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मास और मिट्टी

मंशा याद

मास और मिट्टी

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    सबसे पहले हम्द उस रब की जिसकी क़ुदरतों का कुछ शुमार नहीं।

    उसने लाखों करोड़ों दुनियाएँ, कहकशाएँ और चाँद सूरज पैदा किए।

    उसने दस लाख मील क़तर का सूरज बनाया और उसे काइनात में एक नुक़्ते की हैसियत बख़्शी। उसने अरबों-खरबों ऐसे सितारे बनाए जिनमें से बा'ज़ की रौशनी हम तक लाखों करोड़ों सालों में पहुँचती है।

    फिर दुरूद उस नबी पर जिसने बादशाहों को फ़क़ीरी और फ़क़ीरों को बादशाहत दे कर एक ही सफ़ में खड़ा कर दिया और उसने उनकी अक़्लों से पत्थर हटा कर अपने पेट पर बाँध लिए।

    फिर सलाम रौशनी के उन मीनारों को जिन्होंने बातिल का साथ दिया और हक़ की ख़ातिर अपनी गर्दनें कटवाईं और खालें उतरवाईं।

    फिर रहमत उन अज़ीम लोगों पर जिन्होंने फ़िज़ा में ईथर, ज़मीन में तेल और एटम में इलेक्ट्रोन प्रोटोन दरयाफ़्त किए।

    और आख़िर में शाबाश उन बहादुरों को जिन्होंने हर हाल में ज़िंदगी का सफ़र जारी रखा और उस रब का जिसका ज़िक्र ऊपर आया है लाख-लाख शुक्र अदा किया।

    हम्द, ना'त और इस तमहीद के बाद अब मैं अस्ल मौज़ू की तरफ़ आता हूँ।

    ये कहानी मेरे अपने गिर्द भी घूमती है लेकिन उसका मर्कज़ी किरदार नातू साँसी है।

    नातू साँसी मेरे गाँव का रहने वाला है और कुछ अरसा से गाँव छोड़ कर शहर में गया है। आपने अख़्बारात में पढ़ा होगा कि कुछ अर्सा से शहर में चोरी की अनोखी वारदातें हो रही हैं। चोरों की एक टोली बड़े-बड़े बंगलों में घुस कर या नक़ब लगा कर बावर्ची-ख़ानों से खाने-पीने की हर चीज़ चट कर जाती है। उन भूके प्यासे चोरों के हाथ जो चीज़ लगती है वो खा-पी कर ग़ायब हो जाते हैं। कपड़े, ज़ेवर, नक़दी और दूसरी क़ीमती चीज़ों को हाथ नहीं लगाते। वो शर्बत, बियर और इस्कवाएश की बोतलें पी जाते हैं। रेफ़्रिजरेटरों में रखी हुई आइसक्रीम, फल, मक्खन और डबल रोटियाँ खा जाते हैं और जितनी भी शक्कर मिले फाँक जाते हैं।

    रब ने हर इंसान की रोज़ी मुक़र्रर की हुई है।

    वो पत्थर में कीड़े को भी पालता है।

    उसने हर आदमी का हिस्सा ज़मीन के अंदर कहीं कहीं छिपा कर रख दिया हुआ है ताकि वो दुनिया में आए तो अपना हिस्सा तलाश कर ले।

    कुछ लोग अपना हिस्सा तलाश नहीं करते और भूक से मर जाते हैं या माँग-ताँग कर और छीन-झपट कर वक़्त गुज़ारते हैं।

    बा'ज़ दूसरों के हिस्से भी तलाश कर लेते हैं, फिर माँगने वालों को थोड़ा-थोड़ा दे कर दुआएँ लेते और सवाब कमाते हैं।

    चोरों की ये टोली भी अपना हिस्सा तलाश करती फिरती है।

    अंदाज़ लगाया गया है कि उस टोली में कम से कम छः-सात चटोरे आदमी ज़रूर हैं, जो दस-बारह आदमियों की ख़ुराक एक ही वक़्त में हज़म कर जाते हैं। टिड्डी दल की तरह जहाँ से गुज़र जाते हैं हर चीज़ का सफ़ाया कर देते हैं।

    मुझे शुब्हा है नातू साँसी उनमें ज़रूर शामिल है।

    मैंने उसे कई मर्तबा बस स्टापों, फल फ़्रूट की दुकानों और सिनेमाओं के टी स्टालों पर देखा है। उसने भी मुझे देखा है लेकिन शायद मेरे लिबास की वजह से वो मुझे पहचान नहीं सका या फिर जान-बूझ कर अजनबी बना रहा कि सलाम करना पड़े। मुझे याद है उसने ज़िन्दगी भर गाँव के किसी ज़मींदार या चौधरी को सलाम नहीं किया। शायद यही वजह थी कि हर एक को उसपर ख़्वाह-मख़ाह ग़ुस्सा जाता था। मगर उसका ये मतलब नहीं कि लोगों को उस पर महज़ इसी वजह से ग़ुस्सा आता था। शहर आने से पहले उसने गाँव वालों का नाक में दम कर रखा था। अब्बा जी को डर था कि वो शहर कर मुझे ढ़ूँढ़ लेगा और फिर रोज़गार या भीक के सिलसिले में मुझे अक्सर परेशान करता रहेगा। लेकिन उसने तो मुझे पहचानने से ही इनकार कर दिया है और उसे इसकी ज़रूरत भी क्या है। मैंने कई मर्तबा उसे गले सड़े फल जमा करते और सिगरेट के टुकड़े चुनते देखा है। सिनेमाओं में इंटरवल के वक़्त वो टी स्टालों पर खड़ा नज़र आता है और कोकाकोला और सेवन अप की बोतलों में बचे खुचे घूँट पीता है, जिन्हें लोग इसलिए छोड़ जाते हैं कि उनके पेट में जगह नहीं होती, कई बार मेरा जी चाहा उसे अपने पास बुलाऊँ और कुछ दे डालूँ मगर उसकी बे नियाज़ी देख कर इरादा तर्क करना पड़ा। वो मेरी तरफ़ देखते हुए फ़िल्टर टिप्ड सिगरेटों का धुआँ उड़ाता और बारी-बारी हर बोतल से बचा खुचा सोडा वाटर पीता रहता है। उसने कभी मेरी परवाह नहीं की। उसे शायद किसी की भी परवाह नहीं। उसे बाप की भी नहीं जिसे उसके बदले गाँव वालों ने मार-मार कर अध-मुआ कर दिया और चमड़ी उधेड़ दी थी। उसका बाप अर्से से अपनी उधड़ी हुई खाल, कटे-फटे जिस्म और टूटी हुई हड्डियों समेत चारपाई पर पड़ा कराहता रहता है। मगर नातू ने पलट कर कभी उसकी ख़बर नहीं ली।

    हम दोनों एक ही गाँव के रहने वाले हैं लेकिन हम एक दूसरे को दूर-दूर से अजनबियों की तरह देखते हैं। हमारे दरमियान रोज़-ब-रोज़ फ़ासला बढ़ता जा रहा है। वो मुझसे ही नहीं कभी किसी से मदद या ख़ैरात लेना नहीं चाहता और मैं सोचता हूँ कि आख़िर नातू मेरे किस काम सकता है?

    मैंने गाँव में भी शायद ही कभी उससे बात की हो। मेरा उससे कभी तअल्लुक़ नहीं रहा। हाँ उसकी माँ आलमे और बहन मादो हर रोज़ भीक माँगने गाँव का चक्कर लगाती हुई हमारे हाँ भी आतीं और रस्मी सी बे-लजाजत दुआएँ देतीं। मुझे देख कर अक्सर थोड़ी भीक पर क़नाअत करतीं और अम्माँ को मामूल से कुछ ज़्यादा देना पड़ता।

    शेरू उसका बाप था। बाप-बेटा दोनों कोई काम नहीं करते थे। काम करना उनकी ख़ानदानी रिवायत थी। वो चोरी कर सकते थे, डाका डाल सकते थे, क़त्ल कर सकते थे, शिकार खेल सकते थे मगर काम करना उनके बस की बात थी। वो आलमे और मादो की जमा की हुई भीक मज़े ले लेकर उड़ाते मगर ख़ुद भीक नहीं माँगते थे। मांग ही नहीं सकते थे। चूहड़ों, सांसियों और आबादी से हट कर रहने वालों में एक ख़ास तरह की अकड़ होती है। वो उन्हें किसी के आगे हाथ फैलाने से बाज़ रखती।

    वो हराम-हलाल के चक्कर में नहीं पड़ते थे। कछुए, बिल्लियाँ, गीदड़, नेवले और लोमड़ियाँ सब कुछ खा जाते थे। मरे हुए मवेशियों का मास, कुत्तों, कव्वों और गिद्धों से छीन कर हड़प कर जाते थे, मास खाना उन्हें बेहद मर्ग़ूब था ख़्वाह वो मरे हुए मवेशियों का हो या मारे हुए मवेशियों का... हम आप मुर्दार जानवर या मवेशी का मास नहीं खाते। खाने के लिए उसे ख़ुद मार लेते हैं। हम ज़िंदा मवेशियों की बोटियाँ नहीं उतारते, ज़िंदा इंसानों की बोटियाँ उतार लेते हैं। लेकिन वो अलग मस्अला है।

    शेरू बड़ा भला मानस और क़नाअत-पसंद आदमी था। उसने आज तक रेलगाड़ी नहीं देखी थी। वो कभी शहर नहीं गया था। वो शिकार और मुर्दार पर गुज़ारा कर लेता था या फिर आलमे और मादो की लाई हुई भीक से पेट भर लेता था। अक्सर दारू पी कर और चिलम पर कीकर की छाल के अंगारे रख कर वो, दीवार से टेक लगाए, गिद्धों की परवाज़ का जायज़ा लेता रहता। मगर नातू ने गाँव वालों का जीना दूभर कर दिया था होश संभालते ही वो खेतों, खलियानों में हर जगह हाथ साफ़ करने लगा था। वो डरबों से मुर्ग़ियाँ ही नहीं, बाड़ों से भेड़ बकरियाँ भी उठा कर ले जाता और उनको मार कर खा जाता था। वो खेत में घुस जाता तो किसी जंगली भैंसे या सूअर की तरह मुरला-मुरला जगह साफ़ कर देता। मूलियाँ, गाजरें, शलजम, ख़रबूज़े जो कुछ भी होता वो फ़सल उजाड़ कर रख देता। गन्ने का फोग देख कर लगता जैसे बहुत सा कमाद बेलने में पीला हो गया हो। यही नहीं वो चरागाहों में चरती भैंसों, गायों और बकरियों का दूध पी जाता। कई बार उसकी पकड़-धकड़ हुई और उसे मारा-पीटा गया मगर वो कभी बाज़ आया।

    लोग उससे डरते भी थे और अकेला दुकेला आदमी उससे उलझने से गुरेज़ करता था। उससे दुश्मनी सहेड़ना भी ख़तरे से ख़ाली था। उसका क्या भरोसा कब क्या उठा कर ले जाए, या सर पर दे मारे।

    आलमे अपनी जवान बेटी के हमराह जब सुबह को घर-घर माँगने जाती तो उसे भीक की बजाय गालियाँ और शिकायतें मिलतीं। वो बीबियों को दुआएँ देती, उनकी हाँ में हाँ मिलाती और ऊपरी दिल से नातू को बद-दुआएँ देती जाती।

    एक बार मैं गाँव गया तो पता चला, नातू शहर चला गया है। वो शेरू को अक्सर धमकियाँ दिया करता था कि मेरा ब्याह कर दो वरना मैं किसी औरत को ख़ुद उठा लाऊँगा या फिर शहर चला जाऊँगा, जहाँ कोकेकोले पियूंगा, फल-फ़्रूट खाऊँगा और जहाँ मुझे कोई कोई औरत भी मिल जाएगी।

    नातू के चले जाने से गाँव वाले ख़ुश थे मगर वो जाते-जाते जिन भूतों की तरह हाथ दिखा कर गया था। पता नहीं ये वाक़िआ पेश आता तो अभी वो शहर जाता।

    पंचायत के सामने शेरू और आलमे के बयानात से पता चला था कि उस रोज़ बड़ी सर्दी थी। ठंडी बर्फ़ानी हवाएँ चल रही थीं और बूँदा-बाँदी हो रही थी।

    उस रोज़ शेरू ने दारू के नए मटके का ढकना पहली मर्तबा खोला था और दारू की बू तालाब के दूसरे किनारे तक फैल गई थी। शेरू नंबर-दार की मरी हुई भैंस का पाँच सात सेर गोश्त काट लाया था और उसे अँगारों पर भून रहा था।

    नातू सारे गाँव में बावले कुत्ते की तरह मास ढ़ूँढ़ता फिरता था। भेड़, बकरियों और दूसरे जानवरों का ताज़ा गोश्त खा-खा कर अब नातू को मुर्दार अच्छा नहीं लगता था। गाँव की गलियों में बछड़े के ताज़ा और कच्चे गोश्त की बू फैली हुई थी। रहमू मोची के घर से लोग सेर दो सेर गोश्त ख़रीद कर निकलते तो नातू का जी चाहता वो झपट ले और भाग जाए। उसने रहमू मोची के घर में बद-नियती से झाँक कर देखा था वहाँ बहुत से आदमी और गोश्त काटने के औज़ार थे। वो कुछ देर सोचता रहा हमला करे करे, फिर वहाँ से पलट आया।

    वो आलमे के साँप डसवाने के दिन थे मगर पता नहीं दुनिया भर के साँप किन बिलों में जा छिपे थे। उसका जिस्म फोड़े की तरह पक रहा था और उसे यूँ लगता था जैसे अभी-अभी उसके जिस्म से ज़हर के परनाले बहने लगेंगे।

    अगर उसके डसवाने के दिन होते तो आलमे नातू पर मादो का राज़ कभी खुलने देती। मगर अब वो मादो को घसीट कर अपने साथ ले जाना चाहता था... पता नहीं वो उसके साथ क्या सुलूक करे, उसे कहाँ बेच दे और उसके बदले में अपना ब्याह रचा ले... आलमे ने उसे रोकने की कोशिश की थी मगर एक ही धक्का खा कर उठने के क़ाबिल रही थी।

    नातू के बिगड़े हुए तेवर देख कर शेरू से रहा गया वो तल्ख़ी से हँस कर बोला,

    उसे छोड़ दे नातू... ये औरत नहीं है।

    औरत नहीं है? नातू को जैसे साँप ने डस लिया।

    हाँ पुत्र... ये रब की क़ुदरत है... ये औरत है मर्द, ये तो कुछ भी नहीं है।

    फिर उसने आग पर गोश्त के बड़े-बड़े टुकड़े भूनते हुए आसमान की तरफ़ देखा और ठंडी आह भर कर बोला,

    जब रब उसे बनाने लगा, मिट्टी कम पड़ गई... रब को और बहुत से काम होते हैं, उसने और बहुत कुछ बनाना होता है। नातू ने ग़ुस्से से रब की तरफ़ देखा मगर रब ने उसे कोई जवाब दिया।

    उसने शेरू की तरफ़ देखा, वो अध भुना गोश्त हड़प किए जा रहा था।

    उसने ग़ुस्से से कहा, मैं सबको देख लूँगा।

    उसने टूटे हुए दरवाज़े को ज़ोर से ठोकर मार कर गिरा दिया और बाहर निकल गया।

    अगले रोज़ चौधरियों ने डंगर डॉक्टर को बुलवाया और कहीं शाम को जा कर पता चला कि ज़िंदा गाय की दाहिनी रान को चीर कर सेर दो सेर गोश्त निकाला गया और खाल में भुस भर कर उसे तंदी से सी दिया गया है। लोग नातू की तलाश में निकले मगर वो कोकेकोले पीने और फल-फ़्रूट खाने शहर चला गया था।

    मैंने आपको बताया था कि शहर में कुछ अर्से से चोरी की अनोखी वारदातें हो रही हैं चोरों की एक टोली बंगलों में घुस कर खाने पीने की हर चीज़ चट कर जाती है।

    पुलिस का ख़्याल है कि उस टोली में कम से कम छः-सात आदमी हैं लेकिन मेरा दिल कहता है कि एक ही आदमी है जो कई सदियों से भूका है।

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