क़ैदी को इस हालत में लाया गया कि गले में तौक़ और पांव में ज़ंजीरें, ज़ंजीरों की चुभन से पांव जगह जगह से ज़ख़्मी हो गए थे और उनसे ख़ून रिस रहा था। तौक़ के दबाव से गर्दन के गिर्द सुर्ख़ हलक़ा बन गया था जो किसी वक़्त भी फट सकता था।
क़ैदी तौक़ के बोझ और पांव की ज़ंजीरों की वजह से सीधा खड़ा नहीं हो सकता था। नीम वा कमर झुकाए झुकाए उसने मेज़ के पीछे बैठे शख़्स को ख़ाली आँखों से देखा, न कोई सवाल न कोई तमन्ना।
मेज़ के पीछे से आवाज़ आई, मालूम है कि तुम्हें मौत की सज़ा हो गई है।
क़ैदी ने इस्बात में सर हिलाने की कोशिश की लेकिन तौक़ की बंदिश से दर्द की एक लहर पूरे जिस्म में दौड़ गई।
क़ैदी ने होंटों पर ज़बान फेरी, ज़रा तरी हुई तो आवाज़ निकली....हाँ।
कुछ देर ख़ामोशी रही, फिर क़ैदी बोला...लेकिन मेरी जान मेरे जिस्म में नहीं।
मेज़ के पीछे से घूरती आँखों ने सवाल किया...तो कहाँ है?
उस तोते में, जो यहां से हज़ार मिल दूर एक कच्चे सहन में पीपल के पेड़ की शाख़ से लटके हुए पिंजरे में है।
हुक्म हुआ पिंजरे को तलाश किया जाये।
क़ैदी को दुबारा उस छोटी सी कोठरी में बंद कर दिया गया जिसकी दीवारें और छत उसे दबा दबा कर रेज़ा रेज़ा करने के मुंतज़िर थीं। नीम रोशनी वाली उस कोठरी में इतनी जगह भी नहीं थी कि क़ैदी टांगें फैला कर बैठ सके। गर्दन सीधी करता तो टांगों पर दबाव पड़ता, टांगें फैलाने की कोशिश करता तो तौक़ गर्दन को दबाने लगता। एक ज़ंग-आलूद दरवाज़ा और बहुत ऊपर छोटा सा रोशनदान, जिससे रोशनी रेंग रेंग कर अन्दर आती थी।
तोता मिल गया तो...उकड़ूं बैठे बैठे पत्थर हुए क़ैदी ने सोचा।
लेकिन तोता उन्हें नहीं मिल सकता। सूखे पपड़ी ज़दा होंटों पर जो कुछ आया उसे मुस्कुराहट तो नहीं कहा जा सकता।
मरना या न मरना तो अब बेमानी है। उसने सोचा और फिर ख़ुद से पूछा... लेकिन अब तक ये तो बताया ही नहीं गया कि मेरा जुर्म क्या है?
पूछा...मेरा क़सूर क्या है?
मेज़ के पीछे घूरती आँखों में सुर्ख़ डोरे उभर आए, ये बताना हमारा काम नहीं।”
हज़ारों मिल दूर, कच्चे सहन में पीपल की हरी शाख़ के साथ लटके पिंजरे में बंद तोते की तलाश जारी थी। चंद दिनों में कई पिंजरे जमा हो गए। उन्हें पत्थर की दीवार के साथ तर्तीब से रख दिया गया। क़ैदी को लाया गया।
मेज़ के पीछे से घूरती ग़ज़बनाक आँखों ने पूछा... किस तोते में तुम्हारी जान है?
तौक़ के दबाव से दबी गर्दन को घुमाते हुए क़ैदी ने एका एक पिंजरे को देखा, ता देर चुप रहा फिर बोला...इनमें से किसी में भी नहीं।
तास्सुफ़ हुआ कि उनकी मेहनत अकारत गई। थोड़ी सी ख़ुशी भी कि असल तोता उन्हें नहीं मिल सका।
हुक्म हुआ...इन सारे तोतों को मार दो और असल तोते को तलाश करो।
क़ैदी ने कहा...लेकिन मुझे मेरा क़सूर तो बता दो।
ये हमारा काम नहीं। आवाज़ की गरज में ग़ुस्से के साथ नाकामी की नमी भी शामिल थी।
क़ैदी को उसी नीम तारीक छोटी सी कोठरी में लाया गया जहां टांगें फैलाने की गुंजाइश ही नहीं थी।
उकड़ूं बैठे, तौक़ से गर्दन की ऐठन को महसूस करते क़ैदी ने सोचा, कभी न कभी तो असल तोता मिल ही जाएगा, आख़िर कब तक?
चंद रोज़ बाद क़ैदी को बाहर निकाला गया। संगी दीवार के साथ पिंजरों की क़तारें लगी थीं। उन में बंद कुछ तोते मुज़्तरिब थे। कुछ पुरसकून।
हुक्म हुआ...“एक एक करके सब की गर्दनें मरोड़ दो।”
तड़पते तोतों के दरमियान खड़े क़ैदी के पांव की ज़ंजीरों ने अब उसके टखनों का गोश्त उधेड़ दिया था और तौक़ ने गर्दन के गिर्द बने सुर्ख़ हलक़े को ज़ख़्म में बदल दिया था, नीम मुर्दा आवाज़ में पूछा...लेकिन मेरा क़सूर तो बताया जाये?
गरजदार आवाज़ में बेबसी थी...ये हमारी ज़िम्मेदारी नहीं।
एक एक करके सब तोते गर्दनें तुड़वा बैठे तो क़ैदी को दुबारा उस नीम तारीक कोठरी में, जिसे कोठरी कहना मज़ाक़ था, भेज दिया गया।
शायद इस बार असल तोता पकड़ा जाये। क़ैदी ने सोचा। टांगें फैलाने की कोशिश की तो दर्द से बिलबिला उठा। गर्दन सूखी लकड़ी की तरह अकड़ गई थी।
शायद टूटने ही वाली है। उसने सोचा। और तोता...
चंद दिन बाद क़िले के तह ख़ाने में संगी दीवार के साथ कई पिंजरे और उन पिंजरों में बंद, कुछ फड़फड़ाते, कुछ नीम मुज़्तरिब और कुछ मुतमइन तोते क़ैदी के मुंतज़िर थे, असल तोता उनमें भी नहीं था।
गरजदार आवाज़ में अब झुंझलाहट आ गई थी, और तोते लाओ... और... और... और...
तोते आते रहे, क़ैदी को नीम तारीक कोठरी से जो अब वो क़ब्र की तरह लग रही थी, निकाला जाता, लेकिन असल तोता न मिला।
और...गरजदार आवाज़ का ग़ुस्सा नीम पागलपन में बदल गया था।
“लेकिन जनाब अब कोई तोता कहीं बाक़ी नहीं रहा। डरती डरती आवाज़ में जवाब दिया गया।
ता देर ख़ामोशी रही...
तो ये झूट बोलता है, उसकी जान किसी तोते में नहीं, लटका दो उसे।
क़ैदी ने पूछा...अब तो मेरा क़सूर बता दिया जाये।
गरजदार आवाज़ में तहक्कुम था... पहला क़सूर तो मालूम नहीं, लेकिन अब तुम्हारा क़सूर ये है कि असल तोता नहीं मिल रहा।
क़ैदी के गले से तौक़ उतरा तो सुकून सा मिला, तौक़ की जगह अब फंदा डाला जा रहा था, इससे पहले कि जल्लाद रस्सी खींचता, टन टन करता एक तोता फ़ज़ा में नमूदार हुआ और क़ैदी के गिर्द मंडलाने लगा।
पकड़ो....मारो... गरजदार आवाज़ में गर्मजोशी और मायूसी दोनों थे....यही वो तोता है।
क़ैदी को भूल कर सब तोते को पकड़ने, मारने के लिए एक दूसरे से आगे निकलने की कोशिश में गिर गिर पड़े। तोता कुछ देर टें टें करता फ़ज़ा में उड़ता रहा, फिर एक ऊंचे रौशनदान से निकल कर फ़ज़ाओं में गुम हो गया।
क़ैदी तमाम तकलीफों से आज़ाद हो गया था लेकिन आख़िरी लम्हे तक उसे मालूम न हो सका कि उसका क़सूर क्या है?
शायद उसका होना ही उसकी सज़ा थी?
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