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समझौता

MORE BYग़ुलाम अब्बास

    स्टोरीलाइन

    बीवी के भाग जाने के ग़म में मुब्तला एक शख्स की कहानी है। वह उसे भूलाना चाहता है और इस चक्कर में कोठों पर पहुंच जाता है। फिर एक दिन उसकी बीवी वापस लौट आती है। न चाहते हुए भी वह उसे घर में पनाह दे देता है, लेकिन वह उससे कोई ताल्लुक नहीं रखता है। एक रोज़ फिर वह कोठे पर जाने की सोचता है तो पता चलता है कि उसके अकाउंट में रूपया ही नहीं बचा है। उसे अपनी बीवी का ख़्याल आता है और घर की ओर लौट पड़ता है।

    पहले-पहल जब उसे मालूम हुआ कि उसकी बीवी भाग गई तो वो भौचक्का सा रह गया। शादी का पहला ही साल और ऐसी अनहोनी सी बात किसी तरह यक़ीं करने को जी नहीं चाहता था। मगर जब बार-बार उसके कमरे में जाकर उसकी चीज़ों को गुम पाया। यहाँ तक कि उसका बचपन का फ़ोटो तक जिसमें वो एक कबूतर को अपने नन्हे मुन्ने हाथों में थामे मुस्कुरा रही थी, उसकी सिंघार मेज़ पर से ग़ायब था, तो शक की कोई वजह बाक़ी ना रही।

    कई दिन तक वो गुम-सुम रहा। कहीं गया, नौकरों पर ये बात ज़ाहिर होने दी, किसी रिश्तेदार या दोस्त से इसका ज़िक्र किया। मगर रफ़्ता-रफ़्ता जब बदनामी का ख़ौफ़ दिल से निकल गया, और उधर से लौट आने की रही सही उम्मीद भी जाती रही, तो उसने ठंडे दिल से इस वाक़िआ पर ग़ौर करना शुरू किया। एक ख़्याल बार-बार उसे कचोके देने लगा “मैंने उस औरत को सच्चे दिल से चाहा। हर तरह उसके नाज़ उठाए। उसकी वो कौन सी ख़्वाहिश थी जिसे मैंने पूरा किया। और इसका उस ने ये सिला दिया कि एक दिन चुपके से, बग़ैर कोई वजह बताए, बग़ैर एक पैग़ाम तक छोड़े भाग गई।“

    इसके साथ ही उसने आने वाले बरसों की तन्हाइयों का तसव्वुर किया। और उसकी रूह कपकपा कर रह गई।

    वो नौ उमरी ही से इन तन्हाइयों से वाक़िफ़ हो चुका था। ग़रीब माँ बाप का बेटा था। जो अपनी हैसियत के मुताबिक़ मामूली सा लिखा पढ़ा कर सिधार गए थे। ग़ुर्बत और बे-कसी के ज़माने में उसे किसी से मिलने-जुलने की जुर्रत हुई। और उसने तन्हाई ही में अमान समझी। शबाब का बेश्तर ज़माना फ़िक्र-ए-मआश की जद्द-ओ-जहद की नज़्र हो गया। आख़िर जब उसके दिन फिरे और वो भी कोई चीज़ समझा जाने लगा, तो वो अपनी गोशा-नशीनी की ज़िंदगी का इस क़दर आदी हो चुका था कि किसी क़ीमत उसे छोड़ने को तैयार था। रफ़्ता-रफ़्ता उसके रिश्तेदार जो उसकी हालत के सुधरते ही आपसे आप पैदा हो गए थे, उसकी तन्हाई में मुज़ाहिम होने शुरू हुए।

    “भई तो क्या उम्र-भर कुंवारे ही रहोगे?’’ वो आए दिन कर उससे कहा करते “तुम मानो चाहे मानो। हम तो चाँद सी दुल्हन ला के ही रहेंगे एक बुज़ुर्ग जो रिश्ते में दूर के मामूँ होते थे, कहते “अमाँ दूर क्यों जाओ। अपने ख़ानदान ही में जो माशा-अल्लाह एक से एक हसीन-ओ-जमील लड़की मौजूद है।” हर बार उसका इन्कार पहले से कमज़ोर होता गया। और आख़िर एक दिन बिरादरी ही की एक क़ुबूल सूरत तालीम याफ़्ता लड़की के साथ उसकी शादी कर दी गई।

    तालिब-ए-इल्मी के ज़माने में उसके साथी अक्सर तअतीलात में तीन-तीन चार-चार की टोलियाँ बना कर तफ़रीह की तलाश में आस-पास के कस्बों और गावओं में निकल जाया करते। वो उनसे दूर ही दूर रहता और दिल ही दिल में उनसे नफ़रत किया करता। मगर अब औरत और उसकी हम जलीसी की लज़्ज़तों से वाक़िफ़ हो कर उसे पहली मर्तबा एहसास हुआ कि वो अब तक कैसी रायगाँ और बे-मानी ज़िंदगी गुज़ारता रहा था।

    शादी के बाद उसकी शौहराना फ़र्ज़-शनासी ज़र्ब-उल-मसल बन गई थी। बीवी की मुहब्बत ने उस पर ऐसा क़ाबू पा लिया कि वो बाक़ी हर चीज़ से बेनियाज़ हो गया। वो बीवी से अलग किसी पार्टी या दावत में शरीक होता। तन्हा किसी से मिलता-जुलता। बीवी से जुदा रहना उस पर ऐसा शाक़ गुज़रता कि दफ़्तर में वक़्त काटना दूभर हो जाता। बार-बार घड़ी पर नज़र पड़ती कि कब वक़्त पूरा हो तो घर की राह ले। दफ़्तर से आते वक़्त कभी रास्ते में बचपन का कोई बे-तकल्लुफ़ रंगीन मिज़ाज दोस्त मिल जाता। और उसे अपने साथ किसी महफ़िल-ए-निशात में ले जाना चाहता तो बड़ी सर्द-महरी से जवाब देता “ना साहब। मुझे तो माफ़ ही रखिए। मेरा ये वक़्त मेरी बीवी का है। जो दिन-भर मेरी आस लगाए घर में तन्हा बैठी रही है।” कभी कहता “मैं किसी ऐसी महफ़िल में शामिल नहीं हो सकता जिसमें मेरी बीवी जा सकती हो।”

    “और ये सब उस बे-वफ़ा औरत के लिए।” उसने दोनों हाथों में अपने सर को थामते हुए कहा “जिसकी मुहब्बत महज़ एक फ़रेब थी।”

    यक-लख़्त उसके दिल में अपनी बीवी के ख़िलाफ़ इस क़दर नफ़रत और ग़ुस्सा भर गया कि उसका साँस तेज़ी से चलने लगा। ख़्याल ही ख़्याल में उसने देखा कि उसने अपने मज़बूत हाथों में अपनी बीवी का गला दबा रखा है। उसकी दहशत-ज़दा आँखें रहम और अफ़्व की मुल्तजी हैं। मगर उस बे-वफ़ा औरत के लिए उसके दिल में कोई रहम नहीं। वो उसका गला दबा रहा है। ज़ोर से और ज़ोर से यहाँ तक कि उसका सुर्ख़-ओ-सफ़ेद किताबी चेहरा स्याह पड़ गया। और उसकी बड़ी-बड़ी हसीन आँखें ख़ून के दो घिनौने लोथड़े बन कर बाहर निकल आईं... और उसने उसके बे-जान जिस्म को ज़मीन पर पटख़ दिया।

    लेकिन जूँ-जूँ दिन गुज़रते गए। इंतिक़ाम का ये तुंद-ओ-तेज़ जज़्बा, ये जुनूनी ख़ुरूश धीमा पड़ता और एक इस्तिहज़ा की शक्ल इख़्तेयार करता गया। यहाँ तक कि उसे अपना इश्क़, ईसार-ओ-ख़ुलूस, बीवी की बे-वफ़ाई और उस पर अपना ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब ये सब बातें मज़्हका-ख़ेज़ मालूम होने लगीं। और एक दिन उसे अपनी हालत पर ख़ुद ही हंसी गई। उसने कहा “में भी कैसा बेवक़ूफ़ हूँ कि एक औरत को इस क़दर अहमीयत देता रहा। औरत के मुआमले पर संजीदगी से ग़ौर करना ही हिमाक़त है। उसकी मिसाल बिल्कुल बच्चे की सी है। जब तक उसे खिलौनों से बहलाया जा सकता है, बहलाना चाहिए। मगर जब वो माने और रोना और मचलना शुरू कर दे तो बेहतर यही है कि उसे किसी दूसरे के सुपुर्द कर दिया जाये। रहा इश्क़ और वफ़ा का मुआमला तो ये सरासर ढकोसला है।”

    एक दिन वो दफ़्तर से वापस रहा था तो बचपन का वही रंगीन मिज़ाज दोस्त जो उसे ऐश-ओ-निशात की तरग़ीबें दिया करता था, सामने से आता दिखाई दिया। क़स्द किया कि कतरा के निकल जाये मगर दोस्त की नज़र पड़ चुकी थी। नाचार रुकना पड़ा। दोस्त को उसकी बीवी के भाग जाने का इल्म था। हस्ब-ए-आदत मुस्कराकर कहने लगा “आज तो भाबी जान चाहे जो कहें मैं तुम्हें साथ लिए बग़ैर छोड़ूँगा।” वो ख़ासी देर तक ख़ामोश खड़ा उसका मुँह तकता रहा। फिर एक लतीफ़ सी मुस्कुराहट ने उसकी संजीदगी को तोड़ दिया और वो कह उठा “अच्छा चलो। कहाँ चलना है?”

    दोस्त भौचक्का रह गया।

    जब तक रात का अंधेरा अच्छी तरह फैल गया। दोनों वक़्त गुज़ारने के लिए इधर-उधर घूमते रहे। इसके बाद दोस्त उसे लेकर एक हुस्न-फ़रोश के कोठे पर पहुँचा। ज़िंदगी में इस क़िस्म का ये पहला तजुर्बा था। कुछ ख़ौफ़, कुछ झिजक, कुछ नदामत, कुछ ये ख़लिश दिल में थी कि जो ज़िंदगी अभी तक इस क़िस्म की आलूदगियों से पाक-ओ-साफ़ थी, अब उस पर सियाहकारी के दाग़ धब्बे पड़ जाएंगे। और ये महज़ उस बे-वफ़ा औरत की बदौलत... मगर ये ज़हनी उलझन ज़्यादा देर रही। शराब का दौर चलना था कि यकलख़्त सारे हिजाब जैसे उठ से गए। हंस हंसकर गाने वाली को दाद देने और फ़िक़रे कसने लगा। और घंटे ही भर में पूरा तमाशबीन बन गया।

    इसके बाद उसकी ज़िंदगी का एक नया दौर शुरू हुआ। पहले-पहल उसे इस कूचे में जाने के लिए दोस्तों की रहनुमाई की ज़रूरत महसूस होती थी। मगर चंद ही रोज़ बाद दोस्त उसे अपनी राह में हाइल होते हुए मालूम होने लगे। चुनाँचे वो अकेला ही शब गर्दी के लिए निकलने लगा। पहले घूम फिर कर सारी मंडी का जायज़ा लेता, माल को परखता और फिर अपना पसंद किया हुआ दाना एक शौक़ीन मिज़ाज रईस ज़ादे की तरह मुँह-माँगी क़ीमत पर ख़रीद लेता। रफ़्ता-रफ़्ता उसे ऐश परस्ती का ऐसा चस्का पड़ गया कि दफ़्तर से उठकर शाज़ ही कभी घर पहुँचता। आज इसकोठे पर है तो कल उस बालाख़ाने पर। झूटी मुहब्बतें जताता और ख़ुद भी झूटी मुहब्बतों से लुत्फ़ उठाता। अगले रोज़ ये बातें ख़्वाब की तरह मालूम होतीं। नई रात आती तो नए सिरे से हुस्न-ओ-इश्क़ की दुनिया बसाने की धुन फिर सवार हो जाती। उसने अपना ये उसूल बना लिया था कि औरत से ताल्लुक़ महज़ वक़्ती और कारोबारी होना चाहिए और दूसरे सौदों की तरह इसमें भी हर तरह का दुरुग़ जायज़ है।

    उसे दफ़्तर से जो मुशाहिरा मिलता था वो इतना था कि उसमें एक कुम्बादार शख़्स आसूदगी और इज़्ज़त के साथ बसर कर सके। मगर इतना कि उसमें किसी मुस्तक़िल अंधा-धुंद फुज़ूलखर्ची की गुंजाइश हो। शादी से पहले जब उसके अख़राजात बरा-ए-नाम थे, उसने अच्छी ख़ासी पूँजी जमा कर ली थी। शादी के बाद बीवी के लिए गिराँ-क़द्र तहाइफ़ ख़रीदने पर भी उस रक़म में कुछ ज़्यादा कमी हुई थी। मगर अब जब कि रोज़-रोज़ बड़ी-बड़ी रक़मों के चैक काटे जाने लगे तो चंद ही हफ़्तों में दीवाला निकलता हुआ नज़र आने लगा। कुछ तो इस डर से कि कहीं बिल्कुल ही मुफ़लिस हो जाए और फिर उस कूचे में जाने के लिए तरसे और कुछ मुसलसल रातों के जागने से सेहत के गिर जाने के बाइस उसकी ओबाशियों में जल्द ही कमी हो गई। यानी जहाँ पहले महीने में मुश्किल से दो-चार नाग़े होते थे। वहाँ अब हफ़्ते में तीन-तीन चार-चार नाग़े होने लगे।

    एक दिन सुबह को जब वो दफ़्तर जाने की तैयारी कर रहा था तो किसी ने आहिस्ता से उसके कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दी।

    “कौन?”

    कोई जवाब पाकर उठा, दरवाज़ा खोला और ठिटक कर रह गया... उसकी मफ़रूर बीवी सौदाइयों का सा हाल बनाए सर झुकाए सामने खड़ी थी। उसके कपड़े मैले चिकट हो रहे थे। बाल उलझे हुए थे। चेहरा ज़र्द और आँखों में गढ़े। उसे इस हाल में देखकर मअन उसे ऐसा गुमान हुआ जैसे कोई कुतिया कीचड़ में दूसरे कुत्तों के साथ लोट लगा के आई हो। वो कुछ देर तो ख़ामोश खड़ी रही। फिर अचानक उसके क़दमों में गिर पड़ी और उसकी टांगों से लिपट कर फूट फूटकर रोने लगी। उसने अपनी टांगों को छुड़ाने की कोशिश की। चुप-चाप खड़ा रहा।

    “मुझे बख़्श दो। मुझे बख़्श दो।” उसकी बीवी ने सिसकियाँ ले-ले कर कहना शुरू किया। “मैं जानती हूँ अब तुम मुझसे सख़्त नफ़रत करते होगे। मेरी सूरत देखने के भी रवादार होगे। मगर मैं तुमसे मुहब्बत नहीं माँगती, उसकी तवक़्क़ो कर सकती हूँ। आह मैं इस लायक़ ही नहीं हूँ। मैं सिर्फ ये चाहती हूँ कि मुझ पर रहम करो।मुझे सिर्फ अपने घर में पनाह दो। मैं इससे ज़्यादा कुछ नहीं चाहती। आह मैं अंधी हो गई थी। मुझे बख़्श दो। मुझसे सख़्त फ़रेब किया गया...”

    उसके ख़िलाफ़ ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब की जो आग शुरू-शुरू में इसके दिल में भड़की थी। कुछ तो वक़्त ने और कुछ उसके नए मशाग़िल ने उसे ठंडा कर दिया था, और अगर कुछ रहा सहा ग़ुस्सा था भी तो वो अब उसकी ये ज़दा हालत देखकर जा रहा था। उसे उसकी हालत पर रहम नहीं आया बल्कि कराहत सी महसूस हुई।

    जब से वो भागी थी, उसके दिल में रह-रह के ये जानने की ख़्वाहिश पैदा हुई थी कि वो कौन सा ख़ुश-नसीब था जिसकी मुहब्बत पर उसे भेंट चढ़ा दिया गया। मुम्किन है वो उसके दोस्तों में से कोई हो या मुम्किन है कोई अजनबी हो। मगर अब उसे इस हाल में देखकर उसके दिल में इस क़िस्म का कोई तजस्सुस पैदा नहीं हुआ। वो इस सारे मुआमले से इस क़दर बेज़ार हो गया था कि चाहता था जल्द से जल्द उस औरत से अपना पीछा छुड़ा ले।

    वो कहे जा रही थी “तुम्हारी शराफ़त और नेक दिली पर पूरा यक़ीन है कि तुम मुझे घर से नहीं निकालोगे। दुनिया में इस घर के सिवा मेरा कहीं ठिकाना नहीं। इस घर से निकल कर मैंने बड़ी तकलीफ़ें उठाई हैं। तुम बे-शक मुझसे नौकरानियों का सा बरताव करना। आह मैं इसी क़ाबिल हूँ।”

    “इस क़दर ज़ोर से चिल्लाओ। नौकर सुन रहे होंगे।”

    दफ़्तर जाने में देर हो रही थी। उसने इसरार के साथ मगर बग़ैर किसी दुरुश्ती के अपने पाँव छुड़ा लिए। टोपी हाथ में थामी और घर से निकल गया।दफ़्तर में रह-रह के बीवी की ये हालत-ए-ज़ार उसकी नज़रों में फिरती रही। उसे ताज्जुब हो रहा था कि क्या ये वही कम-सिन अलहड़ हसीना थी जिसका वो छः महीने पहले शैदाई था। क्या ये वही नाज़नीन थी जिसे ख़ुशबुओं से इश्क़ था, जो अपने जिस्म पर गर्द का एक ज़र्रा भी सह सकती थी और जिसके साथ बाग़ की किसी रविश पर टहलते हुए उसका सर फ़ख़्र से ऊँचा हो जाता था।

    “अगर वो मेरे हाँ रहने ही पर मुसिर है।” उसने दिल में कहा। “तो यूँ ही सही। मैं इतना कम ज़र्फ़ नहीं हूँ कि रोटी कपड़े से भी जवाब दे दूँ। मगर ये बात यक़ीनी है कि मैं उससे अब कोई सरोकार नहीं रखूँगा। गुमान ग़ालिब यही है कि वो मेरी बे-एतिनाइयों से कुढ़-कुढ़ कर या ज़मीर की मलामतें सह-सह कर जल्द ही फिर भाग जाएगी।

    उसकी बीवी को वापस आए दो हफ़्ते गुज़र चुके थे। इस अर्से में तो उसने उसकी तरफ़ नज़र भर के देखा था और कोई बात ही की थी। जैसे वो घर में थी ही नहीं। उधर उसकी बीवी भी उसके सामने आने से कतराती रही थी। अलबत्ता उसकी मौजूदगी मुख़्तलिफ़ सूरतों में अपनी याद दिलाती रही।

    जब वो सोकर उठता, तो उसकी नज़र अपने सिरहाने के पास तिपाई पर रखे हुए गुल-दान पर पड़ती, जिसमें ताज़ा और ख़ूबसूरत फूल सलीक़े और हुनरमंदी से सजे होते। अभी वो बिस्तर पर लेटा अख़बार ही पढ़ रहा होता कि छोकरा चाय लेकर जाता। टोस्ट नफ़ासत से कटे और संके हुए, ख़ुश-ज़ाएक़ा चाय जैसी शादी के इब्तेदाई दिनों में उसे मिला करती थी। वो ग़ुस्ल-ख़ाने से निकल कर ड्रेसिंग रुम में जाता तो उसे नया जोड़ा कील कांटे से लैस मिलता। क़मीस या सूट की मुनासबत से नेक टाई और रूमाल। कफ़ों में स्टड लगे हुए। बूट पर पालिश किया हुआ। दोपहर को चपरासी घर से खाना लेकर जाता तो उसकी मन भाती सबज़ीयाँ ऐसी मज़े की पकी होतीं कि ज़बान चटख़ारे लेती रह जाती।

    ऐसे मौक़ों पर उसके होंटों पर एक तल्ख़ मुस्कुराहट नमूदार होती और वो दिल में कहता “ये सारी ख़ातिर-दारियाँ मुझे दुबारा राम करने के लिए की जा रही हैं। लेकिन बंदा अब इन चकमों में नहीं आएगा वो अक्सर सर-ए-शाम घर से निकल जाता, और रात के एक दो बजे से पहले शाज़ ही लौटता। कभी सारी रात ही ग़ायब रहता मगर उससे कोई बाज़पुर्स की जाती। उसकी आसाइशों में कोई कमी आने पाती।

    धीरे धीरे इसी तरह तीन महीने गुज़र गए।

    एक दिन बरसात में जब अब्र छाया हुआ था और ठंडी मतवाली हवाएँ चल रही थीं। उसने दफ़्तर में एक बड़ी रक़म का चैक काट कर चपरासी को दिया। और बेताबी के साथ वक़्त के गुज़रने का इंतेज़ार करने लगा। पिछले आठ दिनों में वो किसी रात भी घर से बाहर नहीं गया था। कुछ तो दफ़्तर में शाम को देर-देर तक बैठा रहना पड़ता था। कुछ तकान, कुछ सुस्ती, कुछ ऐसे ही दिल चाहा था। मगर आज इरादा था कि इन सब दिनों की कसर एक ही बार निकाल दे।

    थोड़ी देर में चपरासी ख़ाली हाथ लौट आया। उसका चैक लौटा दिया गया था। क्योंकि उसके हिसाब में चंद रुपय और आने पाई के सिवा कुछ नहीं बचा था। वो इस अंजाम से बेख़बर नहीं था। मगर इसका तो उसे गुमान भी ना था कि ये दिन इस क़दर जल्द जाएगा। उसने सोचा कहीं से क़र्ज़ लेना चाहिए। चुनाँचे झिजकते-झिजकते टेलीफ़ोन पर दो-एक बे-तकल्लुफ़ दोस्तों से अपनी ग़रज़ बयान की। मगर महीना ख़त्म होने को था। इन दिनों इतना रुपया किस के पास होता।

    अचानक उसे याद आया कि उसके बक्स में एक सोने की अँगूठी पड़ी है। जिसमें एक बेश-क़ीमत नगीना जड़ा हुआ है। ये अँगूठी उसकी बीवी ने अच्छे ख़ासे दामों में उसके लिए ली थी। जब उस औरत से उसका क़ल्बी रिश्ता ही टूट चुका है तो फिर वो उसकी यादगार को अपने पास क्यों रखे! शौक़ की आग जो चंद लम्हे धीमी पड़ गई थी। यक-लख़्त फिर सुलग उठी। उसने सोचा मुझे अँगूठी लेकर शाम से पहले-पहले जौहरियों के हाँ पहुँच जाना चाहिए।

    तीसरे पहर जिस वक़्त वो बक्स से अँगूठी निकाल कर घर के सहन में से गुज़र रहा था तो एक ख़ातून बनफ़्शी साड़ी में मलबूस फ़िज़ाओं को महकाती हुई अचानक उसके पास से गुज़र गई। ख़ातून ने उसकी तरफ़ नहीं देखा। मगर उसने उसकी एक झलक देख ली, जो हर-चंद बहुत मुख़्तसर थी मगर उसको मबहूत कर देने के लिए काफ़ी थी।

    ये ख़ातून उसकी वही मफ़रूर बीवी थी जिसके मुताल्लिक़ तीन महीने पहले उसे गुमान हुआ था कि क़ब्र में से निकल के आई है। दोनों वक़्त उम्दा-उम्दा ग़िज़ाएँ, खाने, बढ़िया-बढ़िया साबुन, क्रीम और ग़ाज़े इस्तेमाल करने से उसका रंग-रूप फिर निकल आया था। गाल फिर भरे-भरे से हो गए थे और आँखें ज़िंदगी के नूर से चमकने लगी थीं। उसके हुस्न-ओ-शबाब का वही आलम था जिस की झलक उसने शादी की पहली रात देखी थी। फ़र्क़ था तो सिर्फ इस क़दर कि पहले उसके चेहरे पर मासूमियत बरसती थी मगर अब उसकी जगह एक लतीफ़ मितानत, एक दिल-आवेज़ पशेमानी झलकने लगी थी।

    अभी दिन ही था कि वो शहर के उस हिस्से में पहुँच गया। जहाँ जौहरियों की दुकानें थीं। इस वक़्त वहाँ लेन-देन का बाज़ार ख़ूब गर्म था। कोई दुकान ऐसी थी जिसमें गाहकों का जमघट हो। उसे पहले कभी कोई चीज़ बेचने का इत्तिफ़ाक़ नहीं हुआ था। वो दुकानदार के पास जाने ही से हिचकिचा रहा था। ये भीड़ देखी तो और भी घबरा गया। इतने आदमीयों की मौजूदगी में भला अँगूठी की बातचीत कैसे की जा सकती है। वो लोग जाने क्या ख़्याल करेंगे। वो कोई घंटे भर तक उस बाज़ार में घूमता रहा। अगर किसी दुकान से दो एक ख़रीदार चले जाते तो दो-चार नए जाते। और भीड़ जूँ की तूँ रहती।आख़िर एक जौहरी की दुकान में उसे निस्बतन कम आदमी दिखाई दिए और वो हिम्मत करके उसमें घुस गया।

    “फ़रमाईए आप क्या चाहते हैं?” जौहरी ने पूछा।

    “मैं... मैं ज़रा बुंदे देखना चाहता हूँ।” उसने माथे पर से पसीना पोंछते हुए कहा।

    ज़रा सी देर में जौहरी ने बुंदों के डिब्बों के ढेर लगा दिए।

    “इस जोड़ी की क्या क़ीमत है?” आख़िर उसने एक जोड़ी को पसंद करते हुए पूछा।

    “पैंसठ रुपय!”

    “बस ये ठीक है। लेकिन माफ़ कीजिए। मैं रुपया साथ लाना भूल गया। आप उन्हें अलाहदा रख दीजिए। मैं कल ले जाऊँगा।

    “कोई बात नहीं। कोई बात नहीं।” जौहरी ने बुंदों के डिब्बों को समेटते हुए सर्द-मेहरी से कहा।

    दुकान से निकल कर उसने इतमीनान का लंबा साँस लिया।

    इस वक़्त अच्छी ख़ासी रात हो गई थी। उसने सोचा। आज तो इस प्रोग्राम को मंसूख़ ही कर देना चाहिए। कल में किसी मुलाज़िम को अँगूठी देकर भेजूँगा। या मुम्किन है कल उसकी नौबत ही आए और कहीं से रुपय का इंतेज़ाम हो जाए। हरचंद उसे अपने मक़सद में नाकामी हुई थी और वो चलते-चलते थक भी गया था। मगर वो अफ़्सुर्दा ख़ातिर नहीं था। बल्कि उसकी तबीयत में एक ख़ास क़िस्म की चोंचाली थी। यहाँ से बाज़ार-ए-हुस्न क़रीब ही था। घर लौटते वक़्त जी में आई। लगे हाथों इस कूचे की सैर भी करते चलें। पास से नहीं तो दूर ही से ज़रा रंग-ढंग देख आएं।

    वो बाज़ार हस्ब-ए-मामूल आज भी ख़ूब जगमगा रहा था। बेसवाएं बड़े ठस्से से अपने-अपने बाला ख़ाने के बरामदे में टहल रही थीं। और लोग थे कि परवानों की तरह रौशनियों की तरफ़ उमंडे पड़ते थे। बाज़ कमरों के दरीचों से हल्की-हल्की नीली ख़ुश्क रौशनी निकल रही थी। बाज़ घरों से शोर-ओ-गुल और क़हक़हे जिनके बीच-बीच में सारंगी के तार हल्के से झनझना उठते थे।

    वो सड़क पर आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाता, एक-एक मकान के सामने से गुज़रता और मकान वाली का जायज़ा लेता हुआ जा रहा था। उनमें से बाज़ बेसवाओं को वो जानता था और बाज़ के हाँ उसका आना जाना भी था मगर आज ना जाने क्या बात थी कि उसके क़दम बार-बार तेज़ तेज़ उठने लगते थे। जब वो इस बाज़ार के ख़त्म पर पहुँचा तो अचानक उसे अपनी बीवी की याद आई और उसकी बनफ़्शी साड़ी का नक़्शा आँखों के सामने फिरने लगा। ज़हन ग़ैर इरादी तौर पर उसका इन औरतों से मुवाज़ना करने लगा।

    अब तक उसने जितनी औरतें देखी थीं, उनकी कैफ़ियत नाटक की हीरोइनों की सी थी कि उन्हें जितनी ज़्यादा दूर से देखा जाये, वो उतनी ही ज़्यादा दिल-फ़रेब मालूम होती हैं। मगर उसके बरअक्स उसकी बीवी का हुस्न बो’अद-ओ-क़ुर्ब की तफ़रीक़ से बे-नियाज़ था। उनके ख़द-ओ-ख़ाल में उसकी सी दिल-कशी थी और आदात-ओ-अत्वार में वो नफ़ासत जो एक मुतमद्दिम और तालीम याफ़ता ख़ातून में पाई जाती है। फिर उनमें से बाज़ को तो सिंघार करना भी आता था। किसी ने चेहरे पर पाउडर लेप रखा था तो किसी ने तिरछी माँग निकाल रखी थी। बालों में दर्जनों हेयर पिनें और क्लिप लगे हुए थे। जैसे किसी कल में बहुत से पुर्जे़ लगे हों। ये सच था कि बाज़ सूरतें अच्छी भी थीं मगर तो उन्हें लिबास का कोई सलीक़ा था, और उन्होंने रंगों के इंतेख़्वाब में कोई तवाज़ुन मलहूज़ रखा था। बस भड़क ही भड़क थी या रंगों की गहमा-गहमी। बाज़ तो बिल्कुल गँवारिनों की तरह ज़ेवरों से लदी फंदी थीं। सादगी जो आराइश की जान है, इससे वो कोसों दूर थीं।

    वो घर की तरफ़ चला तो बीवी की तस्वीर बदस्तूर उसके ज़हन में क़ायम थी। ख़्याल ही ख़्याल में शादी का इब्तेदाई ज़माना उसकी नज़रों में फिरने लगा। वो भी कैसा वक़्त था। जब मुतअह्हिल ज़िंदगी की मसर्रतें पहली मर्तबा उस पर अयाँ हुईं थीं और उसकी रूह इंतेहा-ए-लज़्ज़त से काँप उठी थी। वो रातों की तवील घड़ियों का आँखों ही आँखों में गुज़ार देना, वो ऐश-ओ-सरख़ुशी के दिन, वो कैफ़-ओ-सरमस्ती की रातें, फिर लुत्फ़ ये कि बे-हिसाब इनायात क़रीब-क़रीब बिन दामों थीं।

    जूँ-जूँ घर क़रीब आता गया उसके क़दम आप तेज़ से तेज़-तर होते चले गए। आख़िर जब वो घर के सामने पहुँचा तो एक इस्तिहज़ा आमेज़ तबस्सुम उसके होंटों पर झलकने लगा। उसने अपने दिल में कहा “ये सच सही कि मेरी बीवी बाइस्मत नहीं। लेकिन आख़िर वो औरत भी कौन सी अफ़ीफ़ा हैं जिनके पीछे में क़ल्लाश हो गया और जिनसे मिलने के लिए में आज भी तड़पता रहा हूँ।”

    वो ऊपर की मंज़िल में तन-ए-तन्हा खुले आसमान के नीचे छपर-कट पर ख़ुश्बुओं में बसी हुई कुछ सो रही कुछ जाग रही थी कि अचानक खड़का सुनकर चौंक उठी। कान आहट पर लगा दिए। उसे ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई सीढ़ियों पर सहज-सहज क़दम धरता उसके पास रहा हो।

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