जानकी
स्टोरीलाइन
जानकी एक ज़िंदा और जीवंत पात्र है जो पूना से बम्बई फ़िल्म में काम करने आती है। उसके अंदर ममता और ख़ुलूस का ठाठें मारता समुंदर है। अज़ीज़, सईद और नरायन, जिस व्यक्ति के भी नज़दीक होती है उसके साथ जिस्मानी ख़ुलूस बरतने में कोई तकल्लुफ़ महसूस नहीं करती। उसकी नफ़्सियाती पेचीदगियाँ कुछ इस तरह की हैं कि जिस वक़्त वह एक शख़्स से जिस्मानी रिश्तों में जुड़ती है, ठीक उसी वक़्त उसे दूसरे की बीमारी का भी ख़याल सताता रहता है। जिन्सी मैलानात का तज्ज़िया करती हुई यह एक उम्दा कहानी है।
पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पेशावर से अ’ज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक जान पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, उसको या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा दो। तुम्हारी वाक़फ़ियत काफ़ी है, उम्मीद है तुम्हें ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होगी।
वक़्त का तो इतना ज़्यादा सवाल नहीं था लेकिन मुसीबत ये थी कि मैंने ऐसा काम कभी किया ही नहीं था। फ़िल्म कंपनियों में अक्सर वही आदमी औरतें लेकर आते हैं जिन्हें उनकी कमाई खानी होती है। ज़ाहिर है कि मैं बहुत घबराया लेकिन फिर मैंने सोचा, अ’ज़ीज़ इतना पुराना दोस्त है, जाने किस यक़ीन के साथ भेजा है, उसको मायूस नहीं करना चाहिए।
ये सोच कर भी एक गो न तस्कीन हुई कि औरत के लिए, अगर वो जवान हो, हर फ़िल्म कंपनी के दरवाज़े खुले हैं। इतनी तरद्दुद की बात ही क्या है, मेरी मदद के बग़ैर ही उसे किसी न किसी फ़िल्म कंपनी में जगह मिल जाएगी।
ख़त मिलने के चौथे रोज़ वो पूना पहुंच गई। कितना लंबा सफ़र तय करके आई थी, पेशावर से बंबई और बंबई से पूना। प्लेटफार्म पर चूँकि उसको मुझे पहचानना था, इसलिए गाड़ी आने पर मैंने एक सिरे से डिब्बों के पास से गुज़रना शुरू किया। मुझे ज़्यादा दूर न चलना पड़ा क्योंकि सेकंड क्लास के डिब्बे से एक मुतवस्सित क़द की औरत जिसके हाथ में मेरी तस्वीर थी उतरी।
मेरी तरफ़ वो पीठ करके खड़ी होगई और एड़ियाँ ऊंची करके मुझे हुजूम में तलाश करने लगी। मैंने क़रीब जा कर कहा, “जिसे आप ढूंढ रही हैं वो ग़ालिबन मैं ही हूँ।”
वो पलटी, “ओह, आप!” एक नज़र मेरी तस्वीर की तरफ़ देखा और बड़े बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में कहा, “सआदत साहब! सफ़र बहुत ही लंबा था। बंबई में फ्रंटियर मेल से उतर कर इस गाड़ी के इंतिज़ार में जो वक़्त काटना पड़ा, उसने तबीयत साफ़ कर दी।”
मैंने कहा, “अस्बाब कहाँ है आपका?”
“लाती हूँ।” ये कह कर वो डिब्बे के अंदर दाख़िल हुई। दो सूटकेस और एक बिस्तर निकाला। मैंने क़ुली बुलवाया। स्टेशन से बाहर निकलते हुए उसने मुझ से कहा, “मैं होटल में ठहरूंगी।”
मैंने स्टेशन के सामने ही उसके लिए एक कमरे का बंदोबस्त कर दिया। उसे ग़ुस्ल-वुस्ल करके कपड़े तबदील करने थे और आराम करना था, इसलिए मैंने उसे अपना एड्रेस दिया और ये कह कर कि सुबह दस बजे मुझसे मिले, होटल से चल दिया।
सुबह साढ़े दस बजे वो प्रभात नगर, जहां मैं एक दोस्त के यहां ठहरा हुआ था, आई। जगह तलाश करते हुए उसे देर हो गई थी। मेरा दोस्त इस छोटे से फ़्लैट में, जो नया नया था मौजूद नहीं था। मैं रात देर तक लिखने का काम करने के बाइ’स सुबह देर से जागा था, इसलिए साढ़े दस बजे नहा धो कर चाय पी रहा था कि वो अचानक अंदर दाख़िल हुई।
प्लेटफार्म पर और होटल में थकावट के बावजूद वो जानदार औरत थी मगर जूंही वो इस कमरे में जहां मैं सिर्फ़ बनयान और पाजामा पहने चाय पी रहा था दाख़िल हुई तो उसकी तरफ़ देख कर मुझे ऐसा लगा जैसे कोई बहुत ही परेशान और ख़स्ताहाल औरत मुझसे मिलने आई है।
जब मैंने उसे प्लेटफार्म पर देखा था तो वो ज़िंदगी से भरपूर थी लेकिन जब प्रभात नगर के नंबर ग्यारह फ़्लैट में आई तो मुझे महसूस हुआ कि या तो इसने ख़ैरात में अपना दस पंद्रह औंस ख़ून दे दिया है या इसका इस्क़ात होगया है।
जैसा कि मैं आप से कह चुका हूँ, घर में और कोई मौजूद नहीं था, सिवाए एक बेवक़ूफ़ नौकर के। मेरे दोस्त का घर जिसमें एक फ़िल्मी कहानी लिखने के लिए मैं ठहरा हुआ था, बिल्कुल सुनसान था और मजीद एक ऐसा नौकर था जिसकी मौजूदगी वीरानी में इज़ाफ़ा करती थी।
मैंने चाय की एक प्याली बना कर जानकी को दी और कहा, “होटल से तो आप नाश्ता कर के आई होंगी, फिर भी शौक़ फ़रमाईए!”
उसने इज़्तिराब से अपने होंट काटते हुए चाय की प्याली उठाई और पीना शुरू की। उसकी दाहिनी टांग बड़े ज़ोर से हिल रही थी। उसके होंटों की कपकपाहट से मुझे मालूम हुआ कि वो मुझसे कुछ कहना चाहती है लेकिन हिचकिचाती है। मैंने सोचा शायद होटल में रात को किसी मुसाफ़िर ने उसे छेड़ा है चुनांचे मैंने कहा, “आपको कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई होटल में?”
“जी, जी नहीं!”
मैं ये मुख़्तसर जवाब सुन कर ख़ामोश रहा। चाय ख़त्म हुई तो मैंने सोचा अब कोई बात करनी चाहिए। चुनांचे मैंने पूछा, “अ’ज़ीज़ साहब कैसे हैं?”
उसने मेरे सवाल का जवाब न दिया। चाय की प्याली तिपाई पर रख कर उठ खड़ी हुई और लफ़्ज़ों को जल्दी जल्दी अदा कर के कहा, “मंटो साहब आप किसी अच्छे डाक्टर को जानते हैं?”
मैंने जवाब दिया, “पूना में तो मैं किसी को नहीं जानता।”
“ओह!”
मैंने पूछा, “क्यों, बीमार हैं आप?”
“जी हाँ।” वो कुर्सी पर बैठ गई।
मैंने दरयाफ़्त किया, “क्या तकलीफ़ है?”
उसके तीखे होंट जो मुस्कुराते वक़्त सिकुड़ जाते थे या सुकेड़ लिए जाते थे वा हुए। उसने कुछ कहना चाहा लेकिन कह न सकी और उठ खड़ी हुई, फिर मेरा सिगरेट का डिब्बा उठाया और एक सिगरेट सुलगा कर कहा, “माफ़ कीजिएगा, मैं सिगरेट पिया करती हूँ।”
मुझे बाद में मालूम हुआ कि वो सिर्फ़ सिगरेट पिया ही नहीं करती बल्कि फूंका करती थी। बिल्कुल मर्दों की तरह सिगरेट उंगलियों में दबा कर वो ज़ोर ज़ोर से कश लेती और एक दिन में तक़रीबन पछत्तर सिगरेटों का धुआँ खींचती थी।
मैंने कहा, “आप बताती क्यों नहीं कि आपको तकलीफ़ क्या है?”
उसने कुंवारी लड़कियों की तरह झुँझला कर अपना एक पांव फ़र्श पर मारा।
“हाय अल्लाह! मैं कैसे बताऊं आपको?” ये कह कर वो मुस्कुराई। मुस्कुराते हुए तीखे होंटों की मेहराब में से मुझे उसके दाँत नज़र आए जो ग़ैर-मा’मूली तौर पर साफ़ और चमकीले थे। वो बैठ गई और मेरी आँखों में अपनी डगमगाती आँखों को न डालने की कोशिश करते हुए उसने कहा,“बात ये है कि पंद्रह-बीस दिन ऊपर हो गए हैं और मुझे डर है कि...”
पहले तो मैं मतलब न समझा लेकिन जब वो बोलते बोलते रुक गई तो मैं किसी क़दर समझ गया, “ऐसा अक्सर होता है।”
उसने ज़ोर से कश लिया और मर्दों की तरह ज़ोर से धुंए को बाहर निकालते हुए कहा, “नहीं... यहां मुआ’मला कुछ और है। मुझे डर है कि कहीं कुछ ठहर न गया हो।”
मैंने कहा, “ओह!”
उसने सिगरेट का आख़िरी कश लेकर उसकी गर्दन चाय की तश्तरी में दबाई। “अगर ऐसा हो गया है तो बड़ी मुसीबत होगी। एक दफ़ा पेशावर में ऐसी ही गड़बड़ हो गई थी। लेकिन अ’ज़ीज़ साहब अपने एक हकीम दोस्त से ऐसी दवा लाए थे जिससे चंद दिन ही में सब साफ़ हो गया था।”
मैंने पूछा, “आपको बच्चे पसंद नहीं?”
वो मुस्कुराई, “पसंद हैं... लेकिन कौन पालता फिरे।”
मैंने कहा, “आपको मालूम है इस तरह बच्चे ज़ाए करना जुर्म है।”
वो एकदम संजीदा हो गई। फिर उसने हैरत भरे लहजे में कहा, “मुझसे अ’ज़ीज़ साहिब ने भी यही कहा था। लेकिन सआदत साहब मैं पूछती हूँ इसमें जुर्म की कौन सी बात है। अपनी ही तो चीज़ है और इन क़ानून बनाने वालों को ये भी मालूम है कि बच्चा ज़ाए कराते हुए तकलीफ़ कितनी होती है...बड़ा जुर्म है!”
मैं बेइख़्तयार हंस पड़ा, “अ’जीब-ओ-ग़रीब औरत हो तुम जानकी!”
जानकी ने भी हंसना शुरू कर दिया, “अ’ज़ीज़ साहब भी यही कहा करते हैं।”
हंसते हुए उसकी आँखों में आँसू आगए। मेरा मुशाहिदा है जो आदमी पुर-ख़ुलूस हों। हंसते हुए उसकी आँखों में आँसू ज़रूर आजाते हैं। उसने अपना बैग खोल कर रूमाल निकाला और आँखें ख़ुश्क करके भोले बच्चों के अंदाज़ में पूछा, “सआदत साहब! बताईए, क्या मेरी बातें दिलचस्प होती हैं?”
मैंने कहा, “बहुत।”
“झूट!”
“इसका सबूत?”
उसने सिगरेट सुलगाना शुरू कर दिया। “भई शायद ऐसा हो। मैं तो इतना जानती हूँ कि कुछ कुछ बेवक़ूफ हूँ। ज़्यादा खाती हूँ, ज़्यादा बोलती हूँ, ज़्यादा हंसती हूँ। अब आप ही देखिए न ज़्यादा खाने से मेरा पेट कितना बढ़ गया है। अ’ज़ीज़ साहिब हमेशा कहते रहे जानकी कम खाया करो, पर मैंने उन की एक न सुनी। सआदत साहब बात ये है कि मैं कम खाऊं तो हर वक़त ऐसा लगता है कि मैं किसी से कोई बात कहना भूल गई हूँ।”
उसने फिर हंसना शुरू किया। मैं भी उसके साथ शरीक होगया।
उसकी हंसी बिल्कुल अलग क़िस्म की थीं। बीच बीच में घुंघरू से बजते थे।
फिर वो इसक़ात-ए-हमल के मुतअ’ल्लिक़ बातें करने ही वाली थी कि मेरा दोस्त, जिसके यहां मैं ठहरा हुआ था, आगया। मैंने जानकी से उसका तआ’रुफ़ कराया और बताया कि वो फ़िल्म लाईन में आने का शौक़ रखती है।
मेरा दोस्त उसे स्टूडियो ले गया क्योंकि उसको यक़ीन था कि वो डायरेक्टर जिसके साथ वो बहैसियत अस्सिटेंट के काम कर रहा था, अपने नए फ़िल्म में जानकी को एक ख़ास रोल के लिए ज़रूर ले लेगा।
पूना में जितने स्टूडियो थे, मैंने मुख़्तलिफ़ ज़राए से जानकी के लिए कोशिश की।
किसी ने उसका साऊँड टेस्ट लिया, किसी ने कैमरा टेस्ट। एक फ़िल्म कंपनी में उसको मुख़्तलिफ़ क़िस्म के लिबास पहना कर देखा गया मगर नतीजा कुछ न निकला।
एक तो जानकी वैसे ही दिन ऊपर हो जाने के बाइ’स परेशान थी, चार-पाँच रोज़ मुतवातिर जब उसे मुख़्तलिफ़ फ़िल्म कंपनियों के उकता देने वाले माहौल में बेनतीजा गुज़ारने पड़े तो वो और ज़्यादा परेशान हो गई।
बच्चा ज़ाए करने के लिए वो हर रोज़ बीस-बीस ग्रेन कुनैन खाती थी। इससे भी उसकी तबीयत पर गिरानी सी रहती थी। अ’ज़ीज़ साहब के दिन पेशावर में उसके बग़ैर कैसे गुज़रते हैं, इसके मुतअ’ल्लिक़ भी उसको हर वक़्त फ़िक्र रहती थी। पूना पहुंचते ही उसने एक तार भेजा था। इसके बाद वो बिला नाग़ा हर रोज़ एक ख़त लिख रही थी। हर ख़त में ये ताकीद होती थी कि वो अपनी सेहत का ख़याल रखें और दवा बाक़ायदगी के साथ पीते रहें।
अ’ज़ीज़ साहब को क्या बीमारी थी, इसका मुझे इल्म नहीं... लेकिन जानकी से मुझे इतना मालूम हुआ कि अ’ज़ीज़ साहब को चूँकि उससे मोहब्बत है, इसलिए वो फ़ौरन उसका कहना मान लेते हैं। घर में कई बार बीवी से उसका झगड़ा हुआ कि वो दवा नहीं पीते लेकिन जानकी से इस मुआ’मले में उन्हों ने कभी चूँ भी न की।
शुरू शुरू में मेरा ख़याल था कि जानकी अ’ज़ीज़ के मुतअ’ल्लिक़ जो इतनी फ़िक्रमंद रहती है, महज़ बकवास है, बनावट है। लेकिन आहिस्ता आहिस्ता मैंने उसकी बेतकल्लुफ़ बातों से महसूस किया कि उसे हक़ीक़तन अ’ज़ीज़ का ख़याल है। उसका जब ख़त आया, जानकी पढ़ कर ज़रूर रोई।
फ़िल्म कंपनियों के तवाफ़ का कोई नतीजा न निकला। लेकिन एक रोज़ जानकी को ये मालूम करके बहुत ख़ुशी हुई कि उसका अंदेशा ग़लत था। दिन वाक़ई ऊपर होगए थे लेकिन वो बात जिसका उसे खटका था, नहीं थी।
जानकी को पूना आए बीस रोज़ हो चले थे।
अ’ज़ीज़ को वो ख़त पर ख़त लिख रही थी। उसकी तरफ़ से भी लंबे लंबे मोहब्बत नामे आते थे। एक ख़त में अ’ज़ीज़ ने मुझसे कहा था कि पूना में अगर जानकी के लिए कुछ नहीं होता तो मैं बंबई में कोशिश करूं क्योंकि वहां बेशुमार स्टूडियो हैं।
बात मा’क़ूल थी लेकिन मैं सिनेरियो लिखने में मसरूफ़ था, इसलिए जानकी के साथ बंबई जाना मुश्किल था, लेकिन मैंने पूना से अपने दोस्त सईद को जो एक फ़िल्म में हीरो का पार्ट अदा कर रहा था, टेलीफ़ोन किया।
इत्तिफ़ाक़ से वो उस वक़्त स्टूडियो में मौजूद न था। ऑफ़िस में नरायन खड़ा था। उसे जब मालूम हुआ कि मैं पूना से बोल रहा हूँ तो टेलीफ़ोन ले लिया और ज़ोर से चिल्लाया, “हलो, मंटो... नरायन स्पीकिंग फ्रॉम दिस एंड... कहो, बात क्या है। सईद इस वक़्त स्टूडियो में नहीं है। घर में बैठा रज़ीया से आख़िरी हिसाब-किताब कररहा है।”
मैंने पूछा, “क्या मतलब?”
नरायन ने उधर से जवाब दिया, “खटपट होगई है। असल में रज़ीया ने एक और आदमी से टांका मिला लिया है।”
मैंने कहा, “लेकिन ये हिसाब-किताब कैसा हो रहा है?”
नरायन बोला, “बड़ा कमीना है यार सईद... उससे कपड़े ले रहे हैं जो उसने ख़रीद कर दिए थे। खैर, छोड़ो इस बात को, बताओ बात क्या है?”
“बात ये है कि पेशावर से मेरे एक अ’ज़ीज़ ने एक औरत यहां भेजी है जिसे फिल्मों में काम करने का शौक़ है।”
जानकी मेरे पास ही खड़ी थी। मुझे एहसास हुआ कि मैंने मुनासिब-ओ-मौज़ूं लफ़्ज़ों में अपना मुद्दआ’ बयान नहीं किया।
मैं तस्हीह करने ही वाला था कि नरायन की बुलंद आवाज़ कानों के अंदर घुसी, “औरत! पेशावर की औरत। ख़ू, बेजो उस को जल्दी। ख़ू हम भी क़सूर का पठान है।”
मैंने कहा, “बकवास न करो नरायन सुनो, कल दक्कन क्वीन से मैं उन्हें बंबई भेज रहा हूँ। सईद या तुम कोई भी उसे स्टेशन पर लेने के लिए आजाना, कल दक्कन क्वीन से, याद रहे।”
नरायन की आवाज़ आई, “पर हम उसे पहचानेंगे कैसे?”
मैंने जवाब दिया, “वो ख़ुद तुम्हें पहचान लेगी... लेकिन देखो कोशिश करके उसे किसी न किसी जगह ज़रूर रखवा देना।”
तीन मिनट गुज़र गए। मैंने टेलीफ़ोन बंद किया और जानकी से कहा, “कल दक्कन क्वीन से तुम बंबई चली जाना। सईद और नरायन दोनों की तस्वीरें दिखाता हूँ। लंबे तड़ंगे ख़ूबसूरत जवान हैं। तुम्हें पहचानने में दिक़्क़त नहीं होगी।”
मैंने एलबम में जानकी को सईद और नरायन के मुख़्तलिफ़ फ़ोटो दिखाए। देर तक वो उन्हें देखती रही। मैंने नोट किया कि सईद का फ़ोटो उसने ज़्यादा गौर से देखा।
एलबम एक तरफ़ रख कर मेरी आँखों में आँखें न डालने की डगमगाती कोशिश करते हुए, उसने मुझ से पूछा,“दोनों कैसे आदमी हैं?”
“क्या मतलब?”
“मतलब ये कि दोनों कैसे आदमी हैं? मैंने सुना है कि फिल्मों में अक्सर आदमी बुरे होते हैं।”
उसके लहजे में एक टोह लेने वाली संजीदगी थी।
मैंने कहा, “ये तो दुरूस्त है लेकिन फिल्मों में नेक आदमियों की ज़रूरत ही कहाँ होती है!”
“क्यों?”
“दुनिया में दो क़िस्म के इंसान हैं। एक क़िस्म उन इंसानों की है जो अपने ज़ख़्मों से दर्द का अंदाज़ा करते हैं। दूसरी क़िस्म उनकी है जो दूसरों के ज़ख़्म देख कर दर्द का अंदाज़ा करते हैं। तुम्हारा क्या ख़याल है, कौन सी क़िस्म के इंसान ज़ख़्म के दर्द और उसकी तह की जलन को सही तौर पर महसूस करते हैं।”
उसने कुछ देर सोचने के बाद जवाब दिया, “वो जिनके ज़ख़्म लगे होते हैं।”
मैंने कहा, “बिलकुल दुरुस्त। फिल्मों में असल की अच्छी नक़ल वही उतार सकता है जिसे असल की वाक़फ़ियत हो। नाकाम मोहब्बत में दिल कैसे टूटता है, ये नाकाम मोहब्बत ही अच्छी तरह बता सकता है। वो औरत जो पाँच वक़्त जानमाज़ बिछा कर नमाज़ पढ़ती है और इश्क़-ओ-मोहब्बत को सुअर के बराबर समझती है। कैमरे के सामने किसी मर्द के साथ इज़हार-ए-मोहब्बत क्या ख़ाक करेगी!”
उसने फिर सोचा, “इसका मतलब ये हुआ कि फ़िल्म लाईन में दाख़िल होने से पहले औरत को सब चीज़ें जाननी चाहिऐं।”
मैंने कहा, “ये ज़रूरी नहीं। फ़िल्म लाईन में आकर भी वो चीज़ें जान सकती है।”
उसने मेरी बात पर ग़ौर न किया और जो पहला सवाल किया था, फिर इसे दुहराया, “सईद साहब और नरायन साहब कैसे आदमी हैं?”
“तुम तफ़सील से पूछना चाहती हो?”
“तफ़सील से आपका क्या मतलब?”
“ये कि दोनों में से आपके लिए कौन बेहतर रहेगा!”
जानकी को मेरी ये बात नागवार गुज़री।
“कैसी बातें करते हैं आप?”
“जैसी तुम चाहती हो।”
“हटाईए भी।” ये कह वो मुस्कुराई। “मैं अब आपसे कुछ नहीं पूछूंगी।”
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “जब पूछोगी तो मैं नरायन की सिफ़ारिश करूंगा।”
“क्यों?”
“इसलिए कि वो सईद के मुक़ाबले में बेहतर इंसान है।”
मेरा अब भी यही ख़याल है। सईद शायर है, एक बहुत बेरहम क़िस्म का शायर। मुर्ग़ी पकड़ेगा तो ज़बह करने की बजाय उसकी गर्दन मरोड़ देगा। गर्दन मरोड़ कर उसके पर नोचेगा। पर नोचने के बाद उसकी यख़नी निकालेगा। यख़नी पी कर और हड्डियां चबा कर वो बड़े आराम और सुकून से एक कोने में बैठ कर उस मुर्ग़ी की मौत पर एक नज़्म लिखेगा जो उसके आँसूओं में भीगी होगी।
शराब पीएगा तो कभी बहकेगा नहीं। मुझे इससे बहुत तकलीफ़ होती है क्योंकि शराब का मतलब ही फ़ौत हो जाता है।
सुबह बहुत आहिस्ता आहिस्ता बिस्तर पर से उठेगा। नौकर चाय की प्याली बना कर लाएगा। अगर रात की बची हुई रम सिरहाने पड़ी है तो उसे चाय में उंडेल लेगा और उस मिक्सचर को एक एक घूँट करके ऐसे पीएगा जैसे उसमें ज़ाइक़े की कोई हिस ही नहीं।
बदन पर कोई फोड़ा निकला है। ख़तरनाक शक्ल इख़्तियार कर गया है, मगर मजाल है जो वो उस की तरफ़ मुतवज्जा हो। पीप निकल रही है, गल सड़ गया है, नासूर बनने का ख़तरा है, लेकिन सईद कभी किसी डाक्टर के पास नहीं जाएगा।
आप उससे कुछ कहेंगे तो ये जवाब मिलेगा, “अक्सर औक़ात बीमारियां इंसान की जुज़्व-ए-बदन हो जाती हैं। जब मुझे ये ज़ख़्म तकलीफ़ नहीं देता तो ईलाज की क्या ज़रूरत है।” और ये कहते हुए वो ज़ख़्म की तरफ़ इस तरह देखेगा जैसे कोई अच्छा शे’र नज़र आगया है।
ऐक्टिंग वो सारी उम्र नहीं कर सकेगा, इसलिए कि वो लतीफ़ जज़्बात से क़रीब क़रीब आरी है। मैंने उसे एक फ़िल्म में देखा जो हीरोइन के गानों के बाइ’स बहुत मक़बूल हुआ था।
एक जगह उसने अपनी महबूबा का हाथ अपने हाथ में लेकर मोहब्बत का इज़हार करना था। ख़ुदा की क़सम उसने हीरोइन का हाथ कुछ इस तरह अपने हाथ में लिया जैसे कुत्ते का पंजा पकड़ा जाता है।
मैं उससे कई बार कह चुका हूँ ऐक्टर बनने का ख़याल अपने दिमाग़ से निकाल दो, अच्छे शायर हो, घर बैठो और नज़्में लिखा करो। मगर उसके दिमाग़ पर अभी तक ऐक्टिंग की धुन सवार है।
नरायन मुझे बहुत पसंद है। स्टूडियो की ज़िंदगी के जो उसूल उसने अपने लिए वज़ा कर रखे हैं, मुझे अच्छे लगते हैं।
(1) ऐक्टर जब तक ऐक्टर है, उसे शादी नहीं करनी चाहिए। शादी करले तो फ़ौरन फ़िल्म को तलाक़ दे कर दूध दही की दुकान खोल ले। अगर मशहूर ऐक्टर रहा तो काफ़ी आमदनी हो जाया करेगी।
(2) कोई ऐक्ट्रस तुम्हें भय्या या भाई साहब कहे तो फ़ौरन उसके कान में कहो, आप की अंगिया का साइज़ क्या है।
(3) किसी ऐक्ट्रस पर अगर तुम्हारी तबीयत आगई है तो तमहीदें बांधने में वक़्त ज़ाए न करो। उससे तख़्लिए में मिलो और कहो कि मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ, इसका यक़ीन न आए तो पूरी जीब बाहर निकाल कर दिखा दो।
(4) अगर कोई ऐक्ट्रस तुम्हारे हिस्से में आजाए तो उसकी आमदनी में से एक पैसा भी न लो। एक्ट्रसों के शौहरों और भाईयों के लिए ये पैसा हलाल है।
(5) इस बात का ख़याल रखना कि ऐक्ट्रस के बतन से तुम्हारी कोई औलाद न हो। स्वराज मिलने के बाद अलबत्ता तुम इस क़िस्म की औलाद पैदा कर सकते हो।
(6) याद रखो कि ऐक्टर की भी आ’क़िबत होती है। उसे रेज़र और कंघी से संवारने के बजाय कभी कभी ग़ैर मोहज़्ज़ब तरीक़े से भी संवारने की कोशिश किया करो, मिसाल के तौर पर कोई नेक काम करके।
(7) स्टूडियो में सब से ज़्यादा एहतिराम पठान चौकीदार का करो। सुबह स्टूडियो में आते वक़्त उसे सलाम करने से तुम्हें फ़ायदा होगा। यहां नहीं तो दूसरी दुनिया में, जहां फ़िल्म कंपनियां नहीं होंगी।
(8) शराब और ऐक्ट्रस की आ’दत हर्गिज़ न डालो। बहुत मुम्किन है किसी रोज़ कांग्रेस गर्वनमेंट लहर में आकर ये दोनों चीज़ें ममनूअ क़रार दे।
(9) सौदागर, मुसलमान सौदागर हो सकता है लेकिन ऐक्टर हिंदू ऐक्टर, या मुस्लिम ऐक्टर नहीं हो सकता।
(10) झूट न बोलो।
ये सब बातें ‘नरायन के दस अहकाम’ के उनवान तले उसने अपनी एक नोटबुक में लिख रखी हैं जिन से उसके कैरेक्टर का बख़ूबी अंदाज़ा हो सकता है। लोग कहते हैं कि वो इन सब पर अमल नहीं करता। मगर ये हक़ीक़त नहीं। सईद और नरायन के मुतअ’ल्लिक़ जो मेरे ख़यालात थे, मैंने जानकी के पूछे बग़ैर इशारतन बता दिए और आख़िर में उससे साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया कि अगर तुम इस लाईन में आगईं तो किसी न किसी मर्द का सहारा तुम्हें लेना पड़ेगा। नरायन के मुतअ’ल्लिक़ मेरा ख़याल है कि अच्छा दोस्त साबित होगा।
मेरा मशवरा उसने सुन लिया और बंबई चली गई। दूसरे रोज़ ख़ुश ख़ुश वापस आई क्योंकि नरायन ने अपने स्टूडियो में एक साल के लिए पाँच सौ रुपये माहवार पर उसे मुलाज़िम करा दिया था। ये मुलाज़मत उसे कैसी मिली, देर तक उसके मुतअल्लिक़ बातें हुईं। जब और कुछ सुनने को न रहा तो मैंने उससे पूछा, “सईद और नरायन, दोनों से तुम्हारी मुलाक़ात हुई, इनमें से किसने तुम को ज़यादा पसंद किया?”
जानकी के होंटों पर हल्की मुस्कुराहट पैदा हुई। लग़्ज़िश भरी निगाहों से मुझे देखते हुए उसने कहा, “सईद साहब!” ये कह कर वह एक दम संजीदा हो गई। “सआदत साहब, आपने क्यों इतने पुल बांधे थे। नरायन की तारीफों के?”
मैंने पूछा, “क्यों”
“बड़ा ही वाहीयात आदमी है। शाम को बाहर कुर्सियां बिछा कर सईद साहब और वो शराब पीने के लिए बैठे तो बातों बातों में मैंने नरायन भय्या कहा। अपना मुँह मेरे कान के पास लाकर पूछा,
“तुम्हारी अंगिया का साइज़ क्या है।”
“भगवान जानता है, मेरे तन-बदन में तो आग ही लग गई, कैसा लच्चर आदमी है।” जानकी के माथे पर पसीना आगया।
मैं ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा।
उसने तेज़ी से कहा, “आप क्यों हंस रहे हैं?”
“उसकी बेवक़ूफ़ी पर।” ये कह कर मैंने हंसना बंद कर दिया।
थोड़ी देर नरायन को बुरा-भला कहने के बाद जानकी ने अ’ज़ीज़ के मुतअ’ल्लिक़ फ़िक्रमंद लहजे में बातें शुरू करदीं। कई दिनों से उसका ख़त नहीं आया था। इसलिए तरह तरह के ख़याल उसे सता रहे थे। कहीं उन्हें फिर ज़ुकाम न होगया हो। अंधाधुंद साईकल चलाते हैं, कहीं हादसा ही न होगया हो।
पूना ही न आरहे हों, क्योंकि जानकी को रुख़सत करते वक़्त उन्होंने कहा था एक रोज़ में चुपचाप तुम्हारे पास चला आऊँगा।
बातें करने के बाद उसका तरद्दुद कम हुआ तो उसने अ’ज़ीज़ की तारीफ़ें शुरू करदीं। घर में बच्चों का बहुत ख़याल रखते हैं। हर रोज़ सुबह उनको वरज़िश कराते हैं और नहला-धुला कर स्कूल छोड़ने जाते हैं। बीवी बिल्कुल फूहड़ है, इसलिए रिश्तेदारों से सारा रख रखाव ख़ुद उन्ही को करना पड़ता है।
एक दफ़ा जानकी को टाईफाइड होगया था तो बीस दिन तक मुतवातिर नर्सों की तरह उसकी तीमारदारी करते रहे, वग़ैरा वग़ैरा।
दूसरे रोज़ मुनासिब-ओ-मौज़ूं अलफ़ाज़ में मेरा शुक्रिया अदा करने के बाद वो बंबई चली गई। जहां उस के लिए एक नई और चमकीली दुनिया के दरवाज़े खुल गए थे।
पूना में मुझे तक़रीबन दो महीने कहानी का मंज़र नामा तैयार करने में लगे। हक़्क़-ए-ख़िदमत वसूल करके मैंने बंबई का रुख़ किया जहां मुझे एक नया कंट्रैक्ट मिल रहा था।
मैं सुबह पाँच बजे के क़रीब अंधेरी पहुंचा जहां एक मामूली बंगले में सईद और नरायन दोनों इकट्ठे रहते थे। बरामदे में दाख़िल हुआ तो दरवाज़ा बंद पाया। मैंने सोचा सो रहे होंगे, तकलीफ़ नहीं देना चाहिए। पिछली तरफ़ एक दरवाज़ा है जो नौकरों के लिए अक्सर खुला रहता है।
मैं उसमें से अंदर दाख़िल हुआ। बावर्चीख़ाना और साथ वाला कमरा जिसमें खाना खाया जाता है, हस्ब-ए-मा’मूल बेहद ग़लीज़ थे। सामने वाला कमरा मेहमानों के लिए मख़सूस था। मैंने उसका दरवाज़ा खोला और अंदर दाख़िल हुआ। कमरे में दो पलंग थे। एक पर सईद और उसके साथ कोई और लिहाफ़ ओढ़े सो रहा था।
मुझे सख़्त नींद आरही थी। दूसरे पलंग पर मैं कपड़े उतारे बग़ैर लेट गया। पायेंती पर कम्बल पड़ा था, ये मैंने टांगों पर डाल लिया। सोने का इरादा ही कर रहा था कि सईद के पीछे से एक चूड़ियों वाला हाथ निकला और पलंग के पास रखी हुई कुर्सी की तरफ़ बढ़ने लगा। कुर्सी पर लट्ठे की सफ़ेद शलवार लटक रही थी।
मैं उठ कर बैठ गया। सईद के साथ जानकी लेटी थी। मैंने कुर्सी पर से शलवार उठाई और उसकी तरफ़ फेंक दी।
नरायन के कमरे में जा कर मैंने उसे जगाया। रात के दो बजे उसकी शूटिंग ख़त्म हुई थी, मुझे अफ़सोस हुआ कि ख़्वाह-मख़्वाह उस ग़रीब को जगाया लेकिन वो मुझ से बातें करना चाहता था। किसी ख़ास मौज़ू पर नहीं। मुझे अचानक देख कर बक़ौल उसके वो कुछ बेहूदा बकवास करना चाहता था, चुनांचे सुबह नौ बजे तक हम बेहूदा बकवास में मशग़ूल रहे जिसमें बार बार जानकी का भी ज़िक्र आया।
जब मैंने अंगिया वाली बात छेड़ी तो नरायन बहुत हंसा। हंसते हंसते उसने कहा सब से मज़ेदार बात तो ये है कि जब मैंने उसके कान के साथ मुँह लगा कर पूछा, तुम्हारी अंगिया का साइज़ क्या है तो उसने बता दिया कहा, “चौबीस।”
इसके बाद अचानक उसे मेरे सवाल की बेहूदगी का एहसास हुआ। मुझे कोसना शुरू कर दिया। “बिल्कुल बच्ची है। जब कभी मुझ से मुडभेड़ होती है तो सीने पर दुपट्टा रख लेती है लेकिन मंटो!
बड़ी वफ़ादार औरत है।”
मैंने पूछा, “ये तुम ने कैसे जाना?”
नरायन मुस्कुराया, “औरत, जो एक बिल्कुल अजनबी आदमी को अपनी अंगिया का सही साइज़ बता दे, धोकेबाज़ हरगिज़ नहीं हो सकती।”
अ’जीब-ओ-ग़रीब मंतिक़ थी। लेकिन नरायन ने मुझे बड़ी संजीदगी से यक़ीन दिलाया कि जानकी बड़ी पुरख़ुलूस औरत है। उसने कहा, “मंटो, तुम्हें मालूम नहीं सईद की कितनी ख़िदमत कर रही है। ऐसे इंसान की ख़बरगीरी जो परले दर्जे का बेपर्वा हो, आसान काम नहीं। लेकिन ये मैं जानता हूँ कि जानकी इस मुश्किल को बड़ी आसानी से निभा रही है।
“औरत होने के साथ साथ वो एक पुरख़ुलूस और ईमानदार आया भी है। सुबह उठ कर इस ख़र ज़ात को जगाने में आध घंटा सर्फ़ करती है। उस के दाँत साफ़ कराती है, कपड़े पहनाती है, नाश्ता कराती है और रात को जब वो रम पी कर बिस्तर पर लेटता है तो सब दरवाज़े बंद करके उसके साथ लेट जाती है और जब स्टूडियो में किसी से मिलती है तो सिर्फ़ सईद की बातें करती हैं।
“सईद साहब बड़े अच्छे आदमी हैं। सईद साहब बहुत अच्छा गाते हैं। सईद साहब का वज़न बढ़ गया है। सईद साहब का पुल ओवर तैयार होगया है। सईद साहब के लिए पेशावर से पोठोहारी सैंडल मंगवाई है।
सईद साहब के सर में हल्का हल्का दर्द है। स्प्रो लेने जा रही हूँ। सईद साहब ने आज मुझ पर एक शे’र कहा। और जब मुझसे मुडभेड़ होती है तो अंगिया वाली बात याद करके त्यौरी चढ़ा लेती है।”
मैं तक़रीबन दस दिन सईद और नरायन का मेहमान रहा। इस दौरान में सईद ने जानकी के मुतअ’ल्लिक़ मुझसे कोई बात नहीं की। शायद इसलिए कि उनका मुआ’मला काफ़ी पुराना हो चुका था। जानकी से अलबत्ता काफ़ी बातें हुईं।
वो सईद से बहुत ख़ुश थी लेकिन उसे उसकी बेपर्वा तबीयत का बहुत गिला था। “सआदत साहब! अपनी सेहत का बिल्कुल ही ख़याल नहीं रखते। बहुत बे परवाह हैं। हर वक़्त सोचना, जो हुआ इस लिए किसी बात का ख़याल ही नहीं रहता। आप हँसने लगे, लेकिन मुझे हर रोज़ उनसे पूछना पड़ता है कि आप संडास गए थे या नहीं।”
नरायन ने मुझसे जो कुछ कहा था, ठीक निकला। जानकी हर वक़्त सईद की ख़बरगीरी में मुनहमिक रहती थी। मैं दस दिन अंधेरी के बंगले में रहा। उन दस दिनों में जानकी की बेलौस ख़िदमत ने मुझे बहुत मुतअस्सिर किया। लेकिन ये ख़याल बार बार आता रहा कि अ’ज़ीज़ को क्या हुआ। जानकी को उसका भी तो बहुत ख़याल रहता है। क्या सईद को पा कर वह उसको भूल चुकी थी।
मैंने इस सवाल का जवाब जानकी ही से पूछ लिया होता अगर मैं कुछ दिन और वहां ठहरता। जिस कंपनी से मेरा कंट्रैक्ट होने वाला था, उसके मालिक से मेरी किसी बात पर चख़ होगई और मैं दिमाग़ी तकद्दुर दूर करने के लिए पूना चला गया। दो ही दिन गुज़रे होंगे कि बंबई से अ’ज़ीज़ का तार आया कि मैं आरहा हूँ।
पाँच छः घंटे के बाद वो मेरे पास था और दूसरे रोज़ सुबह-सवेरे जानकी मेरे कमरे पर दस्तक दे रही थी।
अ’ज़ीज़ और जानकी जब एक दूसरे से मिले तो उन्होंने देर से बिछड़े हुए आ’शिक़ मा’शूक़ की सरगर्मी ज़ाहिर न की। मेरे और अ’ज़ीज़ के ता’ल्लुक़ात शुरू से बहुत संजीदा और मतीन रहे हैं, शायद इसी वजह से वो दोनों मो’तदिल रहे।
अ’ज़ीज़ का ख़याल था होटल में उठ जाये लेकिन मेरा दोस्त जिसके यहां मैं ठहरा था आउट डोर शूटिंग के लिए कोल्हापुर गया था, इसलिए मैंने अ’ज़ीज़ और जानकी को अपने पास ही रखा। तीन कमरे थे। एक में जानकी सो सकती थी दूसरे में अ’ज़ीज़।
यूं तो मुझे उन दोनों को एक ही कमरा देना चाहिए था लेकिन अ’ज़ीज़ से मेरी इतनी बेतकल्लुफ़ी नहीं थी। इसके इलावा उसने जानकी से अपने ता’ल्लुक़ को मुझ पर ज़ाहिर भी नहीं किया था।
रात को दोनों सिनेमा देखने चले गए। मैं साथ न गया, इसलिए कि मैं फ़िल्म के लिए एक नई कहानी शुरू करना चाहता था। दो बजे तक मैं जागता रहा। इसके बाद सो गया। एक चाबी मैंने अ’ज़ीज़ को दे दी थी। इसलिए मुझे उनकी तरफ़ से इत्मिनान था।
रात को मैं चाहे बहुत देर तक काम करूं, साढ़े तीन और चार बजे के दरमियान एक दफ़ा ज़रूर जागता हूँ और उठ कर पानी पीता हूँ। हस्ब-ए-आ’दत उस रात को भी मैं पानी पीने के लिए उठा। इत्तफ़ाक़ से जो कमरा मेरा था, या’नी जिसमें मैंने अपना बिस्तर जमाया हुआ था, अ’ज़ीज़ के पास था और उसमें मेरी सुराही पड़ी थी।
अगर मुझे शिद्दत की प्यास न लगी होती तो अ’ज़ीज़ को तकलीफ़ न देता। लेकिन ज़्यादा विस्की पीने के बाइ’स मेरा हलक़ बिल्कुल ख़ुश्क हो रहा था, इसलिए मुझे दस्तक देनी पड़ी। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला।
जानकी ने आँखें मलते मलते दरवाज़ा खोला और कहा सईद साहब! और जब मुझे देखा तो एक हल्की सी ‘ओह’ उसके मुँह से निकल गई।
अंदर के पलंग पर अज़ीज़ सो रहा था। मैं बेइख़्तियार मुस्कुराया। जानकी भी मुस्कुराई और उसके तीखे होंट एक कोने की तरफ़ सिकुड़ गए। मैंने पानी की सुराही ली और चला आया।
सुबह उठा तो कमरे में धूआँ जमा था। बावर्चीख़ाने में जा कर देखा तो जानकी काग़ज़ जला जला कर अ’ज़ीज़ के ग़ुस्ल के लिए पानी गर्म कर रही थी। आँखों से पानी बह रहा था।
मुझे देख कर मुस्कुराई और अँगीठी में फूंकें मारते हुई कहने लगी, “अ’ज़ीज़ साहब ठंडे पानी से नहाएँ तो उन्हें ज़ुकाम हो जाता है। मैं नहीं थी पेशावर में तो एक महीना बीमार रहे, और रहते भी क्यों नहीं जब दवा पीनी ही छोड़ दी थी... आपने देखा नहीं कितने दुबले होगए हैं।”
और अ’ज़ीज़ नहा-धो कर जब किसी काम की ग़रज़ से बाहर गया तो जानकी ने मुझसे सईद के नाम तार लिखने के लिए कहा, “मुझे कल यहां पहुंचते ही उन्हें तार भेजना चाहिए था। कितनी ग़लती हुई मुझसे उन्हें बहुत तशवीश होरही होगी।”
उसने मुझसे तार का मज़मून बनवाया जिसमें अपनी बख़ैरीयत पहुंचने की इत्तिला तो थी लेकिन सईद की ख़ैरीयत दरयाफ्त करने का इज़्तिराब ज़्यादा था। इंजेक्शन लगवाने की ताकीद भी थी।
चार रोज़ गुज़र गए। सईद को जानकी ने पाँच तार रवाना किए पर उसकी तरफ़ से कोई जवाब न आया।
बंबई जाने का इरादा कर रही थी कि अचानक शाम को अ’ज़ीज़ की तबीयत ख़राब होगई। मुझसे सईद के नाम एक और तार लिखवा कर वो सारी रात अ’ज़ीज़ की तीमारदारी में मसरूफ़ रही। मामूली बुख़ार था लेकिन जानकी को बेहद तशवीश थी।
मेरा ख़याल है इस तशवीश में सईद की ख़ामोशी का पैदा करदा वो इज़्तिराब भी शामिल था। वो मुझ से इस दौरान में कई बार कह चुकी थी, “सआदत साहिब, मेरा ख़याल है सईद साहिब ज़रूर बीमार हैं वर्ना वो मुझे मेरे तारों और ख़ुतूत का जवाब ज़रूर लिखते।”
पांचवें रोज़ शाम को अ’ज़ीज़ की मौजूदगी में सईद का तार आया जिसमें लिखा था, “मैं बहुत बीमार हूँ, फ़ौरन चली आओ।”
तार आने से पहले जानकी मेरी किसी बात पर बेतहाशा हंस रही थी लेकिन जब उसने सईद की बीमारी की ख़बर सुनी तो एक दम ख़ामोश हो गई। अ’ज़ीज़ को ये ख़ामोशी बहुत नागवार मालूम हुई क्योंकि जब उसने जानकी को मुख़ातिब किया तो उसके लहजे में तेज़ी थी। मैं उठ कर चला गया।
शाम को जब वापस आया तो जानकी और अ’ज़ीज़ कुछ इस तरह अलाहिदा अलाहिदा बैठे थे जैसे उन में काफ़ी झगड़ा हुआ था। जानकी के गालों पर आँसुओं का मैल था। जब मैं कमरे में दाख़िल हुआ तो इधर उधर की बातों के बाद जानकी ने अपना हैंडबैग उठाया और अ’ज़ीज़ से कहा, “मैं जाती हूँ, लेकिन बहुत जल्द वापस आजाऊँगी।” फिर मुझ से मुख़ातिब हुई, “सआदत साहब, इनका ख़याल रखिए, अभी तक बुख़ार दूर नहीं हुआ।”
मैं स्टेशन तक उसके साथ गया। ब्लैक मार्किट से टिकट ख़रीद कर उसे गाड़ी पर बिठाया और घर चला आया। अ’ज़ीज़ को हल्का हल्का बुख़ार था। हम दोनों देर तक बातें करते रहे लेकिन जानकी का ज़िक्र न आया।
तीसरे रोज़ सुबह साढ़े पाँच बजे के क़रीब मुझे बाहर का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई। इसके बाद जानकी की । लफ़्ज़ों को ऊपर तले करती हुई वो अ’ज़ीज़ से पूछ रही थी कि उस की तबीयत अब कैसी है और क्या उसकी ग़ैर-मौजूदगी में उसने बाक़ायदा दवा पी थी या नहीं। अ’ज़ीज़ की आवाज़ मेरे कानों तक न पहुंची लेकिन आध घंटे बाद जब कि नींद से मेरी आँखें मुंद रही थीं, अ’ज़ीज़ की ख़फ़गी आमेज़ बातों का दबा दबा शोर सुनाई दिया। समझ में तो कुछ न आया लेकिन इतना पता चल गया कि वो जानकी से अपनी नाराज़गी का इज़हार कर रहा था।
सुबह दस बजे अ’ज़ीज़ ने ठंडे पानी से ग़ुस्ल किया और जानकी का गर्म किया हुआ पानी वैसे ही ग़ुस्लख़ाने में पड़ा रहा। जब मैंने जानकी से इस बात का ज़िक्र किया तो उसकी आँखों में आँसू आगए।
नहा-धो कर अ’ज़ीज़ बाहर चला गया। जानकी कमरे में पलंग पर लेटी रही। सहपहर को तीन बजे के क़रीब जब मैं उसके पास गया तो मालूम हुआ कि उसे बहुत तेज़ बुख़ार है। डाक्टर बुलाने के लिए बाहर निकला तो अ’ज़ीज़ तांगे में अस्बाब रखवा रहा था।
मैंने पूछा, “कहाँ जा रहे हो?” तो उसने मेरे साथ हाथ मिलाया और कहा, “बंबई! इंशाअल्लाह फिर मुलाक़ात होगी।”
ये कह कर वह एक्के में बैठा और चला गया। मुझे ये बताने का मौक़ा ही न मिला कि जानकी को बहुत तेज़ बुख़ार है।
डाक्टर ने जानकी को अच्छी तरह देखा और मुझे बताया कि उसे ब्रोंकाइट्स है, अगर एहतियात न बरती तो निमोनिया होने का ख़तरा है।
डाक्टर नुस्ख़ा दे कर चला गया तो जानकी ने अ’ज़ीज़ के बारे में पूछा। पहले तो मैंने सोचा कि उसे न बताऊं लेकिन छुपाने से कोई फ़ायदा नहीं था, इसलिए मैंने कह दिया कि चला गया है। ये सुन कर उसे बहुत सदमा हुआ। देर तक वो तकिए में सर दे कर रोती रही।
दूसरे रोज़ सुबह ग्यारह बजे के क़रीब जबकि जानकी का बुख़ार एक डिग्री हल्का था और तबीयत भी किसी क़दर दुरुस्त थी, बंबई से सईद का तार आया जिसमें बड़े दुरुश्त लफ़्ज़ों में लिखा था, “याद रहे कि तुमने अपना वा’दा पूरा नहीं किया।” मैं बहुत मना करता रहा लेकिन वो तेज़ बुख़ार ही में पूना एक्सप्रेस से बंबई रवाना होगई।
पाँच-छः दिनों के बाद नरायन का तार आया एक ज़रूरी काम है, फ़ौरन बंबई चले आओ। मेरा ख़याल था कि किसी प्रोडयूसर से उसने मेरे कंट्रैक्ट की बात की होगी, लेकिन बंबई पहुंच कर मालूम हुआ कि जानकी की हालत बहुत नाज़ुक है। ब्रोंकाइटिस बिगड़ कर निमोनिया में तबदील होगया था। इसके इलावा जब वो पूना से बंबई पहुंची थी तो अंधेरी जाने के लिए चलती ट्रेन में चढ़ने की कोशिश करते हुए गिर पड़ी थी जिसके बाइ’स उसकी दोनों रानें बहुत बरी तरह छिल गई थीं।
जानकी ने इस जिस्मानी तकलीफ़ को बड़ी बहादुरी से बर्दाश्त किया। लेकिन जब वो अंधेरी पहुंची और सईद ने उसके बंधे हुए अस्बाब की तरफ़ इशारा करके कहा, “मेहरबानी करके यहां से चलो जाओ,” तो उसे बहुत रुहानी तकलीफ़ हुई।
नरायन ने मुझे बताया! “सईद के मुँह से ये बर्फ़ जैसे ठंडे लफ़्ज़ सुन कर वो एक लहज़े के लिए बिल्कुल पत्थर होगई। मेरा ख़याल है उसने थोड़ी देर के बाद ये ज़रूर सोचा होगा मैं गाड़ी के नीचे आकर क्यों न मर गई। सआदत, तुम कुछ भी कहो मगर सईद औरतों से जैसा सुलूक करता है बहुत ही नामर्दाना है। बेचारी को बुख़ार था, चलती रेल से गिर पड़ी थी और वो भी इस ख़र ज़ात के पास जल्दी पहुंचने के बाइ’स। लेकिन इसने इन बातों का ख़याल ही न किया और एक बार फिर उससे कहा, “मेहरबानी करके यहां से चली जाओ... ”
“उसके लहजे में मंटो किसी जज़्बे का इज़हार नहीं था। बस ऐसा था जैसे लाईनोटाइप मशीन से अख़बार की एक सतर ढल कर बाहर निकल आए। मुझे बहुत दुख हुआ, चुनांचे मैं वहां से उठ कर चला गया। शाम को जब वापस आया तो जानकी मौजूद नहीं थी लेकिन सईद पलंग पर बैठा, रम का गिलास सामने रखे एक नज़्म लिखने में मसरूफ़ था।
मैंने उससे कोई बात न की और अपने कमरे में चला गया दूसरे रोज़ स्टूडियो से मालूम हुआ कि जानकी एक एक्स्ट्रा लड़की के घर ख़तरनाक हालत में पड़ी है। मैंने स्टूडियो के मालिक से बात की और उसे हस्पताल भिजवा दिया। कल से वहीं है, बताओ अब क्या किया जाये। मैं तो उसे देखने जा नहीं सकता इसलिए कि वो मुझसे नफ़रत करती है... तुम जाओ और देख कर आओ किस हालत में है?”
मैं हस्पताल गया तो उसने सबसे पहले अ’ज़ीज़ और सईद के मुतअ’ल्लिक़ पूछा। जो सुलूक उन दोनों ने उसके साथ किया था, उसके बाद उसके पुरख़ुलूस इस्तिफ़सार ने मुझे बहुत मुतअस्सिर किया।
उसकी हालत नाज़ुक थी। डाक्टरों ने मुझे बताया कि दोनों फेफड़ों पर वर्म है और जान का ख़तरा है लेकिन मुझे हैरत है कि जानकी इतनी बड़ी तकलीफ़ मर्दानावार बर्दाश्त कर रही थी।
हस्पताल से लौटा और स्टूडियो में नरायन को तलाश किया तो मालूम हुआ वो सुबह ही से ग़ायब है। शाम को जब वो घर वापस आया तो उने मुझे तीन छोटी छोटी शीशियां दिखाईं जिन का मुँह रबड़ से बंद था, “जानते हो ये क्या है?”
मैंने कहा, “मालूम नहीं। इंजेक्शन से लगते हैं।”
नरायन मुस्कुराया, “इंजेक्शन ही हैं लेकिन पेंसिलिन के।”
मुझे सख़्त हैरत हुई क्योंकि पेंसिलिन उस वक़्त बहुत ही क़लील मिक़दार में तैयार होती थी। अमरीका और इंग्लिस्तान में जितनी बनती है, थोड़ी थोड़ी मिल्ट्री हस्पतालों में तक़सीम करदी जाती थी। चुनांचे मैंने नरायन से पूछा, “ये तो बिल्कुल नायाब चीज़ है, तुम्हें कैसे मिल गई?”
उसने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “बचपन में घर की तिजोरी खोल कर रुपये चुराना मेरे बाएं हाथ का काम था। आज दाएं हाथ से मिल्ट्री हास्पिटल का रेफ्रीजरेटर खोल कर मैंने ये तीन बल्ब चुराए हैं... चलो जल्दी करो जानकी को हस्पताल से होटल में ले चलें।”
टैक्सी लेकर मैं हस्पताल गया और जानकी को इस होटल में ले गया जिसमें नरायन दो कमरों का पहले ही बंदोबस्त कर चुका था।
जानकी ने मुझसे कई बार नहीफ़ आवाज़ में पूछा कि मैं उसे होटल में क्यों लाया हूँ। हर बार मैंने यही जवाब दिया, “तुम्हें मालूम हो जाएगा।”
और जब उसे मालूम हुआ या’नी जब नरायन सिरिंज हाथ में लिए उसे टीका लगाने के लिए इस कमरे में आया तो नफ़रत से एक तरफ़ उसने मुँह फेर लिया और मुझ से कहा, “सआदत साहब, इस से कहिए चला जाये यहां से।”
नरायन मुस्कुराया, “जान-ए-मन, गु़स्सा थूक दो। यहां तुम्हारी जान का सवाल है।”
जानकी को तैश आगया। नक़ाहत के बावजूद उठ कर बैठ गई, “सआदत साहब! मैं जाती हूँ यहां से या आप इस हरामख़ोर को निकालिए बाहर।”
नरायन ने धक्का दे कर उसे उल्टा दिया और मुस्कुराते हुए कहा,“ये हरामज़ादा तुम्हें इंजेक्शन लगा कर ही रहेगा। ख़बरदार जो तुम ने मुज़ाहमत की।”
ये कह कर उसने एक हाथ से मज़बूती के साथ जानकी का बाज़ू पकड़ा, सिरिंज मुझे दे कर उसने स्पिरिट में रूई भिगोई और उसका डंटर साफ़ किया। इसके बाद रूई मुझे दे कर उसने सिरिंज की सूई उसके बाज़ू की मछली में दाख़िल करदी। वो चीख़ी, लेकिन पेंसिलिन उसके जिस्म में जा चुकी थी।
जब नरायन ने जानकी का बाज़ू अपनी मज़बूत गिरफ़्त से अलाहिदा किया तो उसने रोना शुरू कर दिया।
नरायन ने उसकी बिल्कुल पर्वा न की और स्पिरिट लगी रुई से इंजेक्शन वाला हिस्सा पोंछ कर दूसरे कमरे में चला गया।
पहला इंजेक्शन रात के नौ बजे दिया था। दूसरा तीन घंटे बाद देना था। नरायन ने मुझे बताया अगर तीन के साढ़े तीन घंटे होगए तो पेंसिलिन का असर बिल्कुल ज़ाइल हो जाएगा। चुनांचे वो जागता रहा। तक़रीबन साढ़े ग्यारह बजे उसने स्टोव जलाया, सिरिंज उबाली और उसमें दवा भरी।
जानकी ख़रख़राहट भरे सांस ले रही थी। आँखें बंद थीं। नरायन ने दूसरे बाज़ू को स्पिरिट से साफ़ किया और सिरिंज की सूई अंदर खबू दी। जानकी के होंटों से पतली सी चीख़ निकली। नरायन ने दवा जिस्म के अंदर भेज कर सूई बाहर निकाली और स्पिरिट से इंजेक्शन वाली जगह साफ़ करते हुए मुझ से कहा, “अब तीसरा तीन बजे।”
मुझे मालूम नहीं उसने तीसरा-चौथा इंजेक्शन कब दिया। लेकिन जब बेदार हुआ तो स्टोव जलने की आवाज़ आरही थी और नरायन होटल के बैरे से बर्फ़ के लिए कह रहा था क्योंकि उसे पेंसिलिन को ठंडा रखना था।
नौ बजे पांचवां इंजेक्शन देने के लिए जब हम दोनों जानकी के कमरे में गए तो वो आँखें खोले लेटी थी। उसने नफ़रत भरी निगाहों से नरायन की देखा लेकिन मुँह से कुछ न कहा।
नरायन मुस्कुराया, “क्यों जान-ए-मन! क्या हाल है?”
जानकी ख़ामोश रही।
नरायन उसके पास खड़ा होगया, “ये इंजेक्शन जो मैं तुम्हें दे रहा हूँ इ’श्क़ के इंजेक्शन नहीं। तुम्हारा निमोनिया दूर करने के इंजेक्शन हैं जो मैंने मिल्ट्री हास्पिटल से बड़ी सफ़ाई के साथ चुराए हैं... लो, अब ज़रा उल्टी लेट जाओ और कूल्हे पर से शलवार को ज़रा नीचे खिसका दो... कभी लिया है यहां इंजेक्शन?”
ये कह कर उसने जानकी के कूल्हे पर एक जगह गोश्त के अंदर उंगली खुबोई, जानकी की आँखों में मरऊब सी नफ़रत पैदा हुई।
जब उस ने करवट बदली तो नरायन ने कहा, “शाबाश!”
पेशतर इसके कि जानकी कोई मुज़ाहमत करे नरायन ने एक हाथ से उसकी शलवार नीचे खिसकाई और मुझसे कहा, “स्पिरिट लगाओ!”
जानकी ने टांगें चलाना शुरू कीं तो नरायन ने कहा, “जानकी! टांगें-वांगें मत चलाओ... मैं इंजेक्शन लगाके रहूँगा।”
ग़रज़ कि पांचवां इंजेक्शन दे दिया गया। पंद्रह और बाक़ी थे जो नरायन को हर तीन घंटे के बाद देने थे और ये पैंतालीस घंटे का काम था।
पाँच इंजेक्शन से गो जानकी को बज़ाहिर कोई नुमायां फ़ायदा नहीं पहुंचा था लेकिन नरायन को पेंसिलिन के ए’जाज़ का यक़ीन था और उसे पूरी पूरी उम्मीद थी कि वो बच जाएगी। हम दोनों बहुत देर तक इस नई दवा के मुतअ’ल्लिक़ बातें करते रहे। ग्यारह बजे के क़रीब नरायन का नौकर मेरे नाम एक तार लेकर आया। पूना से था। एक फ़िल्म कंपनी ने मुझे फ़ौरन बुलाया था इसलिए मुझे जाना पड़ा।
दस-पंद्रह दिनों के बाद कंपनी ही के काम से में बंबई आया। काम ख़त्म करके जब मैं अंधेरी पहुंचा तो सईद से मालूम हुआ कि नरायन अभी तक होटल ही में है। होटल बहुत दूर, शहर में था इसलिए रात मैं वहीं अंधेरी में रहा।
सुबह आठ बजे वहां पहुंचा तो नरायन के कमरे का दरवाज़ा खुला था। अंदर दाख़िल हुआ तो कमरा ख़ाली पाया। दूसरे कमरे का दरवाज़ा खोला तो एक दम आँखों के सामने कुछ हुआ।
जानकी मुझे देखते ही लिहाफ़ के अंदर घुस गई और नरायन जो उसके साथ लेटा था, मुझे वापस जाते देख कर कहा, “आओ मंटो आओ... मैं हमेशा दरवाज़ा बंद करना भूल जाता हूँ... आओ यार... बैठो इस कुर्सी पर, लेकिन ये जानकी की शलवार दे देना!।
- पुस्तक : چغد
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