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पंजाब का दुपट्टा

अशफ़ाक़ अहमद

पंजाब का दुपट्टा

अशफ़ाक़ अहमद

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    स्टोरीलाइन

    कहानी एक पंजाबी लड़की की है जो एक मन्नत की दरख़्वास्त लेकर एक दरगाह पर कई दिन से लगातार खड़ी है। उसने अपना दुपट्टा दरगाह की चौखट से बाँधा हुआ है और लगातार खड़े होने से उसके पैर सूज गए हैं। यह दुपट्टा महज़ एक लड़की का ही नहीं है, बल्कि यह पंजाब और सिंध को आपस में बाँधने वाली डोर का प्रतीक भी है।

    जब आदमी मेरी उम्र को पहुंचता है तो वो अपनी विरासत आने वाली नस्ल को देकर जाने की कोशिश करता है। कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं, जो इन्सान बदक़िस्मती से साथ ही समेट कर ले जाता है। मुझे अपनी जवानी के वाक़ियात और इस से पहले की ज़िंदगी के हालात मुख़्तलिफ़ टुकड़ियों में मिलते हैं। मैं चाहता हूँ कि अब वो आपके हवाले कर दूं। हालाँकि इसमें तारीख़ी नौईयत का कोई बड़ा वाक़िया आपको नहीं मिलेगा लेकिन मुआशरती ज़िंदगी को नज़र-ए-ग़ाइर देखा जाये तो इसमें हमारी सियासी ज़िंदगी के बहुत से पहलू नुमायां नज़र आएँगे।

    आज से कोई बीस-बाईस बरस पहले की बात है मैं किसी सरकारी काम से हैदराबाद गया था। सिंध में मुझे तक़रीबन एक हफ़्ते के लिए रहना पड़ा, इसलिए मैंने अपनी बीवी से कहा कि वो भी मेरे साथ चले, चुनांचे वो भी मेरे साथ थी। दो दिन वहां गुज़ारने के बाद मेरी तबीयत जैसे बेचैन हो गई। मैं अक्सर इस हवाले से आपकी ख़िदमत में 'बाबों' का ज़िक्र करता हूँ। मैंने अपनी बीवी से कहा कि भट्ट शाह (शाह अब्दुल लतीफ़ भटाई) का मज़ार यहां क़रीब ही है और आज जुमेरात भी है, इसलिए आज हम वहां चलते हैं। वो मेरी बात मान गई। मेज़बानों ने भी हमें गाड़ी और ड्राईवर दे दिया, क्योंकि वो रास्तों से वाक़िफ़ था। हम मज़ार की तरफ़ रवाना हो गए। जूँ-जूँ शाह अब्दुल लतीफ़ भटाई का मज़ार क़रीब रहा था, मुझ पर एक अजीब तरह का ख़ौफ़ तारी होने लगा। मुझ पर अक्सर ऐसा होता है। मैं इल्म से इतना मुतास्सिर नहीं हूँ, जितना करेक्टर से हूँ। इल्म कमतर चीज़ है, किरदार बड़ी चीज़ है। इसलिए साहिबान-ए-किरदार के क़रीब जाते हुए मुझे बड़ा ख़ौफ़ आता है। साहिबान-ए-इल्म से उतना ख़ौफ़ नहीं आता, डर नहीं लगता।

    जब हम वहां पहुंचे तो बहुत से लोग एक मेले की सूरत में उनके मज़ार के बाहर मौजूद थे। घूम फिर रहे थे। हम मियां-बीवी काफ़ी मुश्किल से मज़ार के सेहन में दाख़िल हुए। बहुत से लोग वहां बैठे हुए थे और शाह अब्दुल लतीफ़ भटाई का कलाम सुना रहे थे। इस कलाम में जब शाह की शायरी में मौजूद एक ख़ास टुकड़ा आता तो सारे साज़िंदे चौकस हो कर बैठ जाते और गाने लगते। कलाम में ये ख़ास टुकड़ा इस क़दर मुश्किल और पेचीदा है कि वहां के रहने वाले भी कम-कम ही उसका मतलब समझते हैं, लेकिन उसकी गहराई ज़माने के साथ साथ खुलती चली जाती है। हम भी वहां एक दीवार के साथ लग कर खड़े हो गए। वहां काफ़ी रश् था। कुछ लोग ज़मीन पर लेटे हुए थे। औरतें, मर्द सब ही और कुछ बैठे कलाम सुन रहे थे, हम भी जा कर बैठ गए।

    जब शाह की वाई (मख़सूस टुकड़ी) शुरू होती तो एक ख़ादिम धात के बड़े बड़े गिलासों में दूध डाल कर तक़सीम करता। ये रस्म है वहां की कि जब वाई पढ़ते हैं तो दूध तक़सीम किया जाता है। गिलास बहुत बड़े बड़े थे, लेकिन उनमें तोला डेढ़ तोला दूध होता। जब इतना बड़ा गिलास और इतना सा दूध ला कर एक ख़ादिम ने मेरी बीवी को दिया, तो उसने दूध लाने वाले की तरफ़ बड़ी हैरत से देखा और फिर झांक कर गिलास के अंदर देखा। मैंने उससे कहा कि दूध है पी लो। मैंने अपने गिलास को हिलाया। मेरे गिलास के अंदर दूध में एक तिनका था। मैं उस तिनके को नज़रअंदाज करता था, लेकिन वो फिर घूम कर सामने जाता था। मैंने ये फ़ैसला किया कि मैं दूध को तिनके समेत ही पी जाता हूँ। चुनांचे मैंने दूध पी लिया और अपनी बीवी से कहा कि आप भी पियें, ये बरकत की बात है।

    ख़ैर! उसने ज़बरदस्ती ज़ोर लगा कर पी लिया और क़रीब बैठे हुए एक शख़्स से कहा कि आप हमें थोड़ी सी जगह दें। उस शख़्स की बीवी लेट कर अपने बच्चे को दूध पिला रही थी। उस शख़्स ने अपनी बीवी को टहोका दिया और कहा कि मेहमान है, तुम अपने पांव पीछे करो। मेरी बीवी ने कहा कि नहीं नहीं, उसको मत उठाएँ। लेकिन उस शख़्स ने कहा, नहीं नहीं कोई बात नहीं। उसकी बीवी ज़रा सिमट गई और हम दोनों को जगह दे दी। इन्सान का ख़ास्सा ये है कि जब उसको बैठने की जगह मिल जाये, तो वो लेटने को भी चाहता है। जब हम बैठ गए तो फिर दिल चाहा कि हम आराम भी करें और मैं आहिस्ता-आहिस्ता खिसकता हुआ पांव पसारने लगा। फ़र्श बड़ा ठंडा और मज़ेदार था। हवा चल रही थी। मैं नीम दराज़ हो गया। मेरी बीवी ने थोड़ी देर के बाद कहा कि मैं चक्कर लगा कर आती हूँ, क्योंकि ये जगह तो हमने पूरी तरह देखी ही नहीं। मैंने कहा ठीक है। वो चली गई। दस पंद्रह मिनट गुज़र गए, वो वापस आई तो मुझे अंदेशा हुआ कि कहीं गुम ही हो जाये, क्योंकि पेचीदा रास्ते थे और नई जगह थी।

    जब वो लौट कर आई तो बहुत परेशान थी। कुछ घबराई हुई थी। उसकी सांस फूली हुई थी। मैंने कहा, ख़ैर है! कहने लगी आप उठें मेरे साथ चलें। मैं आपको एक चीज़ दिखाना चाहती हूँ। मैं उठ कर उस के साथ चल पड़ा। वहां रात को दरबार का दरवाज़ा बंद कर देते हैं और ज़ाइरीन बाहर बैठे रहते हैं। सुबह जब दरवाज़ा खुलता है तो फिर दुआएं वग़ैरा माँगना शुरू कर देते हैं। जब हम वहां गए तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगी, आप इधर आएं। शाह के दरवाज़े के ऐन सामने एक लड़की खड़ी थी। उसके सर पर जैसे हमारा दस्तरख़वान होता है, उस साइज़ की चादर का टुकड़ा था और उस का अपना जो दुपट्टा था वो उसने शाह के दरवाज़े के कुंडे के साथ गाँठ देकर बाँधा हुआ था और अपने दुपट्टे का आख़िरी कोना हाथ में पकड़े खड़ी थी और बिल्कुल ख़ामोश थी।

    उसे आप बहुत ही ख़ूबसूरत लड़की कह सकते हैं। उसकी उम्र कोई सोलह,सतरह या अठारह बरस होगी। वो खड़ी थी, लेकिन लोग एक हलक़ा सा बना कर उसे थोड़ी सी आसाइश अता कर रहे थे ताकि उसके गिर्द जमघटा हो। कुछ लोग, जिनमें औरतें भी थीं, एक हलक़ा सा बनाए खड़े थे। मैंने कहा, ये क्या है? मेरी बीवी कहने लगी, उसके पांव देखें। जब मैंने उसके पांव देखे तो आप यक़ीन करें कि कोई पाँच सात किलो के। इतना बड़ा हाथी का पांव भी नहीं होता। बिल्कुल ऐसे थे जैसे सीमेंट, पत्थर या ईंट के बने हुए हों। हालाँकि लड़की बड़ी धान पान की और दुबली पतली सी थी। हम हैरानी और डर के साथ उसे देख रहे थे, तो वो मुँह ही मुँह में कुछ बात कर रही थी।

    वहां एक सिंधी बुज़ुर्ग थे। हमने उनसे पूछा कि आख़िर ये मुआमला किया है? उसने कहा, साईं! क्या अर्ज़ करें। ये बेचारी बहुत दुखियारी है। ये पंजाब के किसी गांव से आई है और हमारे अंदाज़े के मुताबिक़ मुलतान या बहावलपुर से है। ये ग्यारह दिन से इसी तरह खड़ी है और इस मज़ार का बड़ा ख़िदमतगार, वो सफ़ेद दाढ़ी वाला बुज़ुर्ग, उसकी मिन्नत समाजत करता है तो एक खजूर खाने के लिए ये मुँह खोल देती है, चौबीस घंटे में। मेरी बीवी कहने लगी कि उसे हुआ क्या है? उन्होंने कहा कि इसके भाई को फांसी की सज़ा हुई है और ये बेचारगी के आलम में वहां से चल कर यहां पहुंची है और इतने दिन से खड़ी है और एक ही बात कह रही है कि शाह! तू तू अल्लाह के राज़ जानता है, तो मेरी तरफ़ से अपने रब की ख़िदमत में दरख़ास्त कर कि मेरे भाई को रिहाई मिले और उस पर मुकदमा ख़त्म हो। वो बस ये बात कह रही है।

    शाह अपनी एक नज़्म में फ़रमाते हैं कि लोगो! चौदहवीं के चांद को जो बड़ा ख़ूबसूरत और दिलकश होता है, पहली के चांद को जो नज़र भी नहीं आता और लोग छतों पर चढ़ कर ऊँगलियों का इशारा कर के उसे देखते हैं। ये क्या राज़ है तुम मेरे क़रीब आओ मैं तुम्हें चांद का राज़ समझाता हूँ (ये शाह अब्दुल लतीफ़ भटाई की एक नज़्म का हिस्सा है) वो लड़की भी बेचारी कहीं से चल कर चलती चलती पता नहीं उसने अपने घर वालों को बताया भी है कि नहीं, लेकिन वो वहां पहुंच गई है और वहां खड़ी थी। चूँकि रात को मज़ार का दरवाज़ा बंद हो जाता है, इसलिए कोई कनेक्शन नहीं रहता, उसने अपना दुपट्टा उतार कर वहां बांध रखा है। वो बाबा बता रहा था कि अब उसका चलना मुश्किल है। बड़ी मुश्किल से क़दम उठा कर चलती है और हम सब लोग इस लड़की के लिए दुआ करते हैं। हम अपना ज़ाती काम भूल जाते हैं और हम इसके लिए और इसके भाई के लिए अल्लाह साईं से गिड़गिड़ा कर दुआ करते हैं कि अल्लाह तू इस पर फ़ज़ल कर।

    कितनी छोटी सी जान है और उसने अपने ऊपर क्या मुसीबत डाल ली है। मैं खड़ा उस लड़की को देख रहा था। उसका दुपट्टा अगर सर से उतर जाता तो वहां के लोग अपने पास से अजरक या कोई और कपड़ा उसके सर पर डाल देते। मैं उसको देखता रहा। मुझे बाहर देखना, वाई सुनना और दूध पीना सब कुछ भूल गया। मैं चाहता था कि उससे बात करूँ, लेकिन मेरा हौसला नहीं पड़ रहा था, क्योंकि वो इतने बुलन्द किरदार और ताक़त के मुक़ाम पर थी कि ज़ाहिर है एक छोटा, मामूली आदमी उससे बात नहीं कर सकता था।

    हमें वहां खड़े खड़े काफ़ी देर हो गई। हमने सारी रात वहां गुज़ारने का फ़ैसला किया। हमने सारी रात उस लड़की के लिए दुआएं कीं। बस हम उसके लिए कच्ची पक्की दुआएं करते रहे। सुबह चलते हुए मैंने अपनी बीवी से कहा कि जब तक पंजाब का दुपट्टा शाह अब्दुल लतीफ़ भटाई के कुंडे से बंधा है पंजाब और सिंध में किसी क़िस्म का क्रैक नहीं आसकता। ये तो अपने मक़सद के लिए आई है ना, लेकिन मक़सद से मावरा भी एक और रिश्ता होता है। मेरी बीवी कहने लगी, क्यों नहीं, आप रोज़ ऐसी ख़बरें पढ़ते हैं कि ये सिंध कार्ड है, ये पंजाब कार्ड है। जब एक चौधरी देखता है कि लोगों की तवज्जो मेरे ऊपर होने लगी है और लोग मेरे बारे में Critical होने लगे हैं, तो वो फिर कहता है, लोगो! मेरी तरफ़ देखो। तुम्हारा चोर पंजाब है। दूसरा कहता है, नहीं! मेरी जानिब देखो तुम्हारा चोर सिंध है, ताकि उसके ऊपर से निगाहें हटें, वर्ना लोगों के दरमियान वही असल रिश्ता क़ायम है जो मुलतान या बहावलपुर से जाने वाली लड़की का शाह के मज़ार से है, जो अकेली तन-ए-तन्हा, सूजे पांव बग़ैर किसी ख़ुराक के खड़ी हुई है, उसका एतिक़ाद और पूरा ईमान है कि उसका मसला हल होगा। अपनी एक नज़्म में शाह फ़रमाते हैं कि कमान कसने वाले तू ने इस में तीर रख लिया है और तू मुझे मारने लगा है, लेकिन मेरा सारा वजूद ही तेरा है, कहीं तू अपने आपको नुक़्सान पहुंचा ले।

    चंद सर्दियां पहले की बात है कि हमारे बाग-ए-जिन्ना में पुराने जिमख़ाने के सामने अंदरून-ए-शहर की एक ख़ातून बेंच के ऊपर बैठी थी और अपने छोटे बच्चे को अपने घुटने के ऊपर पिला रही थी। उसकी तीन बच्चियां खेलते हुए बाग़ में फैल गई थीं और एक दूसरी के साथ लड़ती थीं और बार-बार चीख़ें मारती हुई माँ से एक दूसरी की शिकायत करती थीं। ज़रा देर बाद फिर माँ को तंग करना शुरू कर देतीं और फिर चली जातीं। आख़िर में फिर लड़ती हुई दो बच्चियां आईं और कहा कि अम्मां उसने मेरी फ़ुलां इतनी बड़ी चीज़ ले ली है। एक ने मुठ्ठी बंद की हुई थी। आख़िर माँ ने उसका हाथ पकड़ा और कहा खोल दे मुठ्ठी। जब उसने मुठ्ठी खोली तो उसमें सूखा हुआ दरख़्त से गिरा भेड़ा था। एक ने कहा, पहले मैंने देखा था ये मेरा है। उनकी माँ ने दूसरी से कहा, उसे दे दो। फिर वो सुलह-सफ़ाई करते हुए भाग कर चली गईं।

    जब मैंने उनके दरमियान इतनी ज़्यादा लड़ाई देखी तो मैंने उस ख़ातून से कहा कि आप तो मुश्किल में पड़ी हुई हैं। ये बच्चे आपको बहुत तंग करते हैं। तो उसने कहा कि भाई! मुझे ये बहुत तंग करते हैं, लेकिन मैं इन से तंग होती नहीं। मैंने कहा वो कैसे? कहने लगीं, ये जो मेरे बच्चे हैं, अपनी नानी के मरने के बाद पैदा हुए हैं। मैं सोचती हूँ कि अगर उनकी नानी ज़िंदा होती तो ये बच्चियां कितनी ही शैतानियां करतीं, ज़िद करतीं, लड़ाईयां करतीं, लेकिन फिर भी अपनी नानी की प्यारियां और लाडलियाँ ही रहतीं। जब मेरे ज़ेह्न में ये ख़्याल आता है तो ये कुछ भी करें। मैं अपनी नानी की हवाले से उनको माफ़ कर देती हूँ और ये मज़े से खेलती रहती हैं, हालाँकि जिस्मानी और ज़ेह्नी रूहानी तौर पर मुझे तंग करती हैं।

    जब इस ने ये बात की तो मैं सोचने लगा कि क्या हमारे सियासी और समाजी वजूद में कोई नानी जैसा तसव्वुर नहीं सकता? क्या हमें ऐसा लीडर नहीं मिल सकता, या जिसके सहारे हम अपनी मुश्किलात को उसके नाम Dedicate कर के ये कहें कि अगर ऐसी मुश्किलात होतीं और अगर क़ाइद-ए-आज़म ज़िंदा होते तो हम उनके हवाले कर देते कि जी ये मुश्किलात हैं और वो उनको वैसे ही समेट लेते जैसा कि वो दूसरी मुश्किलात समेटा करते थे, बल्कि अकेले उन्होंने ही तमाम मुश्किलात को समेटा था। लेकिन शायद ये हमारी क़िस्मत या मुक़द्दर में नहीं था, लेकिन इसके बावजूद मैं ये समझता हूँ कि अगर एक धान पान सी, दुबली पतली लड़की इतनी हिम्मत कर के अपने ज़ाती मक़सद के लिए इतना बड़ा कनेक्शन मेरे आपके और सिंध के दरमियान पैदा कर सकती है, तो हम जो ज़्यादा पढ़े लिखे, दानिशमंद और दानिश्वर लोग हैं ये दिल और रूह के अंदर मज़ीद गहराई पैदा करने के लिए कुछ क्यों नहीं कर सकते?

    कोई ऐसी सुबह तूलूअ हो या कोई ऐसी शाम आए, जब हम दीवार से ढू लगा कर एक Meditation में दाख़िल होते हैं, तो क्या इस मराक़बे में ये सारी चीज़ें नहीं आतीं, या ये कि हम इस मराक़बे के अंदर कभी दाख़िल ही नहीं हो सके? एक छोटी सी लड़की इस तरह एक तहय्या के अंदर और एक इरादे के अंदर दाख़िल हो गई थी और हम जो बड़े हैं उनसे ये काम नहीं होता। उसके बावजूद मैं बहुत पर उम्मीद हूँ कि यक़ीनन ऐसा वक़्त आजाएगा जिसका कोई जवाज़ हमारे पास नहीं होगा, जिसकी कोई मंतिक़ नहीं होगी। लेकिन वो वक़्त ज़रूर आएगा, क्यों आएगा, किस लिए आएगा, किस वजह से और कैसे आएगा? इसका भी कोई जवाब मेरे पास नहीं है। लेकिन इतनी बड़ी मुआशरती ज़िंदगी में जान-बूझ कर या बेवक़ूफ़ी से हम जो नाम ले चुके हैं, उन्हें कभी कभी, किसी किसी मुक़ाम पर पहुंच कर सफल होना ज़रूरी है। ये मेरा एक ज़ाती ख़्याल है, जिसके साथ मैं वाबस्ता रहता हूँ।

    मायूसी की बड़ी घटाऐं हैं, बड़ी बेचैनियां हैं, बड़ी परेशानियाँ हैं। इकनॉमिक्स का आपके यूटीलिटी बिल्ज़ का ही मसला इतना हो गया है कि इन्सान इससे बाहर ही नहीं निकलता। आदमी रोता रहता है, लेकिन हमारे इस लाहौर में, हमारे इस मुल्क में और हमारे इस मुल्क से मावरा दूसरी इस्लामी दुनिया में कुछ कुछ तो लोग ऐसे ज़रूर होंगे जो इकनॉमिक्स की तंगी के बावस्फ़ ये कहते होंगे जो मैं नहीं कह सकता। मैं किसी किसी तरह से ख़ुश हो सकता हूँ, क्योंकि ख़ुशी का माल दौलत के साथ कोई ताल्लुक़ नहीं। हमारे बाबे कहा करते हैं कि अगर माल दौलत के साथ जायदाद के साथ ख़ुशी का ताल्लुक़ होता तो आप इतनी सारी चीज़ें छोड़ कर कभी सोते नाँ! इन सारी चीज़ों को आप अपनी निगाहों के सामने छोड़कर सो जाते हैं और सोना इतनी बड़ी नेअमत है जो आपको राहत अता करती है और अगर आपको कोई जगाए तो आप कहते हैं कि मुझे तंग करो। अगर इससे कहें कि तेरी वो कार, जायदाद और बैंक बैलंस पड़ा है तो उस सोने वाले को उसकी कोई परवाह नहीं होती। इस से तय ये पाया कि ये दौलत ये माल मताअ ये सब कुछ आपको ख़ुशी अता नहीं करते, ख़ुशी आपके अंदर की लहर है।

    मछली जिसको पकड़ ले वो उस लहर पर डोल्फ़िन की तरह सवार हो कर दूर जा सकती है। अगर वो लहर पकड़ी जाये तो फिर हमारी बदक़िस्मती है। फिर हम कुछ नहीं कर सकते। इस लहर को देखना, जाँचना और पकड़ना और उस पर सवार होना शहसवारों का काम है, आम लोगों का नहीं। बड़ी तकलीफ़ें और दिक्कतें हैं, लेकिन उनके दरमियान रहते हुए भी कई आदमी गाते हुए गुज़र जाते हैं और हम अपने कानों से उनका गाना सुनते हैं और हम उनकी तहक़ीक़ नहीं कर सकते कि उनके अंदर कौन सी चुप लगी हुई है, किस क़िस्म की प्रोग्रामिंग हुई होती है कि ये गाते चले जा रहे हैं। अल्लाह आपको ख़ुश रखे और बहुत सी आसानियां अता! फ़रमाए और ख़ुदावंद तआला आपको आसानियां तक़सीम करने का शर्फ़ अता फ़रमाए! अल्लाह हाफ़िज़

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