लकीर
आज सूरज ग़ुरूब होने से पहले बादलों भरे आसमान पर अजब तरह का रंग छा गया था। यह रंग सुर्ख़ भी था और ज़र्द भी। इन दोनों रंगों ने आसमान को दरमियान से तक़सीम कर दिया था। जिस मक़ाम पर दोनों रंग मिल रहे थे, वहाँ एक गहरी लकीर दिखाई देती थी। ध्यान से देखने पर महसूस होता कि लकीर के आस-पास कुछ सफ़ेद साये उभर रहे हैं। सफ़ेद सायों में जब हरकत होती तो ये रंग और भी गहरा होने लगता और पूरी फ़िज़ा पर ख़ौफ़-ओ-हरास तारी होजाता। आज से पहले इस क़स्बे के आसमान पर कभी सफ़ेद साये सुर्ख़ और ज़र्द रंग बिखेरने में कामयाब नहीं हो पाए थे, मगर आज...
इस ख़ौफ़नाक शाम की सुबह ऐसी नहीं थी। हाँ इतना ज़रूर था कि सवेरे से ही बादल छाए हुए थे मगर अभी तक अब्र के छोटे छोटे टुकड़ों में किसी साये ने निवास नहीं किया था। साये जो बज़ाहिर सफ़ेद थे मगर बातिन में स्याही छुपाए पच्छिम की जानिब से उभर कर धीरे धीरे आकाश के पूरबी हिस्से पर पाँव जमाने लगे थे। सफ़ेद सायों के आकाश पर छाने से पहले, बादलों के टुकड़े आपस में खीलवाड़ करते करते एक दूसरे में मुदग़म होजाने की कोशिश बिल्कुल इस तरह कर रहे थे जैसे बस्ती के हिंदू मुसलमान, पंडित बृजकिशोर के इंतिहाई जतन के बाद, भेदभाव की लकीरों को फलाँग कर, एक दूसरे में समाते जा रहे होँ।
भादों लगे सात दिन गुज़र गए हैं, कल कृष्ण अषटमी है। लिहाज़ा शाम ही से मंदिर को सजाया जा रहा था। मंदिर के बीच वाले कमरे में चमकीले रंगीन कपड़ों में लिपटे झूले पर पड़े छोटे से खटोले में रखी कृष्ण भगवान की मूर्ती को बड़ी अक़ीदत से सजाया गया था। रात बारह बजे कृष्ण भगवान का जन्म होगा, उसकी ख़बर इलाक़े के हिंदू-मुसलमान सभी को थी। इस बार हमीद बड़ी बेचैनी से जन्माष्टमी का इंतज़ार कर रहा था। हमीद, फ़क़ीर मुहम्मद का लड़का था और मस्जिद के मकतब से भाग कर अपने पड़ोसी पंडित बृजकिशोर की पाठशाला में पढ़ने बैठ गया था। पंडित बृजकिशोर भी उसे सभी बच्चों से ज़्यादा प्यार करते थे और कन्हैया कह कर पुकारते थे। जन्माष्टमी के इंतज़ार में उसके अंदर बहुत से ख्वाब कृष्ण बन कर जन्म ले रहे थे और वह उन को ख़्यालों के हिंडोले में बिठा कर झूला झुला रहा था।
“नहीं हमीद, इतने लंबे पेंग नहीं...” उस रोज़ कुसुम ने कहा था और फिर हमीद ने झोंटे देने बंद कर दिए थे। कुसुम पंडित बृजकिशोर की लाडली बेटी थी। वो नीम की डाल पर पड़े झूले से उत्तरी तो हमीद ने कुर्ते के चाक की जेब से निबोलियाँ निकाल कर उसे दे दीं। पकी निबोलियाँ खाने का उसे उतना ही शौक़ था जितना हमीद को बाँसुरी बजाने का। बाँसुरी की आवाज़ सुनकर पंडित बृजकिशोर ने घूम कर देखा। कुसुम पीतल की गगरी में पानी भर रही थी और हमीद आँखें बंद किए कुँवें के मन पर बैठा बाँसुरी बजा रहा था। पंडित जी मुस्कुराते हुए उठे और कुँवें के पाट पर पहुँच कर हमीद के सिर पर हाथ रख दिया।
“तू सचमुच कन्हैया है, बिल्कुल कन्हैया। अब के जन्माष्टमी पर तुझे ही कृष्ण बनाकर डोले पर बिठाऊँगा।”
हमीद को लगा कि वो कृष्ण बन कर डोले पर बैठा मुरली बजा रहा है। डोले के चारों तरफ़ पनिहारिनें, माखन वालियाँ और जोगनें घेरा डाले खड़ी हैं। उसकी नज़रें भीड़ को चीरती हुई कुसुम को ढूंढ रही हैं। वो गौर से देखता है, बहुत सी औरतें दुपट्टे ओढ़े और रेशमी ग़रारे पहने जाज़िम पर बैठी मीलद पढ़ रही थीं। कुसुम अम्माँ जान के पास ही बैठी थी। कई औरतें जब एक साथ मीलाद पढ़ती हैं तो साथ साथ कुसुम के होंट भी हिलते नज़र आते हैं। कुसुम के होंट हिल रहे हैं, हमीद के होंटों पर मुरली धरी है। मुरली बज रही है या कुसुम मीलाद पढ़ रही है? मालूम नहीं। हाँ, एक शोर है। उसके अंदर, उसके बाहर। बच्चों का शोर। शायद छुट्टी हो गई है। बच्चे शोर मचाते अपने अपने घर जा रहे हैं, वो चौंका और पंडित बृजकिशोर के पीछे पीछे चल दिया। पंडित जी मंदिर के उस कमरे में गए जहाँ कृष्ण भगवान की मूर्ती हर वक़्त होंटों पर मुरली धरे रहती है। हमीद दरवाज़े पर जाकर रुक गया और मूर्ती को घूरने लगा। पंडित जी ने जल चढ़ाया, आरती उतारी और फिर वो आँखें बंद कर के पूजा करने लगे। हमीद भी प्रार्थना कर रहा था।
“अल्लाह मियां, जल्दी से जन्माष्टमी आए और मैं मुकुट पहन कर कन्हैया बनूँ और बाँसुरी...”
उस का दाहिना पाँव बाएं पैर को पार कर के पंजे के बल टिक गया। जी चाहा कि मूर्ती वाली बाँसुरी लेकर अपने होंटों पर रख ले। उसका दिल बेचैन था। कहीं से गड़-गड़ाहट की आवाज़ आरही थी। फिर उसने एक दिन ऊपर देखा तो आसमान पर बादल गरज रहे थे। बारिश के आसार हैं। आख़िर कन्हैया जी के लत्ते धुलने हैं, कल जन्माष्टमी है। हमीद की बेचैनी दूर हुई, आख़िर वो दिन आही गया जिसका उसे साल भर से इंतज़ार था।
अब रात हो चुकी थी। उसकी आँखों की नींद कृष्ण भगवान की मुरली के सुर बन कर बजने लगी। मुरली बजती रही और वह कुसुम के संग रात भर मंदिरके अहाते में जमुना की लहरों की तरह उछलता कूदता रहा। मंदिर की इमारत और पाठ शाला के अलावा अहाते में एक दालान भी था, जिसकी छत बहुत ऊंची थी। चारपायों का रथ नुमा एक डोला जो लकड़ी का बना था मगर पीतल की नक़्शें पत्रें जड़ी होने की वजह से पीतल का मालूम होता था, उसी दालान के एक कोने में रखा था। हमीद खेलते खेलते डोले के बीचों बीच बनी कुर्सी पर जा बैठा। उसे लगा कि युग बीतते जा रहे हैं। वो बढ़ता जा रहा है। उसकी उंगली पर एक चक्र है जो तेज़ी से घूम रहा है। उसका वजूद कायनात के ज़र्रे ज़र्रे में समाता जा रहा है। आँखें खुली हैं। वो संसार की हर चीज़ को देख सकता है। सूरज की शुआओं को, तारीक और स्याह रातों को। फिर धीरे धीरे रात उसकी आँखों में उतरने लगी और जब बैल गले में बंधे घुंघरू बजाते खेतों की जानिब चल दिए और मंदिर के घंटे और मस्जिद के मोअज़्ज़िन ने सुबह का ऐलान कर दिया तो हमीद पंडित बृजकिशोर की गोद में जाकर सो गया। हमीद का रात भर घर से ग़ायब रहना, दो दो तीन तीन दिन तक ग़ायब रहना, फ़क़ीर मुहम्मद के लिए कोई नई बात नहीं थी। रहस् हो, कृष्ण कत्था हो या रास लीला, हमीद घर से ग़ायब। जन्माष्टमी पर भी लोग रात भर मंदिर में जमा रहते, मंदिर को सजाया सँवारा जाता और आधी रात को कृष्ण भगवान के जन्म की रस्म अदा होती। हमीद भी पिछले कई साल से कुसुम से खेलते खेलते मंदिर में ही रह जाया करता।
रात के दूसरे पहर की रुख़्सत और तीसरे पहर की आमद का ऐलान पंडित बृजकिशोर ने शंख बजा कर किया। थाल में सजा प्रसाद भगवान की मूर्ती के सामने रखा था। पंडित जी ने देखा कि चाँद आसमान पर पाँव जमा चुका है। कभी कभी बादलों के टुकड़े घूँघट बन कर चाँद के चेहरे को छुपा लेते हैं। चाँद निकलने की कोशिश करता है फिर छुप जाता है गोया नन्हे किशन गोपियों से आँख-मिचौली खेल रहे हों। मंदिर में जमा लोग कीर्तन ख़त्म करके बरत खोलने के लिए जल से भरे पीतल के लोटे में लौंग, बताशे और फूल डालते हैं और फिर चाँद की तरफ़ रुख कर के धरती पर जल गिराते हैं। जल धरती पर गिर रहा होता है लेकिन उनकी श्रद्धा सूखे और पिंजर चाँद को सींच रही होती है। हमीद सबसे पहले प्रसाद लेने की कोशिश में भीड़ को चीर कर आगे बढ़ जाता है। पंडित जी उसके चेहरे पर चाँद की सी चमक देखते हैं और उसके हाथ पर प्रसाद रख देते हैं। कुसुम उसके बराबर खड़ी है। वो कुसुम को अपने हिस्से का प्रसाद दे देता है और वह मुट्ठी बंद करके आँखें मूंद लेती है।
‘अम्माँ जान ने बड़े प्यार से कुसुम को मीलाद का तबर्रुक दिया है।’ कुसुम दोनों हाथों में तबर्रुक लिये आँखें मूँदे खड़ी है। हमीद भी उसके बराबर खड़ा है।
“खाओ कुसुम, प्रसाद खाओ, कन्हैया जी के जन्म का प्रसाद है।”
वो आँखें खोल कर हमीद की तरफ़ देखती है। हमीद फिर कहता है
“खाओ, जानती हो कल क्या होगा।”
“हाँ...” वो कहती है, “कन्हैया जी के डोले का गश्त होगा।”
“कुसुम पता है, इस बार डोले पर किशन बन कर कौन बैठेगा?”
वो हमीद की आँखों में झाँकती है और जाने क्या सोच कर हंस पड़ती है। कुसुम की हंसी फ़िज़ा में तैरने लगती है और फिर उसके नन्हे मुन्ने जुगनू से चमकते क़हक़हे आसमान पर तारे बन कर टंक जाते हैं। बादलों से झाँकते तारे धीरे धीरे अपना वजूद खोने लगते हैं। सुबह हो जाती है और फिर हमीद देखता है कि मंदिर के अहाते में क़स्बे के बख़्शी जी, सेठ डोंगर मल, वेदजी और दूसरे ज़िम्मेदार लोग जमा हैं। पंडित जी उनके दरमियान घिरे बैठे हैं। बख़्शी जी पूछते हैं।
“हाँ तो पंडित जी किस बच्चे को चुना है?”
पंडित बृजकिशोर की आँखों में हमीद का साँवला चेहरा और उसकी मासूम शरारतें रक़्स करने लगती हैं। वो कहते हैं,
“कन्हैया ही कृष्ण बनेगा।”
लोग ताज्जुब से एक दूसरे की शक्ल देखने लगते हैं और वेद जी के मुँह से निकलता है, “क्या, कन्हैया?”
पंडित जी चौंक पड़ते हैं, “मेरा मतलब है हमीद।”
“हमीद?” बैक वक़्त कई लोगों के मुँह से निकलता है। एक लम्हे के लिए ख़ामोशी छाजाती है। ये लम्हा सदियों पर फैल जाता है। फिर एक आवाज़ उठती है और ख़ामोशी टूट जाती है।
“लेकिन लड़का हिंदू ही होना चाहिए।”
पंडित बृजकिशोर कुछ कहना ही चाहते थे कि बख़्शी जी बोल पड़े,
“पंडित जी ऐसा कभी नहीं हुआ कि जन्माष्टमी पर कृष्ण किसी मुसलमान बच्चे को बनाया गया हो।”
सेठ डोंगर मल ने भी खँखारते हुए कहा, “ये तो ठीक है पंडित जी कि हमें भेदभाव मिटा देने चाहिएं मगर...”
“मगर क्या सेठ जी?” पंडित बृजकिशोर बोले, “पिछले बरस का नाटक उत्सव भूल गए। कृष्ण का पार्ट करने पर डिप्टी साहब ने उसे इनाम दिया था।”
“नाटक की बात और है पंडित जी...” सेठ डोंगर मल की करख़्त आवाज़ ने पंडित जी के ज़ेहन को झिंझोड़ दिया, मगर उन्होंने अपनी बात इस तरह जारी रखी जैसे कुछ सुना ही न हो। बोले, “और फिर दसहरे पर जो राम लीला मंडली आई थी उसमें जिसने राम का पार्ट खेला था वो भी तो मुसलमान ही था। क्या तुम सबने उसकी आरती नहीं उतारी थी। क्या राज तिलक वाले दिन सबने उसके चरण नहीं छूए थे। क्या उस समय तुमने उसे राम नहीं माना था। अरे सेठ जी हमारा धर्म तो कहता है कि चाहे पत्थर हो, चाहे मिट्टी, अब वो जिस रूप में है वही उसका असली रूप है। हमीद तो अभी बालक है और बालक पवित्र होता है। फिर क्यों उसे कृष्ण नहीं बना सकते। वो तो कन्हैया है... बिल्कुल कन्हैया...” वो पल भर को रुके, मस्तक पर प्रेम और भक्ती की लहरें उभरने लगीं, फिर मुँह से लाड भरे ये शब्द निकल पड़े,
“वो तो कन्हैया है, हमरा कन्हैया...”
कई आवाज़ें एक साथ उभरीं, “ये ठीक नहीं है पंडित जी, अगर आप नहीं माने तो डोला नहीं निकल पाएगा, हम देख लेंगे।”
और उसी वक़्त पंडित बृजकिशोर ने आसमान की तरफ़ देखा। कई सफ़ेद साये आकाश से उतरकर भीड़ में शामिल होते नज़र आरहे थे।
“पंडित जी, सब आपका सम्मान करते हैं लेकिन...”
“लेकिन हमीद कृष्ण नहीं बनेगा, यही ना? इस दफ़ा पंडित जी का लहजा सख़्त था। लेकिन वो फ़ौरन ही नरम हो गए और बहुत देर तक लोगों को समझाने की कोशिश करते रहे। बिलआख़िर काफ़ी तकरार के बाद इंतिख़ाब तो हमीद का ही हुआ मगर कुछ लोग मंदिर के अहाते से निकल कर चले गए।
पंडित जी ने दोपहर से ही हमीद को नहला धुलाकर कृष्ण के रूप में सजाना शुरू कर दिया था। पहले पूरे बदन पर हल्का हल्का नील पोता। मुर्दार संग को भिगोकर सिल पर घिसा, फिर हमीद के चेहरे पर उस का लेप कर दिया। चेहरा ख़ुश्क होने लगा तो गुलाबी और नीला रंग मिलाकर रुख़्सारों पर लगा दिया। कमर में काछनी, गले में बैजंती माल, सिर पर कारचोबी मुकुट, हाथ में बंसी और गर्दन की बाईं जानिब से कमर के दाहिने हिस्से तक एक चमकीली चुन्द्री बांध कर पंडित जी ने अपने कन्हैया को सचमुच का कृष्ण भगवान बना दिया। कृष्ण भगवान ने होंटों पर चांदी की वो मुरली रख ली जिसमें छः राग छत्तीस रागनियाँ बजती थीं। पंडित जी हाथ जोड़ कर उनके आगे झुक गए।
“आओ प्यारे मोहना, पलक ढाँप तोहे लेयों... आओ...”
और फिर पीतल की थाली में घी का दीया, फूल, बताशे, चावल और पिसी हुई गीली हल्दी रखकर कृष्ण भगवान की आरती उतारी गई। माथे पर हल्दी का तिलक लगा कर चावल के दाने पर चिपका दिए और कृष्ण भगवान को डोले के बीचोंबीच बनी कुर्सी पर बिठा दिया गया। युग बीतने लगे, शरीर बढ़ने लगा, उंगली पर एक चक्र था जो तेज़ी से घूम रहा था। अब कृष्ण भगवान का वजूद कायनात के ज़र्रे ज़र्रे में समाता जा रहा था। आँखें खुली थीं। वो संसार की हर चीज़ को देख सकते थे। सूरज की शुआओं को तारीक और स्याह रातों को...
रथ के पहीए घूमे, आगे बाजा पीछे कीर्तन मंडली और चरणों में आरती की थाली लिये पंडित बृजकिशोर, गश्त शुरू हुआ। श्रद्धालु आरती उतारते, चढ़ावा चढ़ाते और भगवान के पैर छूकर डोले से उतर जाते। डोला जब गलियों और चौपालों से गश्त करते हुए मस्जिद के क़रीब पहुंचा तो आसमान पर सूरज भी अपना गश्त पूरा कर चुका था और मोअज़्ज़िन मग़रिब की अज़ान देने के लिए सुक़्क़ावे पर खड़ा डोले के गुज़र जाने का इंतज़ार कर रहा था। यात्रा मस्जिद के बराबर आकर ठहर गई। कीर्तन मंडली बुलंद आवाज़ में कीरत गा रही थी। भगवान के आगे दोज़ानू बैठ कर किसी ने गाई,
“जय श्रीकृष्ण हरे, प्रभु जय श्रीकृष्ण हरे
भगतन के दुख सारे पल में दूर करे
जय श्रीकृष्ण हरे प्रभु जय श्रीकृष्ण हरे...”
और फिर उसने पूरी ताक़त से शंख बजा दिया। शंख की आवाज़ सुनकर बाजे वालों ने भी बाजे की आवाज़ें तेज़ कर दीं। उन आवाज़ों की कोख से एक बहुत भयानक आवाज़ उस वक़्त उठी जब मस्जिद की तरफ़ से आए ईंट के एक बड़े टुकड़े ने कृष्ण भगवान के माथे पर ख़ून की लकीर खींच दी। भगवान के माथे से जब ख़ून की बूँद गिरी तो आरती के थाल में जलता दीया बुझ गया। ईंट कृष्ण भगवान के मारी गई थी, चोट हमीद के लगी थी और आरती का दीया बुझ गया था मोहने कन्हैया के ख़ून की बूँद से चारों सिम्त बेहंगम शोर बरपा हुआ। चीख़ पुकार तोड़ फोड़ और जज़्बात से भरी आवाज़ों ने मुसलमानों के दरवाज़ों को घेर लिया। मस्जिद के दरवाज़े पर भी लोग जमा होने लगे। पंडित बृजकिशोर भीड़ को चीरते हुए दरवाज़े तक पहुंचे तो देखा एक नौजवान मस्जिद के दरवाज़े को कुल्हाड़ी से गूदे चला जा रहा है। पंडित जी ने उसके हाथ से कुल्हाड़ी छीन ली फिर एक सिम्त से “नारा-ए-तकबीर, अल्लाहु-अकबर” की आवाज़ें आईं। पंडित जी दौड़ते हुए वहाँ पहुंचे तो देखा कि सेठ डोंगर मल और रामानंद लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं।
“भैया यह क्या? ये क्या भैया, हम सब... हम सब भाई हैं। इसी धरती पर पैदा हुए हैं और इसी...” पीछे से आवाज़ आई, “हाँ और इसी धरती पर मरेंगे भी।” और उसी वक़्त सेठ डोंगर मल और रामानंदी हलाक कर दिए गए। दोनों के क़त्ल के बाद शोर और तेज़ हो गया तो पंडित जी कुल्हाड़ी फेंक कर बंदा ख़ां के दरवाज़े की तरफ़ भागे, जहाँ से “जय बजरंग बली” का नारा बुलंद हुआ था। वो जब वहाँ पहुंचे तो दरवाज़ा शोले उगल रहा था और अंदर औरतों और बच्चों की आवाज़ें बिलक रही थीं।
पंडित जी ने देखा कि हर शख़्स की आँखों में ख़ौफ़ और हैरत के साये लरज़ रहे हैं। हर शख़्स के चेहरे पर एक सवालिया निशान था, “ये कैसे हो गया? ऐसा नहीं होना चाहिए था।” मगर फिर भी सब कुछ हो रहा था। न चाहते हुए भी सब कुछ हो रहा था। आख़िर कैसे? वो कौन सी ताक़त है जो नज़र न आते हुए भी सब कुछ... और उसी वक़्त पंडित जी ने देखा कि कुछ लोग आसमान की तरफ़ देख रहे हैं। आसमान जो सब के सरों पर था, उस आसमान पर अजब तरह का रंग छा गया था। ये रंग सुर्ख़ भी और ज़र्द भी। जिस मक़ाम पर दोनों रंग मिल रहे थे वहाँ एक गहरी लकीर दिखाई देती थी। ध्यान से देखने पर महसूस होता कि लकीर के आस-पास बातिन में स्याही छुपाए सफ़ेद साये उभर रहे हैं और पूरी फ़िज़ा पर ख़ौफ़-ओ-हरास तारी हो गया है। इससे पहले क़स्बे के आसमान पर सफ़ेद साये कभी सुर्ख़ और ज़र्द रंग बिखेरने में कामयाब नहीं हो पाए थे मगर आज... मगर आज उन सायों को देख कर कुछ लोग कह रहे थे कि ये बड़े बड़े गुरज़ लिए हमारी मदद को तैयार हैं तो कुछ उनके हाथों में नंगी शमशीरें देखकर अपने अंदर बेपनाह क़ुव्वत महसूस कर रहे थे कि अचानक ये साये आसमान से उतर कर भीड़ में शामिल हो गए। पंडित बृजकिशोर की नज़र डोले पर पड़ी तो वो लरज़ गए और बेतहाशा डोले की तरफ़ भागने लगे। पंडित जी ने देखा कि एक शख़्स ने डोले पर रखा फरसा उठा लिया है और कृष्ण भगवान उसके आगे हाथ जोड़े डरे सहमे खड़े हैं। तेज़ धारवाला ये फरसा हर साल डोले पर रखा जाता है और गश्त पूरा होने पर कृष्ण भगवान इसी फरसे से कंस का वध करते हैं।
पंडित बृजकिशोर के मुँह से काँपती हुई आवाज़ निकली, “ये क्या... ये तो कृष्ण भगवान हैं... कन्हैया... हमरे कन्हैया...” हरिप्रसाद जिसने अभी अभी आरती गाई थी, भर्राई हुई आवाज़ में मिसमिसा उठा, “नाहीँ... ये हमीद है फ़क़ीर मुहम्मद का लड़का।” एक साथ कई आवाज़ें उभरीं, “हाँ, ये हमीद है, एक मुसलमान का लड़का। हमारे कृष्ण भगवान का अपमान किया है इन्होंने। डोले पर ईंट फेंकी... भगवान के माथे से ख़ून बहा और अब दरवाज़े बंद करके घरों में छुप गए हैं।” डोले पर खड़ा शख़्स फरसा हवा में उठाते हुए दहाड़ा, “हम इसका बदला लेंगे, हम आज इसे...”
“नहीं।” पंडित बृजकिशोर चीख़े और उसके हाथ से फरसा छीनने की कोशिश करने लगे। मगर उस शख़्स ने पंडित जी को ज़ोर से धक्का देकर डोले से नीचे ढकेल दिया और फिर हमीद के सिर पर फरसे का एक भरपूर वार कर दिया।
मुकुट, काछनी और बैजंती माल पहने कृष्ण भगवान डोले से नीचे लुढ़क पड़े और धरती पर ख़ून की एक लकीर बहुत दूर तक खींचती चली गई... कुछ लोग लकीर के इधर थे और कुछ उधर। दोनों तरफ़ शोर था। ये कहना मुश्किल था कि लकीर के इधर ज़्यादा शोर है या उधर...!
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