रुकी हुई ज़िंदगी
वो खाने पर टूट पड़ा, नदीदा हो कर।
आतिफ़ उसे देख रहा था, हक दक। कराहत का गोला पेट के वसत से उछल-उछल कर उसके हुल्क़ूम में घूँसे मार रहा था, यूँ कि उसे हर नए वार से ख़ुद को बचाने के लिए ध्यान इधर-उधर बहकाना और बहलाना पड़ता।
वो भूका था।
शायद बहुत ही भूका, कि सालन की रकाबी और रोटियों की चंगेर पर पूरी तरह औंधा हो गया था।
जितनी देर वो चपड़-चीक चपड़-चपाक करके खाता रहा, आतिफ़ उसके परागंदा बालों के नीचे और पीछे छप जाने वाले चेहरे को ढ़ंग से देखने के जतन करता रहा और उन मासूम लकीरों को तलाश करता रहा जो कभी थीं, अब कहीं नहीं थीं। वक़्त की सफ़्फ़ाकी ने सब कुछ मिटा कर एक नई तहरीर लिख दी थी।
ऐसी तहरीर जो पूरे बदन में इज़्मिहलाल भर रही थी।
वो पूरी तरह झुका हुआ था।
और उसके जबड़ों और होंटों के बाहम टकराने की आवाज़ें मुसलसल आ रही थीं।
वो बहावलपुर से आतिफ़ के हाँ पहुँचा था। क्यों? ये उसने नहीं बताया था।
शायद उसका अभी मौक़ा भी नहीं आया था कि वो तो दफ़्तर से घर वापसी पर उसे गेट पर ही मिल गया था।
आतिफ़ जिस दफ़्तर में काम करता था वहाँ कोई और उसूल ज़ाबता हो न हो, छुट्टी वक़्त पर मिल जाया करती। वो सीधा घर पहुँचता कि शाइस्ता उसकी मुंतज़िर रहती थी।
शुरू-शुरू में आतिफ़ को यक़ीन था कि ये सच-मुच का इंतिज़ार था, अंदर से उठती ताहंग वाला, तभी तो उसे सीधा घर आने की आदत हो गई थी मगर बाद अज़-आँ ये हुआ कि सब कुछ उसके मामूलात का हिस्सा हो गया।
शाइस्ता को भी पहले-पहल इंतिज़ार में लुत्फ़ आता था। खट्टा-मीठा लुत्फ़।
अगरचे ओझ जैसे वुजूद ने पहले ही दिन उसके अंदर कराहत की ऐसी गोली सी रख दी थी जो उसे देखते ही ख़ुद-ब-ख़ुद धुवाँ छोड़ने लगती मगर कहीं न कहीं से लज़्ज़त की महक भी उठती रहती। दूसरे बदन को छू लेने की लज़्ज़त या फिर उसे देखने और देखे चले जाने की लज़्ज़त।
वो जैसा भी था, उस पर नज़र डालता था। एक तार न सही, झिजक-झिजक कर सही और लुकनत-ज़दा लफ़्ज़ों से इतनी फिसलन बना ही लेता कि वो उस पर कोशिश करके ही सही, पहरों फिसल सकती थी और दूर तक, बहुत दूर तक जा सकती थी।
मगर रफ़्ता-रफ़्ता अजब उफ़्ताद आन पड़ी कि फिर सिकुड़ने लगे।
और यूँ लगता था कि वो दोनों लज़्ज़त के ज़ोर से जितनी दूर जा सकते थे, जा चुके, कि अब तो बदन में कसावट उतरने लगती और शाइस्ता को कोफ़्त होती थी।
जब उसने आ ही जाना होता तो इंतिज़ार क्यों? और इज़्तिराब कैसा?
ग़ैर माने, आदत न माने। आदत न कहीं बदन कह लें।
आदत की डोरी में बँधा बदन दिखता था। दिखता था और टूटता था।
उस टूटते बदन को फिर भी इंतिज़ार की गिरह दी जाती रही हत्ता कि आदत मामूल हो गई।
दोनों में हिम्मत न थी कि वो मामूल के उस दायरे को तोड़ डालें।
यूँ नहीं था कि आतिफ़ घर आता तो फिर बाहर निकलता ही नहीं था। लाहौर ऐसा शहर था जो कई-कई घंटों के लिए मसरूफ़ रख सकता था। बे-तकल्लुफ़ दोस्तों से मिलता। अहबाब की मुहज़्ज़ब मजालिस में बैठता या फिर उससे मिलता जो सारे फ़ासले ख़त्म कर डालने के हुनर जानती थी।
वो फ़ासले यूँ ख़त्म करती थी, जैसे कि वो होते ही नहीं थे।
पहले वो उन मौज़ूआत को छेड़ती जो आतिफ़ की कम ज़ोरी थे या फिर आतिफ़ जिनपर सहूलत और रग़बत से कुछ कह सकता था। वो अपनी बात कि रहा होता तो वो चुपके से अपने जज़्बों के धागे का सिरा, उसकी चलती बात के साथ बाँध देती और फिर गिरह पर गिरह दिए चली जाती।
ये जज़्बे उस फ़ितने की ख़ेज़िश से बँधे होते जो आतिफ़ को घर पलटने तक बर्फ़ का तूदा बना दिया करते थे।
अक्सर यूँ होता कि आतिफ़ घर लौटता तो शाइस्ता का बदन ख़फ़्गी के तनाव की लहरें छोड़ रहा होता।
बदन की कोसों के ऊपर ही ऊपर तैरती ये लहरें ऐसे लम्स की थपकी माँगती थीं जो आतिफ़ के अंदर रूबी ने बातों के खाँचे में कहीं यख़-बस्ता कर दी थी।
जबकि शाइस्ता ग़ुस्से से खौलती थी। खौलती थी और कुछ न बोलती थी।
कि वो पहल करके बोले चले जाने की आदी नहीं हुई थी।
आतिफ़ कभी-कभी चाहता कि वो उस पर बरस पड़े, लड़े-झगड़े और जो कुछ उसके बदन की सतह मुर्तफ़ा पर लहरें सी छोड़ रहा था उसे चीख़ते चिंघाड़ते लफ़्ज़ों में डाल दे। यूँ कि आतिफ़ के लिए अपनी बात कहने की गुंजाइश पैदा हो।
वो बात जिससे ख़ेज़िश की ताँत बँधी होती है।
मगर उसका बदन समुंद्र की भूकी बिफरी लहरों की तरह ऊपर नीचे होता रहता और ऐसा शोर छोड़ता, जो माहौल का हिस्सा हो कर सुकूत में ढ़ल जाता है या फिर ऐसा शोर जो अपनी दहशत से परे धकेल देता है और समाअतों को बंद कर देता है।
वो सुनना चाहता मगर कुछ भी सुन न पाता था कि एक सुकूत तना हुआ था। गाढ़ा, घमबीर और घमस वाला सुकूत। या फिर शायद एक दहशत का तनाव था, दिल खींच लेने वाली दहशत का तालेह तनाव।
मामूल कभी कभार टूट भी जाता था। ऐसे कि जैसे कोई बे-ध्यानी में एक हाथ दूसरे हाथ की तरफ़ ले जाता है। दाएँ हाथ की उंगलियाँ बाएँ की उंगलियों में बिठाता है, हथेलियों को सामने करके दोनों कहानियों को तान लेता है और फिर उन उँगलियों और हथेलियों के जोड़ से चटख़ारे निकाल देता है।
अहबाब के दायरे में वो एक मिसाली जोड़ा जाने जाते थे। जब कभी तक़ारीब में उन्हें इकट्ठे शरीक होना पड़ता, तो वो एक-दूसरे के आस-पास ही रहते।
शायद इस फ़ासले को परे धकेलने के लिए, जो दोनों के बीच था।
वो एक-दूसरे को एहतियातन देख लिया करते, खिसियाने होते, हँस देते और लोग उनका यूँ मुस्कुरा कर एक-दूसरे को देखना हसरत और लुत्फ़ से देखा करते थे।
मगर कुछ तो था, जो दोनों के बीच था और कुछ ऐसा भी था, जो दोनों के बीच नहीं था।
मर्द अपनी औरत से छुप-छुपा कर बाहर जो कुछ करता है, औरत उसे जान लिया करती है।
शायद इसलिए कि बाहर की सारी कार-गुज़ारी वो बे-ख़बरी में अपने तन पर लिख लाया करता है, यूँ कि वो ख़ुद तो उस तहरीर से बे-ख़बर होता है मगर औरत उसे पढ़ लेती है। एक-एक लफ़्ज़ को। एक-एक शोशे और नुक़्ते को और उन वक़्फ़ों को भी जो उन लफ़्ज़ों और स्तरों के बीच पड़ते हैं।
शाइस्ता ने आतिफ़ के बदन के औराक़ पर लिखे मत्न को जब पढ़ा था तो वो रूबी की ख़ुशबू तक से आगाह हो गई थी।
उसकी जगह कोई भी और होती तो वो बिफर जाती मगर वो ऐसी औरतों में से थी ही नहीं, जो किसी भी बात को ख़ुद ही आग़ाज़ दे लिया करती हैं।
उसे तो ख़ुद आग़ाज़ चाहिये था। भीगा हुआ आग़ाज़।
ऐसा कि जिसका अंजाम भी भीगा हुआ हो।
आतिफ़ के पास ऐसे अलफ़ाज़ कहाँ थे जो पहल क़दमी का हुनर जानते हों कि ऐसे अलफ़ाज़ तो हर बार उसके बदन की झोली में रूबी डाला करती थी।
और वो इसी का आदी था।
इस आदत ने शाइस्ता के बदन में कसमसाहट, बे-क़रारी और इज़्तिराब की मौजें रख दी थीं। वो सारे घर में इधर-उधर बिखरे तअत्तुल को बाहर धकेलती रहती, शावर लेती तो पानी की फुवार तले से निकलना जैसे भूल ही जाती, हत्ता कि उसे यूँ लगने लगता जैसे जिस्म के ऊपर एक झिल्ली सी नमूदार हो गई हो। वो लरज़ते हाथों की लंबी पूरों से उस झिल्ली को छूती तो लम्स बदन के ऊपर ही ऊपर तैरता रहता। उधर से ऊब कर बाहर निकलती तो ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठ कर आईने में ख़ुद को देखे जाती। पूरा कमरा, इम्पोर्टेड बॉडी लोशंज़ और पर्फ़्यूम्ज़ से महकने लगता। इसी महक में कपड़ों की सरसराहटें जागतीं, वैक्सिंग और बफ़िंग के बाद ब्लश ऑन और कॉस्मेटिक्स के इंतिख़ाब में एक मुद्दत गुज़र जाती। जब वो अपने इत्मीनान की आख़िरी हद तक सँवर चुकी होती, तो वो आईने में ख़ुद को पहलू बदल-बदल कर देखती। देखती और देखे चले जाती, हत्ता कि आईना वो मंज़र दिखाने लगता था जिसमें वो नहीं होती थी।
इसी अस्ना में काम-काज में हाथ बटाने वाली आ जाती तो उसे कई काम सूझ जाते। जल्दी-जल्दी टिशू पेपरज़ से चेहरे पर जमी मेक-अप की तहें उतार देती। जब टिशू पेपरज़ का ढ़ेर लग जाता तो उसकी मसरूफ़ियत का ढ़ंग बदल जाता। घर को ख़ूब चमकाया लश्काया जाता। साफ़-सुथरी चादरों को फिर से बदला जाता। इधर-उधर दीवारों पर छींटे ढूँढ-ढूँढ कर साफ़ किए जाते।
यहाँ तक कि वो निढ़ाल हो जाती।
एक इंतिज़ार के लिए मौज़ूँ हद तक निढ़ाल।
फिर वो आ जाता तो उसके बदन पर लहरें सी उठतीं।
लहरें उठती रहतीं और उसका बदन टूट जाता, उन लफ़्ज़ों की चाह में जो आगे बढ़ कर उसकी सारी थकन चूस सकते थे।
मगर आतिफ़ तो ख़ुद पहल क़दमी वाले अलफ़ाज़ कहीं से मुस्तआर लेने का आदी था।
रूबी से और रूबी से पहले एक और लड़की थी फ़रहाना, उस से।
वो भी तो रूबी जैसी ही थी।
शाइस्ता बहुत बाद में उसकी ज़िंदगी में आई। तब जब दोनों ने उसका बदन ओझ जैसा बना दिया था।
कचौकों से बेदार होने वाला।
यूँ जैसे उसका बदन न हो मिट्टी में मिट्टी हो कर और मकर मार कर पड़े रहने वाला वो लस्लसा कीड़ा हो जिसे फल संघी अपनी लंबी चोंच के ठोंगों से जगाती है।
जब बहावलपुर से आने वाला मैला-कुचैला शख़्स उसे दरवाज़े पर मिला, तब तक शाइस्ता का साथ होते हुए भी कचौकों से बेदार होने की आदत को सातवाँ बरस लग चुका था।
इस सारे अर्से में वो दो से तीन हो चुके थे। डेढ़ बरस पहले ही उनके हाँ नन्हे फ़र्रूख़ ने जन्म लिया था जो अब पूरी तरह शाइस्ता को अपनी जानिब मुतवज्जे किए रखता।
ब-ज़ाहिर घर मुकम्मल था। मुकम्मल और पुर-सुकून दिखने वाला।
सब कुछ एक ढ़ंग से होता नज़र आता था।
मगर वक़्त की ढ़ींगली के सिरे से बँधा मामूलात का बोका जो पानी बाहर फेंकता था, वो दोनों की ज़बानों पर पड़ते ही खौलता रसास हो जाता था, आबले बना देने वाला।
ऐसा क्यों होता है?
ये सवाल दोनों के सामने आता रहा मगर वो इसका सही-सही इदराक कर सकने और उस पर क़ाबू पा लेने की सलाहियत न रखते थे। वो तो शायद इस सारी सूरत-ए-हाल के मुक़ाबिल होने को तैयार ही न थे। तब ही तो आतिफ़ के होते हुए भी शाइस्ता नन्हे फ़र्रुख़ ही से मसरूफ़ रहे चले जाने को तरजीह दिया करती।
वो जानता था कि वो क्यों फ़र्रुख़ को घुटनों पर औंधा किए मालिश किए जाती है? किस लिए उसके पाँव के तल्वों पर गाल रगड़ रही है? उसके पेट पर मुँह रख कर फूकड़े मारती है तो क्यों? उससे बातों में मगन रहना, लाड़ से होंटों में लोच डाल लेना और वो कहे जाना जिसमें कोई रब्त न हो, आतिफ़ की समाअत से टकरा कर मरबूत हो जाता मगर आतिफ़ तो सिर्फ़ अपने ओझ बदन पर कचवे चाहता था लिहाज़ा नन्हे वुजूद की नाज़ुक जिल्द पर नर्म-नर्म चिकने हाथों का यूँ फिसलना, उसे गीले होंटों की लर्ज़िश दबा कर बोसे देना, होंट जमा कर और पटाख़ की आवाज़ पैदा करते हुए, माथे पर, होंटों, गर्दन, नाफ़ और रानों पर, हत्ता कि दाएँ या बाएँ पाँव के अँगूठे के गिर्द होंटों को रख कर घुमा लेना, सब कुछ राएगाँ चला जा रहा था।
ताहम फ़र्रुख़ उस प्यार की बौछाड़ से खुल-खुल हँसता, ग़ूँ-ग़ूँ करता और ज़ोर-ज़ोर से अपने पाँव मारने लगता था।
जिस रोज़ बहावलपुर से उनके हाँ मेहमान आया, उस रोज़ शाइस्ता प्रोग्राम बनाए बैठी थी कि आतिफ़ के आते ही वो नन्हे फ़र्रुख़ को नीम गर्म पानी से नहलाएगी कि वो उसे क़दरे मैला-मैला लग रहा था मगर जब वो मेहमान ड्राइंग रूम में दाख़िल होता नज़र आया जो अज़-हद मैला था तो वो अपना प्रोग्राम भूल चुकी थी।
उसके वुजूद में लसिलस्ले वुजूद की पहले से मौजूद कराहत के साथ अजब तरह की बासी गहन भी घुस बैठी थी।
आतिफ़ अपने मेहमान को बिठा कर ज़रा फ़ासले पर खड़ी शाइस्ता के पास आया, बौखलाया हुआ।
जब उसे कुछ कहना होता और शाइस्ता किसी दूसरी कैफ़ियत को चेहरे पर सजाय होती तो वो यूँ ही बौखला जाया करता था।
शाइस्ता कुछ सुनने के मूड में न थी। उसने मेहमान के सलाम का भी कोई नोट्स न लिया था कि इस नए वजूद से उमंडती घिन को अपने बदन में मौजूद कराहत के पहलू में बिठा चुकी थी, हत्ता कि सब कुछ नफ़रत में ढ़ल कर उसके चेहरे से छलकने लगा। शाइस्ता के लिए अपने इन शदीद जज़्बों के साथ वहाँ रुकना मुम्किन न रहा तो वो अपने क़दमों पर घूमी और ड्राइंग-रूम से बाहर निकल गई। इसी अस्ना में आतिफ़ किचन में ख़ुद को मामूल पर लाता रहा। अगरचे वो मेहमान के लिए पानी लेने आया था मगर रेफ़्रिजरेटर से बोतल निकालने के बहाने उसे पूरी तरह खोल रखा था। यूँ कि उसका सीना और चेहरा, दोनों यख़ झोंकों के सामने रहें।
उसे मालूम ही न हो सका कि कब शाइस्ता उसके अक़ब में आ कर खड़ी हो गई थी। वो तो तब बद-हवास हो कर एक तरफ़ हो गया, जब उसने अपने दाएँ हाथ से उसके बाएँ कँधे को क़सदन ज़रा ज़ोर से दबा कर उसे एक जानिब धकेला था।
वो वहीं खड़ा देखता रहा जहाँ बौखला कर पहुँचा था। शाइस्ता ने पानी की बोतल निकालते ही क़दरे झटके से रेफ़्रिजरेटर का दरवाज़ा बंद किया था।
फिर उसने सैंक के कोने में पड़ा वो ग्लास निकाला जो दोनों के इस्तेमाल में नहीं आता था और उस चंगेर की जानिब लपकी जिसमें पहले से रोटियाँ लिपटी हुई पड़ी थीं। शाइस्ता बच जाने वाली रोटियों को उसी चंगेर में रखती थी कि सफ़ाई वाली मासी आती तो ले जाया करती।
रकाबी में सालन भी पहले से मौजूद था, शोरबा, जिसकी सतह पर एक झिल्ली सी बन गई थी। शोरबे के बीच में पड़ा हुआ इकलौता आलू अपनी रंगत बदल कर गहरा भूरा हो गया था। यक़ीनन मासी आज नहीं आई थी। उसने अपने यक़ीन के इस्तिहकाम के लिए इधर-उधर देखा। इससे पहले कि वो कोई और निशानी तलाश कर लेता, शाइस्ता ने उसे फिर चौंका दिया। वो एक ट्रे में पानी की बोतल, ग्लास, चंगेर और रकाबी रख कर उसकी सिम्त बढ़ाने के बाद लफ़्ज़ों को चबा-चबा कर कह रही थी।
जब वो खाना खा चुकें तो इसरार करके उन्हें रोक न लीजिएगा।
उसने उसे नहीं रोका था मगर वो ख़ुद ही रुक गया था।
शाइस्ता सारा वक़्त अपने बेड-रूम में औंधी पड़ी रही और बहुत देर बाद जब आतिफ़ कमरे में आ कर आने वाले मेहमान की बाबत उसे बता रहा था तो उसकी साँसें धूँकनी की तरह चल रही थीं। उसे कुछ भी सुनाई न दे रहा था। ज़रूरत-मंद, प्राणा क्लास फ़ेलो और मदद जैसे अलफ़ाज़ उसके कानों में पड़े थे। एक मैले-कुचैले शख़्स की औक़ात के लिए ये काफ़ी थे लिहाज़ा उसने अपनी समाअतों को बंद कर लिया, पहलू बदल कर लेट गई और सारे बदन को मौज दर मौज उछल जाने दिया।
अगले रोज़ नाश्ते तक वो नहीं उठा था। दफ़्तर के लिए तैयार होने के बाद और नाश्ते के लिए बैठने से पहले, आतिफ़ ने ड्राइंग रूम में झाँका। वो वहीं सोफ़े पर, ऐन उसी रुख़ लेटा हुआ था, रात इसरार करके जिस रुख़ लेट गया था। मेहमानों के लिए बेड-रूम ऊपर था मगर वो वहीं सोफ़े पर लेटना चाहता था। लेट गया और अब उठने का नाम ही न ले रहा था। आतिफ़ ने दिल ही दिल में उसे वही गाली दी जो उसे बचपन में दिया करता था और नाश्ते में मगन हो गया।
जब वो दफ़्तर के लिए निकलने लगा तो आतिफ़ में हिम्मत न थी कि वो शाइस्ता को मेहमान के हवाले से कोई हिदायत देता या फ़रमाइश करता। कोट की जेबों को टटोल कर अपना चर्मी पर्स निकाला, उसमें से अपना विज़ीटिंग कार्ड अलग किया और उस मेज़ पर रख दिया जिसके क़रीब पड़े सोफ़े पर वो यूँ बे-ख़बर सो रहा था कि सारा ड्राइंग-रूम उसके ख़र्राटों से गूँजता था।
बे-इख़्तियार वही गाली आतिफ़ के होंटों पर फिर से गुदगुदी करने लगी।
उसके होंट बे-इख़्तियार फैलते चले गए। वो मुँह ही मुँह में बड़बड़ाया और बाहर निकल गया।
दफ़्तर में वक़्फ़े-वक़्फ़े से उसे मेहमान का ख़्याल आता रहा।
रात उसने जो दिलचस्प बातें की थीं, उन्हें याद करता तो मुस्कुराने लगता। शाइस्ता के रवैये के बाइस उसे जो ख़िफ़्फ़त उठानी पड़ी थी वो उसे मलूल करती थी लिहाज़ा उसने अपने तईं तै भी कर लिया था कि वो उसकी क्या मदद करेगा।
जब भी टेलीफ़ोन की घंटी बजती, उसे गुमाँ गुज़रता कि घर से काल होगी हत्ता कि उसे तश्वीश होने लगी। फिर वो चाहने लगा कि ख़ुद फ़ोन करके मेहमान की बाबत पता करे। उसने दो बार नंबर घुमाया भी, मगर इस ख़्याल से कि फ़ोन शाइस्ता उठाएगी, उसने इरादा मुल्तवी कर दिया। तीसरी बार वो घर का नंबर मिलाते-मिलाते न जाने क्यों रूबी को डायल कर बैठा।
वो तो जैसे उसी के फ़ोन की मुंतज़िर थी।
पहले तो बातों में उलझा लिया, फिर जज़्बों की डोरी से उसे यूँ बाँधा कि वो दफ़्तर से ग़ायब हो कर सीधा उसके पास पहुँच गया। हत्ता कि छुट्टी का वक़्त हो गया।
जब वो घर में दाख़िल हो रहा था तो न जाने क्यों उसे यक़ीन सा हो चला था कि मेहमान जा चुका होगा मगर वो तो वहीं था।
उसने मद्धम-मद्धम आवाज़ को सुना तो उसे यक़ीन न आता था।
शोख़ सी आवाज़, मुसलसल बोलने की। थोड़े-थोड़े वक़्फ़े दे कर। और अलफ़ाज़ यूँ शबाहत बनाते थे कि जैसे उन्हें अदा करने वाले होंट लोच-दार हो गए हों। बातों के वक़्फ़ों में क़हक़हे उमंडते थे। शाइस्ता के शीरीं हुलक़ूम से। उस झिल्ली को तोड़ते हुए जो ऐसे क़हक़हों से अलग रहने के सबब उसकी आवाज़ के ऊपर बन गई थी।
यही क़हक़हे सुनने की उसे हसरत रही थी। उसे अचंभा हुआ कि शाइस्ता ऐसे रसीले क़हक़हे उछाल सकती थी और उछाल रही थी।
वो तक़रीबन भागता हुआ ड्राइंग-रूम के दरवाज़े तक पहुँचा और उसे लगा कि जैसे सारा ड्राइंग रूम मेहमान की धीमी, मुसलसल बातों से और शाइस्ता के बे-इख़्तयार क़हक़हों से किनारों तक भर चुका था और अब छलकने को था।
मेहमान ने अपने गीले खिचड़ी बालों को सलीक़े से यूँ पीछे सँवारा हुआ था कि कनपटियों की सफ़ेदी दब गई थी और उसकी आँखों में चमक थी जो उसके सारे चेहरे पर ज़ाहिर हो रही थी। यहाँ तक कि जबड़ों की मुसलसल नुमायाँ नज़र आने वाली हड्डियाँ भी उसी चमक में कहीं मादूम हो गई थीं।
जो शख़्स बोल रहा था उसके बदन पर आतिफ़ का पसंदीदा लिबास था जो अगरचे उस पर चुस्त न बैठा था मगर उसे बा-रोअ्ब बना गया था।
धुला-धुलाया साफ़-सुथरा शख़्स, उस शख़्स से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हो गया था जिसे वो सुबह सोफ़े पर ख़र्राटे भरता छोड़ गया था।
वो मुसलसल बोल रहा था और उसके होंट एक तरफ़ दायरा सा बना रहे थे।
वो आतिफ़ की नज़र आने तक बोलता रहा।
शाइस्ता के क़हक़हे उछलते रहे।
आतिफ़ के नज़र आने पर भी वो किसी रख़ने के बग़ैर उछलते रहे, हालाँकि बोलने वाला शख़्स ख़ामोश हो चुका था। आतिफ़ को लगा, शाइस्ता क़हक़हे नहीं उछाल रही थी, नन्हा फ़र्रुख़ उसके घुटनों पर औंधा पड़ा किलकारियाँ मार रहा था जबकि नर्म-मुलायम जिल्द पर मख़रूती उंगलियाँ फिसल रही थीं और फिसले ही जाती थीं।
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