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मंत्र

प्रेमचंद

मंत्र

प्रेमचंद

MORE BYप्रेमचंद

    शाम का वक़्त था। डाक्टर चड्ढा गोल्फ़ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर दरवाज़ा के सामने खड़ी थी कि दो कहार डोली उठाए आते दिखाई दिए। अक़ब में एक बूढ़ा लाठी टेकता रहा था। डोली मतब के सामने आकर रुक गई। बूढ़े ने धीरे धीरे आकर दरवाज़े पर पड़ी हुई चिक में से झाँका। ऐसी साफ़ सुथरी ज़मीन पर पाँव रखते हुए उसे ख़दशा लाहक़ हो रहा था कि कोई झिड़क दे। डाक्टर साहब को मेज़ के क़रीब खड़े देखकर भी उसे कुछ कहने की जुर्रत हुई।

    बूढ़े ने हाथ जोड़ कर कहा, “हुज़ूर बड़ा ग़रीब आदमी हूँ, मेरा लड़का कई रोज़ से...”

    डाक्टर साहब ने सिगार सुलगा कर जवाब दिया, “कल सुबह आओ, कल सुबह। हम इस वक़्त मरीज़ों को नहीं देखते।”

    बूढ़े ने घुटने टेक कर ज़मीन पर सर रख दिया और बोला, “दुहाई है सरकार की, लड़का मर जाएगा... हुज़ूर चार दिन से आँखें नहीं...”

    डाक्टर चड्ढा ने कलाई पर नज़र डाली, महज़ दस मिनट बाक़ी थे। गोल्फ़ स्टिक खूँटी से उतारते हुए बोले, “कल सवेरे आना, कल सवेरे, ये हमारे खेलने का वक़्त है।”

    बूढ़े ने पगड़ी उतार कर चौखट पर रख दी और रोकर बोला, “हुज़ूर एक निगाह डल दें, महज़ एक निगाह... लड़का हाथ से चला जाएगा हुज़ूर। लड़कों में से यही एक बच रहा है... हुज़ूर हम दोनों आदमी रो रोकर मर जाएंगे, सरकार का इक़बाल बढ़े... दीनबंधु...”

    ऐसे गँवार और नासमझ देहाती तक़रीबन रोज़ ही आया करते थे। डाक्टर साहब उनकी फ़ित्रत से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। कोई कितना ही क्यों कहे, वो अपनी ही रट लगाते जाएंगे, किसी की सुनेंगे नहीं। आहिस्तगी से चिक उठाकर मोटर की तरफ़ बढ़े। बूढ़ा उनके पीछे ये कहता हुआ “सरकार! बड़ करम होगा, हुज़ूर रहम कीजिए। बड़ा बेबस और दुखी हूँ... दुनिया में और कोई नहीं है बाबू जी।”

    लेकिन डाक्टर साहब ने उसकी तरफ़ मुँह घुमा कर देखा तक ना। मोटर पर बैठ कर बोले, “कल सुबह आना।”

    मोटर चली गई। बूढ़ा कई मिनट तक तस्वीर की तरह साकिन खड़ा रहा। दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं जो अपनी तफ़रीह के लिए दूसरों की ज़िंदगी की भी पर्वा नहीं करते। शायद इस पर अब भी उसे विश्वास होता था। मुहज़्ज़ब दुनिया इस क़दर संग-दिल और बेहिस है इस का ऐसा ताज्जुबअंगेज़ एहसास उसे अब तक हुआ था। वो पुराने ज़माने के उन लोगों में से था जो लगी हुई आग बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी झगड़े को मिटाने के लिए हर वक़्त तैयार रहते थे।

    जब तक मोटर बूढ़े की नज़रों में रही, वो वहीं खड़ा उसे टिकटिकी बाँधे देखता रहा। शायद उसे अब भी उनके लौट आने की उम्मीद थी। फिर उसने कहारों से डोली उठाने को कहा। डोली जिधर से आई थी उधर ही चली गई। चारों तरफ़ से मायूस हो कर वो डाक्टर चड्ढा के पास आया था। उनकी बड़ी तारीफ़ सुनी थी। यहाँ से ना-उम्मीद हो कर वो किसी दूसरे डाक्टर के पास नहीं गया, माथा पीट कर गया।

    इसी रात उसका हँसता खेलता सात बरस का बच्चा इस दुनिया से रुख़्सत हो गया। बूढ़े माँ बाप की ज़िंदगी का यही एक सहारा था। उसी का मुँह देखकर वो ज़िंदा थे। उस चराग़ के गुल होते ही ज़िंदगी की तारीक रात में संसनाहटें सी घुसीं। बुढ़ापे की तुंद मुहब्बत टूटे हुए दिल से निकल कर उस तारीकी में बिलक बिलक रोने लगी।

    कई बरस गुज़र गए। डाक्टर चड्ढा ने दौलत के साथ साथ इज़्ज़त भी ख़ूब कमाई। और अपनी सेहत की सख़्ती से हिफ़ाज़त की, जो एक ग़ैर-मामूली बात थी। ये उनकी बा-क़ायदा ज़िंदगी का ही नतीजा था। कि 5० बरस की उम्र में उनकी चुसती और फुर्ती नौजवानों से भी बढ़ चढ़ कर थी। उनका हर काम वक़्त का पाबंद था। इस पाबंदी से वो ज़र्रा भर भी परे हटते। आम तौर पर लोग सेहत के उसूलों की पैरवी उस वक़्त करते हैं जब वो बीमार हो जाते हैं। वो ज़िंदगी के आम उसूलों का भेद भी अच्छी तरह समझते थे। उनकी औलाद भी उसी क़ानून के जे़रे असर थी।

    उनके महज़ दो बच्चे हुए, एक लड़ा और एक लड़की। तीसरा बच्चा हुआ। इसलिए श्रीमती चड्ढा भी अभी जवान ही नज़र आती थीं। लड़की की शादी हो चुकी थी लेकिन लड़का अभी कॉलेज में ही पढ़ता था। वही माँ-बाप की ज़िंदगी का सहारा था। तबीयत में इंतिहाई सुकून, शराफ़त का पुतला, बेहद बा-ज़ौक़ और फ़य्याज़। यूनीवर्सिटी का अज़ीज़ तरीन तालिब-इल्म, नौजवान तब्क़े का महबूब रुक्न, जब बात करता तो जैसे मुँह से फूल झड़ते थे।

    आज उसकी बीसवीं सालगिरा थी। शाम का वक़्त था। हरी हरी घास पर कुर्सियाँ बिछी हुई थीं। शहर के रुअसा और हुक्काम एक तरफ़ और कॉलेज के लड़के दूसरी तरफ़ बैठे खाना तैयार कर रहे थे। बिजली के क़ुमक़ुमों से मैदान बुक़्अ-ए-नूर बना हुआ था। तफ़रीह का तमाम सामान भी मौजूद था। छोटा सा मज़ाहिया ड्रामा खेलने की तैयारी भी हो रही थी। खेल ख़ुद कैलाश नाथ ने लिखा था। नुमायां किरदार भी वही था। उस वक़्त वो एक रेशमी क़मीज़ पहने, नंगे सर, नंगे पाँव इधर उधर दोस्तों की आव-भगत में मशग़ूल था। कोई पुकारता, कैलाश! ज़रा इधर आना, कोई उधर से बुलाता, कैलाश क्या उधर ही रहोगे? सभी उसे छेड़ते थे, मज़ाक़ करते थे। बेचारे को दम मारने का भी वक़्त मिलता था।

    अचानक एक हसीना ने उसके क़रीब कर कहा, “क्यों कैलाश तुम्हारे साँप कहाँ हैं? ज़रा मुझे दिखाओ तो।”

    कैलाश ने उससे मुसाफ़ह करके कहा, “मृणालिनी इस वक़्त माफ़ करो, कल दिखा दूँगा।”

    मृणालिनी ने इसरार करके कहा, “जी नहीं तुम्हें दिखाना पड़ेगा, मैं आज नहीं मानने की। तुम हर-रोज़ कल-कल करते रहते हो।”

    मृणालिनी और कैलाश दोनों हमजमाअत थे और एक दूसरे की मुहब्बत में गिरफ़्तार। कैलाश को साँपों के पालने,खिलाने और नचाने का बहुत शौक़ था। तरह तरह के साँप पाल रखे थे। उनकी फ़ित्रत और रहन सहन का मुताला गहरी नज़र से किया करता था। थोड़े दिन हुए। उन्होंने कॉलेज में साँपों पर एक मारक तुल अलारा तक़रीर की थी। साँपों के रक़्स का मुज़ाहरा भी किया था। यहाँ तक कि इस मौज़ू के बड़े बड़े आलिम भी ये मज़मून सुन कर अंगुश्त ब-दंदाँ रह गए थे। ये फ़न उसने एक मुअम्मर सपेरे से हासिल किया था। साँपों की जुड़ी बूटीयां इकट्ठी करने का उसे जुनून था। महज़ इस क़दर इत्तिला मिल जाने पर कि किसी आदमी के पास कोई अच्छी जड़ी है, उसे चैन आता था। उसे हासिल कर के ही दम लेता। यही एक ऐब था। जिस पर हज़ारहा रुपये ख़र्च कर चुका था। मृणालिनी कई मर्तबा आचुकी थी लेकिन कभी साँपों को देखने के लिए इस क़दर मुसिर हुई थी। ये कहना बहुत मुश्किल है कि वाक़ई उसका इश्तियाक़ इस क़दर शदीद हो गया था या वो महज़ कैलाश पर अपने हुक़ूक़ का मुज़ाहरा करना चाहती थी। लेकिन उसकी ज़िद बेमौक़ा थी। उस कोठरी में कितनी भीड़ लग जाएगी। हुजूम को देखकर साँप किस क़दर चौंकेंगे और रात को उन्हें छेड़ना कितना बुरा लगेगा। इन बातों पर उसने ज़रा भी ग़ौर किया।

    कैलाश ने कहा, “नहीं, कल ज़रूर दिखा दूंगा। इस वक़्त उम्दगी से दिखा भी तो सकूँगा। कमरे में तिल धरने को भी जगह रहेगी।”

    एक साहब छेड़ कर बोले, “दिखा क्यों नहीं देते? इतनी सी बात के लिए इतनी टाल मटोल कर रहे हो। मिस गोबिंद! हरगिज़ मानना, देखें क्योंकर नहीं दिखाते?”

    दूसरे महाशय और भी तंज़ से बोले, “मिस गोबिंद, इस क़दर मासूम और सादा-लौह हैं, तभी इस क़दर मिज़ाह करते हैं। कोई और होती तो अब तक इस बात पर बिगड़ चुकी होतीं।”

    तीसरे हज़रत मज़ाक़ उड़ा कर बोले, “अजी तअल्लुक़ात क़ता कर लेतीं। भला कोई बात है ये भी। इस पर आप को दावा है कि मृणालिनी के लिए जान तक हाज़िर है।”

    मृणालिनी ने देखा कि सभी मिल-जुल कर उसे बना रहे हैं, तो बोली, “आप लोग मेरी वकालत करें। मैं ख़ुद अपनी वकालत कर लूंगी। मैं इस वक़्त साँपों का तमाशा नहीं देखना चाहती। चलो छुट्टी हुई।”

    एक दोस्त ने मज़ाक़ उड़ाया, “देखना तो आप सब कुछ चाहें, लेकिन कोई दिखाए भी तो।”

    कैलाश को मृणालिनी की उतरी और झेंपी हुई शक्ल देखकर मालूम हुआ कि उसका ये इनकार उसे कितना बुरा मालूम हो रहा है। ज्यूँ ही प्रीतिभोज ख़त्म हो कर गाना शुरू हुआ। उसने मृणालिनी और दूसरे दोस्तों को साँपों के डरबे के सामने लेकर डुगडुगी बजाना शुरू कर दिया। फिर एक एक ख़ाना खोल कर एक एक साँप को निकालने लगा। वो क्या कमाल था। ऐसा जान पड़ता था कि ये कीड़े उसकी एक एक बात उसके दिल का हर एक जज़्बा समझते हैं। किसी को उठा लिया, किसी को गर्दन में हमाइल कर लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया। मृणालिनी हर मर्तबा मना करती कि उन्हें गले में डालो, दूर से ही दिखा दो। बस ज़रा नचा दो। कैलाश की गर्दन में साँपों को लिपटते देखकर उसकी तो जान ही निकली जा रही थी। पछता रही थी कि मैंने ख़्वाह-मख़ाह उन्हें साँप दिखाने को कहा। लेकिन कैलाश एक सुनता था। महबूबा के सामने अपने इस फ़न की नुमाइश का ऐसा मौक़ा पाकर वो कब चूकता था। एक दोस्त ने बताया, “दाँत तोड़ डाले होंगे।”

    कैलाश ने हंसकर जवाब दिया, “दाँत तोड़ डालना मदारियों का काम है। किसी के दाँत नहीं तोड़े गए।” ये कह कर उसने एक काले साँप को पकड़ लिया और बोला, “मेरे पास इससे बढ़कर ज़हरीला साँप और कोई नहीं है। अगर किसी को काट ले तो आदमी चश्म ज़दन में मर जाये। एक लम्हा की भी मोहलत मिले। इसके काटे का मंत्र नहीं, अगर कहो तो इस के दाँत दिखा दूं?”

    मृणालिनी ने उसका हाथ पकड़ कर कहा, “नहीं नहीं, कैलाश ईश्वर के लिए उसे छोड़ दो, तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ।”

    इस पर एक दोस्त बोले, “मुझे तो यक़ीन नहीं आता, लेकिन तुम कहते हो तो मान लूँगा।”

    कैलाश ने साँप की गर्दन पकड़ कर कहा, “नहीं साहब, आप आँखों से देखकर ही मानिए। दाँत तोड़ कर बस में किया तो क्या किया। साँप बड़ा समझदार होता है। अगर उसे विश्वास हो जाए कि इस आदमी से उसे कोई नुक़्सान पहुँचने का एहतिमाल नहीं तो वो उसे कभी काटेगा।”

    मृणालिनी ने जब ये देखा कि कैलाश के सर पर भूत सवार है तो उसने मुज़ाहरा ख़त्म कर देने के इरादे से कहा, “अच्छा भई, अब यहाँ से चलो, देखो गाना शुरू हो गया है। आज मैं भी कोई चीज़ सुनाऊँगी।”

    ये कह कर उसने कैलाश का शाना पकड़ कर उसे चलने का इशारा किया और कमरे से निकल गई। लेकिन कैलाश तो मुख़ातब लोगों का वहम दूर कर के दम लेना चाहता था। उसने साँप की गर्दन पकड़ कर इस ज़ोर से दबाई कि उसका मुँह सुर्ख़ हो गया और जिस्म की तमाम रगें तन गईं। साँप ने उसके हाथों कभी ऐसा सुलूक देखा था। उसकी समझ में आता था कि वो उससे चाहते क्या हैं। उसे ख़दशा महसूस हुआ कि शायद वो उसे मार डालना चाहते हैं। इसलिए वो अपनी हिफ़ाज़त के लिए मुस्तइद हो गया। कैलाश ने उसकी गर्दन ख़ूब दबाकर उसका मुँह खोल दिया और उसके ज़हरीले दाँत दिखाते हुए बोला, “जिन दोस्तों को शक हो आकर देख लें। आया अब भी कुछ शक है?”

    अहबाब ने आकर उसके दाँत देखे और मुतअज्जिब रह गए। ठोस सबूत के सामने शक-ओ-शुबहा की गुंजाइश कहाँ? दोस्तों के शकूक का अज़ाला करने के बाद उसने साँप की गर्दन ढीली छोड़ दी और उसे ज़मीन पर रखना चाहा लेकिन वो काला साँप ग़ुस्से से पागल हो रहा था। गर्दन नर्म पड़ते ही उसने सर उठाकर कैलाश की उंगली पर लपक कर ज़ोर से काटा और वहाँ से भाग खड़ा हुआ। उंगली से टप टप लहू टपकने लगा। पूरी क़ुव्वत से उंगली दबा कर कैलाश अपने कमरे की तरफ़ दौड़ा। वहाँ मेज़ की दराज़ में एक जड़ी पड़ी थी, जिसे पीस कर लगा देने से सम-ए-क़ातिल भी दूर हो जाता था। दोस्तों में हलचल मच गई। बाहर महफ़िल में इत्तिला पहुंची और डाक्टर साहब घबराकर दौड़े, फ़ौरन उंगली की जड़ कस कर बाँधी गई और जड़ी पीसने के लिए दे दी गई। डाक्टर साहब जड़ी के क़ाइल थे। वो उंगली को डसा हुआ हिस्सा नश्तर से काट देना चाहते थे लेकिन कैलाश को जड़ी पर मुकम्मल विश्वास था।

    मृणालिनी प्यानों पर बैठी थी। ख़बर मिलते ही दौड़ी आई और कैलाश की उंगली से टपकते हुए लहू को रूमाल में जज़्ब करने लगी। जड़ी पीसी जाने लगी, लेकिन उस एक लम्हे में ही कैलाश की आँखें झपकने लगीं। होंटों पर ज़र्दी फैल गई। यहाँ तक कि वो खड़ा रह सका। फ़र्श पर बैठ गया। सारे मेहमान कमरे में जमा हो गए। कोई कुछ कहता था, कोई कुछ। इतने में जड़ी पिस कर गई। मृणालिनी ने उंगली पर लेप किया। एक मिनट और गुज़रा। कैलाश की आँखें बंद हो गईं। वो लेट गया और हाथ से हवा करने का इशारा किया। माँ ने दौड़ कर उसका सर गोद में रख लिया और मेज़ का बर्क़ी पंखा लगा दिया गया।

    डाक्टर साहब ने झुक कर पूछा, “कैलाश कैसी तबीयत है?”

    कैलाश ने आहिस्तगी से हाथ उठा दिया, लेकिन कुछ बोला नहीं। मृणालिनी ने रोनी आवाज़ में कहा, “क्या जड़ी कुछ असर करेगी?”

    डाक्टर साहब ने सर थाम कर कहा, “क्या बतलाऊं, मैं इसकी बातों में आगया। अब तो नश्तर से भी कुछ फ़ायदा होगा।”

    निस्फ़ घंटा तक यही कैफ़ियत रही। कैलाश की हालत लम्हा लम्हा बिगड़ती जा रही थी। यहाँ तक कि उसकी आँखें पथरा गईं। हाथ पाँव ठंडे हो गए और चेहरा मांद पड़ता गया। नब्ज़ का कहीं पता था। मौत के सभी आसार नज़र आरहे थे। घर में कुहराम मच गया। एक तरफ़ मृणालिनी सर पीटने लगी। दूसरी तरफ़ माँ अलग पछाड़ें खाने लगी। डाक्टर चड्ढा को अहबाब ने थाम लिया, नहीं तो वो अपनी गर्दन में ही नश्तर उतार देते।

    एक साहब बोले, “कोई मंत्र झाड़ने वाला मिल जाये तो ऐन-मुमकिन है अब भी बच जाये।”

    एक मुसलमान ने इसकी ताईद की, “अरे साहब क़ब्र में पड़ी हुई लाशें ज़िंदा हो गईं। ऐसे-ऐसे बा-कमाल मौजूद हैं।”

    डाक्टर चड्ढा बोले, “मेरी अक़्ल पर पत्थर पड़ गया था कि इसकी बातों में गया। नश्तर लगा देता तो ये नौबत ही क्यों आती। बार-बार समझाता था कि बेटा साँप पालो। मगर कौन सुनता था। बुलाइए किसी झाड़ फूंक करने वाले को ही बुलाइए। मेरा सब कुछ ले-ले। मैं अपनी तमाम जायदाद उसके क़दमों पर रख देने को तैयार हूँ। लंगोटी बांध कर घर से निकल जाऊँगा, लेकिन मेरा कैलाश, मेरा अज़ीज़ कैलाश, जी उठे। भगवान के लिए किसी को बुलाइए।”

    एक साहब की किसी झाड़ने वाले से जान पहचान थी। दौड़ कर उसे बुला लाए। लेकिन कैलाश की शक्ल देखकर उसे मंत्र चलाने की जुर्रत हुई, बोला, “अब क्या हो सकता है सरकार, जो कुछ होना था, हो चुका।”

    “अरे अहमक़ ये क्यों नहीं कहता कि जो कुछ होना था, हो चुका। जो कुछ होना था वो कहाँ हुआ? माँ-बाप ने बेटे का सेहरा कहाँ देखा? मृणालिनी की आरज़ुओं की तकमील कहाँ हुई। दिल के वो हसीन ख़्वाब जिससे ज़िंदगी मसर्रतों और क़हक़हों से भरपूर थी, कहाँ पूरे हुए? ज़िंदगी के रक़्साँ समुंद्र में दिल की ख़ुशी लूटते हुए क्या उनकी नैया को पानी ने नहीं निगल लिया। जो होना था, वो हो गया। वही हरा-भरा मैदान था। वही नशीली रोशन चांदनी एक ख़ामोश संगीत की तरह माहौल पर छाई हुई थी। वही अहबाब का जम्म-ए-ग़फी़र था। वही ऐश-ओ-निशात के सामान थे। लेकिन जहाँ मुतरन्नम क़हक़हे गूँजते थे, वहाँ अब दर्द-ओ-कर्ब और आँसुओं का दौर दौरा था।”

    शहर से कई मील दूर एक छोटे से घर में एक बूढ़ा और बुढ़िया अँगीठी के सामने बैठे जाड़े की रात काट रहे थे। बूढ़ा नारीयल पीता और बीच बीच में खॉँसता भी जाता था। बुढ़िया दोनों घुटनों में सर दिए आग की तरफ़ ताक रही थी। मिट्टी के तेल की एक कुप्पी ताक़ पर जल रही थी। घर में चारपाई थी और बिछौना। एक किनारे थोड़ी सी पियाल पड़ी थी। उस कोठरी में एक चूल्हा था। बुढ़िया दिन भर सूखी लकड़ियाँ और उपले चुनती थी। बूढ़ा रस्सी बनाकर शहर में फ़रोख़्त कर आता था। यही उनकी ज़िंदगी थी। उन्हें किसी ने रोते देखा और हंसते। उनका तमाम वक़्त ज़िंदा रहने में कट जाता था। मौत दरवाज़े पर खड़ी थी। रोने या मुस्कुराने की फ़ुर्सत कहाँ? बुढ़िया बोली, “कल के लिए सन तो है नहीं, काम क्या करोगे?”

    “जाकर झगड़ू शाह से दस सेर सन उधार लाऊँगा।”

    “उसके साबिक़ा दाम तो दिए नहीं और उधार क्यों कर देगा।”

    “न देगा सही, घास तो कहीं नहीं गई। दोपहर तक क्या दो आने की भी काट सकूँगा?”

    इतने में एक आदमी ने आकर आवाज़ दी, “भगत! भगत, क्या सो गए? ज़रा किवाड़ तो खोलो।”

    भगत ने उठकर किवाड़ खोल दिए। एक आदमी ने अंदर आकर कहा, “कुछ सुना? डाक्टर चड्ढा बाबू के लड़के को साँप ने काट खाया।”

    भगत ने चौंक कर कहा, “चड्ढा बाबू के लड़के को? वही चड्ढा बाबू हैं जो छावनी में बंगले में रहते हैं?”

    “हाँ हाँ, वही शहर भर में कुहराम मचा हुआ है, जाते हो तो जाओ। आदमी बन जाओगे।”

    बूढ़े ने सख़्त लहजे में सर हिलाकर कहा, “मैं नहीं जाता, मेरी बला जाये। वही चड्ढा हैं, ख़ूब जानते हैं। भैया को लेकर उन्हीं के पास गया था, खेलने जा रहे थे। पाँव पर गिरा था कि एक नज़र देख लीजिए, लेकिन सीधे मुँह बात तक की। भगवान बैठे सुन रहे हैं। अब जान पड़ेगा कि बेटे का ग़म कैसा होता है और कई लड़के हैं।”

    “नहीं जी यही तो एक लड़का था, सुना है सबने जवाब दे दिया है।”

    “भगवान बड़ा कारसाज़ है। उस वक़्त मेरी आँखों में आँसू तैर आए थे लेकिन उन्हें ज़रा भी रहम आया। मैं तो उनके दरवाज़े पर होता तो भी बात पूछता।”

    “तो जाओगे? हमने तो सुना था, तुमसे कर कह दिया।”

    “अच्छा किया... अच्छा किया, कलेजा शांत हो गया, आँखें ठंडी हो गईं। लड़का भी सर्द हो गया होगा। तुम जाओ, आज सुख की नींद सोऊँगा। (बुढ़िया से) ज़रा तमाखू ले ले। एक चिलम और पियूँगा अब मालूम होगा लाला को। सारी साहबी निकल जाएगी। हमारा क्या बिगड़ा। लड़के के मर जाने से राज तो नहीं चला गया। जहाँ छः बच्चे चले गए एक और गया तो क्या हुआ? तुम्हारा तो राज सूना हो गया। उसी के लिए सब का गला दबा दबा कर जमा किया था। अब क्या करोगे? एक बार देखने जाऊँगा लेकिन कुछ दिन बाद तबीयत का हाल पूछूँगा।”

    आदमी चला गया। भगत ने किवाड़ बंद कर लिए और चिलम पर तंबाकू रखकर पीने लगा।

    बुढ़िया ने कहा, “इतनी रात गए जाड़े में कौन जाएगा?”

    “अरे दोपहर होती तो भी जाता। सवारी दरवाज़े पर लेने आती तो भी जाता। भूल नहीं गया। पन्ना की सूरत अब भी आँखों के सामने मौजूद है। उस बेरहम और संग-दिल ने उसे निगाह उठाकर देखा तक नहीं था। क्या मैं जानता था कि वो नहीं बचेगा। ख़ूब जानता था। चड्ढा भगवान नहीं थे कि उनके एक नज़र देख लेने से अमृत बरस पड़ेगा। नहीं, महज़ दिल का वहम था, ज़रा तसल्ली हो जाती। बस इसीलिए उसके पास दौड़ा गया था। अब किसी रोज़ जाऊँगा और पूछूँगा, क्यों साहब, कहिए कैसे रंग हैं। दुनिया बुरा कहेगी, कहे, कोई पर्वा नहीं। छोटे आदमियों में तो सब ऐब होते हैं, बड़ों में कोई ख़ामी नहीं होती। देवता होते हैं।”

    भगत के लिए ज़िंदगी में ये अव्वलीन मौक़ा था कि ऐसी ख़बर पाकर वो ख़ामोश बैठा रहा हो। ८० बरस की ज़िंदगी में ऐसा कभी हुआ कि साँप की ख़बर पाकर वो दौड़ा गया हो। पूह माघ की अँधेरी रात, चैत बैसाख़ की धूप और लू, सावन-भादों के सैलाब ज़दा नदी नाले, किसी की उसने पर्वा की थी। वो फ़ौरन घर से निकल पड़ता था। बे-लौस और बे-मुद्दआ। लेने-देने का जज़्बा भी दिल में पैदा ही नहीं हुआ। ये ऐसा काम ही था। ज़िंदगी की क़ीमत कौन दे सकता था। ये एक नेक काम था। सदहा मायूस आदमियों को उसके मंत्रों ने ज़िंदगी अता की थी। लेकिन आज वो घर से क़दम नहीं निकाल सका। ये इत्तिला पाकर भी सोने जा था।

    बुढ़िया ने कहा, “तंबाकू अँगीठी के क़रीब रखी हुई है, इसके भी आज अढ़ाई पैसे हो गए हैं। देती ही थी।”

    बुढ़िया ये कह कर लेट गई। बूढ़े ने कुप्पी गुल की, कुछ देर खड़ा रहा, फिर बैठ गया। आख़िर में लेट गया। लेकिन वो ख़बर उसके सीने पर एक बोझ सा बन कर मौजूद थी। उसे मालूम हो रहा था कि उसकी कोई चीज़ खो गई है। जैसे तमाम कपड़े गीले हो गए हैं या पाँव में कीचड़ चिमट गया है। जैसे कोई उसके दिल में बैठा उसे घर से निकलने की तरग़ीब दे रहा है। बुढ़िया थोड़ी देर में ही ख़र्राटे लेने लगी। बूढ़े बातें करते करते सोते हैं और ज़रा सी आहट पाकर ही जाग उठते हैं। तब भगत उठा, अपनी लकड़ी उठा ली और आहिस्ता से किवाड़ खोले।

    बुढ़िया की नींद खुल गई। उसने जल्दी से पूछा, “कहाँ जाते हो?”

    “कहीं नहीं, देखता था कि कितनी रात बाक़ी है।”

    “अभी बहुत रात है, सो जाओ।”

    “नींद नहीं आती।”

    “नींद काहै को आएगी, दिल तो चड्ढा के घर के इर्द-गिर्द घूम रहा है।”

    “उसने मुझसे कौन सी नेकी की है जो उसके यहाँ जाऊँ। वो आकर पाँव पर गिरे तो भी जाऊँ।”

    “उठे तो उसी इरादे से हो।”

    “नहीं री, ऐसा अहमक़ मैं भी नहीं हूँ कि जो मुझे कांटे दे, उसी के लिए फूल बोता फिरूँ।”

    बुढ़िया फिर सो गई। भगत ने किवाड़ बंद कर दिए और फिर आकर बैठा लेकिन उसकी हालत बिल्कुल वैसे ही थी जैसे उपदेश सुनने वालों की बाजा की आवाज़ कान में पड़ने पर होती है। आँख चाहे उपदेशक की तरफ़ ही हो लेकिन कान बाजे पर ही लगे रहते हैं। दिल में भी यही आवाज़ गूँजती रहती है। बेरहम सुलूक का एहसास भगत के लिए उपदेशक था। लेकिन दिल में बद-क़िस्मत नौजवान की तरफ़ झुक रहा था जो उस वक़्त मर रहा था। जिसके लिए एक एक पल की ताख़ीर भी तबाहकुन और होलनाक साबित होगी। उसने फिर किवाड़ खोले। इस आहिस्तगी से कि बुढ़िया को भी ख़बर हुई। बाहर निकल आया। उसी वक़्त गाँव का चौकीदार गश्त लगा रहा था। बोला, “कैसे उठे भगत? आज तो बहुत सर्दी है। कहीं जा रहे हो क्या?”

    भगत ने कहा, “नहीं जी, जाऊँगा कहाँ। देखता था, अभी कितनी रात बाक़ी है। भला वक़्त क्या होगा?”

    “एक बजा होगा, और क्या। अभी थाने से आरहा था तो देखा कि डाक्टर चड्ढा बाबू के बंगला पर बड़ी भीड़ लगी हुई थी। उनके लड़के का हाल तो तुमने सुना होगा। कीड़े ने छू लिया है। चाहे मर भी गया हो। तुम चले जाओ तो शायद बच जाये। सुना है, दस हज़ार तक देने को तैयार हैं।”

    “मैं जाऊँगा, ख़्वाह वो दस लाख भी दे। मुझे दस हज़ार या दस लाख लेकर करना भी क्या है। कल मर जाऊंगा फिर कौन भोगने वाला बैठा है?”

    चौकीदार चला गया। भगत ने पाँव आगे बढ़ाए। जैसे नशे में इंसान का जिस्म उसकी रूह से बाग़ी हो जाता है, उसके बस में नहीं रहता। पाँव कहीं रखता है और पड़ता कहीं है। कहता कुछ है और ज़बान से निकलता क्या है। यही कैफ़ियत उस वक़्त भगत की थी। दिल में एक तूफ़ान मचा हुआ था। इंतिक़ाम था, जवाबी अमल की आग रोशन थी। लेकिन अमल दिल के क़ाबू में था। जिसने कभी तलवार को हरकत नहीं दी, वो इरादा करने पर भी उसे नहीं चला सकता। उसके हाथ काँपते हैं, उठते ही नहीं।

    भगत लाठी खट खट करता लपका जा रहा था। एहसास रोकता था, जज़्बा उड़ाए लिए जा रहा था। ख़ादिम आक़ा पर फ़ौक़ियत हासिल कर के क़ाबिज़ था। आधी रात गुज़र जाने के बाद अचानक भगत रुक गया। हंसा और इंतिक़ाम ने फ़र्ज़ पर ग़लबा पा लिया, “मैं यूंही इतनी दूर चला आया। इस सर्दी और तारीकी में बे-मक़्सद ही इतनी दूर गया। मुझे जान हलकान करने की क्या पड़ी है? आराम से सोया क्यों रहा। नींद आती, सही। दो-चार भजन ही गाता। यूंही यहाँ तक दौड़ आया। चड्ढा का लड़का रहे या मरे, मेरी बला से। मेरे साथ उन्होंने ऐसा कौन सा अच्छा सुलूक किया था कि मैं उनके लिए मरूँ? दुनिया में हज़ारों मरते हैं हज़ारों जीते हैं। मुझे किसी के मरने-जीने से क्या वास्ता?”

    लेकिन इंतिक़ाम ने एक दूसरा रुख इख़्तियार किया जो हिंसा से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। वो झाड़-फूंक करने नहीं जा रहा। वो तो देखेगा कि लोग क्या कर रहे हैं। किस तरह पीटते हैं, क्योंकर बिछाड़ें खाते हैं। वो देखेगा कि बड़े लोग भी छोटों की तरह रोते हैं या सब्र कर लेते हैं। बदला लेने के जज़्बे को तस्कीन देता हुआ इस तरह वो आगे बढ़ने लगा।

    इतने में दो आदमी आते दिखाई दिए। दोनों बातें करते चले आरहे थे, “चड्ढा बाबू का घर उजड़ गया, यही तो एक लड़का था।”

    भगत के कानों में आवाज़ पड़ी। उसकी चाल और भी तेज़ हो गई। थकान के मारे पाँव उठते थे। इस क़दर जल्द-जल्द क़दम उठा रहा था जैसे अब मुँह के बल गिर पड़ेगा। इस तरह वो कोई दस मिनट तक चला होगा कि डाक्टर साहब का बंगला नज़र आया। बिजली की बत्तियां जल रही थीं। लेकिन सन्नाटा छाया हुआ था। रोने पीटने की आवाज़ भी आती थी। भगत का कलेजा धक धक करने लगा। कहीं मुझे बहुत देर तो नहीं हो गई। अपनी उम्र में वो इस क़दर तेज़ कभी दौड़ा होगा। बस यही मालूम होता था जैसे उसके अक़ब में मौत दौड़ी आरही है।

    दो बज गए। मेहमान रुख़्सत हो चुके थे। रोने वालों में महज़ आकाश के तारे रह गए थे और सभी रो रोकर थक गए थे। बड़ी बेताबी से लोग रह-रह कर आसमान की तरफ़ देख रहे थे कि किसी तरह सुबह हो और लाश को गंगा की आग़ोश में बहा दिया जाये।

    अचानक भगत ने दरवाज़े पर पहुँच कर आवाज़ दी। डाक्टर साहब समझे, कोई मरीज़ आया होगा। किसी और दिन उन्होंने इस आदमी को लौटा दिया हो। लेकिन आज वो बाहर निकल आए। देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है। कमर झुकी हुई। पोपला मुँह, भवें तक सफ़ेद हो गई थीं। लकड़ी के सहारे काँप रहा था। बड़ी नर्मी से बोले, “क्या है भाई, आज तो हम पर मुसीबत पड़ी है कि कुछ कहते नहीं बनता, फिर कभी आना। उधर एक महीना तक तो शायद मैं किसी मरीज़ को देख सकूँगा।”

    भगत ने कहा, “सुन चुका हूँ बाबू जी, इसीलिए तो आया हूँ, भैया कहाँ हैं? ज़रा मुझे भी दिखा दीजिए। भगवान बड़ा कारसाज़ है, मुर्दे को भी जिला सकता है। कौन जाने अब भी उसे दया जाए।”

    चड्ढा ने बेक़रार लहजे में कहा, “चलो देख लो, लेकिन तीन चार घंटे हो गए। जो कुछ होना था हो चुका। बहतेरे झाड़ने फूँकने वाले देख देखकर लौट गए।”

    डाक्टर साहब को उम्मीद तो क्या होती। हाँ, बूढ़े पर दया गई। अंदर ले गए। भगत ने लाश को दो मिनट देखा। तब मुस्कुराकर बोला, “अभी कुछ नहीं बिगड़ा बाबू जी, वो नारायण चाहेंगे तो आध घंटा में भैया उठ बैठेंगे। आप नाहक़ दिल छोटा कर रहे हैं। ज़रा कहारों से कहिए पानी तो भरें।”

    कहारों ने पानी भर भर कर कैलाश को नहलाना शुरू किया। पाइप बंद हो गया था, कहारों की तादाद ज़्यादा थी, इसलिए मेहमानों ने अहाता के बैरूनी कुवें से पानी भर भर कर उन्हें देना शुरू किया। मृणालिनी बर्तन लिये पानी ला रही थी। बूढ़ा भगत मुस्कुरा मुस्कुरा कर मंत्र पढ़ रहा था। जैसे कामयाबी उसके सामने खड़ी थी। जब वो एक मंत्र ख़त्म करता तो जड़ी निकाल कर कैलाश को सूँघा देता। इस तरह जाने कितने घड़े कैलाश पर डाले गए और जाने कितनी मर्तबा भगत ने मंत्र फूँका। आख़िर आशा ने जब अपनी लाल-लाल आँखें खोलीं तो कैलाश की लाल लाल आँखें भी खुल गईं। एक लम्हा में ही उसने अंगड़ाई ली और पीने के लिए पानी मांगा।

    डाक्टर चड्ढा ने दौड़ कर नारायणी को गले लिया। नारायणी दौड़ कर भगत के पाँव पर गिर पड़ी और मृणालिनी कैलाश के सामने आँसुओं से आँखें पुर कर के बोली, “अब तबीयत कैसी है?”

    एक लम्हे में ही ये चीज़ हर तरफ़ मुंतशिर हो गई। अहबाब मुबारकबाद देने आने लगे। डाक्टर साहब हर एक के सामने इंतिहाई अक़ीदत से भगत जी का तज़्किरा कर रहे थे। सभी लोग भगत के दर्शनों के लिए बेताब हो उठे। लेकिन अंदर जाकर देखा तो भगत का कहीं पता था। नौकरों ने कहा, “अभी तो यहीं बैठे चिलम पी रहे थे। हम लोग तंबाकू निकाल कर देने लगे तो नहीं ली। अपनी निकाल कर चिलम सुलगाई।”

    यहाँ तो भगत की चारों तरफ़ तलाश होने लगी और उधर भगत लपकता हुआ घर जा रहा था कि बुढ़िया के बेदार होने से पहले वहाँ पहुँच जाये।

    जब मेहमान लोग चले गए तो डाक्टर साहब ने नारायणी से कहा, “बूढ़ा जाने कहाँ चला गया। एक चिलम तंबाकू का भी रवादार हुआ।”

    नारायणी ने कहा, “मैंने तो सोचा था कि उसे कोई बहुत बड़ी रक़म नज़र करूँगी।”

    डाक्टर चड्ढा बोले, “रात को तो मैंने नहीं पहचाना लेकिन ज़रा साफ़ होने पर मैं उसे पहचान गया था। एक बार ये एक मरीज़ लेकर आया था। मुझे अब याद आता है कि मैं उस वक़्त खेलने जा रहा था और मरीज़ को देखने से इनकार कर दिया था। आज एक रोज़ की बात याद कर के मुझे इस क़दर कोफ़्त और ख़िजालत महसूस हो रही है कि बयान नहीं कर सकता। मैं अब उसे खोजूंगा और उसके क़दमों पर सर रखकर माफ़ी माँगूँगा। वो कुछ लेगा नहीं ये मैं जानता हूँ। उसका जन्म लेश की बारिश करने के लिए ही हुआ है। उसके ख़ुलूस ने मुझे ऐसा आदर्श दिखाया है जो ज़िंदगी भर मेरी नज़रों में रहेगा।

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