मुहद्दब शीशा
स्टोरीलाइन
यह एक ऐसे सीधे सादे स्कूल मास्टर की कहानी है, जो मस्जिद में इमाम साहब की तक़रीर से प्रभावित हो कर एक विधवा की मदद करता है। बस्ती के कुछ लोग उसकी इस मदद को दूसरी निगाह से देखते हैं। स्कूल मास्टर को जब इस बात का पता चलता है तो वह हर किसी को अपनी सफ़ाई देता है, पर कोई भी उसकी बात पर यक़ीन नहीं करता। आस-पड़ोस की औरतें विधवा के साथ बुरा बर्ताव करने लगती हैं। इससे तंग आकर विधवा बस्ती छोड़कर जाने का फ़ैसला करती है और जाने से पहले मास्टर साहब से मिल लेना चाहती है। जब वह उनके घर पहुँचती है तो मास्टर साहब अपनी चारपाई पर मरे पड़े होते हैं।
ज़कात का महीना था । क़स्बे की मस्जिद में मौलवी साहब जुमा का वा'ज़ कर रहे थे।
यतीम, मिस्कीन और बेवाऐं अर्श का सहारा हैं। उनके सर पर हाथ धरो। अपनी कमाई में से उनको हिस्सा दो...
सामने नमाज़ियों की क़तारें ख़ामोशी में ग़र्क़ थीं। कुछ दीवार या खम्बे के सहारे ऊँघते हुए, कुछ पंखे की डंडी या खड़े घुटने पर नींद भरा सर टिकाए हुए। कुछ खुली आँखों से सोए हुए। हाफ़िज़ उम्र दराज़ की आँखें बंद थीं। दिमाग़ सोया हुआ था। होंट बाहम चिपके हुए थे। लेकिन हाथ जाग रहे थे। जो बड़ी तेज़ी से तस्बीह कर रहे थे। मुकम्मल जागने वालों में बशीर सब्ज़ी फ़रोश के दिमाग़ में मंडी के भाव खद बद मचा रहे थे। डाकखाने के बाबू के ज़ह्न में तनख़्वाह और अख़राजात बाहम कुशती लड़ रहे थे और लारियों के अड्डे वाले मुंशी के दिमाग़ में सुबह आठ बजे की लारी में गुज़रने वाली औरत का ख़ूबसूरत चेहरा घूम रहा था। मगर मास्टर बरकत अली गर्दन उठाए वा'ज़ का एक एक हर्फ़ ग़ौर से सुन रहा था और जब मौलवी साहब ने मिंबर से कुछ आगे झुक कर कहा,
बेवा की एक आह सात आसमानों में सुराख़ कर देती है। ऐसी बेवा की एक दफ़ा मदद करने वाले को सत्तर हज़ार नेकियों का सवाब मिलता है। और वह सीधा जन्नत में जाता है। तो मास्टर बरकत अली का सारा जिस्म एक दम काँप उठा और पगड़ी सर पर जमाते हुए वो बुलंद आवाज़ में पुकारा, बख़्शना मुझे मेरे मौला।
मास्टर बरकत अली क़स्बे के उन चंद लोगों में से था जो ख़्वाहिश से नहीं बल्कि महज़ इत्तिफ़ाक़ से मैट्रिक पास कर लेते हैं। इस क़स्बे में सरकार की तालीमी सरगर्मीयां चार जमातों के बाद ख़त्म हो जाती थीं और चेचक ज़दा चेहरे की तरह उपले थपा प्राइमरी स्कूल अपनी बोसीदा छतों के नीचे से दिन भर पहाड़ों के अलाप ब्रॉडकास्ट किया करता।उस स्कूल में चंद साल ज़बरदस्ती गुज़ारने के बाद गांव के बच्चे या तो ढीली धोतियां और गूमड़ सी पगड़ियाँ बांध कर लठ लिये मवेशी हुंकारते रहते या घर के दरवाज़े की चौखट पर थाली में छोटी सी दूकान सजा कर क़िस्मत आज़माई करने के बाद खेतों में धकेल दिये जाते और या कोई भूला भटका अंग्रेज़ी का क़ायदा उठा कर फ़ालतू वक़्त में मास्टर बरकत अली के पास आन बैठता। पहले क़ाएदे के कोने मुड़ते फिर ऊपर वाला सफ़ा रंग बदलते बदलते हुरूफ़ छिपा लेता और जब एक रोज़ वो ग़ायब हो जाता तो तालिब इल्म को अगली जमात में चढ़ा दिया जाता था। जहां फिर एक मोटा क़ायदा ख़रीदा जाता । चार-पांच क़ाईदों पर तब्अ-आज़माई करने के बाद तालिब इल्म चुंगी का मुहर्रिर या डिपो का मुलाज़िम, या अर्ज़ी नवीस बनने के क़ाबिल हो जाता। मास्टर बरकत अली के मकान के बाहर वाले कमरे के दरवाज़े पर पहले चाक से और फिर कोयले से 'अंग्रेज़ी कॉलेज' लिखा हुआ था। हालाँकि यहां अलिफ़ आम, बे बिल्ली भी उतनी ही शिद्दत से पढ़ाया जाता था जितना सी ए टी,कैट। दर्जन भर के क़रीब तालिब इल्म यहां हमेशा रहते थे और जब छुट्टीयों में शहर जा कर पढ़ने वाले तालिब इल्म गांव आते तो वालदैन उनको भी आरिज़ी तौर पर मास्टर बरकत अली का शागिर्द बना देते थे, ताकि उनकी कमज़ोर इंग्लिश दुरुस्त हो सके। फ़ीस और शागिर्दाना ख़िदमात से उस का गुज़ारा अच्छा चल जाता था।
मास्टर बरकत अली छरेरे जिस्म का लंबा आदमी था, उम्र छत्तीस साल । लंबोतरा सा दुबला चेहरा, जिसके रुख़्सारों की जगह दो नुमायां गढ़े क़ब्ल अज़ वक़्त आने वाली झुर्रियों को हज़म कर रहे थे। ऊंची शफ़्फ़ाफ़ पेशानी के नीचे दो ज़हीन आँखें शफ़क़त भरी मुस्कुराहट से लबरेज़ रहती थीं। आँखों के बाहर कोनों में सूरज की शुआओं की मानिंद बारीक सलवटें थीं जो हंसते वक़्त बड़ी नुमायां हो जाती थीं। सीधी सुत्वाँ नाक, पतले होंट, और बश्शाश चेहरा, सर पर ख़ाकी कुलाह के गिर्द सफ़ेद मलमल की पगड़ी जिसका शिमला कलफ़ की मिक़दार के मुताबिक़ रुकूअ व सजूद करता रहता। धारीदार क़मीस और ढीली सी शलवार के नीचे धूल से अटे हुए बूट जिनके खुले हुए जबड़ों को तेहवार के मौक़ा पर तस्मे समेट लेते। जो चंद दिनों के बाद अपनी मौत आप मरजाते और फिर बरसाती मेंढ़कों की तरह अगले तेहवार को दुबारा जन्म ले लेते।
मास्टर बरकत अली लायक़ तो इतना ही था जितना अलमारी में गर्द जमी किताबों के ढेर वाला आदमी हो सकता है लेकिन उसकी शराफ़त और नेकी का क़स्बा भर मद्दाह था। वो ज़िंदगी की सीधी सड़क पर चलता आया था जिसमें न कभी मोड़ आया था, न खड। जिसके क़रीब न कभी रूमान के चश्मे फूटे, न जज़्बात की धूप छाँव ने आँख मिचोली खेली। न कभी हालात की कंकरियां चुभीं। न क़िस्मत ने रोड़े अटकाए। एक दफ़ा शादी हुई थी तो सात से ज़िंदगी की डगर पर चल पड़ा था। जब से उसने क़सस-उल-अंबिया में पढ़ा था कि क़ियामत के रोज़ बख़्शिश का सबसे आसान तरीक़ा ख़ुदा के बंदों की ख़िदमत करना है। उस रोज़ से उसने अह्द कर लिया था कि अपनी ज़िंदगी स्कूल के लिए ख़ुसूसन और ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के लिए उमूमन वक़्फ़ कर देगा ताकि लोगों को सुधार सके। इसी लिए बीवी की वफ़ात के सात साल बाद भी अपने आपको दुबारा शादी पर आमादा न करसका था। क्योंकि बीवी उसके उस अह्द में हाइल होती। उसके बाद तो वो घड़ी का पुर्ज़ा बन गया था। ज़िंदगी यकायक मामूल के मुताबिक़ गुज़र रही थी जैसे गाड़ी अपनी पटड़ी से बाल बराबर भी इधर उधर नहीं हटती। रोज़ाना सुबह नमाज़ मस्जिद में जाते वो पहली सफ़ में मिंबर के क़रीब बैठा गुनगुनाते हुए दुरूद शरीफ़ पढ़ रहा होता। कोशिश से मौलवी साहब के पीछे नमाज़ में जगह लेता ताकि तकबीर पढ़ने का मौक़ा मिल सके। दुआ में सबसे बुलंद 'आमीन' पुकारता। नमाज़ी चले जाते तो वो एक सौ मर्तबा आयत-ए-करीमा का विर्द करता। महराब की ख़ाक माथे पर लगाता और बाहर निकलने के लिए जूता झाड़ते हुए पुकार उठता, बख़्शना मुझे मेरे मौला। बादअज़ां इधर उधर थूकता हुआ दुरूद ताज पढ़े हुए घर लौटता और खिड़की में बैठ कर कश्मीरी लकड़ी के रसल और साटन के नीले जुज़दान को चूम कर माथे पर लगाता और कलाम पाक खोल कर सूरा यासीन और एक रुकूअ की क़िरअत निहायत इन्हिमाक से करता। उसके बाद कीकर की ताज़ा मिस्वाक लेकर दरवाज़े पर बैठ जाता और आख़ थू, का शोर करते हुए हर आने जानेवाले को झुकी नज़रों से या आँखों के कोनों से झाँका करता।
किधर चली हो, मासी सवेरे सवेरे, वो हर गुज़रने वाली बूढ़ी से सवाल करता। बूढ़ीयाँ भरे सरसों के खेत की मानिंद खिल उठतीं। दुआओं की क़तार बिखेर देतीं और फ़ौरी मक़सद के साथ साथ उसके मुताल्लिक़ा सब हालात का कच्चा चिट्ठा बयान करते करते गली का मोड़ मुड़ जातीं।
कोई जवान लड़का उधर से आँखें मलता गुज़रता तो मास्टर बरकत अली प्यार से फ़हमाइश करता, मियां और नहीं तो कम-अज़-कम सुबह नमाज़ ही पढ़ लिया करो। दिन को नेकी से शुरू हो। और लड़के अजीब अजीब बहाने तराशते गलियों की बग़लों में घुसने की कोशिश करते ग़ायब हो जाते।
मिस्वाक करते करते सूरज की सुनहरी धूप रोशन दान तक उतर आती तो वो तौलिया सर पर डाल पीपल के पत्ते में साबुन की टिकिया उठाए कुवें की तरफ़ चलता । रास्ते में लोग उसे निहायत तपाक से मिलते। बा'ज़ ताज़ीमन खड़े हो जाते। कुवें पर औरतें एहतिराम से सिर्फ़ चंद लम्हों के लिए दुपट्टे चेहरे पर खींच लेतीं। और मासटर बरकत अली मुंडेर पर बैठ कर सब का ख़ैर-सल्ला पूछता। बग़ैर तस्मों के बूट उतार कर शलवार घुटनों तक उठा लेता और ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के जज़्बे से मजबूर हो कर कुवें की चर्ख़ी पकड़ कर घड़े भरने लगता। गांव की औरतों को मास्टर की शराफ़त पर पूरा भरोसा था। इसी लिए वो बग़ैर किसी तकल्लुफ़ के पानी भरवा लेतीं। वो डोल उंडेलते वक़्त सवाल जवाब भी करता जाता।
क्यों जीनां, अब तो तुम्हारा घर वाला उस कलमुही के घर नहीं जाता, मैंने समझाया तो बहुत था।
नहीं भाई, अल्लाह तेरा भला करे। मीर तो तूने घर बचा लिया। जीनां घड़ा जमाते मुजस्सम इन्किसार बन जाती।
अब ख़र्चा न दे तो मुझे बताना। ले उठा अपना घड़ा, और वो डोल का बाक़ी पानी अपने पांव जोड़ कर उन पर डाल देता।
मासी! शेरू ने शहर से कोई ख़त लिखा या नहीं। वो एक पांव से दूसरे की मैल रगड़ता हुआ पूछता और मासी घड़ा झूलता छोड़कर हाथ मलने लगती।
ना, बच्चा कोई नहीं।
फ़िक्र न कर। मैं अगले महीने शहर जाऊँगा। तो अच्छी तरह ख़बर लूँगा उसकी।
ए भला हो तेरा, मेरे लाल। ज़रूर जाना और उस से कहना... और घड़ा भर जाता लेकिन मासी के पैग़ामात जारी रहते। हत्ता कि शादू उसका घड़ा हटा कर अपनी गागर जमा देती। मास्टर बरकत अली ख़ामोशी से पानी भर देता। वो जवान लड़कियों से ज़्यादा बातचीत का क़ाइल न था। लेकिन जब गागर उठा कर उस के सर पे रखता तो अजनबीयत मिटाने के लिए एक-आध बात कर लेता।
शादू बहन, अब तो शरफू काना सीटियाँ नहीं बजाता?
और शादू गागर के गले में हाथ डालती हुई पल्लू मुँह पर रख लेती। नहीं वीर जी, तुमने तो उसे बिल्कुल सीधा कर दिया है।
और मास्टर बरकत अली उन लोगों को बेनुक्त सुना डालता जो गांव की औरतों को माँ-बहन नहीं समझते। और फिर आसमान की तरफ़ मुँह उठा कर पुकार उठता, बख़्शना मुझे मेरे मौला, सबकी हया क़ायम रख। औरतें पानी ले जातीं तो वो लँगोट पहन कर नहाने लगता और साबुन मलते मलते गुनगुनाता, मेरे मौला बुलालो मदीने मुझे। आटे की चक्की पर बैठ कर सारा दिन गप लगाने वाले चंद मुफ़्त ख़ोरे भी ऐन उसी वक़्त नहाने आन टपकते ताकि मास्टर बरकत अली के साबुन और तेल से फ़ायदा उठा सकें। नहाने के बाद मास्टर बरकत अली गढ़े को साफ़ कर के पानी से भर देता है। ताकि परिंदे पानी पी सकें और ख़ुद वापस चला जाता।
वापसी पर मास्टर बरकत अली रास्ते में घरों को कभी न भूलता। बाबा जलाल से उसकी बवासीर के ईलाज के बारे में ज़रूर पूछता। तीसरे चौथे रोज़ जीवां दत्ती को उसके लड़कों के नाम चिट्ठी लिख कर देता। मंगनी शुदादा लड़कियों के वालदैन से गाहे-ब-गाहे पूछता कि लड़की के जहेज़ के सिलसिले में अगर मदद की ज़रूरत हो तो उसे बताएं। कुँवारी लड़कियों के वालदैन को वो तसल्लीयां देता कि वो उसके होते हुए रिश्तों का फ़िक्र न करें। सर्दीयों में रंगू के दादा के लिए कभी-कभार चाय का बंडल ही ले जाता। ताकि उसकी गर्मी का सामान रहे। कभी किसी जगह सर फुटव्वल हो जाता तो अपना फ़र्ज़ समझ कर सुलह करा देता। चूँकि गुज़श्ता सात बरसों में अक्सर घरों का एक-आध बच्चा उसका शागिर्द रह चुका था इसलिए उस्ताद का रिवायती एहतिराम उसकी दख़ल अंदाज़ी को हमेशा ख़ुशआमदीद में तब्दील कर देता।
अपने स्कूल में मास्टर बरकत अली शागिर्दों का बहुत ख़याल रखता। हर माह फ़ीस देने का वक़्त आता तो दो एक शागिर्दों को ख़ामोशी से रुपये वापस दे देता। जा बेटा, ले जा मुझसे क्या पर्दा, मैं जानता हूँ पिछले महीने तुम्हारा ख़र्च तंग रहा है। बच्चीयों से अलबत्ता फ़ीस कभी नहीं ली जाती थी क्योंकि लड़की किसी एक की नहीं सारे गांव की लड़की होती है।
जुमा के रोज़ बेवाओं के मुताल्लिक़ मौलवी साहब का वा'ज़ सुनकर जब मास्टर बरकत अली बाहर निकला तो वो अपनी ग़फ़लत पर इस्तिग़फ़ार पढ़ रहा था कि ज़िंदगी के इतने साल हाथ से निकल गए लेकिन वो किसी दुखिया बेवा का मुदावा न बन सका। बरख़िलाफ़ इसके नामालूम उसने कितनी बेवा औरतों का दिल दुखाया। उसने दिल को तसल्ली देने के लिए सोचा कि पेशतर अज़ीं उसे ख़ुदा के नज़दीक बेवा के दर्जे का इल्म भी तो न था और वो सर झटक कर पुकार उठा, तौबा मेरे अल्लाह तौबा, मुझे बख़्शना। और फिर थकी चाल से आगे चलता गया।
गली की मोड़ पर चंद आवारा बच्चे एक कुत्ते की दुम में रस्सी बाँधे तालियाँ पीट रहे थे। मास्टर बरकत अली ने उन्हें डाँटा। कुत्ते को छुड़ाया और जिस लड़के के हाथ में रस्सी थी उसे कान से पकड़ कर साथ चिल्लाने लगा। लड़का एक हाथ से कान छुड़ाने की कोशिश में साथ साथ उचकता हुआ चला आरहा था।
क्यूँ-बे, किस का लड़का है तू?
सी... ओई... जी नूरां का। लड़का कान के दर्द में मुबालग़ा करता बोला।
नूरां...? कौन सी नूरां...? कहाँ रहते हो?
ओई मर गया... जी... ओई... वो टीले पर... उसकी एक आँख बंद हुई जा रही थी।
और मास्टर बरकत अली को ख़याल आया कि ये वही नूरां है जिसका ख़ावंद पिछले साल हैज़ा से मर गया था। मास्टर बरकत अली उसके हालात से बेख़बर था। फिर भी उसे इतना मालूम था कि मौत के वक़्त मुतवफ़्फ़ी के जानने वाले नूरां की ग़ुर्बत का ज़िक्र बड़े हमदर्दाना अंदाज़ में किया करते थे।
क्या नाम है तेरा?
जी, ग़फ़ूर! मास्टर बरकत अली ने उसका कान छोड़ दिया और सवाल करने लगा। उसे मालूम हुआ कि ग़फ़ूर कोई काम नहीं करता। बल्कि गलियों में आवारा फिरता रहता है और उसकी माँ मेहनत मज़दूरी करके गुज़ारा चलाती है। मास्टर बरकत अली की आँखें चमकने लगीं। घंटा भर पहले का सुना हुआ वा'ज़ उसके कानों में गूँजने लगा। बेवा की मदद करने का बेहतरीन तरीक़ा उसके आवारा बच्चे को सुधारना था। उसने बड़े प्यार से बच्चे को साथ आने को कहा और घर चला।
ले ग़फ़ूरे पढ़ तो भला, क्या लिखा है मेरे दरवाज़े पर?
ग़फ़ूर ने शर्मा कर सर झुका लिया, जी मैं पढ़ा हुआ नहीं हूँ।
अच्छा, अच्छा कोई बात नहीं। मास्टर बरकत अली ख़ंदापेशानी से दरगुज़र करता हुआ बोला।
कमरे में लाकर उसने ब्लैक बोर्ड की तरफ़ इशारा किया जिस पर उर्दू के अबजद लिखे हुए थे लेकिन ग़फ़ूरा वो भी न पढ़ सकता था। मास्टर ने हंसकर एक हल्की सी चपत उसके गाल पर लगाई और सर पर हाथ फेरता हुआ बोला, नालायक़ दस बरस की उम्र में इतना भी नहीं पढ़ सकता। फिर उसने चावलों की मीठी पट्टी उसे खाने को दी। और जब लड़का कुछ घुल मिल गया तो मास्टर बरकत अली ने अपने बावर्चीख़ाने में जाकर मूंग की दाल का लिफ़ाफ़ा ख़ाली किया और फाड़ कर एक नए क़ाएदे का जुज़दान बना डाला।
आ ग़फ़ूर बच्चे, तुझे तस्वीरें दिखाऊँ। ग़फ़ूरा अब काफ़ी बे-तकल्लुफ़ हो गया था। वो शौक़ से मास्टर के क़रीब आन बैठा और मास्टर बरकत अली उसे आम, बिल्ली , गधे और लंगूर की तस्वीरें दिखाने लगा।
ये तस्वीरें लोगे? उसने प्यार से पूछा। ग़फ़ूरे की शरमाई हंसी में ख़्वाहिश करवटें ले रही थी।
ये लो... शाबाश? वो उस के सर पर हाथ फेरता हुआ बोला, ये घर ले जाओ, कल फिर आना। यहां स्कूल में तुम्हें पढ़ाऊंगा, जब ये क़ायदा पढ़ चुकोगे तो तुम्हें और क़ायदा दूँगा जिसमें इस से भी अच्छी तस्वीरें होंगी। शाबाश अब सीधे घर जाओ, कल फिर आना?
ग़फ़ूरे ने शीशे के आईने की तरह क़ायदा दोनों हाथों में मज़बूती से पकड़ कर सीने से चिपका लिया और बाहर निकल कर बगटुट भाग उठा। मास्टर बरकत अली दरवाज़े में खड़ा हो कर मुस्कराकर देखता रहा और जब वो नज़रों से ओझल हो गया तो वापस मुड़ते हुए कानों को हाथ लगाकर बोला, बख़्शना मुझे मेरे मौला, मेरी ये ख़िदमत क़बूल कर।
दूसरे रोज़ मास्टर बरकत अली लड़कों को पढ़ा रहा था तो ग़फ़ूर ने गली में इधर उधर घूमते हुए तीन-चार मर्तबा ख़्वाहिश मंदाना अंदाज़ में अंदर झाँका लेकिन जब मास्टर बरकत अली ने प्यार से बुलाया तो भाग गया।
उसके बाद दो दिन तक ग़फ़ूरा नज़र न आया। मास्टर बरकत अली को ऐसा मालूम हुआ जैसे पुल सिरात पर से गुज़रते गुज़रते उससे जन्नत का पासपोर्ट छीन कर एक दम दोज़ख़ में धक्का दे दिया गया हो।
अरे बशीरे, जा ज़रा ग़फ़ूरे टीले वाले को बुला ला। स्कूल बंद होने पर उसने कहा। थोड़ी देर बाद बशीरा ग़फ़ूरे को हाथ से पकड़ कर तक़रीबन घसीटता हुआ वहां लाया और जब मास्टर ने उसे चुमकारा तो वो शरमाता, लजाता, झिजकता अंदर आगया। मास्टर बरकत अली ने उसे अपने दाहिने बाज़ू में समेट कर अपने साथ लगा लिया और ठोढ़ी उंगली से उठाते हुए बोला,
ग़फ़ूरे बच्चे, तू आया नहीं मेरे पास।
ग़फ़ूरा शर्मा कर इधर उधर मुँह फेरने लगा। मगर जब मास्टर ने बहुत इसरार किया तो कहने लगा, बे बे कहती थी, मत जाया कर वहां। हमारे पास फीसों और किताबों के लिए पैसे नहीं हैं।
मास्टर ने बड़े तरस से लड़के को देखा और फिर एक दम गले से लगा कर प्यार करने लगा।
तौबा अल्लाह तौबा! पगड़ी के पल्लू से आँखें पोंछ कर वह रूँधे हुए गले से बोला और दरवाज़े में जा कर ज़ोर से नाक साफ़ करने लगा।
एक रूमाल में थोड़े सत्तू और गुड़ लेकर मास्टर बरकत अली ने ग़फ़ूरे को उंगली से लगाया और नूरां के घर की तरफ़ चल दिया। मास्टर को घर में आता देखकर नूरां का मुँह एक दम खुला रह गया। जैसे चियूंटी के घर हाथी आजाए। मास्टर बरकत अली कहता ही रहा कि खड़े खड़े बात करलूंगा। लेकिन नूरां ने झपा झप चारपाई पर से सरसों का साग झाड़ दिया और धोबी का धुला हुआ खेस बिछा कर ख़ुद ज़रा फ़ासले पर पीढ़ी पर बैठ गई। दुपट्टे का पल्लू मुँह में पकड़ कर आधा चेहरा और एक आँख ढक ली।
देखो बहन जी। मास्टर बरकत अली ने गला साफ़ करके कहना शुरू किया, मैं ये नहीं पूछने आया कि ग़फ़ूरे को स्कूल क्यों नहीं भेजा बल्कि ये कहने आया हूँ कि ग़फ़ूरा मेरे सगे भांजे की तरह है। फ़ीस, किताबों और हर ज़रूरत का मैं ख़ुद ज़िम्मेदार हूँ। इस का अब्बा होता तो और बात थी लेकिन...
अब्बा का नाम आते ही नूरां के नथुने फड़क उठे, आँखें डबडबा आईं। आँसू पोंछने में वो पर्दा ख़त्म हो गया और वो पहलू बदलते हुए बोली, वीर जी, मेरा तो नसीबा ही जल गया। वो ख़ुद तो चला गया। मुझे इन मुसीबतों के लिए छोड़ गया। उसकी आँखों से झड़ी बंध गई।
अल्लाह की हिक्मत तो समझ में नहीं आती बीबी, लेकिन तुम क्यों फ़िक्र करती हो। लड़की का तो सारा गांव ही मैका होता है। हम किस लिए बैठे हैं। ग़फ़ूरे का अब्बा अल्लाह बख़्शे मेरा भी जानने वाला था।
और फिर नूरां ख़ावंद की मौत, मौत के बाद अज़ीज़ों का बरताव, और मौत से चंद रोज़ पहले की बातें आंसूओं के तार और हिचकियों के घूँट ले-ले कर सुनाती रही और मास्टर बरकत अली ख़ुदा, रसूल, हदीस, हिकायतों और कहावतों से उसको तसल्लीयां देता रहा। बिलआख़िर जब वो उठा तो नूरां मसरूर थी, कि ख़ुदा ने एक फ़रिश्ता उस की मदद को भेज दिया है। और मास्टर बरकत अली मसरूर था कि इस बेवा की मदद करने से उसकी आक़िबत सुधर जाएगी। ग़फ़ूरे के सर पर हाथ फेरते हुए उसने उसे एक टिका दिया और फिर सीधा मस्जिद में जा कर सज्दे में गिर पड़ा और रो-रो कर ख़ुदा से इल्तिजा करता रहा कि वो उसे उनकी सरपरस्ती में साबित क़दम रखे और इसके इवज़ रोज़-ए-क़यामत को बख़्श दे।
चंद माह के अर्सा में ग़फ़ूरा मास्टर बरकत अली का शागिर्द ख़ास बन गया। चाक का डिब्बा और झाड़न उसकी तहवील में रहता। टाट बिछाने, गिनने, लपेटने और बोर्ड साफ़ करने का वो ज़िम्मेदार था। तालिब इल्मों के लिए पानी का घड़ा भरना उसका फ़र्ज़ था। मास्टर बरकत अली को प्यास लगती तो वो ग़फ़ूरे को आवाज़ देता। कुवें के ठंडे पानी से हुक़्क़ा ताज़ा करने और चिलिम भरने का हक़ सिर्फ़ ग़फ़ूरे को हासिल था। वो ख़ुद भी बहुत समझदार और बातमीज़ बच्चा बन गया था और साथ ही साथ अलिफ़ आम, बे बिल्ली से बढ़कर वो रोटी लाई है, किस ने खाई है तक पहुंच चुका था। स्याही में लिथड़ी हुई उंगलियों से तख़्ती पर सौ तक गिनती भी लिख लेता था। टीन की चेचकज़दा स्लेट पर कई बार थूक रगड़ने के बाद बड़ी बड़ी रक़ूम जमा भी कर लेता था। मास्टर के घर के अंदर वाले आले में मिट्टी के प्याले में उसके लिए चावलों की पट्टी हमेशा पड़ी रहती थी। दोपहर का खाना वो मास्टर के साथ खाता और जब मास्टर बाल कटवाता तो ग़फ़ूरे के सिर पर भी चटियल मैदान बन जाता जिस पर वो आम की गुठली रगड़ कर ख़ूब चमका लेता।
अपने घर में भी ग़फ़ूरा काफ़ी सुखी था क्योंकि हर महीने मास्टर बरकत अली फ़ीस इकट्ठे होते ही शाम को चुपके से जाकर नूरां को कुछ रुपये दे आता। फ़सल के मौक़े पर जब शागिर्द उसे दाने वग़ैरा ला कर देते तो कई रोज़ तक ग़फ़ूरा छोटे छोटे थैले भर कर ले जाता रहता। तेहवार के मौक़ा पर ग़फ़ूरे को नए कपड़े मिलते और नूरां के हाँ गुड़ शक्कर, चने और दालों की पोटलियां पहुंच जातीं। मास्टर बरकत अली भी गाहे-गाहे नूरां के घर जाकर रोज़मर्रा के हालात सँवारता रहता और नूरां पुरनम आँखों से दुआएं देती देती बिछ जाती। मास्टर बरकत अली उसके घर से निकलता तो अक्सर पुकार उठता, बख़्शना मेरे मौला।
अब मास्टर बरकत अली को नमाज़ में ज़्यादा मज़ा आने लगा था। सुबह खिड़की में बैठ कर क़ुरान-ए-पाक की तिलावत करता तो झूम-झूम जाता। वा'ज़ में मौलवी साहब अगर रोज़-ए-मह्शर और अगले जहान का ज़िक्र करते या सज़ा और जज़ा के मुताल्लिक़ ख़ुदा और बंदे का ख़ुद साख़्ता मुकालमा पेश करते तो एक इत्मिनान बख़्श मुस्कुराहट मास्टर के होंटों पर खेलती रहती। जैसे कोई ग़रीब ब्योपोरी माल की क़ीमत पेशगी अदा करने के बाद मुतमइन सा नज़र आए। उसने पक्का फ़ैसला कर लिया था कि अब वो शादी बिल्कुल नहीं करेगा। बल्कि अपने अख़राजात में से चार पाँच साल बचत करने के बाद वो हज को जाएगा और इस अज़्म को ताज़ा रखने के लिए उसने अपने कमरे में रसूल-ए-करीम के रौज़ा पाक की ख़ूबसूरत रंगीन तस्वीर लगा दी जिसे देखकर वो अपने प्रोग्राम की कामयाबी के लिए दुआएं मांगा करता। साथ ही साथ बचत करने के लिए वो अपने रहन-सहन में भी इंतिहाई किफ़ायत शिआर हो गया।
एक रोज़ मास्टर बरकत अली शाम के वक़्त नूरां के घर से निकला तो गली में कोई ज़ोर से खँकारा। मास्टर ने मुड़ कर देखा तो शरफ़ु काना सामने बेरी के दरख़्त के नीचे खड़ा मुस्कुरा रहा था।
सलामा लेकुम मास्टर जी, उसकी आवाज़ में शरारत हुमक रही थी।
वाअलैकुम अस्सलाम, सुना भई शरफ़ू क्या हो रहा है? मास्टर साहिब ने फ़ित्री ख़ुशख़लक़ी से काम लिया।
बस बादशाहो। मौला की दुनिया के रंग देख रहा हूँ। उसने तंज़आमेज़ लहजे में कहा और मास्टर बरकत अली कुछ न समझते हुए दिल ही दिल में उसकी चुलबुली तबीयत से लुत्फ़ अंदोज़ होता चला आया।
चंद रोज़ बाद मास्टर बरकत अली शहर जाने के लिए लारी अड्डे पर पहुंचा तो वहां मुंशी के पास शरफ़ू काना और बिल्लू जुलाहा बैठे थे। दूर से मास्टर को आते देखकर उन्होंने एक दूसरे को कुहनियाँ मारीं और शरफ़ू काना ताली बजा कर गाने लगा, यारियाँ लाईयाँ नीं। इसी तोड़ निभा वां गे। मास्टर बरकत के पहुंचते पहुंचते बस आगई और वो जल्दी से टिकट ख़रीदते हुए उसकी तरफ़ लपका। उजलत में उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे मुंशी ने कोई बात ज़ेर-ए-लब कही और बाक़ी सब क़हक़हा लगा कर हँसने लगे। वो मुड़ा लेकिन कंडक्टर बोला,
शताबी शताबी आओ, मास्टर जी देर हो रही है!
और वह लपक कर बस पर जा चढ़ा।
अगले दिन शहर से वापस आते हुए जब वो बाज़ार से गुज़रा तो बशीर सब्ज़ी फ़रोश की दूकान पर बिल्लू जुलाहा खड़ा मूलियां ख़ा रहा था। उसने आहिस्ता से कोई बात बशीर के कान में कही और वो दोनों ग़ौर से मास्टर की तरफ़ देखने लगे!
जुमा के रोज़ मास्टर बरकत अली नहा-धो कर मस्जिद की तरफ़ चला। रास्ते में आटे की चक्की पर शरफ़ू काना अपने बे फ़िक्रे दोस्तों के चक्कर में लहक लहक कर गा रहा था और बाक़ी सब तालियाँ बजा रहे थे। मास्टर को देखकर बिल्कुल ख़ामोशी छागई। वो उसे मामूल के मुताबिक़ एहतिराम समझता हुआ तमकनत से आगे गुज़र गया। लेकिन अभी दस क़दम ही गया होगा कि शरफ़ू काना सीने पर हाथ रखकर चिल्लाया: हाय हाय मेरा दिल गया। किसी ने मुँह में उंगली डाल कर ज़ोर से सीटी बजाई, कोई ज़बरदस्ती मस्नूई खांसी खांसा और कोई पुकारा, हाय मेरे राँझे और फिर एक तवील क़हक़हा बरस पड़ा। मास्टर बरकत अली इसे लड़कों का बाहमी मज़ाक़ और फक्कड़पन समझते आगे निकल गया।
दो-तीन रोज़ गुज़र गए। मास्टर बरकत अली चारपाई पर लेटा हुक़्क़े के कश लगा रहा था कि इतने में ग़फ़ूरा रोता रोता स्कूल वापस आन पहुंचा।
क्या हुआ बच्चे?
मुझे शरफ़ू ने मारा है। वो हिचकियाँ लेता हुआ बोला।
अरे, मास्टर बरकत अली उठकर बैठ गया, क्यों मारा, मेरे बच्चे को उसने। वो उसे पास बिठाते हुए पूछने लगा।
वो कहता था... ऊँ... ऊँ... तलाशी दो।
तलाशी? मास्टर हैरान रह गया, कैसी तलाशी?
हाँ... खों खों... वो कहता था... तेरे मास्टर ने... ऊँ ऊँ... तेरी माँ के नाम प्यार का रुक्क़ा भेजा होगा।
मास्टर बरकत अली ऐसे तड़पा गोया उसका हाथ बिजली पर जा पड़ा है और फिर वो एक दम सन सा हो कर रह गया। पत्थर के बुत की तरह वो चारपाई पर सीधा बैठ गया। फटी फटी आँखें ऐसे फैल गईं जैसे जंगल का एक वहशी शीश महल में आन पहुंचा हो, और उन आँखों से उसने शरफ़ू काने की गुज़श्ता दिनों की मुस्कुराहट को एक नए अंदाज़ में देखा और फिर उस मुस्कुराहट के पीछे छुपा हुआ ज़िल्लत और बदनामी का एक सैलाब फुंकारा। वो ग़फ़ूरे को घसीटता हुआ बाज़ार की तरफ़ लपका जहां शरफ़ू काना दही वाले की दूकान पर लस्सी पी रहा था।
क्यों शरफ़ू तू ने इस बच्चे से क्या कहा है? बड़ी मुश्किल से उसने अपने आप पर क़ाबू पाते हुए कहा।
शरफ़ू की कानी आँख फड़क उठी। उसने मानी-ख़ेज़ नज़रों से दूकानदार की तरफ़ देखा और फिर बेशरमी से हंस पड़ा। ही ही ही मास्टर जी, क्यों फ़िक्र करते हो तुम। वो तो ज़रा शुग़्ल किया था। तुम अपना काम जारी रखो। मौला ने माल दिया है... ख़ूब ऐश हाहाहा!
वो हँसने लगा लेकिन क़हक़हा ख़त्म होने से पहले ही मास्टर बरकत अली घूंसों और थप्पड़ों से उस पर टूट पड़ा। हरामज़ादे, झूटे, कज़्ज़ाब, कमीने , लफ़ंगे, बेईमान। वो बारूद की तरह फट पड़ा। दोनों आपस में गुत्थम गुत्था हो गए।
दही वाला दूकानदार शड़ाप से नीचे कूद आया। दूसरे दूकानदार तराज़ू हाथों में लिए गर्दनें खींच कर देखने लगे। राहगीर और गाहक इधर उधर से भाग कर इकट्ठे होने लगे और दोनों को खींच कर अलैहदा किया। शरफ़ू काना निहायत ग़लीज़ गालियां बकता हुआ भागने की कोशिश करहा था। मास्टर बरकत अली हुमक हुमककर आगे बढ़ना चाहता था और बार-बार कह रहा था कि मुझे इस फ़ित्ना परदाज़ को मज़ा चखाने दो।
मास्टर बरकत अली का एहतिराम लोगों के दिलों में घुसा हुआ था। लड़ाई की वजह मालूम किए बग़ैर उन्होंने शरफ़ू काने पर लॉन-तान शुरू कर दी, जिसने मास्टर बरकत अली जैसे शरीफ़ और नेक इन्सान पर हाथ उठाया था। किसी ने पूछा, बात क्या हुई? तो मास्टर फिर आपे से बाहर हो गया। ये कमीना मुझ पर बोह्तान तराशता है। मैं उसे ठीक कर दूँगा।
मुँह धो कर आओ मास्टर। शरफ़ू ढीले लहजे में बोला, आया मुझे ठीक करने वाला। मैं बोह्तान बाँधता हूँ... या तेरी क़लई खोलता हूँ। और फिर शरफ़ू ने गंदी गंदी गालियां देते हुए अपनी एक आँख नचा नचा कर बुलंद आवाज़ में लोगों को बताया कि मास्टर बरकत अली ने छुप कर नूरां से नाजायज़ ताल्लुक़ात क़ायम कर रखे हैं और शरफ़ू को दबाना चाहता है कि बात बाहर न निकले।
लोग एक दम ख़ामोश हो गए। चंद एक ने फ़ौरन यक़ीन कर लिया। चंद एक मास्टर बरकत अली के मुताल्लिक़ इस क़िस्म की चीज़ सोचने तक को गुनाह समझते थे। बा'ज़ ऐसे भी निकले जो उसकी ताईद या तर्दीद किए बग़ैर इस इल्ज़ाम में दिलचस्पी लेने लगे।
ये सब बकवास है, मास्टर बरकत अली चिल्लाया। मजमा जैसे एक दम होश में आगया। भनभनाहट की एक लहर उठने लगी।
मास्टर बरकत अली ऐसा आदमी नहीं शरफ़ू। डाकखाने के बाबू ने कहा, जैसा तुम्हारा अपना दिमाग़ है वैसा ही दूसरों के मुताल्लिक़ सोचते हो।
हद हो गई बाबूजी। शरफ़ू तड़प कर बोला, मेरे साथ अभी चलो मस्जिद में, मैं क़ुरआन उठाने को तैयार हूँ कि मैंने नूरां और मास्टर बरकत अली को बग़लगीर होते देखा है। वह अपनी बात रखने को झूटी क़सम पर उतर आया।
क़सम का दावा सुनकर कई और लोग शरफ़ू की बात पर ईमान ले आए। मास्टर बरकत अली गोली की तरह लपका लेकिन लोगों ने उसे हटा लिया और फिर दो-चार आदमी पकड़ कर उसे घर की तरफ़ ले चले। सारा रास्ता मास्टर बरकत अली उन्हें यक़ीन दिलाता रहा कि शरफ़ू बिल्कुल झूट बोलता है और वो भी मास्टर के साथ मुत्तफ़िक़ थे। घर जा कर मास्टर चारपाई पर लेटे हुए सोच रहा था कि शाम तक शरफ़ू को हर तरफ़ से लॉन तान हो जाएगी और लोग मास्टर की नीयत जानते हुए उस पर शुबहा नहीं करेंगे क्योंकि शरफ़ू काना तीन साल जेल में काट आया था और ऐसे आदमी की बात मास्टर बरकत अली के मुक़ाबले में कहाँ मानी जाएगी... उसने करवट बदल कर बज़ाहिर बड़े इत्मिनान से सोने की कोशिश की।
मास्टर बरकत अली तो वापस आगया था। लेकिन इस इन्किशाफ़ की नौईयत ने एक गोंद की तरह लोगों को बाज़ार के फ़र्श पर चिपकाए रखा। अक्सर लोग मास्टर की नीयत पर शुबहा नहीं करते थे। चंद एक कहते थे कि शरफ़ू को झूट बोलने की क्या ज़रूरत है। बा'ज़ का ख़याल था कि शरफ़ू ने महज़ एक बात की है। बाक़ी अल्लाह बेहतर जानता है। किसी ने कहा मास्टर बरकत अली फ़सल के मौक़ा पर नूरां को दाने भिजवाता है। तो आख़िरी गिरोह के चंद लोग शरफ़ू की बात पर ईमान ले आए। कोई बोला सुना है मास्टर बरकत अली नूरां को माहवार भी कुछ देता है। तो चंद और लोग भी मास्टर को शरफ़ू के ज़ाविए से देखने लगे।
हर घड़ी गुज़रने पर मास्टर के हामियों में कमी होती गई। क्योंकि बाहम तबादला-ए-ख़याल से ये साबित हो गया था कि मास्टर बरकत अली दाने, फ़ीस और दूसरी चीज़ें नूरां को भिजवाता है। माहवार रुपये देता है और उसके बच्चे को स्कूल में लाड से रखता है। राय आम्मा या तो हिलती ही नहीं लेकिन जब हिलती है तो छलांगें मारती चली जाती है। चुनांचे ये सबूत मज़बूत सीढ़ियाँ थीं जिन पर चढ़ कर कई लोगों के तख़य्युल ने नूरां के घर में सारे कमरों को मास्टर बरकत अली के दिए हुए दानों से भरे देखा। कई एक को इल्हामी अंदाज़ में पता चल गया कि फ़ुलां वक़्त मास्टर बरकत अली फ़ुलां सिम्त किस मक़सद के लिए जा रहा था। अक्सर लोगों पर फ़ौरन वाज़िह हो गया कि बरकत अली की किफ़ायत-शिआरी की असल वजह क्या है। मास्टर के शादी न करने का राज़ भी समझ में आगया। क्योंकि बशीर घोसी का ख़याल था कि जिस आदमी को पीने को दूध मिल जाये उसे भैंस पालने की क्या ज़रूरत है। हमारी मनफ़ी जिन्सी इक़दार के मुहद्दब शीशे में से जब लोगों ने आदतन झाँका तो ये सबूत हर लहज़ा बड़े ही बड़े होते गए। हत्ता कि असल मास्टर बरकत अली उनके नीचे छुप गया।
शाम तक बाज़ार में ये मौज़ू ज़ेर-ए-बहस रहा। लारियों के अड्डे पर, चक्की वाले के तराज़ू के पास, दही वाले की दूकान के सामने टूटे हुए बेंचों पर चौराहे में, बोहड़ के दरख़्त तले भूसे वाले की दुकान पर। सह पहर को दानों की भट्टी पर... शाम को तनूर पर... राह चलते मुलाक़ातियों ने ताज़ा-तरीन इत्तिलाआत का तबादला किया...। खाविंदों ने बच्चों की ग़ैरमौजूदगी में अपनी बीवीयों को बताया... बीवीयों ने साग चीरते हुए अपनी सहेलियों से कहा...। दूसरे दिन भंगिनें एक घरवालों की राय दूसरे घर ले गईं... कुँवारी लड़कियों ने दबी गठी हंसी और आँखों के इशारों से तब्सिरे किए... जवान लड़कों ने मास्टर और नूरां के ताल्लुक़ात की तख़य्युल के पर्दे पर पूरी फ़िल्म देख डाली... बूढ़ों ने तौबा और इस्तिग़फ़ार के साथ इस क़िस्सा में क़ुर्ब-ए-क़यामत के आसार देखे... और घर जा कर अपनी जवान औलाद को कड़ी नज़रों से घूरा।
मास्टर बरकत अली अपने कमरे का दरवाज़ा खोले चारपाई पर लेटा हुक़्क़ा पीता रहा। इक्का दुक्का लोग उधर से गुज़रते तो रुक कर लड़ाई का तज़्किरा ज़रूर करते। मास्टर बरकत अली अलिफ़ से यए तक सारा क़िस्सा सुना कर अपनी मासूमियत साबित करने की कोशिश करता। लोग कोई फ़ैसला दिए बग़ैर खिसकने की कोशिश करते।
दूसरे दिन मदर्सा में छुट्टी थी। मास्टर बरकत अली बाज़ार में निकला और लोगों के पास जा-जा कर अपनी बेगुनाही का यक़ीन दिलाता। लोग ख़ामोशी से सुनते रहते। कोई हूँ हाँ कर देता लेकिन ज़्यादा तसल्ली न देते। मास्टर ज़्यादा जोशीला होता गया। उसके दलाइल में सरगर्मी पैदा होती गई। आवाज़ बुलंद होती गई। वो एक गिरोह से हट कर दूसरे गिरोह के पास जाता लेकिन वो बात करता तो लोग ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने लगते। एक दूसरे को कनखियों से देखते और लाताल्लुक़ से हो कर इधर उधर खिसकने की कोशिश करते।
मास्टर बरकत अली बड़ा हैरान हुआ। बिलआख़िर किसी ने उसे बताया कि लोगों का ख़याल है कि वो झूटा है। तभी इतनी शिद्दत से अपने आपको मासूम ज़ाहिर कर रहा है। मास्टर बरकत अली का ख़ून खौलने लगा। लेकिन माथे पर ठंडे पसीने आगए। चक्की के पास लोगों का गिरोह खड़ा था। उसने वहां जा कर निहायत जोश से कहना शुरू किया कि शरफ़ू इफ़्तिरा पर्दाज़ है। वो ख़ुद बिल्कुल मासूम है, नूरां से उसका कोई ताल्लुक़ नहीं। कभी-कभार इसे बेवा समझ कर और ख़ुदा का हुक्म जान कर वह उसकी मदद करता है। लेकिन लोग इस दलील पर हँसने लगे। उन्होंने आपस में ठोके दिए और मानी-ख़ेज़ नज़रों से एक दूसरे को देखा।
मास्टर बरकत अली की रग-रग सदमे से निढाल हो गई। वो जानता था कि गांव की फ़िज़ा में इस क़िस्म की बदनामी उसकी क़तरा-क़तरा जोड़ी हुई इज़्ज़त को एक ही दफ़ा मिटा देगी। घर जा कर वो चादर में मुँह लपेट कर बाक़ी सारा दिन और सारी रात भुनते कबाब की तरह करवटें लेता रहा।
सुबह मस्जिद में जब जमात खड़ी होने लगी तो इमाम ने मास्टर बरकत अली की बजाय एक दूसरे आदमी से कहा, चलो शाह जी, तकबीर पढ़ो और वो तकबीर पढ़ने लगा। मास्टर का नमाज़ में भी दिल न लगा। वो जल्दी लौट आया। वापसी पर जब वो क़ुरान-ए-पाक की तिलावत करने लगा तो हुरूफ़ उसकी आँखों के सामने नाचने लगते, फिर ग़ायब होजाते। आवाज़ टूट टूट जाती और पढ़ते पढ़ते उसे यकलख़्त महसूस होता कि उसका ध्यान क़ुरआन की सतरों की बजाय परसों वाले वाक़िया में जकड़ा हुआ है।
थोड़ी देर बाद जब स्कूल खुला तो सिर्फ़ लड़के हाज़िर थे। बच्चीयां सब ग़ायब थीं। वो उसे इत्तिफ़ाक़ समझ कर ख़ामोश रहा।
रात को इशा की नमाज़ में सुन्नत पढ़ते वक़्त उसने देखा कि उसके दोनों तरफ़ दो दो-गज़ जगह ख़ाली है और लोग परे हट कर नमाज़ पढ़ रहे हैं।
सुबह मिस्वाक करते वक़्त उसने गुज़रने वाली एक बूढ़ी से पूछा, मासी किधर चली सवेरे सवेरे। तो मासी जवाब दिए बग़ैर कंधा दबाती आगे चली गई। वो कुवें पर गया तो मासी दारां आधा भरा घड़ा उठा कर खिसक गई। शादू अपनी गागर वहीं छोड़कर कहीं टल गई। लेकिन जब मास्टर ज़बरदस्ती जीनां का घड़ा भरने लगा तो वो आँखें नीची किए ख़ामोशी से एक तरफ़ खड़ी रही। फिर घड़ा उठा कर चुपके से चल दी और मास्टर बरकत अली ने देखा कि थोड़ी दूर जाकर बोहड़ के दरख़्त की ओट में उसने पानी ज़मीन पर उंडेल दिया और ख़ाली घड़ा उठाए वापस चली गई।
घर की तरफ़ वापसी पर मास्टर ने दूर से देखा कि रंगू का दादा दहलीज़ पर बैठा सोटी पी रहा है लेकिन जब वो क़दरे नज़दीक पहुंचा तो बूढ़ा अंजान बन कर अंदर चला गया।
रास्ते में उसने दो एक राहगीरों से बात की तो वो गुफ़्तगु बढ़ाने की बजाय ख़त्म करने की कोशिश करते और फिर जल्दी से खिसक जाते। दिन चढ़ा तो स्कूल में सिर्फ़ दो शागिर्द आए और उन्होंने बताया कि बाक़ी सबको वालदैन ने स्कूल जाने से मना कर दिया है। मास्टर बरकत अली कमरे के दरवाज़े बंद कर के चारपाई पर मुँह लपेट कर पड़ा रहा। उसके कान जलते रहे। दिमाग़ में चक्कीयां चलती रहीं, पपोटे फड़कते रहे, दिल डूबता रहा, माथा कभी भट्टी बन जाता कभी बर्फ़ की सिल। ज़ुहर की नमाज़ के बाद उसने मौलवी साहब से फ़र्याद की और बताया कि वो बिल्कुल नेक नीयती से उनके फ़रमान के मुताबिक़ एक बेवा समझ कर नूरां की मदद करता रहा है। वो बार बार कहता मौलवी साहब में बिल्कुल बेक़सूर हूँ। मौलवी साहब लाताल्लुक़ हो कर दाढ़ी पर हाथ फेरते रहे और फिर वापस मुड़ते हुए कहने लगे, नीयत का हाल तो क़ादिर-ए-मुतलक़ ही जानता है। लेकिन जब सब एक ही बात कह रहे हैं तो कुछ बात तो होगी।
और मास्टर बरकत अली को ऐसे महसूस हुआ जैसे उसके रग-ओ-पै से आंसूओं का सैलाब फूट पड़ेगा। लेकिन उसकी आँखें ख़ुश्क ही रहीं और बजाय आंसूओं के उनमें अँगारे दहकने लगे। कनपटियों पर जैसे किसी ने धमाधम हथौड़े मारने शुरू कर दिए। बड़ी आहिस्तगी से उसने अपने जिस्म को घसीट कर उठाया। हाथों से टटोल कर जूती उठाई और हारे हुए जुवारी की तरह थके थके क़दमों से वापस चला आया। उसके जिस्म का सारा रस जैसे निचुड़ सा गया था।
मास्टर बरकत अली बंद कमरे में चारपाई पर लोटता रहा। कभी पांव उठा कर धमा धम अदवाईन पर मारने लगता। कभी सर पकड़ कर बैठ जाता। फिर उठकर कमरे में टहलने लगता। खिड़की में खड़ा हो जाता लेकिन गली में किसी के आने की आवाज़ सुनकर मुँह छुपाने को वापस भागता। वो काफ़ी देर रसूल अकरम के रौज़ा मुबारक की तस्वीर को टकटकी बाँधे देखता रहा। हत्ता कि वो आहिस्ता-आहिस्ता काँपने लगी। कमरे की दीवारें हौले हौले घूम सी गईं और फिर मास्टर बरकत अली एक दम बिलक बिलक कर रो दिया।
शाम के वक़्त मास्टर बरकत अली को बड़े ज़ोर का बुख़ार आने लगा। थोड़ी देर बाद इस पर हिज़यान की कैफ़ियत तारी होने लगी।
उस शाम नूरां ने फ़ैसला किया कि वो गांव छोड़कर चली जाये क्योंकि उसे मज़दूरी मिलना बंद हो गई थी और तमाम घरों ने उसके दाख़िले की मुमानअत कर दी थी। वो जहां जाती औरतें एक दूसरी से इशारों में बातें करतीं और उनकी चुभती हुई नज़रें उसके जिस्म को छेद डालतीं। दूसरे दिन सुब्ह-सवेरे जब वो गांव से निकलने लगी तो उसने सोचा मास्टर बरकत अली से मिलती जाये। उसके मकान पर पहुंच कर ग़फ़ूरे ने दरवाज़े को हाथ लगाया तो वो किताब के वर्क़ की तरह आसानी से खुल गया। नूरां और ग़फ़ूरा अंदर चले गए।
अंदर कमरे में सुबह का धुँदलका छाया हुआ था। उस रोशन अंधेरे में नूरां ने देखा कि चारपाई पर मास्टर बरकत अली पड़ा था।
चंद माह बाद ज़कात का महीना फिर आगया। मौलवी साहब मस्जिद में खड़े वा'ज़ कर रहे थे, दुखिया और बेसहारा बेवा की एक आह सात आसमानों में सुराख़ कर देती है। ऐसी बेवा की मदद करने वाला सीधा जन्नत में जाता है। अगर दीन-ओ-दुनिया की इज़्ज़त चाहते हो तो बेवाओं की मदद करो।
- पुस्तक : लौह (पृष्ठ 585)
- रचनाकार : मुमताज़ अहमद शेख़
- प्रकाशन : रहबर पब्लिशर्स, उर्दू बाज़ार, कराची (2017)
- संस्करण : Jun-December
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.