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खिड़की

MORE BYअसद मोहम्मद ख़ाँ

    मैं ने पहली बार उसे अपने मोहल्ले के एक क्लीनिक में देखा था मुझे डाक्टर से किसी क़िस्म का सर्टीफ़िकेट लेना था और वो इंजेक्शन लगवाने आई थी। आई क्या बल्कि लाई गई थी। एक नौजवान जो शायद चचा या मामूं होगा उसे गोद में उठाए समझा रहा था कि सुई लगवाने में ज़्यादा तकलीफ़ तो नहीं होती, अलबत्ता टॉफ़ी खाने को मिलती है और अम्मी पर और दूसरे लोगों पर रोब अलग पड़ता है। बात यक़ीनन उसकी समझ में रही थी। रोब शायद समझ में रहा होगा लेकिन टॉफ़ी का सुन कर ज़रा हौसला-मंद दिखाई दी थी फिर थोड़ी देर बाद वो फ़िक्रमंद और ख़ौफ़ज़दा होकर इधर उधर देखने लगती थी जिधर से कमपाउंडर को सुई लेकर आना था।

    चचा मामूं की नशिस्त ऐसी थी कि वो मेरी तरफ़ पीठ किए बैठा था उसके पहलू और बाँहों से जैसे खिड़की सी बन गई थी और उस खिड़की में से उसका पूरा चेहरा,उसका एक एक तास्सुर मुझे साफ़ नज़र रहा था। खिड़की से देखते हुए एक बार मेरी नज़रें उस से मिलीं। उस वक़्त चचा मामूं उसे समझा रहा था कि तेरा भाई जान तो इंजेक्शन लगवाते हुए रोता है। डरता है ना! इसलिए रोता है। तू बिल्कुल नहीं डरती, बड़ी बहादुर है।

    जिस वक़्त चचे मामूं ने ये बात कही ठीक उस वक़्त मुन्नी बाँहों की खिड़की से झांक कर मुझे देख रही थी। मैं ने आहिस्ता से सर हिला दिया। इस बात से इत्तिफ़ाक़ किया। मुन्नी ने जब देखा कि चचा मामूं के अलावा दूसरा कोई उसे बहादुर समझ रहा है तो वो हौले से मुस्कुरा दी। मैंने देखा कि वो इतरा कर मुस्कुराई थी। जैसे मुझे अपनी बहादुरी के रोब में ले रही हो। जितनी देर में कम्पाउंडर आया उतनी देर में मुन्नी इशारों में मुझे समझा चुकी थी कि असल में वो बड़ी बहादुर है। इंजेक्शन वेंजक्शन से बिल्कुल नहीं डरती।

    मैंने भी बाँहों की खिड़की से राज़दाराना देखते हुए सर हिला हिला कर इस बात से इत्तिफ़ाक़ किया और बता दिया कि मैं पूरी तरह उसकी बहादुरी के रोब में गया हूँ। मुन्नी ने अपनी नौ दरयाफ़्त दिलेरी के ग़ुरूर में ज़रा सर उठाया था कि सामने सुई उठाए कम्पाउंडर आन खड़ा हुआ। बहादुरी और ख़ौफ़ की किसी दरमियानी कैफ़ियत में उसने हल्की सी आवाज़ निकाली और घबरा कर बाँहों की खिड़की के पार शायद मदद के लिए मेरी तरफ़ देखा। उस वक़्त कम्पाउंडर ने उसके बाज़ू पर स्पिरिट में भीगी रुई मलना शुरू कर दी थी। मुन्नी मुतवक़्क़े तकलीफ़ के ख़याल से मुँह बिसोरने लगी, ठीक उस वक़्त जब कि वो आवाज़ से रो सकती थी मेरी नज़रें उसकी नज़रें फिर मिलीं। मैंने नफ़ी में सर हिलाते हुए दोनों हाथों की मुठ्ठियाँ बना कर हिम्मत वालों की सी शक्ल बनाई और मुस्कुरा कर शायद आँखों के किसी इशारे से उसे याद दिलाया कि वो तो बड़ी बहादुर है।

    बोहरान के उस लम्हे में भी मुन्नी ने मेरी बात समझ ली।उ सने मुँह बिसोरना बंद कर दिया और आवाज़ निकाले बगै़र इंजेक्शन लगवा लिया। मैं ने अपनी शहादत की उंगली और अंगूठा मिला कर तारीफ़ का इशारा दिया और मुन्नी अपने उस चचा या मामूँ की गोद में चढ़ी हुई क्लीनिक से चली गई।

    कम्पाउंडर और मुन्नी का चचा या मामूँ हैरान थे मगर मुझे कोई हैरत नहीं हुई थी मुन्नी वाक़ई बहादुर थी।

    इस बात को बहुत दिन हो गए। मैं ये वाक़िया और मुन्नी का चेहरा कुछ कुछ भूल चला था। बाहर कड़वाहट और दुख हो तो मीठे चेहरे और भोली बातें कब तक याद रह सकती हैं। मैं ख़ुद एक बोहरान से गुज़र रहा था मेरे वालिद दिमाग़ की रग फट जाने पर तवील बे-होशी में थे। वो मुल्क से बाहर थे मैं अपने सफ़री काग़ज़ात की तैयारी में मस्रूफ़ था। साथ ही दिन में कई कई बार उनके तीमारदारों से टेलीफ़ोन पर राब्ता क़ाएम करना चाहता था मगर मुझे नाकामी हो रही थी। काग़ज़ात बनने में देर थी। वहाँ जा सकता था किसी से बात कर सकता था। अजीब बे-बसी का आलम था। तीसरे चौथे दिन अज़ीज़ों की तरफ़ से एक तार जाता था। हालत में कोई तब्दीली नहीं हुई दुआ कीजिए। फिर आख़िरी तार आया कि ख़ुदा मग़्फ़िरत करे वो गुज़र गए।

    मैं बचपन के एक दोस्त के हमराह तारघर पहुंचा और जैसे होश-व-हवास से आरी कोई शख़्स होता है बिल्कुल उसी तरह बुलंद आवाज़ में लोगों को अपने ज़ाती नुक़्सान के बारे में बताने लगा फिर वहीं बैठे बैठे मैंने अपने छोटों के नाम एक तार लिखा जिसमें उन्हें तसल्ली देने के बजाए ये लिखा कि सफ़र का इरादा मैंने तर्क कर दिया है क्योंकि अब कोई फ़ायदा नहीं। जिसके लिए सफ़र करता वही रहे।

    मैं ये सब कुछ कर रहा था और इस बात से बे-ख़बर था कि तारघर की बंच पर बैठे हुए एक नौजवान के शाने से लगी कोई बच्ची उचक उचक कर मुझे देखने या मुतवज्जे करने की कोशिश कर रही है। लोग सामने से हटे तो देखने के लिए एक खिड़की सी बन गई। मैंने उस खिड़की में से पहचान लिया। ये मुन्नी थी। मुन्नी मुझे देख कर मुस्कुराई। उसके छोटे से ज़ेह्न ने उसे बता दिया था कि मुझे ज़रूर कोई परेशानी है या शायद मैं डरा हुआ हूँ। इसलिए वो मुस्कुराई और उसने नन्ही हथेलियाँ अपनी आँखों पर मलीं जैसे मुझे आँसू पूंछ लेने की तर्ग़ीब दे रही हो फिर इसने दोनों हाथों की मुठ्ठियाँ बना कर हिम्मत वालों की सी शक्ल बनाई और मुस्कराने लगी। बिल्कुल उसी तरह जैसे महीनों पहले में उसे हिम्मत दिला कर मुस्कुराया था।

    मैंने दुख बढ़ाने वाला वो तार फाड़ कर फेंक दिया और नए तार में अपने छोटों को लिखा कि हौसला रखो,मैं रहा हूँ।

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