आज सुबह ही से गाओं में हलचल मची हुई थी। कच्ची झोंपड़ियाँ हँसती हुई मालूम होती थीं। आज सत्याग्रह करने वालों का जत्था गाओं में आएगा।
कोदई चौधरी के दरवाज़े पर शामियाना लगा हुआ है। आटा, घी, तरकारी, दूध और दही जमा किया जा रहा है। सब के चेहरे पर उमंग है, हौसला है, आनंद है। वहीं बंदा हीर जो दौरे के हाकिमों के पड़ाव पर पाओ-पाओ दूध के लिए मुँह छुपाता था, आज दूध और दही के दो मटके अहीराने से बटोर कर रख गया है।
कुम्हार जो घर छोड़कर भाग जाया करता था, मिट्टी के बर्तनों का ढेर लगा गया है। गाओं के नाई कहार सब अपने आप दौड़े चले आ रहे हैं। अगर कोई शख़्स दुखी है तो वो नोहरी बुढ़िया है। वो अपनी झोंपड़ी के दरवाज़े पर बैठी हुई अपनी पछत्तर साल की बूढ़ी सुकड़ी हुई आँखों से ये तक़रीब देख रही है और पछता रही है। उसके पास क्या है जिसे लेकर कोदई के दरवाज़े पर जाये और ये कहे में ये लाई हूँ। वो तो दानों को है।
मगर नोहरी ने अच्छे दिन भी देखे हैं। एक दिन उस के पास दौलत और आदमी सब कुछ था। गाओं पर उसी की हुकूमत थी। कोदई को उसने हमेशा नीचे दबाए रखा। वो औरत हो कर भी मर्द थी। उसका ख़ाविंद घर में सोता वो खेत पर सोने जाती थी। मुआमले मुक़द्दमे की पैरवी ख़ुद ही करती। लेना देना सब उसी के हाथों में था लेकिन वो सब कुछ ख़ालिक़ ने छीन लिया। न दौलत रही न आदमी रहे। अब उनके नामों को रोने वाली वही बाक़ी थी। आँखों से दिखाई न देता था, कानों से सुनाई न देता था, जगह से हिलना मुश्किल था, किसी तरह ज़िंदगी के दिन पूरे कर रही थी और इधर कोदई की क़िस्मत जाग गई थी।
अब चारों तरफ़ कोदई की पूछ थी। आज जलसा भी कोदई के दरवाज़े पर हो रहा है। नोहरी को अब कौन पूछेगा। ये सोच कर उसका दिल जैसे किसी पत्थर से कुचल उठा। हाय अगर भगवान ने उसे इतना अपाहिज न कर दिया होता तो आज झोंपड़े को लीपती, दरवाज़े पर बाजे बजवाती, कढ़ाओ चढ़वाती, पूरियाँ बनवाती, और जब वो लोग खा चुकते तो गोद भर रुपया उनकी नज़र देती।
उसे वो दिन याद आया जब वो अपने बूढ़े पति को लेकर यहाँ से बीस कोस दूर महात्मा जी के दर्शन करने गई थी। वो उमंग, वो सच्चा प्यार, वो अक़ीदत आज उस के दिल में आसमान के मटियाले बादलों की तरह लगी।
कोदई ने आकर पोपले मुँह से कहा... “भाबी आज महात्मा जी का जत्था आ रहा है। तुम्हें भी कुछ देना है?”
नोहरी ने चौधरी को लताड़ भरी हुई आँखों से देखा। बेरहम मुझे जलाने आया है मुझे नीचा दिखाना चाहता है। जैसे आसमान पर चढ़ कर बोली, “मुझे जो कुछ देना है वो उन्हीं लोगों को दूँगी, तुम्हें क्यों दिखाऊँ।”
कोदई ने मुस्कराकर कहा, “हम किसी से कहेंगे नहीं। सच कहते हैं भाबी। निकालो वो पुरानी हांडी। अब किस दिन के लिए रखे हुए हो। किसी ने कुछ नहीं दिया... गाओं की लाज कैसे रहेगी।“
नोहरी ने बड़ी लाचारगी से कहा... “जले पर नमक न छिड़को देवर जी। भगवान ने दिया होता तो तुम्हें कहना न पड़ता। इसी दरवाज़े पर एक दिन साधू संत, जोगी जती, हाकिम-ए-सूबा सभी आते थे, मगर सब दिन बराबर नहीं जाते।”
कोदई शर्मिंदा हो गया। उसके मुँह की झुर्रियाँ जैसे रेंगने लगीं। बोला, “तुम तो हंसी-हंसी में बिगड़ जाती हो भाबी। मैंने तो इसलिए कहा कि बाद में तुम ये न कहने लगो, मुझसे तो किसी ने कुछ कहा नहीं।”
ये कहता हुआ वो चला गया। नोहरी वहीं बैठी हुई उस की तरफ़ ताकती रही। उसका वो तंज़ साँप की तरह उस के सामने बैठा हुआ मालूम होता था।
नोहरी अभी बैठी हुई थी कि शोर मचा। जत्था आ गया। पच्छम में गर्द उड़ती हुई नज़र आ रही थी, जैसे ज़मीन इन मुसाफ़िरों के इस्तिक़बाल के लिए अपने हीरे जवाहरात की बारिश कर रही हो। गाओं के सब औरत मर्द सब काम छोड़ छोड़कर उनका इस्तक़बाल करने चले एक पल में तिरंगा झंडा हवा में लहराता दिखाई दिया जैसे स्वराज ऊँचे आसन पर बैठा हुआ सबको आशीर्वाद दे रहा है।
औरतें ख़ुशी के गीत गाने लगीं। ज़रा देर में मुसाफ़िरों का जत्था साफ़ दिखाई देने लगा। दो-दो आदमियों की क़तारें थीं। हर एक के जिस्म पर खद्दर का कुरता था, सर पर गांधी टोपी बग़ल में थैला लटकता हुआ, दोनों हाथ ख़ाली जैसे स्वराज से बग़लगीर होने को तैयार हूँ। फिर उनकी आवाज़ें सुनाई देने लगीं। उनके मर्दाने गलों से एक क़ौमी तराना निकल रहा था। गर्म, गहरा। दिलों में चुसती पैदा वाला।
एक वो था कि हम सारे जहाँ में फ़र्द थे।
एक दिन ये है कि हम सा बे-हया कोई नहीं।
एक दिन वो था कि अपनी शान पे देते थे जान।
एक दिन ये है कि हम सा बे-हया कोई नहीं।
गाओं वालों ने कई क़दम आगे बढ़कर मुसाफ़िरों का इस्तक़बाल किया। बेचारों के सरों पर धूल जमी हुई थी, होंट सूखे हुए थे, चेहरे स्याही माइल मगर आँखों में जैसे आज़ादी का नूर चमक था।
औरतें गा रही थीं। बच्चे उछल रहे थे और आदमी अपने अँगोछों से मुसाफ़िरों को हवा कर रहे थे। इस तक़रीब में नोहरी की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया जो अपनी लठिया पकड़े सब के पीछे मुजस्सम आशीरवाद बनी खड़ी थी। उसकी आँखें डुबडुबाई हुई थीं। चेहरे पर फ़ख़्र की ऐसी झलक थी जैसे वो कोई रानी है, जैसे ये सारा गाओं उसका है। ये सभी जवान उसके बच्चे हैं अपने दिल में उसने ऐसी ताक़त, ऐसी वुसअत, ऐसी बुलंदी कभी पहले महसूस नहीं की थी।
अचानक उसने लाठी फेंक दी और भीड़ को चीरती हुई मुसाफ़िरों के सामने आ खड़ी हुई। जैसे लाठी के साथ ही उसने बुढ़ापे और दुख के बोझ को फेंक दिया हो। वो एक पल अक़ीदत मंदाना आँखों से आज़ादी के सिपाहीयों की तरफ़ तकती रही। जैसे वो उनकी ताक़त को अपने अंदर भर रही हो, तब वो नाचने लगी। इस तरह नाचने लगी जैसे कोई हसीन दोशीज़ा इश्क़ और ख़ुशी के नशे में मस्त हो कर नाचे। लोग दो-दो, चार-चार क़दम पीछे हट गए। छोटा सा आँगन बन गया और इस आँगन में वो बुढ़िया अपने रक़्स के जौहर दिखाने लगी। इस अबदी सरशारी के रेले में वो अपना सारा दुख और मुसीबत भूल गई। उसके कमज़ोर आज़ा में जहाँ हमेशा काहिली छाई रहती थी। वहाँ ना जाने इतने चुलबुलेपन, इतनी लचक, इतनी फुर्ती कहाँ से आ गई थी। पहले कुछ देर तो लोग मज़ाक़ से उसकी तरफ़ देखते रहे। जैसे बच्चे बंदर का नाच देखते हैं और फिर अक़ीदत के इस मुक़द्दस बहाव में सभी मस्त हो गए। उन्हें ऐसा लगा जैसे सारी कायनात एक बड़े वसीअ रक़्स की गोद में खेल है।
कोदई ने कहा, “बस करो भाबी। बस करो।”
नोहरी ने थिरकते हुए कहा, “खड़े क्यों हो। आओ ना। ज़रा देखूं कैसा नाचते हो।”
कोदई बोले, “अब बुढ़ापे में क्या नाचूँ।”
नोहरी ने रुक कर कहा, “क्या तुम आज भी बूढ़े हो। मेरा बुढ़ापा तो जैसे भाग गया। इन वीरों को देखकर तुम्हारी छाती नहीं फूलती। हमारा ही दुख-दर्द दूर करने के लिए तो उन्होंने ये परन ठाना है। इन्हीं हाथों से हाकिमों की बेगार बजाई है। इन्हें कानों से उनकी गालियाँ और घुड़कियाँ सुनी हैं। अब तो इस जोर-ओ-ज़ुल्म का नास होगा, हम और तुम क्या अभी बूढ़े होने के लायक़ थे। हमें पेट की आग ने जलाया है। बोलो ईमान से। यहाँ इतने आदमी हैं, किसी ने इधर पिछले छः महीने से पेट भर रोटी खाई है? घी किसी को सूँघने को मिलता है, कभी नींद भर सोए हो, जिस खेत का लगान तीन रुपया देते थे अब उसके नौ-दस देते हो। क्या धरती सोना उगलेगी। काम करते-करते छाती फट गई। हमीं हैं कि इतना सह कर भी जीते हैं। दूसरा होता तो मर जाता या मार डालता। धन्य हैं महात्मा और उनके चेले कि ग़रीबों का दुख समझते हैं, उसे दूर करने की कोशिश करते हैं और तो सभी हैं पीस कर हमारा ख़ून निकालें हैं।
मुसाफ़िरों के चेहरे चमक उठे। दिल खिल उठे। मुहब्बत में डूबी हुई आवाज़ निकली...
एक दिन वो था कि पारस थी यहाँ की सरज़मीं।
एक दिन ये है कि यूं बे-दस्त-ओ-पाक कोई नहीं।
कोदई के दरवाज़े पर मशअलें जल रही थीं। कई गाओं के आदमी जमा हो गए थे... मुसाफ़िरों के खाना खा लेने के बाद जलसा शुरू हुआ। जत्थे के लीडर ने खड़े हो कर कहा...
“भाईयों आपने आज हम लोगों की जो ख़ातिर मुदारात की है, इससे हमें ये उम्मीद हो रही है कि हमारी बेड़ियाँ जल्द ही कट जाएँगी। मैंने यूरोप और पच्छम के बहुत से मुल्कों को देखा है और मैं तजुर्बे से कहता हूँ कि आप में जो सादगी, जो ईमानदारी, जो जफ़ा कशी और मज़हबी अक़ीदत है वो दुनिया के और किसी मुल्क में नहीं। मैं तो यही कहूँगा कि आप इन्सान नहीं देवता हैं। आपको ऐश-ओ-इशरत से मतलब नहीं, नशे पानी से मतलब नहीं, अपना काम करना और अपनी हालत पर क़नाअत करना ये आपका आदर्श है लेकिन आपका यही सीधापन आपके हक़ में नुक़्सान देह हो रहा है। बुरा न मानिएगा, आप लोग इस दुनिया में रहने के लायक़ नहीं। आपको तो जन्नत में कोई मुक़ाम मिलना चाहीए था। खेतों का लगान बरसाती नाले की तरह बढ़ता जाता है आप चूँ तक नहीं करते। अमले और अहलकार आपको नोचते रहते हैं, आप ज़बान नहीं हिलाते। उसका ये नतीजा हो रहा है कि लोग दोनों हाथों से आपको लूट रहे हैं पर आपको ख़बर नहीं। आपके हाथों से सभी रोज़गार छिनते जाते हैं, आपका सत्यानास हो रहा है, पर आप आँखें खोल कर नहीं देखते। पहले लाखों भाई सूत कात कर कपड़े बुन कर गुज़र करते थे, अब सब कपड़ा विलायत से आता है। पहले लाखों आदमी यहीं नमक बनाते थे, अब नमक बाहर से आता है। यहाँ नमक बनाना जुर्म है। आपके देस में इतना नमक है कि पूरी दुनिया का दो साल तक इससे काम चल सकता है पर आप सात करोड़ रुपया सिर्फ़ नमक के लिए देते हैं। आपके अवसरों में झीलों में नमक भरा पड़ा है, आप उसे छू नहीं सकते। शायद कुछ दिन में आपके कुओं पर भी महसूल लग जाएगा। क्या आप अब भी ये बे इंसाफ़ी सहते रहेंगे?”
एक आवाज़ आई... “हम किस लायक़ हैं?”
लीडर: “यही तो आपको ग़लत फ़हमी है। आप ही की गर्दन पर इतना बड़ा राज थमा हुआ है। आप ही इन बड़ी-बड़ी फ़ौजों, इन बड़े-बड़े अफ़सरों के मालिक हैं मगर फिर भी आप भूकों मरते हैं, बे इंसाफ़ी सहते हैं। इसलिए कि आपको अपनी ताक़त का इल्म नहीं है। ये समझ लीजिए कि जो आदमी दुनिया में अपनी हिफ़ाज़त नहीं कर सकता वो हमेशा ख़ुद-ग़र्ज़ और बे इंसाफ़ी करने वाले लोगों का शिकार बनता रहेगा। आज दुनिया का सबसे बड़ा आदमी अपनी ज़िंदगी की बाज़ी खेल रहा है। हज़ारों जवान अपनी जानें हथेली से लोटते रहे हैं वो क्या चाहेंगे कि उनका शिकार उनके मुँह से छिन जाये। वो आपके इन सिपाहियों के साथ जितनी सख़्तियाँ कर सकते हैं कर रहे हैं मगर हम लोग सब कुछ सहने के लिए तैयार हैं। अब सोचिए कि आप हमारी कुछ मदद करेंगे। मर्दों की तरह निकल कर अपने आपको बे इंसाफ़ी से बचाएंगे या बुज़दिलों की तरह बैठे हुए तक़दीर को कोसते रहेंगे। ऐसा मौक़ा शायद फिर कभी न आए। अगर इस वक़्त चूके तो फिर हमेशा हाथ मलते रहिएगा। हम इन्साफ़ और सच्चाई के लिए लड़ रहे हैं। इसलिए इन्साफ़ और सच्चाई ही के हथियारों से लड़ना है। हमें ऐसे बहादुरों की ज़रूरत है जो ज़ुल्म और ग़ुस्से को दिल से निकाल दें और भगवान पर पक्का यक़ीन रखकर धरम के लिए सब कुछ झील सकें। बोलिए आप क्या मदद कर हैं।”
कोई आगे नहीं बढ़ता। सन्नाटा छाया रहता है।
यकायक शोर मचा। पुलिस, पुलिस आ गई।
पुलिस का एक दारोगा कुछ कांस्टेबलों के साथ आकर सामने खड़ा हो गया। लोगों ने सहमी हुई आँखों और धड़कते हुए दिलों से उनकी तरफ़ देखा और छिपने के लिए बिल ढूँढने लगे।
दारोगा जी ने हुक्म दिया, “मार कर भगा दो इन बदमाशों को।”
सिपाहियों ने अपने डंडे सँभाले मगर इससे पहले कि वो किसी पर हाथ चलाऐं सभी लोग फुर्र हो गए। कोई इधर से भागा कोई उधर से। भदड़ मच गई। दस मिनट में वहाँ गाओं का एक आदमी भी ना रहा। हाँ लीडर अपने मुक़ाम पर अब भी खड़ा था और जत्था उसके पीछे बैठा हुआ था। सिर्फ कोदई चौधरी लीडर के पास बैठे हुए ठहरी हुई नज़रों से ज़मीन की तरफ़ ताक रहे थे।
दारोगा ने कोदई की तरफ़ सख़्त नज़रों से देखकर कहा, “क्यों रे कोदईआ तूने इन बदमाशों को क्यों ठहराया यहाँ?”
कोदई ने लाल-लाल आँखों से दारोगा की तरफ़ देखा और ज़हर की तरह ग़ुस्से को पी गए। आज अगर उनके सर गृहस्ती का बखेड़ा न होता, लेना देना न होता तो वो भी उसका मुंहतोड़ जवाब देते। जिस गृहस्ती पर उन्होंने अपनी ज़िंदगी के पचास साल फ़ना कर दिए थे वो उस वक़्त एक ज़हरीले साँप की तरह उनकी रूह से लिपटी थी।
कोदई ने अभी कोई जवाब नहीं दिया था कि नोहरी पीछे से आकर बोली, “क्या लाल पगड़ी बाँध कर तुम्हारी ज़बान एँठ गई है। कोदई क्या तुम्हारे ग़ुलाम हैं कि कोदईआ, कोदईआ कर रहे हो। हमारा ही पैसा खाते हो और हमीं को आँखें दिखाते हो। तुम्हें शर्म नहीं आती।”
नोहरी उस वक़्त दोपहर की धूप की तरह काँप रही थी। दारोगा एक लम्हे के लिए सन्नाटे में आ गया। फिर कुछ सोच कर और औरत के मुँह लगना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझ कर कोदई से बोला, “ये कौन शैतान की ख़ाला है कोदई। ख़ुदा का ख़ौफ़ न होता तो इसकी ज़बान तालू से खींच लेता।”
बुढ़िया लाठी टेक कर दारोगा की तरफ़ घूमती हुई बोली, “क्यों ख़ुदा की दुहाई देकर ख़ुदा को बदनाम करते हो। तुम्हारे ख़ुदा तो तुम्हारे अफ़्सर हैं जिनकी तुम जूतीयाँ चाटते हो। तुम्हें तो चाहीए था कि डूब मरते चुल्लू-भर पानी में। जानते हो ये लोग जो यहाँ आए हैं कौन हैं? ये वो लोग हैं जो हम-ग़रीबों के लिए अपनी जान तक क़ुर्बान करने के लिए तैयार हैं। तुम उन्हें बदमाश कहते हो। तुम जो रिश्वत का रुपया खाते हो, जुआ खिलाते हो, चोरियाँ करवाते हो, डाके डलवाते हो, भले आदमियों को फाँस कर मुट्ठीयाँ गर्म करते हो और अपने देवताओं की जूतीयों पर नाक रगड़ते हो। तुम उन्हें बदमाश कहते हो।
नोहरी की चुभती हुई बातें सुनकर बहुत से लोग जो इधर-उधर दुबक गए थे फिर जमा हो गए। दारोगा ने देखा भीड़ बढ़ती जाती है तो अपना हंटर लेकर उन पर पिल पड़ा। लोग फिर तितर बितर हो गए। एक हंटर नोहरी पर भी पड़ा। उसे ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई चिंगारी सारी पीठ पर दौड़ गई। उसकी आँखों तले अंधेरा छा गया, पर अपनी बची हुई ताक़त को यकजा कर के ऊँची आवाज़ में बोली... “लड़कों क्यों भागते हो। क्या यहाँ न्योता खाने आए थे या कोई नाच तमाशा हो रहा था। तुम्हारे इसी बुज़दिल पन ने इन सबको शेर बना रखा है। कब तक ये मारधाड़। गाली गुप्तार सहते रहोगे ?”
एक सिपाही ने बुढ़िया की गर्दन पकड़ कर ज़ोर से धक्का दिया। बढ़िया दो तीन क़दम पर औंधे मुँह गिरा चाहती थी कि कोदई ने लपक कर उसे सँभाल लिया और बोला, “क्या एक दुखिया पर ग़ुस्सा दिखाते हो यारो। क्या गु़लामी ने तुम्हें ना-मर्द भी बना दिया है। औरत, बूढ़ों पर, निहत्तों पर वार करते हो, ये मर्दों का काम नहीं है।”
नोहरी ने ज़मीन पर पड़े पड़े कहा, “मर्द होते तो ग़ुलाम ही क्यों होते। भगवान आदमी इतना बेरहम भी हो सकता है। भला अंग्रेज़ इतनी बेदर्दी करे तो एक बात भी है उसका राज है। तुम तो उसके चाकर हो तुम्हें राज तो नहीं मिलेगा मगर रांड मांड में ही ख़ुश। उन्हें कोई तलब देता जाये दूसरों की गर्दन भी काटने में उन्हें झिजक नहीं।”
अब दारोगा ने लीडर को डाँटना शुरू किया, “तुम किस के हुक्म से इस गाओं में आए?”
लीडर ने इतमीनान से जवाब दिया... “ख़ुदा के हुक्म से।”
दारोगा: “तुम रियाया के अमन में ख़लल डालते हो।”
लीडर: “अगर उन्हें उनकी हालत बताना अमन में ख़लल डालना है तो बे-शक हम उनके अमन में ख़लल डाल रहे हैं।”
भागने वालों के क़दम एक-बार फिर रुक गए। कोदई ने उनकी तरफ़ मायूस आँखों से देखा और काँपती हुई आवाज़ में कहा, “भाईओ इस वक़्त कई गाओं के आदमी यहाँ जमा हैं। दारोगा ने हमारी जैसे बे आबरूई की है क्या उसे सह कर तुम आराम की नींद सो सकते हो। इसकी फ़र्याद कौन सुनेगा। हाकिम लोग क्या हमारी फ़र्याद सुनेंगे, कभी नहीं। आज अगर हम लोग मार डाले जाएं तो भी कुछ न होगा। ये है हमारी इज़्ज़त और आबरू। थू है इस ज़िन्दगी पर।”
मजमा साकित हो गया। जैसे बहता हुआ पानी मेंड से रुक जाये। ख़ौफ़ का धुआँ लोगों के दिलों पर छा गया था, यकायक हट गया। उनके चेहरे सख़्त हो गए। दारोगा ने उनके तेवर देखे तो फ़ौरन घोड़े पर सवार हो गया और कोदई की गिरफ़्तार करने का हुक्म दिया। दो सिपाहियों ने बढ़कर कोदई का बाज़ू पकड़ लिया।
कोदई ने कहा... “घबराते क्यों हो मैं भागूँगा नहीं। चलो कहाँ चलते हो?”
जैसे ही कोदई दोनों सिपाहीयों के साथ चला, उस के दोनों जवान बेटे कई आदमीयों के साथ सिपाहीयों की तरफ़ लपके कि कोदई को उनके हाथों से छीन लें। सभी आदमी जज़्बात से मग़्लूब हो कर पुलिस वालों के चारों तरफ़ जमा गए।
दारोगा ने कहा, “तुम लोग हट जाओ वर्ना मैं फ़ायर कर दूंगा मजमे ने इस धमकी का जवाब “भारत माता की जय” से दिया और आगे खिसक गए।
दारोगा ने देखा अब जान बचती नज़र नहीं आती, आजिज़ी से बोल, “लीडर साहब ये लोग फ़साद पर आमादा हैं। इसका नतीजा अच्छा नहीं होगा।”
लीडर ने कहा... “नहीं। जब तक हम में से एक आदमी भी यहाँ रहेगा आप पर कोई हाथ नहीं उठा सकेगा। आपसे हमारी कोई दुश्मनी नहीं है। हम और आप दोनों एक ही पैरों तले दबे हुए हैं। ये हमारी बदनसीबी है कि हम आप दो मुख़ालिफ़ जमातों में हैं।”
ये कहते हुए लीडर ने गाओं वालों को समझाया, “भाईओ मैं आपसे कह चुका हूँ कि ये इन्साफ़ और धरम की लड़ाई है और हमें इन्साफ़ और धरम के हथियार से ही लड़ना है। हमें अपने भाईयों से नहीं लड़ना है। हमें तो किसी से भी लड़ना नहीं है। दारोगा की जगह कोई अंग्रेज़ होता तो भी हम उसकी उतनी ही हिफ़ाज़त करते। दारोगा ने कोदई चौधरी को गिरफ़्तार किया है। मैं उसे चौधरी की ख़ुश क़िस्मती समझता हूँ। मुबारक हैं वो लोग जो आज़ादी की लड़ाई में सज़ा पाएँगे। ये बिगड़ने या घबराने की बात नहीं। आप लोग हट जाएं और पुलिस को जाने दें।”
दारोगा और सिपाही कोदई को लेकर चले। लोगों ने जय जयकार किया... “भारत माता की जय।”
कोदई ने जवाब दिया... “राम-राम भाईओ। राम-राम। डटे रहना मैदान में। घबराने की कोई बात नहीं है भगवान सब का मालिक है।”
दोनों लड़के आँखों में आँसू भरे आए और लरज़ती आवाज़ में बोले, “हमें क्या कहे जाते दादा।”
कोदई ने उन्हें बढ़ावा देते हुए कहा, “भगवान का भरोसा मत छोड़ना और वो करना जो मर्दों को करना चाहीए। ख़ौफ़ सारी बुराईयों की जड़ है। उसे दिल से निकाल डालो। फिर तुम्हारा कोई कुछ नहीं कर सकता। सच्चाई की कभी हार नहीं होती।”
आज पुलिस के सिपाहियों के दर्मियान कोदई को जिस बे-ख़ौफ़ी का एहसास हो रहा था वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। जेल और फांसी आज उसके लिए डरने की चीज़ नहीं, फ़ख़्र की चीज़ हो गई थी। सच्चाई का जीता जागता रूप आज उसने पहली बार देखा जैसे वो ढाल की तरह उसकी हिफ़ाज़त कर हो।
गाओं वालों के लिए कोदई का पकड़ लिया जाना शर्मनाक मालूम हो रहा था। उनकी आँखों के सामने उनके चौधरी इस तरह पकड़ लिए गए और वो कुछ न कर सके। अब वो मुँह कैसे दिखाएंगे हर चेहरे पर गहरा दुख झलक रहा था। जैसे गाओं लुट गया हो।
अचानक नोहरी ने चिल्ला कर कहा, “अब सब जने खड़े क्या पछता रहे हो। देख ली अपनी ख़राब हालत या अभी कुछ बाक़ी है। आज तुमने देख लिया न कि हमारे ऊपर क़ानून से नहीं, लाठी से हुकूमत हो रही है। आज हम इतने बेशर्म हैं कि इतना होने पर भी कुछ नहीं बोलते। हम इतने ख़ुद-ग़र्ज़ इतने कायर न होते तो उनकी मजाल थी कि हमें कोड़ों से पीटते। जब तक तुम ग़ुलाम बने रहोगे उनकी सेवा टहल करते रहोगे तुम्हें भूसा चौकर मिलता रहेगा लेकिन जिस दिन तुमने कंधा टेढ़ा किया उसी दिन मार पड़ने लगेगी। कब तक इस तरह मार खाते रहोगे, कब तक मुर्दों की तरह पड़े गिद्धों से अपने आपको नुचवाते रहोगे। अब दिखा दो कि तुम भी जीते जागते हो और तुम्हें भी अपनी इज़्ज़त आबरू का कुछ ख़्याल है। जब इज़्ज़त ही न रही तो क्या करोगे खेती बाड़ी कर के। धरम कमाकर, जी कर ही क्या करोगे। क्या इसी लिए जी रहे हो कि तुम्हारे बच्चे इसी तरह लातें खाते जाएं इसी तरह कुचले जाएं। छोड़ो ये कायरता। आख़िर एक दिन खाट पर पड़े-पड़े मर जाओगे। क्यों नहीं इस धरम की लड़ाई में आकर बहादुरों की मौत मरते। मैं तो बूढ़ी औरत हूँ लेकिन कुछ न कर सकूंगी तो यहीं ये लोग सोएँगे हाँ झाड़ू तो लगा दूंगी, उन्हें पंखा तो झलूंगी।”
कोदई का बड़ा लड़का मैकू बोला... “हमारे जीते-जी तुम जाओगी काकी। हमारी ज़िंदगी को लानत है। अभी तो हम तुम्हारे बालक ज़िंदा ही हैं। मैं चलता हूँ उधर। खेती बाड़ी गंगा देखेगा।
गंगा उसका छोटा भाई था। बोला, “भैया तुम ये बे इंसाफ़ी करते हो। मेरे रहते तुम नहीं जा सकते। तुम रहोगे तो गृहस्ती सँभालोगे। मुझसे तो कुछ न होगा। मुझे जाने दो।”
मैकू ने कहा, “इसे काकी पर छोड़ दो। इस तरह हमारी तुम्हारी लड़ाई होगी, जिसे काकी का हुक्म हो वो जाये।”
नोहरी ने फ़ख़्र से मुस्कराकर कहा, “जो मुझे रिश्वत देगा उसी को जिताऊँगी।“
मैकू: “क्या तुम्हारी कचहरी में भी रिश्वत चलेगी काकी। हमने तो ये समझा था यहाँ ईमान का फ़ैसला होगा।”
नोहरी: “चलो रहने दो। मरते वक़्त राज मिला है तो कुछ तो कमालूँ।”
गंगा हँसता हुआ बोला, “मैं तुम्हें रिश्वत दूँगा काकी। अब की बाज़ार जाऊँगा तो तुम्हारे लिए पूरबी तम्बाकू का पत्ता लाऊँगा।
नोहरी: “तो बस तेरी ही जीत है। तो ही जाना।”
मैकू: “काकी, तुम इन्साफ़ नहीं कर रही हो।”
नोहरी: “अदालत का फ़ैसला भी दोनों फ़रीक़ों ने पसंद किया है कि तुम्हीं करोगी।”
गंगा ने नोहरी के चरण छूए, फिर भाई से गले मिला और बोला, “कल दादा को कहला भेजना। मैं जाता हूँ।”
एक आदमी ने कहा, “मेरा भी नाम लिख लो भाई। सेवाराम।”
सबने जय जयकार किया। सेवाराम आकर लीडर के पास खड़ा हो गया।
दूसरी आवाज़ आई, “मेरा नाम लिख लो भजन सिंह।”
सबने फिर जय जयकार किया। भजन सिंह आकर लीडर के पास खड़ा हो गया।
भजन सिंह दस पाँच गाओं में पहलवानी के लिए मशहूर था। वो अपनी चौड़ी छाती ताने, सर उठाए लीडर के पास खड़ा हुआ तो जैसे शामियाने के नीचे एक नई ज़िंदगी तुलूअ हो गई।
फ़ौरन ही तीसरी आवाज़ आई, “मेरा नाम लिक्खो। घूरे।”
ये गाओं का चौकीदार था। लोगों ने सर उठा उठाकर उसे देखा। अचानक किसी को यक़ीन नहीं आता था कि घूरे अपना नाम लिखाएगा।
भजन सिंह ने हंसते हुए कहा, “तुम्हें क्या हुआ है घूरे?”
घूरे ने कहा, “मुझे वही हुआ है जो तुम्हें हुआ है। बीस साल तक गु़लामी करते-करते थक गया।”
फिर आवाज़ आई, “मेरा नाम लिक्खो, काले ख़ाँ।”
वो ज़मींदार का आदमी था। बड़ा ही जाबिर और दबंग। फिर लोगों को ताज्जुब हुआ।
मैकू बोला, “मालूम होता है हमको लूट लूट कर घर भर लिया है। क्यों?”
काले ख़ाँ संजीदगी से बोला, “क्या जो आदमी भटकता रहे उसे कभी सीधे रास्ते पर न आने दोगे भाई। अब तक जिसका नमक खाता था, उसका हुक्म बजाता था। तुमको लूट लूट कर उसका घर भरता था। अब मालूम हुआ कि मैं बड़े भारी मुग़ालते में पड़ा हुआ था। तुम सब भाईयों को मैंने बहुत सताया है। अब मुझे माफ़ी दो।”
पांचों रंगरूट एक दूसरे से लिपटे थे। उछलते थे, चीख़ते थे जैसे उन्होंने सच-मुच स्वराज पा लिया है। दर-हक़ीक़त उन्हें स्वराज मिल गया था। स्वराज एक अंदरूनी जज़्बा है जैसे ही गु़लामी का ख़ौफ़ दिल से निकल गया, आपको स्वराज मिल गया। ख़ौफ़ ही गु़लामी है, बे-ख़ौफ़ी ही स्वराज है। इंतिज़ाम-ओ-इत्तिहाद तो अलामती चीज़ें हैं।
लीडर ने खादिमों को मुख़ातब कर के कहा, “दोस्तो। आज आप आज़ादी के सिपाहीयों में आ मिले हैं इस पर मैं आपको मुबारकबाद देता हूँ। आपको मालूम है हम किस तरह लड़ाई करने जा रहे हैं। आपके ऊपर तरह तरह की सख़्तियाँ की जाएँगी। मगर याद रखिए। जिस तरह आज आपने मोह और लालच का त्याग कर दिया है इसी तरह जब्र और ग़ुस्से का भी त्याग कर दीजिए। हम जिहाद में जा रहे हैं। हमें धरम के रास्ते पर जमे रहना होगा। आप उसके लिए हैं।”
पांचों ने एक आवाज़ में कहा... “तैयार हैं।”
लीडर ने आशीर्वाद दिया... “इश्वर आपकी मदद करे।”
इस सुहानी सुनहरी सुबह में जैसे उमंग खुली हुई थी। नसीम के हल्के-हल्के झोंकों में रोशनी की हल्की-हल्की किरनों में उमंग की आमेज़िश थी। लोग जैसे दीवाने हो गए थे। जैसे आज़ादी की देवी उन्हें अपनी तरफ़ बुला रही हो। वही खेत खलियान हैं वही बाग़ बगीचे हैं वही मर्द औरतें हैं, पर आज की सुबह में जो आशीर्वाद है जो वरदान है जो सरख़ुशी है वो और कभी न थी। वही खेत खलियान, बाग़ बगीचे, मर्द औरत आज एक नई सरख़ुशी से सरशार हैं।
सूरज निकलने से पहले ही कई हज़ार आदमीयों का जमाव हो गया। जब सत्य गिरहियों का जत्था निकला तो लोगों की मस्तानी आवाज़ों से आसमान गरज उठा। नए सिपाहियों को अलविदा। उनकी औरतों का इतमीनान, माँ बाप का फ़ख़्र, सिपाहियों के ईसार का मंज़र लोगों को मस्त किए देता था।
अचानक नोहरी लाठी टेकती हुई आकर खड़ी हो गई।
मैकू ने कहा, “काकी हमें आशीर्वाद दो।”
नोहरी: “मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ बेटा। कितना आशीर्वाद लोगे।”
कई आदमीयों ने एक आवाज़ में कहा, “काकी तुम चली जाओगी तो यहाँ कौन रहेगा।”
नोहरी ने कहा, “भैया जाने के तो अब दिन ही हैं आज न जाऊँगी तो दो-चार महीने के बाद जाऊँगी। अभी जाऊँगी तो ज़िंदगी कामयाब हो जाएगी। दो-चार महीने में खाट पर पड़े-पड़े जाऊँगी तो मन की आस मन में ही रह जाएगी। इतने बालक हैं, उनकी सेवा में मेरी निजात हो जाएगी। भगवान करे तुम लोगों के अच्छे दिन आएं और मैं अपनी ज़िंदगी में तुम्हारे सुख देख लूँ।”
ये कहते हुए नोहरी ने सबको आशीर्वाद दिया और लीडर के पास जाकर खड़ी हो गई। लोग खड़े देख रहे थे और जत्था गाता हुआ चला जाता था,
एक दिन वो था कि हम सारे जहां में फ़र्द थे।
एक दिन ये है कि हम सा बे-हया कोई नहीं।
नोहरी के पाँव ज़मीन पर न पड़ते थे। जैसे हवाई जहाज़ पर बैठी हुई जन्नत की तरफ़ जा रही हो।
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