Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

नंगी मुर्गियां

अल्ताफ़ फ़ातिमा

नंगी मुर्गियां

अल्ताफ़ फ़ातिमा

MORE BYअल्ताफ़ फ़ातिमा

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी आधुनिकता के बहाव में हो रहे औरतों के शोषण की बात करती है। ख़ुद-मुख़्तारी, आज़ादी और आत्म-निर्भर होने के चक्कर में औरतें समाज और परिवार में अपनी हक़ीक़त तक को भूल गई हैं। पश्चिम के प्रभाव में वे ऐसे कपड़े पहन रही हैं कि कपड़े पहनने के बाद भी वो नंगी नज़र आती हैं, जिन्हें कोई कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं कर सकता।

    उन्हें कपड़े पहना दो।

    मेरा दिल बार-बार सदा देता है लेकिन मेरी कोई नहीं सुनता। लोग मेरी बात इसलिए नहीं सन सकते कि उन्हें बातें करने का बहुत शौक़ है। कुच, कुच, कुच, वो बातें किए जा रहे हैं। मिली जुली आवाज़ों में दुनिया ज़माने की बातें किए चले जा रहे हैं। मसलन एक ज़ुल्फ़ बुरीदा अनटलकचोइल ख़ातून तक़रीरी मुक़ाबले के अंदाज़ में धुआँ-धार फ़र्मा रही है किआज पाकिस्तानी औरत घर की चारदीवारी से इसलिए निकल आई है कि उसे मईआर-ए-ज़िंदगी बरक़रार रखना है। घर की आमदन और ख़र्च में तवाज़ुन क़ायम रखना है। आज की पाकिस्तानी ख़ातून के कांधे पर दुहरी सलीब धुरी है। वो कमा भी रही है और ख़ातून-ए-ख़ाना के फ़राइज़ भी अंजाम दे रही है।

    एक दूसरी आवाज़ इस तक़रीर करने वाली को मुख़ातब कर रही है जिसकी कलाई में आध सेर वज़न के सोने की चूड़ियां दमक रही हैं। तो ने आज फिर चूड़ीयों का सेट बदल लिया है और ये चूड़ियां तो पिछले सीटों की चूड़ीयों से कहीं ज़्यादा चौड़ी और मोटी हैं। वो शर्मा गई है।

    तुझे क्या दुख है, मेरा मियां ला कर देता है।

    मगर चूड़ीयों का ये चौथा नया सीट है।आवाज़ में रशक का झलसाओ है। कहीं ऐसा तो नहीं कि तेरा मियां...

    मगर उनको कपड़े, कपड़े कौन पहनाएगा।

    मेरी आवाज़ नकार ख़ाने में तूती की आवाज़ बन गई है। ज़बान से निकलते हुए सारे अलफ़ाज़ कट कट कर बिखर गए हैं। जुमले का तार-ओ-पोद बिखर चुका और अब बोलने से ज़्यादा लिबासों के कपड़ों की क़ीमतें सुनना ज़्यादा मुनासिब है। सरसब्ज़ लॉन पर-गल अनार की खुलती हुई कलीयों से लदे अनार के दरख़्त से ज़रा परे, पीली पीली क़ंदीलों जैसे गुच्छों से सजे अमलतास के साय में हम इज़ी चेयरज़ पर बैठे हैं। हमारे आगे शामी कबाबों, समो सुमों और चिप्स से लदी फंदी ट्रे में चाय की प्यालियां धरी हैं। ये चीज़ें हम बरस हा बरस से बिलानागा खाते खाते उकता क्यों नहीं गए, मैं हैरान हूँ।

    बादलों से कजलाए आसमान तले चाय की पयालीयों से उठती उठती गर्मगर्म भाप एक ख़ुशनुमा और ख़ुश-रंग मंज़र की तकमील कर रही है।

    मगर वो, वो जो नंगी...

    एक आवाज़ अपने लिबास की क़ीमत एक सौ बीस रुपया फ़ी गज़ के हिसाब से बताने लगी है और ये उस का रोज़मर्रा का लिबास है। कई आवाज़ें कमाल है, हद है, की सदा के साथ कपड़े की आला क्वालिटी, नफ़ीस प्रिंट वग़ैरा की तारीफ़ में रतब-उल-लिसान हो रही हैं। इसलिए अधूरे फ़िक़रे का तारो पोद फिर बिखर गया है और अलफ़ाज़ शॉट ब्रेक के वालों की तरह रिश्ते से निकल निकल कर पाताल में गिर रहे हैं।

    और उनको Resuming के साथ यूं नहीं जोड़ा जा सकता कि एक सदा अब इस दुकान का पता दरयाफ़त कर रही है जहां एक सौ बीस रुपय और एक सौ पच्चास रुपय फ़ी गज़ ही के हिसाब से कपड़ा मिलता है और कई आवाज़ें बैयकवक़त और बैक ज़बान उस दुकान बल्कि इन तमाम दुकानों का पता नोट करवा रही हैं। यानी कि इस कार-ए-ख़ैर में कई दर्द मुश्तर्क हैं कि पाकिस्तान की औरत हर सुबह घर को अल्लाह की राह पर छोड़कर बसों, रिक्शों, गाड़ीयों में बैठ कर आमदन और ख़र्च में तवाज़ुन क़ायम रखने की ख़ातिर मुँह-अँधेरे निकल पड़ती है और अब ये उस का मुक़द्दर है और ये भी कि वो बावक़ार पैरहन में मलबूस रहे और हमने कई ऐसी बस्तीयों को... वग़ैरा वग़ैरा, ताकि तुम देखो और इबरत पकड़ो।ए आँखों वालो! और मैं कितनी देर से ये सोच रही हूँ कि क्या मुझसे बेहतर... हाँ मुझसे कि मैं इतनी देर से कुछ कहना चाह रही हूँ और मेरे मुँह से निकलने वाले हर फ़िक़रे का तारो पोद बिखरता है। हर शॉर्ट ब्रेक के साथ मोती की लड़ी टूटती है और मोती सरक सरक कर पाताल को जाते हैं।

    तो गोया मुझसे बेहतर वो नहीं जो चुप-चाप अपने वीरान कमरे की दहलीज़ पर खड़ी हम सबको ख़ाली ख़ाली नज़रों से देखती और कभी नहीं बोलती है और जिसके बारे में हम अंदाज़े लगाते हैं कि वो हर जगह पर से सरक रही है, खिसक रही है वो आफ़ साईड आफ़ दी स्टैम्प हो चुकी है।

    और हम सब अपने अपने दिल में ख़ुश, मुतमइन और मग़रूर हैं कि हम अपनी जगह पर क़ायम हैं जबकि वो फिसल रही है, फिसली जाएगी और बिलकुल फिसल जाएगी। हम सब इसी तरह मुतमइन और मग़रूर हैं जैसे हम किसी गुज़र जानेवाले के क़ुल पढ़ते वक़्त होते हैं कि हम मौजूद हैं और हमारे हाथ दानों और गुठलियों पर मज़बूत हैं और हमारे जिस्म फ़िलहाल लट्ठे के सफ़ैद कफ़न में मलफ़ूफ़ होने की बजाय एक सौ बीस से एक सौ पच्चास और एक सौ अस्सी रुपया गज़ के कपड़ों में मलबूस हैं और अभी लोबान और अगर बत्तीयों की इन ख़ुशबूदार धोऊँ के मरगोलों के मुहीत से निकल कर हम अपनी गाड़ीयों का रुख इस बाज़ार की तरफ़ फेर देंगे जहां ख़ूबरू, तनोमंद जवान और उधेड़ उम्र बज़्ज़ाज़ कि दौर-ए-क़दीम में इस अंदाज़ के पारचा फ़रोशों को बज़्ज़ाज़ ही का नाम दिया जाता था और वो इलाक़ा जहां सिर्फ पारचा जात ही फ़रोख़त किए जाते थे, बुज़ अज़्ज़े के नाम से किया जाता था। मगर सदमा तो यही है कि इस मार्कीट की नौईयत वो ना थी कि इस को बज़्ज़ाज़ा कहा जाये। हाँ तो मैं कह रही थी कि बज़्ज़ाज़, ख़ुश-रंग, तिरछी पगड़ियाँ सुरों पर सजाये और उनके शिमले कंधों पर डाले कपड़े के नरम नरम रेशमें सिलसिलाते थान हमारे क़दमों में बिछा बिछा देंगे।

    एक-बार देखा है दुबारा देखने की हवस है।

    हिलाली वज़ा के तर्ज़ पर बनी मार्कीट की दुकानें देखते चले जाने के बाद सोच में पड़ जाती हूँ। क्या बात है? क्या इसरार है? पर भेद भेद ही होता है, उसे खोल ही कौन सकता है। मेरे ज़हन में गए दिनों की बाज़गश्त है। मुसलसल बरसती फुवार तले भीगी भीगी कीचड़ से आलूदा सड़क पर चलती हुई इस शाम के अँधियारे में हिलाली वज़ा की मार्कीट के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चक्कर लगा रही हूँ। मेरे साथ छोटू भी भीग रहा है। इस की मुट्ठी में मज़बूती से पकड़े हुए तीन क़लम हैं जिनकी नबीं वो बदलवाना चाह रहा है। इस का मुँह फ़क़ हो रहा है, चेहरे पर हवाईयां सी उड़ रही हैं। सुबह मेरा इमतिहान है और मुझे एक इमतिहानी गत्ता भी चाहिए। अजीब ही लोग रहते होंगे यहां। क्यों?

    इसलिए कि बाज़ार में सिर्फ जूते और कपड़े और औरतों के मेक-अप का सामान है। फिर बंदा क़लम की निब कहाँ से बदलवाए और इमतिहानी गत्ता कहाँ से ख़रीदे। यहां के लोगों को और किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं होती? सिर्फ़... वो अपने कलिमों को तास्सुफ़ से देख रहा है। अब तो इतनी रात गई है।

    मैं इस वक़्त के गुज़र जाने पर तास्सुफ़ कर रही हूँ जब नर्सल और क्लिक के क़लम चलते थे और निब बदलवाने की ख़ातिर बाज़ारों में मारे फिरने के बजाय चुप-चाप क़लमदान से क़लम तराश निकाल कर ज़बान-ए-ख़ामा तराश ली जाती थी। बंदा इतमीनान से लिखता और सरीर-ए-ख़ामा से लुतफ़ अंदोज़ होता था और हमारी उम्र तो नबीं बदलवाते और नबों वाले क़लम खोते ही गुज़री। वो फिर आँखें फाड़ फाड़ कर इधर उधर देख रहा है और किसी स्टेशनरी की दुकान को तलाश कर रहा है।

    और मैं, मैं चाहती हूँ कहा की आँखों पर हाथ रख दूं ताकि वो और इस की मासूम नज़र उर्यानी के इस बे-हिजाब मंज़र को ना देख सके।

    क्यों?

    इसलिए कि आप ख़ुद ही सोचें। इस सिरे से इस सिरे तक पूरी मार्कीट के तमाम दरूँ में ब्रहना लाशें अपनी लंबी की हुई गर्दनों से टंगी हूँ और नीचे आग के अलाव रोशन हूँ और नंगी लाशों की चर्बी आग की हद त-ओ-तमाज़त से पिघल पिघल कर सारी फ़िज़ा को चुरा हिन्दा कर रही है।

    सतारालओब! उस की सत्तर पोशी कौन करेगा जबकि हर दर में टंगी हुई ब्रहना लाशों के ऐन मुक़ाबिल दुकानों में क़ीमती दुकानों में क़ीमती रेशमी नरम और सिलसिलाते थानों के थान पट्टे पड़े हैं। यहां क्या-क्या यहां के रहने वाले सिर्फ़ कपड़ा पहनते हैं और कुछ नहीं ख़रीदना चाहते। यहां और चीज़ें क्यों नहीं बिकतीं? वो एतराज़ कर रहा है। क्यों तुम क्या चाहते हो? यहां पर किया बके,क्या तुम्हारा ख़्याल है कि यहां मगर फ़ो रुटीन और एफ़ सकसटीन की दुकानें होतीं। मैं ज़च हो कर बोल रही हूँ, इसलिए कि फुवार में तेज़ी और कटीला-पन बढ़ गया है और स्टैंड पर कोई रक्षा नहीं नज़र रहा है। हूँ भी तो क्या हर्ज है। वो मेरे ज़च होने का नोटिस लिए बग़ैर कह रहा है और हसरत से उन कलिमों को भेंच रहा है जिनकी नबीं लिख ही नहीं सकतीं।

    बरसती फुवार का तृषा और कटीला-पन बढ़ गया है। मैं अंदर बरामदे में दाख़िल होना नहीं चाहती कि मुझसे ब्रहना औरतों! तौबा मुर्ग़ीयों का नंग बर्दाश्त नहीं होता।

    मुझे यूं लग रहा है जैसे ये नंगी औरतें, तौबा! नंगी मुर्ग़ियां क़ीमती पारचा जात के मुक़ाबिल में इसलिए टांगी गई हैं कि उनको चढ़ाया जाये और कहा जाये कि अगर तुम अपनी और अपने ख़समों की गाढ़ी और रिश्वत की पतली कमाईआं ख़र्च करके ये रेशमें सिलसिलाते नरम कपड़े नहीं ख़रीदोगी तो तुम्हारी ज़िंदा लाशों को इस तरह ब्रहना, सलीब पर टंगना पड़ेगा और नीचे नार-ए-जहन्नुम की दहकते अँगारे जिनकी हिद्दत से तुम्हारी चर्बीयाँ पिघल पिघल कर फ़िज़ा को चुरा हिन्दा कुर्ती जाएँगी, कुर्ती जाएँगी।

    मैं इस वक़्त ये सब बड़ी शिद्दत से सोच रही थी।

    लेकिन यहां हरी-भरी लॉन पर अनारकलियों से लदे अनार के दरख़्त ज़रा परे हट कर बिछी हुई इज़ी चेयरज़ के हलक़े में बैठ कर उस के मुताल्लिक़ एक हर्फ़ भी सूचना और याद करना नहीं चाहती, मबादा सोच हर्फ़ और फिर लफ़्ज़ बन जाये और लफ़्ज़ों की कलिमों की तराविश शुरू हो जाये।

    मैं अब सिर्फ अपने सर पर साया-फ़गन ऊंचे और हरे-भरे अमलतास को तक रही हूँ जिसमें नाज़ुक पत्तियों से बनी पीली क़ंदीलें हमारे सुरों तक झुक आई हैं, सब बोल रहे हैं और मैं ख़ामोश ख़ामोश हूँ। इसलिए कि वो सब बोलने वाली बातें बोल रहे हैं।

    और मैं, मैं सिर्फ उस को तक रही हूँ जो अपने कमरे के दरवाज़े के फ्रे़म में तस्वीर की तरह जुड़ी खड़ी है और हमारी तरफ़ हैरत से तक रही है। इस की आँखों में अथाह तन्हाई और अजनबीयत है। ये अब हमसे नहीं है, इस का Domicile बदल चुका है। उसने और ही बस्ती बसाई है। कोई उस के लिए ख़बत की बात सुना रहा है।

    ये अब हाथों से पर्स ले लेती है और खोल कर नोट गिनना शुरू कर देती है, फिर चेंज माँगना शुरू कर देती है। जल्दी जल्दी पूछती है, changeहै? तुम्हारे पास चेंज है, चेंज है?

    कहीं ऐसा तो नहीं ये Change यानी तबदीली चाहती हो।

    मगर में ये बात मुँह से निकालने से पहले ही अपने मुँह पर हाथ रख लेती हूँ। मबादा लोग ये ख़्याल ना करें कि में भी... में भी...

    मैं ऐसी बातें कभी नहीं करूँगी। अलबत्ता में इस वक़्त भी और इस वक़्त भी इस आवाज़ को याद कर रही थी जो अक्सर रात को पिछले-पहर सुनाई देती है। सच्च कितनी भयानक और करब में डूबी हुई होती है, वो आवाज़, वो पुकार पुकार कर जैसे बस्ती को ख़बरदार करती हो। उफ़ ख़ुदाया, रात के पिछले-पहर कटीली और बर्फ़ानी सर्दी में, बरसती बारिश में जब वो आवाज़ सुनती हूँ तो अपने लिहाफ़ में दुबकी दुबकी काँपने लगती हूँ। मेरा कलेजा काँप जाता है।

    इस दिन नंगी मुर्ग़ीयों के वजूद से पिघलती चर्बी की चुरा हिंद और उनके मुक़ाबिल सजी हुई पारचा जात की दुकानों और चलते कैसेटों की कान फोड़ आवाज़ों के दरमयान खड़े हो कर मैंने इस आवाज़ का इंतिज़ार किया था कि वो अगर यहां सुनाई दे जाये तो में इस से दरख़ास्त करूँ कि यहां पर खड़े हो कर अपनी इसी मुहीब और करब आलूद आवाज़ में नंगी मुर्ग़ीयों से ख़िताब करे। मगर वो आवाज़ तो पिछले-पहर आती है जब सारा आलम सोता है। इस के ट्राने से मेरी आँख खुल जाती है और मैं लिहाफ़ तले लरज़ने लगती हूँ।

    मैंने उस को देखा भी नहीं तो पाऊँगी कहाँ?

    इरादा करती हूँ कि इसी से कहूं कि चलो तुम एक लैक्चर दे डालो, मगर मुझे मालूम है कि वो बोलेगी ही नहीं। मैंने उस वक़्त वहां खड़े हो कर उस को भी याद किया था। इस वक़्त जब कि एक नौजवान लड़की अपनी माँ की बान्हा खींच खींच कर बड़ी इल्तिजा से सामने फैले हुए रंगों की क़ौस-ए-क़ुज़ह की तरफ़ मुतवज्जा कर रही थी। इस के बाल कटे हुए थे। चेहरे पर एक किस्म की झेंप थी जिसमें करब की आमेज़िश ने इस के भोले भूले चेहरे को धुआँ धुआँ किया हुआ था। मैंने पहली बार इस पर नज़र डाली तो मुझे शक हुआ, शायद ये तास्सुर... नंगे बदन टंगी हुई इन लाशों ने क़ायम किया है जो दरूँ में सजे हुए आतिश-कदों के साथ साथ क़तार दर क़तार टंगी हुई थीं और उनमें से कुछ सीख़ पर चढ़ी हुई थी और उनकी चर्बी शोलों की हिद्दत-ओ-तमाज़त से पिघल पिघल कर फ़िज़ा में चरा हिंद फैला रही थी।

    पैराहन पोश मोटी मोटी मुर्ग़ियां कों, कों, कुर्ती दुकानों में रही थीं, जा रही थीं , कों, कों... जो टेलरज़ की दुकान में अँगूठीयों को उंगलीयों में फंसाती और फिर उतारती हुई। मैंने दुबारा लड़की के चेहरे पर नज़र डाली इस मर्तबा तास्सुर वाज़िह था। ये वो तास्सुर ना था जो ज़माने की ब्रहंगी पर नज़र पड़ने से पैदा होता है बल्कि ये वो झेंप थी जिसको नफ़सियात वालों ने अहिसास-ए-कमतरी का नाम दिया है और हक़ीक़त भी यही है कि ज़माने की ब्रहंगी को देखकर शरमाना लाहसिल है। असल बात तो ज़ात की ब्रहंगी पर झेंपना है और वो ख़ुद अपनी ज़ात पर झेंप रही थी कि इन्सान की ब्रहंगी इस पैराहन से बेहतर है जो घटिया स्वदेशी कपड़ों से तैयार किया गया हो। आज का तो दर्ज़ी भी ऐसे पारचे को हाथ लगाता है तो सौ-बार धोने के बाद भी अपने हाथ को नापाक ही तसव्वुर करता है जैसे वो ग़लाज़त उस की उंगलीयों से लिपट कर रह गई हो।

    दिल-ए-नादान... बेवजह इस फ़िक़रे की बाज़गश्त तकरार और इआदा मेरे अंदर वजूद में आया है और अब मैं हैरान हूँ कि ऐसा क्यों हो रहा है। अभी तो मुझे माँ के चेहरे के तास्सुरात से दो-चार होना है।

    और माँ ख़जल है, परेशान है, शर्मिंदा है। दरअसल उस की हैसियत ऐसी नहीं कि इस को इस बाज़ार में आने का इज़न दिया जाये। क्या तुम भी मेरी तरह लाहासिल की तलाश में हो, स्टेशनरी और बुक स्टॉल की तलाश। क्या तुमको तो ख़बर नहीं लोग अब बुक स्टॉल रखने में दिलचस्पी नहीं रखते कि किताब महंगी है और पैराहन पोश मुर्ग़ी किताब की दुकान में दाख़िल होना हमाक़त समझती है। हमाक़त ही तो हुई ना। पैसे और वक़्त दोनों ही का ज़ियाँ करना हमाक़त ही तो है। घाटे का सौदा।

    लेकिन में इस से ये सवाल नहीं कर सकती जब कि में इस को जानते हुए भी इस से ये पूछने की जुर्रत नहीं कर सकी कि तुम लोगों के पर्स लेकर इस में क्या तलाश करती हो, चेंज क्यों माँगती हो? चेंज से तुम्हारी क्या मुराद है, तबदीली या पैसा?

    देखो लोगो! हम कितने बुज़दिल होते हैं। हम एक सवाल भी नहीं कर सकते। अँधेरी सर्द रात के सन्नाटे में नंगी और वीरान सड़कों पर इस की आवाज़ गूंज रही है और में अपने नरम गर्म लिहाफ़ के अंदर दुबकी हुई लरज़ रही हूँ। बाअज़ बातों, बाअज़ आवाज़ों और बाअज़ ख़ामोशियों में कितनी हैबत होती है।

    मगर नहीं, में तो इस हिलाली वज़ा की मार्कीट में खड़ी हूँ जिसके एक दर के सतून की आड़ में खड़ी वो लड़की मुल्तजी निगाहों से अपनी माँ को ख़ूबसूरत और क़ीमती थानों से मामूर दुकानों के अंदर जाने की तरग़ीब दे रही है। इस की माँ की आँखें ख़ाली होती जा रही हैं। उनमें अब कुछ नहीं नज़र रहा है। मुझे यूं लग रहा है कि वो भी अपना Domicile बदल लेगी और में इस मार्कीट के दर की बजाय पीली पीली क़ंदीलों वाले अमलतास की गहिरी सबज़ और घनेरी छाओं के इज़ी चेयर पर बेफ़िकरी से बैठी हूँ। हमारे सामने मौसमों और क्रीम रोलज़ से लदी हुई ट्रे सजी है और पयालीयों से चाय की गर्मगर्म भापें उठ उठकर फ़िज़ा में तहलील हो रही हैं। कमज़ोर जज़्बों और बोदी तमन्नाओं की तरह और अब मुझे ख़ौफ़ है कि माँ लपकती हुई आकर मेरे हाथ से पर्स छीन लेगी, उसे खोलेगी, बंद करेगी।

    चेंज है? चेंज है?

    मैं चुपके चुपके दिल में दुआ कर रही हूँ कि ये ऐसा ना करे आज ही तो वो फिसलती फिसलती हमारे दरमयान से निकल कर वक़्त के पानियों के गहरे भंवर में जागरी है। तीन नौजवान लड़के शायद यूंही मटरगश्ती के लिए आए हुए हैं। उनमें से एक हैरत से चारों तरफ़ देखता है।

    ताज्जुब है, यहां और कुछ नहीं बकता। वो शायद ख़ुदकलामी करता है। ये लड़का बहुत तवाना और भोली-भाली शक्ल वाला है।

    मगर दूसरा जो बेहद क़ीमती लिबास में मलबूस और तरह-दार है, अपने गले में फंसी हुई टाई को ढीला करते हुए एक वाज़िह जवाब देता है।

    नहीं यार, यहां क्या नहीं मिलता, सब कुछ मिल जाता है। वो हैरत से कभी टेलरज़ की दुकानों और कभी पारचा फ़रोशों की दुकानों की तरफ़ देखती हुई लड़की की जानिब देखकर आँख मारता है, लड़की मुस्कुरा देती है। जवाबन सीधी आँख के गोशे को दबा कर घूम जाती है।

    माँ और भी ज़्यादा नर्वस होने लगी है और वो अपना बटवा तेज़ी से खोल रही है और बंद कर रही है।

    देखो! तुम अपना बटवा बंद कर लू और किसी से ना पूछना कि चेंज है? मेरा जी चाह रहा है कि आगे बढ़कर इस से कहूं। मगर मैं जानती हूँ कि मैं कुछ ना कह सकूँगी। मैं तो इस से भी कुछ ना कह सकी थी। जब वो आख़िरी मर्तबा चार्ज देने लाई गई थी। हम सब इसी तरह अमलतास के पीली क़ंदीलों से मुज़य्यन घने पेड़ के साय में अपनी इज़ी चेयरज़ पर इस तरह जकड़े बैठे थे जैसे किसी ने हमें मेख़ों से गाड़ दिया हो। हम सब उस के चेहरे के इस करब को इस तरह देखते रहे जैसे टैलीविज़न की स्क्रीन पर कोई अलमीया ड्रामा हो रहा हो और हम इस को महवियत से अनजवाए कर रहे हूँ। वो लम्हा जो चार्ज देने से मुताल्लिक़ था, इस पर कैसा गुज़रा, उस का इबलाग़ कैसे होता, जबकि मुकालमा साक़ित था और हम अभी ऐक्शण की तफ़हीम का हौसला अपने अंदर पैदा नहीं कर सकते, इसलिए कि हम मसरूफ़ हैं। जदीद अह्द की जदीद मसरूफ़ ख़वातीन। ताहम उस के बाद हमने उस की पूरी क़ुव्वत से गेट की तरफ़ यूं दौड़ते देखा जैसे बंदूक़ से गोली निकल कर अपने हदफ़ की तरफ़ लपकती है। गेट का छोटा दरवाज़ा अगरचे खुला था लेकिन उसने अपने दोनों हाथों से चीर को बड़े दर को वाक़िया और सहरा की बाद-ए-सुमूम की तरह निकल गई थी।

    और मुझे यूं महसूस हो रहा था जैसे में ऐसे सहरा में खड़ी हूँ, जहां सन्नाटा है, थौर के दरख़्त हैं, नंगी मुर्ग़ियां हैं और उनके अंदर से पिघलती हुई चर्बी की चुरा हिंद है जो अपने ही महवर पर यूं रुक गई है कि यहां अब हवाओं के क़दम थम चुके हैं।

    बारिश की छमा छमाछम की आवाज़ में तेज़ी गई है।

    लोगो! सुनो, जब तुम बे लिबासों को लिबादे ओढ़ने पर आमादा ना कर सको तो अपनी निगाहें नीची करलो। लिहाफ़ की नरमी और गर्मी तले लरज़ते हुए सुनी हुई ये सदा उस वक़्त यहां साफ़ सुनाई दे रही है। सामने वाली खिड़की के तन से धीरे धीरे वो लिबास सरक रहा है जिस पर वो शर्मसार थी। नंगी और लंबी गर्दनों वाली ब्रहना लाशें ही लाशें, मैंने घबरा कर नज़र नीची कर ली और सड़क की तरफ़ देखा। एक रिक्शा धड़ धड़ करते, धीमा होते हुए मुझे मुख़ातब कर रहा था। में एक ही जस्त में रक्षा के अंदर थी। दूसरे लम्हे मैंने महसूस किया, छोटू के चेहरे के मलाल में इज़ाफ़ा हो गया और वो बग़ैर नबों वाले कलिमों को बड़े ताल्लुक़ से अपनी मुट्ठी में भेंच रहा था। फ़िक्र ना करो बेटा। मैं तुमको अपना क़लम दे दूँगी।

    रक्षा के घुप-अँधेरे में मैं साफ़ तौर पर देख सकती थी कि ये सुनते ही उस की लंबी लंबी ख़ूबसूरत आँखों में जुगनू से झमक उठे थे।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए