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मुख़्बिर

MORE BYअहमद नदीम क़ासमी

    स्टोरीलाइन

    यह आबकारी विभाग के एक कामयाब मुख़्बिर के नाकाम हो जाने की कहानी है। वह जब आबकारी विभाग में आया था तो ठेकेदार ने उसे अपने दो क़रीबी मुख़्बिरों से मिलवाया था। जिसमें एक की उसने बहुत तारीफ़ की थी। उसके पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए वह कामयाब था भी। मगर पता नहीं उस दिन के बाद क्या हुआ कि वह मुख़्बिर एक भी नया केस नहीं ला सका। उसके खाने के लिए भीख मांगनी पड़ी और जब खाना मिलने के रास्ते भी बंद हो गए उसने अपने ही भाई की मुख़्बिरी कर दी।

    लाला तेजभान इंस्पेक्टर ने दफ़्तर-ए-आबकारी में मुल्तान के चुने हुए मुख़बिरों से मेरा तआ'रुफ़ ‎कराया और जब वह ज़र्द चेहरों और मैली आँखों के इस क़तार के आख़िर में पहुँचे तो बोले, “यह ‎ख़ादू है।”‎

    सब मुख़बिर मुतआ’रिफ़ होने के बा'द बाहर चले गए और अब हमारे सामने सिर्फ़ ख़ादू खड़ा था। यूँ ‎मा'लूम होता था जैसे ख़ादू को किसी ने शिकंजे में से निचोड़ कर निकाल लिया है और अब जीते ‎जागते-इंसान के बजाए मेरे सामने इंसान का एक मुड़ा-तुड़ा छिलका रखा है। वो सर से नंगा था। लंबे ‎लंबे पट्टे गर्दन तक लटक रहे थे। माँग में एंठन सी थी। अलबत्ता उसने चोटी पर मुस्ततील शक्ल के ‎एक मुंडे हुए हिस्से की राह से सर को ख़ूब तेल पिला रखा था। एक कान पर सिगरेट का एक टुकड़ा ‎अटका हुआ था और दूसरे कान की लौ में एक छल्ला सा लटक रहा था।

    ‎“उस्ताद की निशानी है।”‎

    उसने बा'द में मुझे बताया, उस्ताद ने कहा था, “तू पहला आदमी है जो मेरी तरह भंग का ये घड़ा ‎पी कर एक मंगरा और माँग रहा है वर्ना यहाँ तो बड़े-बड़े नशई दो तीन मंगरों के बा'द ही राजा-रसालू ‎बन जाते हैं।”‎

    आँखों में सुर्मा लगा रखा था मगर पुतलियाँ ऐसी गदली-गदली सी थीं जैसे बरसों की धूल समेट रखी ‎हो। नाक हल्दी की गाँठ मा'लूम होती थी और होंट उसके चेहरे से कुछ ज़ियादा ही सियाह थे। गर्दन ‎की एक एक रग कुछ यूँ ग़ैर-मा'मूली तौर पर उभरी और तनी हुई थी जैसे उसके दिमाग़ और दिल ‎में रस्सा-कशी हो रही है। कुर्ते में मैल रच बस गया था और तह-बंद पर जा-ब-जा शोरबे के धब्बे थे।

    लाला तेज भान ने जब उसका नाम बताया तो वो मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुराया और उसके काले ‎हाशियों वाले लंबे लंबे दाँत यूँ साथ नुमायां हो गए जैसे किसी ने कच्चा तरबूज़ चीर डाला है। मगर ‎मुझे इतने बहुत से दाँतों के आस-पास मसूड़े का कोई निशान नज़र आया।

    ‎“चरस ने खा लिए।”, उसने बा'द में बताया था।

    ‎“और मसूड़ों का क्या है साईं। यही होगा कि दाँत गिर जाएँगे, गिर जाएँ, चरस तो पोपले मुँह से ‎भी पी जा सकती है।”‎

    उसके नीचे के दो दाँतों पर चाँदी का एक एक तार लिपटा हुआ था और दाँतों की रेखों में दिनों का ‎कूड़ा घुसा हुआ मा'लूम होता था।

    लाला जी उसका नाम बता चुके तो एक सिख अंदर आया। लाला तेज भान को झुक कर सलाम ‎किया और मुझे एक उचटती सी सर-परस्ताना नज़र से देखकर ख़ादू के पास ही खड़ा हो गया।

    लाला जी बोले, “ये ख़ादू है, मैं इसे ख़ादू-जादू कहता हूँ क्योंकि ये सारे मुल्तान में पहले नंबर पर है। ‎पहला नंबर मुख़बिर तो ये दिलासा सिंह भी है। पर बात ये है कि मुझे इस ज़िले में आए ढाई बरस ‎हो रहे हैं। ढाई बरस में तीस महीने होते हैं। ख़ादू ने तीस मुख़बिरियाँ की हैं और तीस की तीस ‎सच्ची मुख़बिरियाँ और तीसों इतने बड़े मुक़द्दमे कि डी.सी. ने चंद मुक़द्दमों पर तो मुझे ‘वेल डन’ ‎दिया और एक मुक़द्दमे पर पाँच सौ रुपये इनआ'म की सिफ़ारिश कर दी। ख़ादू ने भी इन ‎मुख़बिरियों में कोई हज़ार रुपया तो कमाया होगा।”‎

    ख़ादू पहली बार बोला, “अल्लाह निगहबान हो, झूट क्यों बोलूँ, आपके दरबार से मैंने तो ग्यारह सौ ‎छिल्लड़ पाए, बच्चे दुआएँ देते हैं।”‎

    लाला तेज भान बोले, “अब ये ख़ादू का जादू नहीं तो और क्या है कि इसकी कोई भी मुख़बिरी ग़लत ‎न निकली। एक-आध बार तो कोई कोई गड़बड़ हो ही जाती है। इसी दिलासा सिंह को लीजिए। ‎शराब की भट्टियों का मुख़बिर है। आठ भट्टियाँ पकड़वा चुका है मगर जब नौवीं की बारी आई तो ‎क्यों दिलासे याद है? हम खेतों में पहुँचे तो जहाँ उसने भट्टी की निशान-देही की थी वहाँ राख उड़ ‎रही थी। हमने घबरा कर इधर-उधर देखा तो दिलासे की मुख़बिरी के मुताबिक़ भट्टी चलाने वाला ‎काहन सिंह खेत की मेंढ़ पर खड़ा था। बोला, “ठहरो दरोग़े खटिया उठा लाऊँ, बैठो, गन्ने चूसो।”‎

    और जब मैंने पुलिस के सिपाहियों के सामने अपनी झेंप मिटाने के लिए डपट कर कहा कि यहाँ ‎ख़ाक की जगह राख क्यों उड़ रही है तो वो बोला, “वो तो कोई ऐसी ख़ास बात नहीं दरोग़े। जहाँ दो ‎तीन शराब की भट्टियाँ चलती रही हों वहाँ तो ख़ाक की जगह राख ही उड़ेगी।”‎

    बात का ढब बता रहा था कि हमें मुख़बिरी होने के बा'द उसे भी मुख़बिरी हो गई थी। सो बड़े से बड़े ‎मुख़बिर पर ऐसा वक़्त ही जाता है। पर ये ख़ादू तौबा! एक-बार आया। बोला, बीस सेर अफ़यून ‎का केस है, मैंने कहा। भंग पी के तो नहीं आए। बोला क़सम है महकमा-ए-आबकारी की, पूरी बीस ‎सेर अफ़यून है। अब आप सोचिए कि बीस सेर अफ़यून में सोलह सौ तोले अफ़यून होती है और हमने ‎एक एक छटाँक अफ़यून के मुक़द्दमों में आधे-आधे सफ़्हे की शाबाशियाँ ली हैं।

    मैं यूँ दिल्लगी के लिए उसके साथ चल पड़ा। स्टेशन पर पहुँचा, गाड़ी आई, सेकंड के एक डिब्बे में

    एक सूटेड-बूटेड मुसाफ़िर बैठा था। ख़ादू ने कहा, “यही है।”‎

    सिपाहियों ने मुसाफ़िर को घेरे में ले लिया। सामान की तलाशी हुई तो चार बक्सों के ख़ुफ़िया पेंदों में ‎पाँच-पाँच सेर अफ़यून पड़ी महक रही है। ज़िले में धूम मच गई। अख़बारों में ख़बरें छपीं और ‎आबकारी की नौकरी का मज़ा गया। उसी मुक़द्दमे पर मेरे लिए पाँच सौ रुपये के इनआ'म की ‎सिफ़ारिश हुई थी। सो इस ख़ादू को बिल्कुल सच्चा मोती समझिए। ऐसे ईमानदार मुख़बिर ज़रा कम ‎ही मिलते हैं, क्यों ख़ादू।

    ‎“उस अल्लाहबख़्श चंडूवाले का क्या बना।”‎

    ख़ादू बोला, “अल्लाह निगहबान हो वो तो साईं, अभी मैं यारी ही लगा रहा हूँ। चार बार साल साल की ‎क़ैद भुगती है तो अब बड़ा काइयाँ हो गया है। जाने चंडू की शीशी कहाँ रहती है। हरामज़ादा हवा ही ‎नहीं देता। एक-बार उसे मेरे हाथ में शीशी देने का ए'तिबार जाए। फिर देखिए कैसे शुक्रे की तरह ‎झपटता हूँ। कल कह रहा था मुझे उन आस-पास की क़ब्रों वालों की क़सम! तो मुझे बड़ा घुन्ना ‎लगता है। मैंने कहा, चण्डू पीता हूँ तो क्या घुन्ना भी लगूँ। हँस दिया पर बुड्ढे का ईमान मुझ पर ‎जम नहीं रहा। मैं भी सोचता हूँ कि आख़िर कब तक, सब्र का फल तो आख़िर ख़ुदा देता ही है। एक ‎दिन अड़ंगे पर ला के ऐसा मारूँगा कि दिन को तारे निकल आएँगे। अल्लाह निगहबान हो।”‎

    ‎“और ये दिलासा सिंह है।”, लाला तेज भान ने उधेड़ उम्र के सिख की तरफ़ इशारा किया।

    दिलासा सिंह ने मेरी तरफ़ देखा ही नहीं। वो इंस्पेक्टर की तरफ़ ही देखता रहा और फिर अचानक ‎तड़प कर ख़ादू से बोला, “अबे ऊपर क्यों चढ़ा रहा है, हट कर खड़ा हो। लाला जी को बात करने ‎दे।”‎

    मगर लाला जी ने सिवाए इसके कोई बात की कि, “उसकी ता’रीफ़ तो मैं कर ही चुका हूँ, मेरा ‎ख़ास-अल-ख़ास आदमी है।”‎

    दिलासा सिंह के तेवर बता रहे थे कि उसे टर्ख़ा दिया गया है। उसने निचले होंट के दाँतों में दबा कर ‎डाढ़ी में दो उँगलियाँ डालीं और ठोढ़ी को छर्र-छर्र मला। फिर मुझे सलाम किए बग़ैर लाला तेज भान ‎के पीछे पीछे उनके कमरे की तरफ़ जाने लगा।

    मुझे चंद रोज़ दफ़्तर की फ़िज़ा और बड़े-बड़े रजिस्टरों और मुनशियात के ठेकेदारों से मानूस होने में ‎लगे और अपने हलक़े के दूर दराज़ के बा’ज़ क़स्बात में भंग और अफ़यून के ठेकों का मुआ'इना भी ‎कर आया। एक रोज़ मैं एक ठेकेदार के हमराह एक ताँगे में दफ़्तर जा रहा था कि मैंने कोचवान से ‎कहा,“भई ख़ुदा के लिए ताँगा एहतियात से चलाना। तुम तो सिगरेट में चरस पी रहे हो।”‎

    कोचवान ने पलट कर मेरी तरफ़ देखा। मुस्कुराया और बोला, “पी तो रहा हूँ बाबू, पर आज ही तो ‎नहीं पी रहा। बरसों से चरस भी चल रही है और ताँगा भी चल रहा है।”‎

    ठेकेदार ने पागलों की तरह मेरी आँखों में आँखें डाल दीं और फिर कुछ इस क़िस्म की बे-हंगम ‎आवाज़ें निकालीं जैसे मुझे किसी शे’र पर दाद दे रहा है।

    ‎“आ हाहाहा। वाह मज़ा गया।”, वो बोला, “तीस बरस हो गए आबकारी वालों से निमटते हुए, पर ‎भगवान की क़सम! ऐसा दारोग़ा आज ही देखा कि नौकरी शुरू' हुए महीना भी नहीं गुज़रा और चरस ‎की बू पहचान ली। हद हो गई।”‎

    ठेकेदार की दाद-ए-तहसीन ने कुछ ऐसा फैला दिया कि मैं ताँगे ही में बैठे-बैठे इंस्पेक्टर बन गया ‎मगर जब दफ़्तर में आकर चौथे हफ़्ते की डायरी इंस्पेक्टर की ख़िदमत में पेश की तो वो बोले, “ये ‎आप सैर-ओ-सियाहत ही करते रहेंगे या कभी कोई मुक़द्दमा भी पकड़ेंगे?”‎

    ‎“मुख़बिरी होगी तो पकड़ लूँगा।”, मैंने इत्मिनान से कहा।

    ‎“और अगर मुख़बिरी हुई तो?”, लाला तेज भान ने पूछा।

    ‎“तो मजबूरी है।”, मैंने अपनी तरफ़ से मंतक़ी लिहाज़ से मा’क़ूल जवाब दिया।

    मगर लाला तेज भान को ग़ुस्सा गया।

    ‎“तो साहब इस तरह गर्वनमेंट भी आपको नौकरी से जवाब देने पर मजबूर हो जाएगी।”‎

    ‎“यानी मुख़बिरी भी हो, जब भी कहीं से किसी को पकड़ लाऊँ?”‎

    ‎“जी हाँ”, लाला बोले।

    ‎“कमाल है”, मैंने बेबसी से अपने तअ'ज्जुब का इज़हार किया।

    ‎“कमाल है”, मुझे दूसरे रोज़ फिर उसी तअ'ज्जुब का इज़हार करना पड़ा क्योंकि डिप्टी कमिशनर ने ‎भी मेरी डायरी पर दस्तख़त करते हुए मुझे मेरी सुस्ती और काहिली के सिलसिले में “वार्निंग” दे ‎डाली थी।

    लाला तेज भान ने नर्मी से कहा, “ये कोई ख़ास बात नहीं। शुरू' शुरू' में ऐसा ही होता है। मुद्दतों से ‎ख़ादू मेरे पास नहीं आया। जाने बीमार हो गया या कहीं बाहर चला गया। वो जाए तो मैं उसे ‎आपके हवाले

    कर दूँ कि कोई भंग-वंग ही का केस पकड़वा दे। मेरे लिए तो सिर्फ़ दिलासा सिंह काफ़ी है। अपने ‎चपड़ासी को शहर में भेजिए कहीं से ख़ादू को ढूँढ लाए। किसी तकिए में पड़ा होगा। मरेगा नहीं। ‎चरसी लोग आसानी से नहीं मरते।”‎

    मैंने चपड़ासी को हुक्म दिया कि ख़ादू को ढूँढ लाओ और जब मैं शाम को घर पहुँचा तो ख़ादू मेरे ‎मुलाज़िम के पास बैठा अपनी आँखों में घुसती हुई मक्खियाँ उड़ा रहा था और उसके सर की मुंडी हुई ‎मुस्ततील पर गर्द जमी हुई थी। मुझे देखते ही फ़र्शी सलाम किया और फिर रोने लगा।

    मैं उसे बाहर बरामदे में ले आया और एक खाट पर बिठा कर पूछा, “बीमार हो क्या ?”‎

    ‎“आप तो साईं भोले बादशाहों की सी बातें करते हैं।”‎

    वो बोला, “बीमारी को मुझसे क्या लेना है। मैं तो एक अ'जीब मुसीबत में फँस गया हूँ साईं। कुछ ‎समझ में नहीं आता कि मुझ बेचारे से कौन सा गुनाह हो गया। जिस तकिए पर जाऊँ धक्के देकर ‎निकाल दिया जाता हूँ। अल्लाह बेशक चंडू वाले पर आधे महीने से हाथ फेर रहा था पर उसके पास ‎परसों गया तो वो बोला, जा-जा हरामज़ादा मुख़बिर कहीं का। चंडू पीने आता है। सूरत तो देखो चंडू ‎पीने वाले की। चंडू तो बादशाहों का नशा है और फिर मैं कहता ना कि तू मुझे घुन्ना लगता है। ‎तेरी आँखों में हिर्स है। आज के बा'द मेरे तकिए में आया तो क़ब्र में ज़िंदा गड़वा दूँगा। क़ब्रों में तो ‎रहता ही हूँ। सो साईं अल्लाह निगहबान हो।”, ये कहता था वो।

    मैं तो बिल्कुल इश्तिहार बन गया हूँ। जो देखता है पढ़ लेता है। भंग का मुक़द्दमा मैंने आज तक ‎नहीं पकड़वाया। इसलिए कि बेचारे बोटी बेचने वाले पैसे दो पैसे ही का तो सौदा करते हैं। पर मैंने ‎तंग आकर कहा, लाओ अल्लाह यार भंग वाले को टटोलूँ। मैं वहाँ गया। कोंडी में घुँघरूओं भरा मूसल ‎छमाछम चल रहा था।

    मैंने कहा, वक़्त पर पहुँचे। इकन्नी का मूंगरा दे डाले तो फ़ौरन आपके पास पहुँचूँ और बिसमिल्लाह ‎तो कराऊँ। वो मुझे देखकर बोला, “आओ भई ख़ादू कैसे हो। तुम तो बड़े-बड़े नशों की दुनिया में रहते ‎हो। हमारे यहाँ तो तुम्हारा मुद्दतों बा'द आना होता है। लाओ तुम्हारी ज़रा सी ख़ातिर कर दूँ।”‎

    ‎“और साईं पता है उसने मेरी ख़ातिर कैसे की? उठा, अपनी ही सूरत के दो कुत्ते खोले और मुझ पर ‎हुशकार दिए। ये पिंडली का ज़ख्म देखा है आपने?”‎

    उसकी पिंडली टख़ने से लेकर घुटने तक बाँस की तरह बराबर चली गई थी और एक जगह कुत्ते के ‎काटे का ज़ख्म था जिसपर खुरंड रहा था।

    वो फिर रोने लगा और रोनी आवाज़ ही में बोला, “सच कहता हूँ साईं। मेरा कोई दुश्मन पैदा हो गया ‎है वर्ना मैं तो हमेशा जिस तकिए में गया दिनों में ए'तिबार जमा' लिया। ऐसा भी हुआ कि एक ‎तकिए पर उस्ताद को पकड़ाया और दूसरे दिन उसी तकिए पर उस्ताद के ख़लीफ़े से चरस ख़रीदने ‎चले गए और किसी ने शुब्हा भी किया कि इसी ने कल उस्ताद की बिक्री बिठाई थी। मैं तो मारे ‎शर्म के आपके पास नहीं आया। मैंने कहा, इधर लाला जी मुझे इतना बड़ा मुख़बिर बता रहे हैं और ‎उधर मुझ पर कुत्ते छोड़े जा रहे हैं। मैं हलाली तो जब था कि इधर आप आए थे उधर एक केस ‎देकर आपकी पहली डायरी ठाठ से भरवाता, पर साईं अल्लाह निगहबान हो। मेरी रोज़ी पर कोई ‎ज़रूर लात मार रहा है। पता चले तो...” और एक लंबी दाएरे-दार गाली बक कर आँसू पोंछने लगा।

    ख़ादू के आँसुओं का जादू मुझ पर चल सका। क्योंकि मेरे लतीफ़ एहसासात पर तो डिप्टी ‎कमिशनर की ‘वार्निंग’ सवार हो गई थी। मैंने उसे तसल्ली देकर चलता किया और सीधा इंस्पेक्टर के ‎हाँ जा निकला वो उस वक़्त अंग्रेज़ी शराब के ठेकादार की बेटी की शादी में शुमूलियत के लिए तैयार ‎हो रहे थे। मुझे यूँ बे-वक़्त अपने हाँ देखा तो एक कोने में ले जाकर बोले, “कोई केस मिला है?’‎

    ‎“केस कहाँ मिला है लाला जी।”, मैंने कहा, “ख़ादू मिला है?”‎

    ‎“ख़ादू मिला है तो समझिए केस मिल गया।”, वो अपनी नेकटाई की झुर्रियाँ दुरुस्त करते हुए ‎मुस्कुराए। मैंने उन्हें ख़ादू की बेबसी की तफ़सील बताई तो वो कुछ देर तक एक बूट की टो को ‎कुदाल की तरह ज़मीन पर मारते रहे। फिर बोले, “बात समझ में नहीं रही।”‎

    फिर दूसरे बूट की टो से थोड़ी सी मिट्टी खोदी और बोले, “फ़िक्र कीजिए। मैं कोई इंतिज़ाम कर ‎दूँगा। केस मिले तो केस पैदा करना चाहिए।”, फिर मुझे हवास-बाख़्ता देखकर बोले, “यहाँ यूँ ही ‎चलता है साहब। बड़े अफ़सर यही देखते हैं कि केस नहीं मिला। ये नहीं देखते कि क्यों नहीं मिला।”‎

    मैं खोया-खोया सा घर वापिस गया। एक दो रोज़ ख़ादू के इंतिज़ार में गुज़रे तीसरे रोज़ में दफ़्तर ‎जाने को तैयार बैठा था कि दस्तक हुई। दरवाज़ा खोला तो सामने दिलासा सिंह खड़ा था। बोला, ‎‎“चलिए एक केस पेश कर दूँ।”‎

    मैंने कहा, “भई दिलासा सिंह तुम तो लाला जी के कोटे में शामिल हो। मेरे हिस्से में तो ख़ादू आया ‎है।बोला, “लाला जी की इजाज़त से आया हूँ। सुना है ख़ादू पर तो तकियों वाले कुत्ते छोड़ रहे हैं। ‎मुख़बिर का पर्दा एक-बार उठा तो मरते दम तक के लिए नंगा हो गया। हमारा कारोबार शराब की ‎भट्टियों का है। कल एक भट्टी पर रेड हो रहा है। लाला जी ने कहा, जाते-जाते आपकी डायरी भरवा ‎दूँ। चंडू का केस है, मैं इन गंदे नशों की दुनिया में अब तक नहीं आया था, पर आप भी हमारे ‎अफ़सर हैं और सुना है साहब-ए-ज़िला ने आपको डाँटा है। सो उसने सिर्फ़ आपको नहीं डाँटा। दिलासे ‎को भी डाँट दिया है और दिलासा ज़हर पी लेगा, पर डाँट नहीं पिएगा। इस वक़्त ईंटों पर सर रखे ‎सब गुट पड़े हैं। रास्ते में चार सिपाही लीजिए। मैं चंडू ख़रीद कर इशारा कर दूँगा। फिर आप जानें ‎और आपका काम।”‎

    छापा कामयाब रहा। पाँच मुलज़िमों का चालान हुआ और मेरी डायरी पर डिप्टी कमिशनर ने मुझे ‎‎‘गुड’ दिया।

    इसके बा'द एक ही महीने के अंदर मैंने भंग के चार, अफ़यून का एक और चरस के दो केस पकड़े ‎और उन सब का मुख़बिर दिलासा था। एक केस में चरस ज़रा सी कम थी। दिलासे ने कहा, “आप ‎इस्तिग़ासा तो लिखिए।”‎

    इस्तग़ासे के आख़िर में जब मैंने चरस का वज़्न पूछा तो दिलासा बोला, “तौल लीजिए।”‎

    चरस तौली गई तो साबिक़ा वज़्न से एक तोला ज़ाइद निकली। मैंने हैरान हो कर दिलासे की तरफ़ ‎देखा तो उसने मुझे आँख-मार दी और मैंने इस्तिग़ासा को मुलज़िमों समेत पुलिस के हवाले कर ‎दिया।

    इस दौरान में एक बार ख़ादू से सर-ए-राह मुलाक़ात हुई। कान पर सिगरेट का एक टुकड़ा रखे वो एक ‎दीवार का सहारा लिए खड़ा था। मैं ने मिज़ाज पूछा तो बोला, “दमा हो गया साईं। साँस पेट में समा ‎नहीं रहा। हवा का इतना बड़ा गोला यहाँ छाती में घुस गया है। अल्लाह निगहबान हो।”, फिर वो रोने ‎लगा।

    मुझे धड़ाधड़ केस मिल रहे थे इसलिए उसके आँसू उसके गालों के गढ़ों ही में बह गए। मेरे दिल पर ‎न टपक सके। मैंने कहा, “रोते क्यों हो? मेहनत करो। सारा मुल्तान पड़ा है। तुम तो सिर्फ़ चार पाँच ‎तकियों से निकाले गए हो और यहाँ मुल्तान में तो हर दसवें मकान के बा'द एक तकिया है।”‎

    अचानक उसके तेवर बदल गए। उसकी पुतलियों के गदलेपन में डरावनी सी चमक पैदा हुई और ‎उसके सियाह हाशियों वाले तरबूज़ के बीजों के से दाँत एक साथ नुमायाँ हैं।

    ‎“ये सब मेरे मुक़द्दमे थे। पर वो हरामज़ादा मुझे लूट ले गया और उसी ने मेरी मुख़बिरी का ढिंडोरा ‎पीटा है। अब मैं मुक़द्दमे तो क्या पकड़वाऊँगा। हाँ ये दमा दूर हो तो एक छुरा दिलासे के पेट में ‎उतारने का बड़ा ही शौक़ है” और वो मुझे सलाम किए बग़ैर सीटियों भरी खाँसी के धक्के खाता हुआ ‎मुख़ालिफ़ सिम्त को रेंग गया।

    चंद रोज़ बा'द मैं दफ़्तर से घर आया तो वो मेरे मुलाज़िम के पास बैठा एक हाथ से आँखों में घुसती ‎हुई मक्खियाँ उड़ा रहा था और दूसरे हाथ की उँगलियों में गड़े हुए सिगरेट की राख झाड़ने के लिए ‎मुसलसल चुटकियाँ बजा रहा था। मुझे देखा तो पहले ख़ूब रोया और फिर बोला, “तीन दिन से भूका ‎भी हूँ साईं और नशा भी टूटा हुआ है। नशा तो ख़ैर आप क्या पूरा कराएँगे। चप्पा भर रोटी मिल ‎जाए तो दिलासे का पेट चाक करने के लिए कुछ रोज़ और ज़िंदा रह जाऊँ। अल्लाह निगहबान हो।”‎

    मैंने मुलाज़िम को अलग ले जाकर कहा कि वो ख़ादू को खाना खिला दे और फिर उसे चलता कर ‎दे। उसने ऐसा ही किया मगर दूसरे तीसरे दिन वो फिर मौजूद था। रोने से पहले बे-हयाओं की तरह ‎मुस्कुराया तो मैंने देखा कि उसके नीचे के दो दाँत ग़ाएब हैं। फिर एकदम मुझे महसूस हुआ कि वो ‎छल्ला भी उसके कान की लौ में मौजूद नहीं, जो उस्ताद ने ज़रूरत से ज़ियादा भंग पीने की ख़ुशी ‎में उसे दे डाला था।

    मैंने वज्ह पूछी तो रोने लगा। बोला, “नशा टूट रहा था और आप जानें नशई गर्दन तुड़वा लेगा पर ‎नशा नहीं टूटने देगा। मैंने दाँतों और कान के दोनों तार बेच कर सिगरेट भर चरस ले ली। आधी ये ‎मेरे कान पर रखी है। मैंने सोचा उखड़े हुए दाँतों को कोई कब तक तार में जकड़े फिरे। कभी किसी ‎ने मरे हुए घोड़ों को भी अस्तबल में बाँधा है। रहा उस्ताद का दिया हुआ छल्ला, सो अब काहे को ‎मटकों भंग पीने का इश्तिहार लिए फिरूँ। जब बोटी का एक मंगरा भी नसीब नहीं होता अल्लाह ‎निगहबान हो।”‎

    मैंने उससे आने का सबब पूछा तो आँखें पोंछ कर बोला, “वही चप्पा भर रोटी के लिए आया हूँ ‎साईं।”‎

    मैंने जल कर कहा, “क्या मैंने यहाँ लंगर खोल रखा है कि चरसियों लोफ़रों को रोज़ाना खाना ठुँसाता ‎फिरूँ। तुम मुख़बिर हो, मुख़बिरी करना चाहो तो करो और सरकार से इनआ'म लो वर्ना मुझे बख़्शो। ‎मैं आबकारी के उन दारोगों में से नहीं हूँ कि इकन्नी की भंग के मुक़द्दमे की ख़ातिर मुख़बिरों को ‎हफ़्तों मेहमानियाँ खिलाते रहें। अगर कोई केस नहीं दे सकते तो जाओ किसी तकिए में पड़ रहो।”‎

    फिर मैंने वहीं से मुलाज़िम को हुक्म दिया कि आइंदा ख़ादू को मेरी इजाज़त के बग़ैर घर में ‎घुसने दे।

    वो इस तमाम दौरान में पलकें झपके बग़ैर मेरी तरफ़ देखता रहा और जब मैं मुलाज़िम को हिदायात ‎दे चुका तो वो आहिस्ता से बोला, “इजाज़त है?”‎

    मैंने कहा, “तो और किस तरह इजाज़त दी जाती है?”

    ‎“अल्लाह निगहबान हो”, वो बोला और चुपके से बाहर निकल गया।

    दूसरे रोज़ दिलासा सिंह ने मुझे ना-जायज़ शराब फ़रोशी का ‘दो बोतली’ केस पकड़वा दिया। मैं ‎इस्तिग़ासा लिख कर और मुलज़िमों को पुलिस के सपुर्द कर के घर आया तो ख़ादू बाहर दरवाज़े से ‎लगा बैठा था और मेरे मुलाज़िम ने अंदर से ज़ंजीर चढ़ा रखी थी। मैंने छूटते ही कहा, “देखो ख़ादू ‎मुझ पर तुम्हारा जादू ज़रा मुश्किल ही से चलेगा। मैं देख चुका हूँ तुम कितने पानी में हो। तुमसे ‎एक-बार कह चुका हूँ कि मैंने चरसियों, लोफ़रों के लिए…”‎

    ‎“एक केस है”, वो कुछ यूँ बोला जैसे टीन की चादर पर कंकर गिर पड़े हैं।

    ‎“केस है?”, गर्मी से नर्मी की तरफ़ पलटते हुए मेरे ज़हन को सिर्फ़ यही अलफ़ाज़ सूझे और मेरे ‎सामने आने वाले हफ़्ते की डायरी के वरक़ खुल गए।

    ‎“जी”, वो उसी तरह बैठे-बैठे टन से बोला।

    ‎“क्या केस है?”‎

    ‎“छोटा सा केस है। एक आदमी भंग बेच रहा है। पर केस तो है साईं।”‎

    ‎“हाँ केस तो है”, मैंने उससे इत्तिफ़ाक़ किया।

    ‎“कहाँ है ?”‎

    ‎“काले मंडी में।”‎

    ‎“कब चलें?”‎

    ‎“अभी चलिए। नया नया आदमी है। वक़्त बे-वक़्त की परवाह नहीं करता। जब जाइए टके में मंगरा ‎ख़रीद लीजिए। आपने अंग्रेज़ी सूट पहन रखा है। पर वो आपको भी दे देगा। बड़ा ही भोला आदमी ‎है।” “तो फिर चलो।”‎

    ‎“चलिए, अल्लाह निगहबान हो।”, वो घुटनों पर हाथ रखकर आहिस्ता-आहिस्ता उठा और फिर जैसे ‎चकरा कर दीवार का सहारा ले लिया। उसकी आँखें पथरा गईं और घुटने काँपने लगे। फिर उस पर ‎खाँसी का एक दौरा पड़ा और वो कमान की तरह दोहरा हो कर देर तक खॉँसता रहा। हत्ता कि खाँसी ‎उसके हलक़ से सीटियाँ और चीख़ें बन कर निकलने लगी। मैं दरवाज़ा खुलवा कर अंदर से एक मोंढा ‎उठवा लिया मगर उसने धौंकी की तरह चलती हुई साँसों में कहा, “नहीं जी, इसकी ज़रूरत नहीं, ‎अल्लाह निगहबान हो।”‎

    फिर वो सीधा हो गया। आसतीन से आँखें पोंछीं कान पर से सिगरेट का टुकड़ा उठा कर मुझसे ‎दिया-सलाई माँगी और सिगरेट जला कर बोला, “चलिए।”‎

    थाने तक उसने मुझसे कोई बात की। सिर्फ़ सिगरेट पीता और चरस की बू फैलाता रहा। हम थाने ‎के पास पहुँचे तो वो एक-बार फिर ज़ोर से खाँसा और उसकी हर साँस के साथ उसके हलक़ से कुछ ‎ऐसी आवाज़ें आने लगीं जैसे कुछ दूर से आरा-कश एक साथ लकड़ियाँ चीर रहे हैं। मेरे चेहरे पर ‎तरद्दुद के आसार देखकर वो फ़ौरन बोला, “उस खाँसी और इस खाँसी में बड़ा फ़र्क़ है साईं। वो ‎खाँसी दमे की थी। ये खाँसी चरस की है। उससे सीना फटता था। इससे नशा पाँव के नाख़ुनों से ‎माथे की ठीकरी तक फैलता है। फ़िक्र की बात नहीं। अल्लाह निगहबान हो।”‎

    थाने से मैंने पुलिस के चंद सिपाही साथ लिए और काली मंडी का रुख़ किया। बहुत सी नीम-तारीक ‎और सीली सीली गलियों में से गुज़रने के बा'द वो रुका। उसने अपने हड्डियों भरे हाथ से मेरा हाथ ‎दबाया और इधर-उधर देखकर बोला, “वो सामने जो दरवाज़ा खुला है ना! उसमें आप दाख़िल हो ‎जाइए। सिपाहियों को बाहर रहने दीजिए। आप ख़ुद जाकर टके का मंगरा ख़रीद लीजिए। केस यूँ ‎आपके सामने रखा है जैसे मैं आपके सामने खड़ा हूँ। चलिए... बिसमिल्लाह कीजिए, अल्लाह ‎निगहबान हो।”‎

    वो पलट कर गली के मोड़ की तरफ़ रेंग गया और मैं उसके मशवरे के मुताबिक़ खुले दरवाज़े में से ‎अंदर दाख़िल हो गया। ख़ासी मो’तबर सूरत का एक आदमी पाँच आदमियों के दरमियान बैठा नए ‎नए मूसल से नई नई कोंडी में भंग घोट रहा था और पाँचों आदमी मिट्टी के नए नए मूँगरों में भंग ‎पी रहे थे। एक तरफ़ दो नए नए घड़े रखे थे जिनके दहानों पर सुर्ख़ मलमल की नई नई साफ़ियाँ ‎बँधी थीं और छोटे से आँगन के एक कोने में तीन काले काले बच्चे खजूर की गुठलियों से कोई खेल ‎खेल रहे थे। मो’तबर सूरत आदमी मेरी तरफ़ देखकर ज़रा सा चौंका और मूसल चलाना बंद कर ‎दिया। मगर जब मैंने मुस्कुरा कर बूटी का एक मंगरा तलब किया तो उसने अपने नीचे से पीढ़ी ‎निकाल कर मेरी तरफ़ बढ़ा दी और मुझे बैठने को कहा

    ‎”बिसमिल्लाह।”, वो बोला, “ख़श-ख़श वाली कि सादा?”‎

    ‎“सादा”, मैंने कहा ताकि देर लगे और गली में कोई आता जाता पुलिस के सिपाहियों को देख ‎ले। एक मंगरा उठा कर उसने एक घड़े को झुकाया जिसमें दड़-दड़ की आवाज़ें पैदा हुईं। घड़ा भंग से ‎लबरेज़ रखा था। एक इकन्नी जिस पर मैंने पहले से चाक़ू की नोक से अपने दस्तख़त कर रखे थे। ‎उसकी तरफ़ फेंक कर मैंने मंगरा हाथ में ले लिया और मुजव्वज़ा मंसूबे के मुताबिक़ खाँस दिया। ‎सिपाही लपक कर आए और मुलज़िमों के चेहरे पर से लेकर उसके हाथों के नाख़ुनों तक पर हल्दी ‎खिंड गई। मैंने भरे हुए दोनों घड़ों को सर-ब-मुहर करके इस्तिग़ासा लिखा और मुलज़िमों मीराँ-बख़्श ‎को पुलिस के हवाले कर दिया। तीनों बच्चे चीख़ चीख़ कर रोते हुए मीराँ बख़्श की टाँगों से चिमट ‎गए। एक औ'रत कोठे से निकल कर बैन करने लगी। आस-पास की छतों पर बिखरे बालों और मैले ‎चेहरों वाली औ'रतों के ठट लग गए और मीराँ बख़्श हक्का-बक्का खड़ा सामने खुले दरवाज़े से पार ‎देखता रह गया।

    दूसरे रोज़ में दफ़्तर गया तो ख़ादू पहले से दरवाज़े में मौजूद था। मैं अंदर कुर्सी पर जा कर बैठा तो ‎वो भी अंदर गया और मेरे क़रीब ही फ़र्श पर बैठ कर बोला, “केस कैसा था साईं?’‎

    ‎“बहुत अच्छा था”, मैंने कहा, “पूरे दो घड़े लबालब भरे रखे थे।”‎

    ‎“पूरे दो घड़े?” वो ज़रूरत से ज़ियादा हैरान नज़र आने लगा।

    ज़रा सा वक़्फ़े के बा'द वो बोला, “एक बात कहूँ साईं।”‎

    ‎“कहो”, मैंने कहा।

    ‎“अल्लाह निगहबान हो”, वो बोला, “मीराँ बख़्श के साथ ज़रा सी रिआ'यत हो सकेगी?”‎

    ‎“रिआ'यत?”, मैंने पूछा, “रिआ'यत कैसी?”‎

    ‎“बात ये है साईं।”, ख़ादू मेरी कुर्सी के साथ लग कर मेरी पिंडली दबाने लगा।

    ‎“मीराँ बख़्श से मैंने ही ये काम शुरू' कराया है। बेचारा बिल्कुल भोला है। पहले ख़जूरों की छाबड़ी ‎लगाता था। नया नया है, क़ैद हो, जुर्माना हो जाए बस इतनी रिआ'यत चाहिए।”‎

    मैंने सब-इंस्पेक्टर-ए-आबकारी की हैसियत से कहा, “वो मुलज़िम है और मुलज़िमों से कोई रिआ'यत ‎नहीं की जा सकती।”‎

    ‎“पर सुनिए तो साईं।”, ख़ादू ने अचानक बच्चे की तरह बिलक-बिलक कर रोते हुए कहा, “ये मीराँ ‎बख़्श मेरा बड़ा भाई है ना। जुर्माना हो जाए तो उसको पकड़वाने का मुझे जो इनआ'म मिलेगा उसे मैं ‎जुर्माने में दे दूँगा। अल्लाह निगहबान हो।”‎

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