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फुसफुसी कहानी

सआदत हसन मंटो

फुसफुसी कहानी

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    "दो क्लर्क भाई रिश्वत के दो सौ रुपये ख़र्च करने के बाद भी जब ख़ुश न हुए तो वो सर्द रात में विवश हो कर घर की तरफ़ चल पड़े। रास्ते में उन्हें एक अंधी लड़की मिली। दंगों में जिसकी दृष्टि चली गई थी। उस लड़की से वो आनन्द लेने की कोशिश कर ही रहे थे कि दो सिपाही आते हुए दिखाई दिए। बड़े भाई ने बैठने के लिए जो ओवर कोट बिछाया था उसे उठा कर भागा तो लड़की एक खाई में गिर गई। सिपाहियों ने जब उसको बाहर निकाला तो उसने चीख़ कर कहा मैं देख सकती हूँ, मेरी नज़र वापस आ गई है और ये कह कर भाग खड़ी हुई।"

    सख़्त सर्दी थी।

    रात के दस बजे थे। शालामार बाग़ से वो सड़क जो इधर लाहौर को आती है, सुनसान और तारीक थी। बादल घिरे हुए थे और हवा तेज़ चल रही थी।

    गिर्द-ओ-पेश की हर चीज़ ठिठुरी हुई थी। सड़क के दो रोया पस्त क़द मकान और दरख़्त धुँदली धुँदली रोशनी में सिकुड़े सिकुड़े दिखाई दे रहे थे। बिजली के खंबे एक दूसरे से दूर दूर हटे, रूठे और उकताए हुए से मालूम होते थे। सारी फ़ज़ा में बद मज़्गी की कैफ़ियत थी। एक सिर्फ़ तेज़ हवा थी जो अपनी मौजूदगी मनवाने की बेकार कोशिश में मसरूफ़ थी।

    जब दो साइकल सवार नुमूदार हुए और हवा के तेज़-ओ-तुंद झोंके उनके कानों से टकराए तो उन्होंने अपने अपने ओवरकोट का कालर ऊंचा कर लिया। दोनों ख़ामोश थे। मुख़ालिफ़ हवा के बाइ’स उन्हें पैडल चलाने में काफ़ी ज़ोर सर्फ़ करना पड़ रहा था। मगर वो इसके एहसास से ग़ाफ़िल एक दूसरे का साया बने शालामार बाग़ की तरफ़ बढ़ रहे थे। अगर कोई उन्हें दूर से देखता तो उसे ऐसा मालूम होता कि सड़क जो लोहे की ज़ंगआलूद चादर की तरह फैली हुई थी, उनकी साइकिलों के साकित पहियों के नीचे हौले हौले खिसक रही है।

    बहुत देर तक वो दोनों सुनसान फ़ासला ख़ामोशी में तय करते रहे। आख़िर उनमें से एक साइकल से उतर कर अपने सर्द हाथ मुँह की भाप से गर्म करने लगा, “सख़्त सर्दी है।”

    उसके साथी ने ब्रेक लगाई और हँसने लगा, “भाई जान! वो... वो विस्की कहाँ गई?”

    “जहन्नम में... जहां सारी शाम ग़ारत हुई, वहां वो भी हुई।”

    दोनों भाई थे, मगर ऐसे भाई जो चारों ऐ’ब शरई इकट्ठे मिल जुल के करते थे। दोनों ने सुब्ह ये प्रोग्राम बनाया था कि दफ़्तर से फ़ारिग़ हो कर रिशवत के उस रुपये का जो उन्हें दो बजे के क़रीब मिलना था, जायज़ इस्तेमाल सोचेंगे।

    रुपया उन्हें दो बजे से पहले ही मिल गया था, इसलिए कि रिशवत देने वाला बहुत बेक़रार था। बड़े भाई ने रुपया जेब में रखने से पहले तमाम नोट अच्छी तरह देख कर इत्मिनान कर लिया कि वो निशान ज़दा नहीं थे। रक़म ज़्यादा नहीं थी। दो सौ एक रुपये थे। उन्होंने दो सौ तलब किए थे मगर एक का इज़ाफ़ा रिशवत देने वाले ने शगुन के लिए किया था जो बड़े भाई ने अपने छोटे भाई से मशवरा कर के एक अंधे भिकारी को दे दिया था। अब वो दोनों हीरा मंडी की तरफ़ जा रहे थे।

    छोटे भाई की जेब में स्कॉच की बोतल थी। बड़े की जेब में थ्री-फाइव के दो डिब्बे। आम तोर पर दोनों गोल्ड फ्लेक पीते थे, मगर जब रिशवत मिलती तो ऐसा ब्रांड पीते थे जिसके दाम ज़्यादा हों।

    हीरा मंडी में दाख़िल हुआ ही चाहते थे कि बादशाही मस्जिद से अज़ान की आवाज़ आई। बड़े ने छोटे से कहा, “चलो यार, नमाज़ पढ़ लें!”

    छोटे ने अपनी फूली हुई जेब की तरफ़ देखा, “इस का क्या करें भाई जान?”

    बड़े ने थोड़ी देर सोचा और कहा, “इसका इंतिज़ाम कर लेते हैं... अपना यार बट जो है!”

    बट पान फ़रोश की दुकान क़रीब ही थी। छोटे ने महीन काग़ज़ में लिपटी हुई बोतल उसके हवाले की। बड़े ने अपनी और अपने भाई की साइकल दुकान के थड़े के साथ टिकाई और बट से कहा, “हम अभी आए नमाज़ पढ़ के!”

    बट ने क़हक़हा लगाया, “दो नफ़िल शुक्राने के भी!”

    दोनों भाइयों ने बादशाही मस्जिद में नमाज़ अदा की और दो नफ़िल शुक्राने के भी पढ़े। वापस आए तो क्या देखते हैं कि बट की दुकान बंद है। साथ वाले दुकानदार से पूछा तो उसने कहा, “नमाज़ पढ़ने गया है।”

    दोनों भाइयों को सख़्त तअ’ज्जुब हुआ, “नमाज़!”

    दुकानदार ने मुस्कुराते हुए कहा, “साल-छः माह ही में कभी कभी पढ़ लिया करता है।”

    दोनों बहुत देर तक बट की वापसी का इंतिज़ार करते रहे। जब वो आया तो बड़े ने छोटे से कहा, “जाओ यार... एक बोतल और ले आओ। मैंने ख़्वाह-मख़्वाह उस हरामज़ादे बट पर ए’तबार किया।”

    छोटे ने रुपये लिये और बड़े से कहा, “जेब ही में पड़ी रहती तो क्या हर्ज थी?”

    “छोड़ो यार... हटाओ इस क़िस्से को, मुझे बोतल जाने का इतना अफ़सोस नहीं, कहीं गिर कर भी टूट सकती थी। अफ़सोस तो इस बात का है कि बड़ी बेदर्दी से पी रहा होगा कमबख़्त।”

    छोटे ने पैडल पर पांव रखा और पूछा, “आप यहीं होंगे?”

    बड़े ने बड़े उकताए हुए लहजे में जवाब दिया, “हाँ भई, यहीं खड़ा रहूँगा... शायद बहक कर इधर निकले, लेकिन तुम जल्दी जाना!”

    छोटा जल्दी वापस गया मगर उसका चेहरा लटका हुआ था। उसके साथ एक और आदमी था जो कैरियर पर बैठा हुआ था। बड़ा ताड़ गया कि ज़रूर कोई गड़बड़ है। लेकिन उसे ज़्यादा देर तक ज़ेहनी कश्मकश में मुब्तला रहना पड़ा क्योंकि छोटे ने साइकल से उतरते ही उसको सारा वाक़ेया सुना दिया।

    शराब की दुकान से दूसरी बोतल लेकर जूँही वो बाहर निकला तो बारिश हो चुकी थी। उसे जल्द वापस पहुंचना था। अफ़रा-तफ़री में उसने साइकल पर सवार होने की कोशिश की मगर वो ऐसी फिसली कि संभाले संभली। सड़क पर औंधे मुँह गिरा और दूसरी बोतल भी जहन्नम में चली गई।

    छोटे ने सारी दास्तान तफ़्सील के साथ सुना कर अल्लाह का शुक्र अदा किया, “मैं बच गया भाई जान, बोतल का कोई टुकड़ा अगर कपड़े चीर कर गोश्त तक पहुंच जाता तो इस वक़्त किसी हस्पताल में पड़ा होता।”

    बड़े ने अल्लाह का शुक्र अदा करना मुनासिब समझा। शराब की दुकान से जो आदमी उसके भाई के साथ आया था, उसको तीसरी बोतल के पैसे दे कर उसने बट पान फ़रोश की बंद दुकान की तरफ़ देखा और दिल ही दिल में एक बहुत हौलनाक क़िस्म की गाली दे कर उसकी दुकान को भस्म कर डाला।

    दोनों को मालूम था कि उन्हें कहाँ जाना है। चौक के उस तरफ़ नान-कबाब वाले के ऊपर जो बाला-ख़ाना था, उसी में इन दोनों भाईयों की बालाई आमदनी का जाएज़ निकास होता था। लौंडिया कम-गो थी। खाने-पीने वाली थी। आ’दात-ओ-अतवार के लिहाज़ से तवाइफ़ कम और कलर्क ज़्यादा थी। इसी लिए उनको पसंद थी कि वो ख़ुद भी कलर्क थे। जब दोनों ख़ूब पी जाते तो दफ़्तरी गुफ़्तुगू शुरू कर देते। हेड कलर्क कैसा है, साहब कैसा है, उसकी घर वाली की तबीयत कैसी है। घंटों अपने अपने मातहतों और अपने अफ़सरों के माज़ी और हाल पर तब्सिरा करते रहते और वो बड़े इन्हिमाक से सुनती रहती।

    बहुत कनसुरी थी, मगर दोनों भाई उसका गाना सुन कर यूँ झूमते थे जैसे वो उनके कानों में शहद टपका रही है, लेकिन आज जब वो गाने लगी तो उनको पहली मर्तबा महसूस हुआ कि वो सुर में है ताल में। चुनांचे उसका गाना बंद कराके उन्होंने बाक़ी बची हुई शराब पीना शुरू कर दी।

    तवाइफ़ का नाम शैदां था, बहुत कम पीने वाली, मगर जाने उसे क्या हुआ कि जब दोनों भइयों ने उस का गाना बंद करा के पीना शुरू किया तो वो बहक गई और ऐसी बहकी कि बोतल उठा कर सारी की सारी सूखी पी गई।

    बड़े को बहुत ग़ुस्सा आया, मगर वो उसे पी गया क्योंकि छोटा मज़े में था। लेकिन ज़्यादा देर तक उस पर ये कैफ़ तारी रहा क्योंकि जब उसने और पीने के लिए बोतल उठाई तो वो ख़ाली थी। अब दोनों यकसाँ तोर पर बे-मज़ा थे।

    बड़े ने छोटे से मशवरा करना ज़रूरी समझा। शैदां के उस्ताद मांडू को रुपये दे कर उसने कहा, “जाओ, भाग कर जाओ और एक बोतल जिमखाना विस्की ले आओ!”

    उस्ताद ने रुपये गिन कर जेब में रखे और कहा, “सरकार! ब्लैक में मिलेगी।”

    बड़ा जो पहले ही भन्नाया हुआ था, चिल्ला कर बोला, “हाँ, हाँ... जानता हूँ। इसीलिए तो मैंने पाँच ज़्यादा दिए हैं।”

    जिमखाना आई। दो दौर चले तो बड़े ने महसूस किया कि पानी मिली है। इम्तहान लेने की ख़ातिर उसने थोड़ी सी रकाबी में डाली और उसको दियासलाई दिखाई। एक लहज़े के लिए नीम जान नीलगूँ सा धुआँ उठा और दियासलाई शूं कर के रकाबी में बुझ गई।

    दोनों भाइयों को इस क़दर कोफ़्त हुई कि ग़ुस्से में भरे हुए उठे। बड़े ने पानी मिली बोतल हाथ में ली। उसका इरादा था कि ये वो उस शराब फ़रोश के सर पर दे मारेगा जिसने बेइमानी की थी। मगर फ़ौरन उसे ख़याल आया कि उनके पास परमिट नहीं था, इसलिए मजबूरन गालियां दे कर ख़ामोश हो गए।

    छोटे की कोशिशों से बदमज़्गी किसी हद तक दूर हो गई थी कि शैदां ने जो उसकी मदद कर रही थी, सब खाया-पिया उगलना शुरू कर दिया। अब दोनों भाइयों ने मुनासिब ख़याल किया कि चला जाये। चुनांचे उस्ताद की तहवील से साइकिलें लेकर वो हीरा मंडी की गलियों में देर तक बे-मक़्सद घूमते रहे। मगर इस आवारागर्दी के बाइ’स उनकी कोफ़्त दूर हुई। वापस घर जाने का इरादा ही कर रहे थे कि उन्हें बट दिखाई दिया। नशे में धुत था और कोठों की तरफ़ गर्दन उठा उठा कर वाही-तबाही बक रहा था। दोनों भाइयों के दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि आगे बढ़ कर उसका टेंट्वा दबा दें। मगर उनसे पहले एक सिपाही ने उसको पकड़ लिया और थाने ले लिया।

    छोटे ने बड़े से कहा, “चलिए भाई जान, ज़रा तमाशा देखें।”

    बड़े ने पूछा, “किसका?”

    “बट का और किसका!”

    बड़े के होंटों पर मा’ना ख़ेज़ मुस्कुराहट नुमूदार हुई, “पागल हुए हो... थाने में अगर उसने हमें पहचान लिया या किसी ने हमारे मुँह की बू सूंघ ली तो हमें अपना तमाशा भी साथ साथ देखना पड़ेगा।”

    छोटे ने दिल ही दिल में बड़े की दूरअंदेशी की दाद दी और कहा, “तो चलिए... घर चलें।”

    दोनों अपनी अपनी साइकिल पर सवार हुए। बारिश थम चुकी थी लेकिन सर्द हवा बहुत तेज़ चल रही थी। अभी वो हीरा मंडी से बाहर निकले थे कि उन्हें इस तांगे में जो उनके आगे आगे चल रहा था, अपने दफ़्तर का बड़ा अफ़सर नज़र आया। दोनों ने एक दम उसकी निगाहों से बचने की कोशिश की, मगर नाकाम रहे क्योंकि वो उन्हें देख चुका था।

    “हैलो!”

    उन्होंने इस हैलो का जवाब दिया।

    “हैलो!”

    इस हैलो के जवाब में उन्होंने अपनी अपनी साइकल रोक ली... अफ़सर ने ताँगा ठहरा लिया और उन से बड़े मुरब्बियाना अंदाज़ में कहा, “कहो मिस्टर! ऐ’श हो रहे हैं?”

    छोटे ने “जी हाँ!” और बड़े ने “जी नहीं!” में जवाब दिया।

    इस पर अफ़सर ने क़हक़हा लगाया, “मेरा ऐ’श तो अधूरा रहा।” फिर उसने अफ़सराना अंदाज़ में पूछा, “तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं?”

    इस मर्तबा बड़े ने, “जी हाँ!” और छोटे ने “जी नहीं!” में जवाब दिया जिस पर अफ़सर ने दूसरा क़हक़हा बलंद किया जो ठेट अफ़सराना था, “एक सौ रुपये काफ़ी होंगे इस वक़्त!”

    बड़े ने बड़े मैकानिकी अंदाज़ में अपनी जेब से सौ रुपये का नोट निकाला और अपने छोटे भाई की तरफ़ बढ़ा दिया। छोटे ने पकड़ कर अफ़सर के हवाले कर दिया जिसने “थैंक यू!” कहा और तांगे से उतर कर लड़खड़ाता हुआ एक तरफ़ चला गया।

    दोनों भाई थोड़ी देर तक ख़ामोश रहे। बड़े ने तमाम हालात पेशे नज़र रख कर अपने सर को ज़ोर से जुंबिश दी, “मालूम नहीं आज सुबह सुबह किसका मुँह देखा था।”

    छोटे के मुँह से ये बड़ी गाली निकली, “उसी... का, जिसने दो सौ एक रुपये दिए।”

    बड़े ने भी उसको मुनासिब-ओ-मौज़ूं गाली से याद किया, “ठीक कहते हो, लेकिन मैं समझता हूँ सारा क़ुसूर उस फ़ालतू रुपये का है जो उसने अपनी माँ की रवां से शगुन के तोर पर दिया था।”

    “उस नमाज़ का भी जो हम ने पढ़ी!”

    “और उस हरामी बट का भी!”

    “मैं तो शुक्र करता हूँ कि पुलिस ने उसको पकड़ लिया, वर्ना मैंने आज ज़रूर उसका ख़ून कर दिया होता।”

    “और लेने के देने पड़ जाते।”

    “लेने के देने तो पड़ ही गए... ख़ुदा मालूम ये हमारा अफ़र कहाँ से आन टपका।”

    “लेकिन मैं समझता हूँ अच्छा ही हुआ, सौ रुपये में साला काना तो हो गया।”

    “ये तो ठीक है, लेकिन आज की शाम बहुत बुरी तरह ग़ारत हुई।”

    “चलो चलें... ऐसा हो कोई और आफ़त जाए।”

    दोनों फिर अपनी अपनी साइकिल पर सवार हुए और हीरा मंडी से निकल आए।

    बड़े ने दफ़्तर से निकलते ही ये मंसूबा बनाया था कि स्कॉच के दो-तीन दौर होने के बाद वो शैदां से कहेगा कि वो अपनी छोटी बहन को बुलाए। उसकी वो बहुत तारीफ़ें किया करती थी। कम-उम्र और अल्लढ़ थी। अपनी ज़िंदगी का बेशतर हिस्सा उसने गांव की सेहतमंद फ़ज़ा में गुज़ारा था और धंदा शुरू किए उसे ब-मुश्किल चंद महीने हुए थे।

    स्कॉच विस्की और शैदां की छोटी बहन... और इससे बढ़ कर और क्या अय्याशी हो सकती थी, मगर उसका ये सारा मंसूबा ख़ाक में मिल गया और सिर्फ़ कोफ़्त बाक़ी रह गई।

    छोटे ने भी खेल खेलने की सोची थी। मौसम ख़ुशगवार था। विस्की और शैदां यक़ीनी तोर पर उसे और भी ख़ुशगवार बना देते और वो इस क़दर महज़ूज़ होता कि पंद्रह-बीस रोज़ तक उसे और किसी ऐ’श की ज़रूरत महसूस होती, मगर सारा मुआ’मला चौपट हो गया।

    दोनों के सर भारी और दिल कड़वे कसैले थे। दोनों की हर बात उल्टी साबित हुई थी। स्कॉच की पहली बोतल बट पान फ़रोश ले उड़ा। दूसरी सड़क के पत्थरों पर टूट कर बह गई। तीसरी ऐ’न उस वक़्त दाग़–ए-मफ़ारिक़त दे गई जब कि सुरूर गठ रहे थे। चौथी किफ़ायत की ख़ातिर देसी मंगवाई तो उसमें आधा पानी निकला और सौ का आख़िरी नोट अफ़सर ने हथिया लिया।

    बड़े की कोफ़्त ज़्यादा थी, यही वजह थी कि उसके दिमाग़ में अ’जीब अ’जीब से ख़याल रहे थे। वो चाहता था कि और भी कुछ हो। कोई ऐसी बात हो कि वो कुत्तों की तरह ज़ोर ज़ोर से भोंकना शुरू कर दे या ऐसा ज़च-बच हो कि अपनी साइकिल के पुर्जे़ उड़ा दे, अपने तमाम कपड़े उतार कर फेंक दे और नंग-धड़ंग किसी कुंएँ में छलांग लगा दे। जिस तरह हालात ने उसका मज़हका उड़ाया था, उसी तरह वो उनका मज़हका उड़ाना चाहता था। मगर मुसीबत ये थी कि वो हालात पैदा हो कर वहीं हीरा मंडी में वफ़ात पा गए थे। अब नए हालात और वो भी ऐसे हालात पैदा हों जिनका वो हस्ब-ए-मंशा मज़हका उड़ा सके। इसके मुतअ’ल्लिक़ सोचने से वो ख़ुद को आ’री पाता था।

    एक सिर्फ़ घर था जहां लिहाफ़ ओढ़ कर सो सकते थे... मगर ख़ाली ख़ोली लिहाफ़ ओढ़ कर सो जाने में क्या रखा था। इससे तो बेहतर यही था कि वो सौ सौ के दो नोटों में चरस मिला तंबाकू भरते और पी कर अंटा-ग़फ़ील हो जाते और सुब्ह उठ कर शगुन के एक रुपये का किसी पीर फ़क़ीर के मज़ार पर चढ़ावा चढ़ा देते।

    सोचते सोचते बड़े ने ज़ोर का नारा बुलंद किया, “हट तेरी ऐसी की तैसी!”

    छोटे ने घबरा कर पूछा, “पंक्चर हो गया?”

    बड़े ने झुंझला कर जवाब दिया, “नहीं यार, मैंने अपना दिमाग़ पंक्चर करने की कोशिश की थी।”

    छोटा समझ गया, “अब जल्दी घर पहुंच जाएं।”

    बड़े की झुंझलाहट में इज़ाफ़ा हो गया, “वहां क्या करेंगे, बतखों के बाल मूंडेंगे?”

    छोटा बे-इख़्तियार हंसने लगा। बड़े को ये हंसी बहुत नागवार गुज़री, “ख़ामोश रहो जी!”

    देर तक दोनों ख़ामोशी से घर का फ़ासले तय करते रहे। अब वो उस सड़क पर थे जो लोहे की ज़ंग-आलूद चादर की तरह फैली हुई थी, और ऐसा लगता था कि उनकी साइकलों के पहियों के नीचे हौले-हौले खिसक रही है।

    बड़े ने जब अपने सर्द हाथ मुँह की भाप से गर्म किए और कहा, “सख़्त सर्दी है।” तो छोटे ने अज़-राह-ए-मज़ाक़ पूछा, “भाई जान! वो... वो विस्की कहाँ गई?”

    बड़े के जी में आई कि छोटे को साइकिल समेत उठा कर सड़क पर पटक दे, मगर इस क़दर कह सका, “जहन्नम में, जहां सारी शाम ग़ारत हुई, वहां वो भी हुई।”

    ये कह वो बिजली के खंबे के साथ खड़ा हो कर पेशाब करने लगा। इतने में छोटे ने आवाज़ दी, “भाई जान! वो देखिए कौन रहा है?”

    बड़े ने मुड़ कर देखा। एक लड़की थी जो सर्दी में ठिठुरती, कांपती, क़दमों से रास्ता टटोलते उनकी जानिब रही थी। जब पास पहुंची तो उसने देखा कि अंधी है, आँखें खुली थीं मगर उसको सुझाई नहीं देता था क्योंकि खंबे के साथ वो टकराते टकराते बची थी।

    बड़े ने ग़ौर से उसकी तरफ़ देखा... जवान थी। उम्र यही सोलह-सत्रह बरस के क़रीब होगी। फटे-पुराने कपड़ों में भी उसका सुडौल बदन जाज़िब-ए-तवज्जो था। छोटे ने उससे पूछा, “कहाँ जा रही है तू?”

    अंधी ने ठिठुरे हुए लहजे में जवाब दिया, “रास्ता भूल गई हूँ... घरसे आग लेने के लिए निकली थी।”

    बड़े ने पूछा, “तेरा घर कहाँ है?”

    अंधी बोली, “पता नहीं... कहीं पीछे रह गया है।”

    बड़े ने उसका हाथ पकड़ा, “चल मेरे साथ!”

    और वो उसे सड़क के उस पार ले गया जहां ईंटों का पुराना भट्टा था जो वीराने की शक्ल में बिखरा हुआ था। अंधी समझ गई कि उसको रास्ता बताने वाला उसे किस रास्ते पर ले जा रहा है, मगर उस ने कोई मज़ाहमत की, शायद वो ऐसे रास्तों पर कई मर्तबा चल चुकी थी।

    बड़ा ख़ुश था कि चलो कोफ़्त दूर करने का सामान मिल गया। किसी मदाख़िलत का खटका भी नहीं था। ओवरकोट उतार कर उसने ज़मीन पर बिछाया वो और अंधी दोनों बैठ कर बातें करने लगे।

    अंधी जन्म की अंधी नहीं थी। फ़सादात से पहले वो अच्छी भली थी। लेकिन जब सिखों ने उसके गांव पर हमला किया तो भगदड़ में उसके सर पर गहरी चोट लगी जिसके बाइ’स उसकी बसारत चली गई।

    बड़े ने ऊपरी दिल से उससे हमदर्दी का इज़हार किया। उसको उसके माज़ी से कोई दिलचस्पी नहीं थी। दो रुपये जेब से निकाल कर उसने उसकी हथेली पर रखे और कहा, “कभी कभी मिलती रहा करना... मैं तुम्हें कपड़े भी बनवा दूंगा।”

    अंधी बहुत ख़ुश हुई। बड़े ने जब उसको रोशन आँखों और फुर्तीले हाथों से अच्छी तरह टटोला तो वो भी बहुत ख़ुश हुआ। उसकी कोफ़्त काफ़ी हद तक दूर हो गई, लेकिन एक दम उसे अपने छोटे भाई की भिंची हुई आवाज़ सुनाई दी, “भाई जान... भाई जान!”

    बड़े ने पूछा, “क्या है?”

    छोटा सामने आया। बड़े ख़ौफ़ज़दा लहजे में उसने कहा, “दो सिपाही रहे हैं!”

    बड़े ने होश-ओ-हवास क़ायम रखते हुए अपना ओवरकोट खींचा जिसपर अंधी बैठी हुई थी। झटके से वो उस ख़ंदक़ में गिर पड़ी जिसमें से पकी हुई ईंटें निकाल ली गई थीं। गिरते वक़्त उसके मुँह से बलंद चीख़ निकली, मगर दोनों भाई वहां से ग़ायब हो चुके थे।

    चीख़ सुन कर सिपाही आए तो उन्होंने बेहोश अंधी को ख़ंदक़ से बाहर निकाला। उसके सर से ख़ून बह रहा था। थोड़ी देर के बाद उसे होश आया तो उसने सिपाहियों को यूं देखना शुरू किया जैसे वो भूत हैं, फिर एक दम दीवानावार चिल्लाने लगी, “मैं देख सकती हूँ... मैं देख सकती हूँ... मेरी नज़र वापस गई है।”

    ये कह कर वो भाग गई। उसके हाथ से जो दो रुपये गिरे, वो सिपाहियों ने उठा लिये।

    स्रोत :
    • पुस्तक : سرکنڈوں کے پیچھے

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