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दस मिनट बारिश में

राजिंदर सिंह बेदी

दस मिनट बारिश में

राजिंदर सिंह बेदी

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    स्टोरीलाइन

    यह बारिश में भीगती एक ऐसी ग़रीब औरत की कहानी है, जिसका शौहर उसे छोड़कर चला गया है और उसकी घोड़ी भी गुम हो गई है। उसका एक कम-अक़्ल बेटा है जो झोपड़ी में पड़ा रहता है। बारिश तेज़ होने की वजह से झोपड़ी की छत उड़ गई है जिसे वह औरत अकेले ही उसे ठीक कर रही है और दूर खड़े दो मर्द आपस में बात कर रहे हैं और इस इंतज़ार में हैं कि वह कब उन्हें अपनी मदद के लिए बुलाती है।

    अबू बकर रोड शाम के अंधेरे में गुम हो रही है। यूँ दिखाई देता है, जैसे कोई कुशादा सा रास्ता किसी कोयले की कान में जा रहा है... सख़्त बारिश में विरूंटा की बाड़, सफ़रीना का गुलाब, क़ुतुब सय्यद हुसैन मक्की के मज़ार शरीफ़ के खन्डर में, एक खिलते हुए मिश्की रंग की घोड़ी जिसकी पुश्त नम-आलूद हो कर सियाह साटन की तरह दिखाई दे रही है, सब भीग रहे हैं... और राटा भीग रही है!

    राटा कौन है? उसे कल्प बृक्ष कह लो या काम धेनु गाय। या उससे बेहतर राटा... राटा है। फिराया लाल की बीवी, एक दस साला काहिल, जाहिल, न-अह्ल छोकरे की माँ। चंद माह हुए तख़्फ़ीफ़ के मौक़े पर ह्यूम पाइप कंपनी वालों ने फिराया लाल को काम से अलग कर दिया। उस वक़्त से उसकी पुर-सुकून ज़िंदगी में क़िस्मत के गर्दबाद पैदा होने लगे। तलाश-ए-मआ'श में जाने वो कहाँ चल दिया। सुना है कि वो राटा को हमेशा के लिए छोड़ गया है, क्योंकि वो उससे मोहब्बत करती है और जिस शख़्स में मोहब्बत की सी कमज़ोरी हो, वो पा-ए-इस्तिहक़ार से ठुकरा दिया जाता है... मिरचू तेज़ाबी का बयान है कि पोह के एक सर्द, नीले से धुँदलके में उसने फिराया लाल को अपनी ही बिरादरी की एक औरत के साथ-जाते देखा था। वही औरत... कौड़ी, जो अबू बकर रोड के मकानों में से गमले उठाया करती थी।

    उन दिनों फिराया लाल बेकार था। बेकार इन्सान के अक़्ल-ओ-फ़िक्र में खून-ए-जिगर पीने या कसरत से मोहब्बत करने के सिवा और कुछ नहीं समाता। बाज़ आदमियों ने फिराया को कोट पुतली में सफ़ें बनाते हुए देखा है। क़रीब ही कौड़ी एक ग़ैर आदमी के साथ मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें कर रही थी... राटा फिर भी फिराया लाल को दिल से चाहती है। ये मोहब्बत और जुनूँ के अंदाज़ भी कभी छुटते हैं... और राटा भीग रही है!

    राटा की घोड़ी अबू बकर रोड पर हमारी कोठी के सामने घूम रही है। वो उसका शब-ए-दीजूर का सा रंग... सिर्फ़ उसके हिनहिनाने और कभी-कभी बिजली के कौंदने से उसके वजूद का इल्म होता है। सुबह से बेचारी को दाना नहीं दिया गया, ही उसकी मोच वाली टाँग पर हल्दी लगाई गई है। भूक की शिद्दत से बेबस और बिगड़ कर वो आवारा हो रही है। शायद फिराया को ढूँढती होगी। फिराया... जो उसे भी छोड़ कर कौड़ी के साथ चला गया है। कौड़ी जो कोट पुतली में किसी दूसरे मर्द के साथ मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें कर रही थी। एक वक़्त में एक दिल के अंदर मिश्की घोड़ी रह सकती है या कौड़ी। कौड़ी या राटा... और भूकी मिश्की घोड़ी हिनहिनाती है जैसे कभी सिकन्दर से जुदा होने पर बूस फेल्स हिनहिनाता था।

    राटा अपने सर से बोरिए की ओढ़नी उठा कर पूछती है,

    “बाबू जी... आपने यहाँ रामी नहीं देखी...? रामी... मेरी मिश्की घोड़ी।”

    मैंने कहा, “रामी? कौन रामी... अच्छा रामी तुम्हारी मिश्की घोड़ी। अरी! वो विरूंटा की बाड़ के पीछे तो खड़ी है। तुम्हें दिखाई नहीं देती क्या?”

    राटा आँखों को सुकेड़ कर बाड़ की तरफ़ देखती है। हक़ीक़त ये है। जब खिलते हुए मुश्की रंग की घोड़ी शाम के वक़्त बारिश में भीग जाती है, तो वो भी शब-ए-दीजूर का एक जुज़ बन जाती है, और बे-नूर, रो-रो कर जोत गंवाई आँखों को उसे तारीकी-ए-शाम या शाम-ए-तारीक से जुदा करना बहुत मुश्किल हो जाता है... बारिश की रिमझिम, सरस की लंबी-लंबी फलियों की खड़खड़, गिरते हुए पत्तों के नौहे, राद की गरज, बतखों की बत-बत, मेंढ़कों की टर्राहट, परनालों के शोर, उस कुतिया की ऊँहा-ऊँहा जिसने अभी-अभी सात बच्चों का झोल जना है, और एक बच्चे को मुंह में पकड़े किसी सूखी, नर्म-ओ-गर्म जगह की मुतलाशी है। उन सब के शोर-ओ-ग़ोग़ा में भूकी घोड़ी की जिगर दोज़ हिनहिनाहट अलैहदा सुनाई देती है।

    प्राशर कहता है, “मैं भीग रहा हूँ... और वो भी भीग रही है।”

    माँ ख़फ़ा होते हुए कहती है, “गीला... गीला... गीला... तन्नूर बिल्कुल गिरने वाला हो गया है। ईं? ये मुई कुतिया तन्नूर में छुपी बैठी है। मेरा तन्नूर गिर जाएगा। ये बे-वक़्त की बारिशें, राम रे!”

    नन्हे बिशन का फ़्रॉक गिर कर सहन में पड़ा हुआ यूँ दिखाई देता है, जैसे कोई मरी हुई फ़ाख़्ता हो। माँ नाराज़ है कि मैं ने बिशन का फ़्रॉक क्यों नहीं उठाया, हालाँकि राटा की घोड़ी पकड़ने में मैं सर से पाँव तक भीग गया। माँ इसलिए भी ख़फ़ा है कि मैं प्राशर जैसे आवारा मिज़ाज नौजवान के साथ बारिश में लंगोटा बांध कर नहाने के लिए चला हूँ। माँ का ख़याल है कि मैं भी उसके साथ रह कर आवारा हो जाऊँगा। हक़ीक़त में माँ के माथे पर बल इसलिए हैं कि मैंने राटा को मुश्की घोड़ी पकड़ने में मदद दी है। घोड़ी को शाम की तारीकी से अलैहदा करते हुए उसकी अयाल राटा के हाथ में दे दी है और इस फे़'ल के इर्तिकाब में उससे छू गया हूँ।

    मैंने कहा, “इसी प्रायश्चित में तो मैं नहा रहा हूँ, माँ।”

    हक़ीक़त तो ये है कि इस क़िस्म की आलूदगी को मैं पसंद करता हूँ। प्राशर का क्या वो तो हर क़िस्म की आलूदगी को पसंद करता है... काश! फिराया लाल कभी आए और राटा को हर एक काम के लिए हमारा मरहून-ए-मिन्नत होना पड़े। क्या वो घोड़ी ही पकड़वाएगी और कोई काम नहीं कहेगी?

    माँ कहती है, लोहार, बढ़ई, चमड़ा रंगने वाले एक ब्रह्मन को चौबीस क़दम, चार वामन बोने वाले अड़तालीस क़दम, मोटा माँस खाने वाले चौसठ क़दम पर से भ्रष्ट कर सकते हैं। मगर मैं माँ को कहता हूँ, “माँ! उन लोगों की वजह से तो हम ज़िंदा हैं। ब्रह्मन खेती की ये लोग बाड़ हैं... और फिर थोड़ी बहुत बुराई, सच्चाई को बचाने के लिए रोज़-ए-अज़ल से ज़िंदा है।“ माँ कहती है, “कल-जुग है बेटा, घोर कल-जुग!”

    ब-ज़ाहिर में माँ बिशन से बातें करती है। मगर दर-अस्ल उसका मक़सद सब कुछ मुझे सुनाना होता है। “महायज्ञ ब्रह्मा का एक दिन है। कृत कृत्या, दवा पर इतने लाख बरसों के हैं। कलजुग चार लाख बत्तीस हज़ार बरसों का है। पिछले बरस चैत के महीने में कलजुग को सिर्फ़ पाँच हज़ार छब्बीस बरस गुज़रे हैं। राम जाने अभी कितने बाक़ी हैं... और ये बे-वक़्त की बारिशें!”

    “बारिश ने काफ़ी सर्दी पैदा कर दी है।” मैंने कहा।

    “हाँ भाई... मेरे तो दाँत बजने लगे... चलो बरामदे में चलें।”

    “लेकिन... अभी बहुत वक़्त तो नहीं हुआ।”

    “चाय बनवा दो ना... सर्दी हो रही है।”

    “चाय बन जाएगी। सिगरेट नहीं मिलेंगे।”

    “कोई बात नहीं! बीड़ियाँ जो हैं मेरे कोट की जेब में।”

    “हमारे टी सिंडीकेट को आज कल बारिश बहुत फ़ायदे मंद है।”

    “हाँ... चाय के पौदों की ढलवान जुनूब की तरफ़ है। अबू बकर रोड का तमाम पानी उधर नहीं जाता। मगर ज़्यादा बौछाड़ चाय के पौदों के लिए नुक़्सानदेह है। जड़ें गल जाने का अंदेशा है। हल्की-हल्की फुवार का तो कहना ही क्या... कुछ भी हो। ये बारिश एसोसिएटेड टी सिंडीकेट के लिए फ़ायदेमंद साबित होगी। हमारी आमदनी बढ़ जाएगी। क्यों? है न।”

    “हाँ।”

    “ईश्वर अपनी दया बारिश के ज़रिये भेजता है।”

    “हाँ... दया... आमदनी... अरे! राटा की झोंपड़ी की खपरैल उड़ रही है।”

    “ईश्वर की दया...”

    अब बारिश बहुत ज़्यादा होने लगी है, गोया सबकी सब अबू बकर रोड पर ही बरस पड़ेगी। नक्सटेर के पत्ते बत्तख़ के परों की तरह भीगते नहीं। पानी के क़तरे उन पर पारे की तरह लुढ़कते हैं। कहीं-कहीं अटक कर एक मुदव्वर हीरे की तरह दिखाई देते हैं। कुछ अ'र्से बाद एक और क़तरा वहीं टपकता है, तो हीरा ज़्यादा मुदव्वर और बड़ा हो जाता है। मगर नाज़ुक-नाज़ुक रात की रानी के फूल इस बौछाड़ की ताब नहीं ला सकते... अबू बकर रोड के दो रुये कोठियों में बसने वाले नक्टेसर के पत्तों की तरह हैं। बारिश उनकी स्लेट की छतों पर से बहती लुढ़कती हुई अबू बकर रोड पर रही है। बारिश के क़तरे उनके लिए मुदव्वर हीरे हैं। मगर रात की रानी... राटा सर फेंक देती है। गाहे सर उठा कर खपरैल को बाँधना शुरू कर देती है और अपने भीगते हुए बालों की वजह से वोगनवेलिया की हसीन बेल दिखाई देती है।

    पहले बेचारी मिश्की घोड़ी को ढूँढती फिरती थी। अब ये उसके लिए एक नई मुसीबत है। झोंपड़ी की तमाम छत से पानी बहने लगा है। बोरिए की ओढ़नी तो महज़ रस्मी पनाह है। उसके तमाम कपड़े भीग कर जिस्म के साथ चिपक गए हैं। शाम के अंधेरे में जब बिजली चमकती है, तो वो उर्यां सी दिखाई देती है।

    बारिश में ईश्वर की दया से कोई नर्म-ओ-गर्म कपड़े ज़ेब-ए-तन करता है तो कोई उर्यां हो जाता है। किसी की आमदनी दोगुनी हो जाती है, तो किसी की खपरैल टूट जाती है... कोई शब समोर गुज़ारता है, कोई शब-ए-तन्नूर!

    वोगनवेलिया की बेल को जब तुंद हवा हिलाती है, तो यूँ दिखाई देता है, गोया कोई हसीना सर्द होने के बाद लब-ए-बाम अपने चमकीले सियाह बालों को ज़ोर से निचोड़ कर दोनों हाथों से छाँटती है। राटा का बे-अक़्ल, काहिल... पागल लड़का झोंपड़ी में सोया पड़ा है। बुझते हुए चूल्हे के पास, गर्म हो कर... अगर वो जागता होता तो मिश्की घोड़ी पकड़ने के लिए उसकी माँ को मेरा मरहून-ए-मिन्नत होना पड़ता... फिराया लाल तो चला ही गया है। काश! वो काहिल लड़का हमेशा की नींद सो जाए!

    शायद राटा खपरैल बंधवाने के लिए हमें बुलाए। उसके बारिश की वजह से बदन के साथ चिपके हुए कपड़े! बिजली की सी चमक में उसका बदन कितना ख़ूबसूरत और सुडौल दिखाई देता है। लेकिन माँ... माँ कहती है कल-जुग है।

    कलकत्ता की मार्केट में चाय कितनी बिकेगी? कितनी दिसावर को जाएगी। मेरी आमदनी बढ़ जाएगी। प्राशर की भी... लेकिन वो कमबख़्त बीड़ियाँ पीएगा। चाय के प्यालों के प्याले और शराब और...

    “तुझे निकले गिलटी, हैजे़ के तोड़े... सोए का सोया रह जाए तू...” राटा अपने छोकरे को गालियाँ देती है।

    राटा को चाय की ज़रूरत नहीं। गालियाँ देते हुए उसके ज़िस्म में काफ़ी गर्मी गई है। वो निकम्मा, सुस्त लड़का, उसके साथ खपरैल भी तो नहीं बंधवाता। आराम से बुझते हुए चूल्हे के पास पड़ रहा है। पानी की छींटें पड़ती हैं तो टाँगें सुकेड़ लेता है। जब अन्दर पानी ही पानी हो जाएगा तो वो आँखें मलता हुआ उठेगा। सिर्फ़ ये कहेगा, माँ क्या बात है जो इतना शोर मचा रखा है? चैन से सोने भी नहीं देती... जैसे कोई बात ही नहीं। वो तो शायद ये भी कहे, मैं ऐसी औरत के घर क्यों पैदा हुआ जो ऐसी ऐसी गालियाँ देती है, जिसे मेरी कोई ज़रूरत नहीं। कहती है, सोए का सोया रह जाए, तू... वो बे-वक़ूफ़ क्या जाने कि जब माँ ये कहती है कि तो सोए का सोया रह जाए तो उस वक़्त वो उसे हमेशा की नींद से बचाने के लिए तूफान-ए-बाद-ओ-बाराँ में तन-ए-तन्हा बे-यार-ओ-मददगार अपनी जान तक लड़ा देती है।

    अभी इंतिहाई गर-संगी की वजह से उसकी मिश्की घोड़ी हिनहिना रही थी, जैसे सिकन्दर से जुदा होने पर बोस फेलस हिनहिनाता था। मगर अब वो ख़ामोश है। शायद उसने राटा की बेबसी को देख लिया है और फिराया के प्यार को... अब वो कभी नहीं हिनहिनायेगी!

    प्राशर बोला, “वो एक मर्तबा मदद के लिए इशारा तो करे।”

    “हाँ... और हम दोनों...” मैंने जवाब दिया।

    मैं कहता हूँ, “क्यों हम ख़ुद ही चले जाएँ।”

    मगर माँ कहती है, “कलजुग को सिर्फ़ पाँच हज़ार बरस गुज़रे हैं। राम जाने अभी कितने बाक़ी हैं।”

    फिर वही गालियाँ...

    “तुझे आवे ढाई घड़ी की... निकले तेरा जनाज़ा ललचातावा... गोर में पटे... ख़ून थूके तू...”

    शायद वो छोकरा सोचता होगा, मैं क्यों उस औरत के घर पैदा हो गया, जो मुझे गोर में भेजना चाहती है। वो बेवक़ूफ़ क्या जाने, कि हक़ीक़त में वो उसे आबी गोर से बचाने के लिए अपनी जान तक लड़ा रही है। वो दस साला बे-अमल, ग़ाफ़िल, काहिल छोकरा अब तक अपनी जगह से नहीं हिला। सिर्फ़ इसलिए कि राटा को उससे मोहब्बत है। जिसका उसका जवाना मर्ग को अच्छी तरह से एहसास है। वही राटा की ज़िंदगी का सहारा है। वही उसकी आँखों का नूर है। इसीलिए तो वो बेकस और अंधी है... अगर राटा फिराया लाल से मोहब्बत करती, अगर वो उस छोकरे पर अपनी तमाम उम्मीदें लगा देती तो सुखी हो जाती।

    अबू बकर रोड मुतहर्रिक हो कर कोयले की कान में जाती हुई दिखाई देती है। बहाव के ख़िलाफ़ एक दहक़ान भीगता हुआ आहिस्ता-आहिस्ता उसी जानिब रहा है। उसके हाथ में एक बैल की रस्सी है। शायद वो बैल को कहीं से चुरा लाया है। ग़ालिबन उसकी ख़्वाहिश है कि हम उसे बरामदे में कुछ देर ठहरने के लिए जगह दें और ये मुम्किन नहीं, कौन जाने बैल गोबर से बरामदे का फ़र्श ख़राब कर दे। और माँ... फिर चोरी के माल को अपने पास रखना...

    “बाबूजी सलाम।” दहक़ान बोला।

    “सलाम।” प्राशर ने ज़ेर-ए-लब कहा।

    फिर वो अपने काँपते हुए हाथों में से एक गीला काग़ज़ प्राशर के हाथ में दे देता है... परवाना-ए-राहदारी... ये इस बात का सुबूत है, कि बैल चोरी का माल नहीं, अपना है। जिसे वो ताल महल की मंडी में बेचने के लिए जा रहा है।

    बाइस-ए-तहरीर आँके...

    एक रास गाऊ नर, जिसके सींग अंदर को मुड़े हुए हैं, दुम के सियाह बालों में सफ़ेद...

    और बाक़ी का बारिश ने धो दिया है। कितने बेरब्त होते हैं ये दहक़ान लोग। पहले सींग और फिर दुम। उनके लिए गोया दुम और सींगों के दर्मियान कोई जगह ही नहीं। जिस्म का रंग पहले आना चाहिए था। मख़्मलीं जिस्म! जो बारिश में गीला हो कर सफ़ेद साटन की तरह दिखाई देता है। अंधेरे में उसका सफ़ेद रंग नज़र आता है। मगर जब बिजली चमकती है, तो बैल बिजली का एक जुज़ बन जाता है... बैल तमाम ज़ोर लगा कर हाँकता है, जैसे शिवजी महाराज को देख कर प्यार से उनका नंदी गन हाँक रहा हो। बैल सुबह से भूका है, मगर अपने बूढ़े, मकरूह शक्ल मालिक को प्यार किए जाता है। अगरचे अक़्ल-ए-हैवानी से जानता है कि बूढ़ा कल उसे ताल महल की मंडी में बेच डालेगा। हाय! ये मोहब्बत और जुनून के अंदाज़ भी कभी छुटते हैं?

    “क्यों बेचते हो इतने ख़ूबसूरत बैल को?”

    “बाबू जी फ़सलें तबाह हो गई हैं... और मालिया देना है... उफ़! ये बे-वक़्त की बारिशें। क्या मैं अंदर जाऊँ, इस छत के नीचे?”

    “ऊहूँ... तुम्हारा ये बैल गोबर से बरामदे को ख़राब कर देगा।”

    “मैं साफ़ कर दूँगा बाबू जी...! शीशे की तरह... बैल सुबह से भूका है इतनी सर्दी कहाँ बर्दाश्त करेगा और फिर दूसरी बात नहीं। फ़क़त ये परवाना राहदारी धुल गया, तो ये बैल चोरी का माल समझा जाएगा। ताल महल का थानेदार जहाँ ख़ाँ बड़ा कड़वा आदमी है। मार-मार कर अध-मुवा कर देगा। बैल जाता रहेगा। ताल महल में इस बैल की क़ीमत पर ही तमाम उम्मीदें लगा रखी हैं... हाय ये बे-वक़्त की बारिशें...”

    “जाओ।” प्राशर ने कहा... “हम तुम्हें यहाँ जगह नहीं दे सकते... जाओ...”

    दहक़ान सहम कर चला गया। कभी-कभी पीछे मुड़ कर देख लेता। गोया रात को हमारे हाँ ही सेंध लगाएगा। अगर वो सेंध लगाए भी तो हक़ ब-जानिब है। मैंने सोचते हुए कहा,

    “बैल अबू बकर रोड के चौक में गिर पड़ा है, वो दहक़ान के उठाए... किसी के उठाए उठेगा। वो नंदी गुन की तरह दहक़ान को देख कर कभी हाँक नहीं लगाएगा!”

    फिर मैं ने प्राशर से कहा, “चाय तैयार है भाई... कितनी प्यालियाँ पियोगे।”

    “छः।”

    पारा-ए-शर... और दर्जन बीड़ियाँ? “कह दो हाँ।”

    “ज़्यादा...”

    “छी।”

    बारिश और भी तेज़ हो रही है और... और राटा की गालियों की बारिश भी!

    राटा की खपरैल गिर चुकी है। दीवारों में शगाफ़ हो गए हैं। क़रीब ही एक सेठ के सह-मंज़िला मकान का परनाला राटा की झोंपड़ी पर गिरने लगा है। झोंपड़ी के इर्द-गिर्द अबू बकर रोड पर चलते हुए पानी को देख कर तूफान-ए-नूह का ख़याल आता है। क्या हम राटा की मदद कर सकते हैं? बावजूद कलजुग के... हमारे बरामदे के सिवा और कोई नज़दीक पनाह भी तो नहीं है। प्राशर ख़ुश है। उसके पास चाय है। बीड़ियाँ हैं... और बेपनाह राटा इधर ही जाएगी...।

    राटा चारों तरफ़ देख रही है। प्राशर कहता है,

    “अभी वो कहेगी। मुझे अपने दामन में छुपा लो, बाबूजी।”

    “कभी नहीं।” मैं ने सर हिलाते हुए कहा।

    “तो इस के सिवा उसे चारा ही क्या है?”

    ये बारिश का दामन क्या उसके लिए कम है? राटा की सी औरत को मैं जानता हूँ... जब किसी ऐसे इन्सान पर इज़्ज़त के दामन तंग हो जाते हैं... तो ख़ुद ब-ख़ुद एक बहुत बड़ा दामन उसके लिए खुल जाता है...।

    और राटा की तो मुट्ठीयाँ बंद हैं। कभी-कभी वो दाँत पीसते हुए चीख़ती है,

    “जवान मरे... कलमुए... मैंने तो रो लिया तुझे बेची।”

    स्रोत:

    Dana-o-Daam (Pg. 151)

    • लेखक: राजिंदर सिंह बेदी
      • प्रकाशक: मकतबा जामिया लिमिटेड, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1980

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