Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

पहरेदार

MORE BYअली अब्बास हुसैनी

    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे शख़्स की कहानी है जिसकी बीवी स्कूल में पढ़ाती है और वह घर के सभी काम संभालता है। हर वक़्त घर में रहने की वजह से उसका नाम पहरेदार पड़ गया है। एक दिन अख़बार में कोई कहानी पढ़कर उसने भी एक कहानी लिखी और अख़बार में प्रकाशन के लिए भेज दिया। उसकी कहानियाँ छपने लगीं और इसके साथ ही उसकी ज़िंदगी भी बदलती चली गई।

    मिसिज़ रॉबर्ट्स गर्ल स्कूल में मुअल्लिमा थीं। रही होंगी कभी इस क़ाबिल कि किसी ने उन पर नज़र डाली हो। मगर अब तो उनकी सूरत में और एक चुग़ादरी मेंढ़क में कोई फ़र्क़ था। चेहरे पर छोटी सी चपटी नाक, मोटी सी गर्दन ज़रा आगे को निकली हुई, छोटे-छोटे हाथ पाँव, मगर पेट और इसके ऊपर का हिस्सा अरे तौबा मा’लूम होता लब्नियों को उलट कर करब के मटके पर रख दिया है। इस हिस्से से भी नुमायाँ तो वो उभरी हुई बड़ी बड़ी आँखें थीं, जिनमें मुम्किन है कभी ग़मज़ा-ओ-अदा के दशने पिन्हाँ रहे हों मगर जिनमें अब मस्त-ओ-बरतरी की मुस्तक़िल झलक के इ’लावा कुछ भी था।

    इस बरतरी का ख़्वाह किसी और पर असर हो या हो लेकिन उस रफ़ीक़ हयात से, जो जाने क्यों ज़िंदगी का साथी बन गया था, इन नैनों की आब अब भी पानी भरवाती थी और उन बच्चियों से लर्ज़ा-अंदामी का ख़िराज भी ले लेती थी। जिन्हें उनके दर्जे में पहुँच कर उनकी “मामता” से फ़ैज़याब होने का मौक़ा’ मिला था। घर में बच्चे भी ख़्वाह बाप का कहा मानें, लेकिन उनके हुक्म से सरताबी की मजाल नहीं रखते थे। वो जिस तरह स्कूल में हुकूमत करती थीं उसी तरह घर पर। क्या मजाल कि कोई काम बग़ैर उनके हुक्म के हो जाए या कोई प्रोग्राम बग़ैर उनकी मंज़ूरी के चल जाए।

    प्रिंस कैता बराए बैत थे। बैत के असली मा’नों में। यानी घर की देख-भाल के लिए सिर्फ़ पहरेदार। स्कूल से पलटने पर उनसे बा-क़ाएदा पूछ-गिछ होती। कौन-कौन सा काम पाया, कौन-कौन सा ना-तमाम रहा। आख़िर-उज़-ज़िक्र के लिए सबब भी मुफ़स्सिल बयान करना ज़रूरी था। डाँट सुनना भी।

    “बस तुम तो पर्दा-दार बीवियों की तरह बैठे-बैठे पलंग के तार तोड़ते हो। लाख समझा जाओ, बता जाओ मगर कभी कोई काम ठीक तौर पर नहीं होता। मैं आख़िर किन बातों को देखूँ, स्कूल में अपनी जान को पीटों और ट्यूशनों पर भी और उस पर भी जब गुज़रूँ तो इन नौकरों की निगरानी करूँ। ये तो मुझसे ना-मुम्किन है।”

    मिस्कीन मियाँ में इतना दम था कि वो जवाब दे सके। किसी ज़माने में वो जवान था और ख़ूबसूरत भी और चार पैसे कमाने वाला भी। लेकिन उस ज़माने में उस मुसम्मात की मुहब्बत ज़ोरों पर थी। उन्होंने महबूब को शौहर बनाया। फिर उससे उसका काम छुड़वाया। आख़िर दो सौ रुपये महीना के क़रीब किस लिए कमाती थी? उनके दिमाग़ में ये ख़याल घर था कि उनके शौहर की तरह के बाँके जवान की हर औरत भूकी रहती है। इसलिए बिल्कुल इसी तरह पर्दा में सारी दुनिया से अलग-थलग रखना चाहिए। जिस तरह मुस्लमान शुरफ़ा अपनी बीवियों को रखते हैं।

    उनका बस चलता तो वो एक मिनट के लिए भी उसे अपनी नज़रों से पोशीदा होने देती। लेकिन वो तो लड़कियों के स्कूल का मुआमला था, वहाँ वो धँसते पाता। इसलिए शौहर का काम था कि उन्हें स्कूल तक साथ-साथ जाकर पहुँचा आए। फिर घर पर आकर बच्चों को देखे। उमूर-ख़ाना-दारी का इंतिज़ाम-ओ-इंसिराम करे। साढे़ तीन बजे फिर स्कूल जाकर उन्हें ले आए। फिर ट्यूशनों पर जहाँ कहीं वो जाएँ साथ साथ जाए और घंटा दो घंटा जब तक वो पढ़ाती रहें बाहर बैठा मक्खियाँ मारा करे।

    शुरू’ शुरू’ में तो मियाँ ने भी ये सारी मुसीबतें और ज़िल्लतें मुहब्बत की ब-दौलत ख़ुशी-ख़ुशी बर्दाश्त कर लीं। फिर आहिस्ता-आहिस्ता आदत सी पड़ गई। बीवी की इताअ’त-ओ-ख़ुशनुदी-ओ-निगरानी उसकी तबीअ’त-ए-सानिया बन गई। यहाँ तक कि लोगों ने उसका नाम ही पहरेदार रख दिया।

    मिसिज़ रॉबर्ट्स को मुतल्लिक़न अब इस पहरे चौकी की ज़रूरत थी। लेकिन उन्हें इसमें मसर्रत मिलती थी कि वो उनकी जिन्स पर हुकूमत जताने वाली एक हस्ती को महकूम बनाएँ और सहेलियों से ये कहें कि, “मैं क्या करूँ उनकी तबीअ’त को कि अब भी उनका मुझे घूरने से जी ही नहीं भरता। जाने क्यों अब भी उन्हें ये शक रहता है कि मैं किसी के साथ भाग जाऊँगी, बस जहाँ मैंने बाहर जाने का नाम लिया और वो दुम की तरह मेरे साथ लग गए।”

    ये कह कर वो एक ख़ास किस्म की हँसी हँसती थीं जो बिल्ली की उस ख़र, ख़र से मुशाबेह होती थी जो पीठ सहलाने पर उसके मुँह से निकलती है

    और बेचारा रॉबर्ट्स? उसने इस तक्लीफ़ को हमेशा महसूस किया जो एक बे-सहारे के दिल में हर वक़्त काँटे की तरह खटकती रहती है। वो बीवी के टुकड़ों पर पड़ा था। वो उसी की कमाई खाता था, वो उसी का दिया हुआ पहनता था, उसके अपने बच्चे उसे बाप की जगह मुलाज़िमों का जमादार समझते थे। वो भी कभी-कभी इस तरह झिड़क देते थे जैसे वो बस अपनी माँ ही के बच्चे हैं। इन उमूर से घबराकर वो तन्हाई में क़लम-ओ-दवात लेकर बैठ जाता और जाने क्या-क्या लिख डालता। रोज़ाना के हालात, कोई नया वाक़िआ, कोई मुज़हका बात, कोई रिक़्क़त-आवर हिकायत या मेंढ़क ख़ानम का कोई नया हुक्म।

    एक दिन चंद ऐसे लोगों से गुफ़्तगू के सिलसिले में जिनके हाँ मैडम की आमद-ओ-रफ़्त थी ये मा’लूम करके कि हिन्दोस्तान की बा’ज़ ज़बानों के रिसाले और अख़बार अपने लिखने वालों को मुआ’वज़ा में ख़ासी अच्छी रक़में देते हैं। उसके दिल में भी तब्अ’-आज़माई का ख़याल पैदा हुआ और उसने कई-कई हफ़्ते इस ख़याल को दिमाग़ में उलट-पलट कर हर गोशे से देखा और बिल-आख़िर एक दिन उसने जुरअत कर डाली। एक छोटी सी कहानी लिख ही ली।

    यूँ तो डायरी लिखने में उसका क़लम काफ़ी तेज़ चल लेता था मगर वो अपनी तस्कीन के लिए लिखी जाती थी। ये तहरीर अख़बार में बिल-मुआ’वज़ा शाया’ कराने के लिए थी। हर लफ़्ज़ पर ग़ौर करता रहा। मुनासिब है, ना-मुनासिब है इबादत के सय्याल को देखता रहा। नोक पलक से दुरुस्त है या नहीं, जुमलों को दोहराता रहा चुस्त हैं कि सुस्त। ग़रज़ वही कहानी जो आधे घंटे में अपनी डायरी में खींच दी जाती थी। पूरे एक हफ़्ता में लिखी गई। अब फ़िक्र हुई किस नाम और पते से भेजी जाए।

    अगर मैडम ने कहीं सुन-गुन पा ली तो बस नसीहतों का एक दफ़्तर खुल जाएगा। डाँट पर डाँट पड़ेगी। इसलिए उसने “गुमनाम” फ़र्ज़ी नाम रखा और जवाब पोस्ट मास्टर के ज़रीए’ मँगाया। पहली ही कहानी मंज़ूर कर ली गई और बड़ी शान से शाया हुई। पोस्ट मास्टर के ज़रीए’ तीस रुपये का मनी आर्डर भी मिला और दूसरी कहानियों की फ़रमाइश भी। पहरेदार की मसर्रत-ओ-ख़ुशी की कोई इंतिहा थी। उसका जी चाहता था कि वो इन तीसों रूपयों को लेकर सड़क पर ये चीख़ता हुआ उछलता चले कि “देखो मैंने इतने रुपये ख़ुद कमाए हैं, अपनी क़ुव्वत-ए-बाज़ू से और बे-मिन्नत-ए-ग़ैरे!”, लेकिन वो अपने जज़्बात पर क़ाबू रखने का आदी हो गया था। उसने पोस्ट मास्टर से मिलकर अपने फ़र्ज़ी नाम का एक लैटर-बाक्स रखवाया। मनी आर्डर वसूल करने के मुस्तक़िल इंतिज़ाम किया और उनकी फ़ीस देकर बक़िया रुपये सेविंग बैंक में अपने नाम जमा’ करा दिए।

    अब वो लिखने लगा, महीना में चार-छः कहानियाँ उसकी औसत थी। कभी-कभी इससे ज़ियादा भी लिखता और तक़रीबन डेढ़ सौ रुपये माहवार कमाने लगा। उधर तो ख़ामोशी से ये सारी रक़म सेविंग बैंक में जमा’ होती रही और इधर अदबी दुनिया में एक नए सितारे के ज़हूर से एक ख़ासी चहल-पहल पैदा हो गई। लोगों ने सवानह भी दरियाफ़्त करना शुरू’ किए और फ़ोटो भी तलब किए। चुनाँचे हर तलबगार को उसने यही लिखा कि, “ख़ुद मुझे गुमनामी पसंद है और मेरी सूरत दूसरों के लिए ना-पसंदीदा। इसलिए पर्दा-ए-इख़्फ़ा ही में रहना ज़ियादा मुनासिब है।”

    इस जवाब की इशाअ’त ने और भी काविश-ओ-तलाश बढ़ा दी और उसकी जिन्स पर शुबा होने लगा। कहीं कोई पर्दा वाली ख़ानम तो नहीं कि सवानह-ओ-तस्वीर शाया कराने से क़ासिर है। दिलचस्पी बढ़ी। मुल्क के एक बड़े अख़बार ने इस सवाल को उछाल दिया। मैडम ने भी उसे देखा। उनको इस नए लिखने वाले की कहानियाँ देखने का शौक़ पैदा हुआ। हुक्म हुआ वो रिसाले और अख़बार तलाश कर लाओ जिनमें वो शाया हुई हैं। अस्ल तो हर एक की उस के पास भी मौजूद थी। बा’ज़ चीज़ें मतबूआ’ सूरतों में भी थीं। मगर उन्हें मुलाहिज़ा के लिए पेश कर सकता था। ग़रज़ तलाश-ओ-जुस्तजू से मुख़्तलिफ़ रिसाले और अख़बार जमा’ करके हाज़िर किए, पढ़े गए और उन पर मुहर-ए-पसंदीदगी भी लग गई, मगर ताने भी दिए गए।

    “काश तुम ऐसा लिख सकते। काश तुम ही वो छिपे रुस्तम निकलते, मगर तुम्हें तो सलीक़े से बात करना भी नहीं आता। तुम भला क्या ऐसी चीज़ें लिख सकते हो।”

    वो सब कुछ ख़ामोशी से सुनता रहा। पहले जब कुछ था जब भी सुन लेता था। अब तो बहुत कुछ था, ख़ुद पर ए’तिमाद था, ख़याल-ए-कमतरी रोज़-ब-रोज़ घटता जा रहा था। अब क्यों ख़ामोश रहता।

    लेकिन उसकी ख़ामोशी नाज़रीन की निगाहों में उसकी क़द्र-ओ-क़ीमत बढ़ाती रही। मताबे’ ने मजमूए’ माँगने शुरू’ किए। साल में दो मजमूए’ निकले, बड़े अच्छे रिव्यू हुए। तब्अ’ वालों के तिजारती गुरों से ना-वाक़फ़ियत की वज्ह से उनके दाम तो कुछ कम ही मिले, लेकिन अफ़्सानों का मुआ’वज़ा बढ़ा। उधर बैंक में भी सरमाया बढ़ा। तब्अ’ वालों का तक़ाज़ा हुआ कि अब आपके क़लम से नावल मिलना चाहिए। उसे भी ख़याल हुआ वाक़ई “कुछ और चाहिए वुसअत मिरे बयाँ के लिए।”

    प्लाट पर ग़ौर करता रहा। रह-रह के यही जी चाहता अपनी ही डायरी से फ़ायदा उठाओ और अपने ही सवानह लिख डालो। चुनाँचे दाग़-बेल डाल दी और कतरब्यूँत करना शुरू’ कर दिया। वहाँ एक अख़बार वाले को ख़बर मिली कि नावल तैयार हो रहा है। उसने क़िस्त-वार इशाअ’त के हुक़ूक़ ले लिए। उसने उसे मंज़ूर किया। अब नावल का एक बाब तैयार करना हर हफ़्ते ज़रूरी हुआ।

    एक दफ़ा’ कई दिन मैडम के कामों में लगा रहा। कुछ अपनी तबीअ’त ना-साज़ थी, कुछ बच्चों की। ग़रज़ चार दिन कुछ लिख सका। पाँचवें दिन एक बाब ख़त्म करके भेजना ज़रूरी था। सुब्ह से परेशान परेशान सा रहा। फ़िक्र यही थी कि मैडम किसी तरह स्कूल जाएँ तो क़लम उठाया जाए। उन्हें स्कूल जा कर फ़राग़त पाई और लड़कों को घर से हँका कर लिखने बैठ गया। मगर क़लम ने साथ दिया। लाख-लाख कोशिश करता है मगर अश्हब क़लम नहीं चलता। वो उठा और उसने पानी पिया और पान खाए, फिर कुर्सी पर बैठा कि अब शायद क़लम चले, मगर चंद सत्रें लिखने के बा’द फिर वही हालत हो गई। दिमाग़ पर जो ज़ियादा ज़ोर दिया तो नींद आने लगी। मेज़ पर सर रखा और सो गया।

    मैडम ने स्कूल में बड़ा इंतिज़ार किया। जब पहरेदार आया तो हद दर्जा ग़ुस्से में ताँगे पर बैठ कर चली आईं कि फ़र्ज़ से इग़्माज़ पर किस तरह गोशमाली की जाए। घर जो पहुँचीं को ड्राइंग रुम में पाया। मुख़्तलिफ़ कमरों में देख डाला। बिल-आख़िर वो इस कबाड़-ख़ाने में मेज़ पर सर रखे सोता मिला जो मुख़्तलिफ़ तरह की टूटी-फूटी चीज़ों के लिए मख़सूस था। बेहद ग़ुस्सा आया। जगह निकाली है। उसने आराम करने की। बिल्कुल इस अंदाज़ से वो आगे बढ़ी जिस अंदाज़ से एक सिपाही मफ़रूर मुल्ज़िम को गिरफ़्तार करने बढ़ता है।

    मोटा भद्दा हाथ कंधे पर रखकर झिंझोड़ना था। दफ़अ’तन मेज़ पर फैले हुए काग़ज़ात पर नज़र पड़ी। पढ़ने लगें। ईं ये क्या मुआमला है। पहरेदार को जगाया। ख़ुद भी एक पास वाली टूटी कुर्सी पर सँभल कर बैठ गईं और मेज़ से एक-एक पुर्ज़ा उठाकर पढ़ने लगीं। जैसे जैसे पढ़ती जाती थीं हैरत बढ़ती जाती थी। क़लम वही है, अंदाज़-ए-निगारिश वही है, लेकिन लिखने वाला पहरेदार कैसे हो सकता है। उसमें बात करने की सलाहियत ही नहीं। ये इन तख़्ईली चीज़ों का ख़ालिक़ कैसे हो सकता है। फिर भी रौ’ब छा गया।

    दबे-पाँव उठीं और आहिस्ता-आहिस्ता मेज़ का दरवाज़ा खोला। एक मोटा सा रजिस्टर दिखाई दिया। उसे उठाकर मेज़ पर रखा और पढ़ना शुरू’ किया। रोज़ाना के वाक़िआ’त तहरीर दिखाई दिए। ज़िक्र भी था। अपना भी और बच्चों का भी। तफ़तीश हुई। देखूँ कहीं मेरे ख़िलाफ़ भी कोई बात लिखी है। तक़रीबन सौ वरक़ पलटने के बा’द एक जगह एक कार्टून सा मिला। एक छोटा सा पतली टाँगों वाले बूट की तस्वीर खींची थी। उसकी पीठ पर एक बड़ा सा गबरू इस तरह बैठा दिया था कि बेचारा बूट पिसा जाता था। नीचे लिखा था। “मैडम और मैं!”

    मैडम का ग़ुस्सा आख़िरी हद तक पहुँच गया। उन्होंने अब के शाना पकड़ कर झिंझोड़ा। पहरेदार ने आँखें खोलीं। देखा तो सर पर खड़ी हैं। डायरी सामने खुली है और तस्वीर पर कलिमा की उंगली है। उसकी बिल्कुल वही हालत हुई जो उस बच्चे की होती थी जिसे मैडम शरारत करते ब-चश्म-ए-ख़ुद देख लेती थी। वो काँपने लगा।

    मैडम ने गरज कर पूछा, “ये तुमने बनाई है?”

    उसने झेंप कर डायरी उठा ली, “आप भी कहाँ मज़ाक़ की बातों का ख़याल करना।”, उसने बात टालने के लिए कहा।

    “हाँ ये सब मज़ाक़ ही तो है। तुम घर के निजी हालात लिख लिख कर अख़बारात में छपवाते हो और मैं जब पूछती हूँ कि इनका लिखने वाला कौन है तो कैसे भोलेपन से कहते हो मैं क्या जानूँ!”, वो अपनी तेज़ गरजती हुई आवाज़ में बोलीं।

    “तो क्या करता मैं? वो सब नावल लिखने पर मुसिर थे। यहाँ कोई प्लाट ज़हन में आता था। कहा लाओ आप-बीती लिख डालूँ।”, उसने दिफ़ा’ में कहा।

    “लेकिन ये सोचा कि इस रुस्वाई के बा’द मैं किसी को कैसे मुँह दिखा सकूँगी और ये सब बदला है उस मुहब्बत का जिस की बदौलत मैंने अपना सब कुछ तुम पर निसार किया।”

    वो एक-बार पलट पड़ा। उसने मैडम को सर से पाँव तक देखा।

    “कितना ख़र्च किया होगा तुमने मुझ पर उस वक़्त तक?”

    वो ज़रा झल्लाकर बोलीं, “हज़ारों!”

    उसने दूसरा दरवाज़ा खोला और सेविंग बैंक की किताब निकाली, “तो लो इसमें ढाई हज़ार हैं। ये सब तुम्हारा है और मैं आइंदा से तुम्हारा और अपना ख़र्चा ख़ुद दूँगा!”

    उसने मेज़ पर पासबुक ज़ोर से फेंकी और पाँव पटकता बाहर चला। मैडम ने जल्दी से पासबुक निकाली। खोल कर देखा तो वाक़ई उसमें ढाई हज़ार रुपये जमा’ थे। वो उसे कलेजे लगा कर पुकारती हुई लपकीं। “डियर सुनो तो, तुम तो ख़्वाह-मख़ाह मज़ाक़ की बात का बुरा मान गए!”

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए