नामर्द
इस चौड़ी सड़क के एक किनारे में बहुत मशहूर सिनेमाहाल है जिसमें सिर्फ़ अंग्रेज़ी फिल्में दिखाई जाती हैं। इसके दूसरे किनारे पर भी सिनेमा हाल हैं और सब कुछ के इलावा सिनेमा हाल या होटल ज़्यादा हैं। होटल भी शरीफ़िया, निज़ामिया, साबरिया क़िस्म के... जिनके बड़े बड़े डाइनिंग हाल में हर वक़्त चीख़-ओ-पुकार मची रहती। क़लिया, कोरमा, पुलाव, नान, फ़िरनी। खाने-नाश्ते का कोई इम्तियाज़ इन होटलों में नहीं था और खाने के लिए ये होटल आठ बजे सुबह से ग्यारह बजे रात तक हर एक के लिए खुले रहते। इस विशाल शहर की ख़ूबी ये है कि यहां इस क़िस्म के होटल बहुत हैं और उनमें से किसी के बारे में ये कहना मुश्किल है कि हर घंटा उनकी तहवील में कितना जाता है। मगर ये हर साल फैलते हैं, एक छोटे डाइनिंग हाल से शुरू हो कर उनमें दो-चार तो अब छोटे मुहल्ले के बराबर हो गए हैं।
संग-ए-मरमर टाप वाले टेबल, मुस्तहकम क़िस्म की छोटी कुर्सियाँ, बदज़बान और ज़बान दराज़ नौकर... ख़ामोश और पुरसुकून काउंटर्ज़ पर बैठे बुत जो डर और खोल कर रुपये डालने और गाहक के ज़ाइद पैसों को वापस करने के सिवा कोई और काम नहीं करते। ये ड्रावर ऐसे बने होते हैं कि ड्रावर के पेंदे की तख़्ती ड्रावर की तरह बाहर खींच लीजिए तो ड्रावर में रखे सब रुपये नीचे ख़ंदक़ में गिर जाते। ये ख़ंदक़ चार फुट ऊंचा, पाँच फुट चौड़ा हुआ करता है और फिर वहां से स्टील के बक्सों में बंद हो कर कहीं भेज दिए जाते हैं। काउंटर पर बैठे हुए बुत हर चार घंटे पर बदल जाते हैं।
मेज़ों पर खाने वाले लोगों में अक्सरियत उन लोगों की होती है जो औसत आमदनी वाले से लेकर कम आमदनी वाले तबक़े से तअल्लुक़ रखते हैं, दो रोटी, दो बोटी... और आठ दस घंटे के लिए इत्मिनान हो गया। ऑफ़िस में काम करें, बाज़ारों में दौड़ते फिरें, हेराफेरी करें।
इन होटलों में दो तीन ऐसे भी हैं जिन्होंने ऊपरी हिस्सों में कमरे बना रखे हैं और उनको किराए पर लगाते हैं, शादी-ब्याह के ज़माने में बारातियों के लिए ये कमरे रिज़र्व भी कराए जाते हैं। कमरों की आराइश वग़ैरा भी इन होटलों के मेयार के मुताबिक़ ही है। बा'ज़ कमरे मुल्हक़ बाथरूम के साथ हैं जिनका किराया ज़्यादा होने की वजह से होटल के लोग उनमें ठहरने वाले लोगों की कुछ ज़रा इज़्ज़त कर लेते हैं। घंटी बजाई और बैरा हाज़िर वाली बात नहीं, मगर ये कि ज़रा कमरे से बाहर निकल कर गला साफ़ करके पुकारा जाये तो दो तीन पुकार में लुंगी पहने हुए एक नौकर आजाएगा, काम बताइए, आठ आने इनाम दे दीजिए, बस आपका काम हो जाएगा।
सुब्ह को ग़ुसल वग़ैरा करके नौ बजे उतरिए और नाश्ते वग़ैरा का चक्कर छोड़िये, सीधे दो रोटी और दो बोटी वाले शोरबे के साथ जी चाहे कोई और एक्स्ट्रा प्लेट मंगा लीजिए और बस, पाँच बजे शाम तक के लिए मुतमइन अपने काम में लग जाइए।
तो बात दरअस्ल ये है कि मैंने इस बड़ी सड़क और इसके सिनेमा और ख़ुसूसन होटलों का ज़िक्र इसलिए किया कि इस शहर की ख़ुसुसियात में से ये अहम ख़ुसूसियतें हैं और ये जो ख़िलक़त की ख़िलक़त यहां दौड़ती फिरती है, इसकी ख़ास वजह ये है कि इन होटलों ने उसे मुम्किन बना दिया है, ये कोई दिल्ली नहीं है, बंबई भी नहीं है, ये तो बड़ा प्यारा शहर है।
कॉलेज में पढ़ता था तो उसी वक़्त से ये बात ज़हन में बैठ गई है कि इन होटलों ने बड़े आदमियों के बनाने में बड़ा हिस्सा लिया है, आप इसे न मानें... मगर मैं जानता हूँ।
मगर मैं तो इस शहर के बारे में बहुत कुछ जानता हूँ। हालाँकि फिर भी शायद बहुत कम जानता हूँ।
तो ये शहर उसी वक़्त से मुझे लगता है कि शहर नहीं, एक मुल्क है! मुल्क तो मैं उसे आबादी के लिहाज़ से कहता हूँ, मगर ये और भी कई वुजूहात से मुल्क कहे जाने के लायक़ है।
पर इस ज़िक्र को छोड़िये।
मैं पाँच छः साल बाद इस शहर में आया हूँ...
ठहरिये!
ये बात बाइस साल पहले की है कि मैंने जब एक छोटी सी फ़ैक्ट्री एक दूसरे सूबे के क़स्बे में खोली थी और तब मैंने महसूस किया था कि इस शहर को जानने के क्या फ़वाइद हैं!
मुझे जब कोई चीज़ इंजिनियर बताता कि ख़रीदना है और इसकी क़ीमत पाँच हज़ार होती है तो मैं इंजिनियर को साथ लेकर सीधा इस शहर में आजाता और उस मख़सूस बाज़ार में चला जाता जहां वही चीज़ मुझे हज़ार डेढ़ कम में मिल जाती।
लोहे के तार की मेरे सूबे में बड़ी कमी हो गई। क़ीमत ब
हुत बढ़ गई तो मैंने इस शहर का रुख़ किया और ऐसी ऐसी पतली गलियों में दामन बचाता गुज़रा कि जहां तारों के ढेर लगे हुए थे, बस ये ज़रा ज़ंग लगा, कुछ ज़रा मोटाई में कम थे... मगर और उन गलियों में मुझे वो तमाम हुनर बताए गए कि मैं किस तरह हर टैक्स से बरी हो कर अपने क़स्बे में ये माल ले जा सकता हूँ।
और एक बार ऐसा हुआ कि...
ये शहर हर बार मेरे मसले को हल कर देता क्यों कि ये शहर नहीं मुल्क है।
तालिब-ए-इल्म की हैसियत से इस शहर ने मुझे सिखाया कि कमाओ और पढ़ो।
इंडस्ट्री खोलने के बाद इस शहर ने मुझे बताया कि हर आँख में धूल झोंकने की तर्बियत यहां से हासिल करो और मैंने यहां से अपने काम के लायक़ तर्बियत हासिल की। हुनर मंदों ने मुझे मेरी ज़रूरत का हर हुनर बताया, इस बार मैं पाँच साल बाद फिर यहां आया था।
और शरफ़िया क़िस्म के होटल के एक कमरे में ठहर गया जो मुल्हक़ बाथरूम की वजह से अपने मकीनों को इज़्ज़त बख़्शता था।
आठ बजे सुबह में नीचे उतरता तो...
फुटपाथ पर एक लकड़ी के बड़े से बक्स में वो औरत जो बमुश्किल सतरह साल की होगी, अपना बिस्तर सलीक़े से तह कर के उसमें रखती, उसका शौहर नल पर नहाता रहता और वो उसे गमछा नुमा कुछ देती, फिर वो इस लकड़ी के बक्स से, जो काफ़ी बड़ा था, एक कड़ाही निकालती और फिर कुछ बर्तन, छोटी बड़ी शीशियां, चमचे... और पान की दुकान और होटल की दीवार से जो कोना बनता, उसमें ईंटें खड़ी करके चूल्हा बना कर अपना काम शुरू कर देती।
ये तो रोज़ाना का मामूल था उसका, जो मैं कई दिन तक देखने के बाद जान गया था।
मगर मेरे ज़हन में बहुत से सवालात उठते थे।
ये सतरह साला लड़की शौहर समेत इस फुटपाथ पर रह तो सकती है और वो बेहद सलीक़ामंदी से रहती है, मगर इस फुटपाथ पर... इस फुटपाथ पर दूसरे तक़ाज़ों का क्या होता होगा?
मैं उस दिन सुबह से निकला हुआ शाम के सात बजे लौटा और होटल में खाने के बाद पान की दुकान पर पान खाने लगा, सामने निगाह गई तो देखा, मेरी एक पसंदीदा फ़िल्म लगी हुई है। सिनेमा के काउंटर पर पूछा कि नाइट शो में यही फ़िल्म है?
मैंने एक औसत दर्जे का टिकट कटाया और ग्यारह बजे फ़िल्म देखकर लौटा तो... तो मैं ने देखा उस लड़की का शौहर फ़ुटपाथ पर औंधा सोया हुआ है और वो लड़की आस-पास भी नहीं है।
अब नहीं है तो मुझे क्या फ़िक्र होने लगी, मैं ख़ुद पर झुँझलाया।
मगर मैं ख़ुद अपने लिए कई मुसीबतें खड़ी कर सकता हूँ, इसलिए मैंने पान वाले से पान लिये और फिर उस बड़ी सड़क पर टहलने लगा, यानी यूं के उस लड़की की जाये रिहाइश से आगे ही चलता गया। मैं शायद 1/4 मील चल कर फिर लौटा।
तो भी लड़की नहीं थी।
पान वाला अपनी दुकान के पटरों पर दिए हुए नंबरों को जोड़ जोड़ कर दुकान बंद कर रहा था।
ये शहर और ये होटल...
उन्होंने बड़े आदमियों के बनाने में मदद ही नहीं की, बल्कि बना दिया क्योंकि अगर वो लोग यहां न आते और ये होटल न होते तो कहीं चपरासी या मामूली क्लर्क हो जाते।
एक पुलिस की जीप रुकी और दो सिपाहियों ने उस लड़की को गोद में उठा कर उसके शौहर के पास आहिस्तगी से पटक दिया। लड़की ने एक सिपाही के कमरबंद को पकड़ लिया और चिल्लाई...
तेरा अफसर साला होगा... मुझे...साला... और...
सिपाही बेल्ट छुड़ा कर जीप में सवार हो कर चला गया। मैं जल्दी से पान की दुकान की ओट में हो गया था।
उसने अपने शौहर को बालों से पकड़ कर उठाया।
साला आराम से सोता है... तेरे सामने साला वो अफसर मुझे उठा कर ले गया और तुम साला जबान भी नहीं हिलाया... तुम साला... नामर्द...
पुलिस का बड़ा अफ़्सर था, हम ग़रीब लोग हैं, हमारी... चल सोजा और भूल जा... कल दूसरी जगह चले जाएंगे।
तू भूल जा... का है कि तू नामर्द है, मैं... मैं... तुझसे तलाक़ लेती हूँ... का है कि तू मेरे लाइक नहीं...
और वो वहां से एक गठड़ी बांध कर उसी वक़्त एक तरफ़ सच मुच चली गई।
रात भर ये मंज़र नींद की जगह लिये रहा।
इसके बाद मैं चार रोज़ और वहां रहा और जिस दिन मुझे लौटना था उस दिन कमरे में जो उर्दू अख़बार देखा उसे मैंने झपट कर पढ़ा।
साउथ सिटी के एस.पी. का एक लड़की ने उसके ऑफ़िस के कमरे में रात ग्यारह बजे तेज़ कटार से पेट चीर दिया... तफ़्सीलात मालूम नहीं।
जब मैं अपने सामान समेत आठ बजे सुबह नीचे उतरा तो मैंने देखा कि वो आदमी लकड़ी के बक्स में बिस्तर लपेट कर रख रहा है।
मुझे लगा, नामर्दी उसमें और मुझमें मुश्तर्क है...
पान की दुकान की ओट से मैंने अपने आपको झाँकते हुए देखा, मैं अपना चेहरा पहचान सकता हूँ।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.