स्टोरीलाइन
यह कहानी एक ऐसी दास्तान बयान करती है जिससे हमारे समाज की महान और प्रसिद्ध प्रेम कहानियों ने प्रेरणा ली है। चाहे वह शीरीं फ़रहाद हो या फिर हीर-राँझा। इस तरह की सभी कहानियों की प्रेरणा मदन सेना, धरम दत्त और समुंद्र दत्त की कहानी रही है। मदन सेना, जिससे प्रेम तो धरम दत्त करता है, मगर उसकी शादी समुद्र गुप्त से हो जाती है।
तब वैताल ने कहा, महाराज! अगले ज़माने में एक राजा था जिसका नाम वीरा बाहु था। अनंगपुरा उसकी राजधानी थी और दूर दूर के राजे उसको बाज देते थे। सात समुंदर पार के सौदागर छोटे-छोटे जहाज़ों में बैठ कर भारत दर्शन में आते और उसकी राजधानी से मोती, मसाले, हीरे और न जाने क्या-क्या ख़रीद ले जाते। ब्योपार की बरकत से अनंगपुरा के वैश बहुत अमीर होने लगे और अनंगपुरा के वैश सौदागरों के मकान रूप और सफ़ाई में दूसरे मुल्कों के राजों की ड्योढ़ियों का मुक़ाबला करने लगे। उन्हीं देश अमीर सौदागरों में से एक का नाम अर्थावत था। उसके एक बेटा था, अनमोल हीरे जैसा, जिसका नाम धन दत्त था। एक बेटी थी जो दूसरी तमाम लड़कियों में यूँ दमकती जैसे कंकरों में सच्चा मोती। इसका नाम मदन सिना था।
अर्थावत अपने बेटे धन दत्त को साथ लेकर समुंदर किनारे के किसी शहर को चला जाता था जहाँ अफ़्रीक़ा और रोम देस के सौदागर माल ख़रीदने आते थे। उसकी बेटी मदन सिना अपनी सखियों, सहेलियों के साथ बाग़ में खेला करती।
सावन का महीना आया। मदन सिना और उसकी सखियाँ झूलती और गाती जाती थीं। आकाश बादल की रज़ाई ओढ़े हल्की-हल्की फुवार बरसा रहा था। मदन सिना और उसकी सखियाँ पंछियों की तरह चहचहा रही थीं। इतने में हवा का एक झोंका आया और बड़ी-बड़ी बूँदें दरख़्तों से गिरने लगीं। किसी के क़दमों की चाप सुनाई दी और धर्म दत्त को पास खड़ा देख कर मदन सिना की एक सखी बोल उठी, तेरा दोस्त यहाँ नहीं। वो तो अपने पिताजी के साथ समुंदर किनारे के शहर को गया है।
मदन सिना ने देखा कि धर्म दत्त उसे बराबर घूर रहा है। शर्म से उसने घूँघट काढ़ लिया। धर्म दत्त उसी तरह गुम सुम खड़ा रहा जैसे वो अंधा, गूँगा या बहरा है। बेचारा क्या करता। इतनी देर में प्रेम के तीरों ने उसकी समझ बूझ को छलनी कर दिया था। वो सौदागर बच्चा भला क्या जानता था कि उसके दोस्त धन दत्त की बहन मदन सिना जवान होकर ऐसी सुंदर निकलेगी। वो एक पागल की तरह मदन सिना को घूर ही रहा था कि मदन सिना और उसकी सखियाँ चिड़ियों की तरह आपस में चहचहाईं, खिलखिलाईं और पंछियों की तरह फिर से उड़कर मदन सिना समेत मकान में कहीं ग़ायब हो गईं।
जब धर्म दत्त की आँखों ने मदन सिना को ओझल पाया तो उसके दिल को बड़ा धचका लगा। गुम सुम वो अपने घर वापस पहुँचा और सुबह तक चाँद की किरनों के ज़ख़्म सहता, चाँदनी के भाले खाता, बिछौने पर करवटें बदलता रहा।
नूर के तड़के उठ के वो सीधा अर्थावत के बाग़ की तरफ़ चला। अब भी आसमान से हल्की फुल्की फुवार बरस रही थी और पत्तियों के कटोरों में पानी और ओस में इम्तियाज़ मुश्किल था। अभी अनंगपुरे से रात के अंधियारे का बादल उठने नहीं पाया था। बाग़ में मदन सिना अकेली थी। बालों के लिए फूल चुनने आई होगी। उसकी सहेलियाँ मालूम नहीं अपने-अपने घरों में थीं या अभी मदन सिना ही के यहाँ पड़ी सो रही थीं। शायद ओस और सुबह-ए-काज़िब के पानी की बूंदों और हवा की भीनी-भीनी ख़ुशबू और पत्तों में गिरगिटों की सरसराहट से उन्हें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। उनके हृदय अभी जागने नहीं पाए थे या शायद जाग-जाग के सो गए थे।
अकेली मदन सिना ने फूल तोड़ने में फिर पैरों की चाप सुनी और उसका दिल धक-धक करने लगा और फिर उसने किसी को छलाँग मारते देखा और कांटों की बाढ़ सरसरा कर रह गई।
फिर मदन सिना ने धर्म दत्त को अपने पास खड़ा पाया। इस तरह कि गोया वो उसे अपने हाथों में जकड़ लेगा और ख़ौफ़ से उसका जिस्म कपकपाने लगा। उसके हाथों से शबनम और पानी से धुले फूल गिर गए और बारिश की हल्की ठंडी फुवार में भी उसकी मांग के नीचे पेशानी पर पसीने के गर्म-गर्म क़तरे नमूदार हुए उसने चीख़ना चाहा मगर चीख़ न सकी। इस डर के मारे कि उसकी दासियाँ यहाँ उसे उस नौजवान के पास इस वक़्त देखेंगी तो उसे निर्दोष न समझेंगी और क्या उसकी सखियाँ उसे ये कह के बदनाम न करेंगी कि वो ख़ुद बड़ी रात गए या इतने तड़के धर्म दत्त से मिलने आई होगी।
इतने में धर्म दत्त के हाथ जो उसे भिंचने के लिए उठ रहे थे, नीचे गिरे, धर्म दत्त इसके चरनों में गिर पड़ा, मदन सिना तू मेरी न हुई तो मैं मर जाऊँगा।
मदन सेना ने उससे कहा, धर्म दत्त, ये आज तुझे क्या हो गया। मालूम है में कुंवारी हूँ और मेरे पिता ने मेरी मंगनी एक दूसरे देश के सौदागर समुद्र दत्त से की है और थोड़े ही दिनों में उससे मेरा ब्याह होने वाला है।
धर्म दत्त ज़मीन से उठ खड़ा हुआ और दाँतों से अपना होंट काट के उसने कहा, जो होना है हो जाए। तेरे बग़ैर में ज़िंदा नहीं रह सकता। उसके हाथ फिर उठे। मदन सिना को भींचने के लिए और वो ख़ौफ़ से फिर थर-थर काँपने लगी। कहीं ये ज़बरदस्ती न करे। बदनामी के डर से वो चिल्ला भी नहीं सकती थी। उसने जल्दी से पीछे हट कर कहा,
सुन तो, पहले मेरा ब्याह हो जाने दे। मेरे पिता की तमन्ना तो पूरी हो जाए कि वो मुझ कुंवारी को दुल्हन बनती देखें। फिर मैं तेरे पास ज़रूर आऊँगी क्योंकि तेरे प्रेम ने मेरे दिल को मोह लिया है। ये कह कर वो दोनों हाथों से उसे रोकती हुई और पीछे हटी।
रास्ता रोक के धर्म दत्त ने कहा, मैं ऐसी औरत से प्रेम नहीं कर सकता जो पहले किसी और मर्द से हम आग़ोश हो चुकी हो।
और मदन सिना ने डर कर कहा, अच्छा तो मैं ब्याह होते ही फ़ौरन तुम्हारे पास आऊँगी और उसके बाद अपने पति के पास जाऊँगी।
इसपर भी धर्म दत्त ने उसका हाथ पकड़ ही लिया और उस वक़्त तक नहीं छोड़ा जब तक मदन सिना ने भगवान की क़सम खाके अपने वादे की तौसीक़ नहीं की। तब उसने उसका हाथ छोड़ा और छलाँग मार के कांटों की बाड़ कूद गया।
पानी की फुवार रुक गई थी। मदन सिना का दिल जो धक-धक कर रहा था, अब बैठने लगा। वो बहुत उदास-उदास घर के अंदर गई।
जब ब्याह का दिन आया और सब रस्में पूरी हो चुकीं तो मदन सिना अपने पति समुद्र दत्त के घर आई। ख़ुशियों में दिन गुज़रा और जब अकेले में उसके पति ने उसे अपने आग़ोश में जकड़ना चाहा तो वो तड़प के निकल गई और धीरे-धीरे रोते और आँसू पोंछते हुए सर झुका कर उसने कहा, मेरे पति, मेरे बालम, मेरे नाथ, मैं तुझे अपनी जान से ज़्यादा चाहती हूँ। लेकिन मुझे जो कहना है सुन उठ और वादा कर कि तू मुझे सज़ा नहीं देगा ताकि मैं जो कहना चाहती हूँ तुझसे कह सकूँ।
जब समुद्र दत्त क़सम खा चुका तो मदन सिना ने चंद रोज़ पहले जब उसके वालिद और भाई सफ़र पर थे, धर्म दत्त के बाढ़ फाँद के अंदर आने और बारिश की हल्की फुवार और शबनम और आँसुओं की कहानी उसे सुनाई और आख़िर में उससे कहा, मेरे साजन, अब तू बता, अब मैं क्या करूँ, मैं तो उस पापी से बचन हार चुकी हूँ।
समुद्र दत्त क़सम तो खा ही चुका था, न वो उसे सज़ा दे सकता था न उसे रोक सकता था। उसने मदन सिना को इजाज़त दे दी कि अपना क़ौल पूरा करने को जहाँ उसका जी चाहे जाए।
वो उठी, और अपने पति के घर से बाहर चली गई।
उस रात को आसमान पर गहरे बादल छाए थे। मगर बिजली नहीं चमक रही थी कि अनंगपुरे की सड़क पर कोई चोर डाकू घात लगाए बैठा हो तो नज़र आ जाए या कोई काला या चितकबरा सांप कहीं कुंडली मारे बैठा हो तो पाँव पड़ने से पहले ही राही को ख़बर हो जाए।
मदन सिना उस अंधेरे की वजह से अपने जीवन से और भी बे परवा होकर धर्म दत्त के घर की तरफ़ जा रही थी कि बड़ के एक मोटे तने के पीछे से लपक के एक हट्टे कट्टे डाकू ने उसे दबोच लिया। न वो उसे छोड़ना चाहता था न उसके ज़ेवरों को। उसके आगे हाथ जोड़ के वैश सौदागर की लड़की ने धर्म दत्त से अपने वादे, शौहर की इजाज़त और सब वाक़िआत बयान किए और आख़िर में मन्नत करके कहा, डाकुओं के राजा बस मुझे घंटा भर के लिए छोड़ दो, मैं अपना क़ौल पूरा कर लूँ, उसके बाद मैं यहीं वापस आऊँगी। जैसा सुलूक तुम्हारा जी चाहे करना और तुम कोई चिंता न करो, मैं अपना बचन पूरा करूँगी।
डाकू ने ये सुन कर उसे जाने की इजाज़त दे दी और वो सीधी धर्म दत्त के घर पहुँची। जो इतने दिनों से उसके इश्क़ और उसकी तमन्ना में बेचैन था लेकिन उसे अपने घर में देख कर अचंभे से उसे सकता हो गया। फिर उसने पूछा, तुम यहाँ कैसे आने पाईं।
मदन सिना ने अपनी और अपने बालम की गुफ़्तगू उसके सामने दोहराई तो धर्म दत्त जो उसके सिवा किसी और को कभी चाह न सकता था, कहने लगा, तुमने तो अपना बचन पूरा किया लेकिन तुम जो किसी दूसरे की पत्नी हो मेरे किस काम की हो जिस तरह तुम आई हो वैसी ही चली जाओ, कोई तुम्हें देखने न पाए। एक आँख से हँसती और दूसरी से रोती मदन सिना उसी रास्ते से वापस हुई। लेकिन उसने डाकू से भी बचन हारा था और उस बड़ के सामने उस डाकू से मिलना था। बड़ के पास पहुँचते-पहुँचते उसका दिल बैठने लगा।
बड़ की आड़ से डाकू कुल्हाड़ी लिए फिर धम्म से सामने आ कूदा। उसे मदन सिना के आने की तो आशा नहीं थी। मगर वो दूसरे अमीर राहगीरों को लूटने का इंतिज़ार कर ही रहा था। मदन सिना को इतनी जल्दी वापस आते देख कर उसने कहा, क्यों क्या हुआ?
और मदन सिना ने ये क़िस्सा बयान क्या कि धर्म दत्त ने हाथ लगाए बग़ैर ही उसे छोड़ दिया। इसपर उस डाकू ने उसे कहा, जो अब तक अपनी कुल्हाड़ी से दरख़्त की लकड़ी की तरह हज़ारों के सर तोड़ चुका था, तेरी सच्चाई से ख़ुश होकर मैं भी तुझे छोड़ता हूँ। जा अपने सोने-चाँदी और इज़्ज़त के ज़ेवरों समेत अपने घर जा।
समुद्र दत्त जिस का दिल पहाड़ी नदी की तरह सर पटक रहा था। किवाड़ पर हल्की सी थाप की आवाज़ और ज़ेवरों की छना-छन सुन के उठा। मदन सिना ने उसके चरनों को छूके जब सर उठाया तो उसकी आँखों में जो आँसू छलक रहे थे वो रंज या बे कसी के नहीं, ख़ुशी और प्रेम के थे। समुद्र दत्त से उसने रात की कहानी सुनाई। किस तरह सच और अपने बचन की पास की वजह से धर्म दत्त और डाकू दोनों के दिलों में भगवान ने तरस और रहम डाला। किस तरह वो पाक और अछूती अपने साजन, अपने नाथ के पास वापस आई। समुद्र दत्त को अपने घराने की आबरू बचने से ज़्यादा ख़ुशी इसकी हुई कि उसने एसी सच्ची और क़ौल की पक्की स्त्री पाई और इसके बाद मरते दम तक दोनों ने हँसी-ख़ुशी दिन गुज़ारे।
क़िस्सा ख़त्म करके वैताल ने महाराज त्री विक्रम सिना से पूछा, जय महाराज की। अब महाराज ये बताएं कि इन तीनों में सबसे ज़्यादा फ़राख़-दिली से किस ने काम लिया। मदन सिना के पति ने या धर्म दत्त ने या डाकू ने।
तब महाराज ने कुछ सोच के उसे जवाब दिया, वैताल, इन तीनों में सच पूछो तो दर अस्ल फ़राख़-दिल वो डाकू ही था। उसका पति ही उसे कैसे न जाने देता। जब किसी पत्नी और किसी मर्द में किसी क़िस्म का बंधन हो तो कोई शरीफ़ पति उसे कैसे रोक सकता है। धर्म दत्त इसलिए उससे दस्त बरदार हो गया कि वक़्त गुज़र जाने की वजह से उसका इश्क़ सर्द हो चुका था और शायद वो डरता था कि मदन सिना का पति दूसरे दिन राजा से उसकी शिकायत न कर दे। लेकिन डाकू, वो बे उसूल, बदमाश, अँधियारे का बासी, वो सचमुच फ़य्याज़ और फ़राख़-दिल था कि उसने ऐसी ख़ूबसूरत औरत को जवाहिरात समेत चले जाने दिया।
मालूम नहीं वैताल अब कहाँ है और किस हाल में है। कश्मीर के किसी पहाड़ पर जहाँ नाज़िर से उसकी मुलाक़ात हुई थी, कोई और पच्चीसी लिख रहा है या शहरों और देहातों में आवारा फिर रहा है। मुमकिन है वो कभी शिवा ग्राम भी गया हो और उसने मदन सिना के उसूलों को अहिंसा और सत्याग्रह के लक़ब से सियासत पर चस्पां होते देखा हो। ये सदियों का ताना-बाना। सच्चाई का तक़ाज़ा तो यही है कि ग़नीम हमला करना चाहता है तो घर के दरवाज़े खोल दो। भारत माता की अस्मत और इज़्ज़त को हाथ लगाए बग़ैर वो उल्टे क़दम वापस हो जाएगा। इसका क्या इलाज कि फ़ाशिस्ट शहंशाहियाँ धर्म दत्त और डाकू इतने शरीफ़ भी नहीं।
और मालूम नहीं वैताल बाबू को पता है या नहीं कि मदन सिना की औलाद चार दाँग आलम में फैल चुकी है। उसकी और समुद्र दत्त की औलाद का असर बरमा में राज कुमारी थोधमा तसारी के फ़ैसलों पर भी हुआ। बहार दानिश, तूती नामा, दास्तां चहल वज़ीर और मालूम नहीं कहाँ-कहाँ फिरते हुए उसके पोते-पोतियों ने सुना है कि ग्रीन लैंड जाने वाले डाइकिंग सय्याहों में घिर कर उसने चेस्तान की पहाड़ियों की भी सैर की। उसी ख़ानदान की एक शाख़ ने साइबेरिया के बर्फ़िस्तानों में क़ियाम किया जहाँ से उन्हें गुज़श्ता जंग-ए-अज़ीम के बाद निकाल दिया गया।
(2)
लेकिन महाराज त्री विक्रम सिना ने अपने क़ौल फ़ैसल में ये क्यों कहा, जब किसी पत्नी और किसी और मर्द में किसी क़िस्म का बंधन हो तो कोई शरीफ़ पति उसे कैसे रोक सकता है।
क्या इब्न हज़म से होता हुआ ये सिलसिला अंडरयास, केबी लांस तक पहुँचता है। क़ुरून-ए-वुस्ता के दरबारी आदाब-ए-इश्क़ में इसकी तफ़सीर मिलती है जब मल्लिका और ख़्वातीन एक दरबार-ए-इश्क़ या अदालत-ए-इश्क़ तरतीब देती थीं, जिसमें आशिक़ों की बेवफ़ाई और माशूक़ाओं की जफ़ा पर इस्तिग़ासे होते थे और अहकामात और सज़ाएँ दी जाती थीं।
एक ख़ातून अलिफ़ को मदन सिना की तरह अपने पति ही से मोहब्बत थी। ये और बात थी कि उस जाहिलियत के ज़माने में ख़ावंद, ख़ुदावंद नहीं होता था। बल्कि नाइट अपनी ज़िंदगी और अपनी ख़िदमत को मज़हब और ख़्वातीन की ख़िदमत के लिए यकसाँ वक़्फ़ रखते थे। बहर कैफ़ उस ख़ातून अलिफ़ पर धर्म दत्त की तरह एक मर्द शरीफ़ काउंट जी आशिक़ था। आशिक़ और माशूक़ा की बहस-ओ-हुज्जत का कोई नतीजा नहीं निकला तो दोनों हरीफ़ों ने मेरी मल्लिका शाम्पेन से फ़ैसला चाहा और उसने कई ख़्वातीन के मशवरे से ये फ़ैसला सादर किया।
हम ऐलान करते हैं और हम उसे अमर तै शुदा समझते हैं कि इश्क़ ऐसे दो अफ़राद के दरमियान अपनी ताक़तों का असर नहीं डाल सकता जो एक दूसरे से मनकूह हों। क्योंकि उश्शाक़ एक दूसरे को हर चीज़ आज़ादी से देते हैं, किसी जबर या मजबूरी से नहीं। लेकिन शादी शुदा जोड़े में फ़रीक़ैन मजबूर हैं कि बतौर फ़र्ज़ एक दूसरे की ख़्वाहिशें पूरी करें और एक दूसरे से अमर में इनकार न करें।
इस फ़ैसले की तारीख़ यकुम मई 1174ई. है।
इसके आठ या नौ सो साल बाद उस फ़ैसले पर दो यहूदियों कार्ल मार्क्स और एलेंगिल्ज़ ने नज़र-ए-सानी की। उनका फ़ैसला ये है,
हमारे बुर्ज़ुवा अपने मज़दूरों की बीवियों और बेटियों ही पर इक्तिफ़ा नहीं करते। रंडियों का तो ज़िक्र ही क्या, उन्हें एक दूसरे की बीवियों को फुसलाने में इंतिहाई लुत्फ़ आता है।
(3)
मुझ जैसे रावी पर कौन एतबार करेगा और यूं भी हिंदुस्तानी मुअर्रिखों को कौन सनद के क़ाबिल समझता है, लेकिन मेरे ख़्याल में समुद्र दत्त और मदन सिना की औलाद इस तरह विलायत पहुँची होगी कि जब शाम और मिस्र की फ़तह के बाद ख़ुसरो परवेज़ क़ुस्तुनतुनिया पर एक तरफ़ से बढ़ रहा था और उसका हलीफ़ वहशी और क़ौम का काग़ान (ख़ाक़ान) यूरोपी जानिब से। उस वक़्त ख़ुसरो परवेज़ को सुलह के लिए जो तावान जंग-बाज़ क़तीनी क़ैसर ने पेश किया। वो एक हज़ार तलाई मुहरों, एक हज़ार नुक़रई मुहरों, एक हज़ार रेशमी अबाओं, एक हज़ार घोड़ों और एक हज़ार कुंवारी लड़कियों पर मुश्तमिल था।
उन एक हज़ार कुंवारियों में सेराया शीरीं शामिल नहीं थी। मशरिक़ी अफ़साना-निगारों के बर ख़िलाफ़ मग़रिबी मुअर्रिखों को उससे इत्तफ़ाक़ नहीं कि ये सेराया शीरीं बाज़ क़तीनी क़ैसर मोरीस की बेटी थी। लेकिन वो ये ज़रूर मानते हैं कि सेराया शीरीं किसी मशहूर आला रोमी घराने की चश्म-ओ-चराग़ थी। जिस तरह उसके रोमी नाम सेरा को बिगाड़ कर ईरानी अफ़साना निगारों ने उसे शीरीं बना दिया। इस लफ़्ज़ में ईरानी तसव्वुर-ए-हुस्न की रूह पिन्हाँ है। उसी तरह उसके शौहर शहंशाह को उसकी ज़िंदगी ही में परवेज़ का लक़ब मिला जो ज़ाहिर करता है कि उसके मर्दाना हुस्न में सितारों की सी जगमगाहट थी। ये सबको मालूम है कि ख़ुसरो परवेज़ को अपनी मल्लिका शीरीं से जिस क़दर इश्क़ था, मल्लिका उसी वालिहाना इश्क़ से उसका जवाब न दे सकती थी। अब मदन सिना, धर्म दत्त और समुद्र दत्त के मुसल्लस ने ये शक्ल इख़्तियार की।
मदन सिना शीरीं
समुद्र दत्त ख़ुसरो परवेज़
धर्म दत्त फ़रहाद
फ़र्क़ इतना था कि मदन सिना को अपने शौहर ही से मोहब्बत थी। लेकिन शीरीं का दिल अपने हसीन शौहर शहंशाह का नहीं। एक कमीन-ओ-कमतर मज़दूर का ग़ुलाम हो चुका था यहाँ तेशा और जुए शीर और कोह कनी का क़िस्सा दोहराने की ज़रूरत नहीं। लेकिन मदन सिना की तरह शीरीं ने भी वस्ल का वादा किया था। समुद्र दत्त की तरह ख़ुसरो परवेज़ ने उस वादे की तौसीक़ की। समुद्र दत्त अपने वादे पर इसलिए क़ाइम रहा कि उस वक़्त औरत ख़ानगी जायदाद नहीं बनने पाई थी। लेकिन शीरीं और फ़रहाद दोनों ईरानी शाहान-ए-शाह की रिआया और उसकी मिल्कियत थे। ये और बात थी कि वो शीरीं के जिस्म का मालिक था। उसके दिल का मालिक न बन सका। लेकिन उसने समुद्र दत्त के बर-ख़िलाफ़ वादा पूरा न होने दिया। गुरसनह मज़दूर तरबगाह रक़ीब ने कम-ज़र्फ़ी से अपनी जान दे दी। शीरीं का दिल और ज़्यादा टूट गया। ख़ुसरो परवेज़ को उस वादा शिकनी और कामिल फ़तह के बाद इतनी भी मसर्रत और इतना भी इतमीनान नसीब न हो सका जितना रोमी सूबों की फ़तह के बाद। उसने उन हज़ार बाज़ नतीनी कुंवारियों से मालूम नहीं किस तरह दिल बहलाया और दिल बहला ही रहा था कि इस्कंदरून की ख़लीज पर हरक़ुलीस आज़म की फ़ौजें उतरीं।
रोमी शहंशाह के पेशरू ने शीरीं और एक हज़ार कुंवारियों को ईरानी के सुपुर्द किया था। हरक़ुलीस ने तुर्क ख़ान को अपनी ख़ूबसूरत बेटी भेंट चढ़ाने का वादा किया। दस्त गर्द के क़िले में अपनी बे-शुमार ख़वासों और औरतों को जिनकी तादाद तीन हज़ार थी, छोड़ कर ख़ुसरो परवेज़ भाग निकला और फिर एक तारीक बुर्ज में उसके साथ उसके इंसानियत ना शनास बेटे ने वही सुलूक किया जो अक्सर तारीख़ में होता आया है। हरक़ुलीस मुमकिन है कि उन हज़ार रोमी लड़कियों को छुड़ा लाया हो, जो अब कुंवारियाँ न रही थीं। मुमकिन है जब बाज़ लतीनी शहंशाह ज़ैतून की शाख़ों और बे शुमार चराग़ों में घिरा हुआ क़ुस्तुनतुनिया वापस हुआ तो उसके जुलूस में हज़ारहा ईरानी दोशीज़ाएं हों। मुमकिन है इस सिलसिले में ईरान के पड़ोसी राज अनंगपुरा के ताजिरों की बहू बेटियाँ भी हों और इस तरह मदन सिना की औलाद क़ुस्तुनतुनिया पहुँची हो।
जब बाज़ लतीनी शहंशाह हरक़ुलीस क़ुस्तुनतुनिया में ईरान से मिस्र व शाम के सूबों को वापस छीन लेने की ख़ुशियाँ मना रहा था तो शाम के एक गुमनाम गाँव पर अरब के एक ग़ैर मारूफ़ शहर मदीना के बाशिंदों से उसके फ़ौजियों की कुछ झड़पें हुईं। इस वाक़िआ को हरक़ुलीस ने उस वक़्त इतनी ही अहमियत दी जितनी उसने और ईरानी शाहान शाह ने अरबी पैग़म्बर की चिट्ठियों को दी थी।
लेकिन बहुत जल्द रेगिस्तान की फ़ौजें मरू से ले कर मिस्र तक छा गईं जो सूबे हरक़ुलीस ने ईरानियों से वापस छीने थे, अरबों ने फ़तह कर लिए। यहाँ तक कि हज़रत अबू अय्यूब अंसारी के परचम को सिर्फ़ यूनानी आतिश रोक सकी और यूनानी आतिश के ज़ेर-ए-साया मदन सिना की औलाद क़ुस्तुनतुनिया में परवान चढ़ी और यहाँ से ब-सिलसिला-ए-तिजारत बढ़ती हुई मग़रिबी यूरोप तक पहुँची। जुनूबी फ़्राँस में उसने मानी के असरात को बाक़ी रखा। लातिनी मुसन्निफ़ों से उसका हाल बोकाचियो और चॉसर ने सुना।
लेकिन जिस तरह वैताल ने महाराज त्री विक्रम सिना से पूछा था मैं आपसे पूछता हूँ, सबसे ज़्यादा कम-ज़र्फ़ कौन था? ख़ुसरो परवेज़? या शीरीं? या फ़रहाद?
चॉसर के फ़्रेंकलीन यानी चौदहवीं सदी ईस्वी के उस ज़मींदार ने जो ग़ुलाम तो न था मगर आली ख़ानदान और शरीफ़-उन-नस्ल भी न होता था। कुछ इस क़िस्म का क़िस्सा बयान किया।
आरमोरिका में जिसको बरीतीनी भी कहते हैं। मदन सिना की औलाद में एक ख़ातून थी जिसका नाम डोरीगन था। उसी मुल्क में एक नाइट भी था मुल्क के शरीफ़ तरीन तब्क़े का नुमाइंदा। उसका नाम आर्दे राग्स था। उसे उस ख़ातून से इश्क़ था और वो बेहद ज़हमत उठाता और कोशाँ रहता कि बेहतरीन तरीक़े पर उस ख़ातून की ख़िदमत कर सके। अपनी ख़ातून को ख़ुश करने के लिए उसने बड़े बड़े कारहाए नुमायाँ सर अंजाम दिए, बड़ी-बड़ी मुहिमें सर कीं। तब कहीं जाकर वो डोरी गन को जीत सका। उसकी क़ाबिलियत-ओ-शहामत को उस ख़ातून ने अपने शायान-ए-शान पाया। ख़ास तौर पर उसके इज्ज़ और उसकी ताबेदारी की वजह से उसकी ख़िदमत और उसकी दरख़ास्त पर उसने ऐसा तरह्हुम का जज़्बा महसूस किया कि उसने उसे अपना शौहर या अपना आक़ा बनाया। आर्दे राग्स ने ख़ुद अपनी मर्ज़ी से ये क़सम खाई कि वो एक नाइट की तरह अपनी ख़ातून की ख़्वाहिश के ख़िलाफ़ कभी अपना हुक्म चलाने की कोशिश न करेगा। कभी रश्क व हसद का इज़हार न करेगा, हमेशा उसकी इताअत करेगा। हर बात में उसकी मर्ज़ी का पाबंद रहेगा। बिल्कुल उसी तरह जैसे कोई आशिक़ अपनी माशूक़ा की मर्ज़ी का पाबंद होता है।
डोरीगन ने बड़े इन्किसारी से उसका शुक्रिया अदा किया, जनाब, जिस तरह मुझे आपने अपनी मर्दाना शराफ़त से इस क़दर हुकूमत बख़्शी है। उसी तरह मैं भी इसका वादा करती हूँ कि आपकी ख़ादिमा और सच्ची बीवी रहूँगी। इसका मैं आपसे पक्का वादा करती हूँ।
दोस्त और उश्शाक़ एक दूसरे की ताबेदारी करते हैं। मोहब्बत एक फ़रीक़ के इस्तिबदाद और दूसरे की ग़ुलामी को बर्दाश्त नहीं कर सकती। जब इस्तिबदाद आता है तो इश्क़ का देवता अपने पर फड़फड़ाता है और ये जा, वो जा, रुख़सत। हर चीज़ की तरह मोहब्बत की रूह भी आज़ाद है। फ़ित्रतन औरतें भी ग़ुलामी नहीं, आज़ादी चाहती हैं। (इक़बाल ने ज़मुर्रद के ग्लूबंद की एक ही कही और मर्द भी।
ये मुआहिदा सीधा सादा मगर कितना आक़िलाना था। ख़ातून को अपना शौहर क्या मिला बयक वक़्त आक़ा भी मिला और ख़ादिम भी। मोहब्बत में ग़ुलाम और इज़्दिवाज में आक़ा। नाइट को आक़ाई भी मिली और ख़िदमत भी। ख़िदमत? नहीं इससे ज़्यादा तो आक़ाई ही क्योंकि उसे बीवी भी मिली और महबूबा भी।
कारहा-ए-नुमायाँ सर अंजाम देना हर नाइट का फ़र्ज़ था। उस फ़र्ज़ को अंजाम देने आर्दे राग्स इंगलिस्तान के जज़ीरे में गया जिसे ब्रितानिया भी कहते हैं। किताब कहती है कि यहाँ उसे दो साल लग गए। इस दरमियान में उसकी बीवी डोरीगन उसे अपने दिल की ज़िंदगी की तरह चाहती रही। उसके फ़िराक़ में रोती और आहें भरती, तड़पती, रातों को जागती, नाला-ओ-ज़ारी करती, फ़ाक़े खींचती है।
आर्दे राग्स के ख़त कभी-कभी आते। कभी वो बर्तीनी के साहिल पर खड़ी होके उसके जहाज़ का इंतिज़ार करती और चट्टानों को देख-देखकर हौल खाती। इस डर से दुआएं माँगती कि कहीं उसके शौहर, उसके महबूब का जहाज़ भी उन चट्टानों से टकरा के पाश-पाश न हो जाए। ख़ुदाया तू देखता ही है कि कितने इंसानों को ये चट्टानें ग़ारत करती हैं लाखों इंसानों की जानें इन चट्टानों ने छीनी हैं क्या तेरे इंसानों का ये हश्र होना ज़रूरी है जो तेरी सनअतों में तेरे शाहकार समझे जाते हैं जिन्हें तूने अपनी शबीह के मुताबिक़ बनाया है। बहुत कम वो ख़ुश होती या हँसती बोलती। मगर मई की छः तारीख़ को अपनी सहेलियों के जबर करने से वो एक नाच में गई। उस नाच में डोरीगन के साथ एक स्क्वायर नाच रहा था। स्क्वायर यानी क़ुरून-ए-वुस्ता का बड़ा ज़मींदार, लेकिन किसी नाइट का महज़ हमराही या अर्दली और उसकी ख़ातून की मुताबिअत करने वाला या हम रकाब या मुल्तफ़ित। ताज़गी और आहिस्तगी में शुमाली यूरोप के मई के महीने का जैसा। उसका नाम आरे लेस था। नाचने और गीत गाने में अदीम उल मिसाल था। नौजवान था, मज़बूत था, सालेह था, अमीर था और अक़्लमंद था। लोग उसे पसंद करते थे और उसकी क़दर करते। उस ज़िंदा दिल स्क्वायर को दुनिया में सबसे ज़्यादा डोरीगन से मोहब्बत थी। इस हाल में उसे दो साल से ज़्यादा हो गए थे लेकिन उसने अपना दर्द-ए-दिल किसी से न कहा था। नाउम्मीदी उसपर ग़ालिब थी। ज़बान से कुछ कह नहीं सकता था। सिर्फ़ अपने गीतों में वो अपने दिल का दुख कुछ न कुछ निचोड़ लेता। आम अंदाज़ में वासोख़्त लिखता। ये बताता कि वो इश्क़ में गिरफ़्तार है और कोई उसे नहीं चाहता। गीतें, नग़्मे, नज़्में, वासोख़्तें लिखता और बताता कि वो अपने ग़म का इज़हार नहीं कर सकता मगर वो इस तरह अज़ाब भुगत रहा है जैसे दोज़ख़ में कोई ख़बीस रूह, सदा-ए-बाज़-गश्त की तरह उसकी क़िस्मत में भी मौत लिखी है।
लेकिन उस नाच के मौक़े पर उसने हिम्मत करके डोरीगन से हाल-ए-दिल कहा, मैं जानता हूँ कि मेरी सारी ख़िदमत बेकार है। मेरा दिल पारा-पारा हो रहा है। ख़ानून मेरे रंज और दर्द पर रहम कीजिए क्योंकि आप का एक लफ़्ज़ मुझे जला या मार सकता है।
वो आरे लेस की तरफ़ देखने लगी। इससे पहले मैं नहीं समझ सकी थी कि तुम्हारा मतलब क्या है लेकिन आरे लेस अब मैं तुम्हारी ख़्वाहिश को समझ गई। उस ख़ुदा की क़सम जिसने मुझे रूह और जान दी कि किसी और की बीवी होते हुए मैं बेवफ़ाई नहीं कर सकती। फिर उसने मज़ाक़ में कहा, आरे लेस, इस ख़ुदा-ए-बुलंद-ओ-बरतर की क़सम जो ऊपर है चूँकि मैं देखती हूँ कि तुम इस क़दर गिड़गिड़ाकर इल्तिजा कर रहे हो। इसलिए सुनो कि उसी दिन मैं तुम्हारी माशूक़ा बनूँगी जिस दिन बरीतीनी के साहिल की ये देव हैकल चट्टानें जिनसे टकरा-टकरा के जहाज़ और कश्तियाँ पाश-पाश हो जाते हैं, साहिल से हट जाएंगी। एक-एक पत्थर हट जाएगा। उस दिन मैं वादा करती हूँ मैं तुम्हारी माशूक़ा बनूँगी।
इससे ज़्यादा नामुमकिन और क्या चीज़ हो सकती। फ़रहाद को पहाड़ काटने की जो शर्त पेश की गई थी। उसे इंसान की मेहनत पूरा तो कर सकती थी। वही शर्त यहाँ फिर दोहराई गई लेकिन वो अगर कठिन थी तो ये नामुमकिन।
आरे लेस अपने घर वापस गया। उसे यक़ीन आ गया कि अब मौत से बचना मुश्किल है। अपने दिल को उसने सर्द होते हुए महसूस किया। सूरज के देवता से उसने गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ा कर दुआ मांगी कि किसी मोजज़े के ज़रिए ये चट्टानें हट जाएं। दुआएं पूरी न हुईं और डोरीगन का शौहर घर वापस आ गया। अपने नौजवान और शरीफ़ व बाइज़्ज़त नाइट को दोबारा पाके वो फूले न समाती थी।
जादू और तिलिस्मात, इंसान आक़िल की अक़्ल से ज़्यादा पुराने, पहले शायद मशरिक़ में चल सके, फिर मग़रिब में कुछ ऐसे मक़बूल हुए कि जौन ऑफ़ आर्क की जान इस इल्ज़ाम में गई और इस इल्ज़ाम में अठारवीं सदी में केसानोवा को ऐसी सख़्त क़ैद भुगतनी पड़ी कि इससे उसका निकल भागना, इंसान की क़ुव्वत-ए-इरादी और उसके जज़्बा-ए-आज़ादी का मोजिज़ा है। किसी लातिनी मुसन्निफ़ के दिमाग़ ने जो मशरिक़ी दास्तानों से सरशार थे। मदन सिना के डाकू को जो अनंग पुरा की एक सड़क पर बड़ के पीछे छुप के राहगीरों को लूटा करता था एक जादूगर राहिब बना दिया। ये राहिब जो जादूगर भी था और फ़लसफ़ी भी आरे लेस और उस के भाई को मशरिक़ी तिलिस्मात के तमाशे दिखाने लगा, जैसे कठपुतली का खेल। बाज़ों से छोटे-छोटे परिंदों का शिकार, शिकारी कुत्तों से हिरनों की डारों की डारों का शिकार और उसने अपनी शोबदा कारी से आरे लेस को डोरीगन के साथ ख़ुद अपने आपको नाचता दिखाया और एक हज़ार पौंड के मुआवज़े में उसने बरीतीनी की सारी चट्टानें ग़ायब करने का ज़िम्मा लिया।
और क़ुरून-ए-वुस्ता में जादू का जो ज़ोर था, उस ज़ोर से चट्टानें ग़ायब हो गईं। अब मौजें नर्म-नर्म खिरामाँ-खिरामाँ फैलती-फैलती बरीतीनी के साहिल तक आ जातीं। पहाड़ों से सर न टकरातीं, चट्टानों से पटक कर झाग न उगलतीं।
जादू ने वही काम कर दिखाया जो फ़रहाद जैसे पत्थर फोड़ने वाले के तेशे ने किया था।
आरे लेस ने डोरीगन को उसका वादा याद दिलाया। अपने दर्द-ए-इश्क़ का ज़िक्र किया। उसे समझाया कि अब भी वो अपना वादा पूरा न करे तो वो उसकी बे गुनाह मौत की ज़िम्मेदार होगी। अपने बाग़ को उसने मिलने का मुक़ाम तजवीज़ किया।
वो रुख़्सत हो गया, तो वो हैरान खड़ी की खड़ी रह गई। उसके चेहरे पर ख़ून के एक क़तरे के आसार भी न थे। एक-दो रोज़ रोती आह-ओ-ज़ारी करती रही। इस तरह ग़श खा-खा जाती कि देखने वालों को दुख होता। लेकिन किसी से उसने कहा नहीं कि उसकी हालत ग़ैर क्यों है। क्योंकि उसका शौहर दो तीन दिन के लिए बाहर गया हुआ था। अकेले में वो क़िस्मत का गिला करती जिसने उसके लिए ये जाल फैलाया था, जिससे निकलने का मौत या बे इज़्ज़ती के सिवा और कोई ज़रिया न था। फिर भी वो समझती कि जिस्म की बे हुरमती से तो मौत ही अच्छी है। इससे पहले भी तो शरीफ़ बीवियों और कुंवारियों ने अपने जिस्म को पामाली से बचाने के लिए अपनी जानें ले ली हैं।
एक-दो रोज़ वो यही सोचती रही यहाँ तक कि उसका क़ाबिल इज़्ज़त नाइट आर्दे राग्स घर वापस आया और उसे ज़ार-ज़ार रोते देख के उसका सबब पूछा, तो वो और फूट-फूट कर रोने लगी। उसने आरे लेस से अपनी शर्त का ज़िक्र किया। जिसका पूरा होना नामुमकिन था मगर जो पूरी हो गई और अपने वादे का ज़िक्र किया।
उसके शौहर ने अपने चेहरे को बश्शाश बना के दोस्ताना अलफ़ाज़ में उसे समझाया, कि क़ौल पूरा करने से बढ़ के इंसान का कोई और फ़र्ज़ नहीं। फिर वो भी बे इख़्तियार रोने लगा और उसने कहा, और किसी से इस वाक़िआ का ज़िक्र न करना ताकि मैं इस तरह अपना रंज बर्दाश्त कर सकूँ और तुम भी अपने चेहरे से तकददुर ज़ाहिर न होने देना ताकि लोग इसका सबब न ताड़ जाएं। फिर उसने अपने एक स्क्वायर और एक ख़ादिमा को हुक्म दिया कि डोरीगन को फ़ुलां मुक़ाम पर पहुँचा आएं।
बाज़ार ही में आरे लेस मिला और डोरीगन से पूछा कि कहाँ जा रही है। उसने जवाब दिया, अफ़सोस, तुम्हारे बाग़ को, जहाँ तुमने बुलाया था और जहाँ अपना वादा पूरा करने के लिए जाने का मेरे शौहर ने हुक्म दिया है।
उस वाक़िए पर आरे लेस को सख़्त हैरत हुई और उसे बड़ा तरस आया। उसपर भी क्योंकि वो इस तरह गिरिया-ओ-ज़ारी कर रही थी और क़ाबिल इज़्ज़त नाइट आर्दे राग्स पर भी जिसने उसे अपना वादा पूरा करने के लिए कहा था। तमाम पहलुओं पर ग़ौर करने के बाद उसने फ़ैसला किया कि अपनी हवस पर क़ाइम रहना बड़ी कमीनगी होगी। फ़य्याज़ी और शराफ़त के ख़िलाफ़ बड़ा सख़्त जुर्म होगा। इस लिए इसने ख़ातून को उसका हारा हुआ क़ौल माफ़ कर दिया और कहा, स्क्वायर... नाइट का अर्दली भी शराफ़त का फ़र्ज़ उसी तरह बे झिजक अदा कर सकता है, जैसे कोई नाइट।
जादूगर राहिब को उसने पाँच सौ पौंड ले जाके दिए और बाक़ी रक़म के लिए मोहलत मांगी। जादूगर के पूछने पर आरे लेस ने कहा कि उसकी महबूबा उसके बाग़ तक आई मगर उसकी न हुई। आर्दे राग्स ने अपनी शराफ़त से गवारा कर लिया कि ख़्वाह सदमे और कोफ़्त से उसे मौत ही क्यों न आए वो अपनी बीवी को बद अहदी का मुर्तक़िब नहीं होने देगा और जब उसने ख़ुद डोरीगन को इस क़दर मग़्मूम देखा तो उसने उसे बग़ैर छुए हुए बाग़ से वापस जाने की इजाज़त दी।
जादूगर राहिब ने उसे हज़ार पौंड माफ़ कर दिए और कहा, एक राहिब भी तुम लोगों की तरह शराफ़त के काम कर सकता है।
चॉसर के फ़्रेंकलिन ने वैताल की तरह पूछा, आक़ाओ क़ब्ल इसके कि हम आगे बढ़ें बताओ इनमें सब से ज़्यादा शरीफ़ और फ़य्याज़ कौन था? इस क़िस्म के सवाल क़ुरून-ए-वुस्ता में अक्सर पूछे जाते थे और सवालात इश्क़ कहलाते थे।
क्लास में एक लड़की ने उठ के प्रोफ़ेसर को जवाब दिया, मेरे ख़्याल में डोरीगन सबसे ज़्यादा फ़य्याज़ थी। वो ख़ुदकुशी कर सकती थी, लेकिन इस तरह उसका वादा पूरा न होता।
सब हंसने लगे।
(4)
जिस शब रघबीर पैलेस में हिस्पानीया के मज़लूमीन की इमदाद के लिए नाच और तफ़रीहात का जलसा था, उस शाम को पानी ज़ोर से बरसा था। मालाबार हिल की सड़कें ढ़लवानों पर मोटर के टायरों को फिसला-फिसला के गोया नीचे गिरा रही थीं। रघबीर पैलेस से कोई एक फ़र्लांग इधर-उधर मोटरों का ऐसा हुजूम था कि रास्ता मिलना ही मुश्किल था। मजबूरन सर समदर ने अपने शोफ़र से कहा, अगर गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती तो हम यहीं उतर जाते हैं, क्यों डार्लिंग।
जवाँ साल लेडी समुद्र राय ने बेबसी से अपनी सफ़ेद साढ़ी और उसके कामदानी काम और नफ़ीस बनारसी बोर्डर की तरफ़ देखा। यहाँ से रघबीर पैलेस तक फ़र्लांग भर का फ़ासला तै करने में सर समदर के शार्क स्किन के जाकिट पर अगर कोई धब्बा आ जाए तो कोई ख़्याल भी न करेगा, लेकिन इस सारी पर सूई की नोक के बराबर भी कोई दाग़ लग जाए तो उसकी शाम किरकिरी हो जाएगी।
मैं समझती हूँ उतरना ही पड़ेगा। इस तरह तो घंटा भर से पहले रास्ता नहीं मिलेगा।
ड्राइवर ने बड़ी मुश्किल से इस क़दर दरवाज़ा खोलने में कामयाबी हासिल की कि चंद्रा... ये लैडी समदर का नाम था, बमुश्किल अपनी सारी को अपने जिस्म से लिपटा के उतर सकी और फिर मोटरों की भीड़ में आदमियों और मडगार्डों से दामन बचाती हुई अपने शौहर के साथ वो रघबीर पैलेस के पोर्टेको तक पहुँचने में कामयाब हो गई। पोर्टेको ही में मिसेज़ सिंह खड़ी थी।
वो मुस्कुरा के उन दोनों की तरफ़ बढ़ी। शाम बख़ैर चंद्रा, आप अच्छे तो हैं सर समदर। आपको कहाँ उतरना पड़ा... एक फ़र्लांग... हाहा। उसका मोटा जिस्म सर के मस्नूई घुंघरियाले बाल, निचला चौड़ा होंट और औरंगाबादी हमरो का कोट सब उसी हँसी में लहराए। चंद्रा डार्लिंग विश्वाश नगर के तीनों राजकुमार उस मेज़ पर हैं। तीनों महाबीर, रघबीर और रघुबर। तीनों तुमसे मिलना चाहते हैं। खुसूसन रघुबीर। ओह डार्लिंग जब से इसने तुम्हारी तस्वीर आवन लोकर में देखी है। वही जो डंकन ने खींची थी, तब से तुम्हारे मुतअल्लिक़ बोहरान में मुब्तिला है। क़तई तौर पर बोहरान में... और आज तुम बिल्कुल जादू करती हुई मालूम होती हो। साहिरा सी, क्यों सर समदर, डार्लिंग मुझपर फ़र्ज़ है कि तुम्हें इन सबसे मिलाऊँ। उस तरफ़ सर समदर...
सर नौशेरवाँ अफ़रासियाब से बातें करते मुड़ कर सर समदर ने मिसेज़ सिंह से कहा, अभी एक मिनट में मिसेज़ सिंह, आप लोग जाएं मैं अभी वहाँ आता हूँ।
सर नौशेरवाँ ने एक नौजवान यूरोपीयन औरत को देख कर सलाम के लिए सर ख़म किया। उसके साथ एक गहरे साँवले रंग का हिंदुस्तानी नौजवान था।
कौन हैं? सर समदर ने पूछा।
मिस्टर और मिसेज़ वहीद अमजद। सर नौशेरवाँ ने उस गुज़रते हुए जोड़े का ग़ायबाना तआरुफ़ कराते हुए कहा, ये औरत ऑस्ट्रेन है। कई रजवाड़ों में पियानो बजाने की तालीम दे चुकी है। अपने शौहर की तक़दीर उसकी बनाई हुई है। उसका तशहीर-ओ-इश्तिहार का कारोबार है और अब ये हालत है कि मेरीन ड्राइव में दो सौ रूपये के फ़्लैट में रहता है। शादी से पहले मुझसे डेढ़ सौ की नौकरी माँगने आया था, लेकिन समदर, कुछ पियोगे नहीं। उसने समदर का बाज़ू पकड़ के कहा, आज दो बार हैं। एक ऊपर और एक क़ुतुब शुमाली वाले कमरे में और ये क़ुतुब शुमाली वग़ैरा कमरा देखने के क़ाबिल है, चलो।
उस बरामदे के बाद एक और बड़ा नीम बरामदा था, जिसमें केन मैक का नाच आर्क्स्ट्रा टांगो बजा रहा था और कोई चार सौ जोड़े नाच रहे थे। रौशनी और हिस्पानवी मूसीक़ी के सैलाब में तरह-तरह के हिंदुस्तानी और यूरोपी ज़नाने लिबास काले या नीम सफ़ेद पोश मर्दों के साथ घूम रहे थे। गोया रौशनी मूसीक़ी की सौती हरकत और इंसानी जिस्म और जिन्सों की कशिश की हरकत सब एक ज़िंदगी की मुरक्कब हरकत में ज़म हो रही थीं। मेज़ों के दरमियान से जान पहचान वालों को सर के इशारे या तबस्सुम से सलाम करते या जवाब देते, किसी-किसी मेज़ पर एक आध मिनट के लिए ठहर कर कोई बात करते हुए वो बाएँ तरफ़ के दरवाज़े में मुड़े और उस मशहूर क़ुतुब शुमालीवाले कमरे में पहुँचे जहाँ एयर-कंडीशिंग के ज़रिए इस क़दर सर्दी का इंतज़ाम किया गया था कि रक़्स के सांसों और मूसीक़ी से गर्म कमरे से निकल के यहाँ दाख़िल होने पर यक़ीनन सर्दी मालूम होती थी। कमरे की दीवारों पर और दीवारों के साथ-साथ और फ़र्श पर रूई के गालों और सफ़ेद काग़ज़ की कतरन से बर्फ़ की तरह की शक्लें थीं, बर्फ़ानी पहाड़, बर्फ़ानी टीले जमा हुआ बर्फ़। बर्फ़ के जज़ीरे एक तरफ़ एक व्हील नुमा सोफ़ा था। एक तरफ़ क़ुतुब शुमाली के रीछ की शक्ल की एक कुर्सी थी। एक स्कीमो ख़ेमे के नीचे शराब की बोतलें और ग्लास, तरह-तरह के मुरक्कबात, तरह-तरह के नाम थे और दो अंग्रेज़ लड़कियाँ स्कीमो कपड़े पहने साक़ी गरी कर रही थीं। जोन,मेरे लिए एक गमल्ट और तुम समदर?
गमल्ट सर समदर ने इख़्तिसार से जवाब दिया, शुक्रिया।
खुले हुए दरवाज़े से सर समदर ने राजकुमारी की मेज़ की तरफ़ देखा। तीन नीम ड्रा दीदी राजकुमार। तीनों का रंग काला सा, बाल घुंघरियाले, तीनों टेल कोट पहने। तीनों इंगलिस्तान के पब्लिक स्कूलों के पढ़े हुए। लैटिन और हीरो और फिर ऑक्सफ़ोर्ड, साथ ही एक अमेरिकन लखपति, हिंदुस्तान में एक अमेरिकी मोटर कम्पनी का जनरल डायरेक्टर और हवाई फ़ौज का एक अंग्रेज़ ग्रूप कैप्टन। बेड़े का एक कोमोडोर और कई अंग्रेज़, पारसी, मुसलमान, हिन्दू मेज़ पर व्हिस्की, सोडे, ब्रांडी, जिन, काक टेल और गमल्ट के ग्लासों की शफ़्फ़ाफ़ चमक और उस हुजूम में कोमोडोर की सफ़ेद वर्दी को उसने उठते देखा। मेज़ के दूसरे किनारे से उसकी अपनी बीवी चंद्रा हँसती हुई उठी फिर वो रक़्स करने वालों के हुजूम में रक़्स के सैलाब में ग़ायब हो गए और सर समदर ने अपना गमल्ट ख़त्म किया। महसूस किया कि उसके अधेड़ आसाब को उससे ज़्यादा तेज़ चीज़ की ज़रूरत है। जोन की तरफ़ मुस्कुराकर उसने कहा, मिस ब्रैडले, डबल जिन प्लीज़। जोन ने पैसे ले के डबल जिन का ग्लास उसे और व्हिस्की सोडा का ग्लास सर नौशेरवाँ को दिया। क़ुतुब शुमाली वाले कमरे में उससे चंद क़दम के फ़ासले पर व्हील-नुमा सोफ़े पर महाराजा विश्वाश नगर शार्क स्किन का जैकेट पहने, बड़े अंदाज़ से काकटेल का ग्लास घुमा-घुमा कर ख़ुर्शीद मुक़द्दस जी से बातें कर रहे थे। बोहरा ताजिर जो अपने ससुर के सट्टे के रूपये की वजह से अब लखपति बन गया था, ख़ान बहादुर बन ही चुका था और अभी से राजों और महाराजों से इस तरह कंधे से कंधा भिड़ा के मिलने की कोशिश करता था गोया वो उसके साथ के खेले हुए हैं। रेस कोर्स पर पानी की तरह रूपया ख़र्च करता। उसका अपना अस्तबल महाराजा मांडू के अस्तबल से कुछ कम नहीं था और उसका घोड़ा ज़ुल्फ़िक़ार दो साल से बराबर अरब ड्राबी जीत रहा था।
सर नौशेरवाँ ने राज़दाराना अंदाज़ में सर समदर से कहा, इस नौ दौलतिए को देखो।
हूँ।
खुले हुए दरवाज़े से फिर बूढ़े कोमोडोर की आग़ोश में अधेड़ सर समदर ने अपनी जवान बीवी का जीता जागता मुस्कुराता जिस्म देखा। मूसीक़ी ख़त्म हुई, दोबारा शुरू हुई। अब राजकुमार रघुबीर के साथ उसकी बीवी नाचने को उठी। टम तुम टन-टन। मन-मन। एक-दो, तीन-चार। एक-दो, तीन-चार क़ुतुब शुमाली वाले कमरे के मस्नूई बर्फ़ानी फ़र्श पर सर समदर के पाँव वक़्त का अंदाज़ करने लगे। बैंड ने एक झुरझुरी ली, हँसी, क़हक़हों, हम-आग़ोश जिस्मों की गुफ़्तगू की रफ़्तार, जिनके ग्लास में समा गई। एक अंग्रेज़ लड़की आला-ए-बकर-उल-सौत के पास खड़ी होके हिस्पानवी अंदाज़ में, अंग्रेज़ी लहजे के साथ एक फ़्राँसीसी पूनुमा गाने लगी, राफ़ाए ली जो। और जोकालू मालूम होता था क़यामत की ख़बर लाएगा।
रघुबीर के जिस्म से लिपटी हुई, आँखों से आँखें बंधी हुईं, लेकिन टाँगें... मुहर्रिक और जिस्म के सारे पहचान से बे परवा और बे-तअल्लुक़ टाँगें... मशीन की तरह, कोच करती हुई फ़ौजों की तरह, मूसीक़ी की पाबंदी करती हुई टाँगें उलझे बग़ैर ज़रा सी भी ग़लती किए बग़ैर बराबर रक़्स कर रही थीं। सर समदर ने जल्दी से जिन का ग्लास ख़त्म क्या। मुस्कुरा के जोन का शुक्रिया अदा किया और सर नौशेरवाँ से पूछा, ऊपर भी नाच हो रहा है।
हाँ, मगर वहाँ ज़रा दूसरे दर्जे के लोग हैं।
तो बहुत ही दिलचस्प होगा। सर समदर ने कहा और उसने महसूस किया कि अगर वो यहीं नीचे के रक़्स के कमरे में नाचेगा तो उसकी बीवी की आज़ादी में ख़लल पड़ेगा और वो पूरा लुत्फ़ न उठा सकेगी।
वो सर नौशेरवाँ अफ़रासियाब को वहीं छोड़ के अपनी सियाह पतलून की जेब में एक हाथ डाले मुस्कुराता हुआ बाहर निकला। उसकी बीवी चंद्रा रघुबीर के जिस्म से ज़रा इंच भर दूर हट के उसकी तरफ़ देख के मुस्कुराई। उसने भी मुस्कुराके उसकी मुस्कुराहट का जवाब दिया। फिर बाहर के बरामदे की भीड़ से होता हुआ चौड़े चौबी ज़ीने पर सीटी बजाता हुआ चढ़ने लगा।
दूसरे दर्जे के कुछ लोग नीचे उतर रहे थे। उस दूसरे दर्जे में महाराजाओं, आला तरीन हुक्काम और लखपति कारख़ानों के मालिकों के सिवा सब ही शामिल थे। जूनियर आई.सी.एस, छोटे कारख़ानों के मालिक, बड़े ताजिर, फ़िल्म कंपनियों के डायरेक्टर और हिंदुस्तानी परदा-ए-सीमीं के दरख़शाँ सितारे, महाराजाओं के कंट्रोलर और ए.डी.सी, मेजर और उनसे कम दर्जे के फ़ौजी अफ़सर।
ऊपर का नाच हॉल बहुत बड़ा था और कोई एक हज़ार के क़रीब लोग उसके बे-शुमार सुतूनों के दरमियान नाच रहे थे। चारों तरफ़ बरामदों में मेज़ें खचाखच भरी हुई थीं और सर समदर वापस जाने का इरादा कर ही रहा था कि महाराजा मानसरोवर के एक ए डी सी ने सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते उसे देख लिया। हलो सर समदर।
ओह, गुड इवनिंग। सर समदर ने जवाब दिया। वो अक्सर महाराजा मानसरोवर की पार्टियों में बुलाया जा चुका था। यहाँ ऊपर तो तिल रखने की जगह नहीं है।
सर समदर अगर आप जगह तलाश कर रहे हैं तो हमारी मेज़ पर चलिए।
ज़रूर शुक्रिया।
उस ए डी सी का नाम आफ़रीदी था। मेज़ पर बम्बई के एक मशहूर ताजिर का बेटा इकराम भाई दो लड़कियों के साथ बैठा था। आफ़रीदी ने सर समदर का उससे और दोनों लड़कियों से तआरुफ़ कराया। एक लड़की का नाम उसने छापा देवी बताया। ये एंग्लो इंडियन थी, लेकिन बड़ी ही फ़ैशन एबल साढ़ी पहने। एक ज़माने में फ़िल्मिस्तान की मशहूर परी रह चुकी थी। ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब हिंदुस्तानी फ़िल्मों की परियाँ बिल-उमूम एंग्लो इंडियन ही होती थीं और बोलते फ़िल्म का शुमार नवादिरात में होता था। फिर उन सितारों पर ज़वाल आया, बहुत कम बाक़ी रहीं। ज़्यादा तर इधर-उधर निकल गईं। छाया ने भी अवध के एक तअल्लुक़-दार साहब से शादी की। वो पी के उसे ख़ूब ठोकता था। तीन-चार साल बाद ये तलाक़ ले के उठ खड़ी हुई और अब ग़ैर वाबस्तगी के आलम में बम्बई में मुक़ीम थी। दूसरी लड़की शीरीं पारसी थी। मोटी, भद्दी, पस्त क़द और बे-हंगम चेहरे पर चौथाई इंच ग़ाज़े की तह जमी थी। बालाई लब के रोएं जो उस ग़ाज़े के बग़ैर शायद अच्छी-ख़ासी मूंछें मालूम होते, अब भी ग़ाज़े की उस दबीज़ तह से बग़ावत पर आमादा थे।
आफ़रीदी ने सबके लिए व्हिस्की और सोडा मँगवाया। सर समदर ने छाया से नाचने की फ़रमाइश की। ये वियाना का वॉल्ट्स था। हल्का, शीरीं, तेज़। उसने अपने सीने के मुक़ाबिल छाया का नौजवान जिस्म महसूस किया। भर-भर बाज़ू और शाने, अभी तक सख़्त। बाल रंगे हुए मगर घने और गर्दन और शानों और पुश्त को हसीन से हसीन तर बनाते हुए, जिस्म गुदाज़ और गठा हुआ होंट सुर्ख़, आँखें चमकती हुई और बनाती हुई।
आप बहुत अच्छा नाचते हैं सर समदर। छाया ने उससे कहा और उसके दाँतों और उसकी पलकों ने मिल के जाल फेंका।
नहीं मुझे तो नाचना कुछ यूँ ही सा आता है। लेकिन आप बहुत अच्छा नाचती हैं, जैसे कोई परी नाचे। इस कलमा-ए-तहसीन पर वो हँसी, उसका पूरा जिस्म हिला और हिलते ही सीनों से लेकर रानों तक उसके चिमटे हुए गुदाज़ जिस्म के तमाम अज़लात में हँसी और गुदगुदाहट की सी जुंबिश हुई। उस जुंबिश ने सर समदर के अधेड़ जिस्म से टक्कर खाई। आप बहुत ख़ूबसूरत हैं। ग़ैर मामूली... जैसे ग्रेटा गार्बो।
ओहो उसने कल्ले फुला के और फिर हंस के कहा, ये तो तारीफ़ नहीं हुई सर समदर। ग्रेटा गार्बो तो हरगिज़ ख़ूबसूरत नहीं।
फिर आप किसे ख़ूबसूरत समझती हैं?
जोन क्राफ़र्ड, मेरे ख़्याल में जोन क्राफ़र्ड बहुत ख़ूबसूरत है।
छाया देवी आप उससे कहीं ख़ूबसूरत हैं। आपमें बड़ी कशिश, बड़ी ग़ैर मामूली दिल-फ़रेबी है। बिल्कुल किसी राजकुमारी की सी।
वो फिर हँसी, फिर जिस्म की एक-एक रग, एक-एक उज़्व हँसा, फिर इसकी बोटी-बोटी ने सर समदर को छेड़ा। देखिए सर समदर आपने फिर ग़लती की। राजकुमारियों से ज़्यादा तो उनकी सारियाँ ख़ूबसूरत होती हैं।
आपका ज़ेहन ऐसा ही तेज़ है जितनी आपकी सूरत दिलकश है। छाया देवी आपने फ़िल्म की ज़िंदगी नाहक़ छोड़ी। मुझे यक़ीन है अब भी आप वापस जाएं तो बम्बई में तो कोई एक्ट्रेस आपका मुक़ाबला नहीं कर सकती।
वो दिन गुज़र चुके, छाया ने कहा, अब उस मार्केट में मेरी साख नहीं रही। हाँ अगर मुझे किसी बड़े आदमी की मदद मिल सके तो शायद... और उसकी भूरी आँखों ने सर समदर की आँखों को छेदने की पूरी कोशिश की, उसका जिस्म रक़्स के आख़िरी घुमाव में सर समदर के जिस्म से इस क़दर क़रीब आ गया कि उस क़ुर्बत की तेज़ी ने वियाना के वॉल्ट्स के आख़िरी घुमाव को दस दर्जा और ज़्यादा तेज़ कर दिया।
मेज़ की तरफ़ वापस आते हुए उसने कहा, शुक्रिया छाया देवी... इस मस्अले के मुतअल्लिक़ फिर तफ़सील से बातचीत करेंगे। आप दो-एक रोज़ में मुझसे ऑफ़िस में मिलें। मुझसे जो हो सकेगा... बम्बई की तमाम फ़िल्म एक्ट्रेसों में आप...
शीरीं इकराम भाई की गोद में बैठी थी। सर समदर ने वेटर से और व्हिस्की और सोडा और ख़्वातीन के लिए काकटेल लाने को कहा। आफ़रीदी नीचे महाराजा के पास गया था।
शीरीं ने इकराम भाई के कॉलर को छेड़ते हुए पूछा, उस सियाह परदे के पीछे क्या है। और उसने दूर एक परदे की तरफ़ इशारा किया।
सर समदर ने जवाब दिया, बड़ा ख़राब भेड़िया।
ओह, शीरीं ने मस्नूई तौर पर सहम के कहा।
आफ़रीदी आ गया और दूसरा नाच लैमबथ वॉक शुरू हुआ। आफ़रीदी ने छाया और इकराम भाई ने शीरीं को संभाला। दोनों लड़कियों ने सर समदर ने माफ़ी माँगी। उसने भी इजाज़त चाही वो ख़ुद मुतवस्सित तब्क़े की उस सोहबत से सेर हो चुका था। चौड़े चौबी ज़ीने उतर के फिर उसने नीचे की रक़्स गाह का क़स्द किया रास्ते में कोमोडोर नशे में धुत बहरी फ़ौज के एक और अफ़सर से कॉकटेल का ग्लास हाथ में लिए कह रहा था, मेरे ख़्याल में लेडी समदर बहुत आसानी है।
सर समदर को देख कर उसके साथी अफ़सर ने कहा, श्श-श्श श।
नशे में झूम कर कोमोडोर ने कहा, श्श श-श। और दोनों दूसरी तरफ़ मुड़ गए। रक़्स-गाह के एक सुतून के क़रीब उसकी बीवी रघुबीर से बातें कर रही थी। लेकिन उसकी आँखें एक नौजवान अफ़सर के चेहरे पर जमी थीं जो दूर खड़ा हुआ उसी अंग्रेज़ लड़की से बातें कर रहा था जिसने कुछ देर पहले माइक्रोफ़ोन पर फ़्राँसीसी गीत गाए थे। एक हिंदुस्तानी फ़ौजी अफ़सर चेकोस्लावीकिया के सिफ़ारत ख़ाने के एक अफ़सर से कह रहा था, ये टैक्सी नाचने वाली (वो लड़कियाँ जो दस रूपया चंदा दाख़िल करने पर आपके साथ एक नाच नाचती हैं) ये जो उधर सीधे हाथ की तरफ़ खड़ी है। मिस स्क्रीन, डोरा स्क्रीन, ज़रा उसका जिस्म तो देखिए। मुकम्मल, अगर ये तैयार हो जाए तो मैं आज इससे शादी कर लूँ। सर समदर ने उस लड़की की तरफ़ देखा। ऊँचा क़द दबीज़ जिस्म, सीने ख़ूब उभरे हुए, एंग्लो इंडियन। वो मुस्कुराया, उसने अपनी बीवी की तरफ़ निगाह डाली, वो वहाँ नहीं थी। लैम्बस्थ वॉक। नाचने वालों के हुजूम में उसने अपनी बीवी को देखा। एक झटके में वो रघुबीर के जिस्म पर आ गिरी, दोनों हँसे और चिमट गए और फिर नाचने लगे।
तीतरी मेरे हाथों की बनाई हुई है। वो तल्ख़ी से मुस्कुराया और क़ुतुब शुमाली वाले कमरे की तरफ़ चला। बूढ़ा सर नौशेरवाँ अफ़रासियाब अब भी वहीं था और व्हिस्की पर व्हिस्की चढ़ाए जा रहा था। हेलो समदर! ख़ूब लुत्फ़ उठा रहे हो?
नाच ख़त्म हुआ मायक्रो-फ़ोन पर किसी ने ऐलान सुनाया, हिस्पानीया के मज़लूम पनाह-गीरों की इमदाद के लिए लंदन के लार्ड मेयर ने जो चंदा जमा करना शुरू किया है। उस सिलसिले में हम बम्बई से भी हत्ता-अल-इमकान मदद कर रहे हैं। सबसे ज़्यादा मुझे इन रज़ा-कार ख़्वातीन का शुक्रिया अदा करना है जिन्होंने आज के शो और नाच को कामयाब बनाने के लिए ख़ास तौर पर मेहनत की है। इनमें सब से ज़्यादा तारीफ़ की मुस्तहक़ मिस डोरा स्क्रीन हैं। मिस डोरा स्क्रीन बार्सिलोना की फ़तह के वक़्त स्पेन में मौजूद थीं। उन्होंने वहाँ के हालात अपनी आँखों से देखे हैं इस शूलरी के जज़्बे के तहत जो नौजवानी और इंसान परस्ती ही का हिस्सा है मिस डोरा स्क्रीन के एक प्यार का नीलाम होगा। ये कह के वो हंसा। मजमा ने ज़ोर-ओ-शोर से तालियाँ बजाईं। हॉल में मर्द औरत सब साथ-साथ खचाखच भर गए। जो पीछे थे वो स्टूलों पर खड़े हो गए। मिस स्क्रीन डोरा। सीने ख़ूब उभरे हुए, दबीज़ जिस्म, ऊँचा क़द, ज़रा उसका जिस्म तो देखिए, मुकम्मल, आर्केस्ट्रा के तख़्त पर मुस्कुराती खड़ी थी, तबस्सुम और आँखें दोनों में चमक थी और शायद शर्म की भी ज़रा सी झलक हो। फिर प्यार का नीलाम हुआ। पचास से शुरू, सौ हुआ तो कप्तानों ने बोली बंद कर दी। हज़ार तक बड़े ताजिर कारख़ानों के मालिक बोलियाँ बोलते रहे। उसके बाद सिर्फ़ करोड़पति और महाराजे बाक़ी रह गए और बिल-आख़िर महाराज विश्वाश नगर ने चार हज़ार छः सौ रूपया में मिस डोरा का एक बोसा ख़रीदा। वो मूँछों पर ताव देते आगे बढ़े और बढ़ाए गए। उनकी घनी ख़िज़ाब लगी हुई मूंछों ने डोरा स्क्रीन के लबों को एक सेकंड के दसवीं हिस्से के लिए छुआ और फिर हसीना ने हंस के अपना मुँह हटा लिया। महाराजा के तीनों बेटे महाबीर, रघबीर और रघुबीर मजमा के पीछे आपस में कुछ कह के हँसने और टहलने लगे।
और समदर सोचने लगा, क्यों? नीलाम क्यों? क्या महाराजा यूँ चार हज़ार छः सौ रूपये नहीं दे सकते थे या नीलाम ही होना था तो किसी और चीज़ का क्यों नहीं हुआ। पिकासो की किसी तस्वीर का नीलाम हो सकता था जो जम्हूरियत-पसंदों की तरफ़ से लड़ रहा था। या किसी और तस्वीर का, किसी बला का नीलाम हो सकता था। एक औरत के बोसे का इनाम क्यों? क्या वो भी तिजारत का माल है?
तिजारत के माल का ख़्याल आते ही समदर को अपनी बीवी चंद्रा का ख़्याल आया। अपनी बनाई हुई तीतरी का, ये पर पुर्ज़े उसी ने तो निकाले थे। परों की जगह रेशमी साड़ियाँ सैंकड़ों की, हज़ारों की साड़ियाँ। पर निकल चुकने के बाद उड़ने से कौन रोक सकता है। इधर-उधर इसने अपनी बीवी को ढ़ूँढ़ा। क़ुतुब शुमाली वाले कमरे के दरवाज़े पर सिगरेट के धुएं में उसका चेहरा छुपा हुआ था।
आहिस्ते से चंद्रा के पास जा के उसने कहा, डार्लिंग अब घर चलोगी। चंद्रा मुस्कुराने लगी। छाया की तरह उसके दाँतों और पलकों ने मिल के जाल बिछाया, अब तो कहीं जाके पार्टी पर लुत्फ़ हो रही है और आप अभी से चलने को कहते हैं।
तो फिर डार्लिंग मुझे इजाज़त दो। सुबह-सवेरे मुझे बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्ज़ की एक मजलिस में जाना है और भी बहुत से काम हैं। राजकुमार रघबीर से कहना वो तुम्हें घर छोड़ दें।
आख़िरी जुमले के तंज़ पर चंद्रा के लबों ने ज़रा पेच-ओ-ताब खाया। मगर फ़ौरन ही संभल के वो मुस्कुराने लगी और उसके माथे की बिंदी खुल सी गई,शुक्रिया डार्लिंग।उसने अपने शौहर से कहा।
नाच तो शायद दो-ढाई बजे ख़त्म हो गया होगा मगर सुबह के पाँच बजे के क़रीब वो घर आई, रघबीर ही की मोटर में। गाड़ी से उतरने के बाद रघबीर ने चंद्रा के हाथ को एक तवील बोसा दिया, फिर समदर खिड़की से हट आया और सोता बन कर मसहरी पर लेट रहा। चंद्रा दबे पाँव आई, उसकी मसहरी के क़रीब। एक लम्हा तक वो सोचती रही कि अपने सोते हुए शौहर को प्यार करे या नहीं? फिर उसके चेहरे पर तल्ख़ी की सियाही और उसके होंटों पर एक तंज़ आमेज़ कजी पैदा हुई और वो सारी को फ़र्श पर फेंक, अपनी मसहरी पर लेट रही।
सात बजे सर समदर उठे। उनकी तीतरी मसहरी पर ग़ाफ़िल पड़ी सो रही थी। उसके पर तोड़ना किस क़दर आसान था? चाँदी ही के तो थे। चाँदी का दरवाज़ा बंद करदो, तीतरी और उसके पर दोनों ग़ायब और तीतरी फिर कमला कीड़ा बन जाएगी। एक तलाक़ के बाद दूसरा मिलने में इतनी आसानी न होगी। मगर उन्हें चंद्रा पर बड़ा तरस आया। उनकी बीवी मगर सिन में उनकी बेटी के बराबर और वो सोचने लगे कि उनकी बेटी होती तो क्या वो उसके पर नोचते, क्या वो उसे रोता देख सकते। अपने वकील के पास जाने का इरादा उन्होंने मुल्तवी कर दिया।
कपड़े बदलते हुए वो सोचने लगे, हम सबमें ज़्यादा फ़य्याज़ कौन है... मैं? जो मालिक हूँ और अपनी मिल्कियत पर जबर नहीं करता? या डोरा जिसने अपना प्यार बेचा? या मेरी चंद्रा जिसने अपने रेशमी आराम-ओ-आसाइश के लिए अपने वालिदैन को अपना जिस्म मेरे हाथों बेच लेने दिया। वो हंसा, समाज के इस खनकते हुए राज में कौन फ़य्याज़ है? कौन फ़य्याज़ रह सकता है? यहाँ तो हर तरफ़ लेन- देन ही लेन-देन है। यहाँ शुक्र-ओ-शिकायत और गिला-शिकवा क्या?
(5)
रात के साढ़े सात बजे के क़रीब सग़ीर अपने छोटे से फ़्लैट को वापस आया। माहिम में मछलियों की बू यहाँ तक आती थी। मगर शहर में फ़्लैट महँगे थे। दरवाज़ा मुक़फ़्फ़ल था, जिसके मानी ये थे कि नाहीद जहाँ उसकी बीवी अभी तक वापस नहीं आई थी। अभी तक नहीं आई तो खाना कब पकेगा। क़रीब के ईरानी होटल के खाने का नाम सुन कर उसे उबकाइयाँ आती थीं।
हिंदुस्तान में इश्तिराकी दो क़िस्म के होते हैं। पहली क़िस्म में वो लोग हैं जिनमें से सिर्फ़ चंद को क़ल्ब ओ काफ़िर, दिमाग़श मोमिन अस्त कहा जा सकता है। लेकिन इस पहली क़िस्म के ज़्यादा तर इश्तिराकी गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया या सूबजाती सरकारों में अच्छे-अच्छे ओहदों पर फ़ाइज़ हैं। मुल्क के बहुत से अदीब, बहुत से शायर, बहुत से अख़बार नवीस उसी क़िस्म के गिने जा सकते हैं। अगर वजह-ए-जवाज़ की कमी थी तो जून 1941 से वजह-ए-जवाज़ भी मिल गई और अब ये मुमकिन हो गया कि कोई मालाबार हिल बम्बई या जुबली हिल हैदराबाद या माल लाहौरिया किंग एडवर्ड रोड नई दिल्ली में क़ियाम करे और इश्तिराकी होने का दावा करे। उनमें से मुमकिन है बा'ज़ ऐसे हों जिन्हें इश्तिमाली तहरीक से थोड़ी बहुत ज़ेहनी हमदर्दी हो। मगर ऐसा शायद ही कोई हो जो वक़्त आने पर अपने फ़ैशन एबल पत्ते तक से दस्त बरदार होने को तैयार हो। दूसरी क़िस्म के इश्तिराक वो हैं जो बरसों जेल भुगत चुके हैं। मज़दूरों के साथ रह के उन्ही की ख़ुराक खा चुके हैं। बीमारियों में एक ख़ुराक दवा के लिए तरस चुके हैं। ऐसे इश्तिराकियों में से बहुत सों ने कभी सरकारी या किसी और आरामदेह मुलाज़मत की कोशिश नहीं की। जब मौक़ा आया तो उससे इनकार किया और 22 जून 1941 को अपने लिए आराम तलबी या जाह-ओ-तलबी का बहाना नहीं बनाया।
सग़ीर और उसकी बीवी नाहीद जहाँ दोनों का शुमार इस दूसरे क़िस्म के इश्तिरकियों में था, वो अगरचे यूपी का रहने वाला था। लेकिन अरसे से बम्बई में सूत के कारख़ाने के मज़दूरों की तंज़ीम करता रहा था। उसकी क़ाबिलियत और उसकी ख़ूबी-ए-तहरीर को देख कर अब दो-तीन साल हुए एक मक़ामी क़ौमी अख़बार में उसे डेढ़ सौ रूपया की जगह दी गई थी। जंग के ज़माने में और वो भी बम्बई की ज़िंदगी के लिए डेढ़ सौ रूपया क्या होते हैं। लेकिन अब वो तन्हाई और ठोकरों की ज़िंदगी से थक गया था, बे ज़ार नहीं हुआ था। वक़्त पड़े तो वो अब भी एक अदना सिपाही की तरह अपनी ख़िदमात पेश करने को तैयार था, लेकिन दो साल की जेल, ख़राब ग़िज़ा, दिन-रात बीमार। मज़दूरों की क़ुर्बत की वजह से वो थक ज़रूर गया था। उस नौकरी ने उसे दम लेने की ज़रा सी मोहलत दी और क़ुदरत ने उसे एक रफ़ीक़ भी इनायत किया। ये रफ़ीक़ या रफ़ीक़ा-ए-हयात उसकी बीवी नाहीद जहाँ थी। उसने एक मुतवस्सित तबक़े के बुर्ज़ुवा ख़ानदान से बग़ावत की थी। तालीम मुकम्मल किए बग़ैर चल खड़ी हुई थी। ऑल इंडिया नर्सेस एसोसिएशन की सरपरस्ती में उसने नर्सिंग की तरबियत अलबत्ता हासिल करली थी और उसके सिवा उसे लिखने का सलीक़ा था। उर्दू अफ़साने अच्छे ख़ासे लिख लेती थी और रिसालों से कुछ न कुछ मुआवज़ा मिल जाता। अफ़सानों के दो-तीन मजमुए भी छप चुके थे, जिनसे यक-मुश्त आमदनी हो जाती।
सग़ीर से नाहीद जहाँ की मुलाक़ात दिल्ली में नए अदीबों के एक जलसे में हुई। नाहीद का पहला आशिक़ उससे अलग हो चुका था और उसकी यादगार उसका पहला बच्चा इस ज़िंदगी से। अब वो तीस साल की थी, लेकिन अब भी उसके कुंदनी जिस्म पर ज़र्दी और झुर्रियाँ कहीं फटकने न पाई थीं। हिंदुस्तानी लड़कियों के चेहरों की बे-रौनक़ी के दो असबाब हुआ करते हैं। पहले तो इस बे रौनक़ी का बाइस ताज़ा और साफ़ हवा की कमी थी। बड़ी हद तक ये सबब अब भी बाक़ी है। लेकिन एक थोड़ी सी तादाद ऐसी लड़कियों की भी है, खुसूसन बड़े शहरों में, जिनके नज़दीक ताज़ा और साफ़ हवा के इस्तेमाल की वाहिद शक्ल ये है कि उनका चेहरा तरह-तरह के ग़ाज़ों, लोशनों, क्रीमों से थोपा और रंगा जाए ताकि जब वो हवा खाने निकलें तो दाएँ-बाएँ दोनों तरफ़ चाहने वालों के जनाज़े निकल जाएँ। जिस पार्टी में वो जाएँ वहाँ आधे नौजवान तो देखते ही बेहोश हो जाएं और बाक़ी आधे जो बेहोश न हों वो सजदे में गिर पड़ें। नाहीद ने पहले सबब से बग़ावत की थी और दूसरे से इहतियात बरती थी।
सग़ीर के चेहरे पर अलबत्ता ज़र्दी थी। थकन की, ज़ख़्मी सिपाही के रुख़्सारों की ज़र्दी। ज़र्दी जो उसके दुबले रुख़्सारों से होकर उसकी मूँछों तक चली गई थी। उस दुबले लांबे चेहरे पर मूंछें कितनी दिलचस्प मालूम होती थीं। दिलचस्प लेकिन मज़हका-ख़ेज़ नहीं। क्योंकि सग़ीर की आँखें अगरचे अंदर धँस गई थीं। उनमें अब भी कशिश थी। अब भी एक तरह की जाज़िबियत थी। उसके दुबले लांबे चेहरे के ख़द्द-ओ-ख़ाल में अब भी तनासुब था। उसका सीना भी अंदर को धँस रहा था मगर नाहीद जानती थी उसका इलाज कितना आसान है। हयातीन अलिफ़ और दाल और सीने की मछलियाँ फिर उभर आएँगी। उसे ख़ुद अपनी तीस साल की उम्र का एहसास था। उसे भी रिफ़ाक़त की ज़रूरत थी और चंद मुलाक़ातों के बाद, चंद रोज़ साथ फिरने के बाद उसने सग़ीर के लिए एक तरह की मोहब्बत महसूस की, ऐसी मोहब्बत जो वालिहाना इश्क़ के मुक़ाबिल उन्स से ज़्यादा क़रीब थी। हमदर्दी, उन्स, रिफ़ाक़त, इंसानियत की मोहब्बत और इस तरह दोनों की शादी हो गई। नाहीद अपने मियाँ के साथ बम्बई गई। जहाँ उसे एक हस्पताल में मैटर्न की जगह मिल गई और उसने आहिस्ता-आहिस्ता नर्सों की तंज़ीम शुरू की। उस रोज़ सग़ीर ने अपनी खादी की शेरवानी उतारी। खादी के कुरते और पाजामे को उसने बड़े चौकोर आईने में देखा। जिसमें नाहीद, जो लबों पर सुर्ख़ी नहीं लगाती थी, अपने गुदाज़, भरे हुए जिस्म, चौड़े सेहतमंद सीने और उसपर सादा यूनिफ़ार्म की बहार देख लिया करती थी। ख़ुसूसियत से वो अपने बालों का तमाशा देखती जो उसके घुटनों तक पहुँचते थे और सग़ीर को उन बालों से इश्क़ था। आईने में अपने खद्दर के लिबास को देख कर सग़ीर को ज़रा सी कोफ़्त हुई। चंद मुतनासिब जिस्मों पर तो बेशक खद्दर अच्छे से अच्छे कपड़े से ज़्यादा खिलता है। वरना उमूमन ऐसा मालूम होता है कि कभी किसी पतले तकिये और किसी गाव तकिया पर किसी ने मोटा झूटा ग़िलाफ़ चढ़ा दिया हो।
उसके लिखने की मेज़ पर एक चिट्ठी थी,मैं मक़बूल के साथ सिनेमा देखने जा रही हूँ। मुमकिन है मुझे वापसी में देर हो। नेमत ख़ाने में कुछ सैंडविच बिस्कुट रखे हैं। नाहीद।
सग़ीर उस चिट्ठी को पढ़ के सकते के आलम में खड़ा का खड़ा रह गया। इसका दिमाग़ अच्छी तरह समझ नहीं सका। इसकी मुतअह्हिल ज़िंदगी में ये पहली बार थी कि इसकी बीवी, इसके किसी दोस्त के साथ सिनेमा देखने गई थी और शायद तन्हा। कम-से-कम मक़बूल दादर में शिवाजी पार्क के क़रीब तन्हा रहता था। सग़ीर अपने आपसे हुज्जत करने लगा। मुझे ये फ़र्ज़ कर लेने का क्या हक़ है कि वो मक़बूल के साथ तन्हा सिनेमा गई है। मुमकिन है और भी कई लोग हों।
वो अपने मेज़ पर बैठ के काम करने लगा। आज कल वो इस मबहस पर तहक़ीक़ कर रहा था कि क्या मार्क्सियत मज़हब की ग़ैर मआशी क़दरों को बर्दाश्त कर सकती है। ये शुबहा उसके दिल में अरसे से खटक रहा था कि मार्क्स मुआशियेन का इमाम फ़लसफ़ियाना असलहा से अच्छी तरह मुसल्लह नहीं था। माबाद-उल- तबईयात पर अच्छी तरह हावी हुए बग़ैर फ़लसफ़े और मज़हब को उन्ही के हथियारों से शिकस्त दिए बग़ैर माद्दियत इर्तिक़ा बिलज़िद कोई बाक़ायदा फ़लसफ़ियाना निज़ाम नहीं बन सकती। वो अमली निज़ाम बन जाए लेकिन फ़लसफ़ियाना निज़ाम नहीं बन सकती। मार्क्स के बहुत से अक़ीदत मंदों ने इस क़िस्म का शक महसूस किया था। मसलन बाज़ारोफ़, बोगदानोफ़, लोना चारस्की, हिल फ़ोंड, बरमन, योश के विच और सोदरोफ़। उन्ही के जवाब में लेनिन ने माद्दियत और तजुर्बी तन्क़ीद लिखी थी। लेकिन लेनिन के दलाइल से सग़ीर की तशफ़्फ़ी नहीं हो सकी थी।
वो काम करने लगा। साढ़े नौ बजे, दस बजे। लेकिन नाहीद नहीं आई। अब तक उसे आ जाना चाहिए था। सिनेमा ज़्यादा से ज़्यादा साढ़े आठ बजे ख़त्म हो जाता है। लेकिन मुमकिन है कि वो लोग फ़ोर्ट के किसी सिनेमा को गए हों। मुमकिन है बस मिलने में देर हुई हो। उसने नेमत ख़ाने से सैंडविच निकाल के खाए। काम करना चाहा। मगर नाहीद की हँसती हुई सूरत, उसके भरे-भरे बा-रौनक़ गाल और सफ़ेद दांत, उसके चौड़े शाने, उसके जिस्म की गर्मी बराबर हाइल हो के औराक़ को धुंदला कर देते। सतरों का मतलब ख़ब्त कर देते। दिमाग़ की मंतिक़ी राह में तरह-तरह के रोड़े अटकाते। इस्तिदलाल के सामने यक-लख़्त आसाबी, जज़्बाती ख़ंदक़ें पैदा कर देते। एक ख़ला पैदा हो जाता और दिल में एक तरह का वहम सा होने लगता।
फिर ग्यारह बजे दादर की तरफ़ से और फ़ोर्ट से मालूम नहीं कितनी बसें आईं और सामने की सड़क से शोर मचाती गुज़र गईं। उसने लेनिन की किताब और अपनी नोट बुक दोनों को बंद किया और टहलने लगा। अब पहली मर्तबा एक अजीब तरह का जज़्बा सा उभरने लगा, ऐसा जज़्बा जो अगर तकमील को पहुँचे तो सदमा कहलाए। लेकिन इस इब्तिदाई दर्जे में उसके लिए कोई नाम नहीं था। इस जज़्बे के साथ-साथ, उसके मुतवाज़ी एक और जज़्बा था, ख़लजान का सा। उसका नाम मुतअय्यन था, शक।
उसने सिगरेट सुलगाया और टहलने लगा। सोचने लगा कि मुझे शक और किसी क़िस्म के सदमे का हक़ ही क्या है। नाहीद या उसका जिस्म मेरी मिल्कियत तो है नहीं। क्या इस महाजनी तरन से पहले बरबरीयत के सुनहरी दौर में तमाम औरतें तमाम मर्दों और तमाम मर्द तमाम औरतों की मिल्कियत नहीं होते थे। मुमकिन है यही क़ानून-ए-फ़ितरत हो। मुमकिन है जोड़े दार शादियाँ क़ानून-ए-फ़ितरत की ख़िलाफ़ वर्ज़ी हों। तमद्दुन की सुबह-ए-काज़िब के साथ-साथ तो ये शादियाँ वजूद में आई हैं। पहले माएँ बहनें हराम हुईं, फिर क़बीले की औरतें हराम हुईं, फिर एक मर्द और एक औरत की जोड़े दार शादियाँ होने लगीं।
और वो सोचता रहा। क़ानून-ए-फ़ितरत? लेकिन इंसान का काम तो फ़ितरत के क़ानून की पाबंदी नहीं, उसकी तस्ख़ीर है। हल और ट्रेक्टर, दूर बीनें और ख़ुर्द-बीनें सब क़ानून-ए-फ़ितरत तोड़ने के लिए हैं। ज़मीन और ज़िंदगी और सितारों पर इंसान के हुक्म चलाने के लिए हैं।
नाहीद, नाहीद, नाहीद अभी तक नहीं आई और मक़बूल यक़ीनन ख़ूबसूरत है। छः फ़िट दस इंच क़द, पंजाबी, सुर्ख़ व सफ़ेद। लड़कियों की हद तक तो वो इस्म बा मुसम्मा है। सबकी सब उसपर कैसे मरती हैं।
फिर दूसरा सिगरेट पहले सिगरेट ही से जला के उसने सोचना शुरू किया। नाहीद और मक़बूल। लेकिन इन जोड़े दार शादियों में सिर्फ़ एक शरीक-ए-हयात की पाबंदी औरतों ही पर लाज़िम क़रार दी गई। इस्मत का मुतालिबा सिर्फ़ उनसे किया गया। रह गया ये नज़रिया कि इस्मत की क़ैद औरतों ने ख़ुद अपने ऊपर आयद की है। उसके मआशी वजूद का अगर तज्ज़िया किया जाए तो मुमकिन है उसमें कुछ असलियत निकले। जब औरत इस क़दर क़ुर्बानी पर तैयार हो गई तो मर्द जो मवेशियों और ग़ुलामों को अपनी ख़िदमत और मज़दूरी के लिए इस्तेमाल कर रहा था, औरत को भी अपनी ख़ादिमा की तरह इस्तेमाल करने लगा। इंसान-ए-क़दीम की समझ में आ गया कि बच्चे की पैदाइश में बाप का भी कुछ हिस्सा होता है। हक़ मादरी और क़ानून विरासत मादरी के ख़ात्मे के साथ-साथ औरत की जिन्स को पूरी मआशी और इमरानी शिकस्त मिली। क्या नाहीद भी मेरी इस तरह की बाँदी, इस तरह की कनीज़ है। क्या और सब आज़ादीयों की तरह जिन्सी आज़ादी का सवाल ख़ुद बख़ुद नहीं पैदा होता। लातिनी लफ़्ज़, फ़ेमोलस के मानी घरेलू ग़ुलाम के हैं और फ़ेमेलिया के मानी ग़ुलामों की उस कुल तादाद के हैं। जो किसी एक मर्द की मिल्कियत हो। यही लफ़्ज़ फ़ेमेलिया आज भी इतालवी में इस्तेमाल किया जाता है।
औरत किसलिए दूसरे मर्दों के पास न जाए। इसीलिए ना कि विरासत पिदरी की हद तक शक का इमकान बाक़ी न रहे। मियाँ सग़ीर तुम्हारे पास कौन सा असासा, कौन सी जायदाद है? रफ़्ता-रफ़्ता इस्मत का ये तख़य्युल कम से कम मशरिक़ में, अपने मआशी पस-ए-परदा से निकल कर मक़सूद बिलज़ात बन गया। इज़्ज़त को माल और जान दोनों से ज़्यादा अहमियत दी जाने लगी। हम मशरिक़ी हमेशा तसव्वुरात के दीवाने रहे... अज़ बाम ख़ाना ता बह सुरय्या अज़ान मन। मशरिक़ी मर्द तो हमेशा बाम तसव्वुरात के दीवाने रहे... अज़बाम ख़ाना ताबा सुरय्या अज़ान मन। मशरिक़ी मर्द तो हमेशा बाम ख़ाना से तिरिया तक इल्म कलाम, साहबदिली, इज़्ज़त नफ़स, इस्मत तख़य्युल के हवाई क़िले बनाते रहते और बाम ख़ाना के नीचे रहने वाली घर वाली को उन्होंने उन ख़्याली महलों के पास भी न फटकने दिया। अमीर ख़ुसरो अपनी लड़की को दीवार की तरफ़ पुश्त करके बैठे रहने की तालीम देते रहे। कभी-कभी मर्द भी इन हवाई क़सरों से नीचे उतर आए और अमरद परस्ती और बहमीयत के गंदे दलदल में ऐसे ग़ोते लगाते कि हैरत होती।
इब्न यमीन... उसका दीवान बड़ी आब-ओ-ताब से हाल ही में शाए हुआ है। सग़ीर उसके वरक़ उलटता रहा। उसमें मौएज़त और पंद और हक़ परस्ती हर-हर शे'र से हुवैदा थी। यहाँ तक कि वो एक ग़ज़ल पर पहुँचा। ऐसी फ़ुहश ग़ज़ल कि मिर्ज़ा कानी और जाफ़र ज़टल्ली शर्मा जाएँ।
इब्न यमीन के दीवान से उसके दिमाग़ की मंतिक़ी हरकत जो उसकी जज़्बाती बेचैनी से बराबर लड़ रही थी फिर उसे घरेलू औरत की तरफ़ वापस ले आई और सग़ीर ने सोचना शुरू किया। क़ुरून-ए-वुस्ता बल्कि यूनान क़दीम के... और फिर अलिफ़ लैला के वो दो मशहूर ड्रामाई किरदार। चालाक आशिक़ और बेवक़ूफ़ शौहर। वो ड्रामा जिसको एलेंगिल्ज़ ने बड़ी ख़ूबसूरती से इस एक जुमले में बयान किया है। शौहरों ने बीवियों पर फ़तह पाई, लेकिन उन शिकस्त खाने वालियों ने अपनी आली ज़र्फ़ी से फ़ातिहों के लिए ताज का इंतज़ाम कर दिया... और ताज? फ़्राँसीसी और सत्रहवीं और अठारवीं सदी के अंग्रेज़ी ड्रामा का वह संगीनियों का ताज। संगीनियों का ताज जो ग़रीब शौहर को तो नज़र नहीं आता। लेकिन जिसे और सब देख-देख के हँसते हैं। संगीनियों का ताज जिसके मानी ये हैं कि उस बादशाह की मल्लिका हरजाई है। उस बादशाह की मल्लिका दूसरे मर्दों के जिस्म से वाक़िफ़ है।
इस रफ़्तार तख़य्युल से एक मिनट के लिए सग़ीर का जज़्बा-ए-रश्क सारे दिमाग़ी इस्तिदलाल पर हावी हो गया। आईने में उसने अपना चेहरा देखा जो लाल हो रहा था। उसके ज़र्द चेहरे को लाल होने के मवाक़े बहुत कम मिलते थे। ये सुर्ख़ी ज़र्दी की ज़िद नहीं उसकी इंतिहा थी। आईने में उसे अपने सर पर कहीं सींग नज़र नहीं आए। ख़ुदा का शुक्र है। दुनिया, यहाँ तक कि हिंदुस्तान, कम से कम शहरों का हिंदुस्तान ... क़ुरून-ए-वुस्ता को सदियों पीछे छोड़ आए थे। वरना सींगों का उग आना कुछ अजीब बात न होती। अब हँसने वालों के हर्बे दूसरे हैं। ज़्यादा तर तो पीठ पीछे भोंडा मज़ाक़ करके जिसमें जिन्सी फे़अ्ल की तरफ़ बाज़ारी इस्तिलाह में इशारा होता है, हँस लेते हैं और मामला रफ़्त गुज़श्त हो जाता है। बा'ज़ ज़रा बे-दर्दी से बदनसीब शौहर के सामने भी ज़िक्र कर देते हैं। लेकिन साफ़-साफ़ नहीं, इशारतन और तंज़न और इस अमर से बिल्कुल मुत्मइन कि उनके अपने घर महफ़ूज़ हैं। ज़रा मस्ख़रे अपने घरों की तो नब्ज़ देखें।
लेकिन इसी दरमियान में इंसान ने जिन्सी तअल्लुक़ में एक ऐसा इर्तिक़ाई जज़्बा तख़्लीक़ किया है। जिसे कोई और हैवान नहीं जानता। इश्क़ का जज़्बा, वालिहाना कशिश का जज़्बा एक दूसरे के लिए मुकम्मल क़ुर्बानी और कामिल ईसार का जज़्बा। अगर उसकी और नाहीद की शादी की तह में ये जज़्बा किसी न किसी तरह पैदा हो चुका है तो दोनों फ़रीक़ों पर इस्मत वाजिब आती है। तब तो वो दोनों एक दूसरे के लिए हैं और दोनों में से कोई किसी और के लिए नहीं।
सिनेमा के बाद मक़बूल के फ़्लैट में वो इंतिज़ार करती रही। यानी उसका तहत-अश्शऊर इंतिज़ार करता रहा कि जो हसीन नौजवान उसके सामने सोफ़े पर बैठा है। अब उसका हाथ उसके जिस्म से मस करेगा। अब उसके लब, उसके अपने लबों को तलब करेंगे और नाहीद ख़ुद अपने आपको कोई जवाब न दे सकी, कोई फ़ैसला न कर सकी कि अगर हाथ बढ़ें या लब क़रीब आएं तो वो मुज़ाहिमत करे या नहीं और मुज़ाहिमत करे तो किस क़दर। वो ख़ुद तो जानती न थी। शायद ऐन वक़्त पर वो तस्फ़िया कर सकती। खाने के बाद उस तन्हाई में और सब तरह की बातें हुईं। काग़ज़ के कारख़ानों के मज़दूरों की अंजुमन के मुतअल्लिक़ जिसमें मक़बूल काम कर रहा था। नर्सों की ज़िंदगी के मुतअल्लिक़, जंग और जदीद अदब पर तब्सिरे हुए। कुछ मुश्तबहा मज़ाक़ भी हुआ और मक़बूल ने नाहीद के हुस्न की तारीफ़ भी की। लेकिन आशिक़ी की थोड़ी बहुत कोशिश की तो सिर्फ़ आँखों में।
और आँखों का बाहमी रब्त नाक़िस सा था। एक तरह की जिन्सी कशिश ज़रूर थी। लेकिन निगाहों का रब्त जज़्ब-ए-मुतलक़ का रब्त नहीं था। मक़बूल को अपने दोस्त का और नाहीद को अपने शौहर का लिहाज़ था और ये लिहाज़, न भी होता, तब भी निगाहों में सिर्फ़ गुनगुनी सी सरगर्मी थी, आग न थी और बिजली का तो कहीं दूर-दूर पता न था। इसलिए न हाथों ने रब्त क़ाइम करने की कोशिश की, न लबों ने।
मगर निगाहों की ये हल्की सी कशिश क्या थी और इससे आरिज़ी लुत्फ़ क्यों हासिल हुआ? ये सवाल नाहीद ने मक़बूल के फ़्लैट से वापस होते हुए सोचा। ग़ालिबन इस क़िस्म की ख़फ़ीफ़ सी जिन्सी कशमकश जो जिस्मानी रब्त की तलबगार थी एक तरह का नफ़सियाती सेफ़्टी वाल्व है। एक मर्द से वालिहाना इश्क़ के बाद जज़्बात की सैरगाह। दिल की ख़ुफ़िया तमन्नाएं निकालने का एक बे ख़तर ज़रीया। शायद इसीलिए मग़रिबी तमद्दुन का हुक्म है कि बीवियाँ अपने शौहरों के साथ रक़्स न करें। दूसरों के साथ नाचें और दावतों के मेज़ों पर अपने शौहर के साथ न बैठें दूसरे मर्दों के पास बैठें। उन्ही रिआयतों से शायद यूरोप ने इज़दवाजी ज़िंदगी की अस्मत को कामयाब बनाना चाहा। मुतलक़ उल अनानी हुक्मुरानी के सिवा यही एक सूरत थी।
अब साढ़े ग्यारह हो चुके थे। वो बस से उतर कर सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। बेचैनी से ये ख़्याल उसे परेशान करने लगा कि कहीं सग़ीर को शक न हो। कहीं वो कुछ और न समझ रहा हो। उसके बाद इश्क़िया इज़्दिवाजी ज़िंदगी में एक काँटा सा खटकने लगेगा। इसीलिए शायद औरतों ने शुरू-शुरू में इस्मत को अपने ऊपर लाज़िम गर्दाना था। फिर नाहीद को ताज्जुब हुआ कि क्यों वो ख़ुद सग़ीर के सामने अपनी बरईयत पेश करना चाहती है। उसे यक़ीन दिलाना चाहती है कि वो मासूम है और वो सिर्फ़ उसी को चाहती है। आख़िर वो उसकी मिल्कियत तो नहीं।
और सग़ीर ने ज़ीनों पर उसके क़दमों की चाप पहचानी, दरवाज़ा खोला। वो हँसती हुई खरी आँखें, अपनी सफ़ाई पेश करने के लिए कुछ कहना ही चाहती थीं कि दो गुदाज़ गोरे हाथ बढ़े और उन हाथों ने उसके जिस्म को घेर लिया, दो गुदाज़ नाज़ुक लबों ने उसके लबों पर मुहर लगा दी और ये बोसा, ये लम्स इतना सच्चा, इतना वालिहाना था कि फ़रीक़ैन में से किसी को न कुछ पूछने की ज़रूरत रही न जवाब देने की।
प्यारे तुमने वो सैंडविच खाए। जल्दी में तुम्हारे लिए मैं और कुछ न बना सकी। कहो तो अभी अंडों का ख़ागीना तल दूँ।
तब वैताल ने पूछा, महाराज आप बताइए इन तीनों में सबसे ज़्यादा फ़राख़-दिल और फ़य्याज़ कौन था? मक़बूल जिसने अपने दोस्त का लिहाज़ किया, या सग़ीर जिसने औरत की ज़ात और उसके हक़ का लिहाज़ किया।
महाराज त्री विक्रम सिना ने कहा, वैताल उस अजीब आने वाले ज़माने के लिहाज़ से मैं भला क्या तस्फ़िया कर सकता हूँ क्योंकि तू कहता है कि इस अजीब ज़माने में कश्तियाँ मछलियों की तरह पानी के अंदर चलेंगी और मकान हवा में पंछियों की तरह उड़ेंगे और लोहे की नलियों में से आग निकलेगी। लेकिन उस आग की भट्टी से पिघल कर निकलने के बाद अगर इंसान सचमुच खरा सोना बन जाए और ऐसा वाक़िआ जैसा तू बयान करता है, पेश आए तो मैं तो ये कहूँगा कि सग़ीर, नाहीद और मक़बूल तीनों बराबर फ़य्याज़ थे। या ये कि इनमें से कोई ख़ास तौर पर फ़य्याज़ और फ़राख़ दिल न था। हर एक अपना और दूसरे का हक़ जानता था और दिल और जिस्म की मोहब्बत में इम्तियाज़ कर सकता था, इन दोनों के फ़र्क़ को समझता था।
जय महाराज की। वैताल ने कहा और ख़ामोश हो गया।
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