मंज़ूर
स्टोरीलाइन
अपनी बीमारी से बहादुरी के साथ लड़ने वाले एक लक़वाग्रस्त बच्चे की कहानी। अख़्तर को जब दिल का दौरा पड़ा तो उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहाँ उसकी मुलाक़ात मंज़ूर से हुई। मंज़ूर के शरीर का निचला हिस्सा बिल्कुल बेकार हो गया था। फिर भी वह पूरे वार्ड में सबकी ख़ैरियत पूछता, हर किसी से बात करता। डॉक्टर, नर्स भी उससे बहुत ख़ुश थे। हालाँकि उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हो सकता था, फिर उसके माँ-बाप के आग्रह पर डॉक्टर्स ने अपने यहाँ एडमिट कर लिया था। अख़्तर मंज़ूर से बहुत प्रभावित हुआ। जब उसकी छुट्टी का दिन क़रीब आया तो डिस्चार्ज होने से पहले की रात को मंज़ूर का इंतक़ाल हो गया।
जब उसे हस्पताल में दाख़िल किया गया तो उसकी हालत बहुत ख़राब थी। पहली रात उसे ऑक्सीजन पर रखा गया। जो नर्स ड्यूटी पर थी, उसका ख़याल था कि ये नया मरीज़ सुबह से पहले पहले मर जाएगा। उसकी नब्ज़ की रफ़्तार ग़ैर यक़ीनी थी। कभी ज़ोर ज़ोर से फड़फड़ाती और कभी लंबे लंबे वक़्फ़ों के बाद चलती थी।
पसीने में उस का बदन शराबोर था, एक लहज़े के लिए भी उसे चैन नहीं मिलता था। कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट। जब घबराहट बहुत ज़्यादा बढ़ जाती तो उठ कर बैठ जाता और लंबे लंबे सांस लेने लगता। रंग उसका हल्दी की गांठ की तरह ज़र्द था, आँखें अंदर धंसी हुईं। नाक का बांसा बर्फ़ की डली, सारे बदन पर रअ’शा था।
सारी रात उसने बड़े शदीद कर्ब में काटी। ऑक्सीजन बराबर दी जा रही थी, सुबह हुई तो उसे किसी क़दर इफ़ाक़ा हुआ और वो निढाल हो कर सो गया।
उस के दो तीन अ’ज़ीज़ आए। कुछ देर बैठे रहे और चले गए। डॉक्टरों ने उन्हें बता दिया था कि मरीज़ को दिल का आ’रज़ा है जिसे “कोरोनरी थरम्बोसिस” कहते हैं। ये बहुत मोहलिक होता है।
जब वो उठा तो उसे टीके लगा दिए गए। उसके बदन में बदस्तूर मीठा मीठा दर्द हो रहा था। शानों के पुट्ठे अकड़े हुए थे, जैसे रात भर उन्हें कोई कूटता रहा था। जिस्म की बोटी बोटी दुख रही थी मगर नक़ाहत के बाइ’स वो बहुत ज़्यादा तकलीफ़ महसूस नहीं कर रहा था। वैसे उसको यक़ीन था कि उस की मौत दूर नहीं, आज तो नहीं कल ज़रूर मर जाएगा।
उस की उम्र बत्तीस के क़रीब थी। इन बरसों में उसने कोई राहत नहीं देखी थी जो उस वक़्त उसे याद आती और उसकी सऊ’बत में इज़ाफ़ा करती। उसके माँ-बाप उसको बचपन ही में दाग़-ए-मुफ़ारक़त दे गए थे। मालूम नहीं उसकी परवरिश किस ख़ास शख़्स ने की थी। बस वो ऐसे ही इधर उधर की ठोकरें खाता इस उम्र तक पहुंच गया और एक कारख़ाने में मुलाज़िम हो कर पच्चीस रुपये माहवार पर इंतहा दर्जे की इफ़लासज़दा ज़िंदगी गुज़ार रहा था।
दिल में टीसें न उठतीं तो वो अपनी तंदुरुस्ती और बीमारी में कोई नुमायाँ फ़र्क़ महसूस न करता। क्योंकि सेहत उसकी कभी भी अच्छी नहीं थी। कोई न कोई आ’रज़ा उसे ज़रूर लाहक़ रहता था।
शाम तक उसे चार टीके लग चुके थे, ऑक्सीजन हटा ली गई थी। दिल का दर्द किसी क़दर कम था, इसलिए वो होश में था और अपने गिर्द-ओ-पेश का जाएज़ा ले सकता था।
वो बहुत बड़े वार्ड में था जिसमें उसकी तरह और कई मरीज़ लोहे की चारपाइयों पर लेटे थे। नर्सें अपने काम में मशग़ूल थीं। उसके दाहिने हाथ पर नौ दस बरस का लड़का कम्बल में लिपटा हुआ उसकी तरफ़ देख रहा था, उसका चेहरा तमतमा रहा था।
“अस्सलामु-अलैकुम।” लड़के ने बड़े प्यार से कहा।
नए मरीज़ ने उसके प्यार भरे लहजे से मुतास्सिर हो कर जवाब दिया, “वअलैकुम-अस्सलाम।” लड़के ने कम्बल में करवट बदली, “भाई जान! आपकी तबीयत कैसी है?” नए मरीज़ ने इख़्तिसार से कहा, “अल्लाह का शुक्र है।”
लड़के का चेहरा और ज़्यादा तमतमा उठा, “आप बहुत जल्दी ठीक हो जाऐंगे। आपका नाम क्या है?”
“मेरा नाम!” नए मरीज़ ने मुस्कुरा कर लड़के की तरफ़ बिरादराना शफ़्क़त से देखा,“मेरा नाम अख़्तर है।”
“मेरा नाम मंज़ूर है।” ये कह कर उसने एक दम करवट बदली और उस नर्स को पुकारा जो उधर से गुज़र रही थी, “आपा... आपा जान।”
नर्स रुक गई। मंज़ूर ने माथे पर हाथ रख कर उसे सलाम किया। नर्स क़रीब आई और उसे प्यार कर के चली गई।
थोड़ी देर बाद अस्सिटेंट हाउस सर्जन आया। मंज़ूर ने उसको भी सलाम किया, “डॉक्टर जी, अस्सलामु-अलैकुम।”
डॉक्टर सलाम का जवाब दे कर उसके पास बैठ गया और देर तक उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उससे बातें करता रहा जो हस्पताल के बारे में थीं।
मंज़ूर को अपने वार्ड के हर मरीज़ से दिलचस्पी थी। उसको मालूम था किसकी हालत अच्छी है और किसकी हालत ख़राब है। कौन आया है, कौन गया है। सब नर्सें उसकी बहनें थी और सब डॉक्टर उस के दोस्त। मरीज़ों में कोई चचा था, कोई मामूं और कोई भाई।
सब उससे प्यार करते थे। उसकी शक्ल-ओ-सूरत मामूली थी। मगर उसमें ग़ैरमामूली कशिश थी। हर वक़्त उसके चेहरे पर तमतमाहट खेलती रहती जो उसकी मासूमियत पर हॉले का काम देती थी। वो हर वक़्त ख़ुश रहता था। बहुत ज़्यादा बातूनी था, मगर अख़्तर को हालाँकि वो दिल का मरीज़ था और इस मर्ज़ के बाइ’स बहुत चिड़चिड़ा हो गया था, उसकी ये आदत खलती नहीं थी।
चूँकि उसका बिस्तर अख़्तर के बिस्तर के पास था इसलिए वो थोड़े थोड़े वक़्फ़ों के बाद उससे गुफ़्तगू शुरू कर देता था जो छोटे छोटे मासूम जुमलों पर मुश्तमिल होती थी,“भाई जान! आपके भाई-बहन हैं?”
“मैं अपने माँ-बाप का इकलौता लड़का हूँ।”
“आपके दिल में अब दर्द तो नहीं होता है।”
“मुझे मालूम नहीं दिल का दर्द कैसा होता है?”
“आप ठीक हो जाऐंगे, दूध ज़्यादा पिया करें!”
“मैं बड़े डाक्टर जी से कहूँ, वो आपको मक्खन भी दिया करेंगे।”
बड़ा डाक्टर भी उससे बहुत प्यार करता था। सुबह जब राउंड पर आता तो कुर्सी मंगा कर उसके पास थोड़ी देर तक ज़रूर बैठता और उसके साथ इधर उधर की बातें करता रहता।
उस का बाप दर्ज़ी था। दोपहर को पंद्रह बीस मिनट के लिए आता, सख़्त अफ़रा-तफ़री के आलम में। उसके लिए फल वग़ैरा लाता और जल्दी जल्दी उसे खिला कर और उसके सर पर मोहब्बत का हाथ फेर कर चला जाता। शाम को उसकी माँ आती और बुर्क़ा ओढ़े देर तक उसके पास बैठी रहती।
अख़्तर ने उसी वक़्त उससे दिली रिश्ता क़ाएम कर लिया था, जब उसने उस को सलाम किया था। उससे बातें करने के बाद ये रिश्ता और भी मज़बूत हो गया। दूसरे दिन रात की ख़ामोशी में जब उसे सोचने का मौक़ा मिला तो उसने महसूस किया। उसको जो इफ़ाक़ा हुआ है, मंज़ूर ही का मो’जिज़ा है।
डॉक्टर जवाब दे चुके थे। वो सिर्फ़ चंद घड़ियों का मेहमान था। मंज़ूर ने उसको बताया था कि जब उसे बिस्तर पर लिटाया गया था तो उसकी नब्ज़ क़रीब क़रीब ग़ायब थी। उसने दिल ही दिल में कई मर्तबा दुआ मांगी थी कि ख़ुदा उस पर रहम करे। ये उसकी दुआ ही का नतीजा था कि वो मरते मरते बच गया। लेकिन उसे यक़ीन था कि वो ज़्यादा देर तक ज़िंदा नहीं रहेगा, इसलिए कि उसका मर्ज़ बहुत मोहलिक था। बहरहाल अब उसके दिल में इतनी ख़्वाहिश ज़रूर पैदा हो गई थी कि वो कुछ दिन ज़िंदा रहे ताकि मंज़ूर से उसका रिश्ता फ़ौरन न टूट जाये।
दो-तीन रोज़ गुज़र गए। मंज़ूर हस्ब-ए-मा’मूल सारा दिन चहकता रहता था। कभी नर्सों से बातें करता, कभी डॉक्टरों से, कभी जमादारों से। ये भी उसके दोस्त थे। अख़्तर को तो ये महसूस होता था कि वार्ड की बदबूदार फ़िज़ा का हर ज़र्रा उसका दोस्त था। वो जिस शय की तरफ़ देखता था, फ़ौरन उस की दोस्त बन जाती थी।
दो-तीन रोज़ गुज़रने के बाद जब अख़्तर को मालूम हुआ कि मंज़ूर का निचला धड़ मफ़्लूज है तो उसे सख़्त सदमा पहुंचा। लेकिन उसको हैरत भी हुई कि इतने बड़े नुक़्सान के बावजूद वो ख़ुश क्योंकर रहता है। बातें जब उसके मुंह से बुलबुलों के मानिंद निकलती थीं तो उन्हें सुन कर कौन कह सकता था कि उसका निचला धड़ गोश्त पोस्त का बेजान लोथड़ा है।
अख़्तर ने उससे उसके फ़ालिज के मुतअ’ल्लिक़ कोई बात न की। इसलिए कि उससे ऐसी बात के मुतअ’ल्लिक़ पूछना बहुत बड़ी हिमाक़त होती, जिससे वो क़तअ’न बेख़बर मालूम होता था। लेकिन उसे किसी ज़रिए से मालूम हो गया कि मंज़ूर एक दिन जब खेल कूद कर वापस आया तो उसने ठंडे पानी से नहा लिया, जिसके बाइ’स एक दम उसका निचला धड़ मफ़्लूज हो गया।
माँ-बाप का इकलौता लड़का था, उन्हें बहुत दुख हुआ। शुरू शुरू में हकीमों का इलाज कराया मगर कोई फ़ायदा न हुआ। फिर टोने टोटकों का सहारा लिया मगर बेसूद। आख़िर किसी के कहने पर उन्हों ने उसे हस्पताल में दाख़िल करा दिया ताकि बाक़ाएदगी से उसका इलाज होता रहे।
डॉक्टर मायूस थे। उन्हें मालूम था कि उसके जिस्म का मफ़्लूज हिस्सा कभी दुरुस्त न होगा मगर फिर भी उसके वालिदैन का जी रखने के लिए वो उसका इलाज कर रहे थे। उन्हें हैरत थी कि वो इतनी देर ज़िंदा कैसे रहा है। इसलिए कि उस पर फ़ालिज का हमला बहुत शदीद था, जिसने उसके जिस्म का निचला हिस्सा बिल्कुल नाकारा करने के सिवा उसके बदन के बहुत से नाज़ुक आ’ज़ा झिंझोड़ कर रख दिए थे। वो उस पर तरस खाते थे और उससे प्यार करते थे, इसलिए कि उसने सदा ख़ुश रहने का गुर अपनी इस शदीद अ’लालत से सीखा था। उसके मासूम दिमाग़ ने ये तरीक़ा ख़ुद ईजाद किया था कि उसका दुख दब जाये।
अख़्तर पर फिर एक दौरा पड़ा। ये पहले दौरे से कहीं ज़्यादा तकलीफ़देह और ख़तरनाक था मगर उस ने सब्र और तहम्मुल से काम लिया और मंज़ूर की मिसाल सामने रख कर अपने दुख-दर्द से ग़ाफ़िल रहने की कोशिश की, जिसमें उसे कामियाबी हुई। डॉक्टरों को इस मर्तबा तो सौ फ़ीसदी यक़ीन था कि दुनिया की कोई ताक़त इसे नहीं बचा सकती, मगर मो’जिज़ा रुनुमा हुआ और रात की ड्यूटी पर मुतअ’य्यन नर्स ने सुबह-सवेरे उसे दूसरी नर्सों के सपुर्द किया तो उसकी गिरती हुई नब्ज़ सँभल चुकी थी... वो ज़िंदा था।
मौत से कुश्ती लड़ते लड़ते निढाल हो कर जब वो सोने लगा तो उसने नीम मुंदी हुई आँखों से मंज़ूर को देखा जो मह्वे ख़्वाब था। उसका चेहरा दमक रहा था। अख़्तर ने अपने कमज़ोर और नहीफ़ दिल में उसकी पेशानी को चूमा और सो गया।
जब उठा तो मंज़ूर चहक रहा था। उसी के मुतअ’ल्लिक़ एक नर्स से कह रहा था, “आपा, अख़्तर भाई जान को जगाओ, दवा का वक़्त हो गया है।”
“सोने दो... उसे आराम की ज़रूरत है।”
“नहीं, वो बिल्कुल ठीक है। आप उन्हें दवा दीजिए।”
“अच्छा दे दूंगी।”
मंज़ूर ने जब अख़्तर की तरफ़ देखा तो उसकी आँखें खुली हुई थीं। बहुत ख़ुश हो कर ब-आवाज़-ए-बलंद कहा, “अस्सलामु-अलैकुम!”
अख़्तर ने नक़ाहत भरे लहजे में जवाब दिया, “वा-अलैकुम-अस्सलाम!”
“भाई जान! आप बहुत सोए।”
“हाँ... शायदन।”
“नर्स आपके लिए दवा ला रही है।”
अख़्तर ने महसूस किया कि मंज़ूर की बातें उसके नहीफ़ दिल को तक़्वियत पहुंचा रही हैं। थोड़ी देर के बाद ही वो ख़ुद उसी की तरह चहकने चहकारने लगा। उसने मंज़ूर से पूछा, “इस मर्तबा भी तुमने मेरे लिए दुआ मांगी थी?”
मंज़ूर ने जवाब दिया, “नहीं।”
“क्यों?”
“मैं रोज़ रोज़ दुआएं नहीं मांगा करता... एक दफ़ा मांग ली, काफ़ी थी। मुझे मालूम था आप ठीक हो जाएँगे।” उसके लहजे में यक़ीन था।
अख़्तर ने उसे ज़रा सा छेड़ने के लिए कहा, “तुम दूसरों से कहते रहते हो कि ठीक हो जाओगे, ख़ुद क्यों नहीं ठीक हो कर घर चले जाते।”
मंज़ूर ने थोड़ी देर सोचा, “मैं भी ठीक हो जाऊंगा। बड़े डॉक्टर जी कहते थे कि तुम एक महीने तक चलने फिरने लगोगे। देखिए ना, अब मैं नीचे और ऊपर खिसक सकता हूँ।”
उसने कम्बल में ऊपर नीचे खिसकने की नाकाम कोशिश की। अख़्तर ने फ़ौरन कहा, “वाह मंज़ूर मियां वाह, एक महीना क्या है... यूँ गुज़र जाएगा।”
मंज़ूर ने चुटकी बजाई और ख़ुश हो कर हँसने लगा।
एक महीने से ज़्यादा अ’र्सा गुज़र गया। इस दौरान में अख़्तर पर दिल के दो तीन दौरे पड़े जो ज़्यादा शदीद नहीं थे। अब उसकी हालत बेहतर थी, नक़ाहत दूर हो रही थी। अअ’साब में पहला सा तनाव भी नहीं था। दिल की रफ़्तार ठीक थी। डॉक्टरों का ख़याल था कि अब वो ख़तरे से बाहर है। लेकिन उन का तअ’ज्जुब बदस्तूर क़ाएम था कि वो बच कैसे गया।
अख़्तर दिल ही दिल में हंसता था। उसे मालूम था कि उसे बचाने वाला कौन है। वो कोई इंजेक्शन नहीं था, कोई दवाई ऐसी नहीं थी, वो मंज़ूर था। मफ़्लूज मंज़ूर, जिसका निचला धड़ बिल्कुल नाकारा हो चुका था, जिसे ये ख़ुश-फ़हमी थी कि उसके गोश्त पोस्त के बेजान लोथड़े में ज़िंदगी के आसार पैदा हो रहे हैं।
अख़्तर और मंज़ूर की दोस्ती बहुत बढ़ गई थी। मंज़ूर की ज़ात उसकी नज़रों में मसीहा का रुतबा रखती थी कि उसने उसको दोबारा ज़िंदगी अ’ता की थी और उसके दिल-ओ-दिमाग़ से वो तमाम काले बादल हटा दिए थे जिनके साये में वो इतनी देर तक घुटी घुटी ज़िंदगी बसर करता रहा था।
उसकी क़ुनूतियत रजाइयत में तबदील हो गई थी, उसे ज़िंदा रहने से दिलचस्पी हो गई थी। वो चाहता था कि बिल्कुल ठीक हो कर हस्पताल से निकले और एक नई सेहतमंद ज़िंदगी बसर करनी शुरू कर दे।
उसे बड़ी उलझन होती थी जब वो देखता था कि मंज़ूर वैसे का वैसा है। उसके जिस्म के मफ़्लूज हिस्से पर हर रोज़ मालिश होती थी, बिजली लगाई जाती थी, टीके दिए जाते थे,दवाइयां पिलाई जाती थीं,मगर कोई तबदीली रुनुमा न होती थी। जूँ जूँ वक़्त गुज़रता था, उसकी ख़ुश रहने वाली तबीयत शगुफ़्ता से शगुफ़्ता तर हो रही थी। ये बात अख्तर के लिए हैरत और उलझन का बाइ’स थी।
एक दिन बड़े डॉक्टर ने मंज़ूर के बाप से कहा कि अब वो उसे घर ले जाये क्योंकि इसका इलाज नहीं हो सकता।
मंज़ूर को सिर्फ़ इतना पता चला कि अब उसका इलाज हस्पताल के बजाय घर पर होगा और वो बहुत ठीक हो जाएगा, मगर उसे सख़्त सदमा पहुंचा। वो घर जाना नहीं चाहता था। अख़्तर ने जब उससे पूछा कि वो हस्पताल में क्यों रहना चाहता है तो उसकी आँखों में आँसू आ गए, “वहाँ अकेला रहूँगा। अब्बा दुकान पर जाता है, माँ हमसाई के हाँ जा कर कपड़े सीती है, मैं वहां किससे खेला करूंगा, किस से बातें किया करूंगा?”
अख़्तर ने बड़े प्यार से कहा, “तुम अच्छे जो हो जाओगे मंज़ूर मियां, चंद दिन की बात है फिर तुम बाहर अपने दोस्तों से खेला करना, स्कूल जाया करना।”
“नहीं नहीं।” मंज़ूर ने कम्बल से अपना सदा तमतमाने वाला चेहरा ढाँप कर रोना शुरू कर दिया। अख़्तर को बहुत दुख हुआ। देर तक वो उसे चुमकारता पुचकारता रहा।
आख़िर उसकी आवाज़ गले में रुँध गई और उसने करवट बदल ली।
शाम को हाउस सर्जन ने अख़्तर को बताया कि बड़े डॉक्टर ने उसकी रीलीज़ का आर्डर दे दिया है। वो सुबह जा सकता है। मंज़ूर ने सुना तो बहुत ख़ुश हुआ।
उसने इतनी बातें कीं, इतनी बातें कीं कि थक गया। हर नर्स को, हर स्टूडेंट को, हर जमादार को उसने बताया कि भाई जान अख़्तर जा रहे हैं।
रात को भी वो अख़्तर से देर तक ख़ुशी से भरपूर नन्ही नन्ही मासूम बातें करता रहा। आख़िर सो गया। अख़्तर जागता रहा और सोचता रहा कि मंज़ूर कब तक ठीक होगा। क्या दुनिया में कोई ऐसी दवा मौजूद नहीं जो इस प्यारे बच्चे को तंदुरुस्त कर दे। उसने उसकी सेहत के लिए सिदक़-ए-दिल से दुआएँ मांगीं मगर उसे यक़ीन था कि ये क़बूल नहीं होंगी, इसलिए कि उसका दिल मंज़ूर का सा पाक दिल कैसे हो सकता था।
मंज़ूर और उसकी जुदाई के बारे में सोचते हुए उसे बहुत दुख होता था। उसे यक़ीन नहीं आता था कि सुबह उसको वो छोड़कर चला जाएगा और अपनी नई ज़िंदगी ता’मीर करने में मसरूफ़ हो कर उसे अपने दिल-ओ-दिमाग़ से मह्व कर देगा। क्या ही अच्छा होता कि वो मंज़ूर की “अस्सलामु-अलैकुम” सुनने से पहले ही मर जाता। ये नई ज़िंदगी जो उसकी अ’ता कर्दा थी, वो किस मुँह से उठा कर हस्पताल से बाहर ले जाएगा।
सोचते सोचते अख़्तर सो गया। सुबह देर से उठा। नर्सें वार्ड में इधर उधर तेज़ी से चल फिर रही थीं। करवट बदल कर उसने मंज़ूर की चारपाई की तरफ़ देखा। उसपर उसके बजाए एक बूढ़ा, हड्डियों का ढांचा, लेटा हुआ था। एक लहज़े के लिए अख़्तर पर सन्नाटा सा तारी हो गया। एक नर्स पास से गुज़र रही थी, उससे उसने क़रीब क़रीब चिल्ला कर पूछा, “मंज़ूर कहाँ है?”
नर्स रुकी, थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद उसने बड़े अफ़सोसनाक लहजे में जवाब दिया, “बेचारा! सुबह साढे़ पाँच बजे मर गया।”
ये सुन कर अख़्तर को इस क़दर सदमा पहुंचा कि उसका दिल बैठने लगा। उसने समझा कि ये आख़िरी दौरा है... मगर उसका ख़याल ग़लत साबित हुआ। वो ठीक ठाक था, थोड़ी देर के बाद ही उसे हस्पताल से रुख़्सत होना पड़ा क्योंकि उसकी जगह लेने वाला मरीज़ दाख़िल कर लिया गया था।
- पुस्तक : پھند نے
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