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रूदाद पागलख़ाने की

रतन सिन्ह

रूदाद पागलख़ाने की

रतन सिन्ह

MORE BYरतन सिन्ह

    स्टोरीलाइन

    कहानी एक पागलखाने की पृष्ठभूमि में विभाजन की त्रासदी के गिर्द घूमती है। एक एक्सपर्ट डॉक्टर एक दिन बरेली के पागलख़ाने में आया और सभी पागलों को खुला छोड़ देने और बाक़ी तमाम स्टाफ़ को छुप जाने के लिए कहा। डॉक्टर और स्टाफ़ की गै़र मौजदूगी में पागलों ने वे सब कारनामे अंजाम दिए जो समाज में रहने वाले समझदार और पढ़े लिखे लोग आए दिन करते रहते हैं। साथ ही उन्होंने वह सब भी बयान किया जो विभाजन के दौरान हुआ था... बंटवारा, हिंसा, आग-ज़नी, लूटमार और विस्थापन का दर्द।

    एक माहिर-ए-नफ़सियात डॉक्टर कुछ दिनों पहले बरेली के पागल-ख़ाने में आया और उसने राय दी कि ताज़ा तरीन मालूमात के मुताबिक़ अगर पागलों को वो सब कुछ करने की इजाज़त दे दी जाए जो वो करना चाहते हैं तो उससे उनकी सेहत पर बहुत अच्छा असर पड़ता है। उन्हें अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ अपने मन की गुत्थियाँ सुलझाने का जो मौक़ा मिलता है, उससे ख़ातिर ख़्वाह नताइज निकलते हैं। एक तजरबे के मुताबिक़ तीस से चालीस फ़ीसद पागल तंदुरुस्त हो गए और बाक़ी को भी इफ़ाक़ा हुआ।

    बरेली के पागल-ख़ाने में ये नुस्ख़ा आज़माया गया, उसकी रूदाद हस्ब-ज़ैल है,

    इन सारे पागलों की कुल तादाद 996 थी जिनको पागल-ख़ाने की ही चारदीवारी के अंदर खेलों के लम्बे चौड़े मैदान में छोड़ दिया गया था ताकि वो खुल खेलें। पागल-ख़ाने का सारा अमला, डॉक्टर, नर्सें, सिपाही, चौकीदार, माली, चपरासी सबके सब अपने अपने दफ़्तरों और दूसरे ठिकानों पर इस तरह छुप कर बैठ गए, जहाँ से वो पागलों पर पूरी नज़र भी रख सकते थे लेकिन पागलों की नज़रों से इस तरह छुपे थे, जैसे वो वहाँ मौजूद ही हों।

    अब पागल-ख़ाने में हर तरफ़ पागलों का राज था।

    अमले में से किसी का होना पागलों को मज़ीद पागल बनाए दे रहा था।

    माजरा क्या है? वो समझ नहीं पा रहे थे।

    इससे पहले भी साल में दो मर्तबा पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को पागलों को इस मैदान में लाकर खड़ा किया जाता था। फिर क़ौमी तराना होता था, जन गन मन अधीनायक जय है... और फिर उसके बाद मिठाई बटती थी। पाँच-पाँच लड्डू। उन लड्डुओं को कुछ पागल भूकों की तरह खा लेते थे। कुछ उसे क़ीमती सरमाया समझ कर अपने-अपने कमरों में ले जाते थे। कुछ ऐसे भी थे जो सोचते थे कि कहीं इनमें ज़हर मिला हो। इसलिए या तो वो लड्डुओं को इस तरह फेंक देते थे कि कोई उन्हें ऐसा करते हुए देख पाए। और कई जो अपने शक में पूरा ईमान रखते थे वो अपने कमरे में ले जाकर कीड़े मकोड़ों को खिलाकर देखते थे कि मिठाई खाकर उनपर क्या असर होता है। लेकिन कीड़ों के मरने पर भी उनका शक दूर नहीं होता था, और वो मिठाई नहीं खाते थे।

    लेकिन उस वक़्त ऐसा कुछ नहीं हुआ। झंडा लहराया गया, गाना गाया गया। लड्डू बटे। आख़िर एक पागल झंडा लहराने वाले लोहे के खम्बे पर, जो ईंटों के चबूतरे पर गड़ा हुआ था चढ़ गया। पहले तो उसने बड़े मुहतात होकर चारों तरफ़ सर घुमाया और जब अस्पताल के अमले का कोई आदमी नज़र आया तो पहले तो उसने मायूसी में चारों तरफ़ देखा और फिर उसके चेहरे पर ख़ुशी के ऐसे आसार नमूदार हुए जैसे किसी भी उस्ताद को स्कूल में पाकर देहात के बच्चों के होते हैं। उस ख़ुशी का इज़हार उसने ऐसे किया कि अपने नेफ़े में उड़सा हुआ एक पाव भर का पत्थर, जो वो किसी अनजाने दुश्मन को मारने के लिए बरसों से अपने पास रखता आया था, उसने उसे नेफ़े से निकाला और फिर लोहे के खम्बे पर मार-मार कर टन-टन की आवाज़ निकाली जैसे वो सारे पागलों के लिए पूरी छुट्टी का ऐलान कर रहा हो।

    पूरी छुट्टी का ऐलान होते ही एक पागल जो बरसों से मौन धारण किए हुए था, उसके गले से कुछ ऐसी आवाज़ फूट पड़ी जैसे रास्ता मिल जाने पर बाँस के टुकड़े से गुज़रती हुई हवा मीठी सुरीली सी आवाज़ में ढ़ल जाए। एक गूँगे के मुँह से पहली बार ऐसी आवाज़ निकलते देख कर दूसरा पागल जो हमेशा चीख़ता चिंघाड़ता रहता था, ये सोच कर मौन हो गया कि अगर गूँगे बोलने लगें तो ज़बान रखने वालों को मौन धारन कर लेना चाहिए ताकि हिसाब बराबर रहे और क़ुदरत का निज़ाम बिगड़ने पाए।

    इसके बाद पोल पर टँगे हुए पागल ने नहीं बल्कि एक और पागल जो अपने गले में हर वक़्त सीटी लटकाए रखता था, वो सीटी बजाते हुए मैदान में चारों तरफ़ यूँ दौड़ने लगा जैसे वो सब खिलाड़ियों को अपना-अपना खेल शुरू करने के लिए कह रहा हो।

    फिर क्या था। हर तरफ़ तमाशा शुरू हो गया।

    हँसने वाले पागलों ने ठहाके लगाने शुरू कर दिए। रोने वाले पागलों ने ऐसी दहाड़ें मारीं कि हँसने वाले पागलों के भी दिल पसीज गए और हँसते-हँसते उनकी आँखों से आँसुओं की बरसात होने लगी। चँद पागल ऐसे थे जो सिर्फ़ किसी कोने में ही उठते बैठते थे। अब इस मैदान में जब उनको कोई कोना मिला तो उनके दिमाग़ और ख़राब हो गए। वो परेशानी के आलम में घबराए हुए कभी उधर जाते और कभी उधर दौड़ते, लेकिन वहाँ कोई कोना हो तो उन्हें सुकून नसीब हो। ऐसे में एक पागल को एक पेड़ की दो उभरी हुई जड़ें तने के बीच में एक कोना सा बनाती हुई लगीं। उसने इसी को ग़नीमत जाना और वहाँ जाकर बैठ गया। एक को बैठा देख कर दूसरे पागलों ने सोचा कि यहाँ यक़ीनन कोई कोना होगा जो गुरु बैठ गया है, इसलिए वो भी सिकुड़ कर उसके पास बैठ गए। वो दिल में बड़े ख़ुश थे कि आख़िर उन्हें बैठने के लिए मुनासिब जगह मिल गई। फिर भी उनको ताज्जुब हो रहा था कि ये कौन सा कोना है जिसके चारों तरफ़ लोग घूम रहे हैं।

    एक ने उठ कर देखना चाहा तो दूसरे ने पकड़ कर बिठा लिया।

    यार ये है कोना ही। हमारे गिर्द घूमने वाले लोग पागल हैं जो ये समझ नहीं पा रहे हैं कि ये कोना नहीं है।

    जहाँ ये लोग एक कोने में दुबक कर बैठे थे वहाँ उनके पास ही इस पेड़ के नीचे एक पागल हवा में हवाई किताब के वरक़ पलटता हुआ अपने मुताले में इस तरह महव हो गया जैसे दुनिया जहान से उसने रिश्ता तोड़ लिया हो। हवा में लिखी तहरीर से इसके ज़ेहन पर जो असरात मुरत्तब होरहे थे वो जब उसके चेहरे पर झलकते तो देखने वाले को पता चल जाता कि वो ज़िंदगी के किस क़िस्म के तजरबात से दो चार हो रहा है। लेकिन उसका एक मसला हल नहीं हो रहा था... चलती हुई हवा, उसकी हवाई किताब के पन्नों को उलट-पलट देती थी। इससे इसकी पढ़ाई में ख़लल पड़ रहा था।

    एक जगह और तमाशा हो रहा था। एक पागल अपने दोनों हाथ ज़मीन पर टिकाए गाय बना खड़ा था। दूसरा पागल उसकी पिछली टाँगों के नीचे बैठा गाय का दूध दूह रहा था। कुछ पागल उनके इर्द गिर्द घेरा डाले खड़े तमाशा देख रहे थे। गाय बना पागल थोड़े-थोड़े वक़्फ़े के बाद टाँग मार कर उसकी दूध से भरी बाल्टी गिरा देता था। दूध दूहने वाला पागल परेशान हो जाता था। वो कभी गाय की टाँगों को रस्सी से बाँधता, कभी पास खड़े पागल से कहता कि वो मुँह की तरफ़ से गाय को क़ाबू में रखे। हज़ार कोशिश के बावजूद उसकी बाल्टी ख़ाली की ख़ाली रह जाती थी। वो बड़ी हसरत भरी नज़रों से इर्द-गिर्द खड़े पागलों की तरफ़ देखता था और कभी अपनी ख़ाली बाल्टी की तरफ़। ये हसरत इर्द-गिर्द खड़े पागलों के चेहरों पर भी मायूसी बनकर बिखर रही थी। वो सोच रहे थे कि अगर ये बाल्टी भर जाए तो शायद उन्हें भी दूध चखने को मिले लेकिन हाय री हसरत... इस तरह गाय बना पागल और उसका दूध दूह रहा पागल, और ये तमाशा देखने वाले पागल... सबके सब बेहद बेज़ार नज़र रहे थे।

    चार पागल जो क़ौमी तराना गाने के लिए पोल के नीचे खड़े थे, वो गुम सुम से बार-बार उधर देख रहे थे जिधर से पागल-ख़ाने के डॉक्टर लोग आते थे। उनका इंतिज़ार ख़त्म नहीं हो पा रहा था। क़ौमी तराने के बोल उनके सीने से फूटते, उनके होंटों पर आते थे। उन्हें अपने होंटों को बंद रख कर क़ौमी तराने के अल्फ़ाज़ को मुँह के अंदर ही रोकने और वापस अपने सीने के अंदर भेजने में बड़ी दिक़्क़त का सामना करना पड़ रहा था। पानी के बहाव और दिल की आवाज़ को रोकना बड़ा मुश्किल काम होता है। घड़े का सारा पानी बह जाने पर एक बार उन्हें कितनी देर पानी पीने को नहीं मिला था। अगर वक़्त से पहले ही क़ौमी तराने के बोल मुँह से निकल गए तो वक़्त आने पर वो क्या करेंगे।

    इस मुश्किल का हल उन्होंने इस तरह ढूँढ़ा। रहने दीजिए। उन्होंने एक दूसरे को ऐसी ऐसी गंदी गालियाँ देनी शुरू कर दीं कि उन्हें तहरीर में नहीं लाया जा सकता। इस क़िस्म की हरकतें तो सिर्फ़ शरीफ़ क़िस्म के या यूं कह लीजिए कि नीम पागल क़िस्म के पागलों की थीं। लेकिन पागलों की इतनी बड़ी तादाद में कुछ ऐसे पागल भी थे जो पागल-ख़ाने में बेहद ख़तरनाक समझे जाते थे, उन्हें जब ज़ंजीरों के बंधनों से आज़ाद कर दिया गया तो अव्वल तो उन्हें यक़ीन ही हुआ। ऐसे कई पागल तो अब भी मैदान में अपनी जगह से हिल नहीं रहे थे। उनका ख़्याल था कि वो अब भी बंधे  हुए हैं।

    ऐसे एक पागल ने दूसरे पागल से कहा,उठो।

    वो नहीं उठा। उसे अपनी मजबूरी का पूरा एहसास था।

    अरे मैं कहता हूँ उठो।

    वो फिर भी नहीं उठा।

    पहले पागल को ग़ुस्सा गया। इसकी ये मजाल कि मेरे कहने पर भी उठ नहीं रहा। उसने इसकी पीठ पर इतने ज़ोर की लात मारी कि दर्द उसकी हड्डी तक पहुँच गया।

    मार खाने वाले पागल की आँखों में ख़ून उतर आया। वो मुँह से झाग फेंकता हुआ बोला,अगर मेरे हाथ-पाँव बंधे हुए होते तो अब तक तुम्हारी हड्डी पसली एक कर दी होती।

    फिर वो दर्द भरी आवाज़ में चिल्लाने लगा,अरे कोई मेरे हाथ-पाँव खोल दो। कोई मेरे पाँव की बीड़ियाँ खोल दे तो मैं इसकी वो टाँग तोड़ कर रख दूँ जो उसने मुझे मारी थी। ये कहते हुए वो जोश से भरा हुआ उठा और उस पेड़ को एक झटके से ज़मीन से उखाड़ फेंका, जिसकी जड़ों को कोना समझ कर पागल बैठे हुए थे। पेड़ को जड़ से उखाड़ कर वो पागल फिर वहीं जम कर बैठ गया और चिल्लाने लगा, अरे कोई मेरे हाथ-पाँव की बेड़ियाँ खोल दो। मैं इस पागल की टांग तोड़ना चाहता हूँ  जिसने मेरी पीठ पर लात मारी है।

    ये सुन कर इर्द-गिर्द के पागल उसके पागलपन पर हँसे नहीं। उसकी वजह ये है कि पागलों में इस उसूल पर आम तौर पर अमल किया जाता है कि कोई पागल दूसरे पागल के पागलपन का मज़ाक़ नहीं उड़ाएगा। इसके बर-अक्स सबके सब बड़ी संजीदगी से सोचने लगे कि इस मजबूर इंसान की किस तरह मदद की जाए कि उसे पूरा इंसाफ़ मिल सके। अभी वो इस मस्अले का कोई हल ढूँढ नहीं पाए थे कि एक दूसरा मामला खड़ा हो गया।

    हुआ ये कि वो पागल जो ख़ामोश खड़ा हवा में ही पन्ने पलटता हुआ, अपनी हवाई किताब पढ़ रहा था, उसे लगा जैसे कहानी का तसलसुल टूट रहा है। उसने अपने पन्ने उलट-पलट कर देखे। उसे लगा जैसे उसके एक दो पन्ने ग़ायब हैं। उसने नज़र दौड़ा कर देखा। हवा दो सूखे पत्तों को उड़ाए जा रही थी। अपनी किताब के पन्नों को पकड़ने के लिए भागा तो वो बे-ख़्याली में एक ख़तरनाक क़िस्म के पागल से टकरा गया।

    अच्छा! तो तू मुझसे टक्कर ले रहा है? तेरी ये मजाल! और ख़तरनाक पागल ने उस पढ़ाकू पागल को गले से पकड़ा और ज़मीन पर इस तरह पटक दिया जैसे कोई देव हैकल क़िस्म का पहलवान मरियल से आदमी को अखाड़े में पटक कर कहता है, अबे हिम्मत है तो उठ!

    अरे मारा, मारा? सीटी वाला पागल सीटी बजाता हुआ सिपाही बन कर मौक़ा-ए-वारदात पर गया और ख़तरनाक क़िस्म के पागल को कलाई से पकड़ कर बोला,अब हिलना नहीं।

    सब ग़लत। एक दूसरा पागल ख़तरनाक क़िस्म के पागल की कलाई को छुड़ाते हुए बोला,सब ग़लत है। पुलिस मौक़ा-ए-वारदात पर फ़ौरी तौर पर कभी नहीं आती। और उस वक़्त तो क़तई नहीं आती जब मुजरिम मौक़ा-ए-वारदात पर मौजूद हो। ये कह कर उसने ताईद के लिए चारों तरफ़ देखा। सबने हामी भरी।

    अब ख़तरनाक पागल को खुली छूट थी। वो घूँसों और लातों से ज़मीन पर पड़े हुए पागल की मरम्मत करने लगा। साथ ही उसने उस पागल को भी पकड़ लिया जो सिपाही बन कर आया था। वो वनों को दोनों हाथों में पकड़े उनके सर आपस में टकराने जा रहा था कि दो और ख़तरनाक क़िस्म के पागलों ने सोचा कि ये पागल जो मार खा रहे हैं ये तो हमारी बैरक के हैं और ये जो मारने वाला है ये दूसरी बैरक का है। हमें अपनी बैरक वाले पागलों की मदद करनी चाहिए। वो भाग कर मौक़ा-ए-वारदात पर पहुँचे और मार खाने वालों से बोले,अरे तुम मर जाने का बहाना करो। वरना ये तुम्हें जान से मार डालेगा।

    मार खाने वाले लाशें बने ज़मीन पर फैल गए।

    पागलों का एक उसूल ये भी है कि वो ज़िंदा लोगों को मारते हैं, लाशों को नहीं। इस लिए उसने मरे हुओं को मारने का इरादा तर्क कर दिया। मारने का इरादा तो तर्क कर दिया, लेकिन इस का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ था और जब ग़ुस्सा ठंडा हो तो अच्छा भला आदमी पागल हो जाता है, और वो तो था ही पागल! इसलिए वो उन दोनों पागलों को ढूँढ़ने लगा जो उसके शिकार को बचाकर ख़ुद मौक़ा-ए-वारदात से खिसक लिये थे। वो मौक़ा-ए-वारदात से खिसक तो लिये थे लेकिन वो बदमाशों की नफ़सियात से पूरी तरह वाक़िफ़ थे। उन्हें पहले से मालूम था कि वो बदमाश उनका पीछा ज़रूर करेगा। और अगर पीछा किया तो फिर उससे दो-दो हाथ की नौबत भी सकती  है। इस तसादुम से बचने के लिए उन्होंने अपनी ताक़त बढ़ाना ज़रूरी समझा। वो आन की आन में दाएँ तरफ़ गए और दाएँ तरफ़ खड़े पागलों को बाएँ तरफ़ के पागलों से अलग करना शुरू कर दिया।

    दाएँ तरफ़ के पागल अलग।

    बाएँ तरफ़ के पागल अलग।

    दोनों जल्दी-जल्दी दोनों धड़ों को अलग कर रहे थे।

    तुमने देखा नहीं। दाएँ तरफ़ वाला पागल बदमाश हमारे बाएँ तरफ़ वाले दो भाइयों को मार रहा था। आज उन्हें मारा, कल किसी और को मारेंगे इसलिए अपना धड़ा अलग करके अपनी ताक़त बढ़ा लो।

    किसी की समझ में कुछ नहीं रहा था। दाएँ-बाएँ का शोर सुन कर हर तरफ़ अफ़रा-तफ़री मची थी, कोई इधर भाग रहा था कोई उधर। कुछ बाएँ तरफ़ खड़े पागलों की बैरकें दाएँ तरफ़ थीं। कुछ दाएँ तरफ़ वालों की बैरकें बाएँ तरफ़ थीं। ज़्यादातर पागलों को तो दाएँ-बाएँ का फ़र्क़ ही समझ में नहीं रहा था। फिर भी बिला समझे ही किसी ने उधर जाने की कोशिश की जिधर उसकी बैरक वाले लोग ज़्यादा थे।

    एक पागल को दूसरी तरफ़ भागते देख कर एक बदमाश पागल ने रोकते हुए कहा, उधर कहाँ भागे जा रहे हो?

    मेरी बैरक उस तरफ़ है।

    अरे पागल! पागलों में अव्वल तो तक़सीम नहीं होती। और अगर हो भी तो सिर्फ़ हदों की तक़सीम होती है, आबादी का तबादला नहीं होता। और फिर ये जो हो रहा है महज़ वक़्ती है। अभी थोड़ी देर में दोनों एक हो जाएँगे।

    पागल उधर लौट गया जिधर से आया था। लेकिन उसकी समझ में नहीं रहा था कि जहाँ वो खड़ा है, वहाँ वो क्यों खड़ा है, उसे कहाँ खड़ा होना चाहिए... दाएँ या बाएँ। जब वो कुछ सोच पाया तो उसका दिमाग़ और चकरा गया,दाएँ-बाएँ... दाएँ-बाएँ वो गरदान करने लगा और साथ ही पैरों के साथ क़वाइद भी।

    ऐसे में वो दो पागल जो मर जाने का बहाना करके मार खाने से बच गए थे, अपनी साँसें रोके अब भी कोई हरकत किए बग़ैर ज़मीन पर लेटे थे। उनके कानों में जब क़वाइद करने वाले पागल की दाएँ-बाएँ की गरदान की आवाज़ पड़ी तो उनमें से एक ने दूसरे से धीरे से कहा,सारे पागल दाएँ और बाएँ गिरोहों में बट गए हैं। हम किधर जाएँ?

    हम तो लाशें हैं। लाशों का कोई धड़ा नहीं होता। और फिर लाशें कहीं जा भी कैसे सकती हैं।

    ये बात मेरी समझ में क्यों नहीं आई?

    इसलिए कि तुम मुझसे ज़्यादा पागल हो।

    पागलपन में ही सही! किसी तरह, मैं किसी से बड़ा तो हूँ... अगर मेरा भाई ये मान लेता कि मैं उसका बड़ा भाई हूँ तो शायद मैं पागल ही होता। ऐसा कहते हुए उसकी आँखों से आँसू निकल आए।

    क्या ग़ज़ब ढा रहे हो। लाशें रोया नहीं करतीं। मरने वाले ज़िंदगी के दुःख-सुख से निजात पा जाते हैं। मरने का यही तो सुख है।

    इतने में जिस बैरक के दो पागल मैदान के बीच लाशें बने पड़े थे, उस बैरक के पागलों ने मिल कर अपने मरने वाले साथियों के सोग में रोना शुरू करदिया... बदमाश पागल तो एक नया दँगल शुरू करके अपनी बरतरी सब पर क़ाइम करना चाहते थे। उसी मक़सद के लिए उन्होंने पागल-ख़ाने के सारे पागलों को दो धड़ों में बाँट दिया था। उन पागलों को यूँ रोते देख कर उन्होंने सोचा, यार ये तो पाला मारे ले रहे हैं। अब क्या किया जाए?

    ठहरो, मेरे पास इसका इलाज है। उनमें से एक बोला, आओ मेरे साथ। फिर वो रोने वाले पागलों के पास गए और उनमें से एक पागल से, जो बहुत दहाड़ें मार-मार कर रो रहा था, किसी ने चुपके से उसके कान में कहा,अरे मरने वाले तो दूसरे धर्म के थे। तुम क्यों रो-रो कर हलकान हो रहे हो?

    लेकिन वो थे तो हमारी ही बैरक के। ये कहते हुए उसने इतने ज़ोर की दहाड़ मारी कि मरे हुए दोनों पागलों की आँखों में भी आँसू आगए। बदमाश पागलों का वार ख़ाली गया और वो ग़ुस्से में भरे हुए इधर-उधर दौड़ते हुए अपने हाथ लाठी चलाने के अंदाज़ में यूँ घुमाने लगे जैसे जो भी सामने आया, वो उसे नीस्त-ओ-नाबूद कर देंगे। फिर उन्होंने मुख़ालिफ़ सम्त जाकर दो चार लोगों के हाथ जड़ भी दिए, दो-चार को उठाकर ज़मीन पर पटका और फिर दौड़ते हुए मैदान के बीच यूँ आकर खड़े हो गए जैसे मुख़ालिफ़ों को उकसाने की कोशिश कर रहे हों कि किसी माई के लाल में दम हो तो सामने आए।

    अब जब दोनों दाएँ और बाएँ धड़ों को एक-दूसरे के सामने सफ़ आरा देखा तो बिशन सिंह ऑफ़ टोबा टेक सिंह, जिसको लाहौर के पागल-ख़ाने से बरेली के पागल ख़ाने में बसाया गया था, और जो अब बूढ़ा होने के बाद भी गुड़गुड़ की गरदान करता रहता था, यक-लख़्त होश खो बैठा या पागलों की भाषा में उसे होश गया। उसने देखा कि दोनों धड़ों के पागल हवा में मुक्के लहरा रहे हैं, तलवारें चला रहे हैं आग लगाने की सी हरकतें कर रहे हैं, लोगों को आग में फेंकने के इशारे कर रहे हैं... दोनों धड़ों के लोग एक-दूसरे की तरफ़ इशारे कर रहे थे कि हम रहे हैं। सब कुछ मलियामेट कर देंगे। वो उछल रहे थे, धमकियाँ दे रहे थे।

    बिशन सिंह के ज़ेहन में आँधियाँ चलने लगीं। उसे लगा जैसे इस झक्कड़ में आसमान की छत का कोई टुकड़ा छप्पर की तरह उड़ कर ज़िंदगी के आँगन में गिरेगा और सब कुछ नीस्त-ओ-नाबूद हो जाएगा। जैसे ज़मीन का कोई टुकड़ा इस झक्कड़ में उड़ता हुआ आसमान से जा टकराएगा और सूरज और चाँद और सितारे टूट-टूट कर बिखर जाएंगे।

    चार सू अंधेरा फैल जाएगा।

    कुछ सुझाई देगा।

    उस अंधेरे में उसने देखा कि टोबा टेक सिंह की आपस में गले मिलती हुई गलियों के हाथ निकल आए हैं और उन्होंने एक दूसरी का गला घोंटना शुरू कर दिया है।

    टोबा टेक सिंह की तरफ़ ध्यान जाते ही धुँधली-धुँधली यादें कहीं दूर, बहुत, दूर झिल-मिल करते दीपों की तरह रौशन होकर टिमटिमाने लगीं। उसके सामने टोबा टेक सिंह का गाँव, उसकी गलियाँ, बाग़ और खेत आए फिर बरगद का पेड़ और पीपल के पत्ते उसकी नज़रों के सामने फैल गए।

    तालियाँ बजाते-बजाते पता नहीं क्या हुआ कि वो यूँ टकराने लगे जैसे लड़ रहे हों, फिर बिशन सिंह के देखते ही देखते दोनों पेड़ों को आग लग गई और वो काग़ज़ के बने महल की तरह आनन-फ़ानन राख हो गए। ये राख उड़ती हुई तालाब की तरफ़ गई तो उसने देखा कि किसी ने तलवार चलाई और पानी दो फाड़ हो गया। उसने दूसरा वार किया तो हवा के दो टुकड़े हो गए। ये देख कर बिशन सिंह का दिमाग़ फिर ख़राब हो गया और वो अपनी गरदान करने लगा,गुड़ गुड़ ऑफ़ दी... अभी वो यहीं तक पहुँची थी कि उसके पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गई और उसे लगा कि वो लड़खड़ाता हुआ नीचे ही नीचे गिरता जा रहा हो। अपने आपको गिरने से बचाने के लिए बिशन सिंह ने गुड़गुड़ किया। फिर जस्त लगाई और पास वाले पेड़ की मुतवाज़ी टहनी पर जाकर बैठ गया। वो गरदान करने लगा... गुड़ गुड़ दी ऑफ़ दी... लेकिन उसका दिमाग़ इतना चकरा गया था कि वो अपनी गरदान भूल गया और उसने बड़े-बड़े फक्कड़ तौलने शुरू कर दिए।

    तभी एक दूसरा पागल चिल्ला उठा...

    सुनो-सुनो! आक़िलों के आक़िल, पागलों के पागल, शाहों के शहंशाह गुड़ गुड़ दी बिशन सिंह ऑफ़ टोबा टेक सिंह तख़्त पर बिराज चुके हैं। बा-अदब, बा-मुलाहिज़ा, होशियार। इंसाफ़ के लिए मुल्ज़िम हाज़िर हो। झूटों का मुँह काला, झूटी ज़बान पर ताला। दरबार टोबा टेक सिंह का। बोल साचे दरबार की जय। गुड़गुड़ दी बिशन सिंह ऑफ़ टोबा टेक सिंह... इस तरह नारे लगाता हुआ संतरी बना पागल बाएँ धड़े में और दाएँ धड़े में दोनों तरफ़ घूम गया।

    दोनों धड़ों में सन्नाटा छा गया।

    दोनों तरफ़ के बदमाश मुँह लटकाकर खड़े-खड़े हाथ मलने लगे जैसे उनके हाथ आया अच्छा मौक़ा निकल गया हो।

    तभी पुलिस वाला उस बदमाश को पकड़ कर ले आया जिससे मार खाकर दो पागल लाशों की तरह बिछ गए थे।

    पागलों की जान लेने वाले पागल को देख कर बिशन सिंह पर पागलपन का भरपूर दौरा पड़ गया। वो बड़े जोश में उठा और हाथ में पकड़ी हुई टहनी के कितने ही पत्ते एक साथ मुट्ठी में भर कर क़ैदी की तरफ़ यूँ फेंके जैसे वो उसपर रिवॉल्वर से गोलियाँ चला रहा हो।

    गुड़गुड़ दी टोबा टेक सिंह, गुड़ गुड़ दी अमृतसर, गुड़ गुड़ दी लाहौर, गुड़ गुड़ दी लुधियाना, गुड़ गुड़ दी मुरादाबाद, गुड़ गुड़ दी 48, गुड़ गुड़ दी गोदरा... गुड़ गुड़ दी अहमद आबाद, गुड़ गुड़ दी गुजरात... वो ये कहता जाता था और जैसे-जैसे उसका पागलपन बढ़ता जाता था, वो ऊपर ही ऊपर चढ़ता हुआ बड़ी-बड़ी शाख़ें तोड़ कर मुल्ज़िम पर फेंक रहा था। आख़िर जब वो थक कर चूर हो गया था तो एक पल के लिए रुका और फिर उसी पहली वाली शाख़ पर अपनी जगह पर बैठ गया और बोला,गुड़ गुड़ दी सब पागलों की, गुड़ गुड़ दी मुजरिम को फाँसी, ऑफ़ दी। ऑफ़ दी...

    इस बीच चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था। सिर्फ़ बिशन सिंह की गुड़ गुड़ की गरदान इंसाफ़ की आवाज़ बन कर चारों तरफ़ फैल रही थी। मुल्ज़िम को फांसी। मुल्ज़िम को फाँसी। इस गरदान की आवाज़ें सिपाही बने पागल के कानों से टकराईं तो उसे अपना फ़र्ज़ याद गया, और वो मुल्ज़िम को लेकर दोनों धड़ों के बीच से गुज़रते हुए झंडा लहराने वाले पोल की तरफ़ चल दिया ताकि मुल्ज़िम को फाँसी पर लटकाया जा सके। मुल्ज़िम को फाँसी के फँदे की तरफ़ ले जाते देख कर लाशें बने दोनों पागल उठ कर सिपाही और मुल्ज़िम का रास्ता रोक कर यूँ खड़े हो गए जैसे कह रहे हों, हम तो ज़िंदा हैं। मुल्ज़िम को फाँसी कैसे हो सकती है।

    सिपाही रुक गया। लेकिन मुल्ज़िम सिपाही को घसीटता हुआ फाँसी के फँदे की तरफ़ ले जाने की कोशिश करने लगा। दोनों धड़ों के पागल मरने वालों को ज़िंदा देख कर ही हैरान हो रहे थे। अब सिपाही और मुल्ज़िम की आपस में कशमकश को देख कर उनके दिमाग़ और ज़्यादा गड़बड़ा रहे थे।

    दोनों धड़ों के पागल ख़ामोशी से खड़े ये तमाशा देख रहे थे।

    मुल्ज़िम सिपाही को फाँसी के तख़्ते की तरफ़ खींच रहा था।

    सिपाही उसे बाज़ रखने की कोशिश कर रहा था।

    लाशें बने पागल, जो अभी-अभी ज़िंदा हुए थे, उनमें से एक अपने ज़िंदा होने की ख़ुशी में हँस रहा था। लेकिन पागल ख़ाने की अज़ीयतें सहते सहते दूसरे पागल के अंदर उस माहौल में ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश ग़ालिबन मर चुकी थी; इसलिए वो मरे रहने का मौक़ा हाथ से छूट जाने की वजह से अपनी क़िस्मत पर रो रहा था।

    दोनों धड़े के लोग हैरान-ओ-परेशान से खड़े थे।

    इतने में उनके कानों में बिशन सिंह की चीख़ सी सुनाई दी और उन सब पागलों ने देखा कि गुड़ गुड़ दी ऑफ़ दी आग। आग का नारे बुलंद करते बिशन सिंह ने पेड़ की शाख़ से छलाँग लगाई और बाज़ू लहराता हुआ उस तरफ़ लपका जहाँ कुछ पागलों ने मिल कर सूखे पत्तों को इकट्ठा करके आग लगा दी थी। आग के शोले ऊँचे उठते हुए बिजली के तारों के नज़दीक पहुँच रहे थे। आग को देखते ही सारे पागल जो दो धड़ों में बटे हुए थे वो आपस में यूँ मिले जैसे पानी-पानी से मिलता है और हवा हवा से। और फिर उन्होंने पानी के बग़ैर ही सारी आग को पाँव तले रौंदकर मसल डाला। आग बुझ गई तो उन्होंने आग लगाने वाले पागलों को धर दबोचा और उन्हें इस पागलपन की हरकत के लिए पागल-ख़ाने में भरती करने के लिए चल दिए।

    उस रोज़ अस्पताल वालों ने बैरकों में पागलों की गिनती की तो वो पूरे 996 थे। और फिर जिस तरह उन सबने मिल कर आग से होने वाले एक बड़े हादसे को बचाया था, इससे वो इस नतीजे पर पहुँचे कि उनका तजरबा कामयाब रहा है।

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