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आनंदी

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    ‘समाज में जिस चीज़ की माँग होती है वही बिकती है।’ बल्दिया के पाकबाज़ लोग शहर को बुराइयों और बदनामियों से बचाने के लिए वहाँ के ज़नाना बाज़ार को शहर से हटाने की मुहिम चलाते हैं। वह इस मुहिम में कामयाब भी होते हैं और उस बाज़ार को शहर से छ: मील दूर एक खंडहर में आबाद करने का फैसला करते है। अब बाज़ारी औरतों के वहाँ घर बनवाने और आबाद होने तक उस खंडहर में ऐसी चहल-पहल रहती है कि वह अच्छा-ख़ासा गाँव बन जाता है। कुछ साल बाद वह गाँव क़स्बा और क़स्बे से शहर में तब्दील हो जाता है। यही शहर आगे जाकर आनंदी के नाम से जाना जाता है।

    बलदिया का इजलास ज़ोरों पर था। हाल खचाखच भरा हुआ था और खिलाफ़-ए-मा’मूल एक मेम्बर भी ग़ैर-हाज़िर था। बलदिया के ज़ेर-ए-बहस मस्अला ये था कि ज़नान-बाज़ारी को शह्​र बदर कर दिया जाए क्योंकि उनका वुजूद इन्सानियत, शराफ़त और तहज़ीब के दामन पर बदनुमा दाग़ है।

    बलदिया के एक भारी भरकम रुक्न जो मुल्क-ओ-क़ौम के सच्चे ख़ैर-ख़्वाह और दर्द-मंद समझे जाते थे निहायत फ़साहत से तक़रीर कर रहे थे।

    “और फिर हज़रात आप ये भी ख़याल फ़रमाइए कि उनका क़याम शह्​र के एक ऐसे हिस्से में है जो सिर्फ़ शह्​र के बीचों बीच आम गुज़र-गाह है बल्कि शह्​र का सबसे बड़ा तिजारती मर्कज़ भी है चुनाँचे हर शरीफ़ आदमी को चार-ओ-ना-चार इस बाज़ार से गुज़रना पड़ता है। अलावा अज़ीं शुरफ़ा की पाक दामन बहू बेटियाँ इस बाज़ार की तिजारती अहमियत की वज्ह से यहाँ आने और ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त करने पर मजबूर हैं। साहिबान! ये शरीफ़ ज़ादियाँ इन आबरू बाख़्ता, नीम उरियाँ बेस्वाओं के बनाव सिंगार को देखती हैं तो क़ुदरती तौर पर उनके दिल में भी आराइश-ओ-दिलरुबाई की नई-नई उमंगें और वलवले पैदा होते हैं और वो अपने ग़रीब शौहरों से तरह-तरह के गाज़ों, लेवेनडरों, ज़र्क़-बर्क़ साड़ियों और क़ीमती ज़ेवरों की फरमाइशें करने लगती हैं। नतीजा ये होता है कि उनका पुर-मसर्रत घर, उनका राहत-कदा हमेशा के लिए जहन्नम का नमूना बन जाता है।”

    “और साहिबान फिर आप ये भी तो ख़याल फ़रमाइए कि हमारे नौ-निहालान-ए-क़ौम जो दर्सगाहों में ता’लीम पा रहे हैं और उनकी आइन्दा तरक़्क़ियों से क़ौम की उम्मीदें वाबस्ता हैं और क़यास कहता है कि एक एक दिन क़ौम की कश्ती को भंवर से निकालने का सहरा उन्ही के सर बंधेगा, उन्हें भी सुब्ह शाम इसी बाज़ार से होकर आना-जाना पड़ता है। ये क़हबाएँ हर वक़्त बारा उभरन सोलह सिंगार किए राह-रौ पर बे-हिजाबाना निगाह-ओ-मिज़ह के तीर-ओ-सिनाँ बरसाती और उसे दावत-ए-हुस्न देती हैं। क्या इन्हें देख कर हमारे भोले-भाले ना-तजुर्बेकार जवानी के नशे में मह्व, सूद-ओ-ज़ियाँ से बे-परवाह नौ-निहालान-ए-क़ौम अपने जज़्बात-ओ-ख़यालात और अपनी आला सीरत को मा’सियत के मस्मूम असरात से महफ़ूज़ रख सकते हैं? साहिबान! क्या उनका हुस्न ज़ाहिद फ़रेब हमारे नौ-निहालान-ए-क़ौम को जादा-ए-मुस्तक़ीम से भटका कर, उनके दिल में गुनाह की पुर-असरार लज़्ज़तों की तिश्नगी पैदा करके एक बेकली, एक इज़्तिराब, एक हैजान बरपा कर देता होगा।”

    इस मौक़े पर एक रुक्न-ए-बलदिया जो किसी ज़माने में मुदर्रिस रह चुके थे और आदाद-ओ-शुमार से ख़ास शग़फ़ रखते थे बोल उठे,

    “साहिबान, वाज़ेह रहे कि इम्तिहानों में नाकाम रहने वाले तलबा का तनासुब पिछले पाँच साल की निस्बत ड्योढा हो गया है।”

    एक रुक्न ने जो चश्मा लगाए थे और हफ़्तावार अख़बार के मुदीर-ए-ए’ज़ाज़ी थे, तक़रीर करते हुए कहा, “हज़रात हमारे शह्​र से रोज़ ब-रोज़ ग़ैरत, शराफ़त, मर्दानगी, नेको-कारी-ओ-परहेज़गारी उठती जा रही है और इसकी बजाए बे-ग़ैरती, ना-मर्दी, बुज़दिली, बदमाशी, चोरी और जालसाज़ी का दौर-दौरा होता जा रहा है। मुनश्शियात का इस्ते’माल बढ़ गया है। क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी, ख़ुदकशी और दीवालिया निकलने की वारदातें बढ़ती जा रही हैं। इसका सबब महज़ उन ज़नान-ए-बाज़ारी का नापाक वुजूद है क्यों कि हमारे भोले-भाले शह्​री उनकी ज़ुल्फ़-ए-गिरहगीर के असीर हो कर होश-ओ-ख़िरद खो बैठते हैं और उनकी बारगाह तक रसाई की ज़्यादा से ज़्यादा क़ीमत अदा करने के लिए हर जायज़-ओ-ना-जायज़ तरीक़े से ज़र हासिल करते हैं। बा’ज़ औक़ात वो इस सई-ओ-कोशिश में जामा-ए-इन्सानियत से बाहर हो जाते हैं और क़बीह अफ़आल का इर्तिकाब कर बैठते हैं, नतीजा ये होता है कि वो जान-ए-अज़ीज़ी से हाथ धो बैठते हैं या जेल ख़ानों में पड़े सड़ते हैं।”

    एक पेंशन याफ़्ता मुअ’म्मर रुक्न जो एक वसीअ ख़ानदान के सर-परस्त थे और दुनिया का सर्द-ओ-गर्म देख चुके थे और अब कशमकश-ए-हयात से थक कर बाक़ी माँदा उ’म्‍र सुस्ताने और अपने अह्ल-ओ-अयाल को अपने साए में पनपता हुआ देखने के मुतमन्नी थे, तक़रीर करने उठे... उनकी आवाज़ लरज़ती हुई थी और लहजा फ़र्याद का अन्दाज़ लिए हुए था। बोले, साहिबान रात-रात भर उन लोगों के तबले की थाप, उनकी गले बाज़ियाँ, उनके उ’श्शाक़ की धींगा मुश्ती, गाली गलोच, शोर-ओ-गुल हा हा हा हो हो हो, सुन-सुन कर आस-पास के रहने वाले शुरफ़ा के कान पक गए हैं।

    रात की नींद हराम है तो दिन का चैन मफ़क़ूद। अलावा अज़ीं उनके क़ुर्ब से हमारी बहू बेटियों के अख़लाक़ पर जो असर पड़ता है इसका अन्दाज़ा हर साहिब-ए-औलाद ख़ुद कर सकता है। आख़िरी फ़िक़रा कहते-कहते उनकी आवाज़ भर्रा गई और वो इससे ज़्यादा कुछ कह सके। सब अराकीन-ए-बलदिया को उनसे हमदर्दी थी क्यों कि बद-क़िस्मती से उनका मकान उस बाज़ार-ए-हुस्न के ऐन वस्त में वाक़े था। उनके बा’द एक रुक्न-ए-बलदिया ने जो पुरानी तहज़ीब के अलम-बरदार थे और आसार-ए-क़दीमा को औलाद से ज़ियादा अज़ीज़ रखते थे तक़रीर करते हुए कहा...

    “हज़रात! बाहर से जो सय्याह और हमारे अहबाब इस मश्हूर और तारीख़ी शह्​र को देखने आते हैं जब वो उस बाज़ार से गुज़रते हैं और उसके मुतअ’ल्लिक़ इस्तिफ़सार करते हैं तो यक़ीन कीजिए कि हम पर घड़ों पानी पड़ जाता है।”

    अब सद्र-ए-बलदिया तक़रीर करने उठे। गो क़द ठिगना और हाथ-पाँव छोटे-छोटे थे मगर सर बड़ा था। जिसकी वज्ह से बुर्द-बार आदमी मा’लूम होते थे। लहजे में हद दर्जा मतानत थी, बोले, “हज़रात! मैं इस अम्‍र में क़तई तौर पर आप से मुत्तफ़िक़ हूँ कि इस तबक़े का वुजूद हमारे शह्​र और हमारे तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के लिए बाइस-ए-सद-आ’र है लेकिन मुश्किल ये है कि इसका तदारुक किस तरह किया जाए। अगर उन लोगों को मजबूर किया जाए कि ये अपना ज़लील पेशा छोड़ दें तो सवाल पैदा होता है कि ये लोग खाएँगे कहाँ से?” एक साहब बोल उठे, “ए औरतें शादी क्यों नहीं कर लेतीं?” इस पर एक तवील फ़रमाइशी क़हक़हा पड़ा और हाल की मातमी फ़िज़ा में यकबारगी शगुफ़्तगी के आसार पैदा हो गए। जब इजलास में ख़ामोशी हुई तो साहिब-ए-सद्र बोले, “हज़रात ये तजवीज़ बारहा उन लोगों के सामने पेश की जा चुकी है। इसका उनकी तरफ़ से ये जवाब दिया जाता है कि आसूदा और इज़्ज़तदार लोग ख़ानदानी हुर्मत-ओ-नामूस के ख़याल से उन्हें अपने घरों में घुसने देंगे और मुफ़लिस और अदना तबक़े के लोगों को जो महज़ उनकी दौलत के लिए उनसे शादी करने पर आमादा होंगे, ये औरतें ख़ुद मुंह नहीं लगाएँगी।”

    इस पर एक साहब बोले, “बलदिया को उनके निजी मुआ’मलों में पड़ने की ज़रूरत नहीं। बलदिया के सामने तो ये मस्अला है कि ये लोग चाहे जहन्नम में जाएँ मगर इस शह्​र को ख़ाली कर दें।” सद्र ने कहा, “साहिबान ये भी आसान काम नहीं है। उनकी तादाद दस-बीस नहीं सैंकड़ों तक पहुँचती है और फिर उनमें से बहुत सी औरतों के ज़ाती मकानात हैं।”

    ये मस्अला कोई महीने भर तक बलदिया के ज़ेर-ए-बहस रहा और बिल-आख़िर तमाम अराकीन की इत्तिफ़ाक़-ए-राय ये अम्र क़रार पाया कि ज़नान-ए-बाज़ारी के ममलूका मकानों को ख़रीद लेना चाहिए और उन्हें रहने के लिए शह्​र से काफ़ी दूर कोई अलग-थलग इलाक़ा दे देना चाहिए। उन औरतों ने बलदिया के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सख़्त एहतिजाज किया। बा’ज़ ने ना-फ़रमानी कर के भारी जुर्माने और क़ैदें भुगतीं मगर बलदिया की मर्ज़ी के आगे उनकी कोई पेश चल सकी और चार-ओ-नाचार सब्‍र कर के रह गईं।

    इसके बा’द एक अर्से तक इन ज़नान-ए-बाज़ारी के ममलूका मकानों की फ़हरिस्तें और नक़्शे तैयार होते रहे और मकानों के गाहक पैदा किए जाते रहे। बेशतर मकानों को ब-ज़रिया-ए-नीलाम फ़रोख़्त करने का फ़ैसला किया गया। उन औरतों को छःमहीने तक शह्​र में अपने पुराने ही मकानों में रहने की इजाज़त दे दी गई ताकि इस अर्से में वो नए इलाक़े में मकान वग़ैरह बनवा सकें।

    उन औरतों के लिए जो इलाक़ा मुंतख़ब किया गया वो शह्​र से छः कोस दूर था। पाँच कोस तक पक्की सड़क जाती थी और इससे आगे कोस भर का कच्चा रास्ता था। किसी ज़माने में वहाँ कोई बस्ती होगी मगर अब तो खंडरों के सिवा कुछ रहा था। जिनमें साँपों और चमगादड़ों के मस्कन थे और दिन दहाड़े उल्लू बोलता था। उस इलाक़े के नवाह में कच्चे घरौंदों वाले कई छोटे-छोटे गाँव थे। मगर किसी का फ़ासला भी यहाँ से दो-ढाई मील से कम था। उन गाँव के बसने वाले किसान दिन के वक़्त खेती बाड़ी करते, या यूँ ही फिरते-फ़िराते उधर निकल आते वर्ना आम तौर पर उस शह्​र-ए-ख़मोशाँ में आदमज़ाद की सूरत नज़र आती थी। बा’ज़ औक़ात रोज़-ए-रौशन ही में गीदड़ उस इलाक़े में फिरते देखे गए थे।

    पाँच सौ से कुछ ऊपर बेस्वाओं में से सिर्फ़ चौदह ऐसी थीं जो अपने उश्शाक़ की वा-बस्तगी या ख़ुद अपनी दिल-बस्तगी या किसी और वज्ह से शह्​र के क़रीब आज़ादाना रहने पर मजबूर थीं और अपने दौलतमंद चाहने वालों की मुस्तक़िल माली सरपरस्ती के भरोसे बा-दिल-ए-ना-ख़्वास्ता उस इलाक़े में रहने पर आमादा हो गई थीं वर्ना बाक़ी औरतों ने सोच रखा था कि वो या तो इसी शह्​र के होटलों को अपना मस्कन बनाएँगी या ब-ज़ाहिर पारसाई का जामा पहन कर शह्​र के शरीफ़ महलों की कोनों-ख़ुदरों में जा छुपेंगी या फिर इस शह्​र को छोड़कर कहीं और निकल जाएँगी।

    चौदह बेस्वाएँ अच्छी ख़ासी मालदार थीं। उस पर शह्​र में उनके जो ममलूका मकान थे, उनके दाम उन्हें अच्छे वसूल हो गए थे और उस इलाक़े में ज़मीन की क़ीमत बराए नाम थी और सब से बढ़ कर ये कि उनके मिलने वाले दिल-ओ-जान से उनकी माली इमदाद करने के लिए तैयार थे। चुनाँचे उन्होंने उस इलाक़े में जी खोल कर बड़े-बड़े आलीशान मकान बनवाने की ठानी। एक ऊँची और हमवार जगह जो टूटी-फूटी क़ब्‍रों से हट कर थी, “मुंतख़ब की गई। ज़मीन के कत्बे साफ़ करवाए और चाबुक-दस्त नक़्शा-नवीसों से मकान के नक़्शे बनवाए गए और चन्द ही रोज़ में ता’मीर का काम शुरू’’ हो गया। दिन भर ईंट, मिट्टी, चूना, शहतीर, गार्डर और दूसरा इमारती सामान गाड़ियों, छकड़ों, खच्चरों, गधों और इन्सानों पर लद कर इस बस्ती में आता और मुंशी साहब हिसाब-किताब की कापियाँ बग़लों में दबाए उन्हें गिनवाते और कापियों में दर्ज करते... मीर साहब मे’मारों को काम के मुतअ’ल्लिक़ हिदायात देते। मे’मार मज़दूरों को डाँटते-डपटते मज़दूर इधर-उधर दौड़ते फिरते।

    मज़दूरनियों को चिल्ला-चिल्ला कर पुकारते और अपने साथ काम करने के लिए बुलाते। ग़रज़ सारा दिन एक शोर एक हंगामा रहता। और सारा दिन आस-पास के गाँव के देहाती अपने खेतों में और दिहातनें अपने घरों में हवा के झोंकों के साथ दूर से आती हुई खट-खट की धीमी आवाज़ें सुनती रहतीं।

    इस बस्ती के खंडरों में एक जगह मस्जिद के आसार थे और उसके पास ही एक कुँआँ था जो बंद पड़ा था। राज मज़दूरों ने कुछ तो पानी हासिल करने और बैठ कर सुस्ताने की ग़रज़ से और कुछ सवाब कमाने और अपने नमाज़ी भाइयों की इबादत-गुज़ारी के ख़याल से सबसे पहले उसकी मरम्मत की चूँकि ये फ़ायदा-बख़्श और सवाब का काम था, इसलिए किसी ने कुछ एतराज़ किया चुनाँचे दो-तीन रोज़ में मस्जिद तैयार हो गई।

    दिन को बारह बजे जैसे ही खाना खाने की छुट्टी हुई दो-ढाई सौ राज मज़दूर, मीर-ए-इमारत, मुंशी और उन बेस्वाओं के रिश्तेदार या कारिंदे जो ता’मीर की निगरानी पर मा’मूर थे, इस मस्जिद के आस-पास जमा हो जाते और अच्छा ख़ासा मेला सा लग जाता।

    एक दिन एक देहाती बुढ़िया जो पास के किसी गाँव में रहती थी, इस बस्ती की ख़बर सुन कर गई। उसके साथ एक ख़ुर्द साल लड़का था। दोनों ने मस्जिद के क़रीब एक दरख़्त के नीचे घटिया सिगरेट, बीड़ी, चने और गुड़ की बनी हुई मिठाईयों का ख़्वाँचा लगा दिया। बुढ़िया को आए अभी दो दिन भी गुज़रे थे कि एक बूढ़ा किसान कहीं से एक मटका उठा लाया और कुंएँ के पास ईंटों का एक छोटा सा चबूतरा बना पैसे के दो-दो शकर के शर्बत के गिलास बेचने लगा। एक कुंजड़े को जो ख़बर हुई वो एक टोकरे में ख़रबूज़े भर कर ले आया और ख़्वाँचा वाली बुढ़िया के पास बैठ कर, “ले लो ख़रबूज़े, शहद से मीठे ख़रबूज़े!” की सदा लगाने लगा। एक शख़्स ने क्या किया, घर से सिरी-पाए पका, देगची में रख, ख़्वाँचे में लगा, थोड़ी सी रोटियाँ, मिट्टी के दो तीन प्याले और टीन का एक गिलास ले मौजूद हुआ और इसी बस्ती के कारकुनों को जंगल में घर की हंडिया का मज़ा चखाने लगा।

    ज़ुह्​र और अ’स्‍र के वक़्त, मीर-ए-इमारत, मुंशी, मे’मार और दूसरे लोग मज़दूरों से कुएँ से पानी निकलवा-निकलवा कर वुज़ू करते नज़र आते। एक शख़्स मस्जिद में जा कर अज़ान देता, फिर एक को इमाम बना दिया जाता और दूसरे लोग उसके पीछे खड़े होकर नमाज़ पढ़ते। किसी गाँव में एक मुल्ला के कान में जो ये भनक पड़ी कि फ़लाँ मस्जिद में इमाम की ज़रूरत है वो दूसरे ही दिन

    अलस्सुबह एक सब्ज़ जुज़दान में क़ुरआन शरीफ़, पंज-सूरह,

    रेहल और मसले मसाइल के चन्द छोटे-छोटे रिसाले रख मौजूद हुआ और उस मस्जिद की इमामत बा-क़ायदा तौर पर उसे सौंप दी गई।

    हर रोज़ तीसरे पहर गाँव का एक कबाबी सर पर अपने सामान का टोकरा उठाए जाता और ख़्वाँचा वाली बुढ़िया के पास ज़मीन पर चूल्हा बना, कबाब, कलेजी, दिल और गुर्दे सीखों पर चढ़ा, बस्ती वालों के हाथ बेचता। एक भटयारी ने जो ये हाल देखा तो अपने मियाँ को साथ लेकर मस्जिद के सामने मैदान में धूप से बचने के लिए फूंस का एक छप्पर डाल कर तन्नूर गर्म करने लगी। कभी-कभी एक नौजवान देहाती नाई, फटी पुरानी कस्बत गले में डाले जूतों की ठोकरों से रास्ता रोड़ों को लुढ़काता इधर-उधर गश्त करता देखने में जाता।

    उन बेस्वाओं के मकानों की ता’मीर की निगरानी उनके रिश्तेदार या कारिंदे तो करते ही थे, किसी-किसी दिन वो दोपहर के खाने से फ़ारिग़ हो कर अपने उश्शाक़ के हमराह ख़ुद भी अपने-अपने मकानों को बनता देखने जातीं और ग़ुरूब-ए-आफ़ताब से पहले यहाँ से जातीं। इस मौक़े पर फ़क़ीरों और फ़क़ीरनियों की टोलियों की टोलियाँ जाने कहाँ से जातीं और जब तक ख़ैरात ले लेतीं अपनी सदाओं से बराबर शोर मचाती रहतीं और उन्हें बात करने देतीं। कभी-कभी शह्​र के लफ़ंगे, ओबाश-ओ-बेकार मबाश कुछ क्या कर, के मिस्दाक़-ए-शह्​र से पैदल चल कर बेस्वाओं की इस नई बस्ती की सुन-गुन लेने जाते और अगर उस दिन बेस्वाएँ भी आई होतीं तो उनकी ईद हो जाती। वो उनसे दूर हट कर उनके गिर्दा-गिर्द चक्कर लगाते रहते। फ़िक़रे कसते, बेतुके क़हक़हे लगाते। अजीब-अजीब शक्लें बनाते और मजनूनाना हरकतें करते। उस रोज़ कबाबी की ख़ूब बिक्री होती।

    उस इलाक़े में जहाँ थोड़े ही दिन पहले हू का आलम था अब हर तरफ़ गहमा गहमी और चहल-पहल नज़र आने लगी। शुरू’-शुरू’ में उस इलाक़े की वीरानी में उन बेस्वाओं को यहाँ कर रहने के ख़याल से जो वहशत होती थी, वो बड़ी हद तक जाती रही थी और अब वो हर मर्तबा ख़ुश-ख़ुश अपने मकानों की आराइश और अपने मर्ग़ूब रंगों के मुतअ’ल्लिक़ मे’मारों को ताकीदें कर जाती थीं।

    बस्ती में एक जगह एक टूटा-फूटा मज़ार था जो क़राइन से किसी बुज़ुर्ग का मा’लूम होता था। जब ये मकान निस्फ़ से ज़्यादा ता’मीर हो चुके तो एक दिन बस्ती के राज मज़दूरों ने क्या देखा कि मज़ार के पास धुआँ उठ रहा है और एक सुर्ख़-सुर्ख़ आँखों वाला लंबा तड़ंगा मस्त फ़क़ीर, लंगोट बाँधे चार अब्‍रू का सफ़ाया कराए उस मज़ार के इर्द-गिर्द फिर रहा है और कंकर पत्थर उठा-उठा कर परे फेंक रहा है। दोपहर को वो फ़क़ीर एक घड़ा लेकर कुँवें पर आया और पानी भर-भर कर मज़ार पर ले जाने और उसे धोने लगा। एक दफ़ा’ जो आया तो कुएँ पर दो तीन राज मज़दूर खड़े थे। वो नीम दीवानगी और नीम फ़र्ज़ानगी के आलम में उनसे कहने लगा, “जानते हो वो किस का मज़ार है? कड़क शाह पीर बादशाह का! मेरे बाप-दादा, उनके मुजाविर थे।” उसके बा’द उसने हँस-हँस कर और आँखों में आँसू भर-भर कर पीर कड़क शाह की कुछ जलाली करामातें भी उन राज मज़दूरों से बयान कीं।

    शाम को ये फ़क़ीर कहीं से माँग-ताँग कर मिट्टी के दो दीए और सरसों का तेल ले आया और पीर कड़क शाह की क़ब्‍र के सिरहाने और पाइंती चराग़ रौशन कर दिए। रात को पिछले पहर कभी-कभी उस मज़ार से अल्लाह-हू का मस्त नारा सुनाई दे जाता।

    छः महीने गुज़रने पाए थे कि ये चौदह मकान बन कर तैयार हो गए। ये सब के सब दो मंज़िला और क़रीब-क़रीब एक ही वज़ा के थे। सात एक तरफ़ और सात दूसरी तरफ़। बीच में चौड़ी चकली सड़क थी। हर एक मकान के नीचे चार चार दुकानें थीं। मकान की बालाई मन्ज़िल में सड़क के रुख़ वसीअ बरामदा था। उसके आगे बैठने के लिए कश्ती नुमा शह-नशीन बनाई गई थी। जिसके दोनों सिरों पर या तो संग-ए-मरमर के मोर रक़्स करते हुए बनाए गए थे और या जल परियों के मुजस्समे तराशे गए थे, जिनका आधा धड़ मछली का और आधा इन्सान का था। बरामदे के पीछे जो बड़ा कमरा बैठने के लिए था उसमें संग-ए-मरमर के नाज़ुक-नाज़ुक सुतून बनाए गए थे... दीवारों पर ख़ुशनुमा पच्चीकारी की गई थी। फ़र्श सब्ज़ चमकदार और पत्थरों का बनाया गया था। जब संग-ए-मरमर के सुतूनों के अ’क्स इस फ़र्श पर पड़ते तो ऐसा मा’लूम होता गोया सफ़ेद-सफ़ेद बुर्राक़ परों वाले राज हँसों ने अपनी लंबी-लंबी गर्दनें झील में डुबो दी हैं।

    बुध का शुभ दिन, उस बस्ती में आने के लिए मुक़र्रर किया गया। उस रोज़ उस बस्ती की सब बेस्वाओं ने मिल कर बहुत भारी नियाज़ दिलवाई। बस्ती के खुले मैदान में ज़मीन को साफ़ करा कर शामियाने नस्ब कर दिए गए। देग़ें खड़कने की आवाज़ और गोश्त और घी की ख़ुशबू, बीस-बीस कोस से फ़क़ीरों और कुत्तों को खींच लाई। दोपहर होते-होते पीर कड़क शाह के मज़ार के पास जहाँ लंगर तक़सीम किया जाता था इस क़दर फ़क़ीर जमा हो गए कि ईद के रोज़ किसी बड़े शह्​र की जामा मस्जिद के पास भी हुए होंगे। पीर कड़क शाह के मज़ार को ख़ूब साफ़ करवाया और धुलवाया गया और उस पर फूलों की चादर चढ़ाई गई और उस मस्त फ़क़ीर को नया जोड़ा सिलवा कर पहनाया गया, जिसे उसने पहनते ही फाड़ डाला।

    शाम को शामियाने के नीचे दूध सी उजली चाँदनी का फ़र्श कर दिया गया। गाव-तकिए पानदान, पीकदान, पेचवाँ दानी और गुलाब पाश रख लिए गए और राग रंग की महफ़िल सजाई गई। दूर-दूर से बहुत सी बेस्वाओं को बुलवाया गया जो उनकी सहेलियाँ या बिरादरी की थीं। उनके साथ उनके बहुत से मिलने वाले भी आए जिनके लिए एक अलग शामियाने में कुर्सियों का इन्तिज़ाम किया गया और उनके सामने के रुख़ चिक़ें डाल दी गईं। बेशुमार गैसों की रौशनी से ये जगह बुक्क़ा-ए-नूर बनी हुई थी। उन बेस्वाओं के तोंदल सियाह-फ़ाम साज़िंदे ज़रबफ़्त और कमख़्वाब की शेरवानियाँ पहने, इत्र में बसे हुए फोए कानों में रखे, इधर उधर मूंछों को ताव देते फिरते और ज़र्क़-बर्क़ लिबासों और तितली के पर से बारीक साड़ियों में मलबूस, गाज़ों और ख़ुशबुओं में बसी हुई नाज़नीन अठखेलियों से चलतीं। रात भर रक़्स और सुरूर का हंगामा बरपा रहा और जंगल में मंगल हो गया।

    दो तीन दिन के बा’द जब इस जश्न की थकावट उतर गई तो ये बेस्वाएँ साज़-ओ-सामान की फ़राहमी और मकानों की आराइश में मसरूफ़ हो गईं। झाड़, फ़ानूस, ज़रूफ़-ए-बिल्लौरी, क़द-ए-आदम आईने, निवाड़ी पलंग, तस्वीरें और क़तआत-ए-सुनहरी, चौकठों में जुड़े हुए लाए गए और क़रीने से कमरों में लगाए गए और कोई आठ रोज़ में जा कर ये मकान कील कांटे से लैस हुए। ये औरतें दिन का बेश्तर हिस्सा तो उस्तादों से रक़्स-ओ-सरोद की ता’लीम लेने, ग़ज़लें याद करने, धुनें बिठाने, सबक़ पढ़ने, तख़्ती लिखने, सीने-पिरोने, काढ़ने, ग्रामोफोन सुनने, उस्तादों से ताश और कैरम खेलने, ज़िला-जुगत, नोक-झोंक से जी बहलाने या सोने में गुज़ारतीं और तीसरे पहर ग़ुस्लख़ानों में नहाने जातीं, जहाँ उनके मुलाज़िमों ने दस्ती पंपों से पानी निकाल-निकाल कर टब भर रखे होते। इसके बा’द वो बनाव सिंघार में मसरूफ़ हो जातीं।

    जैसे ही रात का अंधेरा फैलता, ये मकान गैसों की रौशनी से जगमगा उठते जो जा-ब-जा संग-ए-मरमर के आधे खिले हुए कंवलों में निहायत सफ़ाई से छुपाए गए थे और उन मकानों की खिड़कियों और दरवाज़ों के किवाड़ों के शीशे जो फूल पत्तियों की वज़ा के काट कर जड़े गए थे उनकी क़ौस-ए-क़ज़ह के रंगों की सी रौशनियाँ दूर से झिलमिल-झिलमिल करती हुई निहायत भली मा’लूम होतीं। ये बेस्वाएँ, बनाव सिंगार किए बरामदों में टहलती, आस-पास वालियों से बातें करतीं, हँसतीं खिलखिलातीं।

    जब खड़े-खड़े थक जातीं तो अन्दर कमरे में चाँदनी के फ़र्श पर गाव-तकियों से लग कर बैठ जातीं। उनके साज़िंदे साज़ मिलाते रहते और ये छालिया कतरती रहतीं। जब रात ज़रा भीग जाती तो उनके मिलने वाले टोकरों में शराब की बोतलें और फल-फलारी लिए अपने दोस्तों के साथ मोटरों या तांगों में बैठ कर आते। इस बस्ती में जिनके क़दम रखते ही एक ख़ास गहमा-गहमी और चहल-पहल होने लगती। नग़्मा-ओ-सरोद साज़ के सुर, रक़्स करती हुई नाज़नीनों के घुंघरुओं की आवाज़, क़ुलक़ुल-ए-मीना में मिल कर एक अजीब सुरूर की सी कैफ़ियत पैदा कर देती। ऐ’श-ओ-मस्ती के इन हंगामों में मा’लूम भी होता और रात बीत जाती।

    इन बेस्वाओं को इस बस्ती में आए हुए चन्द रोज़ ही हुए थे कि दुकानों के किराएदार पैदा हो गए। जिनका किराया इस बस्ती को आबाद करने के ख़याल से बहुत ही कम रखा गया था। सब से पहले जो दुकानदार आया वो वही बुढ़िया थी जिसने सब से पहले मस्जिद के सामने दरख़्त के नीचे ख़्वाँचा लगाया था। दुकान को पुर करने के लिए बुढ़िया और उसका लड़का सिगरेटों के बहुत से डिब्बे उठा लाए और उसे मिंबर के ताकों में सजा कर रख दिया गया। बोतलों में रंगदार पानी भर दिया गया ताकि मा’लूम हो कि शर्बत की बोतलें हैं।

    बुढ़िया ने अपने बिसात के मुताबिक़ काग़ज़ी फूलों और सिगरेट की डिबियों से बनाई हुई बेलों से दुकान की कुछ आराइश भी की, बा’ज़ एक्टरों और एक्ट्रसों की तस्वीरें भी पुराने रिसालों से निकाल कर लेई से दीवारों पर चिपका दीं। दुकान का अस्ल माल दो तीन क़िस्म के सिगरेट के तीन-तीन चार-चार पैकेटों, बीड़ी के आठ दस बंडलों या दिया सलाई की निस्फ़ दर्जन डिबियों, पानी की ढोली, पीने के तंबाकू की तीन चार टिकियों और मोमबत्ती के निस्फ़ बंडल से ज़्यादा था।

    दूसरी दुकान में एक बनिया, तीसरी में हलवाई और शीर फ़रोश, चौथी में कसाई, पाँचवी में कबाबी और छट्टी में एक कुंजड़ा बसे। कुंजड़ा आस-पास के देहात से सस्ते दामों में चार-पाँच क़िस्म की सब्ज़ियाँ ले आता और यहाँ ख़ासे मुनाफ़े पर बेच देता। एक आध टोकरा फलों का भी रख लेता चूँकि दुकान ख़ासी खुली थी। एक फूल वाला उसका साझी बन गया। वो दिन भर फूलों के हार, गजरे और तरह-तरह के गहने बनाता रहता और शाम को उन्हें चंगीर में डाल कर एक-एक मकान पर ले जाता और सिर्फ़ फूल ही बेच आता बल्कि हर जगह एक-एक दो-दो घड़ी बैठ, साज़िंदों से गपशप भी हाँक लेता और हुक्के के दम भी लगा आता। जिस दिन तमाशबीनों की कोई टोली उसकी मौजूदगी में ही कोठे पर चढ़ आती और गाना बजाना शुरू’’ हो जाता तो वो साज़िंदों के नाक भौं चढ़ाने के बावुजूद घंटों उठने का नाम लेता, मज़े-मज़े से गाने पर सर धुनता और बेवक़ूफ़ों की तरह एक-एक की सूरत तकता रहता। जिस दिन रात ज़ियादा गुज़र जाती और कोई हार बच जाता तो उसे अपने गले में डाल लेता और बस्ती के बाहर गला फाड़-फाड़ कर गाता फिरता।

    एक दिन एक बेस्वा का बाप और भाई जो दर्ज़ियों का काम जानते थे, सीने की एक मशीन रख कर बैठ गए। होते-होते एक हज्जाम भी गया और अपने साथ एक रंगरेज़ को भी लेता आया। उसकी दुकान के बाहर अलगनी पर लटकते हुए तरह-तरह के रंगों के दुपट्टे हवा में लहराते हुए आँखों को भले मा’लूम होने लगे।

    चंद ही रोज़ गुज़रे थे कि एक टट-पुंजिए बिसाती ने जिसकी दुकान शह्​र में चलती थी, बल्कि उसे दुकान का किराया निकालना भी मुश्किल हो जाता था शह्​र को ख़ैर-बाद कह कर इस बस्ती का रुख़ किया। यहाँ पर उसे हाथों-हाथ लिया गया और उसके तरह-तरह के लेवेंडर, क़िस्म-क़िस्म के पाउडर, साबुन, कंघियाँ, बटन, सूई, धागा, लेस, फीते, ख़ुशबू-दार तेल, रूमाल, मंजन वग़ैरह की ख़ूब बिक्री होने लगी।

    इस बस्ती के रहने वालों की सरपरस्ती और उनके मुरब्बियाना सुलूक की वज्ह से इसी तरह दूसरे तीसरे रोज़ कोई कोई टट-पुंजिया दुकानदार कोई बज़्ज़ाज़, कोई पंसारी, कोई नेचाबंद, कोई नान-बाई मंदे की वज्ह से या शह्​र के बढ़ते हुए किराए से घबरा कर उस बस्ती में पनाह लेता।

    एक बड़े मियाँ अत्तार जो हिक्मत में भी किसी क़दर दख़्ल रखते थे, उनका जी शह्​र की गुंजान आबादी और हकीमों और दवाख़ानों की इफ़रात से जो घबराया तो वो अपने शागिर्दों को साथ लेकर शह्​र से उठ आए और इस बस्ती में एक दुकान किराए पर ले ली। सारा दिन बड़े मियाँ और उनके शागिर्द दवाओं के डिब्बों, शर्बत की बोतलों और मुरब्बे, चटनी, अचार के बुवयामों को अलमारियों और ताकों में अपने-अपने ठिकाने पर रखते रहे। एक ताक़ में तिब्ब-ए-अकबर, क़राबादीन क़ादरी और दूसरी तिब्बी किताबें जमा कर रख दीं। किवाड़ों की अन्दरुनी जानिब और दीवारों के साथ जो जगह ख़ाली बची वहाँ उन्होंने अपने ख़ास-उल-ख़ास मुजर्रिबात के इश्तिहारात सियाह रौशनाई से जली लिख कर और दफ़्तियों पर चिपका कर आवेज़ाँ कर दिए। हर रोज़ सुब्ह को बेस्वाओं के मुलाज़िम गिलास ले ले कर मौजूद होते और शर्बत-ए-बुज़ूरी, शर्बत-ए-बनफ़्शा, शर्बत-ए-अनार और ऐसे ही और नुज़हत बख़्श, रूह अफ़्ज़ा शर्बत-ओ-अर्क़, ख़मीरा गाव-ज़बाँ और तक़वियत पहुँचाने वाले मुरब्बे मअ-वर्क़-हाय-नुक़रा ले जाते।

    जो दुकानें बच रहीं, उनमें बेस्वाओं के भाई-बंदों और साज़िंदों ने अपनी चारपाइयाँ डाल दीं। दिन भर ये लोग उन दुकानों में ताश, चौसर और शतरंज खेलते, बदन पर तेल मलवाते, सब्ज़ी घोटते, बटेरों की पालियाँ कराते, तीतरों से “सुब्हान तेरी क़ुदरत” की रट लगवाते और घड़ा बजा-बजा कर गाते।

    एक बेस्वा के साज़िंदे ने एक दुकान ख़ाली देख कर अपने भाई को जो साज़ बनाना जानता था उसमें ला बिठाया। दुकान की दीवारों के साथ-साथ कीलें ठोंक कर टूटी-फूटी मरम्मत-तलब सारंगियाँ, सितार, तंबूरे, दिलरुबा वग़ैराह टाँग दिए गए। ये शख़्स सितार बजाने में भी कमाल रखता था। शाम वो अपनी दुकान में सितार बजाता, जिसकी मीठी आवाज़ सुन कर आस-पास के दुकानदार अपनी दुकानों से उठ-उठ कर जाते और देर तक बुत बने सितार सुनते रहते। इस सितार-नवाज़ का एक शागिर्द था जो रेलवे के दफ़्तर में क्लर्क था। उसे सितार सीखने का बहुत शौक़ था। जैसे ही दफ़्तर से छुट्टी हुई, सीधा साइकल उड़ाता हुआ उस बस्ती का रुख़ करता और घंटा डेढ़ घंटा दुकान ही में बैठ कर मश्क़ किया करता, ग़रज़ उस सितार नवाज़ के दम से बस्ती में ख़ासी रौनक़ रहने लगी।

    मस्जिद के मुल्ला जी, जब तक तो ये बस्ती ज़ेर-ए-ता’मीर रही रात को देहात अपने घर चले जाते रहे। मगर अब जब कि उन्हें दोनों वक़्त मुरग्ग़न खाना बा-फ़रात पहुँचने लगा तो वो रात को भी यहीं रहने लगे। रफ़्ता-रफ़्ता बा’ज़ बेस्वाओं के घरों से बच्चे भी मस्जिद में पढ़ने आने लगे, जिससे मुल्ला जी को रुपए-पैसे की आमदनी भी होने लगी।

    एक शह्​र-शह्​र घूमने वाली घटिया दर्जे की थेएटरिकल कंपनी को जब ज़मीन के चढ़ते हुए किराए और अपनी बे-माइगी के बाइस शह्​र में कहीं जगह मिली तो उसने इस बस्ती का रुख़ किया और उन बेस्वाओं के मकानों से कुछ फ़ासिले पर मैदान में तंबू खड़े कर के डेरे डाल दिए। उसके ऐक्टर-ऐक्टरी के फ़न से महज़ ना-बलद थे। उनके ड्रेस फटे पुराने थे जिनके बहुत से सितारे झड़ चुके थे और ये लोग तमाशा भी बहुत दक़ियानूसी दिखाते थे मगर इसके बावजूद ये कंपनी चल निकली। इसकी वज्ह ये थी कि टिकट के दाम बहुत कम थे। शह्​र के मज़दूर पेशा लोग, कारख़ानों में काम करने वाले और ग़रीब-ग़ुरबा जो दिन भर की कड़ी मेहनत मशक़्क़त की कसर शोर-ओ-गुल, ख़र मस्तियों और अदना अय्याशियों से निकालना चाहते थे, पाँच-पाँच छः-छः की टोलियाँ बना कर, गले में फूलों के हार डाले, हँसते-बोलते, बांसुरी और अलग़ूज़े बजाते, राह चलतों पर आवाज़ें कसते, गाली गलोच बकते, शह्​र से पैदल चल कर थिएटर देखने आते और लगे हाथों बाज़ार-ए-हुस्न की सैर भी कर जाते। जब तक नाटक शुरू’ होता थिएटर का एक मस्ख़रा तंबू के बाहर एक स्टूल पर खड़ा कभी कोल्हू हिलाता, कभी मुंह फुलाता, कभी आँखें मटकाता, अजीब-अजीब हया-सोज़ हरकतें करता जिन्हें देख कर ये लोग ज़ोर-ज़ोर से क़हक़हे लगाते और गालियों की सूरत दाद देते।

    रफ़्ता-रफ़्ता दूसरे लोग भी इस बस्ती में आने शुरू’ हुए। चुनाँचे शह्​र के बड़े-बड़े चौकों में तांगे वाले सदाएँ लगाने लगे, “आओ, कोई नई बस्ती को” शह्​र से पाँच कोस तक जो पक्की सड़क जाती थी उस पर पहुँच कर ताँगे वाले सवारियों से इनआ’म हासिल करने के लालच में या उनकी फ़र्माइश पर तांगों की दौड़ें कराते। मुंह से हॉर्न बजाते और जब कोई ताँगा आगे निकल जाता तो उसकी सवारियाँ नारों से आसमान सर पर उठा लेतीं। इस दौड़ में ग़रीब घोड़ों का बुरा हाल हो जाता और उनके गले में पड़े हुए फूलों के हारों से बजाए ख़ुशबू के पसीने की बदबू आने लगती। रिक्शा वाले, ताँगे वालों से क्यों पीछे रहते। वो उनसे कम दाम पर सवारियाँ बिठा, तरारे भरते और घुंघरू बजाते उस बस्ती को जाने लगे। अलावा अज़ीं हर हफ़्ते की शाम को स्कूलों और कॉलेजों के तलबा एक-एक साइकल पर दो-दो लदे, जौक़-दर-जौक़ इस पुर-असरार बाज़ार की सैर देखने आते, जिससे उनके ख़याल के मुताबिक़ उनके बड़ों ने ख़्वाह-म-ख़्वाह महरूम कर दिया था।

    रफ़्ता-रफ़्ता उस बस्ती की शोहरत चारों तरफ़ फैलने और मकानों और दुकानों की माँग होने लगी। वो बेस्वाएँ जो पहले इस बस्ती में आने पर तैयार होती थीं अब उसकी दिन दुगुनी रात चौगुनी तरक़्क़ी देख कर अपनी बेवक़ूफ़ी पर अफ़सोस करने लगीं। कई औरतों ने तो झट ज़मीनें ख़रीद, उन बेस्वाओं के साथ उसी वज़्अ’-क़त्अ’ के मकान बनवाने शुरू’ कर दिए। अलावा अज़ीं शह्​र के बा’ज़ महाजनों ने भी इस बस्ती के आस-पास सस्ते दामों ज़मीनें ख़रीद-ख़रीद कर किराए पर उठाने के लिए छोटे-छोटे कई मकान बनवा डाले। नतीजा ये हुआ कि वो फ़ाहिशा औरतें जो होटलों और शरीफ़ महलों में रुपोश थीं, मोर-ओ-मलख़ की तरह अपने निहाँ-ख़ानों से बाहर निकल आईं और उन मकानों में आबाद हो गईं। बा’ज़ छोटे-छोटे मकानों में उस बस्ती के वो दुकानदार बसे जो अ’यालदार थे और रात को दुकानों में सो सकते थे।

    इस बस्ती में आबादी तो ख़ासी हो गई थी मगर अभी तक बिजली की रौशनी का इन्तिज़ाम नहीं हुआ था। चुनाँचे उन बेस्वाओं और बस्ती के तमाम रहने वालों की तरफ़ से सरकार के पास बिजली के लिए दरख़्वास्त भेजी गई, जो थोड़े दिनों बा’द मंज़ूर कर ली गई। इसके साथ ही एक डाकखाना भी खोल दिया गया। एक बड़े मियाँ डाकखाना के बाहर एक सन्दूकचे में लिफ़ाफ़े, कार्ड और क़लम दवात रख, बस्ती के लोगों के ख़त पत्र लिखने लगे।

    एक दफ़्अ’ बस्ती में शराबियों की दो टोलियों का फ़साद हो गया जिसमें सोडा वाटर की बोतलों, चाक़ुओं और ईंटों का आज़ादाना इस्तेमाल किया गया और कई लोग सख़्त मजरूह हुए। इस पर सरकार को ख़याल आया कि इस बस्ती में एक थाना भी खोल देना चाहिए।

    थिएटरिकल कंपनी दो महीने तक रही और अपनी बिसात के मुताबिक़ ख़ासा कमा ले गई। इस शह्​र के एक सिनेमा मालिक ने सोचा क्यों इस बस्ती में भी एक सिनेमा खोल दिया जाए। ये ख़याल आने की देर थी कि उसने झट एक मौक़े की जगह चुन कर ख़रीद ली और जल्द-जल्द ता’मीर का काम शुरू’ करा दिया। चन्द ही महीनों में सिनेमा हाल तैयार हो गया। उसके अन्दर एक छोटा सा बाग़ीचा भी लगवाया गया ताकि तमाशाई अगर बाईस्कोप शुरू’ होने से पहले जाएँ तो आराम से बाग़ीचे में बैठ सकें। उनके साथ लोग यूँ ही सुस्ताने या सैर देखने की ग़रज़ से आ-आ कर बैठने लगे। ये बाग़ीचा ख़ासी सैर-गाह बन गया। रफ़्ता-रफ़्ता सिक्क़े कटोरा बजाते उस बाग़ीचे में आने और प्यासों की प्यास बुझाने लगे। सर की तेल मालिश वाले निहायत घटिया क़िस्म के तेज़ ख़ुश्बू वाले तेल की शीशियाँ वास्कट की जेबों में ठूँसे, कांधे पर मैला कुचैला तौलिया डाले, दिल पसंद, दिल बहार मालिश की सदा लगाते दर्द-ए-सर के मरीज़ों को अपनी ख़िदमात पेश करने लगे।

    सिनेमा के मालिक ने सिनेमा हाल की बैरूनी जानिब दो एक मकान और कई दुकानें भी बनवाईं। मकान में तो होटल खुल गया जिसमें रात को क़ियाम करने के लिए कमरे भी मिल सकते थे और दुकानों में एक सोडा वाटर की फ़ैक्ट्री वाला, एक फ़ोटो-ग्राफ़र, एक साईकल की मरम्मत वाला, एक लान्ड्री वाला, दो पनवाड़ी, एक बूट-शाप वाला और एक डाक्टर मअ’ अपने दवाख़ाना के रहे। होते-होते पास ही एक दुकान में कलाल-ख़ाना खुलने की इजाज़त मिल गई। फ़ोटो-ग्राफ़र की दुकान के बाहर एक कोने में एक घड़ी साज़ ने डेरा जमाया और हर वक़्त मुहद्दिब शीशा आँखों पर चढ़ाए घड़ियों के कल पुर्ज़ों में ग़लताँ-ओ-पेचाँ रहने लगा।

    इसके कुछ ही दिन बा’द बस्ती में नल, रौशनी और सफ़ाई के बा-क़ाएदा इन्तिज़ाम की तरफ़ तवज्जोह की जाने लगी। सरकारी कारिंदे सुर्ख़ झंडियाँ, जरीबें और ऊँच-नीच देखने वाले आले लेकर पहुँचे और नाप-नाप कर सड़कों और गली कूचों की दाग़ बेल डालने लगे और बस्ती की कच्ची सड़कों पर सड़क कूटने वाला इंजन चलने लगा।

    इस वाक़िए को बीस बरस गुज़र चले हैं। ये बस्ती अब एक भरा-पूरा शह्​र बन गई है जिसका अपना रेलवे स्टेशन भी है और टाउन हाल भी, कचहरी भी और जेल ख़ाना भी, आबादी ढाई लाख के लगभग है। शह्​र में एक कॉलेज, दो हाईस्कूल, एक लड़कों के लिए, एक लड़कियों के लिए और आठ प्राइमरी स्कूल हैं जिनमें म्युनिस्पिल्टी की तरफ़ से मुफ़्त ता’लीम दी जाती है। छः सिनेमा हैं और चार बैंक जिनमें से दो दुनिया के बड़े-बड़े बैंकों की शाख़ें हैं।

    शह्​र से दो रोज़ाना, तीन हफ़्तावार और दस माहाना रसाइल-ओ-जराइद शाए होते हैं। इनमें चार अदबी, दो अख़लाक़ी-ओ-मुआशरती-ओ-मज़हबी, एक सनअ’ती, एक तिब्बी, एक ज़नाना और एक बच्चों का रिसाला है। शह्​र के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में बीस मस्जिदें, पंद्रह मंदिर और धर्मशाले, छः यतीम-ख़ाने, पाँच अनाथ-आश्रम और तीन बड़े सरकारी हस्पताल हैं जिनमें से एक सिर्फ़ औरतों के लिए मख़सूस है।

    शुरू’-शुरू’ में कई साल तक ये शह्​र अपने रहने वालों के नाम की मुनासिबत से “हुस्नाबाद” के नाम से मौसूम किया जाता रहा मगर बा’द में इसे ना-मुनासिब समझ कर इसमें थोड़ी सी तर्मीम कर दी गई। या’नी बजाय “हुस्नाबाद” के “हसनाबाद” कहलाने लगा। मगर ये नाम चल सका क्योंकि अवाम हुस्न और हसन में इम्तियाज़ करते। आख़िर बड़ी-बड़ी बोसीदा किताबों की वर्क़ गरदानी और पुराने नविश्तों की छानबीन के बा’द इसका असली नाम दरयाफ़्त किया गया जिस से ये बस्ती आज से सैंकड़ों बरस क़ब्ल उजड़ने से पहले मौसूम थी और वो नाम है “आनंदी।”

    यूँ तो सारा शह्​र भरा पुरा, साफ़-सुथरा और ख़ुशनुमा है मगर सब से ख़ूबसूरत, सब से बा-रौनक़ और तिजारत का मर्कज़ वही बाज़ार है जिसमें ज़नान-ए-बाज़ारी रहती हैं।

    आनंदी बलदिया का इजलास ज़ोरों पर है, हाल खचाखच भरा हुआ है और ख़िलाफ़-ए-मा’मूल एक मेंबर भी ग़ैर-हाज़िर नहीं। बलदिया के ज़ेर-ए-बहस मस्अला ये है कि ज़नान-ए-बाज़ारी को शह्​र बदर कर दिया जाए क्योंकि इनका वुजूद इन्सानियत, शराफ़त और तहज़ीब के दामन पर बदनुमा दाग़ है। एक फ़सीह-उल-बयान मुक़र्रिर तक़रीर कर रहे हैं, “मा’लूम नहीं वो क्या मस्लिहत थी जिसके ज़ेरे-असर इस नापाक तबक़े को हमारी इस क़दीमी और तारीख़ी शह्​र के ऐन बीचों-बीच रहने की इजाज़त दी गई,” इस मर्तबा उन औरतों के लिए जो इलाक़ा मुंतख़ब किया गया वो शह्​र से बारह कोस दूर था।

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