कत्थई रंग के वस्ल आबाद रेलवे स्टेशन पर खड़े हों तो नाक की सीध में आम के बाग़ात के सिवा कुछ नज़र नहीं आता। गर्मियों में ये बाग़ात फल से लद जाते हैं और टहनियों से सोने की रंगत वाले आम, धूप में प्लेटफार्म पर यूं नज़र आते हैं जैसे स्याह वो गहरे सब्ज़ लिबास में गहनों से लदी हसीनाएं वस्ल को आबाद करने प्लेटफार्म पर आने के लिए बेताब हों।
वस्ल आबाद रेलवे प्लेटफार्म के सीधे रुख पर स्टेशन मास्टर का दफ़्तर, कंट्रोल रुम, गोदाम और कोने में मुख़्तसर सा मुसाफ़िरख़ाना है। मुसाफ़िर ख़ाने से बाहर निकलें तो सामने वस्ल आबाद का क़स्बा है।
वस्ल आबाद रेलवे स्टेशन के पिछवाड़े सदियों पुराना बोहड़ का दरख़्त है। जिसकी दाढ़ी ज़मीन पर सज्दा रेज़ है। बोहड़ के बुज़ुर्ग दरख़्त के बारे में बेशुमार क़िस्से मशहूर हैं, जिसे बयान करने के लिए ख़ुदाबख़्श की ज़बान नहीं थकती।
बोहड़ के फैले हुए तने के साथ नाना जी हज्जाम ने अपनी दुकान सजा रखी है, जहां वो लोगों की हजामत बनाता है। ख़ुदाबख़्श कहता है कि एक तरफ़ बोहड़ की दाढ़ी सज्दे में है, दूसरी तरफ़ बोहड़ की बददुआ लेने नाना हज्जाम लोगों की दाढ़ियाँ सफाचट करने पर जुटा हुआ है इसीलिए उसके दिन नहीं फिरते। यही नहीं बल्कि ग़ीबत करने के लिए उसकी ज़बान क़ैंची की तरह चलती हुई गुनाहों के ढेर लगाती रहती है।
दोनों को एक दूसरे से ख़ुदा वास्ते का बैर है। नाना जी हज्जाम के माथे पर गूमड़ है जिसे ख़ुदाबख़्श बुराई की निशानी कहता है उसका ख़याल है बोहड़ की दाढ़ी ज़मीन पर सज्दा इसलिए कर रही है कि नाना हज्जाम लोगों की दाढ़ियाँ मूँढने से बाज़ रहे।
बोहड़ के साये तले सिगरेट, पान और मिठाई का खोखा, गुलाब दीन क़स्साब की दुकान और मोची के इलावा वस्ल आबाद के बेरोज़गार नौजवानों की सभा रोज़ जमती है।
इस क़स्बे को आबाद हुए तीन सदियां होने को आई हैं। लेकिन पिछले तीस सालों में इसकी आबादी जिस तेज़ी से बढ़ी है इसकी मिसाल नहीं मिलती। इसके बावजूद वस्ल आबाद का प्लेटफार्म मुसाफ़िरों से ख़ाली रहने लगा है। वर्ना जिन दिनों ये प्लेटफार्म आबाद था। यहां खोए से खोवा छिलता था और ख़ुदाबख़्श के तीन मुलाज़िम चाय, खाना देते-देते अधमुए हो जाते थे मगर जब से रेलवे का पटरा हुआ है। ये प्लेटफार्म आदमी की ज़ात को तरसता है।
वस्ल आबाद रेलवे स्टेशन पर अब नसीबों मारी तीन पसैंजर गाड़ियां रुकती हैं। एक दोपहर सवा ग्यारह बजे और दूसरी चार बजे सह पहर कहने को आती हैं। मगर कई सालों से लेट आना उनकी शनाख़्त बन चुका है। ख़ुदाबख़्श के तीनों लड़के कमाऊ पुत्र हैं। इसलिए टी स्टॉल के मंदे की उसे परवाह नहीं। ख़ुदाबख़्श बातूनी, साबिर-ओ-शाकिर और पेशन गोइयों पर ज़िंदा रहने वाला शख़्स है।
ख़ुदाबख़्श के टी स्टॉल के सामने तीन फुट ऊंचे थड़े पर जहान भर की अला बला धरी रहती है। उनमें काले तीतरों के दो पिंजरे कोने में पड़े रहते हैं। काले तीतर, वक़्त बेवक़्त बोलें तो ख़ुदा बख़्श झूम उठता है।
टी स्टॉल की पुश्त पर सात फुट ऊंची शीशे की अलमारी में पुराने बर्तन, ऊंट की खाल वाले चार टेबल लैम्प और छः रंगीन फूलों वाले गुलदान भी हैं।
दोनों गाड़ियां घंटों लेट आती हैं। इसलिए ख़ुदाबख़्श का टी स्टॉल बोहड़ के नीचे ताश खेलने वाले या आवारा नौजवानों की वजह से चल रहा है। ख़ुदाबख़्श चाय के साथ साथ अपनी शीरीं और अनोखी बातों से लोगों को बांध के रख देता है। उसकी गुफ़्तगु में ज़ोर उस वक़्त पैदा होता है जब नाना हज्जाम की ग़ीबत की जाये।
मुल्ला नूर दीन के बेटे फ़ज़्ल-ए-इलाही को ये गुर मालूम है। इसलिए स्टॉल पर आकर नाना हज्जाम के फूहड़पन की बात करते ही ख़ुदाबख़्श खिल उठता है।
नाना को पच्चास सालों में झूट के इलावा कोई काम नहीं आया।
तेरे बच्चे जिएँ, सच कहा, जिस रोज़ से उसने दूकान खोली है, प्लेटफार्म वीरान हो कर रह गया है। ऐसा सब्ज़ क़दम और भूरा है कि मत पूछो। जादू, टोना भी करता है मैंने किस लिए काले तीतर रखे हैं, सिर्फ़ नाना के वार ख़ता करने के लिए।
फ़ज़्ल-ए-इलाही मुफ़्त की चाय पी के उड़ंछू हो जाता है और ख़ुदाबख़्श मजाल है, कभी रक़म मांगे।
ख़ुदाबख़्श की ढलती उम्र में ख़शख़शी दाढ़ी सफ़ेद होने लगी है। खड़ी नाक में उसका बैज़वी चेहरा अलबत्ता अब भी ख़ूबसूरत है। घुटनों में कुछ दिनों से ज़हर बाद की वजह से दर्द रहने लगा है। जिसकी वजह से उसने ऊंची कुर्सी स्टॉल में रख ली है। जिस पर बैठे वो तीतरों के पर झड़ने के दिनों में सख़्त परेशान रहता है। क्योंकि परिंदे क्रीज़ करें तो जादू का असर हो जाता है। जिस क़दर अनहोनी, जिसके नसीब में होती है, पर झड़ने के दिनों ही में होती है।
निकलती गर्मियों में जब तीतरी ने पर नोचने शुरू किए तो स्टेशन मास्टर मलिक हाजी ने उसे बताया कि छः माह बाद वस्ल आबाद स्टेशन बंद हो जाएगा।
रेलवे ने फ़ैसला कर लिया है। ख़ुदाबख़्श अब जाने का सामान बांध रखो, हर शय ख़सारे में जा रही है सुनते हो। वस्ल आबाद रेलवे स्टेशन ने फ्लैग होना ही है।
कभी-कभार दही के दो कूँडे भी ख़ुदाबख़्श ले आता है, जिसमें से आध किलो तो खड़े खड़े हाजी स्टेशन मास्टर चट कर जाता है। उस रोज़ भी मीठा दही खाते उसने ये मनहूस ख़बर देकर उसे बेहोश कर दिया।
हाजी तेरा ख़ाना ख़राब हो। नमक हराम, ये रेलवे स्टेशन बंद करवा के तेरे को क्या मिलेगा।
वो बड़बड़ाता हुआ प्लेटफार्म के जुनूब में शीशम के दरख़्त तले सोए हड्डीयों के ढेर मलंग के पास जा खड़ा हुआ।
बाबा सुनते हो, स्टेशन छः माह बाद बंद हो जाएगा, दुआ कर, वस्ल आबाद, बंद न हो।
उसने सुर्ख़ बूटी आँखों से ख़ुदाबख़्श को घूरा।
जा परे मर, कहाँ का वस्ल, वस्ल स्टेशनों पर मलता है। जा दूर हो जा।
मलंग ने कंधों पर फैली, मैली चिकट ज़ुल्फ़ों में हाथ डाल के जवाब दिया।
वो नामुराद लौट आया, स्टॉल के सामने खड़े हो कर, तीसरी लाईन पर मुद्दतों से मौजूद माल डिब्बे में कुत्तों को लड़ते देखकर उसका ग़म कुछ घट गया। ये डिब्बा खड़े खड़े गल रहा है, रेलवे वाले शायद उसे भूल ही गए हैं। दिन में इस डिब्बे के अंदर जहां भर के कुत्तों का राज रहता है और रात को चोर, उचक्के यहां आन बिराजते हैं।
मालगाड़ी के डिब्बे की तरह वस्ल आबाद रेलवे स्टेशन का नसीबा भी जला है। मजाल है कि कोई ख़ैर की ख़बर यहां सुनने में आई हो। एक हिज्र, वस्ल से ऐसा चिमट के रह गया है कि वक़्त तक गाड़ियां भूल बैठी हैं। सब के पर झड़ने के दिन आन लगे हैं। ख़ुदाबख़्श सोचता हुआ, उन बीस सालों को प्लेटफार्म पर ढूंढता रहा, जो पलक झपकने में गुम हो गए। शुरू के दिन कैसे ख़ुशीयों भरे थे।
कालू कांटे वाले ने प्लेटफार्म पर फिरते, गहरी सोच में गुम ख़ुदाबख़्श के कांधे पर हाथ मारा।
जानते हो, वस्ल आबाद स्टेशन के दिन पूरे हो गए, जो मज़े तुमने लूटने थे लूट लिए, अब यहां कुछ नहीं रहेगा। जाने की तैयारी करो। बहुत कमा लिया तुमने।
हाँ सुन लिया है यार, तुम किधर जा रहे हो?
कहीं नहीं, बस ज़रा ख़त नाना से से बनवा लूं, क्या ख़याल है?
बनवा लो ख़त, मगर बदख़त बनाएगा। बड़ी हरामी चीज़ है ये नाना, बच के रहना, साबिर पठान का आधा कान नहीं काट लिया था, याद आया?
कालू के इलावा रोज़ाना आने वालों में सिद्दू माली और उसका बड़ा भाई बिक्खू भी है। सिद्दू के साथ ख़ुदाबख़्श की नहीं बनती क्योंकि वो उसकी पेशन गोइयों का मज़ाक़ उड़ाता है। अलबत्ता बिक्खू को यक़ीन है कि ख़ुदाबख़्श हर बात जानता है। बिक्खू के जिस्म पर साँप के काटे के बाद ढीला ढाला चमड़ा ही रह गया है। वो भैंस की तरह उबली आँखों से हर बात को अपने अंदर उतार लेता है। एक टांग पर ज़ोर देकर चलता है। ये लंग जामुन के पेड़ पर चढ़ते डगाले से गिरने की वजह से हुआ, लंबे हाथों को घुटनों पर रख कर वो जहां ज़मीन पर जगह मिले,बैठ जाता है।
हर आदमी से सरासिमा बिक्खू की ज़िंदगी यही बाग़ है। जहां तर सालों में वो चुड़ैल, साँपों और मज़दूरी से लड़ते जिया है।
बिक्खू अकेला सामे है, जो उसकी हर बात पर ईमान ले आता है। घुटनों तक धोती बाँधे और खुरदुरे हाथों में खुरपा उठाए, वो गाड़ी से उतरते या प्लेटफार्म पर आते जिस शख़्स को भी तकता है, हैरान हो उठता है।
ये बंदे कहाँ जाते हैं, थकते हैं नहीं लाला ख़ुदाबख़्श?
बिक्खू न पूछ, कहाँ जाते हैं, ये गाड़ी है न, ग्यारह बजे वाली, सख़्त बेईमान है, वक़्त से रूठी है और ये लोग, उन्हें मालूम ही नहीं कहाँ आ, जा रहे हैं। साले बे-मक़्सद, उमरें गंवा बैठे हैं, नाना नाई की तरह।
नाना, बईमान है।
शाबाश बिक्खू, तेरे ईमान की ख़ैर, पूरे वस्ल आबाद में एक तुम काम के आदमी हो, मगर कैसे ये औरत से डर गए, बताओ।
क्या कहूं, चाँद रात को आजाती है। पहले सिद्दू के कुत्ते को मार डाला, फिर, मुझे बुलाती रही, मगर मैं कमला तो नहीं न, मैंने कहा, जा तेरी ज़ात पर लानत, कुल्हाड़ी दिखा कर भगाया, चुड़ैल लोहे से भागती है, याद रखो।
मरन जोगे, बच उस चुड़ैल से, वर्ना मारा जाएगा।
अच्छा।
वो हैरत में डूबा, ख़ुदाबख़्श को मह्वियत से तकता रहता है।
सिद्दू, उन्हें सर जोड़े देखकर जल भुन जाता है।
बिक्खू, तेरी ज़नानी ख़बर लेगी, दिन सारा, प्लेटफार्म पर, कुत्ते की तरह गुज़ारने लगे हो, ख़ुदाबख़्श की बातों में बैठे-बैठे, गल सड़ जाओगे, ख़ाना-ख़राब, उठो, घर की राह लो।
बिक्खू की सारी कायनात वस्ल आबाद का ये टुकड़ा है। जहां हिज्र है ना वछोड़ा। इसलिए सिद्दू की बात पर ध्यान नहीं धरता। वो उसका अज़ली दुश्मन है। दूसरे दुश्मनों में रेलवे पुलिस का तोंदियल सिपाही, पसैंजर ट्रेन का टी टी ग़ुलाम क़ादिर और कालू कांटे वाला, उन दुश्मनों की वजह से उसकी जान पर बन आती है। वो बाग़ से बाहर निकल के अच्छी तरह यक़ीं कर लेता है कि कोई दुश्मन तो प्लेटफार्म पर मौजूद नहीं। अगर ख़ुदाबख़्श को इन दुश्मनों के दरमियान घिरा पाले, तो ख़ामोशी के साथ बाग़ में लौट जाता है। वो आम के पुराने पेड़ों पर शोर मचाते परिंदों की बोली तक जानता है। मगर ख़ुदाबख़्श के तीतर, दिल चीरने वाली आवाज़ में जादू किस तरह उड़ाते हैं, इसकी समझ उसे नहीं आती।
वो वस्ल आबाद स्टेशन से गुज़रती ऐक्सप्रैस गाड़ियों को बड़ी हसरत से तकता है। एक-बार ऐक्सप्रैस के गुज़रने पर ख़ुदाबख़्श से पूछ बैठा,
ये ज़मीन हिलाती ट्रेन इतनी तेज़ कैसे भागती है। लोग, डरते नहीं?
लो और सुनो, अबे पागलखाने, समुंदर पार गाड़ियां एक घंटे में दो सौ मील दौड़ती हैं, तू इन खटारा गाड़ियों को रोता है।
ख़ुदाबख़्श ने ज़िंदगी में पहली बार, हंसी में लोट-पोट बिक्खू को देखा।
इतना बड़ा झूट बोला तुमने ख़ुदाबख़्श। पहाड़ जितना बड़ा झूट तौबा तौबा।
अरे पागलखाने, जा, मास्टर हमीद गुल से पूछ, तेरे को बता देगा, जा मर उधर।
बिक्खू के पेट में हंस हंसकर बल पड़ गए। असल में झूट के इतने बड़े टुकड़े को समाना, उसके बस की बात ही न हो। दो मन के झूट को हज़म करना, मखौल है, फुट न जाये पेट बंदे का।
सड़ी, दिमाग़ फिर गया है तेरा, जा, अपनी कोठरी में जा के, मुँह काला कर, या गोडी कर बाग़ में।
ख़ुदाबख़्श का जी चाहा, दो-चार मुक्के, बिक्खू की ख़मीदा कमर पर मारे। मगर उसके कमाए हुए, ढीले पोस्ट पर ख़ाक असर होगा।
वस्ल आबाद के प्लेटफार्म पर जो भी आता है, निराला ही आता है। उसने कितने ही मर्दो ज़न याद किए। जो बार-बार मुद्दतों आया किए और फिर उनके ख़द्द-ओ-ख़ाल तक ख़ुदाबख़्श के ज़ह्न से मिट गए। एक बिक्खू बाक़ी है हर सर्द-ओ-गरम में आता रहा है। बारिश हो, आंधी हो, वो दिन में एक-आध फेरा ज़रूर लगा जाता है, वस्ल आबाद की आंधियां कौन भूल सकता है। इसलिए, पिछले जुमा को जब ज़र्द आंधी उठी है तो पहले बूढ़ा तीतर आहिस्ता-आहिस्ता थका हुआ बोला। ख़ुदाबख़्श को मालूम है ये ग़ैबी इशारों को जानने वाला परिंदा कब आहिस्ता बोलता है जब आंधी आई है तो ज़मीन और आसमान एक हो गए। मगर जब ज़मीन अपने मदार पर आई है तो उसका दिल धक से बैठ गया।
प्लेटफार्म के एक किनारे पर गहनों से लदी फंदी, पंट गोरी औरत बाल बिखराए, ख़ुदाबख़्श को देखकर पहले मुस्कुराई और फिर इशारे से बुलाने लगी। उसके चेहरे पर बलाकी कशिश थी, चाहा दौड़ कर उस के पास पहुंच जाये।
आओ ना, इधर तो आओ।
उसे एक दम ध्यान पड़ा कि इतने ज़ेवर पहने, ये औरत, आंधी के थमते ही कहाँ से आगई, अब जो ग़ौर से देखा है तो उस के पैर, पीछे की तरफ़ मुड़े हों। वो सर से पांव तक थरथर काँपने लगा।
इलाही ख़ैर, नाना के जादू को लौटा दे। ये क्या बला है पिछल पैरी है।
उसने काँपते हुए अपने आपसे कहा और तेज़ी से छुरी निकाल के उसे दिखाई, लोहा देखते ही, वो चीख़ मार कर, प्लेटफार्म से उतर कर, बाग़ की सिम्त दौड़ती हुई मुड़ मुड़ कर उसे तकती गई।
ये नाना हज्जाम का वार था। मगर शाबाश मेरे काले तीतर, तू ने बचा लिया।
दो, दो मन के क़दम उठाता, सीधा हाजी स्टेशन मास्टर के दफ़्तर जा पहुंचा।
हाजी साहिब, लो, आज पिछलपैरी आगई प्लेटफार्म पर।
क्या कहते हो, ख़ुदाबख़्श, पिछलपैरी? तुम्हारा दिमाग़ तो नहीं चल बसा?
ख़ुदा की क़सम साहिब जी, अभी अभी गई है, बाग़ की तरफ़ कितनी बार बिक्खू ने उसे देखा है, अब कम ज़ात प्लेटफार्म पर आगई।
अख़बार एक तरफ़ रखकर हाजी स्टेशन मास्टर ने हाथ जोड़े।
जा, पागल मत बना, स्टॉल सँभाल, चंद दिनों के बाद कौन प्लेटफार्म, कौन मैं, कौन तुम और कौन चुड़ैल?
वो ढय् दल के साथ, स्टॉल पर आया है तो तीतर का पिंजरा स्टैंड से गिरा हुआ है। ये बदशगुनी थी।
लेकिन, चुप चुपाते, दिल पर पत्थर रखकर ख़ुदाबख़्श ने पिंजरा उठाया और देर तक परिंदे से बातें करता रहा। बूढ्ढा काला तीतर,परों में चोंच दबाए, मुश्किल से एक-आध बार नीम-बाज़ नज़रों से देखकर आँख मीच लेता, जैसे कहता हो, हर शय का मौसम बदल रहा है। तुम भी बदल जाओ, वर्ना मारे जाओगे, मौत सर पर है। ख़ुदाबख़्श ने पिंजरा, स्टैंड पर धरा और आंधी के बाद औरत के क़िस्से को कितने दिन भुलाता रहा। मगर इस भूल के बीच वो याद करता है कि उसे धोका तो नहीं हुआ। हत्ता कि पिछली सोमवार को जब ग़ज़ब का जाड़ा पड़ा है, वो कम्बल में लिपटा, तीन औरतों को ऐक्सप्रैस ट्रेन से उतरते देखकर घबरा गया। ऐक्सप्रैस क्रास की वजह से वस्ल स्टेशन पर रुक गई थी।
पिछलपैरी की रिश्तेदार तो नहीं, उसने सबसे पहले उनके पैरों पर निगाह दौड़ाई मगर इत्मिनान हुआ कि उनके पैर मुड़े हुए न थे। ख़ुशबू में बसी, वो स्टॉल पर खड़ी चाय पीती रहीं।
सुना है, वस्ल आबाद बंद हो रहा है, फ्लैग हो रहा है।
जी हाँ, अब तो चंद माह रह गए।
फिर तुम क्या करोगे?
ख़ुदाबख़्श ने शरबती आँखों और इस बेहद दिल लुभाने वाली औरत को जवाब देना चाहा मगर ऐक्सप्रैस ने व्हिसिल दे दिया और वो पर्स से रक़म देकर ट्रेन की तरफ़ भाग गई।
वस्ल आबाद प्लेटफार्म की यही अच्छी बात है कि यहां पर हर-आन नई बात चलती रहती है। ज़मीन का ये टुकड़ा हादिसों और अनहोनी बातों से भरा पड़ा है। इस का सारा निज़ाम, किसी और के हाथ में है, हाजी स्टेशन मास्टर तो महज़ आती-जाती गाड़ीयों को झंडी दिखा कर रह जाता है।
सरमा के इन दिनों में, बाग़ मुरझाया हुआ हो और पाले की वजह से उसके घुटनों के दर्द में इज़ाफ़ा होता गया, चाहा, भरा मेला छोड़ दे और वस्ल आबाद प्लेटफार्म को वीरान होने से पहले आख़िरी सलाम करे।
ख़ुदाबख़्श ने तीनों बेटों से सलाह ली। मगर तीनों राज़ी न हुए क्योंकि कई बार ये फ़ैसला हुआ और वस्ल आबाद के बंद होने के फ़ैसले पर अमल का वक़्त न आया।
जिस सुबह, आसमान पर बादल थे और यख़ हवा चल रही थी। वो स्याह धसे में लिपटा, नौ बजे प्लेटफार्म पर पहली बार सिर्फ़ एक तीतर लेकर आया।
स्टॉल खोलते ही, तीतर, गोदों में उतरती सर्दी से बे परवाह बोल उठा।
उस की मस्त बोली में अजब सुरूर हो, लगा पूरी फ़िज़ा झूम उठी है।
वाह मस्ताने, वाह, क्या सुरीला बोला है, वाह। ख़ुश कर दिया आज।
उसकी ख़ुशी में खंडित डालता, हाजी स्टेशन मास्टर झूमता हुआ आगया।
ख़ुदाबख़्श, तो, स्पैशल आरही है। तुम दस किलो दूध और मंगवा लो, करो, मोबाइल,बेटे नूर इलाही को।
उसने हाजी के कहने पर मोबाइल जेब से निकाल कर दस किलो दूध लाने के लिए बेटे को ताकीद की।
इतनी देर में गर्मा गर्मा चाय बनाओ और सुनते हो, रात मस्ती ख़ान की हवेली में डाका पड़ गया।
मस्ती ख़ान के घर डाका, अरे, अरे ये क्या हुआ?
चाय पीते हाजी स्टेशन मास्टर ने बताया कि डाकू मस्ती ख़ान के दामाद को भी क़त्ल कर गए और घर में झाड़ू फेर दिया, औरतों को अलग मारा और बे ग़ैरतों ने बे-आबरू भी किया।
उसका जी चाहा, धाड़ें मार मार के रोये। मस्ती ख़ान जैसे दिल गुर्दे और नेक दिल शख़्स के साथ ये ज़ुल्म। जो दिन गुज़रता है, बुरी ख़बर ही छोड़ जाता है।
नूर इलाही ने भी बाप को यही ख़बर सुनाई और बड़ी केतली पानी से भर कर, चूल्हे पर रख दी।
स्पैशल ने बीस मिनट के बाद आना था। ख़ुदाबख़्श ने घड़ी देख के नूर इलाही से कहा,
पुत्तर, बिस्कुट भी ले आते तो अच्छा था, स्पैशल पर आने वाले लोग बिस्कुट ज़रूर मांगते हैं।
जाता हूँ बाबा।
वो चंद क़दम ही चला था कि आउटर सिग्नल पर क़यामत ख़ेज़ धमाका हुआ। स्पैशल ट्रेन आउटर सिग्नल पर ट्रैक से उतर कर ज़मीन में धँस गई थी और ग़ुबार था कि आसमान को छू रहा था। पलक झपकने में पूरा वस्ल आबाद आउटर सिग्नल की तरफ़ भाग रहा था। ख़ुदाबख़्श को ज़िंदगी में पहली बार टी स्टॉल और काला तीतर भूल गए। वो दीवानावार भागता, उल्टी ट्रेन में फंसे लोगों को देर तक निकालता रहा।
वापस आया तो नूर इलाही से ख़ुदाबख़्श ने कहा,
आज सुबह तीतर किस लिए बोला, मैंने ग़लत जाना, वो दे रहा था हादिसे की चतावनी, लेकिन बेटे, ये सब क्या हो रहा है, हादिसे बढ़े जाते हैं, हम स्टॉल उखाड़ न लें, अब क्या बचा है यहां? इस प्लेटफार्म के दिन गिने जा चुके।
ठीक है बाबा, ठीक है।
उनके बोलने के दौरान में कितने लोग स्पैशल में मरने वालों के बारे में बातें करते स्टॉल पर आते रहे वो दूध जो स्पैशल में आने वाले ज़िंदों के लिए था, अब मुर्दा थे और जो ज़िंदा पी रहे थे, वो मुर्दों से बदतर।
ख़ुदाबख़्श ने टी स्टॉल पर आने वाले घनी मूंछों को ताव देते, सुर्ख़-ओ-सपेद चेहरे वाले भारी भरकम शख़्स के हाथ में सूटकेस देखकर सोचा।
ये कौन हो, कहीं, मस्ती ख़ान के घर डाके में शामिल डाकू तो नहीं?
उसकी हैरत की इंतिहा न रही जब मुंच्छ्ल ने पूछा,
यहां हादिसे से पहले, बाग़ की तरफ़ से दौड़ती औरत तुमने देखी?
औरत, बाग़ की तरफ़ से आती हुई?
हाँ हाँ। औरत?
दोनों ने मानी-ख़ेज़ नज़रों से एक दूसरे को देखा और घर आ कर ख़ुदाबख़्श इसी उधेड़ बुन में रहा कि वो औरत, जिसे हादिसे से पहले सुर्ख़ चेहरे वाले ख़ौफ़नाक शख़्स ने देखा, कौन हो?
कहीं चुड़ैल तो न थी?
ये काले तीतर के पर झड़ने के दिन हों। हर शय ख़िज़ां के आते आते वीरान थी। प्लेटफार्म को ख़ुदाबख़्श रोज़ भुलाता है। मगर वो किस तरह भूल सकता है। ख़ुदाबख़्श को जुमेरात के दिन जब बारिश थमी है, क्या याद आया कि नूर इलाही को लेकर वस्ल आबाद के उजड़े प्लेटफार्म पर आगया।
दोनों बाप बेटा, कितनी देर टी स्टॉल की जगह खड़े बाग़ और सुनसान प्लेटफार्म को तकते रहे।
नूर इलाही, देखो, वो फिर बाग़ से निकल के आरही है।
कौन?
वही औरत, लेकिन उसके तो बाल झड़ गए हैं, औरत देखी तुमने? उसके बाल कहाँ गए? नाना हज्जाम के हाथ तो नहीं चढ़ गई।
कौन औरत बाबा, कौन? सामने बाग़ के तो कुछ नहीं, कोई औरत दिखलाई नहीं दे रही?
ख़ुदाबख़्श का जी चाहा, ज़ोरदार चांटा, बेटे के मुँह पर दे मारे।
क्या तुम अंधे हो, बिल्कुल नाबीना हो तुम्हें इतनी बड़ी औरत नज़र नहीं आरही?
नूर इलाही ने दूर तक निगाह दौड़ाई, ख़ाली भंडार, वीरान प्लेटफार्म और बाग़ के आस-पास दूर दूर तक किसी ज़ी-रूह का नाम-ओ-निशान तक न हो। उसने दौड़ कर ख़ुदाबख़्श को दोनों बाज़ुओं में जकड़ लिया, क्योंकि ज़हरबाद के दर्द के बावजूद वो भागता हुआ, बाग़ की सिम्त जाना चाहता था।
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