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नाबीना बीवी

सुल्तान हैदर जोश

नाबीना बीवी

सुल्तान हैदर जोश

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    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो यह हक़ीक़त जानने के बाद भी कि वह लड़की अंधी है उससे शादी करता है जो उसके बाप के ख़ास दोस्त की बेटी है। जब उस लड़की की पहली बारात आई तो लड़के वालों ने लड़की पर लांछन लगाते हुए शादी से इंकार कर दिया था। उस व्यक्ति ने भी उन बातों को सच माना और लड़की के घर जाने और उसके बाप से मिलने से कतराने लगा। एक रात जब वह अपनी छत पर लेटा हुआ था तो वहाँ उसने किसी के रोने और बुदबुदाने की आवाज़़ सुनी। वह उठकर आवाज़ की ओर गया और जब उसने उस लड़की को नमाज़ के दौरान रोते देखा तो उस पर उसका ऐसा प्रभाव हुआ कि उसने बिना कुछ जाने-समझे ही उस लड़की से शादी कर ली।

    मेरे घर के बराबर दीवार बीच, एक क़ाज़ी साहब का मकान था। बेचारे एक ज़माने में बड़े मुतमव्विल आदमी थे मगर रियासत की ज़िंदगी ख़ुसूसन मुलाज़िमत इन्क़िलाब की तस्वीर हुआ करती है। ज़रा राजा साहब के कान भरे और बेक़सूर पर आफ़त बरपा हो गई। इसी तरह उन शरीफ़ क़ाज़ी साहब के तमव्वल ने अफ़्लास का पहलू बदला और फ़क़त पच्चास साठ रुपये माहवार की क़लील रक़म हज़ार दिक़्क़त बच-बचा कर रह गई। इसी पर सब्र-शुक्र के साथ क़ाने थे और अपना और अपनी बीवी का पेट पालते थे। अरबी और फ़ारसी की क़ाबिलिय्यत के लिहाज़ से दूर दूर तक उनका शहरा था और बाहर से अक्सर अश्ख़ास मुश्किल से मुश्किल मसले हल कराने आते थे।

    क़ाज़ी साहब की साहबज़ादी की शादी की तक़रीब जब हुई तो निकाह में मुझे भी मदऊ किया गया मगर चंद दो-चंद ज़रूरियात की वजह से मैं शामिल हो सका। मगर हमसाया था, वाक़ियात की ख़बर बराबर मिल गई। मालूम हुआ कि दूल्हा को पहले से इस लड़की की निस्बत जिससे अब उसकी क़िस्मत वाबस्ता होने वाली थी कुछ भी मालूम था और ऐन निकाह के वक़्त मालूम किस बात के इल्म पर इस नई रौशनी के शैदा ने शादी से क़तई इनकार कर दिया। तरफ़ैन की बड़ी बदनामी हुई और आख़िरकार बरात वापस गई। इसके बाद ख़ुद दूल्हा से मेरी राह रस्म हो गई और इसकी वजह उसने ग़रीब लड़की की बदचलनी बयान की। ये सुनकर मेरे ख़यालात भी क़ाज़ी साहिब की तरफ़ से ख़राब होने लगे और मैंने उनसे मिलना-जुलना कम कर दिया। रास्ते में भी उनसे कतरा कर निकल जाता। वो दरअस्ल मुझसे मुहब्बत करते और मेरे वालिद बुजु़र्गवार के बड़े सच्चे दोस्त थे।

    इसी तरह छः महीने गुज़र गए, अब गर्मी का मौसम पहुंचा। मेरी वालिदा ज़ईफ़ा तो सेहन में सोया करती थीं। मगर मैं अकेला छत पर लेटा करता था। एक दफ़ा मुझे ख़ूब याद है जुमा का दिन था। चिलचिलाती गर्मी थी। पहर भर दिन से हवा बंद थी दोनों वक़्त मिलते ही मारा मारा करके मैंने खाना खाया और सीधा कोठे पर जा पड़ा। चारों तरफ़ उजली चांदनी छिटकी हुई थी और तारे इक्का दुक्का नज़र आते थे। दो तीन घंटे यूँ ही करवटें बदलते और हाथ पांव मारते कटे। ख़ुदा ख़ुदा कर के 11 बजे हवा ज़रा सरसराई और कुछ जान में जान आई। नींद की ग़ुनूदगी में यकायक मुझे ये मालूम हुआ कि कोई मेरे सिरहाने बोल रहा है। मैं फ़ौरन उठकर बैठ गया। आँखें फाड़ फाड़ कर चारों तरफ़ देखा। मगर आदमी तो आदमी परछाईं तक दिखाई दी। इतने में हवा के झोंके के साथ एक दर्द-भरी आवाज़ क़ाज़ी साहब की छत से आई। ख़ुदा जाने क्यों कर बदनामी होती है। मगर ख़ैर रब्बुल आलमीन ख़ूब जानता है, मुझे किसी से ग़रज़ ही क्या! पाक परवरदिगार! मैं नहीं चाहती कि मेरी शादी हो। मुझ दुखियारी अंधी को कौन क़ुबूल करेगा? मगर हाँ ये ज़रूर है कि मैं पाक हूँ और बाअस्मत हूँ। आपसे मैं ये चाहती हूँ कि मेरी बदनामी हो और बुरा कहने वालों का मुँह तू बंद कर दे। इन दर्द भरे जुमलों के बाद फिर कोई आवाज़ क़तई आई। ये अलफ़ाज़ मेरे चोट खाए हुए दिल के साथ नमक का काम कर रहे थे और मेरी सारी रात आँखों में कटी। सुबह होते ही मैं जनाब वालिद साहब की इजाज़त पर एक दोस्त के ज़रिये से पैग़ाम भेजा और क़ाज़ी साहब की ग़ुलामी में अपने आपको देना चाहा। मगर उन सच्चे और पाक-बाज़ इन्सान ने इसके जवाब में आबदीदा हो कर कहा कि उनसे कह देना, अभी साहबज़ादा हो, ना तजुर्बेकार हो। क्यों अपनी ज़िंदगी तल्ख़ करते हो। वो बदनसीब लड़की अंधी है। मैं तुम्हारे वालिद का नियाज़मंद हूँ। क़यामत के दिन उन्हें क्या मुँह दिखाऊँगा?

    बमुश्किल तमाम मैंने क़ाज़ी साहब को कई दिनों में मजबूर कर लिया और उस मुसीबतज़दा नाबीना लड़की से चुप चुपाते शादी करली। अब वो मेरे घर में आई और मेरी बीवी बन कर रहने लगी। उसकी ख़साइल की निस्बत मैं बिला मुबालग़ा कह सकता हूँ कि वो सब्र, क़नाअत, सच्चाई, हमदर्दी, मुहब्बत और पाकबाज़ी की मुजस्सम तस्वीर थी। अक्सर औक़ात पिछली रात कभी मेरी आँख खुल जाती तो मैं एक अजीब मुअस्सर नज़ारा देखता, वो पलंग पर लेटे लेटे निहायत आजिज़ी के साथ दुआ में मश्ग़ूल होती और हज़ार हज़ार तरह से पहरों मेरी तरक़्क़ी, आराम और आसाइश के लिए दुआएं माँगती, हत्तल इमकान मैं उसकी ख़ुशी का ख़याल अज़ हद रखता। जब तक मेरी वालिदा ज़ईफ़ा ज़िंदा थीं। मेरी नाबीना बीवी को मेरे हाज़िर ग़ाइब में किसी क़िस्म की तकलीफ़ पहुंची। मगर उन्होंने भी एक दिन इस दार-ए-फ़ानी को अलविदा कहा और उनके सदमे ने मेरी हिम्मत पस्त कर दी। अब घर में सिर्फ़ एक ख़ादिमा थी और डेयुढ़ी पर एक नौकर। वालिदा साहिबा की आँखें बंद होते ही ख़ादिमा ने उसे तकलीफ़ पहुंचानी शुरू की। मगर मैं सच अर्ज़ करता हूँ, कभी भूल कर भी उसने ख़ादिमा की शिकायत मुझसे नहीं की और मुझे क़तई इस बात की इत्तिला नहीं हुई।

    एक रोज़ इत्तिफ़ाक़िया ख़िलाफ़-ए-मामूल दोपहर को घर में वापस आया जबकि मेरी बीवी खाना खा रही थी और ख़ादिमा दस्तरख़्वान के पास बैठी थी। सालन वग़ैरा देखकर मेरी आँखों में ख़ून उतर आया और उस मामा को बुरा-भला कहने लगा क्योंकि पूरे ख़र्च पर भी खाना बहुत ख़राब था और ऐसा मालूम होता था कि वो मुझे अच्छा खिलाती थी और मेरी ग़रीब नाबीना बीवी के सामने रूखी-सूखी रोटियाँ और बचा-खुचा सालन रख देती थी और बाक़ी सब अच्छा अच्छा तैर कर जाती थी। उसी दिन से मैं सुबह को जब तक मेरी क़ाबिल-ए-रहम बीवी ज़रूरियात और नमाज़ से फ़ारिग़ हो लेती थी, बाहर जाता और दोपहर से पहले वापस कर खाना उसी के साथ खाता। फिर शाम से ही घर में पड़ता और तमाम रात कहीं निकलता। उसकी सच्ची मुहब्बत और रास्त बाज़ी ने इस क़दर मेरे दिल में घर कर लिया था कि अक्सर मामा के होने पर मैं ख़ुद काम करता। उसके लिए वुज़ू वग़ैरा के लिए पानी लाने में मुझे आर था। इस तरह घर में घुसे रहने की वजह दोस्त अहबाब मुझ पर फ़िक़रे कसने लगे और मेरे हमउम्र मेरा मज़ाक़ उड़ाने लगे। मगर मैंने पर्वा की और मेरे मामूल में ज़र्रा बराबर भी फ़र्क़ आया।

    इसी अस्ना में इन नई रौशनी के नौजवान की जिसने मेरी नाबीना बीवी पर झूटा इल्ज़ाम लगाया था बड़ी धूम धाम से शादी एक मुतमव्विल लड़की से हो गई। मुश्किल से एक बरस गुज़ारा होगा कि शकर-रंजी हुई और बढ़ते बढ़ते ख़ाना जंगियों की नौबत आई। तमाम शहर में अफ़्वाह फैल गई कि उनकी बीवी आवारा है। उन्होंने उसको निकाल दिया। उसने मैके पहुंचते ही नान नफ़क़ा और मेह्र की नालिश ठोंक दी और नई रौशनी के नौजवान को छट्टी का खाया हुआ याद गया। ग़रज़ ख़ूब अर्ज़ी पर्चा होता रहा। उन पर बीवी की डिग्री हो गई। अब उन्होंने ख़ानदान के बुज़ुर्गों के सामने मिन्नत समाजत की और सुलह हो गई। उनकी बीवी घर में गई। मगर थोड़े अर्से के बाद फिर वही तुक्का फ़ज़ीहती शुरू हो गई। बहरहाल डिग्री के ख़ौफ़ से वो ग़ुस्सा दबाते और बीवी की जूतियां खाते रहते।

    इस दार-ए-नापायदार के क़ानून के मवाफ़िक़ मुझ बदनसीब पर एक और मुसीबत आई। मेरी नाबीना बीवी को बुख़ार आने लगा मैंने डाक्टर, हकीम, मुल्ला, स्याने, दवा, ठंडाई, गंडा ग़रज़ कुछ छोड़ा। मगर बुख़ार में कमी होनी थी हुई। मैंने बिल्कुल हर जगह का आना-जाना छोड़ दिया। वो बराबर छः महीने तक बीमार रही। मैंने हर क़िस्म की ख़िदमत की। यहां तक कि चौकी पर ले जाना। दवाई पिलाना वग़ैरा मेरा रोज़ाना मामूल था। कई बार मेरे उगालदान उठाते ही उबकाई आई और जूंही मैंने उगालदान सामने किया उसने डालना शुरू किया जिससे मेरे हाथ भी भर गए। अगरचे मैं शहर में नाज़ुक-मिज़ाज मशहूर हूँ। लेकिन बख़ुदा कभी मुझे ऐसी कराहत नहीं आई कि मुहब्बत पर ग़ालिब आती।

    एक दिन उसने मुतवातिर बारह घंटे आँख खोली और मुझे अज़-हद तशवीश हुई। रात के तक़रीबन नौ बजे जबकि उसका सर मेरे ज़ानू पर था, उसे होश आया। उसने छूटते ही कहा, तुम इस क़दर क्यों तकलीफ़ उठाते और मुझे शर्मिंदा किए जाते हो? मैं इस शर्मिंदगी से मर जाऊँ तो अच्छा है। तुम्हें मामा पर एतबार हो तो अपनी शादी किसी से कर लो। वो घर का इंतिज़ाम ख़ुद करेगी और तुम्हें इस क़दर दर्द सरी नहीं करनी पड़ेगी। ये समझना कि मुझे सौकन का ख़याल होगा। तुम्हारा यही एक एहसान कि तुमने मेरा सरताज बनना मंज़ूर किया, ऐसा है जिसका मैं किसी तरह बदला नहीं दे सकती। तुमने मेरे साथ शादी कर के वाक़ई अपने ऊपर बड़ा ज़ुल्म किया।

    कुछ पूछिए कि इन अलफ़ाज़ ने मेरे साथ क्या किया। मेरे ख़ून में चक्कर आया। मैंने दोनों हाथों से कलेजा थाम लिया। हालत रोज़ बरोज़ ख़राब होती गई। क़ाज़ी साहब दुनिया से रुख़्सत हो चुके थे इसलिए उसने अपनी वालिदा को बुलाया और दर्द भरे अलफ़ाज़ के साथ मेहर माफ़ कर दिया और मैं रोते-रोते बेहोश हो गया। उसी दिन से हिचकी लग गई। उसके आख़िरी अलफ़ाज़ ये थे, अगर तुम को तकलीफ़ हुई तो मेरी रूह को सदमा होगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : लौह (पृष्ठ 89)
    • रचनाकार : मुमताज़ अहमद शेख़
    • प्रकाशन : रहबर पब्लिशर्स, उर्दू बाज़ार, कराची (2017)
    • संस्करण : Jun-December

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