मासी गुल-बानो
स्टोरीलाइन
मोहब्बत के छिन जाने के ग़म में पागल हो गई एक लड़की की कहानी। उस दिन वह मायो में बैठी हुई अपने दुल्हे के साथ होने वाली अपनी पहली मुलाक़ात के ख़्वाब देख रही थी, जब बारात की जगह ख़बर आई कि दुल्हा एक लड़ाई में मारा गया। अपने होने वाले शौहर की मौत की ख़बर सुनकर पहले गुल बानो गुमसुम बैठी रही और फिर इतना रोई कि पागल ही हो गई। उसके बारे में गाँव में अजीब-ओ-ग़रीब बातें और क़िस्से मशहूर हो गए, जिनकी वजह से वह एक जीती-जागती इंसान से किसी आसमानी मख्लूक़ मख़्लूक़ में तब्दील हो गई।
उसके क़दमों की आवाज़ बिलकुल ग़ैर मुतवाज़िन थी, मगर उसके अ’दम तवाज़ुन में भी बड़ा तवाज़ुन था। आख़िर बे आहंगी का तसलसुल भी तो एक आहंग रखता है। सो उसके क़दमों की चाप ही से सब समझ जाते थे कि मासी गुल बानो आ रही है। गुल बानो एक पांव से ज़रा लंगड़ी थी। वो जब शुमाल की जानिब जा रही होती तो उसके बाएं पांव का रुख तो शुमाल ही की तरफ़ होता मगर दाएं पांव का पंजा ठीक मशरिक़ की सिम्त रहता था। यूं उसके दोनों पांव ज़ाविया क़ायमा सा बनाए रखते थे और सब ज़ावियों में यही एक ज़ाविया ऐसा है जिसमें एक तवाज़ुन, एक आहंग, एक रास्ती है। सो गुल बानो का लंगड़ापन कजी में रास्ती का एक चलता फिरता सबूत था।
गुल बानो जब चलती थी तो दाएं पांव को उठाती और बाएं को घसीटती थी। इस बे रब्ती से वो रब्त पैदा होता था जिसकी वजह से लोग गुल बानो को देखे बग़ैर पहचान लेते थे। औरतें अन्दर कोठे में बैठी होतीं और सेहन में क़दमों की ये मुनफ़रिद चाप सुनाई देती तो कोई पुकारती! इधर आ जा मासी गुल बानो, हम सब यहां अंदर बैठे हैं और मासी का ये मा’मूल सा था कि वो दहलीज़ पर नमूदार हो कर अपनी टेढ़ी-मेढ़ी लाठी को दाएं से बाएं हाथ में मुंतक़िल कर के दाएं हाथ की अंगुश्त-ए-शहादत से अपनी नाक को दोहरा करते हुए कहती, हाय तू ने कैसे भाँप लिया कि मैं आई हूँ। सभी भाँप लेते हैं। सभी से पूछती हूँ पर कोई बताता नहीं। जाने में तुम लोगों को इतनी मोटी मोटी दीवारों के पार भी कैसे नज़र आजाती हूँ।
बस मासी, चल जाता है पता। पुकारने वाली औरत कहती, तुमसे पहले तुम्हारी ख़ुशबू पहुंच जाती है और गुल बानो मुस्कुराने लगती।
आज तक गुल बानो को सच्ची बात बताने का हौसला किसी ने नहीं किया था। दरअसल उससे सब डरते थे और उसके बारे में अ’जीब अ’जीब बातें मुद्दतों से मशहूर थीं।
अधेड़ उ’म्र किसान बताते थे कि उन्होंने मासी गुल बानो को हमेशा उसी हालत में देखा है कि हाथ में टेढ़ी-मेढ़ी लाठी है और वो एक पांव उठाती और दूसरा घसीटती दीवारों के साथ लगी लगी चल रही है। मगर गांव के बा’ज़ बूढ़ों को याद था कि गुल बानो जवान हो रही थी तो उसकी माँ मर गई थी, बाप खेत मज़दूर था। बीवी की ज़िंदगी में तो तीन तीन महीने तक दूर दराज़ के गांव में भटक सकता था मगर अब जवान बेटी को अकेला छोड़कर कैसे जाता। फिर जब वो कमाता था तो जब भी एक वक़्त का खाना खा कर और दूसरे वक़्त पानी पी कर ज़िंदा था मगर अब क्या करता। कटाई के मौसम को तो जबड़ा बंद करके गुज़ार गया मगर जब देखा कि फ़ाक़ों से गुल बानो निचुड़ी जा रही है तो अगले मौसम में वो गुल बानो को साथ लेकर दूरके एक गांव में फसलों की कटाई करने चला गया।
वहीं का ज़िक्र है कि एक दिन उसने ज़मींदार के एक नौजवान मुज़ारे’ बेग को खलियान पर कटी हुई फ़सल की ओट में गुल बानो की तरफ़ बाज़ू फैलाए हुए देखा। उस गांव में उसे अभी चंद रोज़ हुए थे। उस वक़्त उसके हाथ में दरांती थी, उसकी नोक बबेग के पेट पर रख दी और कहा कि मैं तेरी अंतड़ियां निकाल कर तेरी गर्दन पर डाल दूँगा। फिर गुल बानो ने बाप के दरांती वाले हाथ को अपने हाथ से पकड़ लिया और कहा... “बाबा! ये तो मुझसे कह रहा था कि मैं तुझसे शादी करूँगा और मैं कह रही थी कि फिर मुझे प्यार भी शादी के बाद करना। इससे पहले करोगे तो ख़ुदा ख़फ़ा हो जाएगा।”
तब बाप ने दरांती अपने कंधे पर रख ली। गुल बानो को अपने बाज़ू में समेट लिया और रोने लगा। फिर वो बेग से बरात लाने की बात पक्की कर के गांव वापस आ गया। बरात से तीन रोज़ पहले गुल बानो को माइयों बिठा दिया गया और उसे इतनी मेहंदी लगाई गई कि उसकी हथेलियाँ सुर्ख़, फिर गहरी सुर्ख़ और फिर स्याह हो गईं और तीन दिन तक आस-पास की गलियाँ गुल बानो के घर से उमडती हुई मेहंदी की ख़ुशबू से महकती रहीं। फिर रात को तारों की छावं में बरात को पहुंचना था और दिन को लड़कियां गुल बानो की हथेलियों को मेहंदी से थोप रहीं थीं कि दूर एक गांव से एक नाई आया और उसने गुल बानो के बाप को बताया कि कल ज़मींदार हिरन के शिकार पर गया था और बेग उसके साथ था। जंगल में ज़मींदार के पुराने दुश्मन ज़मींदार की ताक में थे उन्होंने उस पर हमला कर दिया और बेग अपने मालिक को बचाने की कोशिश में मारा गया। आज जब मैं वहां से चला तो बेग की माँ अपने बेटे की लाश के सर पर सहरा बाँधे अपने बाल नोच नोच कर हवा में उड़ा रही थी।
गुल बानो तक ये ख़बर पहुंची तो यूं चुप-चाप बैठी रह गई जैसे उस पर कोई असर ही नहीं हुआ। फिर जब उसके पास गीत गाने वालियाँ सोच रही थीं कि मातम शुरू करें या चुपके से उठ कर चली जाएं, तो अचानक गुल बानो कहने लगी, “कोई ईद का चांद देख रहा हो और फिर एक दम ईद का चांद कंगन की तरह ज़मीन पर गिर पड़े तो कैसा लगे? क्यों बहनो! कैसा लगे?”
और वो ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी और मुसलसल हँसती रही। ऐसा लगता था कि कोई उसके पहलुओं में मुसलसल गुदगुदी किए जा रहा है। वो इतना हंसी कि उसकी आँखों में आँसू आ गए और फिर वो रोने लगी और उठी और मेहंदी से थुपी हथेलियाँ अपने घर की कच्ची दीवार पर-ज़ोर ज़ोर से छरर छरर रगड़ने लगी और चीख़ने लगी। जब तक उसके बाप को लड़कियां बुलातीं उसकी हथेलियाँ छिल गई थीं और ख़ून उसकी कोहनियों पर से टपकने लगा था। फिर वो बेहोश हो कर गिर पड़ी सुबह तक उसे मोहरक़ा बुख़ार हो गया। उसी बुख़ार की ग़नूदगी में उसकी दाएं टांग रात-भर चारपाई से लटकी रही और टेढ़ी हो गई। फिर जब उसका बुख़ार उतरा तो उसके सर के सब बाल झड़ गए, उसकी आँखें जो आ’म आँखों से बड़ी थीं और बड़ी हो गईं और उनमें दहश्त सी भर गई। फटी-फटी मैली-मैली आँखें, हल्दी सा पीला चेहरा, अंदर धंसे हुए गाल, ख़ुश्क काले होंट और उसपर गंजा-सर। जिसने भी उसे देखा, आयत-अल-कुर्सी पढ़ता हुआ पलट गया। पूरे गांव में ये ख़बर गश्त कर गई कि अपने मंगेतर के मरने के बाद गुल बानो पर जिन्न आ गया है और अब जिन्न नहीं निकला गुल बानो निकल गई है और जिन्नबैठा रह गया है।
यहीं से गुल बानो और जिन्नों के रिश्ते की बात चली। साथ ही उन्ही दिनों उसका बाप चंद रोज़ बीमार रहा और अपने दुखों की गठड़ी गुल बानो के सर पर रखकर दूसरी दुनिया को सिधार गया। बाप की बीमारी के दिनों में गुल बानो हाथ में बाप की टेढ़ी-मेढ़ी लाठी लेकर चंद-बार हकीम से दवा लेने घर से निकली और जब भी निकली बच्चे उसे देखकर भाग निकले। उसे गली से गुज़रता देखकर मस्जिद में वुज़ू करते हुए नमाज़ियों के हाथ भी रुक गए और हकीम ने भी एक लाश को अपने मतब में दाख़िल होता देखकर घबराहट में उसे न जाने क्या दे डाला कि उसका बाप एड़ियाँ रगड़ रगड़ कर मर गया। सुना है मरते वक़्त उसने न ख़ुदा रसूल का नाम लिया न कलिमा पढ़ा बस कुफ़्र बकता रहा कि अच्छा इन्साफ़ है! ये ख़ूब इन्साफ़ है तेरा!!!
क़रीब का कोई रिश्तेदार पहले ही नहीं था दूर के रिश्तेदार और भी दूर हो गए। मगर अल्लाह ने गुल बानो की रोज़ी का अ’जीब सामान कर दिया। वो जो पत्थर के अंदर कीड़े को भी उसका रिज़्क़ पहुँचाता है, गुल बानो को कैसे भूलता। सो यूं हुआ कि बाप की मौत के तीन दिन बाद वो एक खाते पीते घर में इस इरादे से दाख़िल हुई कि पाव दो पाव आटा उधार मांगेगी। उस वक़्त सब घर वाले चूल्हे के इर्द-गिर्द बैठे खाना खा रहे थे। गुल बानो को देखते ही सब हड़बड़ा कर उठे और खाना वहीं छोड़कर मकान में घुस गए। गुल बानो जो इससे पहले बच्चों की ख़ौफ़ज़दगी के मंज़र देख चुकी थी, समझ गई और मुस्कुराने लगी। यूं जैसे किसी बेरोज़गार की नौकरी लग जाये। मकान की दहलीज़ पर जा कर वो कुछ कहने लगी थी कि घर की बहू ने जिसका चेहरा फ़क़ हो रहा था, उसके हाथ पर पाँच रुपय रख दीये। गुल बानो इका एकी हंसी कि सब घर वाले हट कर दीवार से लग गए फिर वो हँसती हुई वापस आ गई।
कहने वाले कहते हैं कि उस रोज़ वो दिन-भर और रात-भर हँसती रही और कई बार यूं भी हुआ कि गुल बानो के घर का दरवाज़ा बाहर से बंद होता तो जब भी लोगों ने घर के अंदर से उसके क़हक़हों की आवाज़ सुनी।
फिर गुल बानो के बाल भी उग आए, चेहरा भी भर गया, रंग भी चमक उठा और आँखें जगमगाने लगीं। मगर उसकी ज़ात से जो ख़ौफ़ वाबस्ता हो गया था उसमें कोई कमी ना आई, उन्ही दिनों वो मशहूर वाक़िया’ हुआ कि जब छुट्टी पर आए हुए एक नौजवान ने इस अजीब सी लड़की को गली में तन्हा देखा तो सीटी बजा दी और गुल बानो उठी क़दमों पर रुक गई जैसे उसके पांव में सीटी ने बेड़ी डाल दी हो। नौजवान ने सीटी का इतना फ़ौरी और शदीद असर पहले कभी नहीं देखा था। वो लपका और गुल बानो का बाज़ू पकड़ कर अपनी तरफ़ खींचा, मगर फिर चीख़ने लगा कि मुझे बचाओ, मैं जल रहा हूँ। अगर गुल बानो उसके मुँह पर थूक न देती तो वो राख की मुट्ठी बन कर उड़ जाता। कहते हैं लोग जब नौजवान को उठा ले गए तो जब भी गुल बानो देर तक गली में तन्हा खड़ी रही और उस के होंट हिलते रहे और उस रात गांव में ख़ौफ़नाक ज़लज़ला आया था जिससे मस्जिद का एक मीनार गिर गया था और चीख़ते चिल्लाते परिंदे रात-भर अंधेरे में उड़ते रहे थे और मुर्ग़ों ने आधी रात ही को बाँगें दे डालें थीं।
गुल बानो की ज़िंदगी के चंद मा’मूलात मुक़र्रर हो गए थे। सूरज निकलते ही वो मस्जिद में जा कर महराब को चूमती और मस्जिद के सेहन में झाड़ू देकर वापस घर आ जाती। वहां से हाथ में एक पुराना ठीकरा लिए निकलती और जहाने मीरासी के घर आग लेने पहुंच जाती और दिन ढले वो एक घड़ा उठाए कुएँ पर जाती और वापस आकर आधा पानी मस्जिद के हौज़ में उंडेल देती और शाम की अज़ान से पहले ही मस्जिद में दीया जलाने आती फिर घर चली जाती और सुबह तक ना निकलती। दोनों ईदों पर वो चंद खाते पीते घरों में जा कर बस झाँकती उसे कुछ कहने की ज़रूरत ही न थी उसे देखते ही उस के हाथ पर पाँच रुपय रख दीए जाते -और वो चुप-चाप वापस आ जाती। फिर हर साल दोनों ईदों के चंद दिन बाद वो अचानक ग़ायब हो जाती और जब पलटती तो उसके हाथ में एक पोटली सी होती। जहाने मीरासी की बीवी को उसने एक-बार बताया था कि वो क़स्बे में अपने कफ़न का कपड़ा ख़रीदने गई थी मगर आम ख़्याल ये था कि जिन्नों के बादशाह को मिलने जाती है।
कुछ लोग कहते थे कि गुल बानो के क़बज़े में जिन्नात हैं और जो घर उसके मुतालिबात पूरे नहीं करता उसके ख़िलाफ़ वो इन जिन्नात को बड़ी बेरहमी से इस्तिमाल करती है। मसलन बरसों पहले की बात है, वो मलिक नवरंग ख़ान के हाँ बक़रईद की रक़म लेने गई तो मलिक का बी.ए. पास बेटा ईद मनाने आया हुआ था, उसने यूंही छेड़ने के लिए कह दिया कि दो अढ़ाई महीने के अंदर पहली ईद वाले पाँच रुपय उड़ा देना तो बड़ी फुज़ूलखर्ची है और ऐसी फुज़ूलखर्ची तो सिर्फ नई नई दुल्हनों को जे़ब देती है। गुल बानो ने ये सुना तो मलिक के बेटे को अ’जीब अ’जीब नज़रों से घूरने लगी, सारा घर जमा हो गया और नौजवान को डाँटने लगा कि तुमने मासी को क्यों छेड़ा, गुल बानो के हाथ पर पाँच के बजाय दस रुपय रखे गए मगर उसने दस का नोट आहिस्ता से चूल्हाने की हदबंदी पर रख दिया और चुप-चाप चली आई और फिर हुआ यूं कि आधी रात को ये नौजवान पलंग से गिर पड़ा मगर यूं गिरा कि पहले यूँही लंबा लंबा छत तक उभर गया, फिर बिजली की सी तेज़ी के साथ तड़ से ज़मीन पर गिरा चीख़ मारी और बेहोश हो गया। साथ ही ये सिलसिला भी शुरू हो गया कि हर-रोज़ मलिक नवरंग ख़ान की जवान बेटी की एक लट कट कर गोद में आ गिरती। रातों को छत पर भागते हुए बहुत से क़दमों की इधर से उधर धब् धब् होती रहती। दीवारों पर सजी हुई थालियाँ कीलों पर से उतर कर कमरे में उड़ने लगतीं और धड़ धड़ जलता हुआ चूल्हा चिराग़ की तरह एक दम बुझ जाता।
बा’ज़ लोगों का ख़्याल ये भी था कि मासी गुल बानो ख़ुद ही जिन्न है, वो गलियों में चलते चलते ग़ायब हो जाती है। दरवाज़े बंद होते हैं मगर वो सेहन में खड़ी दिखाई दे जाती है, जब सारा गांव सो जाता है तो मासी गुल बानो के घर में से बर्तनों के बजने, बक्सों के खुलने और बंद होने, घुंघरियों के झनझनाने और किसी के गाने की आवाज़ें यूं आती रहती हैं जैसे कोई गहरे कुएँ में गा रहा हो और अगर फिर मासी गुल बानो जिन्न नहीं है तो वो नौजवान जलने क्यों लगा था जिसने मासी का बाज़ू छू लिया था और जो अपनी मौत तक सर्दियों के मौसम में भी सिर्फ एक चादर में सोता था और वो भी सिर्फ मच्छरों से बचने के लिए वर्ना उस चादर में भी उसे पसीने आते रहते थे।
अभी पिछले दिनों की बात है क़ादिरे मोची ने चमड़ा काटते हुए अपना अँगूठा भी काट लिया। सब लोगों की तरह ख़ुद क़ादिरे को भी यक़ीन था कि वो बचपन में हमजोलियों से शर्त बद कर शाम के बाद मासी गुल बानो के दरवाज़े को छू आया था तो मासी के जुनूँ ने अब जा कर उसका बदला लिया है।
दिन के वक़्त इक्का दुक्का लोग गुल बानो के हाँ जाने का हौसला कर लेते थे और जब भी कोई गया यही ख़बर लेकर आया के मासी मुसल्ले पर बैठी तस्बीह पर कुछ पढ़ रही थी और रो रही थी। अलबत्ता शाम की अज़ान के बाद मासी गुल बानो के घर के क़रीब से गुज़रना क़ब्रिस्तान में से गुज़रने के बराबर हौलनाक था। बड़े बड़े हौसला मंदों से शर्तें बदी गईं कि रात को मासी से कोई बात कर आए मगर पाँच पाँच दस दस क़त्लों के दा’वेदार भी कहते थे हम ऐसी चीज़ों को क्यों छेड़ें जो नज़र ही नहीं आतीं और जो नज़र आ भी जाएं और हम बरछा उनके पेट में उतार भी दें तो वो खड़ी हँसती रहीं। अड़ोस-पड़ोस के लोगों ने बड़े बड़े सज्जादा नशीनों से हासिल किए हुए ता’वीज़ अपने घरों में दबा रखे थे कि वो मासी गुल बानो के हाँ रातों रात जमा होने वाली बलाओं की छेड़-छाड़ से महफ़ूज़ रहीं। ये गाती, बर्तन बजाती और घनघरियां छनकाती हुई बलाऐं!
गुल बानो की जिन्नाती कुव्वतों का उस रोज़ तो सिक्का बैठ गया था जब उसने गांव की एक लड़की के जिन्न को अ’जीब हिक्मत से निकाला था। ये जहाने मीरासी की जवान बेटी ताजो थी। बड़ी शाख़-ओ-शंग और बे-इंतिहा बड़ बोली। मासी को उस लड़की से बड़ा प्यार था, एक तो पूरे गांव में जहाने मीरासी ही का घर ऐसा था जहां आग लेने के सिलसिले में मासी का रोज़ आना-जाना था। फिर जब ताजो नन्ही सी थी तो मासी साल के साल जब भी शहर से अपना कफ़न ख़रीदने जाती तो ताजो के लिए एक न एक चीज़ ज़रूर लाती। साथ ही ताजो जब ज़रा बड़ी हुई तो उसकी आवाज़ में पीतल की कटोरियाँ बजने लगीं। कई बार ऐसा हुआ के मासी ने गली में से गुज़रती हुई ताजो का बाज़ू पकड़ा और अपने घर ले गई। दरवाज़ा बंद कर दिया, ताजो के सामने घड़ा ला कर रख दिया। ख़ुद थाली बजाने बैठ गई और नमाज़ों के वक़्फ़ों को छोड़कर शाम तक उससे जहेज़ और रुख़्सती के गीत सुनती रही और हंसते में रोती रही और रोते में हँसती रही। जब ताजो पर जिन्न आए तो लोगों को यक़ीन हो गया कि ताजो इन जिन्नों को वहीं मासी गुल बानो के हाँ से साथ लगा लाई है। फिर जिन्न अच्छी आवाज़, अच्छी सूरत और भरपूर जवानी पर तो आ’शिक़ होते ही हैं और ताजो में ये सब कुछ था। और वो जिन्नात के गढ़ में बैठी इन तीनों सिफ़ात का मुज़ाहिरा भी करती रही थी। उस पर-सितम ये कि ताजो बला की तर्रार थी और जिन्नात तर्रार लड़कियों की तो ताक में रहते हैं।
ताजो की तर्रारी का ये आ’लम था कि एक-बार वो लड़कियों के एक झुरमुट में पानी भर कर आ रही थी। मलिक नवरंग ख़ान की चौपाल के क़रीब से गुज़री तो किसी बात पर इस ज़ोर से हंसी जैसे कांसी की गागर पत्थरों पर लुढ़कती जा रही है। चौपाल भरी हुई थी मलिक नवरंग ख़ान को मीरासी की एक बच्ची की ये बेबाकी बुरी लगी। उसने कड़क कर कहा, “ए ताजो! लड़की हो कर मर्दों के सामने मर्दों की तरह हंसते हुए शर्म नहीं आती?” और ताजो ने अ’जीब तरह माफ़ी मांगी। वो बोली, “मलिक जी, सरदारियाँ क़ायम! मेरी क्या हैसियत के में हँसूँ। पीर दस्तगीर की क़सम! में जब हँसती हूँ तो मैं नहीं हँसती, मेरे अंदर कोई और चीज़ हँसती है!”
इस पर मलिक नवरंग ख़ान ने पहले तो हैरान हो कर इधर उधर लोगों की तरफ़ देखा और फिर बे इख़्तियार हंसते हुए कहा, “बिल्कुल बुल्हे शाह की काफ़ी कह गई मीरासी की लौंडिया।”
सो ऐसी तर्रार लड़की पर जिन्न न आते तो और क्या होता, जो आए और इस ज़ोर से आए कि बाप ने उसे चारपाई से बांध दिया। रोती पीटती बीवी को उसके पहरे पर बिठा दिया और ख़ुद पीरों फ़क़ीरों के पास भागा। किसी ने ताजो की उंगलियों के दरम्यान लकड़ियाँ रखकर उसके हाथ को दबाया, किसी ने नीले कपड़े में ता’वीज़ लपेट कर जलाया और उसका धुआँ ताजो को नाक के रास्ते पिलाया। किसी ने ताजो के गालों पर इतने थप्पड़ मारे कि उसके मुसामों में से ख़ून फूटकर जम गया। मगर ताजो की ज़बान से जिन्न चिल्लाता रहा कि मैं नहीं निकलूँगा, मैं तो तुम्हारी पीढ़ियों से भी नहीं निकलूँगा।
फिर किसी ने जहाने को मश्वरा दिया कि जिसने ताजो कि जिन्नों के हवाले किया है उससे भी बात कर देखो। मासी गुल बानो से भी इसका ज़िक्र करो, जहाना फ़ौरन मासी के पास पहुंचा उसे अपना दुखड़ा सुनाया और मिन्नत की मेरे साथ चल कर ताजो के जिन्न निकाल दो।
मासी बोली, “छः सात साल पहले तुमने उसकी मंगनी की थी अब तक शादी क्यों नहीं की?”
जहाने ने जवाब दिया, क्या करूँ मासी! लड़के वालों ने तो तीन चार साल से मेरे घर की दहलीज़ घिसा डाली है। पर उस लड़के को अब तक कबडडी का ढोल बजाना नहीं आया। वो तो बस बूढ़े बाप की कमाई से तुर्रे बाँधता है और कान में इ’त्र की फुरेरियां रखता है ताजो को तो वो भूका मार देगा।
मासी ने कहा! कुछ भी करे, ताजो की फ़ौरन शादी कर दो। जवानी की अँगेठी पर चुप-चाप अपना जिगर फूँकते रहना हर किसी का काम नहीं है और तुम्हारी ताजो तो बिल्कुल छलकती हुई लड़की है उसकी शादी कर दो दूल्हा आया तो जिन्नचला जाएगा।
और बिल्कुल ऐसा ही हुआ। जहाने को लोगों ने समझाया कि मासी जिन्नात की रग-रग से वाक़िफ़ है, उसके कहे पर अ’मल कर देखो। उसने दूसरे दिन ही शादी की तारीख़ मुक़र्रर कर दी और जब चारपाई पर जकडी हुई ताजो के हाथों में मेहंदी लगाई जाने लगी तो उसने कलिमा शरीफ़ पढ़ा और होश में आ गई। जिन्न ने दूल्हे की आमद का भी इंतिज़ार न क्या वो मेहंदी की ख़ुशबू से ही भाग निकला।
बे-इंतिहा ख़ौफ़ और बे-हिसाब दहश्त के इस माहौल में गुल बानो की ग़ैर मुतवाज़िन चाप का तवाज़ुन बच्चों और नमाज़ियों तक को चौंका देता था। मासी गुल बानो गली में से गुज़र रही है! मासी गुल बानो घर से निकली है... मासी गुल बानो वापस जा रही है... ये सब कुछ बरसों से हो रहा था, मगर हर-रोज़ ये एक ख़ौफ़नाक ख़बर बन कर पूरे गांव में गूंज जाता था।
फिर मुद्दतों बाद एक क़तई मुख़्तलिफ़ ख़बर ने गांव को चौंका दिया। सूरज नेज़ा सवा नेज़ा बुलंद हो गया जब ख़बर उड़ी कि आज मासी गुल बानो मस्जिद की महराब चूमने और सेहन में झाड़ू देने नहीं आई। मस्जिद की पिछली गली में एक हुजूम सा लग गया तो जहाने मीरासी ने बताया कि आज वो उसके घर में आग लेने भी नहीं आई। मगर मासी के पड़ोसियों ने गवाही दी कि हमेशा की तरह आज भी रात को गहरे कुएँ में से किसी के गाने की आवाज़ आती रही और थालियाँ बजती रहीं और घंगारियां छनकती रहीं। फिर किसी ने आकर ये भी बताया कि कल दिन ढले मासी गुल बानो मस्जिद के हौज़ में आधा घड़ा उंडेल रही थी तो उसके हाथ से घड़ा गिर कर टूट गया था और वो ठीकरियाँ समेटती जाती थी और रोती जाती थी। फिर मा’लूम हुआ कि जब शाम को वो मस्जिद में दीया जलाने आई तो सेहन के बाहर जूता उतारते हुए गिर पड़ी। मगर उठ कर उसने दीया जलाया और वापस चली गई और जब वो वापस जा रही थी तो रो रही थी।
तै पाया कि दिन का वक़्त है इसलिए तश्वीश की कोई बात नहीं है। सब लोग इकट्ठा मासी गुल बानो के हाँ चलें कि ख़ैरियत तो है। आख़िर वो आज घर से क्यों नहीं निकली।
उस वक़्त झक्कड़ चल रहा था, गलियों में मिट्टी उड़ रही थी और तिनके नन्हे बगूलों मैं चकरा रहे थे। हुजूम मस्जिद की गली में से गुज़रा तो तेज़ झक्कड़ ने मस्जिद की बेरी पर से ज़र्द पत्तों का एक ढेर उतार कर हुजूम पर बिखेर दिया। औरतें छतों पर चढ़ गईं और बच्चे हुजूम के साथ साथ दौड़ने लगे।
बिल्कुल बरात का सा मंज़र था, सिर्फ ढोल और शहनाई की कमी थी। बस हुजूम के क़दमों की ख़श ख़श थी या तेज़ हवा के झक्कड़ थे। जो वक़्फ़े वक़्फ़े के बाद चलते थे और उनके गुज़रने के बाद सेहनों में उगी हुई बेरियों और बकाइनों की शाख़ें यूं बे-हिस हो जाती थीं जैसे मुद्दतों से हवा के झोंके के लिए तरस रही हैं।
मासी गुल बानो के दरवाज़े तक तो सब पहुंच गए मगर दस्तक देने का हौसला किसी में ना था।
“मासी गुल बानो!” किसी ने पुकारा और झक्कड़ जैसे मुठियाँ कर और दाँत पीस कर चिल्ला उठा। मासी के घर का दरवाज़ा यूं बजा जैसे उस पर अंदर से एक दम बहुत से हाथ पड़े हैं। तेज़ हवा दरवाज़े की झिर्रियों में से बहुत सी तलवार बन कर निकल गई। झक्कड़ के इस रेले के निकल जाने के बाद हुजूम पर जैसे सकता तारी हो गया। फिर जहाने मीरासी ने हिम्मत की, वो आगे बढ़ा और किवाड़ कूट डाले।और जब वो पीछे हटा तो उसके चेहरे पर पसीना था और उसके नाख़ुन ज़र्द हो रहे थे।
फिर हुजूम को चीरती हुई ताजो आई और मासी के दरवाज़े की एक झिर्री में से झांक कर बोली, “मासी के कोठे का दरवाज़ा तो खुला है!”
मासी गुल बानो...! पूरा हुजूम चिल्लाया, मगर कोई जवाब न आया। अब के झक्कड़ भी न चला कि सन्नाटा ज़रा टूटता। सिर्फ एक टेढ़ा मेढ़ा झोंका बेदिली से चला और यूं आवाज़ आई जैसे एक पांव को घसीटती हुई मासी गुल बानो आ रही है।
बहुत से लोगों ने एक साथ किवाड़ की झिर्री से झाँका, और फिर सब के सब एक साथ जैसे सामने से धक्का खा कर पीछे खड़े हुए लोगों पर जा गिरे।
मासी गुल बानो आ रही है... सबने कहा!
अब के ताजो दरवाज़े से चिमट गई और बाप ने उसे वहां से खींच कर हटाया तो उसकी ऐसी हालत हो चुकी थी जैसे जिन्न आने से पहले उस पर तारी हुआ करती थी।
फिर दरवाज़े पर कुछ ऐसी आवाज़ आई जैसे अंधेरे में कोई उसकी ज़ंजीर तक हाथ पहुंचाने की कोशिश कर रहा है। अचानक ज़ंजीर खुली, मेहंदी की ख़ुशबू का एक रेला सा उमडा। सामने कोई खड़ा था, मगर क्या ये मासी गुल बानो ही थी?
उसने सुर्ख़ रेशम का लिबास पहन रखा था। उसके गले में और कानों में और माथे पर वो ज़ेवर जगमगा रहे थे जो आजकल बाज़ारों की पटड़ियों पर बहुत आम मिलते हैं। उस के बाज़ू कोहनियों तक चूड़ीयों से सजे हुए थे और उसके हाथ मेहंदी से गुलनार हो रहे थे।
मासी गुल बानो दुल्हन बनी खड़ी थी... “तुम्हें तो शाम के बाद तारों की छाँव में आना चाहिए था।”
मासी गुल बानो एक अ’जीब सी आवाज़ से बोली। ये मासी गुल बानो की अपनी आवाज़ नहीं थी। ये उस के अंदर से कोई बोल रहा था, और वो गांव के इस हुजूम से मुख़ातिब नहीं थी वो बरात से मुख़ातिब थी।
“मासी!” ताजो ने हिम्मत की और एक क़दम आगे बढ़ाया।
मासी गुल बानो की नज़रें ताजो पर गड़ गईं, उसने ताजो को पहचान लिया था। साथ ही उसकी आँखों में कुछ ऐसी लोट सी फैल गई जैसे वो समझ गई है कि उसके दरवाज़े पर बरात नहीं आई है। फिर उस के हाथ से लाठी छूट गई, उसने दरवाज़े को अपने हाथों की हड्डीयों से जकड़ने की कोशिश की मगर फिर दरवाज़े पर ढेर हो गई।
हुजूम की दहश्त एक दम ख़त्म हो गई। लोग आगे बढ़े और मासी गुल बानो को उठा कर अंदर ले गए।
पूरा कोठा मेहंदी की ख़ुशबू से भरा हुआ था। चारपाई पर साफ़सुथरा खेस बिछा था, चार तरफ़ रंग रंग के कपड़े और बर्तन पीढ़ियों और खटोलों पर दुल्हन के जहेज़ की तरह सजे हुए थे। एक तरफ़ आईने के पास कंघी रखी थी, जिसमें सफ़ेद बालों का एक गोला सा अटका हुआ था। मासी को साफ़ सुथरे खेस पर लिटा दिया गया और उसे उसी के रेशमी दुपट्टे से ढांक दिया गया।
तब पीतल की कटोरियाँ सी बजने लगीं, ज़ार ज़ार रोती हुई ताजो, दुल्हन की रुख़्सती के गीत गाने लगी और हुजूम जिन्नों की तरह चीख़ चीख़ कर रोने लगा।
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