सब्ज़ आँखों वाला आदमी
सूरज गहन से बाहर आ चुका था। वक़्ती हंगामे के बा’द लोग-बाग अपने कामों में मसरूफ़ हो गए थे। फूल कुसुम अपने पोलियो-ज़दा बच्चे को कुँएं के सेहन पर नहला रही थी जब सूरज का एक टुकड़ा आँगन में आकर गिरा और उससे एक आदमी नुमूदार हुआ। वो सफ़ाचट था ,सर जिस्म के मुक़ाबले छोटा था, कूल्हे तिहरे थे, आँखें सब्ज़। चेहरा आसमान की तरफ़ उठा कर उसने सूरज की तरफ़ हैरत भरी नज़रों से देखा जो गहन ख़त्म होने के बा’द काँसे की तरह तमतमा रहा था।
‘‘तुम्हें एक ‘औरत के आँगन में आने की हिम्मत कैसे हुई जब कि उसका आदमी घर पर नहीं है?‘‘, फूल कुसुम अपने बच्चे के गीले बदन पर साबुन रगड़ते-रगड़ते रुक गई। उसने अभी उस आदमी पर पूरी तरह नज़र डाली भी न थी कि उसके कानों में ग़ुर्राने की तेज़ आवाज़ आई। नाले के ख़ुरूज पर दीवार में लगे हुए सीख़चों के पीछे एक कुत्ता अपना भाड़ सा चेहरा उठाए खड़ा था। उसके घुटने ग़लीज़ पानी में डूबे हुए थे और वो उस ‘अजीब आदमी पर ग़ुर्रा रहा था जिसकी आँखें सब्ज़ थीं। वो आदमी कुत्ते के पास गया, और एक सीख़चा थाम कर अपनी आँखें कुत्ते पर टिका दीं। उसे इतना क़रीब पा कर कुत्ता पहले से भी ज़ियादा बेचैन हो गया और ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा। वो अपने पिछले पैरों से ग़लीज़ पानी उड़ा रहा था और तशन्नुज की कैफ़ियत में सर को ‘अजीब अंदाज़ से बल दे रहा था। तब एक ज़ोर-दार धमाका हुआ जिसका ख़ात्मा कुत्ते के किकियाने की आवाज़ पर हुआ था जो उभरने से पहले ही मा’दूम हो गई थी।
साबुन का टुकड़ा फूल कुसुम के हाथ से फिसल कर कुँएं के सेहन पर जा गिरा और ला-शु’ऊरी तौर पर उसने बच्चे को सीने से भींच लिया। उसने सर मोड़ कर देखा। सीख़चे मुड़-तुड़ गए थे , कुत्ता नाले के पानी में मरा पड़ा था। उसके जिस्म से सफ़ेद धुआँ उठ रहा था और गोश्त के जलने की बदबू सारे में फैल गई थी। वो इस पूरे मु’आमले को समझने की कोशिश कर रही थी कि एक तेज़ सरसराहट हुई।
सब्ज़ आँखों वाला आदमी दीवार फलाँग कर आँगन से बाहर जा रहा था।
मुहल्ले में जब ये ख़बर पहुँची तो किसी को यक़ीन नहीं आया। कुत्ते के जले हुए जिस्म का राज़ तो किसी न किसी तरह सुलझना था और मुड़े-तुड़े सीख़चों के सिलसिले में ‘आम राय ये थी कि ये बरसों से इसी हालत में मौजूद थे सिर्फ़ लोगों ने उनकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया था। तो फूल कुसुम ने उस सब्ज़ आँखों वाले आदमी को अपने ज़ेह्न से झटक कर बाहर किया और तौलिये से अपने बच्चे का गीला बदन ख़ुश्क करने लगी। और जब उसे इसका यक़ीन हो गया कि बच्चा अब इस लायक़ हो गया है कि वो उसे थोड़ी देर के लिए भूल सकती है तो उसने अपने बाल खोल लिए और आँगन में बिछी ढीली चारपाई पर लेट कर सोचने लगी, आसमान, ये और कुछ नहीं, ख़ास तौर पर हम ग़रीब लोगों को सताने के लिए बनाया गया है।
जयपाल जब फूल कुसुम को ब्याह करके लाया था तो ये जाड़े का एक तूफ़ानी दिन था जब घर पहुँचने से पहले अचानक बर्फ़बारी हो गई थी। उस रात फूल कुसुम को इस बात का एहसास हुआ कि मर्द कितने वहशी होते हैं और तीसरे दिन जब वो ट्रेन में बैठी जयपाल के साथ रिवाज के मुताबिक़ अपने मैके जा रही थी तो उसकी गर्दन और चेहरे पर नाख़ुन के खरोंच के कई गहरे निशान के ‘इलावा उसके पेट में दो दिन का बच्चा भी था गरचे अभी उसे इसका ‘इल्म नहीं था। ये एक बे-इन्तिहा सर्द रात थी जब खिड़की के बंद शीशों के बाहर चाँद की रौशनी में दरख़्तों की काली शाख़ें बद-रूहों की तरह पीछे की तरफ़ भाग रही थीं। उस दिन ट्रेन के अंदर बैठे-बैठे फूल कुसुम को इस बात का एहसास हुआ कि उसके अच्छे दिन जा चुके थे और उसे अब ज़िन्दगी-भर एक ऐसी दुनिया में जीना होगा जिसमें दिलचस्पी के लायक़ कुछ भी न था। शादी से क़ब्ल उसे मर्दों के बारे में जो कुछ बताया गया था जयपाल उसके बिल्कुल बर-’अक्स निकला था। शायद ब्याही जाने वाली ‘औरतों को मर्दों के सिलसिले में लुभावनी बातें इसलिए बताई जाती हैं ताकि वो बग़ैर किसी तरद्दुद के सात फेरे ले सकें। तो उसने देखा उसका ख़सम न सिर्फ़ एक मुश्किल आदमी था,बल्कि बला का नकचढ़ा था जिससे उसके भाई-बहन ख़ौफ़ खाते थे। उसने फूल कुसुम के पहले हमल को शक भरी नज़र से देखा, कैलेंडर के सफ़्हात पलट-पलट कर मुख़्तलिफ़ तारीख़ों पर निशान क़लम-ज़द किए और अपने तौर पर उन्हें समझने की कोशिश की और जब उसकी समझ में कुछ न आया तो उसने ख़ामोशी धार ली। वो एक माहिर िफ़टर था ,रेलवे के ठेकेदारों में काफ़ी मक़बूल। मगर उसे अपने काम के मुक़ाबले रेल की पटरियों पर काम करने वाली ‘औरतों की सोहबत ज़ियादा पसंद थी और ये ‘औरतें यूँ तो तमाम की तमाम शादी-शुदा और बाल-बच्चों वाली थीं मगर किसी भी तरह की घरेलू ज़िम्मा-ज़िम्मेदारी से आज़ाद नज़र आतीं, जब कि मु’आमला इसके बिल्कुल बर-’अक्स था। ये ‘औरतें न सिर्फ़ अपनी कमाई करती थीं बल्कि बच्चों के साथ-साथ अपने शौहरों का पेट भी भरती थीं जिन्हें शराब से कभी फ़ुर्सत न मिलती। वो धूल और धूप से बचने के लिए सर पर हमेशा रूमाल बाँधे रहतीं और जब नशे में होतीं तो ‘अजीब-ओ-ग़रीब गीत अलापतीं जैसे वो पहाड़ों से बहते हुए सीधे चले आ रहे हों। दिन के ख़ात्मे पर जयपाल घंटों जलते कोयलों के धुएँ से घिरा हुआ उन ‘औरतों के साथ ख़ुश-गप्पियाँ किया करता। उनमें से कइयों के साथ उसके जिन्सी त’अल्लुक़ात ताज़ा-ताज़ा क़ाइम हुए थे और कई के साथ ख़त्म होने की कगार पर थे गर्चे इस चक्कर में उसे अपने कुछ पैसों से हाथ भी धोने पड़ते थे। इन लोगों से छुटकारा पा कर जब रात गए वो घर लौटता तो उसके पेट में इतनी भूक होती कि घर के लोग रोटी सेंकते-सेंकते तंग आ जाते। और जब उसका पेट न भरता तो वो अपनी बीवी को गाली-गलौज का निशाना बनाता, अपनी यक-तरफ़ा शहवानी ख़्वाहिश किसी जानवर की तरह पूरी करता और अपने बच्चे की तरफ़ प्यार भरी नज़रों से देखते हुए, जिनमें हमेशा की तरह शक-ओ-शुबह का ‘उंसुर मौजूद होता, गहरी नींद सो जाता। और फूल कुसुम सोचती, क्या वो इसी दिन के लिए पैदा हुई थी?
तो जब जयपाल ने इस ‘अजीब-ओ-ग़रीब वाक़ि’ए के बारे में सुना तो उसने फूल कुसुम से कहा कि वो उसे पूरा वाक़ि’आ बताए। उसने मुड़े-तुड़े सीख़चों को छू कर बे-यक़ीनी का इज़हार किया, जले हुए कुत्ते की ग़ैर-मौजूदगी के सबब (उसे मेहतर रस्सी से खींचता हुआ तालाब की झाड़ियों के अंदर ले गया था जहाँ चील और कव्वे उसे नोच-नोच कर खा गए थे) ख़ुद को ये बावर कराने की कोशिश की कि ये सिरे से एक मनघड़त कहानी थी जिसमें मुहल्ले वालों ने जाने कैसे यक़ीन कर लिया था और वो कुत्ता जो हमेशा एक संडास से दूसरे संडास के बीच मोरियों में चक्कर लगाया करता था उसने ज़रूर कोई दूसरी कार-आमद जगह दरियाफ़्त कर ली होगी। उसने दीवार पर उस जगह चढ़ कर जहाँ से वो आदमी फलाँग मार कर बाहर गया था, भीड़ लगाए हुए लोगों की तरफ़ देखा जो दीवार की ईंट पर पड़ी हुई आग की सियाह लकीरों को समझने की कोशिश कर रहे थे और कहा कि इस तफ़तीश से उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं, कि ये सारा मु’आमला ही मनघड़त है, कि फूल कुसुम को और कुछ नहीं दिन-दहाड़े ख़्वाब देखने की ‘आदत है।
इस वक़्त तक मुड़े-तुड़े सीख़चों, मरे हुए कुत्ते और दीवार पर कालिख के पुर-असरार निशान के बावुजूद मुहल्ले वालों ने फूल कुसुम की बातों का यक़ीन नहीं किया था। मगर जब जयपाल ने अपने शुबहे का इज़हार किया तो अचानक सब लोगों को इसका पुख़्ता यक़ीन हो गया कि ये वाक़ि’आ मनघड़त नहीं हो सकता, कि इसका त’अल्लुक़ सौ फ़ीसद हक़ीक़त से है। तो लोगों ने जयपाल को नज़र-अन्दाज़ किया। उसने भी अपनी जगह तस्लीम की और दूसरे दिन हाजी-पाड़ा के चोंगे से आती सुब्ह की अज़ान के साथ उठकर दो कोस का फ़ासला तय करके अपने ठेकेदार के पास पहुँचा जो एक बर्फ़-कल के अहाते में बनी कोठरी में रहता था। उसने हाल ही में बर्फ़ के इस कारख़ाने को ख़रीद कर चलाने की कोशिश की थी मगर यूनियन वालों की बे-जा माँगों से उकता कर उसे फिर से बंद कर दिया था।अब उसका इरादा उस पर एक कसीर-मन्ज़िला ‘इमारत खड़ी करने का था।
ठेकेदार फ़ील-पा का मरीज़ था, उसका काम दूर-दूर तक फैला हुआ था और वो अपनी दुबली-पतली रखैल से घबराया हुआ रहता जिसकी नुमायाँ मूछें थीं और सीना किसी मर्द की तरह सपाट था। ये नीम-मर्द नीम-‘औरत पटरियों पर काम करने वाले मज़दूरों में अच्छा-ख़ासा मज़ाक़ का मौज़ू’ बनी हुई थी। ठेकेदार ने जब जयपाल को देखा तो उसे सख़्त ग़ुस्सा आया। ये ठीक है कि वो उसी की ज़ात का था, मगर क्या उसके पास अब यही काम रह गया था कि उस जैसे बिछड़ी ज़ात के ख़र-दिमाग़ों के साथ वक़्त ख़राब करता फिरे।
जयपाल ने उससे कहा कि जितनी जल्द हो सके उसे इस जहन्नुमी शहर से दूर भेज दिया जाए। ठेकादार हँसा क्योंकि वो ख़ुद भी काम के बहाने अपनी बीवी से काफ़ी दूर रहने का ‘आदी हो गया था जो अब गोश्त और चर्बी का पहाड़ बन चुकी थी और अपने अनगिनत बच्चों में घिरी रहती थी। उसे जयपाल से यगानगी का एहसास हुआ। उसने उसे बेल का शर्बत पिलाया जिसमें ठेकेदार की रखैल के हाथों के मसालों की महक शामिल थी और एक रुक़’आ दिया जिसमें बस चन्द ही जुमले थे जिन्हें ठेकेदार की रखैल ने रौशनाई वाले एक क़लम से लिखा था। दूसरे दिन जयपाल एक सरकारी बस की छत पर बैठ कर, जिसका कंडक्टर टिकट काटे बग़ैर लोगों से पैसे वसूल रहा था, ठंडी हवा खाते हुए उड़ीसा के कच्ची धात के पहाड़ों की तरफ़ रवाना हो गया। सात माह बा’द जब जयपाल ने फूल कुसुम को पोस्टकार्ड पर अपनी ख़ैरियत की इत्तिला’ दी और बच्चे के साथ उसे आने के लिए कहा तो वो ट्रेन पर सवार हो गई। उस वक़्त उसके साथ उसका लड़का और वही सब्ज़ आँखों वाला आदमी था जो सूरज के टुकड़े से नुमूदार हुआ था।
कोयले की हरारत से चलने वाला बावा आदम के ज़माने का इंजन पटरियों पर काँपते-कराहते चल रहा था। डिब्बों के अंदर बैठे मुसाफ़िरों को ऐसा लग रहा था जैसे ट्रेन तो अपनी जगह रुकी हुई हो ख़ुद खेत और खलियान पीछे की तरफ़ भाग रहे हों जबकि इससे ज़ियादा हैरत की बात ये थी कि दूर के मैदान और पहाड़ सामने की तरफ़ जा रहे थे। गरचे वो पीछे की तरफ़ भागते खेत और खलियानों को समझ सकती थी, मगर फूल कुसुम अपने बचपन से इस गुत्थी को सुलझाने में नाकाम रही थी कि ये लहीम शहीम पहाड़ सामने की तरफ़ कैसे इतनी तेज़ी के साथ भाग सकते हैं।
’’तुमने उस कुत्ते को क्यों मारा?’’, फूल कुसुम ने सब्ज़ आँखों वाले आदमी की तरफ़ मलामत भरी नज़रों से देखते हुए कहा। हैरत की बात ये थी कि वो इतने दिनों से उन लोगों के साथ रह रहा था मगर फूल कुसुम ने पहली बार इस वाक़ि’ए का ज़िक्र किया था। शायद सफ़र पर निकलने पर इंसान के अंदर बहादुरी आ जाती है और वो चीज़ों को नई नज़र से देखने लगता है।
सब्ज़ आँखों वाले शख़्स ने कुछ कहने की कोशिश की। मगर उसके होंठ जुड़े रहे। फूल कुसुम का लड़का जो उस आदमी की गोद में बैठा था और उसके साथ बिल्कुल मानूस हो चुका था अपनी गोल-गोल मुट्ठियों पर ठोरी टिकाए बड़ी-बड़ी आँखों से खिड़की के बाहर देख रहा था।
‘‘वो तार पर बैठी मैना जिसकी दुम मछली की दुम से मिलती है, तुम उसे देख रहे हो ना, यही रेल पंछी है।’’, फूल कुसुम ने झुक कर बच्चे के कान में कहा। ‘’तुम जब भी ट्रेन में बैठोगे ये रेल पंछी तुम्हें तार पर बैठी मिलेगी बल्कि कभी-कभार उसकी चोंच में तुम्हें कोई केंचुवा कुलबुलाता नज़र आएगा। और ये पहली बार नहीं है कि तुम ट्रेन में सफ़र कर रहे हो। पिछली बार तुमने ट्रेन का सफ़र किया था तो तुम सात महीने के थे, मेरे पेट में थे और लात चलाया करते थे। शायद वो तुम्हारी लात चलाने की ‘उम्र नहीं थी। ज़िन्दगी का वो पहला बुरा काम किया है तुमने जिसका भुगतान कर रहे हो। काश तुमने एहतियात की होती तो आज अपने पैरों पर दौड़ लगा रहे होते।‘’
ज़ाहिर था वो शादी के बा’द उस दूसरे सफ़र की बात कर रही थी जब वो बच्चा जनने के लिए अपने मैके जा रही थी, क्योंकि पहले सफ़र के वक़्त उसे कब ‘इल्म था कि वो पेट से थी।
वो लोग जब बग़ैर प्लेटफार्म वाले स्टेशन पर उतरे जहाँ ज़मीन पथरीली और सुर्ख़ थी और चारों तरफ़ पटरियों का जाल बिछा हुआ था जिन पर खड़े वैगनों के अंदर क्रेनों की मदद से कच्ची धात उंडेली जा रही थी तो जयपाल ने सब्ज़ आँखों वाले आदमी के साथ हाथ मिला कर उसे ख़ुश-आमदीद कहा क्योंकि उसे उसके दोबारा नुमूदार होने की इत्तिला’ मिल चुकी थी और ग़ायबाने में उसने उसके साथ मुफ़ाहमत कर ली थी। उसने लड़के को उठा कर अपने कंधे पर बिठाया , बीवी की तरफ़ भूकी नज़रों से देखा और दूसरे हाथ में फूल कुसुम का टीन का बक्सा उठाकर चलने लगा।
’’यहाँ बहुत ज़ियादा काम था और मैं इन जंगलियों के साथ काम करते हुए बहुत बुरे दिनों से गुज़र रहा था।‘’, पहाड़ी रास्ते पर पटरी के किनारे चलते हुए िफ़टर ने अपनी जोरू को बताया, ‘’मैं वापस जाने के बारे में सोच रहा था जब एक दिन स्टेशन मास्टर अपनी ट्राली पर नुमूदार हुआ जिस पर एक सब्ज़ झंडा लहरा रहा था। उसे धोती पहने हुए दो रेल मज़दूर पटरियों पर ढकेल रहे थे। उसके साथ दो सिपाही थे और एक मुंशी जो एक भारी-भरकम रजिस्टर थामे अपनी घनी बे-ढंगी मूछों और मोटे शीशों वाली ‘ऐनक के साथ ट्राली की बेंच पर बैठा किसी उल्लू की तरह नज़र आ रहा था। क्या तुम निचली ज़ात के हो? स्टेशन मास्टर ने मुझे देखते ही पूछा। जब मैंने हाँ कहा तो उसने मुंशी को रजिस्टर पर मेरा नाम लिखने के लिए कहा। मुंशी ने पहले तो रजिस्टर की ख़ाना-पुरी की , फिर एक छिपे हुए काग़ज़ पर मेरा नाम लिखा और मुझे अँगूठा लगाने के लिए कहा। मैंने जब काग़ज़ पर अँगूठा लगाने की बजाए दस्तख़त किया तो स्टेशन मास्टर को बड़ी हैरत और मायूसी हुई। काग़ज़ वापस लेने के बा’द उसने मुझे धमकी दी कि अगर दूसरे दिन मैंने उसके ऑफ़िस में हाज़िरी न दी तो ये दोनों सिपाही मुझे गिरफ़्तार कर के ले जाएँगे। दूसरे दिन मैं स्टेशन गया तो मेरे जैसे और भी बहुत सारे लोग स्टेशन मास्टर के दफ़्तर के बाहर जमा’ थे। वो सारे के सारे निचली ज़ात के थे या आदिबासी थे और काफ़ी परेशान नज़र आ रहे थे। किसी की समझ में नहीं आ रहा था उसे वहाँ क्यों बुलाया गया था, कि उसके साथ क्या होने वाला है? सब लोग इतने डरे हुए थे कि एक दूसरे से बात भी नहीं कर रहे थे। आधा दिन गुज़र गया जब जा कर हमें ख़बर मिली कि रेलवे की नौकरी में पिछड़ी ज़ात वालों के लिए बहुत सारी जगहें बरसों से ख़ाली पड़ी थीं जिन्हें रिश्वत के पैसे न मिलने के सबब भरी नहीं गई थीं मगर अब स्टेशन मास्टर को ऊपर से हुक्म मिला था कि एक महीने के अंदर-अंदर उन्हें भरा नहीं गया तो उसका तबादला नक्सलियों वाले ‘इलाक़े में कर दिया जाएगा। तुम देख रही हो मैं छोटी ज़ात का था और मेरे पास कोई सर्टीिफ़केट या जन्मपत्री भी नहीं थी, मगर स्टेशन मास्टर ने मेरे लिए वो सारा इन्तिज़ाम किया और मुझे नौकरी मिल गई। आज भी मैं वही काम करता हूँ जो पहले किया करता था मगर अब मेरी अच्छी तनख़्वाह है, हमारा अपना क्वार्टर है जिसके सामने के जंगल में सियार बुलाते हैं और यहाँ गाय और सुअर का गोश्त खाने की कोई मनाही नहीं है क्योंकि ये आदिबासियों का ‘इलाक़ा है। तुम्हें हर तरफ़ कट्टर आदिबासी दिखाई देंगे जो अब भी हज़ारों साल पीछे हैं बल्कि ऊपर पहाड़ पर जवान लड़कियाँ आज भी नंगी छातियों के साथ घूमा करती हैं।‘’
वो जब अपने क्वार्टर के पास पहुँची तो फूल कुसुम को यक़ीन नहीं आया कि इस दुनिया में इतनी वीरान जगह भी हो सकती है। ख़स्ता-हाल क्वार्टर की छत पर झाड़ियाँ और पौदे उगे हुए थे जिनमें कव्वे उतर कर आपस में छेड़-ख़ानी किया करते या घोंसले बनाते और बिल्लियाँ छत से निकले हुए कारनिस पर छुप-छुप कर उनके अंडों से बच्चे निकलने का इन्तिज़ार करतीं। क्वार्टर महीनों से गंदा पड़ा था जिसकी सफ़ाई करते करते फूल कुसुम को आँगन में हैंडपंप के पीछे ताक़ पर शराब की ख़ाली बोतलों का अम्बार नज़र आया जिसे कोयलों से ढकने की कोशिश की गई थी। ज़ाहिर था जयपाल ने, जिसे पहले सिर्फ़ भंग की लत थी ,ये नई लत लगा ली थी। किचन में खाना पकाने का सारा सामान मौजूद था। जोरू की ‘अदम-मौजूदगी में जयपाल जैसे पेटू के लिए इसके ‘इलावा और कोई चारा न था कि इस वीरान जगह पर अपना खाना पकाए।
‘‘क्या वो भूका ही सोने का इरादा रखता है?’’, रात के खाने से क़ब्ल जब सब्ज़ आँखों वाला आदमी बच्चे को कंधे पर उठा कर दूसरे कमरे में जा रहा था तो जयपाल ने पूछा।
‘‘उसके होंठ जुड़े हुए हैं।’’, फूल कुसुम ने ‘अजीब आदमी की तरफ़ न देखते हुए जवाब दिया, ‘’और खाना-पीना उसका निजी मु’आमला है। मैंने उसे कभी खाना खाते नहीं देखा।‘’
‘‘क्या हम अपने बच्चे के लिए इस आदमी पर भरोसा कर सकते हैं?’’
‘‘वो बच्चे से बहुत प्यार करता है।’’, फूल कुसुम ने इस मौज़ू’ से पीछा छुड़ाते हुए कहा। दर-अस्ल वो अपने शौहर के साथ अकेला होने के लिए बेचैन थी। रात को जब दोनों बिस्तर के पास नंगे खड़े हुए तो जयपाल ने कहा, ‘’इसे देख रही हो। इसे सँभाल कर रखना। आज से हम इसका इस्ति’माल करेंगे। हमें अब और बच्चे की ज़रूरत नहीं।‘’
फूल कुसुम ने हैरत से अपने शौहर की तरफ़ देखा। उसे ऐसा लगा जैसे वो एक अजनबी से मिल रही हो। बा’द में उसे बहुत अफ़सोस हुआ क्योंकि उसे न सिर्फ़ अपने शौहर का वहशीपन पसंद था बल्कि वो और भी बच्चे चाहती थी। रात को जब सियार जंगल में ख़ामोश हो चुके थे और आधा चाँद खिड़की के टूटे हुए शीशे से उलझ कर ज़ख़्मी हो गया था तो दोनों ने सीटी की तेज़ आवाज़ सुनी जो दूसरे कमरे से आ रही थी। उस आवाज़ में एक ‘अजीब इसरार, एक ‘अजीब दूरी थी जैसे उसके तार ज़मीन की बजाए आसमान से जड़े हुए हों।
‘‘मगर उसके होंट तो जुड़े हुए हैं।’’, जयपाल ने अपनी बीवी की पसीना से चपचपाई हुई छाती से चेहरा उठा कर हैरत का इज़हार किया।
‘‘शायद इसीलिए ये मुम्किन है।’’, फूल कुसुम बोली। उसने जयपाल को दूसरे कमरे में जाने से मना’ किया। रात आधी से ज़ियादा गुज़र चुकी थी जब उसने जयपाल से एक-बार फिर अपनी ख़्वाहिश का इज़हार किया। इस बार नींद की हालत में जयपाल एहतियात करना भूल गया। चूँकि इंज़ाल तक पहुँचने में उसे दिक़्क़त आ रही थी उसने पुराने दिनों की तरह फूल कुसुम को कई खरोंचें दीं। तीन दिन बा’द जयपाल को अपनी ला-परवाही का ख़याल आया तो उसने अपनी बीवी की तरफ़ ग़ुस्सा भरी नज़रों से देखा।
‘‘तुम्हें मुझे होशियार करना चाहिए था।’’
‘‘तुम ख़्वामख़्वाह डर रहे हो।’’, फूल कुसुम हँसी। अब उसे अपने शौहर से डर नहीं लगता था। सरकारी नौकरी ने उसका कस-बल निकाल दिया था। अब वो पूरी तरह हुक्म का ग़ुलाम बन चुका था।
‘‘मुझे पता न था तुम बच्चों से इतना डरते हो।’’
‘‘हम ग्यारह बहन भाई हैं, इसलिए बच्चे मुझे अच्छे लगते हैं।‘’, जयपाल ने कहा, ‘’मगर मुझे गु़लामी पसन्द नहीं। मैं चाहता हूँ कि हमारे पास थोड़ा पैसा आ जाए। बच्चे तब तक इन्तिज़ार कर सकते हैं।‘’
दर-अस्ल ये पट्टी उसे रेलवे ऑफ़िस के बंगाली क्लर्क ने पढ़ाई थी जो अपनी टाइप मशीन पर काम करने की बजाए हमेशा स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर वर्करों में घिरा हुआ बैठा रहता, मुट्ठी को चिमनी बना कर सिगरेट का धुआँ आसमान की तरफ़ भेजता और कर्मचारियों को अफ़सरों के ख़िलाफ़ भड़काया करता। बच्चा पैदा करना आसान काम नहीं, उन्हें बड़ा भी करना पड़ता है , लिखा-पढ़ा कर इंसान बनाना पड़ता है। इस मु’आमले में सिर्फ़ वही दरिया-दिल हो सकते हैं जिन्हें बच्चों की कोई परवा नहीं होती। आदमी को उतना ही पाँव फैलाना चाहिए जितनी बड़ी उसकी चादर हो...’’, वो कहता, ‘’और इन अफ़सरों को तो मज़दूर नहीं कोल्हू का बैल चाहिए। आख़िर मज़दूरों का ये शोषण कब ख़त्म होगा?’’
उस क्लर्क की स्टेशन में बहुत धाक थी। उस के एक इशारे पर मीलों तक पटरियों पर काम करते मज़दूर औज़ार ज़मीन पर रख देते थे। उसकी टाइप मशीन से बहुत कम काग़ज़ात बाहर आते। किसी के अंदर हिम्मत नहीं थी कि उसकी सरज़निश करता। स्टेशन मास्टर तक अपना ज़ियादा काम हाथ से लिख कर चलाया करता।
दोनों अपने क्वार्टर के बरामदे पर बैठे थे जहाँ धूप का आख़िरी टुकड़ा धीरे-धीरे मान्द पड़ता जा रहा था।क्वार्टर से थोड़े फ़ासले पर जामुन का एक तारीक पेड़ खड़ा था जिसकी टहनियों में तोतों का एक झुंड चटर-पटर कर रहा था। सब्ज़ आँखों वाला आदमी बच्चे के साथ ढलान की तरफ़ गया हुआ था जहाँ जंगल के बाहर हफ़्ता-वार हाट में सूरज डूबने तक काफ़ी चहल-पहल रहा करती। इस हाट में जादूगरों के खे़मे लगते और हिजड़े अंगिया-चोली पहन कर बड़े फ़ुहश क़िस्म के रक़्स किया करते। उन दिनों बंजारों का एक ख़ेमा भी आया हुआ था जहाँ एक अंधा, जिसके दीदे फटे हुए और चाक की तरह सफ़ेद थे, लोगों की हथेलियों को अपनी उँगलियों से दबा-दबा कर क़िस्मत का हाल बताया करता।
‘‘तुम्हें पता है...’’, जयपाल ने ग़ुस्से के साथ कहा, ‘’वो इन दिनों जुआ खेलने लगा है। तुमने हब्बा-डब्बा का नाम सुना होगा। इसमें प्लास्टिक की एक चटाई पर बहुत सारे जानवर बने होते हैं। तुम्हें किसी एक जानवर पर अपना पैसा रखना पड़ता है। जुआ खिलाने वाले के पाँसा पर अगर तुम्हारे ख़ाने का नंबर निकल आए तो अपने पैसे की मुनासिबत से तुम ढेर सारा पैसा जीत सकती हो। मेरे पास कई खोटे सिक्के थे। मैंने मज़ाक़न तुम्हारे आदमी को दे दिया था। वो उनसे काफ़ी पैसे जीत चुका है जिन्हें वो मेरे पास जमा’ रखता है। लोग उसे बहरूपिया समझते हैं। मैंने सुना है हब्बा-डब्बा का मालिक उसे देखते ही अपने सामान छोड़कर जंगल की तरफ़ भाग खड़ा होता है। वो जाने इन जीते हुए पैसों का क्या करेगा। उसने तुम्हें कभी पैसे दिए?’’
‘‘तुम उसके बारे में इतना मत सोचा करो।‘’, फूल कुसुम हँसी, ‘’उसके पास क्या है? उसके तो होंट तक जुड़े हुए हैं।‘’
कमरे में नाइट बल्ब की धुँदली रौशनी हो रही थी। सब्ज़ आँखों वाला आदमी दीवार से पीठ टिकाए गुम-सुम बैठा बच्चे की तरफ़ देख रहा था। कुछ देर बा’द वो खिड़की के पास गया। उसने उसके किवाड़ खोल कर बाहर नज़र दौड़ाई। दूर धुंद में डूबे हुए पहाड़ों पर कच्ची धात की ब्लास्टिंग चल रही थी। बिजली की तेज़ रौशनी में क्रेन हरकत करते नज़र आ रहे थे। वो दरवाज़ा खोल कर बाहरी बरामदे पर निकल आया जो अंधेरे में डूबा हुआ था और उससे ढाल पर उतर कर जंगल के अंदर चला गया जिसके अंदर इक्के-दुक्के पेड़ धुंद से नुमूदार हो रहे थे। वो जंगली कटीली झाड़ियों के दरमियान गीली घास पर देर तक नंगे पाँव चलता रहा यहाँ तक कि आसमान धीरे-धीरे साफ़ होने लगा। कई सियार उसके बिल्कुल क़रीब से गुज़रे, साँप उसके पैरों के पास सरसरा रहे थे मगर उसके जिस्म से टकराते ही अपना फन मोड़ कर दूसरी सम्त चले जाते। एक पेड़ की शाख़ पर एक तेंदुवे की आँखें चमकीं और बुझ गईं। उसने उन चीज़ों की तरफ़ कोई तवज्जोह नहीं दी थी। वो वापस आया तो घर के लोग जाग चुके थे।
‘‘आख़िर उसका हम लोग क्या करें?’’, जयपाल ने ‘अजीब आदमी की तरफ़ इशारा किया। रात बहुत ज़ियादा शराब पी लेने के सबब उसके मिज़ाज में चिड़चिड़ापन आ गया था। वो पहली बार पुराने दिनों का जयपाल नज़र आ रहा था। उसे कुछ-कुछ इस बात का पछतावा भी हो रहा था कि उसने अपनी बीवी को बुला लिया था और अब उन लोगों का अनदाता होते हुए भी उसकी हैसियत एक कठपुतली से ज़ियादा की नहीं रह गई थी। इससे तो बेहतर ये होता कि वो कोई आदिबासी रखैल रख लेता।
‘‘वो जिस तरह आया था एक दिन उसी तरह चला जाएगा।’’, फूल कुसुम बोली। वो अपने फूले हुए पेट पर दोनों हाथ रखकर बैठी थी और अपने हमल से काफ़ी ख़ुश-नज़र आ रही थी।
‘‘आख़िर उसे आने की ज़रूरत क्यों पड़ी?’’
‘‘शायद उस दिन उस कुत्ते की मौत लिखी थी।’’
जयपाल के काम पर चले जाने के बा’द फूल कुसुम ट्यूबवेल के सामने खड़ी टूथ ब्रश से अपने बच्चे के दाँत साफ़ कर रही थी जब उसे अपने पीछे उस ‘अजीब आदमी की हँसी की आवाज़ सुनाई दी। उसने मुड़ कर देखा और अचंभे से बोली, ‘’तुम्हारे होंठ तो जुड़े हुए हैं, फिर तुम हँस कैसे लेते हो?’’
‘अजीब आदमी ने टूथ ब्रश उसके हाथ से छीन लिया और उसे बच्चे के दाँतों पर रगड़ने लगा। उसने रोज़ की तरह बच्चे को नाश्ता खिलाया और उसे पीठ पर लाद कर सैर के लिए निकल खड़ा हुआ।
जयपाल हथौड़ा अपने कंधे पर उठाए पटरियों के दरमियान स्लीपरों पर पैर रखते हुए चल रहा था जब उसने ढाल पर अपने लड़के को देखा जो एक चट्टान पर खड़ा था। हथौड़ा उसके हाथ से ज़मीन पर जा गिरा। वो भागता हुआ उस के पास पहुँचा।
’’तुम यहाँ कैसे आए और ये अपने पैरों पर कैसे खड़े हो तुम?’’, उसने लड़के को गोद में उठाते हुए कहा। वो हैरत से उसके दोनों पैरों को दबा-दबा कर देख रहा था जो बिल्कुल सुडौल हो गए थे। उसके चारों तरफ़ जंगल बिखरे हुए थे जहाँ खुली जगहों पर आदि-बासियों के इक्के-दुक्के ताड़ के छप्पर नज़र आ रहे थे। नीले आसमान पर सफ़ेद बादल यहाँ-वहाँ मशरूम की तरह फूल रहे थे।
‘’तुम्हें यहाँ अकेले नहीं आना चाहिए था। लकड़-बग्घे उठा कर ले जाते तो?’’
लड़का हँसा और जयपाल का ख़ून उसकी रगों में मुंजमिद हो गया। ये हँसी उस ‘अजीब आदमी की हँसी से मिलती-जुलती थी, बल्कि हू-ब-हू उसी की हँसी थी। यही नहीं, अब उसकी पुतलियाँ भी सब्ज़ नज़र आ रही थीं। उसने चारों तरफ़ देखा। सब्ज़ आँखों वाले आदमी का दूर-दूर तक पता न था।
फूल कुसुम और जयपाल कई दिन तक सब्ज़ आँखों वाले आदमी की तलाश में जंगलों-पहाड़ों में भटकते फिरे, मगर वो जैसे हवा में तहलील हो चुका था।
फूल कुसुम के दूसरा बच्चा पैदा हुआ तो दोनों की उम्मीदों पर पानी फिर गया। न उसकी आँखें सब्ज़ थीं न वो अपने बड़े भाई की तरह हँसता था। वो एक ‘आम बच्चा साबित हुआ जिसे सिर्फ़ रोना आता था। फिर भी उन्होंने उसका नाम सूर्यपुत्र रखा। अब फूल कुसुम जब भी उसे नंगा करके अपने घुटनों पर पेट के बल लिटा कर उसके चूतड़ों पर सरसों के तेल की मालिश करती वो सूरज की तरफ़ उम्मीद भरी नज़रों से देखा करती जैसे उसे यक़ीन हो कि एक दिन वो सब्ज़ आँखों वाला आदमी दोबारा उतरेगा और उसके दूसरे बच्चे को भी एक ग़ैर-मा’मूली इंसान में बदल देगा।
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