aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

तस्वीर के दो रुख़

अहमद अली

तस्वीर के दो रुख़

अहमद अली

MORE BYअहमद अली

    स्टोरीलाइन

    कहानी आज़ादी से पहले की दो तस्वीरें पेश करती है। एक तरफ पुराने रिवायती नवाब हैं, जो ऐश की ज़िंदगी जी रहे हैं, मोटर में घूमते हैं, मन बहलाने के लिए तवाएफ़ों के पास जाते हैं। साथ ही आज़ादी के लिए जद्द-ओ-जहद करने वालों को कोस रहे हैं। गांधी जी को गालियां दे रहे हैं। दूसरी तरफ आज़ादी के लिए मर-मिटने वाले नौजवान हैं जिनकी लाश को कोई कंधा देने वाला भी नहीं है।

    तीसरे पहर के वक़्त बेगम इब्बन अंगनाई में पलंग पर बैठी छालिया कुतर रही थीं। सामने बावर्ची ख़ाना में मामा हंडिया बघार रही थी। जब ड्योढ़ी में किसी ने कुंडी खटखटाई तो बेगम इब्बन बोलीं, “अरी दिलचीन देखियो तो कौन खटखटा रहा है? इस शोर से तो नाक में दम गया।“ इतने में बाहर से आवाज़ आई, “मैं जाऊँ?“

    “कौन है?“

    “मैं हूँ, बशीर।”

    “मियाँ बशीर आओ, मियाँ बहुत दिनों में आए हो। क्या रस्ता भूल गए?”

    “आदाब अर्ज़ है।”

    “उम्र-ए-दराज़। तुम तो ईद का चाँद हो गए। कभी आते ही नहीं।”

    “मुमानी जान इन दिनों काम बहुत रहा। रोज़ आने का इरादा करता था लेकिन कुछ कुछ ऐसा काम निकल आता कि सकता।”

    “अच्छा कहो, छम्माँ बेगम तो अच्छी हैं?”

    “जी हाँ। वो भी आने का इरादा कर रही हैं। किसी दिन आयेंगी।

    “लो मियाँ पान लो। तुम तो शायद ज़रदा नहीं खाते?”

    “जी नहीं। आदाब अर्ज़।”

    “उम्र-ए-दराज़।“

    “क्या मामूँ जान कहीं गए हैं?”

    “तुम्हारे मामूँ जान कहाँ जाऐंगे? मुए कबूतर भी तो पीछा छोड़ें। दिन-भर वो जूतियाँ पीटी हैं कि मैं तो छत की अल्लाह आमीं मना रही थी। वो शोर था कि ख़ाक पीटे शोहदे भी क्या करेंगे। आज खाना खाने भी नहीं उतरे। मुझ कम्बख़्त मारी को दो घंटे भूका रखा, जब बहुत बकी बोली तो उतर कर आए। लेकिन बस मुँह झुटाल कर फिर वही ठुंठ के उल्लू की तरह कोठे पर।”

    “मुमानी जान बेचारे क्या करें। बेकारी में कोई कोई शौक़ होना चाहिए।”

    “आग लगे ऐसे शौक़ को। शौक़ हुआ दीवाना-पन हो गया। जब देखो कबूतरों ही की बातें होती हैं, आटा छोड़ें घी। कबूतर क्या हुए आदमियों से बढ़ गए। अभी-अभी गाओं से घी का प्याला आया था। मुश्किल से एक हफ़्ता हुआ होगा कि बस सफ़ाचट। पहलवानों को भी कोई इतना घी देता होगा। मालूम उनको पिलाते हैं या यार दोस्तों को बाँट देते हैं और मिलने-जुलने वाले भी सब झुलसे कबूतर बाज़। दिन-भर कुंडी पटाकरती है। शौक़ हुआ आफ़त गई और इधर अल्लाह मियाँ ने औलाद भी दी तो ऐसी। दिन-भर वो धमाधम होती है कि कुछ ठिकाना नहीं। इन मुए फ़िरंगियों ने भी क्या-क्या खेल निकाले हैं। ये मुई फ़ुटबाल भी क्या निकली है कि नथुनों में तीर दे दिए हैं। गेंद है कि हर-दम कमरे ही में घुसी चली आती है। मियाँ में तो दहल-दहल के रहती हूँ। कोई घड़ी भी कम्बख़्त चैन की नसीब नहीं होती।

    और इधर मियाँ हमीद की वजह से दिन का खाना और रात की नींद हराम हो गई है। जब तक विलायत में रहे तो यही अल्लाह आमीन किया की कि कहीं कोई मुई मेम वेम कर लाएं। बारे वहां से तो ख़ैरीयत से चले आए। लेकिन अब ये अच्छा शिगूफ़ा छोड़ा है।”

    “जी नहीं मुमानी जान। दरअस्ल आप लोगों में मिल्कियत का एहसास बहुत ज़्यादा है। जो सच पूछिए तो आप लोग औलाद को भी अपनी मुल्क ही तसव्वुर करते हैं। यानी औलाद भी तो इन्सान होती है। जिस तरह आप लोग कोई बात करनी चाहते हैं। उसी तरह औलाद भी आज़ादी से एक बात को करना चाहती है। लेकिन आप लोगों को ये बात आख़िर क्यों नागवार गुज़रती है और हमीद को तो आप लोग समझते ही नहीं। उस का सा बेटा होना तो बहुत मुश्किल है। हमीद को...”

    “उस बेईमान हमीद का किस ने नाम लिया!” मीर इब्बन ने ज़ीने ही में से चिल्ला कर कहा।

    “मामूँ जान आदाब अर्ज़।”

    “अच्छा, ये जनाब हैं। उस बद-बख़्त के नाम-लेवा।”

    “आप हमीद से बेकार इस क़दर नाराज़ हैं।”

    “नाराज़! मैं तो उस नालायक़ की सूरत भी देखना नहीं चाहता। मेरी नाक काटने में उसने क्या कसर छोड़ी है। कम्बख़्त मुस्लमान के घर में पैदा हो कर ये बातें करता है। हिंदिनी से शादी करेगा मेरा दिल तो भुन भुन के रहता है। बजाय इसके कि बुढ़ापे में माँ-बाप की ख़िदमत करे, अपनी क़ाबिलीयत और सआदत मंदी से उनका नाम रौशन करे, अब ये कलंक का टीका लगाएगा। इस से तो अगर मर जाता, तो बेहतर होता।”

    “मामूँ जान वो जो कुछ कहता है। वो भी तो सुनिए।”

    “बस अब कह लिया तो कह लिया। आइन्दा में उस नालायक़ का नाम तक सुनने का रवादार नहीं। क्या मेरी ही औलाद है? ख़ुदा कम्बख़्त को मौत दे...”

    मीर साहब ग़ुस्से से खौलते हुए बाहर चले गए। गरमीयों की शाम थी। अभी तक गली कूचों से गर्मी के भपके निकल रहे थे। सड़क पर लोग अपनी अपनी दुकानों के सामने छिड़काव कर रहे थे। सौदे वाले तरह-तरह की आवाज़ें लगा रहे थे और इसके बावजूद फ़िज़ा में एक क़िस्म की भयानक अफ़्सुर्दगी छाई हुई थी। मीर साहब अपने ख़्यालात में मह्व चलते गए। जब वो मटिया महल पहुँचे तो भीड़ में से घुसते पिलते दो आदमी एक दूसरे के पीछे भागते हुए उनकी तरफ़ आए। अगला तो सफ़ाई से बच कर मीर साहब के बराबर से निकल गया। लेकिन जब दूसरा आया तो मीर साहब एक खड़े हुए ताँगे के बराबर से गुज़र रहे थे। आदमी ने रास्ता कम करने के लिए मीर साहब के बराबर से झपकी लेनी चाही लेकिन शामत-ए-आमाल कि बचने के बजाय वो मीर साहब से टकरा गया और उनकी तरफ़ बहुत खिसियाना और ख़फ़ीफ़ हो कर देखने लगा। मीर साहब की चढ़ी हुई दाढ़ी उनकी चौगोशा टोपी और क़वी हैकल हैयत देखकर घबराया। मगर उतने ही में मीर साहब बहुत तैश खा कर बोले।

    “हरामज़ादा कहीं का देखता नहीं कौन जा रहा है!”

    मीर साहब के हुलिये से तो वो ज़रा सहम गया था, लेकिन ये अलफ़ाज़ सुनकर बोला,

    “बस मियाँ, बस। बहुत से तुम्हारी तरियों के देख लिए हैं। वो ज़माने लद गए, लंबे बनो, लंबे।” ये कह कर वो भागता हुआ अपने साथी को पकड़ने चल दिया।

    बराबर से एक-आध क़हक़हों की आवाज़ आई। फिर क्या था। एक तो करेला और ऊपर से नीम चढ़ा। मीर साहब के जज़्बा-ए-ख़ुद-नुमाई को वो ठेस लगी कि उनका मुँह लाल अँगारा हो गया। उनकी सारी रऊनत, उनका सारा वक़ार ख़ाक में मिल गया। आग बगूला हो कर मीर साहब हँसने वालों को देखने के लिए मुड़े। एक पान वाले की दूकान पर कुछ लोग खड़े मीर साहब की तरफ़ मुँह किए हंस रहे थे। मीर साहब उनकी तरफ़ सड़क के उस पार लपके, लोगों ने अपने मुँह मोड़ लिए और पान वाले की तरफ़ मुख़ातब हो गए। फिर कुछ मीर साहब को ख़्याल आया कि फ़िज़ूल का झगड़ा मोल लेना है। दूसरे उसी वक़्त उनकी निगाह नवाब छम्मां की फ़िटन पर पड़ी। जो उनकी जानिब पीछे से रही थी। नवाब छम्मां ने घोड़े को चाबुक छुवाया और तेज़ी से मीर साहब के पास पहुँच कर गाड़ी रोक ली।

    “ओहो मीर इब्बन। आओ भई, मैं तो दुआ ही माँग रहा था कि तुमसे मुलाक़ात हो जाये। आओ बैठ जाओ।” मीर साहब फ़िटन में सवार हो कर सीना निकाल के बैठ गए और बहुत अकड़ कर पीछे मुड़े और पान वाले की दूकान की तरफ़ आँखें निकाल कर देखा।

    “ख़ैरीयत तो है भई।” नवाब साहब ने पूछा, “ये मुकद्दर कैसे हो?”

    “भाई क्या पूछते हो। अदबार। अदबार। लोगों में से एहसास शराफ़त जाता रहा। दिलों में ग़ैरत और मर्तबे की पहचान। मालूम किस वक़्त किस की इज़्ज़त उतार लें। हद है कि औलाद तक में फ़रमांबर्दारी का माद्दा बाक़ी नहीं रहा।”

    “भई कहते तो सच हो। बड़े की तमीज़ रही और छोटों का ख़्याल और ऊपर से आज़ादी की एक और हवा चल निकली है।”

    इसी तरह बातें करते हुए मीर साहब और नवाब छम्मां जामा मस्जिद से होते हुए चावड़ी बाज़ार में से गुज़रे। वो अभी बढ़ शाहबुला तक भी मुश्किल से पहुँचे थे कि एक शोर-ओ-ग़ुल की आवाज़ बुलंद होने लगी। जल्दी-जल्दी दुकानदार अपनी-अपनी दुकानें बढ़ा रहे थे। दो-दो एक-एक कर के लोग हौज़ क़ाज़ी की तरफ़ चलने लगे। यहाँ तक कि ये मालूम होता था कि एक रौ है जो बहती चली जा रही है।

    “भई, ये क्या माजरा है?” नवाब छम्मां ने मीर साहब की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा।

    “मियाँ वही कोई बलवा वलवा हो गया होगा। तर्क-ए-मुवालात की भी तो अजीब वबा फैल गई है।” नवाब साहब अपनी गाड़ी बढ़ाए चले गए। थोड़ी ही दूर चलने के बाद क़ाज़ी हौज़ की तरफ़ से शोर की आवाज़ शुरू हो गई।

    “ये क्या चीख़ रहे हैं?” नवाब साहब ने फिर पूछा। दोनों ने कान लगा कर सुना। दूर से आवाज़ रही थी, “टोडी बच्चा हाय हाय, टोडी बच्चा हाय हाय।” मीर साहब ने एक क़हक़हा लगाया।

    “ये भी कमबख़्तों ने क्या जुमला निकाला है। कोई तुक भी है?”

    “टोडी बच्चा हाय हाय!”

    जब गाड़ी ज़रा और नज़दीक पहुँची तो उन्होंने देखा कि पुलिस का एक जत्था उनकी तरफ़ पीठ किए खड़ा है और लोग सिपाहीयों के सामने एक हुजूम किए झंडे हाथों में लिए खड़े हैं। चावड़ी की सिम्त में भी लोग जमा हो रहे थे। अब नवाब साहब ने अपनी गाड़ी रोक ली। शोर की आवाज़ दब गई। ये मालूम होता था जैसे लोग पुलिस से कुछ मुकालमा कर रहे हैं। यकायक एक और नारा बुलंद हुआ, “बोल महात्मा गांधी की जय!” और इसके बाद ही झंडे हवा में नाचने लगे और लोग ज़ोर ज़ोर से चिल्लाए, “इन्क़िलाब ज़िंदाबाद इन्क़िलाब ज़िंदाबाद।“

    नवाब साहब फ़र्राशख़ाना में रहते थे। उन्होंने देखा कि गाड़ी का इस जगह से ले जाना ना-मुमकिन है और इसी में ख़ैरियत जानी कि वापस लौट कर नई सड़क से चाँदनी-चौक होते हुए घर पहुँच जाएं। जब नवाब साहब घंटाघर पहुँचे तो वहाँ भी उन्होंने यही माजरा देखा और यहाँ पुलिस के इलावा गोरों की एक पलटन भी दिखाई दी। सारे मैं नाका बंदी हो चुकी थी। अब तो नवाब साहब की ज़रा सिट्टी गुम हुई। लेकिन फिर उनको ख़्याल आया कि नई सड़क से एक गली हौज़ क़ाज़ी के परे जा के निकलती है। गाड़ी को साईस के हवाले कर के नवाब साहब मय मीर इब्बन के पैदल रवाना हो गए।

    “ये हराम ज़ादों ने अच्छा ढोंग बनाया है। आज़ादी-आज़ादी, बेईमान कहीं के, देखते नहीं कि हुकूमत बर्तानिया में कैसे अमन और चैन से रहते हैं। लेकिन इन कमबख़्तों को समझाए कौन?” मीर साहब बहुत बिगड़ कर बोले।

    “जी हाँ। ये सब उसी गांधी की बदमाशी है। सारे मुल़्क को तह-ओ-बाला कर रखा है। सारा इतमीनान और सुकून खो दिया। क्या इसी को आज़ादी कहते हैं? रईयत सारी अलग बिगड़ बैठी।”

    “जी हाँ जिस किरायादार को देखिए सीधे मुँह बात नहीं करता और औलाद है कि अलग सत्यानास हो गई। बड़ों को भी इज़ार में डाल कर नहीं पहनते।”

    जब ये दोनों घर पहुँचे तो मग़रिब की अजानें हो रही थीं। दूर से एक-आध बार बंदूक़ो के छुटने की आवाज़ आई लेकिन फिर सन्नाटा छा गया। नवाब साहब और मीर इब्बन बातों में इस तरह मशग़ूल हो गए जैसे कोई ख़ास बात हुई ही थी। खाने से फ़राग़त पा कर बैठे ही थे कि नवाब साहब के दोस्त मिर्ज़ा फ़र्हत उल्लाह बेग निकले।

    “नवाब साहब आपने सुना। आज तो गोली चल गई। सुना है सौ से ऊपर आदमी मरे और ज़ख़मी हुए।”

    “जी हाँ हम भी घर गए थे। वो तो ख़ैरियत हो गई। अच्छा कहिए अब क्या हाल है?”

    “अब तो आदमी का बच्चा भी फ़तहपुरी से लेकर फ़व्वारे तक देखने में नहीं आता।”

    “अजी साहब और क्या? मीर इब्बन बोले, गोली के सामने भी कोई ठैर सकता है? इन हराम ज़ादों को उसी की ज़रूरत थी।”

    अब रात के दस बज चुके थे। मिर्ज़ा फ़र्हत उल्लाह बेग घर चले गए। हवा ख़ुशगवार थी। नवाब साहब कुर्सी में लेटे हुक़्क़ा गुड़गुड़ा रहे थे। मीर साहब सामने की कुर्सी में आराम कर रहे थे। नवाब साहब बोले, “हाँ भई, आज लछमी बाई का आदमी आया था। कहती है कि अरसे से हुज़ूर से मुलाक़ात नहीं हुई। अगर इजाज़त हो तो ख़ुद हाज़िर हूँ। क्या राय है?” इस बात को सुनकर मीर साहब अपनी कुर्सी में सँभल कर बैठे और ज़रा तपाक से कहा, “बिसमिल्लाह।“

    “चलो भई ख़ुद ही क्यों चलें? रात पुर कैफ़ है। दूसरे वो आदमी कहता था कि आजकल लछमी बाई की कोई बहन भी आई हुई है। ज़रा उसकी भी चाशनी चखें।”

    ग़रज़ कि दोनों घर से चल दिए। सड़क पर बिलकुल सन्नाटा था। जैसे रात बहुत गई हो, यहाँ तक कि एक कुत्ता भी दिखाई ना देता था। हवा में ख़ुनकी थी और उनके हाथों में फूलों के गजरे। एक मस्त कर देने वाली भीनी-भीनी ख़ुश्बू पैदा कर रहे थे। जब वो क़ाज़ी के हौज़ पर पहुँचे तो उन्होंने देखा कि सिपाही चारपाइयों पर बैठे बातें कर रहे थे। चावड़ी के नुक्कड़ पर उनको एक लाश ख़ून में लिथड़ी हुई भयानक और करीहा मंज़र, अभी तक पड़ी हुई दिखाई दी और एक अंधी बुढ़िया और एक अपाहिज फ़क़ीर, दोनों लाग़र और कमज़ोर, महज़ हड्डियों के ढनचर, भूक और प्यास के मारे, दीवारों से मिले मिले दबे-पाँव चोरों की तरह अजमेरी दरवाज़े की तरफ़ जा रहे थे।

    स्रोत:

    Shole (Pg. 5)

    • लेखक: अहमद अली
      • प्रकाशक: मकतबा उर्दू, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1938

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए