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लाजवंती

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    स्टोरीलाइन

    लाजवंती ईमानदारी और ख़ुलूस के सुंदरलाल से मोहब्बत करती है। सुंदरलाल भी लाजवंती पर जान छिड़कता है। लेकिन बँटवारे के वक़्त कुछ मुस्लिम नौजवान लाजवंती को अपने साथ पाकिस्तान ले जाते हैं और फिर मुहाजिरों की अदला-बदली में लाजवंती वापस सुंदरलाल के पास आ जाती है। इस दौरान लाजवंती के लिए सुंदरलाल का रवैया इस क़दर बदल जाता है कि लाजवंती को अपनी वफ़ादारी और पाकीज़गी पर कुछ ऐसे सवाल खड़े दिखाई देते हैं जिनका उसके पास कोई जवाब नहीं है।

    हथ लाइयाँ कुम्हलाँ नी लाजवंती दे बूटे

    (ये छुई-मुई के पौदे हैं री, हाथ भी लगाओ कुम्हला जाते हैं)

    एक पंजाबी गीत।

    बटवारा हुआ और बेशुमार ज़ख़्मी लोगों ने उठ कर अपने बदन पर से ख़ून पोंछ डाला और फिर सब मिलकर उनकी तरफ़ मुतवज्जह हो गए जिनके बदन सही-ओ-सालिम थे, लेकिन दिल ज़ख़्मी।

    गली-गली, महल्ले-महल्ले में “फिर बसाओ” कमेटियाँ बन गई थीं और शुरुअ-शुरुअ में बड़ी तन्दही के साथ “कारोबार में बसाओ”, “ज़मीन पर बसाओ” और “घरों में बसाओ” प्रोग्राम शुरुअ कर दिया गया था। लेकिन एक प्रोग्राम ऐसा था जिसकी तरफ़ किसी ने तवज्जो दी थी। वो प्रोग्राम मग़्विया औरतों के सिलसिले में था जिसका स्लोगन था ‘दिल में बसाओ’ और इस प्रोग्राम की नारायन बाबा के मंदिर और उसके आस-पास बसने वाले क़दामत पसंद तबक़े की तरफ़ से बड़ी मुख़ालफ़त होती थी।

    इस प्रोग्राम को हरकत में लाने के लिए मंदिर के पास महल्ले “मुल्ला शुकूर” में एक कमेटी क़ायम हो गई और ग्यारह वोटों की अकसरिय्यत से सुंदर लाल बाबू को उसका सेक्रेटरी चुन लिया गया। वकील साहब सदर, चौकी कलाँ का बूढ़ा मुहर्रिर और महल्ले के दूसरे मो’तबर लोगों का ख़याल था कि सुंदर लाल से ज़्यादा जाँ-फ़िशानी के साथ इसकाम को कोई और कर सकेगा। शायद इसलिए कि सुंदर लाल की अपनी बीवी अग़वा हो चुकी थी और उसका नाम था भी लाजो... लाजवंती।

    चुनांचे प्रभात फेरी निकालते हुए जब सुंदर लाल बाबू, उसका साथी रसालू और नेकी राम वग़ैरा मिलकर गाते, “हथ लाइयाँ कुम्हलाँ नी लाजवंती दे बूटे...” तो सुंदर लाल की आवाज़ एक दम बंद हो जाती और वो ख़ामोशी के साथ चलते-चलते लाजवंती की बाबत सोचता... जाने वो कहाँ होगी, किस हाल में होगी, हमारी बाबत क्या सोच रही होगी, वो कभी आएगी भी या नहीं? और पथरीले फ़र्श पर चलते-चलते उसके क़दम लड़खड़ाने लगते।

    और अब तो यहाँ तक नौबत गयी थी कि उसने लाजवंती के बारे में सोचना ही छोड़ दिया था। उसका ग़म अब दुनिया का ग़म हो चुका था। उसने अपने दुख से बचने के लिए लोक सेवा में अपने आपको ग़र्क़ कर दिया। इसके बावजूद दूसरे साथियों की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए उसे ये ख़याल ज़रूर आता... इन्सानी दिल कितना नाज़ुक होता है। ज़रा सी बात पर उसे ठेस लग सकती है। वो लाजवंती के पौदे की तरह है, जिसकी तरफ़ हाथ भी बढ़ाओ तो कुम्हला जाता है, लेकिन उसने अपनी लाजवंती के साथ बदसुलूकी करने में कोई भी कसर उठा रक्खी थी। वो उसे जगह बे-जगह उठने-बैठने, खाने की तरफ़ बे-तवज्जही बरतने और ऐसी ही मा’मूली-मा’मूली बातों पर पीट दिया करता था।

    और लाजो एक पतली शहतूत की डाली की तरह, नाज़ुक सी देहाती लड़की थी। ज़्यादा धूप देखने की वजह से उसका रंग संवला चुका था। तबीअ’त में एक अजीब तरह की बेक़रारी थी। उसका इज़्तिराब शबनम के उस क़तरे की तरह था जो पारा करास के बड़े से पत्ते पर कभी इधर और कभी उधर लुढ़कता रहता है। उसका दुबलापन उसकी सेहत के ख़राब होने की दलील थी, एक सेहत मंदी की निशानी थी जिसे देख कर भारी भरकम सुंदर लाल पहले तो घबराया, लेकिन जब उसने देखा कि लाजो हर क़िस्म का बोझ, हर क़िस्म का सदमा, हत्ता कि मारपीट तक सह गुज़रती है तो वो अपनी बद-सुलूकी को ब-तदरीज बढ़ाता गया और उसने उन हदों का ख़याल ही किया, जहाँ पहुँच जाने के बाद किसी भी इन्सान का सब्र टूट सकता है। उन हदों को धुँदला देने में लाजवंती ख़ुद भी तो मुम्मिद साबित हुई थी। चूँकि वो देर तक उदास बैठ सकती थी, इसलिए बड़ी से बड़ी लड़ाई के बाद भी सुंदर लाल के सिर्फ़ एक बार मुस्कुरा देने पर वो अपनी हंसी रोक सकती और लपक कर उसके पास चली आती और गले में बाँहें डालते हुए कह उठती, “फिर मारा तो मैं तुमसे नहीं बोलूँगी...” साफ़ पता चलता था, वो एक दम सारी मारपीट भूल चुकी है। गाँव की दूसरी लड़कियों की तरह वो भी जानती थी कि मर्द ऐसा ही सुलूक किया करते हैं, बल्कि औरतों में कोई भी सरकशी करती तो लड़कियाँ ख़ुद ही नाक पर उंगली रख के कहतीं, “ले वो भी कोई मर्द है भला, औरत जिसके क़ाबू में नहीं आती...” और ये मार-पीट उनके गीतों में चली गई थी। ख़ुद लाजो गाया करती थी। मैं शहर के लड़के से शादी करूँगी। वो बूट पहनता है और मेरी कमर बड़ी पतली है। लेकिन पहली ही फ़ुर्सत में लाजो ने शहर ही के एक लड़के से लौ लगा ली और उसका नाम था सुंदर लाल, जो एक बरात के साथ लाजवंती के गाँव चला आया था और जिसने दूल्हा के कान में सिर्फ़ इतना सा कहा था, “तेरी साली तो बड़ी नमकीन है यार। बीवी भी चटपटी होगी।” लाजवंती ने सुंदर लाल की इस बात को सुन लिया था, मगर वो भूल ही गई कि सुंदर लाल कितने बड़े-बड़े और भद्दे से बूट पहने हुए है और उसकी अपनी कमर कितनी पतली है।

    और प्रभात फेरी के समय ऐसी ही बातें सुंदर लाल को याद आईं और वो यही सोचता। एक-बार सिर्फ़ एक-बार लाजो मिल जाये तो मैं उसे सच-मुच ही दिल में बसा लूँ और लोगों को बता दूँ... उन बे-चारी औरतों के अग़्वा हो जाने में उनका कोई क़ुसूर नहीं। फ़सादियों की हवसनाकियों का शिकार हो जाने में उनकी कोई ग़लती नहीं। वो समाज जो उन मा’सूम और बे-क़सूर औरतों को क़ुबूल नहीं करता, उन्हें अपना नहीं लेता एक गला सड़ा समाज है और इसे ख़त्म कर देना चाहिए... वो उन औरतों को घरों में आबाद करने की तलक़ीन किया करता और उन्हें ऐसा मर्तबा देने की प्रेरणा करता,जो घर में किसी भी औरत, किसी भी माँ, बेटी, बहन या बीवी को दिया जाता है। फिर वो कहता... उन्हें इशारे और कनाए से भी ऐसी बातों की याद नहीं दिलानी चाहिए जो उनके साथ हुईं... क्योंकि उनके दिल ज़ख़्मी हैं। वो नाज़ुक हैं, छुई-मुई की तरह, हाथ भी लगाओ तो कुम्हला जाएंगे।

    गोया ‘दिल में बसाओ’ प्रोग्राम को अ’मली जामा पहनाने के लिए महल्ला ‘मुल्ला शकूर’ की इस कमेटी ने कई प्रभात फेरियाँ निकालीं। सुबह चार-पाँच बजे का वक़्त उनके लिए मौज़ूँ तरीन वक़्त होता था। लोगों का शोर, ट्रैफ़िक की उलझन। रात-भर चौकीदारी करने वाले कुत्ते तक बुझे हुए तन्नूरों में सर देकर पड़े होते थे। अपने-अपने बिस्तरों में दुबके हुए लोग प्रभात फेरी वालों की आवाज़ सुन कर सिर्फ़ इतना कहते... “ओ! वही मंडली है!” और फिर कभी सब्र और कभी तुनक-मिज़ाजी से वो बाबू सुंदर लाल का प्रोपगेंडा सुना करते। वो औरतें जो बड़ी महफ़ूज़ उस पार पहुँच गई थीं, गोभी के फूलों की तरह फैली पड़ी रहतीं और उनके ख़ाविंद उनके पहलू में डंठलों की तरह अकड़े पड़े-पड़े प्रभात फेरी के शोर पर एहतिजाज करते हुए मुँह में कुछ मिनमिनाते चले जाते। या कहीं कोई बच्चा थोड़ी देर के लिए आँखें खोलता और ‘दिल में बसाओ’ के फ़र्यादी और अनदोहगीन प्रोपगंडे को सिर्फ़ एक गाना समझ कर फिर सो जाता।

    लेकिन सुबह के समय कान में पड़ा हुआ शब्द बेकार नहीं जाता। वो सारा दिन एक तकरार के साथ दिमाग़ में चक्कर लगाता रहता है और बा’ज़ वक़्त तो इन्सान उसके मअ’नी को भी नहीं समझता, पर गुनगुनाता चला जाता है। उसी आवाज़ के घर कर जाने की बदौलत ही था कि उन्हीं दिनों, जब कि मिस मृदुला सारा भाई, हिंद और पाकिस्तान के दर्मियान अग़वा-शुदा औरतें तबादले में लायीं, तो मोहल्ला ‘मुल्ला शकूर’ के कुछ आदमी उन्हें फिर से बसाने के लिए तय्यार हो गए। उनके वारिस शहर से बाहर चौकी कलाँ पर उन्हें मिलने के लिए गए। मग़्विया औरतें और उनके लवाहिक़ीन कुछ देर एक दूसरे को देखते रहे और फिर सर झुकाए अपने-अपने बर्बाद घरों को फिर से आबाद करने के काम पर चल दिये। रसालू और नेकी राम और सुंदर लाल बाबू कभी “महिन्द्र सिंह ज़िंदाबाद” और कभी “सोहन लाल ज़िंदाबाद” के ना’रे लगाते… और वो ना’रे लगाते रहे, हत्ता कि उनके गले सूख गए...

    लेकिन मग़्विया औरतों में ऐसी भी थीं जिनके शौहरों, जिनके माँ-बाप, बहन और भाईयों ने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया था। आख़िर वो मर क्यूँ गयीं? अपनी इफ़्फ़त और इस्मत को बचाने के लिए उन्होंने ज़हर क्यूँ ख़ा लिया? कुएं में छलाँग क्यूँ लगा दी? वो बुज़दिल थीं जो इस तरह ज़िंदगी से चिम्टी हुई थीं। सैंकड़ों-हज़ारों औरतों ने अपनी इस्मत लुट जाने से पहले अपनी जान दे दी लेकिन उन्हें क्या पता कि वो ज़िंदा रह कर किस बहादुरी से काम ले रही हैं। कैसे पथराई हुई आँखों से मौत को घूर रही हैं। ऐसी दुनिया में जहाँ उनके शौहर तक उन्हें नहीं पहचानते। फिर उनमें से कोई जी ही जी में अपना नाम दोहराती... सुहाग वंती, सुहाग वाली, और अपने भाई को इस जम-ए-ग़फी़र में देख कर आख़िरी बार इतना कहती... “तू भी मुझे नहीं पहचानता बिहारी? मैंने तुझे गोदी खिलाया था रे...” और बिहारी चिल्ला देना चाहता। फिर वो माँ-बाप की तरफ़ देखता और माँ-बाप अपने जिगर पर हाथ रख के नारायन बाबा की तरफ़ देखते और निहायत बे-बसी के आलम में नारायन बाबा आसमान की तरफ़ देखता, जो दर-अस्ल कोई हक़ीक़त नहीं रखता और जो सिर्फ़ हमारी नज़र का धोका है। जो सिर्फ़ एक हद है जिसके पार हमारी निगाहें काम नहीं करतीं।

    लेकिन फ़ौजी ट्रक में मिस साराभाई तबादले में जो औरतें लायीं, उनमें लाजो थी। सुंदर लाल ने उम्मीद-ओ-बीम से आख़िरी लड़की को ट्रक से नीचे उतरते देखा और फिर उसने बड़ी ख़ामोशी और बड़े अ’ज़्म से अपनी कमेटी की सरगर्मियों को दो चंद कर दिया। अब वो सिर्फ़ सुबह के समय ही प्रभात फेरी के लिए निकलते थे, बल्कि शाम को भी जुलूस निकालने लगे, और कभी-कभी एक आध छोटा मोटा जलसा भी करने लगे जिसमें कमेटी का बूढ़ा सदर वकील कालका प्रशाद सूफ़ी खनकारों से मिली-जुली एक तक़रीर कर दिया करता और रसालू एक पीकदान लिए ड्यूटी पर हमेशा मौजूद रहता। लाऊड स्पीकर से अजीब तरह की आवाज़ें आतीं। फिर कहीं नेकी राम, मुहर्रिर चौकी कुछ कहने के लिए उठते। लेकिन वो जितनी भी बातें कहते और जितने भी शास्त्रों और पुराणों का हवाला देते, उतना ही अपने मक़सद के ख़िलाफ़ बातें करते और यूँ मैदान हाथ से जाते देख कर सुंदर लाल बाबू उठता, लेकिन वो दो फ़िरक़ों के अलावा कुछ भी कह पाता। उसका गला रुक जाता। उसकी आँखों से आँसू बहने लगते और रोंहासा होने के कारण वो तक़रीर कर पाता। आख़िर बैठ जाता। लेकिन मज्मे पर एक अजीब तरह की ख़ामोशी छा जाती और सुंदर लाल बाबू की उन दो बातों का असर, जो कि उसके दिल की गहराइयों से चली आतीं, वकील कालका प्रशाद सूफ़ी की सारी नासीहाना फ़साहत पर भारी होता। लेकिन लोग वहीं रो देते। अपने