क़ुदरत का उसूल
स्टोरीलाइन
समलैंगिकता के उत्थान व पतन के कारणों पर आधारित यह कहानी है। कहानीकार ने यह बताने की कोशिश की है कि बाज़ार में जिस चीज़ की मांग होती है उसकी अचानक अधिकता हो जाती है और जैसे ही उसकी मांग कम या ख़त्म होती है वो चीज़ भी ग़ायब हो जाती है। पंजाब के हवाले से ज़िक्र करते हुए लिखा है कि एक ज़माने में वहाँ लड़कों के लिए ख़ून-ख़राबा हो जाता था लेकिन अब उनकी जगह लड़कियों ने ले ली है।
क़ुदरत का ये उसूल है कि जिस चीज़ की मांग न रहे, वो ख़ुद-बख़ुद या तो रफ़्ता रफ़्ता बिल्कुल नाबूद हो जाती है, या बहुत कमयाब। अगर आप थोड़ी देर के लिए सोचें तो आपको मालूम हो जाएगा कि यहां से कितनी अजनास ग़ायब हो गई हैं।
अजनास को छोड़िए, फ़ैशन ले लीजिए, कई आए और कई दफ़न हुए, मालूम नहीं कहाँ। दुनिया का ये चक्कर बहर सूरत इसी तरह चलता रहता है, एक आता है, एक जाता है।
एक ज़माना था कि लड़कियां अंगिया का इस्तेममाल बहुत मा’यूब समझती थीं, मगर अब ये बहुत ज़रूरी समझा जाता है कि सहारा है। अमरीका और इंग्लिस्तान से तरह तरह की अंगियाँ आरही हैं,, कुछ ऐसी हैं कि इनमें कोई स्ट्रीप नहीं होता। एक अंगिया जो सबसे क़ीमती है “मैडन फ़ोरम” कहलाती है। उसे कोई बुढ़िया भी पहन ले तो जवान दिखाई देती है।
इससे भी ज़्यादा ‘शदीद’ अंगिया नूरजहां फ़िल्म एक्ट्रेस ने “चुन वे” में पहनी थी जिसकी नुमाइश से मेरे जमालियाती ज़ौक़ को बहुत सदमा पहुंचा था, मगर मैं क्या करता?
हर शख़्स को अपनी पसंद की चीज़ खाने और पहनने की आज़ादी है।
तलव्वुन इंसान की फ़ित्रत है, वो कभी एक चीज़ पर क़ायम नहीं रहता, इसीलिए उसके गिर्द-ओ-पेश का माहौल भी बदलता रहता है। अगर आज उसे मुर्ग़ियां मरगूब हैं तो मार्कीट में लाखों मुर्ग़ियां एक दम आ जाएंगी।
लेकिन जब उसका दिल उनसे उकता जाएगा, तो मैं वसूक़ से कह सकता हूँ कि मुर्ग़ियां या तो अंडे देना बंद कर देंगी या उसे सेईंगी नहीं।
ये भी मुम्किन है कि अगर लोग पानी पीना बंद कर दें तो सारे कुँएं ख़ुश्क हो जाएं, दरिया अपने को बेकार समझ कर अपना रुख़ बदल लें।
मैं आज से पंद्रह बरस पहले की बात कर रहा हूँ, आरगंडी (जिसे रिफिल कहा जाता था) की बनी बनाई क़मीसों का रिवाज औरतों में आम था लेकिन दो तीन बरसों के बाद ये क़मीसें ऐसे ग़ायब हुईं जैसे गधे के सर से सींग।
इतने बरस गुज़र चुके थे मगर अब ये कपड़ा जो हैवानों की खाल के मानिंद अकड़ा होता था, किसी औरत के बदन पर नज़र नहीं आता। ज़ाहिर है कि इसका बनाना या तो यकसर बंद कर दिया गया है या बहुत कम मिक़दार में तैयार किया जाता है।
मैं अब असल मौज़ू की तरफ़ आता हूँ। ज़्यादा अ’र्सा नहीं गुज़रा, हम-जिंसियत का बाज़ार पंजाब में हर जगह गर्म था। मर्दों की अक्सरीयत इस ग़ैर फ़ित्री फ़े’ल से शग़ल फ़रमाती थी और ऐसे लड़के ब इफ़रात मौजूद थे जिनकी अदाऐं देख कर नौख़ेज़ लड़कियां भी शर्माएं, उनकी चाल ढाल कुछ ऐसी क़ियामत ख़ेज़ होती थी कि तअ’य्युश पसंद मर्द अपनी औरतों को भूल जाते थे।
मैं उसी ज़माने का ज़िक्र कर रहा हूँ, जब लड़कियों के बदले उनकी मुख़ालिफ़ जिन्स का दौर दौरा था। मैं अपने मकान की बैठक में अपने एक हिंदू दोस्त के साथ ताश खेल रहा था कि बाहर शोर-ओ-गुल की आवाज़ें सुनाई दीं। ऐसा मालूम होता था कोई बहुत बड़ा हंगामा बरपा हो गया है।
अमृतसर में हंगामे होना उन दिनों मामूली बात थी। मैंने सोचा कि हिंदू-मुस्लिम फ़साद हो गया है लेकिन अपने इस अंदेशे का ज़िक्र हिंदू दोस्त से न किया जो मेरा हम-जमाअत था।
हम दोनों गली से बाहर निकले, देखा कि बाज़ार में सब दूकानें बंद हैं। बड़ी हैरत हुई कि माजरा क्या है? हम गली के बाहर खड़े थे कि इतने में शहर का एक बहुत बड़ा गुंडा आया, उसके हाथ में हाकी थी, ख़ून से लिथड़ी हुई थी। उसने मुझे सलाम किया, इसलिए कि वो मुझे पहचानता था कि मैं एक ज़ी-असर आदमी का बेटा हूँ। सलाम करने के बाद उसने मेरे दोस्त की तरफ़ देखा और मुझसे मुख़ातिब हुआ,
“मियां साहब, बाबूजी से कहिए कि यहां खड़े न रहें। आप उन्हें अपने मकान में ले जाएं।”
बाद में मालूम हुआ कि जो ख़ूनख़राबा हुआ, उसका बाइ’स मेरा दोस्त था। उसके कई तालिब थे, दो पार्टियां बन गई थीं जिनमें इस की वजह से लड़ाई हुई जिसमें कई आदमी ज़ख़्मी हुए। शहर का जो सबसे बड़ा गुंडा था, चौथे पाँचवें रोज़ उसे दूसरी पार्टी ने इस क़दर ज़ख़्मी कर दिया कि दस दिन उसे हस्पताल में रहना पड़ा जो उसकी गुंडागर्दी का सबसे बड़ा रिकार्ड था।
अह्ल-ए-लाहौर अच्छी तरह जानते होंगे कि यहां एक लड़का ‘टेनी सिंह’ के नाम से मंसूब था, जो गर्वनमेंट कॉलिज में पढ़ता था। उसके एक परस्तार ने उसे एक बहुत बड़ी मोटर कार दे रखी थी। वो उसमें बड़े ठाट से आता और दूसरे लड़के जो उसी के ज़ुमरे में आते थे, बहुत जलते, मगर लाहौर में उस वक़्त ‘टेनी सिंह’ का ही तूती बोलता था। मैंने उसको देखा, वाक़ई ख़ूबसूरत था।
अब ये हाल है कि कोई ‘टेनी सिंह’ नज़र नहीं आता। कॉलिजों में चले जाईए वहां आपको ऐसा कोई लड़का नज़र नहीं आएगा जिसमें निस्वानियत के ख़िलाफ़ कोई चैलेंज हो, इसलिए कि अब उनकी जगह लड़कियों ने ले ली है, क़ुदरत ने उनकी इफ़ना कर दी है।
- पुस्तक : بغیر اجازت
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