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मशीन गर्दी

आग़ा गुल

मशीन गर्दी

आग़ा गुल

MORE BYआग़ा गुल

    पोस्टल कॉलोनी में करीम का ढाबा लुट ख़ाना कहलाता था। दुनिया जहां के बेकार, मुलाज़मत के मुतलाशी दरख़्तों की छाँव में पांव पसारे ऊँघने वाले ग़रज़ कि सब ही चले आते। लाठी टेकते पेंशनर भी जवानी की यादें ताज़ा करने महीने में एक बार ज़रूर ज़ियारत के लिए आते। यहां कड़क चाय से लुत्फ़ अंदोज़ होते हुए वो अपने साथियों के साथ हंसते खेलते और चंद घंटों के लिए दोबारा जवान हो जाया करते। पेंशन की रक़म लेकर बेरंग काँपती टांगों वाली मेज़-कुर्सियाँ और खरी चारपाइयों पे चाय पीने का अजब सुरुर था। कुछ लोग लडडू से जी बहलाते तो बा'ज़ एक ताश फेंटने लगते। करीम का लुट ख़ाना अफ़्वाहों का मर्कज़ और जासूसी का अड्डा भी था। डाकखाने की सारी ख़बरें यहीं से मिल जाया करतीं। महकमा डाक की अज़मत-ए-गुज़श्ता के क़िस्से भी दोहराए जाते जब मौसमियात के अलावा कुनैन की फ़रोख़्त और महकमा तार टेलीफ़ोन भी उन्हीं के पास हुआ करता था। क्या भला दौर था कि हर एक तार पे जो दफ़्तरी औक़ात के बाद आया करती एक रुपया लेट फ़ीस मिला करती। तनख़्वाह से कहीं ज़्यादा तो लेट फ़ीस हुआ करती जिसके बाइस पोस्ट मास्टर दो तीन शादियां रचा लिया करते। पोस्ट मास्टर Morse पे गिट गिट तारें भिजवाया करते। मौसम का हाल भिजवाने का अलग से मुआवज़ा मिला करता। बड़ी ही ख़ुशहाली का दौर था। महकमा डाक की अहमियत का ये आलम था कि एक बार महाराजा बड़ोदा की बग्घी रेलवे स्टेशन पे ज़रा ताख़ीर से पहुंची। उसके अफ़सरों ने लपक कर गार्ड को ट्रेन रवाना करने से मना किया ताकि महाराजा सवार हो सके। ये एक मेल ट्रेन थी। सरकार को इल्म हुआ चंद मिनट ताख़ीर की तो महाराजा से जवाब तलबी हुई कि उसने सरकार इंग्लिशिया की डाक क्यों रोकी? महाराजा ने लाख जवाज़ पेश किए मगर सरकार मानी और उसे तख़्त से माज़ूल कर के उसके बेटे को तख़्त नशीन कर दिया कि जो शख़्स डाक की तर्सील में मुज़ाहिम हो वो रियासत चलाने के क़ाबिल नहीं। ऐसी कहानियां सुनकर सामईन को अपनी अज़मत-ए-गुज़शता का अंदाज़ा तो होता मगर वो माज़ी को यूं देखते जैसे अफ़्यून चाटने वाले बयासी (82) साला बहादुर शाह को सत्रह साला जवाँबख़्त का कटा हुआ सर दिखाया गया था। एक नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त तकलीफ़ और अज़ीयत होती। डाकखाने वालों के पेश-ए-नज़र माज़ी ही था। हाल था मुस्तक़बिल। एक गंभीर सी फ़िज़ा में वो जी रहे थे। वहीं पे एक रोज़ ख़बर मिली कि अनक़रीब एक नई मशीन बड़े डाकख़ानों में लग जाएगी। जो डाक की तक़्सीम का तमाम काम ख़ुद ही करेगी। पोस्ट मैनों में खलबली सी मच गई। वो तो अपने बेटों की पैकर, कैंडिडेट पोर्टर और पोस्टमैन लगवाने के चक्कर में थे। यूं तो उनकी अपनी ही नौकरी ख़तरे में पड़ जाती। मशीनों की चूँकि ज़बान नहीं होती वो किसी भी लिसानी गिरोह का हिस्सा नहीं बन पातीं। लिहाज़ा वो डोमिसाइल सर्टिफ़िकेट के चक्कर से भी आज़ाद ही रहती हैं। लुट ख़ाने में खलबली मची तो पोस्टमैन यूनियन के सदर इल्म दीन को सबने आड़े हाथों लिया जो निहायत इन्हिमाक से रफ़ीक़ों के हमराह चाय की शर्त के बदले लूडो खेल रहा था। उस डाक बांटने वाली मशीन के बारे में जान कर तो उसे भी कोफ़्त हुई। यूं तो छांटी भी हो सकती है ताहम उसकी तसल्ली से पोस्ट मैनों का हौसला बज़ाहिर तो बढ़ा ही मगर दिल को एक धड़का सा लगा था। अगले ही रोज़ उन्होंने चीफ़ पोस्ट मास्टर से मीटिंग मांगी जो फ़ौरन ही मिल गई क्योंकि शोरिश का अंदेशा था इंतिज़ामिया मुआमला ख़ुश उस्लूबी से तय करने के हक़ में थी। यूं भी इंतिज़ामिया यूनियन की युरिश में पसपाई इख़्तियार करती, कहने को तो महकमा फ़ौज और पुलिस की तरह Essential Services Department के ज़ुमरे में आता। मगर हुकूमत ने वोट बैंक बढ़ाने के लिए उन्हें मज़दूर यूनियन बनाने की इजाज़त दे रखी थी। स्टाफ़ किसी कारख़ाने का मज़दूर था सरकारी मुलाज़िम था और ही चीफ़ पोस्ट मास्टर Collective Bargaining Agent से औक़ातकार और मुशाहिरे में कमी बेशी की इजाज़त दे सकता था। अजब सा तमाशा था। सभी उस मज़ाहिया ड्रामे में बराबर के किरदार थे। यूनियन की रसाई ऊपर तक थी। सियास्तदान भी डाकखाने वालों को वोट बैंक के तौर पे इस्तिमाल किया करते। हाज़िर सर्विस, रिटायर्ड, माँ-बाप, जवान औलाद ग़र्ज़ कि सभी के वोट थे। डाकखाने तो वोटों की दुकान हुआ करते हैं। जलसों की रौनक़ बढ़ाने के लिए बैनर्ज़ के अलावा उनकी भी ज़रूरत हुआ करती है। चीफ़ पोस्ट मास्टर यूसुफ़ ने यूनियन को ख़ुश आमदीद कहा। उनके तेवर क़ाबू में भी रखने के पेश-ए-नज़र सब ही के लिए सब्ज़ चाय भी मंगवा डाली ताकि फ़िज़ा दोस्ताना ही रहे। अली दीन का लहजा मीठी चाय पीते हुए भी दुरुश्त रहा।

    चीफ़ साहब! आप ऐसी मशीन लगा रहे हैं जो पोस्टमैनों का काम करेगी। हमारा क्या बनेगा? हम हड़ताल कर देंगे। यूसुफ़ जानता था कि हम हड़ताल कर देंगे। बतौर रदीफ़ इस्तेमाल होता है ऐसी गुफ़्तगू में। उसने तसल्ली दी।

    ये मशीन सिर्फ़ डाक वसूल करेगी और ट्रांसमिशन करेगी। बाक़ी काम तो पोस्टमैन ही करेंगे। आप साहिबान देख ही लें कि मशीन की टांगें ही नहीं हैं। उन्हें मशीन दिखलाई गई वो एक डिब्बा नुमा मशीन थी।

    कहते हैं कि एयर कंडीशन में भी काम करेगी।

    यूसुफ़ ने इक़रार किया, हाँ भई, फ़र्स्ट जनरेशन है, गर्मी में ये काम नहीं कर सकती।

    यूनियन एक बार फिर मुज़्तरिब हो गई, और हम जो डाक तक़्सीम करते हैं। तुर्बत में और सेवी में बावन डिग्री में जबकि लू चलने के बाइस जहाज़ भी नहीं उतर पाते। ज़मीन अंगारा भी होती है गर्मियों में। सर्दियों में ज़ियारत और कान महतर ज़ई में जबकि दर्जा-ए-हरारत मन्फ़ी पंद्रह डिग्री से नीचे गिर जाता है, हम तब भी डाक तक़्सीम करते हैं। ये कौन सा इन्साफ़ है भला?

    यूसुफ़ बदस्तूर मानी ख़ेज़ अंदाज़ में मुस्कुराता रहा, भई, आप तो अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात हैं। आपकी क्या बात है।

    अलमदीन ने अपने ख़स्ता हाल साथियों पे निगाह दौड़ाई, मेहनत-मशक़्क़त और ग़ुर्बत ने उन्हें वक़्त से पहले ही बूढ़ा बना दिया था, ज़िंदगी निचोड़ ली थी, उनके जिस्मों से उनकी आँखों से। मगर वो भन्ना गए, अशरफ़-उल-मख़्लूक़ी अपने पास ही रखें। हमें और हमारे बच्चों को पेट भर खाना तो दें।

    पोस्ट मास्टर से सब्र हो सका, आप साहिबान कुफ़्र बकें। इन्सान अशरफ़-उल-मख़लूक़ात ही है। यही हमारा अक़ीदा है और लगें पोस्टमैन। जाएं फ़ैक्ट्री लगा लें।

    स्टाफ़ की मुख़ालिफ़त के बावजूद देखते ही देखते चंद ही दिनों में बुकिंग हाल के अंदर शीशे का एक एयर कंडीशन केबिन बन गया, यूं इस फैक्स मशीन ने काम शुरू कर दिया। शहर के चार नई डिलेवरी ज़ोंस बने। चार पोस्टमैनों को नए मोटर साईकल देकर फैक्स मशीन की डयूटी पर लगा दिया। जबकि दीगर पोस्टमैन अपनी Beats पर उम्र रसीदा खड़ खड़ाती साइकलों पे ही निकला करते। एक नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त तज़ाद था। फैक्स मशीन ने एक नई क्लास एक वी.आई.पी. कल्चर मुतआरिफ़ करा दिया था। जिसके बाइस सभी का दिल जलता रहता। बख़्शू मामा की साँवली सी लौंडिया बानो को उस ठंडे केबिन में फैक्स मशीन के साथ बिठा दिया गया था। दिन भर वो इस शाहाना और बहुत ही आरामदेह केबिन में ठाठ से काम करती इशवा तराज़ियाँ करती जबकि पोस्टमैन लू में झुलसी हुई आग उगलती सड़कों पे मिर्ज़ा की बाईस्किल पे डाक तक़सीम करते फिरते। सर्द कमरे में सजी दूधिया मशीन और साँवली बानो को तंज़िया नज़रों से देखते हुए पोस्टमैन गुज़रा करते तो उनके दिल पे घूँसा पड़ता। उनका बस चलता तो फैक्स बाहर फेंक आते और शीशा तोड़ के पूरे काउंटर हाल के लिए आसूदगी के मवाक़े पैदा करते। बानो के बारे में नाज़ेबा बातें भी करते। एक रात लूडो की गेम पे रक़म हार के अलम दीन भारी क़दमों से घर आया और बिस्तर पे ढेर हुआ तो बीवी ने तवज्जो दिलाई कि पंखा ख़राब हो गया है। पंखा दम साधे पर फैलाए ख़ानदान से लातअल्लुक़ रहा। तो उसे बच्चों पे तरस आया ही मियां-बीवी पे जो मन की आग में भी झुलसे ही जा रहे थे। गुज़र बसर बमुश्किल हो रही थी, बाज़ार में क़ीमतें भी बढ़ी जा रही थीं। अलम दीन पे इन्किशाफ़ हुआ कि मशीनों का दिल नहीं हुआ करता। वर्ना इतने बरस साथ रहने पे कुछ तो इस कम्बख़्त में मुरव्वत होती। जब नई नई शादी हुई थी तो यही पंखा साइक्लोपस वाली आँख से उन्हें ताड़ता रहता। इस चमकती हुई आँख में अपनी शबीह देखकर दुल्हन शर्मा जाया करती। मगर पंखा अफ़सरों की मानिंद कठोर और बेमुरव्वत था। अगर ये महकमा डाक का अफ़सर होता अगले ही रोज़ उसके ख़िलाफ़ अख़बारी बयान जारी कर देता। जिससे उसकी सिट्टी गुम हो जाती और वो सहम कर ख़ुद ही घूमने लगता। मगर मशीनों को ब्लैक मेल नहीं किया जा सकता। और फिर अलम दीन जला-भुना घर आया तो उसने सेहन से डंडा उठाया और पंखे को ग़ुस्से में पीट ही डाला, वो इस क़दर गरजा कि पड़ोसी दौड़ पड़े, उन्होंने बमुश्किल पंखे को अलम दीन से छुड़ाया जो फ़ौजियों की देखा देखी पंखे को कोड़े ही मारे जा रहा था। पड़ोसियों को अलम दीन की ज़ह्नी हालत पे शुबहा होने लगा, वो उसे लुट ख़ाना ले गए। कड़क चाय पी कर अलम दीन के हवास दुरुस्त हुए वो पशेमान भी हुआ कि स्टाफ़ में बात फैली कि वो पागल और जुनूनी है तो हाथ से सदारत भी जाएगी। अगले रोज़ डाक बाँटते वो प्रोफ़ेसर जलील के हाँ पहुंचा। अगरचे प्रोफ़ेसर जलील यूनीवर्सिटी के डीन थे। इक्कीस (21) ग्रेड में थे फिर भी एक दुरवेशी उनकी तबीयत का ख़ासा थी।

    अलम दीन ने ख़त और बिजली का बिल उनके हवाले किया और मौक़ा-ए-ग़नीमत जानते हुए दिल में उबलते सवाल उगल दिये।

    साब, लोग कहते हैं इन्सान अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात है। मशीनें उनकी ग़ुलाम हैं। जबकि मुझे यूं लगता है कि हम मशीनों के ग़ुलाम हैं। फैक्स मशीन एयर कंडीशन में काम करती है। जबकि मैं इन तवे जैसी गर्म सड़कों पे डाक बाँटता हूँ। हम में से कौन अफ़ज़ल है? मैं या मशीन?

    प्रोफ़ेसर ने अलम दीन के लिए शर्बत मंगवाया, इतना सोचा करो, ख़ालिक़-मख़्लूक़ से बड़ा होता है। इन्सान ने मशीन तख़्लीक़ की है वो उनसे यक़ीनन बरतर है।

    अलम दीन कराहा, मैं काम से इनकार नहीं कर सकता जबकि फैक्स कर सकती है। उसके बीवी-बच्चे भी नहीं। अफ़सोस कि उस का पेट भी नहीं जिसे दिन में तीन बार भरना पड़ता हो।

    प्रोफ़ेसर ने प्यार भरे अंदाज़ में डाँटा, होश के नाख़ुन लो अलम दीन! और असल सनअती इन्क़िलाब में ज़्यादा मशीनें ईजाद हुई, मक़्सद था बेहतर सहूलतें मुहय्या करना। नौ-ए-इन्सानी की ख़िदमत करना, रात-दिन मगर रफ़्ता-रफ़्ता सरमायादाराना निज़ाम में इन्सान ख़ुद एक प्रोडक्ट बन गया इन्सान भी क़ाबिल-ए-फ़रोख़्त हो गया। वो ख़ुद भी मशीनों का ग़ुलाम बनता चला गया। मशीनें महंगी हो गईं और इन्सान सस्ते।

    अलम दीन मायूस हो गया, हम मशीनों के ख़िलाफ़ बग़ावत भी तो कर सकते हैं। हम आज़ाद भी तो हो सकते हैं।

    प्रोफ़ेसर को महसूस हुआ कि अलम दीन में बग़ावत जन्म ले रही है। मुफ़्त में चट्टान पे माथा मार रहा है। क्या अजब कि मारा ही जाये।

    देखो अलम दीन मशीनों के साथ रह के हम भी मशीनें बन चुके हैं। हमारे इन्सानी जज़्बात कब के ख़त्म हो चुके हैं। मशीन एनर्जी पर चलती है। क़ुदरत और अक़ीदे से भी इसका तअल्लुक़ नहीं। हम भी लालच और ख़ौफ़ के फ़्यूल से चलते हैं।

    अलम दीन थका-मांदा घर आया तो देखा कि बीवी ने पंखा ठीक करवा लिया था जो अब घूं घूं कर के चल रहा था। उसकी गर्दिश से राहत सी महसूस हो रही थी। मुँह-हाथ धो कर वो लुट ख़ाना में चला आया। जहां हस्ब-ए-मामूल रौनक़ थी। ग़ुर्बत-ओ-अफ़्लास के मारे हुए इन्सान ताश और लडडू में पाँच दस रुपये जीत कर यूं चहकने लगते जैसे गोलकुंडा का ख़ज़ाना हाथ लगा हो। दूर लियाक़त ड्राईवर, साहब की गाड़ी धोने के बाद पालिश लगा रहा था। अलम दीन को ख़याल आया कि वो ख़ुद भी तो हर हफ़्ते अपनी साईकल की सफ़ाई करता है। तेल देता है। सारी दुनिया मशीनों की ग़ुलाम हो कर रह गई है। लुट ख़ाने की चारपाई पे लेट कर वो आँखें मूँदे सोचता चला गया कि इसी कमीना सिफ़त फैक्स मशीन को हबीब नाले में क्यों फेंक आए। जहां हीरौंचियों का बसेरा है। वो ख़ुद ही मशीन को ठिकाने लगा देंगे। इस एहसास-ए-तमानियत और फ़त्हमंदी से वो सरशार हो गया। उसको लगा वो वाक़ई अशरफ़-उल-मख़्लूक़ात है।

    और फिर रात गए डाक का थैला बग़ल में दाबे वो चुपके से काउंटर में दाख़िल हुआ। दीवार फाँदने और लात मार के बोसीदा खिड़की का पट खोलने में उसे कोई दुशवारी पेश आई थी। एयर कंडीशन बंद था। मशीन भी सोई या मरी पड़ी थी। उसने एक झटके से दोनों तारें खींच निकालीं और मशीन को डाक के थैले में डाल लिया। जी तो चाहता था कि पैरों में फूटबाल बना ले। ठोकरों पर रख ले। मगर लोड शेडिंग का फ़ायदा उठाते घर आके ही दम लिया। डाक का थैला उसने चारपाई के नीचे छुपा दिया। ख़ुद भी अपनी उसी चारपाई पे जा लेटा। वो दिल ही दिल में खिला जा रहा था। मौक़ा पाते ही फैक्स मशीन को हबीब नाले में फेंक आएगा। बीवी से रहा गया।

    बहुत दिनों बाद तुम ख़ुश दिखाई दे रहे हो, कोई ओवर टाइम मिला है।

    अलम दीन हंस दिया, नहीं, मैंने अपने दुश्मन का सिरा तार दिया है।

    इस फ़त्हमंदी से वो मग़्लूब हो रहा था। ठाठ से फैक्स की लाश के ऊपर सोया रहा। मगर मुँह अँधेरे पहलू में कचोके दे के बीवी ने ज़बरदस्ती जगाया।

    देखो, बाहर कोई मुसलसल दरवाज़ा पीटे ही चला जा रहा है। अलम दीन के हाथों के तोते उड़ गए। छापा पड़ गया। ज़ह्न में एक गूंज हुई। मगर चार नाचार बाहर तो निकलना ही था। रमज़ान और जुमा चौकीदार को देखकर उसके हवास बजा हुए।

    किसी ने फैक्स मशीन चोरी कर ली है, अब हमारा क्या बनेगा। दोनों रूहांसे हो रहे थे। फ़र्त-ए-ख़ौफ़ से लर्ज़ां थे।

    तो मैं क्या करूँ? ख़ौफ़ दूर होते ही वो उखड़ हो गया। मेरा क्या ताल्लुक़ है, चौकीदार तो तुम हो।

    तुम्हारा ताल्लुक़ तो है। जुमा ने फ़र्याद की तो अलम दीन के हाथ पांव बेजान से होने लगे। चेहरे का रंग फ़क़ हो गया जो अंधेरे के बाइस दोनों चौकीदारों को दिखाई दिया, तुम हमारे सदर हो। यूनियन साथ दे तो हम कहाँ जाएंगे।

    वो बड़ी ही नख़रे बाज़ मशीन थी, एयर कंडीशन के बग़ैर काम ही नहीं करती थी। चलो जान छूटी।

    रमज़ान मशीन की वकालत करने लगा, हमारे सारे हाकिम भी तो एयर कंडीशन घरों में रहते हैं। उनके दफ़्तर भी एयर कंडीशन हैं और फिर ये मशीन झूट भी नहीं बोलती, रिश्वत भी नहीं लेती इन्सानों को ग़ायब भी नहीं करती भत्ता भी नहीं लेती।

    अलम दीन पे एक नया सूरज तुलूअ हुआ। उसने तो कभी भी इस पहलू पे ग़ौर नहीं किया था। वो हांप सा गया। उन्हें लिए लुट ख़ाना पे चला आया क्योंकि दो कमरे के क्वार्टर में जगह कहाँ थी बिठाने की। बीवी की मुतवहि्ह्श आँखों ने मजबूर कर दिया था कि जाते-जाते तसल्ली देता जाये। कुछ नहीं, बस इन दोनों का ज़ाती मसला है यूनियन का सदर जो हूँ। मदद मांगने आए हैं, अलम दीन ने सीना फुला लिया। पोस्टल कॉलोनी के गेट पे भी एक चौकीदार कहने को तो मौजूद ही रहता। हालाँकि वो अख़बार के दफ़्तर में बतौर चपरासी काम करता था। लेकिन चोरी कभी नहीं हुई। लिहाज़ा लुट ख़ाना का सालख़ुर्दा फ़र्नीचर भी कोई ज़रीफ़ या चोर या उठाई गीरा ग़ायब करता। वो तीनों भी मदक़ूक़ कुर्सियों पे बैठे।

    कुछ करो अलम दीन भाई, दफ़्तर खुलने से पहले।

    अलम दीन ठसक दिखाने लगा, क्या करूँ, मेरे पास अल्लादीन का चिराग़ तो नहीं। सोचता हूँ कुछ।

    जुमा ने भी फ़र्याद की, अलम दीन अब तो कमरुद्दीन कारेज़ और आवारान से ख़त फ़ौरन पहुंच जाता है। तफ़्तान से पाँच दिनों में डाक आती थी। अब यूं चुटकी बजाते जाती है। कोई कम्बख़्त बेच खाना चाहता है, हमारी रोज़ी रसान को।

    अलम दीन ने आँखें दिखाईं, अबे अक़्ल के अंधे, मालिक रोज़ी रसान है।

    रमज़ान ने घबरा के मुदाख़िलत की मबादा अलम दीन बिदक कर साथ देने से इनकार ही कर दे, भय्या! देखने में तो मशीन ही मुलाज़िमत करती है, कार पे ड्राईवर फैक्स पर बानो, हर मशीन एक आदमी को नौकरी देती है।

    सूरत-ए-हाल ख़ासी गंभीर थी। नायब सदर और जनरल सेक्रेटरी कॉलोनी से बाहर रहते थे। वर्ना दोनों उनके दरवाज़े पे होते, कॉलोनी में रहने के अपने फ़वाइद हैं। चोरी की बिजली मुफ़्त का पानी, मगर ऐसे मसाइल भी तो हैं।

    अलम दीन ने सिगरेट सुलगाई तो रमज़ान फट पड़ा, हमारी नौकरी चली जाएगी। क्वार्टर भी हमसे ख़ाली करवा लेंगे। हमारी जवान बेटियां हैं। कहाँ जाएंगे। सर छुपाने का ठिकाना भी तो नहीं।

    अलम दीन का दिल पसीजा, अरे चुप रह सोचने तो दे। एक फैक्स की मौत से दो घर उजड़ जाएंगे। ये तो बड़ा ज़ुल्म होगा। मगर फैक्स का ज़ुल्म भी तो नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त ही है। अलम दीन को सोचते देखकर दोनों परेशान हाल क़दरे मुतमइन हुए। पुर उम्मीद नज़रें उसके चेहरे पर जमाए रहे जो अंधेरे के बाइस ग़ैर वाज़िह था। ह्यूला सा ही दिखाई दे रहा था।

    तुम दोनों यहीं बैठो और दुआ करो। मैं अपने मुर्शिद का वज़ीफ़ा जा के पढ़ता हूँ। आध घंटे बाद लौटूँगा, फिर चलेंगे। देखना कि जिन्नात मशीन वहीं रख जाएंगे।

    उन पे एक एक लम्हा भारी था। आध घंटा से क़ब्ल ही अलम दीन लौट आया, सांस चढ़ा हुआ था। दाएं हाथ में तस्बीह थी जिसके दाने गर्दिश कर रहे थे, बाएं हाथ की अंगुश्त होंटों पर रख कर ख़ामोश रहने का इशारा किया, साथ ही हाथ से डाकखाने की राह दिखाई।

    चौकीदारों ने यके बाद दीगरे दरवाज़े खोले और काउंटर हाल में दाख़िल हुए बाहर घुप अंधेरा था। अंदर लोड शेडिंग का दौरानिया था। रमज़ान ने दियासलाई जलाई और इसके साथ ही वो तीनों फ़र्त-ए-मसर्रत से सज्दा रेज़ हो गए। फैक्स मशीन हस्ब-ए-साबिक़ बुकिंग काउंटर की रौनक़ बढ़ा रही थी।

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