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सवा-नेज़े पर सूरज

आबिद सुहैल

सवा-नेज़े पर सूरज

आबिद सुहैल

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    स्टोरीलाइन

    शिया-सुन्नी विवाद पर लिखी गई एक प्रतीकात्मक कहानी है। घर के बच्चे हर वक़्त खेलते रहते हैं। वे इतना खेलते हैं कि हर खेल से आजिज़ आ जाते हैं। अब्बू जी उन्हें सोने के लिए कहते हैं, लेकिन वे चुपके से उठ कर दूसरे कमरे में चले जाते हैं। जहाँ वे सब मिलकर शिया-सुन्नी की लड़ाई का खेल खेलते हैं।

    मेरी बड़ी बेटी सामने खड़ी मुस्कुरा रही थी।

    मैंने पूछा, ”खेल चुकीं?”

    “क्या खेलें?”

    उसने हवा में दोनों हाथ उठाकर झुला दिए।

    “कैरम क्यों नहीं खेलतीं?”

    “आप थोड़ी देर बा’द कहेंगे तुम लोग शोर करते हो...? और फिर शगूफ़ा खेलने भी तो नहीं देती... थोड़ी-थोड़ी देर बा’द सब गोटें गड़बड़ कर देती है। ख़ुद तो खेलना आता नहीं, हमें भी नहीं खेलने देती।”

    “बच्ची है।”, मैंने कहा, “अपनी छोटी बहन का ख़याल तो करना ही चाहिए।”

    मैंने अपने हिसाब से सारा झगड़ा चुका दिया।

    “तो हम कौन से बूढ़े हो गए हैं, हम भी तो बच्चे हैं।”, फ़ौज़िया ने सादगी और भोलेपन से कहा।

    मैंने मुस्कराकर उसकी तरफ़ देखा। वाक़ई’ अभी वो बच्ची ही तो थी। उससे ये उम्मीद करना कि छोटे भाई बहनों के झगड़े चुकाए, छोटी बहन कैरम की गोटों को खेल के दरमियान बार-बार बिगाड़ दे तो ग़ुस्सा होने के बजाए उन्हें फिर अपनी जगह रखकर सजाए और मनाए, उसके साथ ज़रा ज़्यादती ही थी, इसलिए मैंने कहा, “तो तुम दोनों लूडो क्यों नहीं खेलतीं?”

    “सुब्ह तो खेला था।”

    “तो और खेलो।”

    “और क्या खेलें?”, वो मिनमिनाई।

    “सुब्ह जब सैफ़ हारने लगे तो ख़फ़ा हो कर अलग बैठ गए।”, बोले, “आप हमेशा हरा देती हैं, ज़रूर बे-ईमानी करती हैं।”

    “तो ऐसा करो।”, मैंने एक तरकीब निकाली, ”ख़ुद तो दो गोटों से खेलो और उसको चार गोटों से खेलने दो।”

    “इससे क्या होगा?”, फ़ौज़िया ने पूछा।

    “होगा ये कि तुम अच्छा खेलती हो तो जीतोगी ही। इस तरह मुम्किन है सैफ़ भी कभी जीत जाएँ और उनकी भी ख़ुशी हो जाए।”

    “इसमें अच्छा खेलने की कौन सी बात है।”, उसने कहा, ”ये तो क़िस्मत की बात है। पाँसे में जो भी नंबर जाए। बड़े-छोटे से इसका क्या तअ’ल्लुक़?”

    “फिर भी।”

    “फिर भी क्या अब्बू...? वो पाँसा डालें तो उनकी गोट भी आगे बढ़ाओ, इसका भी ख़याल रखो कि उनकी गोट पिटने पाए, इस पर भी हार जाएँ तो मुँह फुलाकर बैठ जाते हैं।”

    सच पूछिए तो फ़ौज़िया की दलील में वज़्न था और मैं सोच ही रहा था कि क्या जवाब दूँ कि इतने में सैफ़ मियाँ दूसरे कमरा से गए। उनकी आँखों में आँसू थे जो मुझे देखते ही बह निकले।

    “अब्बू देखिए गुड़िया हमारे साथ खेलती नहीं।”, ये कह कर सैफ़ जो हमेशा फ़ौज़िया को गुड़िया ही कहते थे, भौं-भौं रोने लगे। फ़ौज़िया ने जब दलील को आँसुओं से हारते देखा तो वो भी रोने लगी।

    थोड़ी देर बा’द तीनों भाई-बहन फिर एक जगह मिल-जुल कर खेलने लगे। खिड़की से झाँक कर मैंने देखा तो आँगन की दूसरी तरफ़ बावर्चीख़ाने के पास दालान में उन खिलौनों की, जो इम्तिहानात ख़त्म होने के बा’द दुबारा बच्चों के क़ब्ज़े में गए थे, बारात सजी थी। छोटी-छोटी ईंटों का चूल्हा बनाया गया था जिस पर एक छोटी सी पतीली में खाना पक रहा था। सामने गुड्डे-गुड़ियों का सोफ़ा सेट सजा था। बीच में एक छोटी सी मेज़ रखी थी। सोफ़ों पर आमने-सामने गुड्डे गुड़िया बैठे थे। उनके सामने मेज़ पर टीन की फूलदार रंगीन प्लेटें रखी थीं, जिनमें बिस्कुट और लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े रखे थे। टीन की रंगीन केतली और चीनी की छोटी छोटी प्यालियाँ, तश्तरियाँ क़रीने से मेज़ पर सजी थीं। फ़ौज़िया ने पतीली पर से तश्तरी उठाकर चमचे से एक आलू निकाला और उसे अंगूठे और शहादत की उंगली से दबाकर देखा और बोली, ”अभी थोड़ी कसर है।”, तो शगूफ़ा ने गुड्डे गुड़िया की तरफ़ देखकर कहा, “अभी खाने में थोड़ी देर है, आप लोग जब तक नाश्ता कीजिए।”

    मैं अपनी हँसी ब-मुश्किल ही ज़ब्त कर सका। वो अपने खेल में इस तरह खोए हुए थे कि उन्हें इस बात का अंदाज़ा भी हो सका कि मैं उन्हें देख रहा हूँ, वर्ना फ़ौज़िया वहीं से कहती, ”अब्बू अल्लाह, आप अंदर जाईए। देखिए हम तो आपका खेल नहीं देखते हैं।”

    मैं मुतमइन हो कर कमरे में चला आया। बीवी किसी अ’ज़ीज़ा के यहाँ गई हुई थीं, जो यकायक शदीद बीमार हो गई थीं। उस घर में दो बच्चों के ख़सरा निकला था। इसलिए तीनों बच्चों को घर पर ही छोड़ गई थीं। उन अ’ज़ीज़ा का घर काफ़ी फ़ासिले पर था। आने-जाने में तीन चार घंटे तो लगेंगे ही... मेरे लिए तीनों बच्चों की देख-भाल का ये पहला तजरबा था, इसलिए शुरू’ में तो कुछ घबराया था। कुछ उलझा भी था लेकिन अब ऐसा लग रहा था कि मेरी परेशानी बिला-सबब थी। वैसे भी अब बीवी को गए हुए तक़रीबन तीन घंटे हो गए थे और अब वो वापिस आती ही होंगी। ये सोच कर मैंने पलंग पर दराज़ हो कर अख़बार पढ़ना शुरू’ कर दिया। अभी मैं ब-मुश्किल दो-तीन ख़बरें ही पढ़ सका था कि सैफ़ मियाँ रोते हुए आए।

    “अब्बू गुड़िया आपा बड़ी ख़राब हैं। अपनी गुड़िया को दो-दो प्यालियाँ चाय पिलाती हैं और मैंने कहा, मेरे गुड्डे को भी एक प्याली बना दो तो बोलीं, जानते हो शकर कितनी महंगी है। आप तो कल कह रहे थे कि शकर सस्ती हो गई है।”

    मैं हँसी बड़ी मुश्किल से रोक सका। फिर मैंने फ़ौज़िया को आवाज़ दी,

    “फ़ौज़िया!”

    “जी अब्बू।”

    “सुनो!”

    “आई”, कहती हुई वो बिराजी।

    “क्यों जी। तुम सैफ़ के गुड्डे के लिए चाय की दूसरी प्याली क्यों नहीं बना देतीं?”

    “अब्बू आप जानते नहीं। ये बड़े हज़रत हैं, पहले बोले हमारा गुड्डा ककड़ी और बिस्कुट ज़ियादा खाएगा, उसे भूक लगी है, तुम अपनी गुड़िया को दो प्याली चाय पिला देना। मैंने बिस्कुट और ककड़ी का छोटा सा एक टुकड़ा अपनी गुड़िया को दिया और बाक़ी सब इनके गुड्डे को दे दिया। अब चाय भी दूसरी प्याली माँग रहे हैं।”

    “लेकिन गुड्डे-गुड़िया तो कुछ खाते नहीं। वो बिस्कुट और ककड़ी हुए क्या?”

    “हुए क्या? ख़ुद खा गए।”, फ़ौज़िया बोली।

    “और तुमने नहीं दो-दो प्याली चाय पी ली... और बिस्कुट ककड़ी भी तो खाया था।”, तुमने सैफ़ रोने लगा।

    उसी लम्हा शगूफ़ा एक हाथ में खिलौने वाली तश्तरी ,प्याली और दूसरे में बिस्कुट और ककड़ी के दो छोटे-छोटे टुकड़े लिए कमरे में दाख़िल हुई। वो इस तरह सँभल-सँभल कर चल रही थी कि अगर ज़रा भी तेज़ी से चलती तो चाय की प्याली छलक जाएगी

    “अब्बू ये आपका हिस्सा है।”, उसने धीरे से कहा और निहायत आहिस्तगी से प्याली और तश्तरी तख़्त पर रखकर छोटे से टीन के चमचे से प्याली में, जो बिल्कुल ख़ाली थी, शकर चलाने लगी।

    “भई इसमें तो चाय है ही नहीं।”, मैंने कहा।

    झूट-मूट कह कर उसने प्याली मेरे मुँह से लगा दी।

    “बड़े मज़े की है।”, मैंने कहा तो फ़ौज़िया भी मुस्कुरा दी। लेकिन मुझे अपनी तरफ़ देखकर उसने मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया। सैफ़ मियाँ अब भी रूहाँसे थे।

    अस्ल में ये लोग सुब्ह से खेलते-खेलते थक चुके थे। आख़िर खेलने की भी एक हद होती है। स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू’ हुए पंद्रह बीस दिन हो चुके थे। पहले छः-सात दिन तो उन लोगों ने छुट्टियों के ख़ूब मज़े लिए। रंग-बिरंगी तस्वीरों की हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी की जो बहुत सी किताबें मैंने उन दोनों के लिए इकट्ठा की थीं, दो-दो नहीं, चार-चार बार पढ़ डाला। फिर कई दिन लड़े झगड़े बग़ैर खेलते रहे। अब कई दिन से वो हिसाब लगा रहे थे कि स्कूल खुलने में कितने दिन बाक़ी हैं और हर खेल का ख़ात्मा भी लड़ाई पर होने लगा था। एक दम मुझे ख़याल आया कि पास वाले मकान की बच्ची नाज़ो कई दिनों से नज़र नहीं आई और ये लोग भी उसके यहाँ नहीं गए।

    मैंने कहा, “अब तुम लोग नाज़ो के साथ नहीं खेलते?”

    “जब से झगड़ा हुआ है उसकी दादी उसे आने ही नहीं देतीं हमारे यहाँ।”, फ़ौज़िया ने कहा।

    “तो तुम लोग चले जाया करो।”

    “अम्मी ने मना कर दिया है।”

    ख़ाली चर्ख़ी, हाथ में थी और पतंग आसमान पर... मेरी समझ में कुछ आया तो मैंने कहा, ”अच्छा अब तुम लोग सो जाओ।”

    “अम्मी कब आएँगी।”, शगूफ़ा ने पूछा।

    “अब आती ही होंगी।”, मैंने तसल्ली दी।

    “जब आएँगी तब सो जाएँगे मज़े से।”

    “नहीं…”, मैंने ‘नहीं’ की ‘ई’ को ज़रा खींच कर मस्नूई’ ग़ुस्से से कहा, “बस अब लेट जाओ। लू चलने लगी है... अब दालान में कोई नहीं खेलेगा।”

    मेरे बदले हुए तेवर देखकर तीनों कमरे में लेट गए। फ़ौज़िया और सैफ़ तख़्त पर और शगूफ़ा मेरे पास मसहरी पर।

    “आँखें बंद।”, मैंने कहा तो तीनों बच्चों ने आँखें बंद कर लीं और मैं फिर अख़बार पढ़ने लगा। थोड़ी देर बा’द खुसर-फुसर की आवाज़ सुनकर मैंने अख़बार आँखों के सामने से हटाया तो फ़ौज़िया और सैफ़ शरारत भरी नज़रों से मेरी तरफ़ देख रहे थे।

    “सो जाओ…”, मैंने ज़रा सख़्ती से कहा। दोनों ने ख़ूब कस कर आँखें बंद कर लीं। मगर शरीर मुस्कुराहट अब भी उनके चेहरों पर खेल रही थी। मैं फिर अख़बार पढ़ने लगा और जाने कब मेरी आँख लग गई। थोड़ी देर बा’द मेरी आँख खुली तो तख़्त ख़ाली था, मसहरी पर शगूफ़ा भी थी। मैं कुछ देर तक ख़ामोश बिस्तर पर लेटा रहा, शायद इस इंतिज़ार में कि किसी की आवाज़ सुनाई दे तो बुलाऊँ लेकिन किसी की आवाज़ सुनाई दी ये अंदाज़ा ही हुआ कि कहाँ हैं। मैं निहायत ख़ामोशी से बिस्तर से उठा। सामने वाला दालान ख़ाली था। खिलौने सोफ़ा सेट सब उसी तरह सजे थे। अब मुझे ज़रा तशवीश हुई लेकिन सद्र दरवाज़ा अंदर से बंद देखकर मेरी तशवीश कम हुई। दूसरे कमरे का दरवाज़ा बंद था। मैंने दराज़ से झाँका, तीनों बच्चे कमरे में मौजूद थे।

    शगूफ़ा फ़र्श पर दराज़ थी। उसका कुर्ता ऊपर तक उठा हुआ था और पेट पर पट्टी बँधी थी जिससे ख़ून की छींटें झाँक रही थीं। मैं घबरा गया। लेकिन पास वाली मेज़ पर लाल रौशनाई की दवात उल्टी पड़ी और मेज़पोश उससे तर-ब-तर देखकर मेरी घबराहट तो दूर हो गई, ताहम मुआ’मला क्या है ये मेरी समझ में आया। शगूफ़े के पास ही तरकारी काटने वाली छुरी एक फटे से कपड़े पर रखी हुई थी। कपड़ा जगह-जगह से सुर्ख़ हो गया था। सैफ़ लकड़ी की एक खपची, जिसके एक सिरे पर कपड़ा लिपटा हुआ था, हाथ में पकड़े खड़ा था और फ़ौज़िया से कह रहा था,

    “मिट्टी का तेल तो स्टोव में है और स्टोव मिल नहीं रहा है।”

    “वहीं कहीं होगा। किचन में अलमारी के नीचे देखो।”

    अच्छा कह कर कर सैफ़ ने दरवाज़ा खोला तो मुझे देखकर पहले तो कुछ हैरान से हुए फिर मुस्कुराए और फ़ौरन ही कमरे में लौट गया। मैं कमरे में दाख़िल हो गया। मुझे देखकर शगूफ़ा भी फ़र्श पर से उठ खड़ी हुई।

    “ये क्या हो रहा है?”, मैंने पूछा।

    फ़ौज़िया ने मेरी तरफ़ देखा और पलक झपकाए बग़ैर बोली, “हम लोग शीआ’-सुन्नी लड़ाई का खेल खेल रहे हैं।”

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