश्ता टूट गया... और अब वो दिन भर नज़र न आता, स्कूल जाता और वहाँ से आकर वाही तबाही फिरता। या फिर घर में बैठ कर बुड्ढों की सी बातें करता, इसलिए कि उसका कोई भाई-बहन न था और सारे रिश्तेदार वतन में थे।
हाँ तो भई रबी दत्त तुम ख़ूब थे और अब इस वक़्त भी इस तमाम पस-मन्ज़र में बिल्कुल नज़र आ रहे हो। और हमेशा ही नज़र आते हो। जब बरखा रुत आती है और उसके साथ ही ये ख़याल भी आता है कि वहाँ जहाँ घर था, घटाएँ झूम कर आती होंगी और झड़ी लग कर पानी बरसता होगा। ओल्तियों से पानी के शिराटे चलते होंगे और लोग सलोनो मनाते होंगे तो फिर मजाल है जो तुम याद न आओ। जब मेरे और तुम्हारे दर्मियान उस्तादी और शागिर्दी का रिश्ता टूट गया तो तुमने एक दूसरा रिश्ता यूँ जोड़ा कि ओट में खड़े होकर अपनी बैठी-बैठी सी आवाज़ में रट लगा दी,तुम कैसी बहिनी हो, तुम हमरे राखी भी नहीं बाँधत हो। औरों की बहनें तो भय्या लोगन के राखियाँ बाँधत हैं।
जब सारे दिन तुमने थोड़ी-थोड़ी देर के बाद दरवाज़े की ओट में छुप-छुप कर और राखी न बाँधने के ताने दे-दे कर नातिक़ा तंग कर दिया तो फिर अम्माँ ने हम लोगों को तुम्हारे लिए राखियाँ मँगा कर दीं और फिर जो तुम दरवाज़े के पीछे आकर छुपे तो पकड़ कर तुम्हारे हाथ में वो लाल सब्ज़ डोरों और फुन्दनों वाली राखियाँ बाँध दी गईं। अपने हाथों में तीन-तीन राखियाँ देख कर तुम ख़ुशी के मारे घर भाग गए और उसी शाम सफ़ेद झाग सी धोती, लेस वाला कुरता और गाँधी कैप लगाए पीतल के थाल में चावल, अन्दर से और केलों के साथ आठ दस आने पैसे रखे तुम आए और उसी दरवाज़े की आड़ से हाथ बढ़ा कर थाल रख दिया और बोले,ये तुम्हारी दक्षिणा है।
क्या कहने थे तुम्हारे, यहाँ किसको राखियाँ बाँधने का होश और शौक़ था, मगर तुम हर साल सलोनो पर पहले ही से याद दिलाना शुरू कर देते,राखी मँगाए ली हमरी। और तुम्हारे दिल में यूँ ज़बरदस्ती का भय्या बनने का कितना एहतिराम था। बीबी जब शादी के बाद पहली बार शिमले से आईं तो तुम बाहर से उनका बिस्तर अपने ऊपर बड़ी मुश्किल से लाद कर लाए। और जब तुमसे कहा गया कि भई तुम क्यों लाए हब्बल उठा लाता। तो तुम चुपके से बोले क्यों ले आता हब्बल, आपा के दुल्हा जो कहने लगते थे कि ये कैसा भय्या है तुम्हारा जो एक बिस्तर भी नहीं उठा सकता।
और इसी पर बस नहीं थे, लड़ लड़ कर झूले पर बैठते और जब हम तुमको पेंगें देते, तो लर्ज़ती आवाज़ में कहते,हौले-हौले झोंटे दो, हम डरावते हैं।
क्यों डरते हो, हम तो नहीं डरते।
तुम चुपके से कहते, तुम गोस रोटी खाती हो, हम दाल-रोटी खाते हैं।
और जब अन्दर बाहर कोई भी तुमसे पूछता है कि भई तुम हिन्दू हो या मुसलमान, तो तुम बहुत इत्मीनान से जवाब देते कि हम तो बेगम साहब की ज़ात बिरादरी हैं। मैं तो बेगम साहब का बेटा हूँ।
और तुम बड़ी ऊँची ज़ात के बाह्मन थे। तुम्हारे बाप की ज़ात इतनी ऊँची थी कि उसके निखट्टू होने के बावजूद तुम्हारे नाना ने जो डॉक्टर था, अपनी बेटी उसको दे दी थी।
हाँ तो तुम को जब भी वक़्त मिलता झटा झट वुज़ू करते तख़्त पर अम्माँ की जा-नमाज़ बिछाते और खटा खट रुकूअ और सजदे करते। बुद-बुद कर के मुँह ही मुँह में दुआ माँग कर मुँह पर हाथ फेर लिया करते।
कोई हँसता तो बुरा मानते। और जब भी महाराजन को कोई भी हिन्दू टोकता, हर वक़्त मुसलमानों में रहता है और उनकी नक़लें करता है, तो वो हँस कर कह देती, चलो उनका ही हो कर जी जाने दो, मेरे तो दो मर चुके हैं।
और फिर क़िस्से का क्लाइमेक्स ये था कि जब घर-घर मिलाद हो रहे थे तो हमारे घर भी मिलाद हुआ, और फिर तुम कब मानने वाले थे। तुम महाराजन से लड़े और झगड़े और वो इतनी भोली-भाली थी कि वो तैयार हो गई। उसने हमसे माँग कर दरी चाँदनी का फ़र्श किया। गुलदस्ते मँगाए, अगर बत्तियाँ सुलगाईं और पठानी बुआ की ख़ुशामदें कीं कि हमारा लल्ला ज़िद कर रहा है, चल कर मिलाद पढ़ देव।
और मीर-ए-महफ़िल तुम ही थे। कभी पान बाँटते, कभी सबके इत्र लगाते और घड़ी-घड़ी गुलाब पाश से गुलाब छिड़कते और तुम इस फ़िक्र में मरे जा रहे थे कि कोई ऐसी बात तो नहीं रह गई जो बेगम साहब के यहाँ होती है।
जाड़े की रातों में सर-ए-शाम से सब लिहाफ़ों में दुबक जाते और कभी-कभी कहानियाँ सुनते तो तुम भी किसी न किसी के लिहाफ़ में घुस कर बैठ जाते।
और बस फिर ये हुआ कि ऐसा मालूम हुआ कि ज़मीन अपने बोझ से घबरा गई है, उसको जाने पहचाने चेहरे और आवाज़ें बुरी लगने लगी हैं। जैसे किसी ने अनाज के दानों को सूप में रख कर फटक दिया। कोई उड़ कर यहाँ गया और कोई कहीं और। बीज और दाने जिस तरफ़ जाते हैं अपनी दुनिया बसा लेते हैं। धरती के वजूद में अपनी बारीक जड़ें कनखजूरे की तरह गड़ो देते हैं। उससे चिमट जाते हैं और उसका सीना चीर कर बाहर निकल आते हैं।
तो भई रबी दत्त, क़िस्सा ये है कि हम यहाँ आ गए, तुम वहाँ होगे। कौन जाने कितने मोतबर, कितने ज़िम्मेदार और दाना बन गए होगे। अब फिर सावन रुत आई है और जहाँ तुम हो ख़ूब बरखा हो रही होगी, किसान बोरियों के घोंगे ओढ़े खेतों की नलाई और देख-भाल में मसरूफ़ होंगे, बगुलों और तोतों की डारें इधर से उधर उड़ती फिरती होंगी। ब्रह्मनियाँ अपने भाइयों के लिए सलोनों में राखियाँ लेकर निकलेंगी। लाल, सब्ज़ धोतियाँ बाँधे माथे पर बिंदिया और पैरों में आलता लगाए उनकी भुरभुरी गोरी क्लाइयों में सावन की काली और सब्ज़ चूड़ियाँ होंगी।
तुम्हारे हाथ राखियों से भर-भर जाते होंगे और तुम थालों में सजा-सजा कर दक्षिणा देते होगे, दरवाज़ों की ओट से नहीं, सामने बैठ कर।
ऊँह, ख़ैर भई हमको क्या। हमको कब शौक़ था ये तुम्हारी ज़बरदस्ती थी कि लड़ लड़कर राखी बँधवाते थे। और भई अब इन छोटी-छोटी बातों का ज़माना भी तो ख़त्म हो गया। अब इन्सान बड़ी-बड़ी बातों के मुतअल्लिक़ सोचता है। अब उसको हर छोटी और घटिया बात से नफ़रत होती जा रही है। और भई बात तो ये है कि मैं या तुम जो भी बीते हुए दिनों के मुतअल्लिक़ सोचता है, ग़लत करता है, ज़िन्दगी जहाँ है वहाँ क्यों ठहरी रहे। ज़िन्दगी की नाव का काम वक़्त की बेचैन लहरों पर डोलना है और जो वो साहिल में धँस कर रह जाते तो।
ज़िन्दगी के समुंदर में एक जहाज़ यूरोप को जाता है और दूसरा पच्छिम की ओर बढ़ता, मुवाफ़िक़ हवाएँ उनकी रहनुमाई करती हैं और तक़दीर उनकी मन्ज़िलें मुतअय्यन करती है।
हमारी ज़िन्दगियों के जहान भी अपनी-अपनी सम्त को हो लिए। फिर भी आज एक दम ये जी चाह रहा है कि चुपके से वहाँ पहुँचूँ जहाँ तुम बड़े मोतबर बने बैठे हो। पीछे से एक टेप लगाऊँ और पूछूँ राखी बँधवाना है? और हमारी दक्षिणा का थाल कौन सा है...
और आज ये सब भूली बिसरी बातें यूँ क्यों याद आ रही हैं, जैसे पुराना दर्द चमक उठे। इसलिए कि बड़ी तपिश और जिला-कुन के बाद ठण्डी हवा चली है।
अरे कहीं ये पुरवाई तो नहीं है?
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