सारी रात
स्टोरीलाइन
किसी की मोहब्बत में डूबे एक व्यक्ति के विचारों और कल्पनाओं पर आधारित कहानी। वह छत पर खड़ा अपनी प्रेमिका है का इंतज़ार कर रहा है, जिसको आना ही नहीं है। वह उसे चाँद, तारों, हवाओं और काली रातों में तलाश करता है, पर वह उसे कहीं नहीं मिलती। वह उसका इंतिज़ार कर रहा है, जिसने आने का वादा ही नहीं किया है।
दूसरा गिलास भी ख़ाली था। मेरा गिलास, जो पहला गिलास नहीं था, ख़ाली हो रहा था। मैंने दूसरे गिलास को भी भर दिया और इंतिज़ार करने लगा। उसका जिसके आने का इंतिज़ार था। उसका जिसने आने का वादा नहीं किया था।
छत पर चांदनी सो रही थी। हवा जाग रही थी और रात का दिल धड़का रही थी, कभी कभी रात गहरी सांस लेती थी और ख़ामोश हो जाती थी। मैं ख़ामोश नहीं था, मैं बोल रहा था लेकिन कोई मेरी आवाज़ सुन नहीं रहा था। ख़ाली गिलास, जिसको मैंने चंद लम्हे पहले भर दिया था अब भी ख़ाली ख़ाली आँखों से मुझे घूरे जा रहा था। चांद मेरे गिलास में उतर आया था और आहिस्ता-आहिस्ता पिघल रहा था।
बहुत इंतिज़ार कराया तुमने। तुम्हारा जाम कब से भरा हुआ है। रात बीत रही है। पियो न पियो जितनी रात अब बाक़ी है, बहुत है। मैंने कहा, उससे जिसके आने का मुझे इंतिज़ार था। गिलास भरा हुआ था, लेकिन मुझे ख़ाली नज़र आरहा था।
हाँ बहुत है। उसने कहा जिसके इंतिज़ार में मैं शाम से छत पर बैठा था, पी रहा था सिगरेट के कश उड़ा रहा था। तंबाकू और व्हिस्की की ख़ुशबू मेरी रूह में बसी हुई थी।
तुम बहुत अकेले हो। उसने कहा जो नहीं आया था। उसके होंट मुड़ गए थे। उसकी आँखों में भीगी भीगी चिनगारियां झिलमिला रही थीं। होंट और मुड़ गए और उसने मेरी तरफ़ झुक कर कहा, तुम बहुत अकेले हो।
उसके लहजे में कितना कुदूरत भरा चटख़ारा था।
मुझे अपने आप पर बड़ा तरस आया। मैंने अपने चेहरे पर हाथ फेरा। चेहरा ठंडा था। नमी ने चेहरे पर जाले से बन दिये थे। गिलास के बाहर भी, मेरे चेहरे की तरह नमी के जाले पिघल रहे थे।
यकायक मेरा चेहरा गर्म होने लगा। सांस जलने लगी। मैं सब कुछ बदल सकता हूँ। उसके परख़चे उड़ा सकता हूँ जिसका मुझे इंतिज़ार है। मैं इस छत से कूद सकता हूँ और नीचे गिर सकता हूँ। गिर कर कहाँ जा सकता हूँ। नीचे पाताल है। ये छत भी पाताल है, पाताल से पाताल में। ये गिरना भी कोई गिरना है।
उसके होंट और मुड़ गए। चोट खाए हुए झींगुर की तरह। झींगुर बोल रहे थे। झींगुरों की आवाज़ सुनकर, नीचे अस्तबल में घोड़े हिनहिनाने लगे। आवाज़ आवाज़ को जगाती है। ख़ामोशी ख़ामोशी को थपकियाँ देती है। मैं न आवाज़ हूँ, न ख़ामोशी। मैं क्या हूँ। उसके होंट फैल गए। झींगुर ग़ायब हो गए। उसने हंसकर कहा, तुम अपनी आवाज़ से डरते हो।
मैं उसकी आवाज़ को कड़वे घूँट की तरह पी गया।
पियो पियो, अभी रात बाक़ी है।
हाँ अभी रात बाक़ी है। जाम भी बाक़ी है, तुम भी बाक़ी हो।
दूसरे गिलास पर उंगलियों की गिरिफ्त कभी सख़्त हो जाती थी कभी हल्की। कभी उंगलियां पिघलने लगती थीं, कभी बर्फ़ की तरह जम जाती थीं और ऐसा लगता था कि वो कांच की दीवार भी पिघल गई है जिसे मैं घूरे जा रहा था।
मैं झुका, मैंने उंगलियों पर होंट रख दिए। ख़ाली गिलास कितना सर्द था। होंटों की तरह और वो उंगलियां जिनकी गिरिफ्त में गिलास था। उंगलियां भी कितनी सर्द थीं। बर्फ़ की उंगलियां, बर्फ़ की आँखें, बर्फ़ के होंट, बर्फ़ का चेहरा, बर्फ़ की मुस्कुराहट, मैंने ख़ाली गिलास को फिर शीशे की मेज़ पर रख दिया। उंगलियों समेत जिनमें न जाने कितने डंक छिपे हुए थे। मैंने सारे डंक अपने होंटों में छुपा लिये और चुप-चाप अपनी कुर्सी में समा गया। मैंने हाथ बढ़ाया, रबड़ की आस्तीन की तरह, और गिलास में पिघलते हुए चांद को पी गया। बैठे-बैठे मेरी आँख लग गई, फिर जो आँख खुली तो क्या देखता हूँ कि... वो सामने बैठा है। रात का धुँदलका मेरी रूह से छिन रहा है और सितारों की गर्द की तरफ़ सफ़र कर रहा है। वो सामने बैठा है और उंगलियों समेत इस गिलास को ख़ाली किए जा रहा है जो शुरू से ख़ाली था और जिस पर उंगलियों की गिरिफ्त सख़्त थी। जिसके सारे डंक मैंने अपने होंटों में छुपा लिये थे।
बैंक में टोकन जिस तरह एक के ऊपर एक रखे जाते हैं, मीनार की तरह, उसी तरह उसके आज़ा हवा में तैर रहे थे, लेकिन एक के ऊपर एक। फन फैलाए हुए साँप की तरह, जिसके हज़ारों टुकड़े हो गए हों लेकिन जिसका हर टुकड़ा ज़िंदा हो और एक के ऊपर एक, लहरा रहा हो।
मैं उंगलियों को छूता हूँ, मेरे होंट ख़ुशबू का पीछा करते हैं। हाथ का सफ़र, बाँहों का सफ़र, गर्दन का सफ़र और... और... और... इस से आगे कुछ नहीं। चेहरा, वो चेहरा, कहीं नहीं है। मेरा चेहरा और उसका चेहरा, दोनों ग़ायब हैं। सफ़र ख़त्म हुआ। वो हँसती है, ये उसकी हंसी है। मैं हंसी को देखता हूँ। आवाज़ जो दिखाई नहीं देती, चेहरा बन गई है। मैं उस आवाज़ को चूमता हूँ। अब एक सफ़र और शुरू होता है जो चेहरे से आगे जाता है क्योंकि आवाज़ वक़्त है। वक़्त जो वक़्त से आगे जाता है।
घोड़े हिनहिनाते हैं। सारे ताँगे वाले यहीं रहते हैं। वो वहीं रहते हैं जहां घोड़े हिनहिनाते हैं। जहां गली कूचों का अंधेरा है। वो अपने घोड़े से भी ज़्यादा थके हुए हैं और बेहोश हैं जो अपने ज़माने से आगे निकल जाते हैं वो बेहोश हो जाते हैं। चाहे वो मैं हूँ या घोड़े, एक ही बात है।
इन जान लेवा उंगलियों ने, जो हवा से ज़्यादा सुबुक हैं, गिलास को छोड़ दिया है। उंगलियों से छूटते ही गिलास बुझ गया है, चराग़ की तरह। सारी रात चांद बुझा रहा है। सारी रात।
अब क्या होगा। तुमने गिलास छोड़ दिया है। गिलास कितना ख़ाली है। गिलास की दीवार पर नमी किस तरह पसिज रही है और तुम कितनी बे लिबास हो। सच्चाई की तरह। मुझे अपने जुर्म का इक़रार है। मुझे लिबास से ज़्यादा तुम पसंद हो। बे लिबास सच्चाई। सच्चाई निडर है। इसी लिए तुम इतनी ख़ूबसूरत हो।
सारी खिड़कियाँ दूर दूर तक अंधी आँखों की तरह नज़र आरही हैं। कमरों की आँखें बाहर देखती हैं। मैं उन आँखों के अंदर देखना चाहता हूँ। वहां क्या हो रहा है। उन कमरों के अंदर। एक कमरे वो हैं। एक कमरा मैं हूँ। तुम इस कमरे में कितनी अकेली हो। मुझे तुम्हारा ये अकेलापन बहुत अच्छा लगता है। खोया हुआ चेहरा, खोई हुई बाँहें, खोई हुई बातें। एक कमरा तुम हो। मैं इस कमरे में कितना अकेला हूँ। हर तरफ़ घुटन है। सारी खिड़कियाँ बंद हैं और मैं तुम्हारा इंतिज़ार कर रहा हूँ। तुम किसी तरह आ नहीं सकतीं। न जाने क्या क़िस्सा है।
रात गर्द की तरह उड़ रही है, सूरज की तरफ़।
ये सब महज़ ख़याल है। बातें, इन ही बातों ने मुझे वहां तक पहुंचाया है। उस छत तक जिसके नीचे अस्तबल है, जहां घोड़े हिनहिना रहे हैं। थके हुए घोड़े।
मैं भी थक गया हूँ।
तुम फिर आगए। ये भी कोई आने का वक़्त है। वक़्त, कैसा वक़्त। तुमने बुलाया, मैं आ गया। अच्छा छोड़ो ये बातें। तुम अब जाओ। मैं इस वक़्त अकेला रहना चाहता हूँ। लेकिन तुम अकेले कब हो। वो कौन है। वो कोई नहीं। यहां और कोई नहीं है। मैं भी नहीं, तुम भी नहीं, लेकिन यहां कोई तो है। दूसरे गिलास पर उंगलियों के निशान कैसे हैं।
वो नथुने फला कर उंगलियों को सूँघता है। गिलास की दीवार पर निशान जागते हैं। आहिस्ता-आहिस्ता उंगलियों में ख़ून दौड़ रहा है। उसका जिस्म तन गया है। उसकी ज़बान निकल आई है। उसकी दुम सख़्त हो गई है। लोहे की दुम। वो गिलास को सूँघता है और छत को पंजों से कुरेदता है। उसके पंजे भी लोहे के हैं। उसकी आँखें अंगारों की तरह दहक रही हैं। उसके मुँह से, ज़बान से, झाग टपक रहा है। पूरी छत पर झाग है। मैं चलता हूँ। झाग पर फिसलता हूँ, और गिरता हूँ। उठता हूँ और कुर्सी पर बैठ जाता हूँ। वो भौंकता है, गिलास को सूँघता है। दुम हिलाता है और बाहर चला जाता है।
मेरा दिल धक धक धक धक कर रहा है। अच्छी मशीन है ये दिल,ग़रीब दिल। रेफ्रिजरेटर की तरह काम किए जाता है। मशीन का मोटर गर्म और चीज़ें ठंडी।
तुम मेरे पास आओ। चेहरा नहीं है तो न सही। तुम तो हो। तुम और तुम और तुम। ये सारे साल, महीने, दिन, कितने मैले, कितने शिकन आलूद हैं। डालो उनको रद्दी की टोकरी में।
इस वक़्त सारी बातें याद आरही हैं। यादें सितारों की तरह झिलमिलाती रहती हैं। रात भर हम भी उनके साथ झिलमिलाते रहते हैं, रात-भर।
तुमने एक बार मुझसे कहा था... शायद वो तुम्हारी ज़िंदगी का सबसे कमज़ोर लम्हा था... क्या कहा था मैंने। तुमने कहा था, मैं बहुत अनोखा इन्सान हूँ। मैंने पूछा था... क्यों? तुमने हंसकर कहा था... तुम बहुत शरीफ़ आदमी हो और इस का सबसे बड़ा सबूत ये था कि मैंने सारी रात बातों में काट दी थी। हाँ मुझे ये समझने में बहुत देर लगी कि रातें बातें करने के लिए नहीं होतीं।
तुम बहुत ज़ोर ज़ोर से सांस ले रही हो। मुँह पर रूमाल मत रखो। खांसी भला रूमाल रोके रुकती है। तुम प्यासी हो। ख़ाली गिलास और तुम्हारा चेहरा ख़ाली गिलास में है। मेरे गिलास में चांद है। तुम्हारे गिलास में चेहरा है। चेहरे पर वक़्त ने झुर्रियाँ बना दी हैं। वक़्त अपने चेहरे पर झुर्रियाँ बुनता रहता है। वक़्त ख़ाली गिलास में है। वक़्त को इसी तरह पहचाना जाता है। हर शख़्स वक़्त को अपने गिलास में उंडेल कर पी जाता है। आँखों में कितना काजल भर लिया है तुमने। होंटों को लिपस्टिक ने कितना फीका बना दिया है। हाथों पर रगें जोंकों की तरह रेंग रही हैं। तुम्हारे दाँत कितने मैले हो गए हैं। वक़्त की तरह... जिसमें हम ज़िंदा रहे, जो हम से छू कर मैला हो गया। हम वक़्त को अपनी ज़िंदगी के इस मैल के सिवा और कुछ न दे सके। रात का चल चलाओ है। वक़्त कम है। तुम्हारे गिलास में भी जो ख़ाली हो रहा है। मेरे गिलास में भी जो ख़ाली हो रहा है। अब तुम आई हो तो भला क्या आई हो।
तुम गिलास के अंदर से मुझे देख रही हो। काजल भरी आँखों से, और तुम्हारे चेहरे की झुर्रियाँ जाले की तरह उड़ रही हैं और तुम्हारी आँखों पर झूल रही हैं।
हाँ सब ठीक है। बैंक की नौकरी, मुआशक़े, फ़िल्म देखने के लिए मुलाक़ातें। मेज़ों के नीचे पैरों और घुटनों का मिलाप, काफ़ी के साथ, व्हिस्की के साथ, मोटी मोटी गालियां, धक्कम पेल ज़िंदगी इस रेले में बहती हुई इस छत तक पहुंच गई है। कितनी रिश्वतें, कितनी बे-ईमानियाँ, कितनी चुग़लियाँ। सब लिबासों में छुपी हुई, तुम्हारी झुर्रियों की तरह जिसको वक़्त ने तुम्हारे चेहरे में छुपा दिया था और जिनको वक़्त ही ने उभार कर चेहरे पर फैला दिया है। अब झुर्रियों के सिवा और कुछ दिखाई नहीं देता। चेहरा कहीं खो गया है। तुम्हारा भी और मेरा भी। सारा ग़ाज़ा, सारे रंग, सारी ख़ुशबू... सब कुछ चेहरे के साथ खो गया है। अब चेहरे की तलाश बेकार है।
गिलास में पड़ा हुआ चेहरा ख़ुशी में चीख़ता है। झुर्रियाँ काँपती हैं। मेरी आँखें जल रही हैं, कान जल रहे हैं। गला ख़ुश्क हुआ जा रहा है। मैं अँगारे चबा रहा हूँ।
इतनी बड़ी, इतनी लंबी ज़िंदगी, इतना छोटा सा चेहरा, इतना छोटा सा गिलास और इतना ख़ौफ़नाक क़हक़हा।
मैंने दूसरा गिलास उठा लिया। एक ही चोट से गिलास का सर टूट गया। टूटा हुआ किनारा दाँतों की तरह चमकने लगा। मैंने चारों तरफ़ देखा। दाँत पीस कर टूटे किनारे को अपनी कलाई पर रखा दाँत गोश्त में चुभे। मैंने गिलास घुमा दिया। कलाई उधड़ कर रह गई। मैंने गर्म फुवारों को गिलास पर, मेज़ पर, छत पर गिरते देखा। गर्म फुवारें, जिनका कोई रंग नहीं था, मेरी रगों से फूटी थीं। मैंने चारों तरफ़ देखा। छत वीरान थी। आसमान की तरह जिन पर सितारे बुझ रहे थे। देखते देखते सितारों की गर्द ने मुझे घेर लिया।
गिलास के टूट जाने का मुझे अफ़सोस है जिसमें तुम्हारा चेहरा डूब गया था। मुझे ऐसा लगता है कि तुम कहीं हो और मुझे देख रही हो और मैं सिर्फ़ इसलिए मुस्कुरा रहा हूँ कि मैं तुम्हारी आँखों के सफ़र से डरता हूँ। मेरी मुस्कुराहट तुम्हारी आँखों का रास्ता रोके खड़ी है अब तुम्हारी आँखें मुस्कुराहट के सिवा कुछ नहीं देख सकतीं।
मैं गिलास उठाता हूँ और मुँह से लगाता हूँ। मेरा हाथ काँप रहा है। अब ये गिलास भी ख़ाली है।
- पुस्तक : लौह (पृष्ठ 388)
- रचनाकार : मुमताज़ अहमद शेख़
- प्रकाशन : रहबर पब्लिशर्स, उर्दू बाज़ार, कराची (2017)
- संस्करण : Jun-December
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