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नाफ़ के नीचे

सग़ीर रहमानी वारसी

नाफ़ के नीचे

सग़ीर रहमानी वारसी

MORE BYसग़ीर रहमानी वारसी

     

    मुक़ाम: शुमाली टोले का एक तारीक कमरा
    इससे क़ब्ल कि अज़दहा उसे अपने दहाने में भर लेता उसकी नींद टूट गई और उसने घबरा कर आँखें खोल दीं। उठकर बैठने की कोशिश की तो उसके मुँह से कराह निकल गई। उसने महसूस किया कि उसके जिस्म का एक-एक उ’ज़्व फोड़े की शक्ल में टीस रहा है। वो पसीने से तर-ब-तर हो गया था और प्यास की शिद्दत से उसका हल्क़ सूखने लगा था। कमरे में गहरी तारीकी थी और हाथ को हाथ नहीं सुझाई दे रहा था।

    आज फिर उसने वही ख़्वाब देखा था। एक तवील-ओ-अ’रीज़ बद-हैअत अज़दहा उसे चारों जानिब से अपने हिसार में जकड़े हुए है और अपने दहाने को फैला कर उसे साबित निगलने की कोशिश कर रहा है। उसके जिस्म की हड्डियाँ चटक रही हैं और रूह घुटती जा रही है। इससे क़ब्ल कि उसकी रूह फ़ना हो जाती और वो हैबत-नाक अज़दहा उसे अपने सख़्त दहाने की गिरफ़्त में ले लेता... उसकी आँख खुल जाती है। ये ख़्वाब वो मुसलसल कई रातों से देख रहा था। ख़्वाब इस क़दर डरावना था कि इसका असर उसके होश-ओ-हवास पर कई-कई दिनों तक मुसल्लत रहता था और आज तो उसका पूरा जिस्म घाव ही बना हुआ था।

    उसका ज़हन मा’ऊफ़ होने लगा। इसी कैफ़ियत में उसने ब-मुश्किल गर्दन घुमाकर बग़ल में सो रही अपनी बीवी और बच्चे को देखा। तारीकी में उनकी नाक से निकलने वाली घरघराहट की आवाज़ सुनाई दे रही थी। वो धीरे-धीरे उठा और चारपाई से पैर नीचे लटका कर बैठ गया। प्यास की शिद्दत के बावुजूद अँधेरे में पानी के मटके तक जाने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। चारपाई से पैर लटकाए वो गहरी साँसें लेता रहा।

    उसकी उ’म्र कोई एक पैंतीस साल थी। इकहरा जिस्म और दरमियाना क़द होने की वज्ह से डंडों की मार उसके अंदर-अंदर तक हाइल कर गई थी। बीवी ने हल्दी और चूने के मुरक्कबात पूरे जिस्म पर मल तो दिया था लेकिन उसने तंबीह भी किया था, “जब-जब पुरवा चलेगी, अंग-अंग टीसेगा!”, और उसका अंग-अंग टीस रहा था।

    दफ़अ’तन उसके कानों में एक मुतरन्निम और क़द्रे-मानूस सी आवाज़ टकराने लगी। ये गाँव की गोल गुंबद वाली इ’बादत-गाह से आने वाली आवाज़ थी। वो समझ गया कि रात ढल चुकी है और अब नूर का तड़का फैलने ही वाला है। पूरे दिन में कल पाँच दफ़ा इ’बादत के लिए इस आवाज़ के ज़रीए’ लोगों को मदऊ’ किया जाता है। बिला-तफ़रीक़ सब लोग एक साथ अपने मा’बूद की इ’बादत करते हैं। उसके हवास ज़रा बहाल होने लगे। एक-एक मंज़र याद आने लगा। नुकीले गुंबद वाली इ’बादत गाह... चारपाई... चप्पल... डंडे...

    उसके बाप की ऐसी ही टीस से मौत वाक़े’ हुई थी। टोले की सामने वाली सड़क से बड़े घर की सवारी निकल रही थी। शराब के नशे में उसका बाप अपने घर के सामने चारपाई पर बैठा रह गया था। उस वक़्त तो सवारी निकल गई थी मगर शाम को बुलावा आ गया था। बड़े घर की दालान के सुतून से बांध कर उस पर इतने डंडे बरसाए गए थे कि उसका बाप नीम-मुर्दा हो गया था।

    किसी कम-ज़ात की ये मजाल कि सामने से अशराफ़ गुज़रें और वो चारपाई पर बैठा रह जाए। ये तो ख़ुश-आइंद बात नहीं है। ये किसी तूफ़ान का पेश-ख़ेमा है। बड़े घर के लोगों का ख़याल है कि... इस तरह मज़हब का ख़तरे में पड़ना लाज़िम है और जब मज़हब ख़तरे में पड़ेगा तो मुआ’शरती निज़ाम को दरहम-बरहम होने से कोई नहीं बचा पाएगा। हर किसी के लिए हद मुक़र्रर है... आज मुआ’शरे में सुकून और अम्न-ओ-अमान का फ़ुक़दान इसलिए है कि तय-शुदा काम तय-शुदा हदों के अंदर नहीं किए जा रहे हैं। ऐसी हालत में अफ़रा-तफ़री मचना फ़ितरी है। मज़हब का पैमाना टूटना लाज़िमी है और जब ये पैमाना टूटेगा तो मुआ’शरे का ताना-बाना बिखर जाएगा।

    उसके बाप ने मज़हब को ख़तरे में डाला था। मुआ’शरती निज़ाम को दरहम-बरहम करने की कोशिश की थी और वो मुजरिम था।

    वो अपने बाप के नीम-जाँ जिस्म को उठा कर घर ले आया था। कुछ दिनों तक तो उसका लाग़र बाप बिस्तर पर पड़ा खौ... खौ... करता रहा। फिर एक दिन उसकी मौत वाक़े’ हो गई थी। उसके सीने में इतनी शदीद चोट थी कि वो ज़ियादा दिनों तक न जी सका लेकिन मरने से क़ब्ल उसके पास एक अ’मानत थी जिसे उसने उसके हवाले किया था। और वो थी पुश्तैनी नसीहत...

    “हम नाफ़ के नीचे वाले हैं, नाफ़ के ऊपर वालों की ख़ुश-नूदी हासिल करना ही हमारा फ़र्ज़ है। मुझसे भूल हुई। तुम ऐसी भूल न करना। अपनी हद को उ’बूर न करना।”

    उसके बाप ने उसे नसीहत की थी। उसके बाप को उसके बाप या’नी उसके दादा ने ये नसीहत की थी और उसके दादा को उसके परदादा ने। इसी तरह ये नसीहत नस्ल-दर-नस्ल उनके दरमियान चली आ रही थी। अब ये नसीहत उसके मा’रिफ़त उसके बेटे तक पहुँचेगी। उसके बाप तक इस नसीहत की ख़ूब पासदारी हुई लेकिन उससे भूल हो गई। वो भूल गया। अपने बाप की नसीहत भूल गया। पुश्तैनी नसीहत को भूल गया।

    कल की बात है...

    बड़े घरों के यहाँ से ख़िदमत-गुज़ार कर वापिस लौट रहा था कि बारिश शुरू’ हो गई। भीगने से बचने के लिए नुकीले गुंबद वाली इ’बादत-गाह के चबूतरे पर चढ़ गया। ना-पाक कर दिया उसने इ’बादत-गाह को। फिर क्या था, उसका भी बुलावा आ गया। उसने बहुत मुआ’फ़ी मांगी, ज़मीन पर नाक रगड़ी। बीवी ने जान बख़्श देने की मिन्नत की। उसे भी ज़लील किया गया कि अपने मर्द की ख़बर पाकर वो बद-हवास चप्पल पहने गाँव में भागती आ गई थी। उसकी जान तो बख़्श दी गई लेकिन पूरा जिस्म डंडों से चूर कर दिया गया।

    उसे अपने सर में शदीद दर्द का एहसास हुआ। उसकी आँखों में आँसू भर आए। उसने गर्दन घुमा कर एक-बार फिर अँधेरे में सो रही अपनी बीवी और बच्चे को देखा। उनको देखते हुए उसके अंदरून में तलातुम सा बरपा।

    “नहीं, हरगिज़ नहीं...!”, वो अपने बेटे तक इस पुश्तैनी नसीहत को मुंतक़िल नहीं करेगा।

    कुछ लम्हों तक उनकी जानिब देखते रहने के बा’द वो आहिस्तगी के साथ चारपाई से उठकर खड़ा हो गया। तारीकी के बावुजूद उसे अंदाज़ा था कि दरवाज़ा किस जानिब है। वो धीरे-धीरे दरवाज़े की जानिब बढ़ा। उसने दरवाज़ा खोला तो एक ख़ुश-गवार एहसास से भर उठा। क्या ही ख़ूब मंज़र था। तारीकी रुख़्सत हो रही थी और नसीम-ए-सहर में लिपटी हुई नर्म रोशनी उसका इस्तिक़बाल कर रही थी। उसके अंग-अंग में पैवस्त दर्द को सहला रही थी। लम्हा भर के लिए वो सब कुछ फ़रामोश कर बैठा। वो खड़ा रोशनी को पीता रहा। दफ़अ’तन उसके अंदरून में अ’जीब सी हलचल हुई और ब-यक-वक़्त ख़याल गुज़रा कि अंदर वापिस लौट जाए और बिस्तर पर जाकर सो जाए। उसने गर्दन घुमा कर अंदर देखा। उसने देखा उसके बिस्तर पर, जहाँ वो लेटा हुआ था, वहाँ एक बड़ा सा अज़दहा बैठा हुआ था और जो उसके बेटे को ख़ूँ-बार आँखों से घूरे जा रहा था। एक-बार फिर उसके होश-ओ-हवास फ़ाख़्ता हो गए। उसने घबरा कर निगाहें हटा लीं। दरवाज़े पर खड़ा वो गहरी-गहरी साँसें लेता रहा। कुछ लम्हे बा’द उसने दिल को मज़बूत किया और लरज़ते क़दमों से बाहर आ गया।

    तक़रीबन पच्चीस तीस गिरी-पड़ी, टूटी बिखरी झोंपड़ियों और कच्चे मकानों वाला उसका टोला शमनपूरा गाँव के शुमाली हिस्से में वाक़े’ था। वो अपने टोले से निकल कर गाँव में दाख़िल होने वाली सड़क पर आ गया वो दो-राहे पर खड़ा हो गया था जहाँ से गाँव के मकानों की शुरू’आत होती थी। सीधी सड़क गाँव की गोल गुंबद वाली इ’बादत-गाह की तरफ़ जाती थी और सीधे हाथ की सड़क नोकीले गुंबद वाली इ’बादत-गाह की तरफ़।

    नोकीले गुंबद वाली इ’बादत-गाह से भी आवाज़ गूँजने लगी थी। वहाँ भी इ’बादत का सिलसिला शुरू’ हो गया था। उसके जिस्म का एक-एक हिस्सा चीख़ उठा और उसके अंदरून में एक-बार फिर तलातुम सा बरपा। उसने यास-ओ-हसरत भरी निगाहों से नोकीले गुंबद वाली इ’बादत-गाह की तरफ़ देखा और गहरी-गहरी साँसें लेने लगा। चंद सानिया वो बे-हिस बना खड़ा रहा फिर सीधे रस्ते पर बढ़ गया। वो जूँ-जूँ गोल गुंबद वाली इ’बादत-गाह के क़रीब पहुँच रहा था, उसके क़दमों में तेज़ी आती जा रही थी। उसके दरवाज़े के पास पहुँच कर वो एक किनारे खड़ा हो गया था। गाँव के इक्का-दुक्का लोग सुब्ह की इ’बादत से फ़ारिग़ हो कर वापिस जा रहे थे। ज़रा देर बा’द उनमें से मो’तबर और नुमायाँ सा दिखने वाला एक शख़्स बाहर निकला तो वो क़द्रे लपकते हुए उसके पास पहुँचा।

    “सुनिए, सुनिए... मुझे आपसे कुछ पूछना है। रुकिए मालिक...”, वो सरगोशी में चिल्लाया।

    उस शख़्स ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा।

    “कौन हो भाई, क्या पूछना चाहते हो?”

    “मैं... मैं ये पूछना चाहता हूँ कि... कि क्या मैं भी आपकी इस इ’बादत-गाह में...”, उसने इ’बादत-गाह की तरफ़ उंगली उठाई, “इ’बादत कर सकता हूँ? कोई रोक-टोक तो नहीं होगी ना?”

    “ये इ’बादत-गाह मेरी नहीं है भाई। ये तो उसकी है जो एक है और जो सब का मालिक है। उस एक को मानने वाला कोई भी इसमें इ’बादत कर सकता है।”

    “अगर मैं उसको मानने लगूँ तो क्या मैं भी इसमें इ’बादत कर सकता हूँ...?”

    “हाँ... हाँ... कर सकते हो... पर तुम हो कौन?”

    “मैं... मैं... इसी गाँव के ‘शुमाली टोला’ पर रहता हूँ मालिक...”, उसकी आवाज़ में क़द्रे-लुक्नत की आमेज़िश थी।

    मतला’ साफ़ हो चुका था।

    साफ़ रोशनी में वो शख़्स उसे ब-ग़ौर देखे जा रहा था।

    मुक़ाम: गोल गुंबद वाली इ’बादत-गाह का सेहन
    शाम की इ’बादत के बा’द वो सब वहाँ यकजा हुए थे। सब ख़ामोश थे और ग़ौर-ओ-ख़ौज़ में ग़र्क़ थे। ब-ज़ाहिर तो ये महज़ एक तजवीज़ थी लेकिन इस पर संजीदगी से ग़ौर-ओ-फ़िक्र करना लाज़िमी था।

    “मुझे लगता है, हमें उसे अपनी जमाअ’त में शामिल कर लेना चाहिए।”, कुछ लम्हे के बा’द उनमें से एक शख़्स ने गर्दन को जुंबिश देते हुए कहा।

    “लेकिन जनाब ये भी तो सोचिए कि इसका असर क्या होगा?”, एक दूसरे शख़्स ने अंदेशे का इज़हार किया।

    पहले वाले शख़्स ने अपनी गर्दन को फिर जुंबिश दी।

    “असर क्या होगा भई, हम तो उसके पास गए नहीं हैं। इस तजवीज़ को ले कर वो ख़ुद आया है। उसने ख़ुद से अपना मंशा ज़ाहिर किया है और ये तो अच्छी बात है कि इस तरह हमारा हलक़ा वसीअ’ होगा। हमारी मुक़द्दस किताब भी तो यही कहती है कि ज़ियादा से ज़ियादा तब्लीग़ करो और ज़ियादा से ज़ियादा लोगों को अपने में शामिल करो। ये शख़्स तो ख़ुद से चल कर हमारे पास आया है और फिर हमारे मुल्क के आईन में भी दर्ज है कि कोई भी बालिग़ फ़र्द इन तमाम मुआ’मलात में अपना फ़ैसला करने के लिए ख़ुद-मुख़्तार है।”, उस शख़्स ने अपनी बात को वाज़ेह करने की कोशिश की।

    “लेकिन हुज़ूर हमें ये भी तो देखना होगा कि उसका अस्ल मंशा क्या है? कहीं इस तरह हमें फ़ायदा के बजाए नुक़्सान न पहुँच जाए?”, एक दूसरे ने पहले वाले शख़्स से सवाल किया।

    “अरे भाई, ज़ाहिर सी बात है वो हमारे यहाँ की ख़ूबियों और अच्छाईयों से मुतास्सिर हो कर ही हम में शामिल होना चाहता है। आख़िर हमारी मिस्ल... हमारी नज़ीर कहीं और है क्या?”, एक शख़्स ने फ़ख़्रिया लहजे में कहा।

    “हमारे यहाँ की मुसावात देखो। हमारे यहाँ की उख़ुव्वत देखो। हमारे यहाँ का अ’द्ल देखो। हमारे यहाँ की यक-जिहती देखो। क्या-क्या देखोगे। हम बिला-तफ़रीक़ शाना-ब-शाना हो कर इ’बादत करते हैं। हमारा इमाम कोई भी हो सकता है। हमारे मुक़द्दस सहीफ़े कोई भी पढ़-सुन सकता है। हमारे माबैन कोई इम्तियाज़ नहीं। कोई बंदिश नहीं। हम सब एक रब को मानने वाले हैं।”, एक सांस में बोलने के बा’द उस शख़्स ने ज़रा तहम्मुल से काम लिया और फिर आगे की बात पूरी की।

    “क्या ये सब कहीं और मिलेगा?”

    वहाँ ख़ामोशी मुसल्लत हो गई थी। वो शख़्स अपनी तक़रीर का असर जानने के लिए वहाँ मौजूद एक-एक फ़र्द का चेहरा ब-ग़ौर देख रहा था।

    “आपकी बात सौ फ़ीसद दुरुस्त है। यक़ीनन वो हमारी इन मुनफ़रिद और आ’ला ख़ुसूसियात की बिना पर ही हमारी जानिब राग़िब हुआ है।”, एक शख़्स ने पहले वाले शख़्स की हिमायत में धीरे से कहा।

    “चलिए मान लेते हैं कि वो हमारी आ’ला ख़ुसूसियात की बिना पर हम में शामिल होना चाहता है लेकिन उसकी तर्ज़-ए-ज़िंदगी तो अलग रही है? कैसे मुम्किन है कि वो हमारा तरीक़ा-ए-कार अपना सकेगा?”, बोलने वाले ने अपनी दानिस्त में दूर की कौड़ी पेश की।

    “देखिए हज़रात, एक मुहावरा है कि ख़रबूज़े को देखकर ख़रबूज़ा रंग बदलता है... सोहबत में रहेगा तो क्या कुछ नहीं सीख जाएगा। हम लोग ये न भूलें कि हम कोई बराह-ए-रास्त ख़जूरों के देस से नहीं आए हैं। हमारे आबा-ओ-अजदाद यहीं के थे और दूसरे हलक़े से ही इस में मुंतक़िल हुए हैं लेकिन क्या कोई हमें देखकर आज ये कह सकता है कि हम पहले कुछ और थे?”

    शायद बोलने वाले ने कुछ तल्ख़ मिसाल पेश कर दी थी। कई लोगों ने उसे इज़तिराब में देखना शुरू’ कर दिया था।

    उस शख़्स के बोलने के बा’द काफ़ी देर तक सुकूत का आ’लम तारी रहा।

    रात की इ’बादत का वक़्त हो चला था।

    “हाज़िरीन एक शख़्स जो ख़ुद चल कर हमारे पास आया है, अगर हम उसका ख़ैर-मक़्दम नहीं करेंगे तो हम गुनहगार होंगे। कल वो हमारा दामन-गीर होगा। वो हमसे सवाल करेगा और हम अपने मा’बूद के सामने मुजरिम ठहराए जाएँगे। क्या उस अ’दालत में उसके सवालों का कोई जवाब होगा हमारे पास?”, उस उ’म्र-दराज़ शख़्स ने बोलते हुए अपने बदन में लर्ज़िश सी महसूस की।

    लोग ख़ामोश थे और ग़ौर-ओ-फ़िक्र में मुब्तिला थे।

    “वैसे भी इस गाँव में हम लोग ता’दाद के ए’तिबार से काफ़ी कम हैं। हमारी ता’दाद कुछ तो बढ़ेगी। हम कुछ तो मुस्तहकम होंगे!”, एक नई उ’म्र के शख़्स ने ज़रा तैश में आकर कहा तो यक-लख़्त मौजूद सभी की अ’क़्ल-ओ-फ़हम के दरवाज़े गोया वा हो गए। न जाने क्यों उसकी दलील सबको पसंद आई। लेकिन कुछ लोगों ने उसे ना-पसंदीदगी से भी देखा। उन्हें उसकी बात गिराँ गुज़री थी। नई उ’म्र का शख़्स सिटपिटा गया। उसको घूर कर देखने वालों में से एक ने, जिसका उन सभी में शायद मो’तबर मुक़ाम हासिल था, हतमी तौर पर बोला,

    “हमें बहर-ए-हाल ये याद रखना चाहिए कि वो हमारी नुमायाँ और आ’ला ख़ुसूसियात की बिना पर हम में दाख़िल हो रहा है।”

    इस फ़ैसले पर सभी का इजमा’ हुआ और सबने एक आवाज़ में कहा।

    “ख़ुश-आमदीद... ख़ुश-आमदीद... मुबारका... मुबारका...”

    मुक़ाम: नोकीले गुंबद वाली इ’बादत-गाह का चबूतरा
    माहौल में अगरबत्ती, चंदन और नारियल के जलने की भीनी-भीनी ख़ुशबू बिखरी हुई थी। वहाँ मौजूद सभी लोग यूँ तो चुप थे लेकिन उनके चेहरे की तनाबें कसी हुई थीं। बताने वाले ने जो बताया था उस पर यक़ीन करना वैसे तो मुश्किल था लेकिन यक़ीन नहीं करने की भी कोई वज्ह नहीं समझ में आ रही थी। यक़ीनी और बे-यक़ीनी के भंवर में ग़ोते लगाता जानने वाले ने फिर तसल्ली करनी चाही।

    “क्या तुम्हें पक्का यक़ीन है कि वही था?”

    “हाँ मैं पूरे वसूक़ के साथ कह सकता हूँ कि वही था।”

    “आख़िर वो उनके पास क्यों गया होगा?”

    “हो सकता है उस दिन जो कुछ उसके साथ हुआ उसकी वज्ह से।”

    “अरे नहीं, ये वज्ह नहीं हो सकती। इसके तो वो आ’दी हो चुके हैं। उसको उसकी भूल की जो सज़ा मिली वो कोई नई बात तो है नहीं? वो भूल करते आ रहे हैं और उन्हें सज़ा मिलती रही है। ये तो ज़माना-ए-क़दीम से चला आ रहा है।”, बोलने वाले शख़्स की आवाज़ के पैमाने से ए’तिमाद छलक-छलक कर बाहर आ रहा था।

    “मेरे ख़याल से वो उनके पास काम मांगने की ग़रज़ से गया होगा। आख़िर ऐसे लोगों को मआ’श का मसअला भी तो दरपेश होता है? या फिर इ’लाज कराने के लिए क़र्ज़-वर्ज़ लेने गया होगा? उन लोगों से उन्हें बिना ब्याज का क़र्ज़ भी तो मुहय्या होता है।”, एक शख़्स ने अपना जवाज़ पेश किया।

    “मैं समझता हूँ...” एक शख़्स ज़रा सा रुका फिर बोला, “वो उनसे अपना दुखड़ा सुनाने गया होगा, मदद मांगने गया होगा?”

    “अरे नहीं। उनसे भला उसे क्या मदद मिलेगी? उसे दुखड़ा सुनाना होता और मदद लेनी होती तो “लाल झंडीन” के पास जाता। जाकर उनमें शामिल हो जाता।”, पहले वाले शख़्स ने उसकी बात को काटते हुए कहा।

    “उनके पास वो क्या जाए और क्यों जाए?”, एक शख़्स मज़हका-ख़ेज़ अंदाज़ में बोला, “अब उनसे उनके तवक़्क़ओ’त वाबस्ता ही कहाँ रह गए हैं? उनके ख़्वाब-ख़्वाब ही रह गए। अब तो उन ख़्वाबों पर गर्द-ओ-ग़ुबार पड़ चुके हैं। जो अँधेरे में अपना वजूद तलाश कर रहा हो, अपने होने का जवाज़ ढूँढ रहा हो, जो ख़ुद रास्ते से भटक गया हो, वो दूसरे को क्या रास्ता दिखाएगा? अच्छा ही है, एक दम जीना मुहाल हो गया था।”

    “लेकिन ये सवाल तो अपनी जगह हनूज़ ईस्तादा है कि वो गोल गुंबद वालों के पास क्यूँ-कर गया था?”, वहाँ बैठे सबसे बुज़ुर्ग शख़्स ने अपनी पेशानी पर हाथ फेरा।

    “वो उनमें शामिल होने के लिए गया था। इतना ही नहीं इत्तिला के मुताबिक़ पूरा का पूरा शुमाली टोला उनमें शामिल होने के लिए तैयार बैठा है।”, नौ-वारिद शख़्स के इस इन्किशाफ़ से वहाँ खलबली मच गई। कुछ लोग मुश्तइ’ल हो उठे और तैश में खड़े हो गए, कुछ ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे। कुछ वक़्फ़े तक वहाँ का माहौल अफ़रा-तफ़री का शिकार रहा फिर मो’तबर दिखने वाले शख़्स ने किसी तौर सबको शांत कराया।

    सुकूत ऐसा कि सूई भी गिरे तो कान के पर्दे फट जाएँ। सब एक दूसरे का मुँह तक रहे थे। ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा क्यूँ-कर हो सकता है? सभी के चेहरे पर एक ही सवाल पुता हुआ था।

    “सोचने वाली बात ये है कि आख़िर उसने उनमें ऐसी क्या ख़ास बात देखी जो उनमें शामिल होने चला गया? क्या उसे इ’ल्म नहीं कि हमसे बेहतर कोई नहीं। हम सबसे पुराने हैं। हमारी रीति-रिवाज दुनिया की सबसे पुरानी रीति-रिवाज है। हमारे यहाँ हर किसी के लिए और हर काम का एक मुनज़्ज़म तरीक़ा है। हमारे बुज़ुर्गों ने ज़िंदगी गुज़ारने और अपनी दूसरी दुनिया को संवारने के लिए जो आईन बनाए हैं उसके मुताबिक़ हर किसी की हैसियत, उसका मुक़ाम और इसके काम मुक़र्रर कर दिए गए हैं। किसी के मुआ’मले में किसी का कोई दख़्ल नहीं। ये दुनिया की सबसे क़दीम तहज़ीब और सबसे बेहतर निज़ाम-ए-ज़िंदगी है। इतने बेहतर निज़ाम को छोड़कर वो किस गड्ढे में गिरने जा रहा है। क्या उसकी अ’क़्ल-ओ-दानिश पर पर्दा पड़ गया है? हमारा मुतबादिल कोई है क्या?”, एक बुज़ुर्ग शख़्स ने दरमियान में गहरी-गहरी साँसें लेते हुए अपनी बात पूरी की।

    “मैं तो कहता हूँ, उसका दिमाग़ ख़राब हो गया है। वो हम लोगों को सिर्फ़ नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है। उसे किसी क़दर ये ग़लत-फ़हमी हो गई है कि हमसे बेहतर भी कोई है और उसकी जब कभी भी ख़्वाहिश होगी वो हमें ठेंगा दिखा सकता है।”, एक शख़्स ने अपनी खीज निकाली।

    “आप लोग ख़्वाह-मख़ाह उस पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे हैं। मसअले की अस्ल जड़ तो कहीं और है। हमारे लोग तो बड़े मा’सूम होते हैं। मैं तो कहता हूँ उसे ज़रूर गुमराह किया गया है। उसे हमारे ख़िलाफ़ बदज़न किया गया है।”, एक नई उ’म्र के शख़्स ने अपनी बात रखी। एक दूसरे शख़्स ने उसकी ताईद की।

    “बल्कि मेरी समझ में तो ये आ रहा है कि उसे ज़रूर किसी न किसी तरह की लालच दी गई होगी। ये बड़े अ’य्यार क़िस्म लोग हैं। उनकी हर कोशिश में यही मक़सद पिन्हाँ होता है कि... एक दिन पूरी सरज़मीं पर उनका ही पर्चम लहराए, पूरी दुनिया पर उनकी ही हुकूमत हो।”

    “हाँ, हाँ। ऐसा ही है... ऐसा ही है।”, तक़रीबन सभी ने बोलने वाले से इत्तिफ़ाक़ किया और अपने हाथों को हवा में लहराने लगे।

    मुक़ाम: गाँव का फ़ुटबाल मैदान
    बच्चे फ़ुटबाल खेल रहे थे। मैदान के किनारे क़तारों में गुलमोहर के पेड़ लगे हुए थे। एक गुलमोहर के नीचे दरी बिछी हुई थी और फ़रीक़ैन आमने-सामने बैठे हुए थे।

    कशीदगी दोनों अतराफ़ हाइल थी। कुछ देर ख़ामोश रहने के बा’द एक जानिब से गुफ़्तगू का सिलसिला शुरू’ हुआ।

    “हम लोग इतने दिनों से साथ रहते आ रहे हैं...”

    “हमें भी इसका पास है...”

    “आप लोगों ने ऐसा क्यों किया...?”

    “हम लोगों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया...”

    “क्या आप लोगों ने उसे गुमराह नहीं किया? क्या आप लोगों ने उसे हमारे ख़िलाफ़ नहीं भड़काया... क्या आप लोगों ने उसे लालच नहीं दी...?”

    “हम लोगों ने उसे क़तई’ गुमराह नहीं किया... हमने उसे क़तई’ नहीं भड़काया... और हमने उसे कोई लालच भी नहीं दी...”

    “क्या ये भी ग़लत है कि आप लोग उसके पास गए थे...?”

    “बिल्कुल ग़लत है... वो ख़ुद चल कर हमारे पास आया था...”

    “ऐसा नहीं हो सकता...”

    “ऐसा ही हुआ है...”

    “ऐसा कैसे हो सकता है...?”

    “ऐसा क्यों नहीं हो सकता...?”

    “इसकी तसदीक़ कौन करेगा?”

    “इसकी तसदीक़ वही करेगा।”

    “अगर वो मना’ कर दे तो...?”

    “हमें कोई ए’तिराज़ नहीं...”

    “अगर वो मना’ नहीं करे तो...?”

    “तो हमारा दरवाज़ा खुला है...”

    “उसका फ़ैसला आपको मंज़ूर होगा...?”

    “क्या आपको मंज़ूर होगा...?”

    “हाँ हमें मंज़ूर होगा...”

    “हमें भी मंज़ूर होगा...”

    तय पाया कि अगली नशिस्त में उसे बुला कर इसका हल निकाला जाए। फ़ुटबाल का खेल भी ख़त्म हो गया था। न कोई जीता न कोई हारा। बच्चे तालियाँ बजा रहे थे।

    मुक़ाम: सियासी पार्टी का दफ़्तर
    रहनुमा के तशरीफ़ रखते ही कार-कुन भी अपनी जगह पर बैठ गए और मीटिंग की कार्रवाई शुरू’ हो गई।

    “जैसा कि आप सभी को इ’ल्म है कि इंतिख़ाब सर पर आन पहुँचा है।”, रहनुमा ने बात शुरू’ की। “और जब से आप सबने मुझे अपना रहनुमा मुंतख़ब किया है तब से मुख़ालिफ़ पार्टियों के दरमियान खलबली मची हुई है और उन लोगों ने अपनी तैयारियाँ ज़ोर-ओ-शोर से शुरू’ कर दी हैं। हमें भी किसी ख़ुश-फ़हमी में नहीं रहना है और हर तरह से अपनी तैयारी मुकम्मल करनी है। अगर हमें हुकूमत हासिल करनी है तो इस इंतिख़ाब में हमें अपना ध्यान उन इ’लाक़ों पर मर्कूज़ करना होगा जहाँ से हमें गुज़िश्ता इंतिख़ाबात में या तो कम वोट मिले हैं या फिर बिल्कुल सिफ़र मिले हैं। ऐसे इ’लाक़ों के लिए हमें कुछ ख़ास मंसूबे तैयार करने होंगे।”

    “ऐसे इ’लाक़ों में हम जलसे-जलूस ज़ियादा मुनअ’क़िद करेंगे और इश्तिहार पर ज़ियादा ज़ोर देंगे।”, एक कारकुन ने जोश-ओ-वलवलों से लबरेज़ हो कर कहा।

    “उन इ’लाक़ों में हम मौजूदा हुकूमत की नाकामियों को भी मुश्तहिर करेंगे ताकि लोगों को हम में उम्मीद की नई किरन नज़र आए...”, एक दूसरे कार-कुन ने भी उसी लहजे में कहा।

    “उन इ’लाक़ों में हम अपने तरक़्क़ीयाती मंसूबों को बयान करेंगे और तरक़्क़ी की नहर बहा देने का वा’दा करेंगे ताकि बरसों से ज़बूँ-हाली के शिकार वो लोग दूसरे को अपना मसीहा बनाने के अपने साबिक़ा फ़ैसले को मुसतरद कर दें...”

    एक की, दूसरे की फिर तीसरे कार-कुन की बात भी रहनुमा ने ब-ग़ौर सुनी, ज़रा तो क़फ़ किया फिर बोलना शुरू’ किया,

    “दोस्तो... आप लोग जिन हर्बों की बात कर रहे हैं, अब उनका ज़माना नहीं रहा। जनता ब-ख़ूबी समझ चुकी है कि ये सब महज़ सियासी ना’रों के कुछ भी नहीं। उनको पता है कि उनकी तरक़्क़ी, उनके मसअलों से किसी को कोई सरोकार नहीं है। जो भी आता है वो सिर्फ़ उन्हीं छलने के लिए आता है... ऐसी हालत में, जब तरकश के सारे तीर नाकाम हो जाएँ, क्या बचता है?”, रहनुमा ने गहरी नज़र कार-कुनों पर डाली।

    “तब बचता है इमोशन... जज़्बात... अ’क़ाइद... ये एक ऐसा आज़मूदा हथियार है जो कभी नाकाम नहीं होता। निशाने पर लगता ही लगता है और अपने मुल्क में तो लोग इमोशन के इस क़दर ग़ुलाम हैं कि सुब्ह की अपनी टट्टी से भी उनका इमोशन जुड़ा होता है। यही कमज़ोर रग है यहाँ के अ’वामुन्नास की। उसे पकड़ने की कोशिश कीजिए...”

    रहनुमा अपनी बात आगे जारी रखता कि एक शख़्स ने आकर उसके कान में सरगोशी की। रहनुमा की आँखों में एक ख़ास किस्म की चमक उभर आई, उसने आगे कहा,

    “जैसा कि मैं कह रहा था कि हमें उन इ’लाक़ों पर अपना ध्यान मर्कूज़ करना होगा जहाँ के वोटर मुख़ालिफ़ के ज़ेर-ए-असर हैं और उन्हें अपना वोट देते रहे हैं। जैसे कि शमनपूरा। तवारीख़ गवाह है, आज़ादी के बा’द से अब तक हमारी लाख कोशिशों के बावुजूद वहाँ से हमें एक भी वोट नहीं मिला है जब कि वहाँ अक्सरीयत हमारे लोगों की ही है।”, कुछ लम्हा रुक कर सांस लेने के बा’द उसने कहा,

    “आप लोग अपने पूरे जिस्म को कान बना कर मेरी बात सुन लें, अगर इस बार भी वहाँ के लोग आपकी तरफ़ नहीं झुके और आपको अपना वोट नहीं दिया तो समझ लीजिए हुकूमत करने का हमारा ख़्वाब ख़्वाब ही रह जाएगा।”

    कह चुकने के बा’द रहनुमा अपने कार-कुनों के चेहरे के तास्सुरात पढ़ने लगा।

    “वहाँ तो कामयाबी मिलना मशकूक है। बिल्कुल मशकूक है...”, कार-कुनों के दरमियान सरगोशी जारी हो गई थी।

    “कुछ भी मशकूक नहीं... कुछ भी ना-मुम्किन नहीं। आप सब मेरी बात सुनें...”, रहनुमा ने उन्हें शांत कराया, उन पर एक ताइराना नज़र डाली और फिर सरगोशियों में उन्हें कुछ समझाने लगा। उसकी बात जूँ-जूँ पूरी हो रही थी, कार-कुनों के चेहरे खिलते जा रहे थे।

    “इससे क़ब्ल कि वहाँ का मुआ’मला रफ़ा-दफ़ा’ हो जाए आप...”, आख़िरी बात अधूरी बोल कर रहनुमा चुप हो गया था।

    “आप इत्मीनान रखें... आप इत्मीनान रखें...”, कार-कुनों का जोश ठाठें मारने लगा था। रहनुमा कुछ लम्हों तक उनके जोश और वलवलों को महसूस करता रहा फिर अपने दो मख़सूस कार-कुनों की जानिब मुख़ातिब हो कर बोला,

    “वहाँ के लिए पार्टी ने जो लाइहा-ए-अ’मल तैयार किया है उसके मुतअ’ल्लिक़ आप लोगों को कुछ कहना तो नहीं है?”

    “नहीं, बिल्कुल नहीं। आप बजा फ़रमाते हैं। हम आपके साथ हैं। हम आपके वफ़ादार हैं, हम आपके वफ़ादार हैं।”, बोलते हुए दोनों मख़सूस कार-कुनों को महसूस हुआ गोया उनके जिस्म के उ’क़बी हिस्से में कोई ज़ाइद उ’ज़्व नमूदार हो आया है और तेज़ी से हिलने लगा है। रहनुमा के होंट मुस्कुराहट में फैल गए थे।

    मुक़ाम: शमनपूरा गाँव
    वो ग़ायब हो गया था। उसकी तलाश शिद्दत के साथ की जा रही थी लेकिन वो अपनी बीवी बच्चे के साथ ग़ायब हो चुका था। उसके घर का दरवाज़ा खुला हुआ था और घर के अंदर उसके असासे जूँ के तूँ पड़े हुए थे लेकिन वहाँ उसकी या उसकी बीवी और बच्चे की मौजूदगी का कोई निशान मौजूद न था।

    गाँव की फ़िज़ा मुकद्दर हो गई थी। माहौल में अफ़्वाह, शक-ओ-शुब्हा, ग़ुस्सा, नफ़रत किसी वबाई मरज़ की तरह फैलने लगी थी।

    “भाग गया सा... ला...”

    एक जमाअ’त का ख़याल था।

    “डर की वज्ह से भाग गया।”

    दूसरी जमाअ’त का ख़याल था।

    “भाग गया या भगा दिया गया?” दोनों जमाअ’तें सोच रही थीं।

    “ज़रूर उन लोगों ने उसे भगा दिया है?”, एक जमाअ’त ने नतीजा अख़ज़ किया।

    “ज़रूर उन्होंने ही उसे ख़ौफ़-ज़दा कर के भगाया है...”, दूसरी जमाअ’त ने भी फ़ैसला-कुन तरीक़े से सोचा।

    दोनों जमाअ’तों में ग़लत-फ़हमी भी ख़ुश-फ़हमी भी। दोनों जमाअ’तें उसे अपनी-अपनी मीरास समझ रही थीं और उसको लेकर दोनों जमाअ’तों के माबैन सफ़-आराइयाँ शुरू’ हो गई थीं।

    “आप लोगों को इसकी क़ीमत चुकानी होगी...”

    “आप लोगों को भी इसकी क़ीमत चुकानी होगी...”

    “हम दिखा देंगे!”

    “हम भी दिखा देंगे!”

    वो रात दोनों जमाअ’तों ने रतजगा कर के गुज़ारी।

    सुब्ह-सुब्ह सबकी नाक तेज़ ख़ुशबू से फड़कने लगी। गाँव की गली-गली ख़ुशबू से मुअ’त्तर हो उठी। उसने इत्र की पूरी शीशी शायद बदन पर उंडेल रखी थी। चार ख़ाने की लुंगी, सफ़ेद कुर्ता और कंधे पर चार ख़ाने का ही हरे रंग का साफ़ा। आँखों में गहरा सुर्मा लगाए वो जिधर से गुज़र रहा था सबकी आँखें बरसाती नदी की तरह चौड़ी हुई जा रही थीं।

    वो लौट आया था।

    पूरा दिन गर्म और अजनबी हवाएँ गाँव का मुहासिरा करती रहीं। रात हुई तो शो’ला-बार हो उठीं। मकानात धू-धू कर जलने लगे। चीख़-ओ-पुकार, कुहराम... नौहा... बैन...

    नुक़्सान दोनों तरफ़ हुआ। लोग दोनों तरफ़ के मारे गए। वो और उसकी बीवी बच्चे भी मारे गए। लेकिन उनका मारा जाना किसका नुक़्सान था, नुक़्सान था भी या नहीं, इसका जवाब शायद किसी के पास न था।

    मुक़ाम: गाँव का क़ब्रिस्तान
    जो ज़िंदा बच गए थे वो मरने वालों को दफ़ना रहे थे। बच्चों के... बूढ़ों के... औ’रत और मर्दों के... एक-एक कर सारे जनाज़े दफ़नाए जाते रहे। उसका और उसकी बीवी बच्चे का जनाज़ा भी अपने दफ़नाए जाने का मुंतज़िर रहा। वक़्त गुज़रता रहा, गुज़रता रहा, काफ़ी गुज़र गया। उनके जनाज़े पड़े रहे।

    मसअला दरपेश था...

    “इनके जनाज़े हमारे क़ब्रिस्तान में कैसे दफ़नाए जा सकते हैं...?”

    “क्यों, अब तो वो हमारी जमाअ’त का हिस्सा थे...”

    “हाँ... लेकिन इन्होंने तबद्दुल इख़्तियार किया था...”

    “हम लोगों ने भी तो तबद्दुल ही इख़्तियार किया है...”

    “हमारी बात कुछ और है... हम लोग वहाँ नाफ़ से ऊपर वाले थे और ये... इसलिए...

    जनाज़ों के अपने दफ़नाए जाने का इंतिज़ार तवील से तवील होता गया यहाँ तक कि उनमें तअफ़्फ़ुन पैदा होने लगा।

    मुक़ाम: आलम-ए-अर्वाह
    वो, उसकी बीवी और उसका बेटा एक दूसरे के मुक़ाबिल बैठे हैं।

    वो अपने बेटे को देखकर मुस्कुराया। बेटा समझ न सका, माजरा क्या है। उसका बाप क्यों मुस्कुरा रहा है। वो उसका मुस्कुराने का सबब जानना चाहता था।

    वो भी समझ रहा था कि उसका बेटा उसकी मुस्कुराहट की वज्ह से तज़बज़ुब में मुब्तिला है।

    उ’फ़ूनत से उसकी नाक बिजबिजा उठी।

    “मेरे पास तुम्हारे लिए एक अमानत है...”

    उसने पुश्तैनी अमानत अपने बेटे को सौंप दी।

     

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