इन्सान की हैसियत का सबसे ज़्यादा असर ग़ालिबन उस के नाम पर पड़ता है, मंगरू ठाकुर जब से कांस्टेबल हो गए हैं,उनका नाम मंगल सिंह हो गया है। अब उन्हें कोई मंगरू कहने की जुरअत नहीं कर सकता। कल्लू अहीर ने जब से थानादार साहिब से दोस्ती की है और गांव का मुखिया हो गया है। उस का नाम कालका दीन हो गया है, अब कोई कल्लू कहे तो वो आँखें लाल पीली करता है इसी तरह हरख चंद को रुमी अब हरखू हो गया है, आज से बीस साल पहले उस के यहाँ शकर बनती थी, कई हल की खेती होती थी। कारोबार ख़ूब फैला हुआ था, लेकिन बिदेसी शकर की आमद ने उसे इतना नुक़्सान पहुँचाया कि रफ़्ता-रफ़्ता कारख़ाना टूट गया। हल टूट गए। कारोबार टूट गया। ज़मीन टूट गई और वो ख़ुद टूट गया। सत्तर (७०) बरस का बूढ़ा एक तकियेदार माचे पर बैठा हुआ नारीयल पिया करता था। अब सर पर टोकरी ले के खाद फेंकने जाता है।
लेकिन इसके अंदाज़ में अब भी एक ख़ुद्दारी, चेहरा पर अब भी मतानत, गुफ़्तगु में अब भी एक शान है। जिस पर गर्दिश-ए-अय्याम का असर नहीं पड़ा। रस्सी जल गई पर बल नहीं टूटा। अय्याम-ए-नेक इन्सान के अत्वार पर हमेशा के लिए अपनी मोहर छोड़ जाते हैं, हरखू के क़बज़ा में अब सिर्फ पाँच बीघा ज़मीन है सिर्फ दोबेल हैं, एक हल की खेती होती है। लेकिन पंजायतों में बाहमी नज़ाअ के फ़ैसलों में इस की रायें अब भी वक़्अत की निगाह से देखी जाती हैं, वो जो बात कहता है बे-लाग कहता है, इस गांव के नौ-बढ़िए उसके मुक़ाबले में ज़बान नहीं खोलते।
हरखू ने अपनी ज़िंदगी में कभी दवा नहीं खाई, वो बीमार ज़रूर पड़ता था। कंवार के महीना में जब मलेरीया बुख़ार का दौरा होता तो सबसे पहले उस का असर हरखू ही पर होता। लेकिन हफ़्ता-अशरा में वो बिला दवा खाए ही चंगा हो जाता था। अबकी भी वो हसब-ए-मामूल बीमार पड़ा और दवा ना खाई, लेकिन बुख़ार अबकी मौत का परवाना लेकर चला था। हफ़्ता गुज़रा। दो हफ़्ते गुज़रे। महीना गुज़र गयाऔर हरखू चारपाई से ना उठा। अब उसे दवा की ज़रूरत मालूम हुई। इस का लड़का गिरधारी भी नीम के सेंके पिलाता। कभी गिर्च का अर्क़। कभी गत बोरना की जड़। लेकिन उस को कुछ फ़ायदा ना होता था। एक दिन मंगल सिंह कांस्टेबल हरखू के पास बीमार-पुर्सी के लिए गए। ग़रीब टूटी खाट पर बैठा राम नाम जप रहा था। मंगल सिंह ने कहा, ''बाबा कोई दवा खाए बग़ैर बीमारी ना जाएगी। कौनैन क्यों नहीं खाते।''
हरखू ने तवकुल्लाना अंदाज़ से कहा, ''तो लेते आना।''
दूसरे दिन कालका देन ने जाकर कहा, ''बाबा दो-चार दिन कोई दवा खा लो, अब तुम्हारे बदन में वो बूता थोड़े ही है कि बिना दवा दर्पण के अच्छे हो जाओ।''
उनसे भी हरखू ने सायलाना अंदाज़ से कहा, ''तो लेते आना।''
लेकिन ये रस्मी इयादतें थीं हमदर्दी से ख़ाली, ना मंगल सिंह ने ख़बर ली, ना कालका देन ने। ना किसी दूसरे ने। हरखू अपने बरामदे पर खाट पर पड़ा मालूम नहीं किस ख़्याल में ग़र्क़ रहता। मंगल सिंह कभी नज़र आ जाते तो कहता, ''भय्या वह दवा नहीं लाए।'' मंगल सिंह कतरा कर निकल जाते। कालका देन दिखाई देते तो उन से भी यही सवाल करता। लेकिन वो भी नज़र बचा जाते, या तो उसे ये सूझता ही नहीं था कि दवा-दारू बग़ैर पैसों के नहीं आती। या वो पैसे को जान से भी सिवा अज़ीज़ समझता था। या उस का ये फ़लसफ़ा दवा-दारू में मानेअ था कि जब भोग पूरा हो जावेगा तो बीमारी ख़ुद ब-ख़ुद चली जाएगी। उसने कभी क़ीमत का ज़िक्र नहीं किया और दवा ना आई।
उस की हालत रद्दी होती गई। यहाँ तक कि पाँच महीना तक दुख झेलने के बाद वो ऐन होली के दिन इस दुनिया से रुख़्सत हो गया। गिरधारी ने लाश बड़ी धूम धाम से निकाली। क्रिया-करम बड़े हौसला से किया, कई गांव के ब्राह्मणों को भोज दिया सारे गांव ने मातम मनाया। होली ना मनाई गई। ना अबीर और गुलाल अड़ी, ना दफ़ की सदा बुलंद हुई, ना भंग के परनाले चले, कुछ लोग दिल में बुड्ढे को कोसते ज़रूर थे कि उसे आज ही मरना था, दो एक दिन बाद को मरता। लेकिन इतना बे-ग़ैरत कोई ना था कि ग़म में जश्न करता। वो शहर नहीं था जहाँ कोई किसी का शरीक नहीं होता। जहाँ हमसाया के नाला-ओ-ज़ारी की सदा हमारे कानों तक पहुँचती।
हरखू के खेत गाँव वालों की आँखों पर चढ़े हुए थे। पांचों बीघा ज़मीन, कुँवें क़रीब, ज़रख़ेज़, खाद पांस से लदी हुई, मेंड बांध से दरुस्त थी। इस में तीन तीन फ़सलें पैदा होती थीं, हरखू के मरने से उन पर चारों तरफ़ से युरुश होने लगी। गिरधारी क्रिया करम में मसरूफ़ था और गांव के मुतमव्विल काश्तकार लाला ओंकारनाथ को चैन ना लेने देते थे, नज़राना की बड़ी बड़ी रकमें पेश की जाती थीं, कोई साल भर का लगान पेशगी अदा करने को तैयार था, कोई नज़राना की दोगुनी रक़म का दस्तावेज़ लिखने को आमादा, लेकिन ओंकारनाथ इन सभों को लताइफ़ अल-हेयल से टालते रहते थे उनका ख़्याल था कि गिरधारी के बाप ने इन खेतों को बीस साल तक जोता है और उन पर गिरधारी का हक़ सबसे ज़्यादा है वो अगर दूसरों से कम नज़राना भी दे तो ये ज़मीन उसी के नाम रहनी चाहिये। चुनांचे जब गिरधारी क्रिया-करम से फ़ुर्सत पा चुका और चैत का महीना ख़त्म होने को आया तो ओंकारनाथ ने गिरधारी लाल को बुलवाया और इस से पूछा, ''खेतों के बारे में क्या कहते हो।''
गिरधारी ने रो कर कहा, ''हुज़ूर उन्हें खेतों ही का तो आसरा है, जोतूंगा ना तो क्या करूँगा।''
ओंकार नाथ, ''नहीं तो मैं तुमसे खेत निकालने को थोड़े ही कहता हूँ। हरखू ने बीस साल तक उन्हें जूता और कभी एक पैसा बाक़ी नहीं रखा। तुम उनके लड़के हो और तुम्हारा उस ज़मीन पर हक़ है, लेकिन तुम देखते हो अब ज़मीन का दर कितना बढ़ गया है, तुम आठ रुपया बीघा पर जोते थे। मुझे दस रुपया बीघा मिल रहे हैं और नज़राना के सौ रुपया अलग हैं तुम्हारे साथ रिआयत कर के लगान वही रखता हूँ लेकिन नज़राना के रुपया तुम्हें देने पड़ेंगे।''
गिरधारी, ''सरकार मेरे घर में तो उस वक़्त रोटियों का भी ठिकाना नहीं है। इतने रुपय कहाँ से लाऊँगा,जो कुछ जमा जत्था था, वो दादा के क्रियाकर्म में ख़र्च हो गई, अनाज खलिहान में है, लेकिन दादा के बीमार हो जाने से अब की रबी भी अच्छी नहीं हुई। मैं रुपया कहाँ से लाऊँ।''
ओंकारनाथ, ''हाँ ज़ीर-ए-बार तो तुम हो रहे हो तुमने क्रिया करम ख़ूब दिल खोल कर किया, लेकिन ये तो देखो कि मैं इतना नुक़्सान कैसे बर्दाश्त कर सकता हूँ। मैं तुम्हारे साथ दस रुपया साल की रिआयत कर रहा हूँ ये क्या कम है।''
गिरधारी, ''नहीं सरकार आप हमारी बड़ी परवरिश कर रहे हैं, तुमने सदा से हमारे ऊपर दया की है, लेकिन इतना नजराना मेरे लिए ना होगा। मैं आपका गरीब इस्लामी हूँ, देस में रहूँगा तो जन्म भर आपकी गुलामी करता रहूँगा,बैल बध्या बेच कर पच्चास रुपया हाजिर करूँगा। इस से बेशी की मेरी हिम्मत नहीं पड़ती, आपको नारायण ने बहुत कुछ दिया है, उतनी परवरिश कीजिए।''
ओंकारनाथ को गिरधारी का ये इनकार नागवार गुज़रा, वो अपनी दानिस्त में इस के साथ ज़रूरत से ज़्यादा रिआयत कर चुके थे, कोई दूसरा ज़मींदार इतनी रिआयत भी ना करता। बोले, “तुम समझते होगे कि ये रुपया लेकर हम अपने घर में रख लेते हैं और ख़ूब चैन की बंसी बजाते हैं। लेकिन हमारे ऊपर जो कुछ गुज़रती है वो हमीं जानते हैं, कहीं चंदा, कहीं नज़राना, कहीं इनाम, कहीं इकराम, उनके मारे हमारा कचूमर निकला जाता है, फिर डालियां अलैहदा देनी पड़ती हैं जिसे डाली ना दो वही मुँह फुलाता है। हफ़्तों इसी फ़िक्र में परेशान रहता हूँ, सुबह से शाम तक बंगलों का चक्कर लगाओ। खां-सामाओं और अर्वल्यों की ख़ुशामद करो, जिन चीज़ों के लिए लड़के तरस कर रह जाते हैं, वो मंगा मंगा के डालियों में लगाता हूँ, अगर नी करुं तो मुश्किल हो जाएगी, कभी क़ानून-गो आ गए, कभी तहसीलदार आ गए, कभी डिप्टी साहिब का लश्कर आ गया, उन सबकी मेहमानी ना करूँ तो निक्को बनूँ। साल में हज़ार बारह सौ रुपया इन्हीं बातों में ख़र्च हो जाते हैं, ये सब कहाँ से आए इस पर अपने घर का ख़र्च, बस यही जी चाहता है कि घर छोड़ के निकल जाऊं, ये ज़मीन क्या है जी का जंजाल है, सारी ज़िंदगी अम्लों की ख़ुशामद और ख़ातिरदारी में कटी जाती है। ये ना होती तो कहीं चला जाता! चार पैसे कमाता और बे-फ़िक्री की नींद सोता।
हम ज़मीनदारों को ग़रीबों का गला दबाने के लिए इश्वर ने अपना प्यादा बनाया है यही उनका काम है। इधर गला दबा के लेना, उधर रो रो के देना। लेकिन तुम लोग यही समझते हो कि सब हमारे ही घर में आता है। तुम्हारे साथ इतनी रिआयत कर रहा हूँ लेकिन तुम इतने पर भी ख़ुश नहीं होते तो भई तुम्हें इख़तियार है।
“नज़राना में एक पैसा की भी रिआयत ना होगी। चैत ख़त्म हो रहा है। अगर एक हफ़्ता के अंदर रुपया दाख़िल कर दोगे तो खेत जोतने पाओगे नहीं तो मैं कोई दूसरा बंद-ओ-बस्त करूँगा।''
गिरधारी उदास और मायूस घर आया। सौ रुपया का इंतिज़ाम उस के क़ाबू से बाहर था। सोचने लगा कि अगर दोनों बैल बेच दूं तो खेत ही लेकर क्या करूँगा। घर बेचूं तो यहाँ लेने वाला ही कौन है? और फिर बाप दादाओं का नाम जाता है, चार पाँच पेड़ हैं, लेकिन उन्हें बेच कर यहां पच्चीस तीस रुपया मिलेंगे, इस से ज़्यादा नहीं, क़र्ज़ माँगूँ तो देता ही कौन है, अभी ब्रहम भोज के आटे घी के पच्चास रुपया बनिए के आते हैं वो अब एक पैसा भी और ना देगा, उस के पास गहने भी तो नहीं हैं, नहीं वही बेच कर रुपया लाता। ले दे के एक हँसली बनवाई थी वो भी बनिए के घर पड़ी हुई है। साल भर बीत गए। छुड़ाने की नौबत ना आई। गिरधारी और इस की बीवी सुभागी दोनों ही इसी फ़िक्र में रात-दिन ग़लताँ-ओ-पेचाँ रहती हैं लेकिन कोई तदबीर नज़र ना आती थी।
गिरधारी को खाना पीना अच्छा ना लगता। रातों को नींद ना आती। हर-दम दिल पर एक बोझ सा रखा रहता। खेतों के निकलने का ख़्याल करते ही उस के जिगर में एक आग सी लग जाती थी। हाय वो ज़मीन जिसे हमने बीस बरस जोता। जिसे खाद से पाटा जिसमें मेढ़ें रखीं जिसकी मेंडें बनाईं उनका मज़ा अब दूसरा उठाएगा।
खेत उस की ज़िंदगी का जुज़ बन गए थे उस की एक एक उंगल ज़मीन उस के ख़ून-ए-जिगर से रंगी हुई थी। उस का एक एक ज़र्रा उस के पसीना से तर हो रहा था। उन के नाम उस की ज़बान पर इस तरह आते थे, जैसे अपने तीनों बच्चों के। कोई चौबीसो था। कोई बाइसो था।कोई नाले पर वाला। कोई तेलीया वाला। इन नामों के आते ही खेतों की तस्वीर उस की आँखों के सामने आ जाती थी। वो इन खेतों का इस तरह ज़िक्र करता था गोया वो ज़ी-रूह हैं। गोया वो जानदार हस्तियाँ हैं इस की हस्ती के सारे मंसूबे, सारे हवाई क़िला, सारी मन की मिठाईयां, सारी आरज़ूऐं सारे हौसले उन्हें खेतों से वाबस्ता थे। उन खेतों के बग़ैर वो अपनी ज़िंदगी का ख़्याल ही नहीं कर सकता था।वो अब हाथ से निकले जाते हैं। वो घर से एक हसरत-नाक वहशत के आलम में निकल जाता और घंटों खेतों की मेंढ़ पर बैठा हुआ रोया करता। गोया उनसे हमेशा के लिए रुख़स्त हो रहा है।
इस तरह एक पूरा हफ़्ता गुज़र गया और गिरधारी रुपया का कोई इंतिज़ाम ना कर सका। आठवीं दिन उसे मालूम हुआ कि कालका देन ने उन्हें सौ रुपया नज़राना देकर दस रुपया बीघा पर ले लिया है।
गिरधारी ने एक ठंडी सांस ली और उस की आँखें आब-गूँ हो गईं। एक लम्हा के बाद वो अपने दादा का नाम लेकर ज़ार-ज़ार रोने लगा। घर में एक कोहराम मच गया।
उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला। ऐसा मालूम होता था गोया हरखू आज मरा है। उस की मौत का सदमा आज हो रहा था।
लेकिन सुभागी यूं तक़दीर पर शाकिर होने वाली औरत ना थी। वो ख़ाना जंगियों में अक्सर ज़बान के तीर-ओ-तुफ़ंग से ग़ालिब आ जाया करती थी। उन अस्लहा की तासीर की वो क़ाइल थी। वो समझती थी कि हर एक मैदान में वो यकसाँ काट करते हैं। इस में वो मितानत नहीं थी जो ख़तरा को अपनी क़ुव्वत से बाहर देखकर तवक्कुल की पनाह लेती है वो ग़ुस्सा में भरी हुई कालका देन के घर गई और उस की बीवी को ख़ूब सलवातें सुनाईं, “कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले हैं। देखूँगी कौन मेरे खेत में हल ले जाता है। अपना और उस का लहू एक कर दो। रुपया का घमंड हुआ है तो मैं ये घमंड तोड़ दूंगी।''
पड़ोसियों ने इस की हिमायत की, ''सच्च तो है आपस में ये चढ़ा ऊपरी नहीं चाहिये। नारायण ने धन दिया है तो क्या गरीबों को कुचलते फिरेंगे।'' सुभागी ने समझा मैं ने मैदान मार लिया। लेकिन वही हुआ जो पानी में तलातुम पैदा करती है। दरख़्तों को जड़ से उखाड़ डालती है। सुभागी तो पड़ोसीयों के घर में बैठी हुई अपने दुखरे रोती और कालका देन की बीवी से छेड़ छेड़ कर लड़ती और गिरधारी अपने दरवाज़े पर उदास बैठा हुआ सोचता कि अब मेरा क्या हाल होगा?
अब ये ज़िंदगी कैसे पार लगेगी। ये लड़के किस दरवाज़ा पर जाऐंगे। मज़दूरी के ख़्याल ही से उस के दिल में एक दर्द उठने लगता था। मुद्दतों आज़ादाना बाइज़्ज़त ज़िंदगी बसर करने के बाद मज़दूरी उस की निगाह में मौत से बदतर थी। वो अब तक गृहस्त था। गांव में इस का शुमार भले आदमियों में होता था उसे गांव के मुआमलात में बोलने का हक़ हासिल था। इस के घर में दौलत ना हो लेकिन वक़ार था। नाई और बढ़ई और कहार और पुरोहित और चौकीदार सब के सब उस के इस नमक-ख़्वार थे। अब ये इज़्ज़त कहाँ, अब कौन उस की बात पूछेगा? कौन उस के दरवाज़े पर आएगा। अब उसे किसी के बराबर बैठने का किसी के बीच में बोलने का हक़ नहीं है अब उसे पेट के लिए दूसरों की गु़लामी करने वाला मज़दूर बनना पड़ेगा। अब फिर रात रहे कौन बैलों को नाँदें लगायेगा। कौन उनके लिए छांटा कटायेगा? वो दिन अब कहाँ जब गीत गा-गा कर हल जोतता था। चोटी से पसीना एड़ी तक आता था। लेकिन ज़रा भी थकन ना मालूम होती थी। अपने लहलहाते हुए खेतों को देखकर फूला ना समाता था। खलियान में अनाज के अंबार सामने रखे हुए वो संसार का राजा मालूम होता था। अब खलियान से अनाज के टोकरे भर भर कर कौन लाएगा। अब खाने कहाँ, बुखार कहाँ, अब ये दरवाज़ा सूना हो जाएगा। यहां गर्द उड़ेगी और कुत्ते लोटेंगे दरवाज़े पर, बैलों की प्यारी प्यारी सूरत देखने को आँखें तरस जाएँगी। उनको आर्ज़ू-मंद आँखें कहाँ देखने को मिलेंगी दरवाज़े की सोभा ना रहेगी।
इस हसरतनाक ख़्याल के आते हैं गिरधारी की आँखों से आँसू बहने लगते थे। उसने दूसरों के घर आना जाना छोड़ दिया। बस हसरत और मलाल में मह्व बैठा रहता। गांव के दो-चार आदमी जो कालका देन से हसद रखते थे उस के साथ हमदर्दी करने आते पर वो उनसे भी खुल कर ना बोलता। उसे ऐसा मालूम होता था गोया मैं सबकी निगाहों में गिर गया हूँ। अगर कोई उसे समझाता कि तुमने क्रिया-क्रम में नाहक़ इतने रुपया उड़ा दिए तो उसे बहुत नागवार गुज़रता था। वो अपनी इस हरकत पर ज़रा भी ना पछताता था। कहता मेरे भाग में जो कुछ लिखा है वो होगा लेकिन दादा के रन से तो अरुण हो गया। उनकी आत्मा को तो कोई दुख नहीं हुआ। उन्होंने अपनी ज़िंदगी में तो चार को खिला कर खाया। क्या मरने के बाद में उन्हें पिंडे पानी को तरसाता।
इसी तरह तीन महीना गुज़र गए और असाढ़ आ पहुँचा। आसमान में घटाऐं आईं। पानी गिरा। ज़मीन में हरियाली आ गई। ताल और गड्ढे लहराने लगे। बढ़ई सब किसानों के दरवाज़े पर आ आकर हलों की मरम्मत करता था। जोय बनाता था। गिरधारी दिल में मसूस कर रह जाता। पागलों की तरह कभी अंदर जाता। कभी बाहर। अपने हलों को निकाल निकाल कर देखता उस की मुठिया टूट गई है। इस की पहार ढीली हो गई है। जोय में सेल नहीं है। ये देखते देखते वो एक लम्हा के लिए अपने को भूल गया। दौड़ा हुआ बढ़ई के पास गया और बोला रज्जो! मेरे हल भी बिगड़े हुए हैं आज उन्हें बना देना। रज्जो ने उस की तरफ़ रहम और ताज्जुब की निगाह से देखा और अपना काम करने लगा। गिरधारी को भी होश हो गया। नींद से चौंक पड़ा शर्म से उस का सर झुक गया। आँखें भर आईं चुप-चाप घर चला आया। गांव में चारों तरफ़ हलचल मची हुई थी। कोई सन के बीज ढूँढता फिरता था कोई ज़मींदार के चौपाल से धान के बीच लिए आता था। कहीं सलाह होती थी कि खेत में क्या बोना चाहिये। कहीं चर्चे होते थे कि पानी बहुत बरस गया। दो-चार दिन ठहर के बोना चाहिये। गिरधारी सारे तमाशे देखता था। सारे चर्चे सुनता था और माही-ए-बे-आब की तरह तड़प-तड़प कर रह जाता था।
एक दिन शाम के वक़्त गिरधारी खड़ा अपने बैलों को खुजा रहा था। आज कल उस का बहुत सा वक़्त बैलों ही की दाशत में सर्फ़ होता था कि मंगल सिंह आए और इधर उधर की बातें कर के बोले, ''अब गो इनको बांध कर कब तक खिलाओगे। निकाल क्यों नहीं देते।'' गिरधारी ने अफ़्सुर्दगी के साथ कहा, ''हाँ कोई गाहक आ जाए तो निकाल दूँगा।''
मंगल सिंह, ''हमीं को दे दो।''
गिरधारी ने आसमान की तरफ़ ताक कर कहा, ''तुम्हीं ले जाओ अब ये मेरे किस काम के हैं।''
इन अलफ़ाज़ में कितनी मायूसी, कितनी हसरत थी अब तक गिरधारी ने एक मौहूम उम्मीद पर किसी ग़ैबी इमदाद के भरोसे पर उन्हें बांध कर खिलाया था। आज उम्मीद का वो ख़्याली तार भी टूट गया। मोल-जोल हुआ। गिरधारी ने दोनों बछड़े चालीस रुपया में लिए थे। अब वो अस्सी से कम के ना थे। मंगल सिंह ने सिर्फ़ पचास रुपया लगाए लेकिन गिरधारी इस पर राज़ी हो गया। इस के दिल ने कहा जब गृहस्ती ही लुट रही है। तो क्या दस ज़्यादा क्या दस कम। मंगल सिंह ने मुँह-माँगी मुराद पाई दौड़ कर घर से रुपया लाए।
वो गिरधारी के खाट पर बैठे हुए रुपया गिन रहे थे और गिरधारी बैलों के पास खड़ा दर्दनाक अंदाज़ से उन के मुँह की तरफ़ ताकता था। ये मेरे खेतों के कमाने वाले, मेरा मान रखने वाले, मेरे अन्न-दाता, मेरी ज़िंदगी के उधार, जिनके दाने और खली की अपने खाने से ज़्यादा फ़िक्र रहती थी। जिनके लिए घड़ी रात रहे जाग कर चारा काटता था, जिनके लिए बच्चे खेतों की हरियाली काटते थे, ये मेरी उम्मीदों की दो आँखें, मेरी आरिज़ों के दो तारे, मेरे अच्छे दिनों की दो यादगारें, ये मेरे दो हाथ अब मुझ से रुख़्सत हो रहे हैं और मुट्ठी भर रुपयों के लिए।
आख़िर मंगल सिंह ने रुपया गिन कर रख दिए और बैलों को खोल कर ले चले तो गिरधारी उनके कंधों पर बारी बारी सर रख कर ख़ूब फूट फूट कर रोया। जैसे मैके से बिदा होते वक़्त लड़की माँ बाप के पैरों को नहीं छोड़ती। इसी तरह गिरधारी इन बैलों से चिमटा हुआ था जैसे कोई डूबता हुआ आदमी किसी सहारे को पाकर उस से चिमट जाये। सुभागी भी दालान में खड़ी रोती थी और छोटा लड़का जिसकी उम्र पाँच साल की थी मंगल सिंह को एक बाँस की छड़ी से मार रहा था।
रात को गिरधारी ने कुछ नहीं खाया और चारपाई पर पड़ रहा। लेकिन सुबह को इस का कहीं पता नहीं था। उधर महीनों से वो किसी के घर ना जाता था। सुभागी को अंदेशा हुआ, ताहम वो उम्मीद के ख़िलाफ़-ए-उम्मीद करती रही कि आते होंगे। लेकिन जब आठ नौ बजे और वह ना लौटा तो उसने रोना धोना शुरु किया।
गांव के बहुत से आदमी जमा हो गए। चारों तरफ़ खोज होने लगी। लेकिन गिरधारी का पता ना चला। लेकिन अभी तक आस में कुछ जान थी। इसलिए चूड़ियां ना तोड़ीं मातम ना किया। शाम हो गई थी अंधेरा छा रहा था। सुभागी ने दिया लाकर गिरधारी की चारपाई के सिरहाने रख दिया था और बैठी दरवाज़े की तरफ़ ताक रही थी। गोद की लड़की सो रही थी और छोटा लड़का ज़िद कर रहा था कि दादा को बुला दे वो कहाँ गया है क्यों नहीं आता? कि यकायक सुभागी को पैरों की हिट मालूम हुई। सुभागी के कलेजा में मुसर्रत का धमाका हुआ दरवाज़े की तरफ़ दौड़ी। लेकिन चारपाई ख़ाली थी। उसने बाहर निकल कर झाँका। उस का कलेजा धक धक करता था। उसने देखा कि गिरधारी बैलों की नाँद के पास चुप-चाप सर झुकाए खड़ा रो रहा है। सुभागी बोल उठी, ''घर में आओ वहाँ खड़े क्या कर रहे हो। सारे दिन हैरान कर डाला।'' ये कहती हुई वो गिरधारी की तरफ़ तेज़ी से चली, गिरधारी ने कुछ जवाब ना दिया वो पीछे हटने लगा और थोड़ी दूर जाकर ग़ायब हो गया। सुभागी ने एक चीख़ मारी और ग़श खाकर गिर पड़ी।
उसी दिन नूर के तड़के कालका देन महतो हल लेकर अपने एक नए खेत में पहूंचे। अभी कुछ अंधेरा था। वो बैलों को हल में लगा रहे कि यकायक उन्होंने देखा कि खेत की मेंड पर गिरधारी खड़ा है। वही मिरज़ाई, वही पगड़ी वो सर झुकाए हुए था। कालका देन ने कहा, ''अरे गिरधारी मर्द आदमी तुम यहाँ खड़े हो और बेचारी सुभागी हैरान हो रही है, कहाँ से आ रहे हो।'' ये कहता हुआ वो बैलों को छोड़कर गिरधारी की तरफ़ चला,मगर गिरधारी पीछे हटने लगा और जाते जाते पीछे की तरफ़ वाले कुवें में कूद पड़ा। कालका देन ने चीख़ मारी। हल-वल वहीं छोड़कर बे-तहाशा घर की तरफ़ भागे।
लेकिन इन्होंने अपने हलवाहों से ये राज़ ना बतलाया। दूसरे दिन अपने एक झींगुर हलवाहे को उस खेत में भेजा। शाम हो गई सब के हल बैल आ गए लेकिन झींगुर खेत से ना लौटा। घड़ी रात हुई। उस का कहीं पता नहीं। कालका देन घबराए गांव के दो तीन आदमियों के साथ खेत में आए। देखा कि दोनों बैल एक तरफ़ गिरे हुए हैं और झींगुर दूसरी तरफ़ बे-सुध पड़ा हुआ है उसे बहुत सहलाया बुलाया। लेकिन उसे होश ना आया। दो तीन आदमी उसे लाद कर घर लाए। बैलों को देखा तो उनके पैरों से ख़ूँ निकल रहा था। लोग समझ गए कि जब झींगुर गिर पड़ा होगा तो दोनों बैल आपस में खींचा-तानी करने लगे होंगे हल में जुते थे ही। फाल पैरों में लग गई होगी। झींगुर, रात-भर हिज़यान बकता रहा। सुबह को जाकर उसे होश आया। उसने कहा मैंने पूरब वाले कुवें पास गिरधारी को खड़े देखा। कई बार बुलाया लेकिन वो ना बोला तब मैं उस की तरफ़ चला। बस वो उस कुवें में कूद पड़ा फिर मुझे होश नहीं कि क्या हुआ। सारे गांव में मशहूर हो गया। तरह तरह के चर्चे होने लगे। लेकिन उस दिन से फिर कालका देन को उन खेतों के क़रीब जाने की हिम्मत ना पड़ी। शाम होते ही उधर का रास्ता बंद हो जाता।
इस वाक़िया को आज छः माह हो गए हैं। गिरधारी का बड़ा लड़का अब ईंट के भट्टे पर काम करता है और रोज़ाना दस बारह आने घर लाता है। वो अब क़मीज़ और अंग्रेज़ी जूता पहनता है। घर में तरकारी दोनों वक़्त पकती है और जवार की जगह गेहूँ और चावल ख़र्च होता है लेकिन गाँव में अब उसका कुछ वक़ार नहीं है वो मजूरा है।
सुभागी की तेज़ी और तमकेनत रुख़्सत हो गई है। आग आफ़त की चिंगारी राख हो गई है अब वो किसी को जिला नहीं सकती। उसे हवा का एक हल्का सा झोंका मुंतशिर कर सकता है। पराय गांव में आई हुई वो कुत्ते की तरह दुबकी पड़ी है। वो अब पंचायतों में नज़र नहीं आती। अब ना उस का दरबार लगता है ना उसे किसी दर-ए-यार में दख़ल है। वो अब मजबूरी की मान है। लेकिन अब तक गिरधारी का क्रिया-क्रम नहीं हुआ। आस मर गई है लेकिन उस की याद बाक़ी है। कालका देन ने अब गिरधारी के खेतों से इस्तीफ़ा दे दिया है क्योंकि गिरधारी की रूह अभी तक अपने खेतों के चारों तरफ़ मंडलाती रहती है। वो किसी को नुक़्सान नहीं पहुँचाती। अपने खेतों को देखकर उसे तसकीन होती है। ओंकार नाथ बहुत कोशिश करते हैं कि ज़मीन उठ जाये। लेकिन गांव के लोग अब उस की तरफ़ ताकते हुए डरते हैं।
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