Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

सियालकोट का लाड़ा

रतन सिन्ह

सियालकोट का लाड़ा

रतन सिन्ह

MORE BYरतन सिन्ह

    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे शख़्स की कहानी है जो बचपन में एक गुलियानी से मोहब्बत किया करता था। गलियों में सुइयाँ, कंधोइया बेचने वाली राजस्थान की इन गुलियानियों ने बड़े घरों में अपने पक्के जज्मान भी बना रखे थे। उन घरों में जब कोई खुशी का मौक़ा आता तो ये गुलियानियाँ वहाँ नाचती गाती थी। ऐसे ही एक घर का नौजवान लड़का अपने बचपन में एक गुलियानी की मोहब्बत में पड़ जाता है और जवान होने तक उसी के इश्क़़ में मुब्तला रहता है।

    मैंने अपनी लाड़ी को बचपन में उस वक़्त चुन लिया था जब मैं माँ का दूध पीता बच्चा था और वो लाड़ी थी एक गूगलियानी।

    पंजाब में गूगलियानी, राजस्थान की उन औरतों को कहते हैं जो गली-गली, घर-घर, सुईयाँ और कंधोईयाँ बेचती हैं। ये सुईयाँ, कंधोईयाँ बेचते हुए उन्होंने अपने पक्के जजमान भी बना रखे हैं। अपने जजमानों के घरों में नए बच्चे की पैदाइश पर लोरियाँ, शादी होने पर घोड़ियाँ और दूसरे ख़ुशी के गीत गाया करती हैं, कोई अफ़सोस का मौक़ा हो, वो बैन के दर्दनाक गीत गा कर अपने जजमानों के दुख-दर्द में भी शरीक होती हैं। मेरी पैदाइश के मौक़े पर बड़ी गूगलियानी चूँकि मर गई थी, इसलिए उसकी चौदह-पन्द्रह साल की बेटी मेरी लोरी के गीत गाने आई,

    गूगिलानी गावे लोरी

    काका लंबड़ी उमरिया तोरी

    ऊँच अटरिया जो तू जाए

    तुझको दुनिया सीस नवाए

    तेरा ऊँचा हो इक़बाल

    अंबड़ी ला मिसरी का थाल

    गूगलियानी गावे घोड़ी

    लाड़ा-लाड़ी बढ़िया जोड़ी

    जो तू ब्याह करने को जाए

    कोई अप्सरा ब्याह कर लाए

    तेरी चाची हुए निहाल

    चाची ला मिसरी का थाल

    काका बलां विच मुस्काय

    दादी पीलां पांदी आए

    मथ्था चुम्मे मिर्चां वारे

    दादी पोते तों बलिहारे

    उसका मुखड़ा सोहा लाल

    दादी ला मिसरी का थाल

    मेरी माँ बताया करती थी कि मुझे गोद में ले कर, गूगलियानी अपनी बारीक लंबी आवाज़ में जब ये लोरी गा रही थी तो पता नहीं कब मैं उसके दूध को मुँह में डाल कर चपल-चपल पीने लगा। मैं दूध पी रहा था और शर्म के मारे गूगलियानी का चेहरा लाल अनार होता जा रहा था।

    दादी ने जब मिस्री के भरे हुए थाल के ऊपर पाँच रूपये रख कर गूगलियानी की झोली में डाले तो बोली, ले मैंने तुझे मिस्री खिला दी तू भी माँ बनने वाली है, तू भी मुझे मिस्री खिलाना। गूगलियानी ने शर्म के मारे मुझे अपनी छाती से भींच लिया और जब वो मुझे माँ की गोद में डालने लगी, मैं वापस जा ही रहा था। इतनी अच्छी लगी थी मुझे गूगलियानी।

    जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो गूगलियानी की उँगली थामे मैं गली-गली घूमा करता था। वो सुईयाँ और कंधोईयाँ बेचती रहती और मैं उसके ग़रारे या रंग दार-चुनरी को थामे उसकी तरफ़ देखता रहता। जब वो किसी की लोरी गाती तो मुझ पर वज्द का सा आलम तारी हो जाता था। मैं आँखें बंद किए अपने कानों में उसकी मीठी आवाज़ का रस घोलता रहता। लोग मज़ाक़ में उससे पूछते कि ये तेरा कौन लगता है तो वो हँस कर कहती, ये मेरा लाड़ा है।

    रही मेरी बात तो मैं तो कहता ही था कि ये मेरी लाड़ी है। मेरा जवाब सुन कर लोग हँसते और मेरी लाड़ी का रंग चंबे की तरह खिल उठता।

    मेरे ज़ेहन में अपनी इस लाड़ी की जो तस्वीर महफ़ूज़ है वो कुछ इस तरह है। कुएँ की तरह गहरी, ठोड़ी के ऊपर शोलों की तरह दहकते दो तराशे हुए होंट, उनके ऊपर लटकती तीखी पतली तलवार सी नाक, उस नाक पर रखी हुईं कटार सी बड़ी-बड़ी आँखें जिनके ऊपर काली भँवें इस तरह झुकी रहतीं जैसे आँखों की ख़ूबसूरती को छिपाने की नाकाम कोशिश कर रही हों। उसके माथे के ऐन बीच-ओ-बीच बालों के चीर से लटकती हुई चाँदी की ज़ंज़ीर के सहारे एक टीका झूलता रहता था। सर के बीच-ओ-बीच चौक फूल और उस चौक फूल की ऊँची टीसी पर अटका हुआ उसकी गहरे रंग की साढ़ी या दुपट्टे का पल्लो, जो उसके लम्बे चेहरे को अपने हाले में लिए रहता था और उसकी चुनरी के रंग की दमक उसके गोरे रंग पर पड़ती हुई कोई ऐसा जादू जगाती जैसे क़ौस-ए-क़ुज़ह के सातों रंग उसके चेहरे पर निखर आए हों।

    फिर उसके हाथों से लेकर कहनियों तक और कहनियों से लेकर कंधों तक सफ़ेद, लाल और हरे रंग का चूड़ा बाज़ुओं की ज़रा सी हरकत से झनझना उठता तो मुझे ऐसा लगता जैसे छाके वाले कुएँ की ऊँची निशार का पानी ओलो में गिरता हुआ मीठा गीत गा रहा हो। मुझे अच्छी तरह याद है बचपन में, मैं उसकी गोद में बैठ कर उसकी चिपकी हुई चोली में टँके छोटे-छोटे शीशों में अपना चेहरा देखा करता था। चेहरा देखता और अपनी छोटी-छोटी उंगलियाँ उन शीशों पर मार-मार कर कहा करता था, मैं यहाँ भी हूँ, मैं यहाँ भी हूँ।

    मेरा लाड़ा तो मेरे दिल में रहता है। वो मुझे अपने सीने से भींच कर कहती थी।

    फिर ये हुआ कि बचपन के दिन बहुत पीछे रह गए।

    आख़िरी मर्तबा जब मैंने अपनी लाड़ी को देखा तब मैं चौदह पन्द्रह साल का भरपूर जवान हो गया था। जवान, लंबा-चौड़ा, छ: फ़िट से निकलता क़द, सर पर क्लिफ़ लगी पगड़ी बाँध कर मैं पूरा मर्द लगता था। इस बार जब वो आई तो मेरे बड़े भाई की मँगनी हुई थी और उसकी सुरबॉल से बड़े-बड़े मोतीचूर के लड्डू आए थे। एक-एक लड्डू पाओ-पाओ भर का था। इतना मोटा कि मेरे दोनों हाथों की हथेलियों में समाता था। हमारे घर के खुले चौड़े आँगन में गूगलियानी बधाई का गीत गा रही थी,

    हुई मुंडे दी कुड़माई

    गूगलियानी दिए बधाई

    दो हट्टी बैठी पीड़ा डाह के

    गुल विच हार हमेलाँ पा के

    उसकी गोद में खेले बॉल

    अंबड़ी ला मिसरी का थाल

    गूगलियानी गा रही थी, नाच रही थी। नाचती हुई जब वो तेज़ी से चक्कर पर चक्कर काटती तो उसका खुला गागरा, छतरी की तरह फैल जाता और उसके दुपट्टे, उसकी चोली में टँगे रंग-बिरंगे शीशों से रंग-बिरंगी किरणें फूटती रहतीं।

    इस मौक़े पर सब ख़ुश थे।

    सब उसके ताल में ताल मिलाकर ताली बजा रहे थे।

    इस ताली में अगर किसी के हाथ नहीं उठ रहे थे तो मेरे। मैं उदास था। मेरा बचपन बहुत पीछे रह गया था। इसलिए गूगलियानी की उंगली थामे उसके साथ नहीं घूम सकता था। अब मैं उसके डेरे में जाकर उसकी गुदड़ी के नर्म और गर्म बिस्तर में अपनी लाड़ी के सीने से लग कर नहीं सो सकता था और अभी मैं पूरा मर्द भी नहीं बना था कि खुल कर उससे अपने इश्क़ का इज़हार कर दूँ। मैं तो अभी सोच रहा था कि वो मेरी लाड़ी है और अब सर पर क्लिफ़-दार पगड़ी बाँधे, पूरा मर्द बनने की कोशिश के बावजूद मुझे समझ में नहीं रहा था कि अब मुझे लाड़ी के सीने से लग कर जो सुख मिल सकता है, उसे कैसे हासिल करूँ।

    उसका नाच जारी था। उसके गीत की बारीक धन अब भी मेरे कानों में रस घोल रही थी और उस रस का नशा धीरे-धीरे मेरे वुजूद पर छा रहा था लेकिन मुझे मुकम्मल सरशारी नहीं मिल रही थी। मुझे लग रहा था जैसे मेरे बड़े होने के साथ ही मेरी लाड़ी मुझसे दूर हो गई है। शायद इसीलिए उसने अभी तक मेरी आँखों में झाँक कर नहीं देखा था। पहले की तरह अपने सीने से लगाकर मुझ से प्यार नहीं किया था। इस कमी को पूरा करने के लिए मैं बार-बार अपने बचपन में लौट जाता लेकिन लाड़ी के जिस्म से निकलती किरणों की रंगीनी मुझे वापस आँगन में ले आई।

    मेरी उदासी को शायद गूगलियानी ने भी भाँप लिया। मुझे पता ही चला कि नाचते-नाचते कब उसका बाज़ू कोंद कर लपका। मुझे तो तभी पता चला जब उसने बाज़ू से पकड़ कर मुझे आँगन के बीच-ओ-बीच खींच लिया और मेरे हाथों में हाथ डाले, मेरे जवान चेहरे के दोनों तरफ़ नागिन की तरह सर घुमाते, मेरी आँखों में आँखें डाल उसने गीत का मुखड़ा उठाया,

    मेरा लाड़ा खड़ा उदास

    मैं तो जाती उसके पास

    मेरी दौलत उसका प्यार

    अपनी जान मैं करूँ निसार

    ये तो मेरा क़ीमती लाल

    अंबड़ी ला मिसरी का थाल

    गीत जारी था। लाड़ी मेरे हाथों में हाथ डाले गद्दे की ताल में नाच रही थी। चारों तरफ़ खड़े मेरे घर वाले और मुहल्ले भर की औरतें-मर्द इकट्ठे होकर अपनी ताली से ताल दे रहे थे, हँस-हँस कर दोहरे हो रहे थे और मेरे लिए तो जैसे वक़्त का चलता हुआ चक्कर रुक गया था। आसमान से अमृत की गंगा उतर रही थी और धरती उस अमृत को ग्रहण करके सच्चे सुख का आनंद ले रही थी। इस सरशारी में मेरी आँखें मुंदी जा रही थीं। उन आँखों में इतनी ताब ही नहीं थी कि मैं अपनी लाड़ी के सूरज की तरह चमकते चेहरे की तरफ़ देख सकूँ।

    मुझे होश उस वक़्त आया जब मैंने देखा कि लाड़ी मेरी दादी के लाए हुए लड्डुओं से भरे थाल को अपने झूले में डाल रही थी। लड्डू झूले में रख कर उसने थाल में रखे चाँदी के दस सिक्के भी उठाए और उन्हें भी अपने झूले की अंदुरूनी जेब में रख लिया।

    गूगलियानी मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराई। मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने ऐसा महसूस किया कि अब लाड़ी के लिए वहाँ सबके मौजूद होने के बावजूद और कोई मौजूद नहीं था। अगर कोई था तो सिर्फ़ मैं, जिसकी तरफ़ देख कर वो बार-बार मुस्कुरा रही थी।

    उसने ज़रा सा दम ले लिया तो वो ख़ुद ही बोली, अब तक तो मैं बड़े बेटे की कुड़माई की बधाई देने के लिए गा रही थी। अब मैं सिर्फ़ अपने लाड़े के लिए गाउँगी। ये कह कर उसने एक अदा से शरारत भरी नज़र से मेरी तरफ़ देखा। मैं तो पहले ही उसके चेहरे की तरफ़ देख रहा था जो नाचते-नाचते सुर्ख़ अनार हो रहा था। मेरे अंदर का जवान मर्द ये सोच रहा था कि ये औरत किसी तरह भी चौंतीस-पैंतीस की नहीं लगती। ऐसा लगता है कि जैसे वक़्त उसके लिए ठहर गया हो। गुज़रते हुए वक़्त का उस पर कुछ भी असर पड़ रहा हो और जैसे वो मेरी हम-उम्र ही हो।

    इतने में अपने झोले को समेटती हुई वो उठी और फिर खड़े होकर बाज़ू लहरा कर उस ने एक हाथ कान पर रखा और दूसरे हाथ से मुझे अपनी तरफ़ खींच कर उसने मुझे अपने सीने से लगा लिया, मेरे माथे और गाल चूम कर गीत की तान उठाई,

    मुझको मिल गया मेरा लाड़ा

    जीवन भर का साथ हमारा

    हम ने चुन ली अपनी राह

    टंडे लाट की नहीं परवाह

    मंडिया में मछली तो जाल

    दादी ला मिस्री का थाल

    गूगलियानी मुझे अपने साथ लेकर गा रही थी, नाच रही थी, मेरी आँखों में आँखें डाल कर मुझे अपने हुस्न के जादू से मस्हूर कर रही थी। सब हँस रहे थे, ख़ुश हो रहे थे। लेकिन मेरी ख़ुशी की कोई थाह नहीं थी।

    लेकिन वो कहते हैं कि जिस मक़ाम पर ख़ुशी की इंतिहा होती है वो मक़ाम सूई की नोक के हज़ारवें हिस्से से भी छोटा होता है। इंसान का वुजूद तो दूर रहा। वो अपने तसव्वुर में भी उस मक़ाम पर ठहर नहीं सकता। इस ऊँचाई से उसके क़दम जब फिसलते हैं तो वो रंज की गहरी खाई में जा गिरता है और वो ख़ुशी जिसे पाने के लिए उसका मन मचलता रहता है, वही सूई की नोक की तरह उसके वजूद के रोवें -रोवें में चुभ कर उसे छलनी करती रहती है, लहू-लुहान करती रहती है।

    यही मेरे साथ हुआ।

    ज़िंदगी के उस मोड़ पर जहाँ गूगलियानी ने मेरे घर वालों के सामने मुझे अपना लाड़ा मान कर ज़िन्दगी भर साथ रहने का गीत गाते हुए कहा था कि लड़के मैं वो मछली हूँ जो तुम्हारे जाल में फँस चुकी है।

    हाँ ज़िंदगी के उसी मोड़ पर मेरा दिल ग़म से रुशनास हुआ।

    हुआ ये कि मेरी लाड़ी ने जब से मेरे हाथों में हाथ डाल कर ये गीत गाया था कि,

    मुझको मिल गया मेरा लाड़ा

    जीवन भर का साथ हमारा

    हमने चुन ली अपनी राह

    टंडे लाट की नहीं परवाह

    मंडिया में मछली तों जाल

    दादी ला मिस्री का थाल

    बस उसी वक़्त से मुझ पर नशा तारी था। मुझे अच्छी तरह याद है कि उस दिन जब लाड़ी अपना सुइयों कंधोइयों वाला थैला कँधे से लटकाए हमारे घर से अपने डेरे की तरफ़ गई तो मैं हाँफता-हाँफता घर की छत पर चढ़ कर खेतों की पगडंडियों में इठला-इठला कर चलती अपनी लाड़ी को उस वक़्त तक देखता रहा जब तक वो मुझे दिखाई देती रही थी।

    और जब वो आमों के झुंड के पास जाकर नज़रों से ओझल हो गई, तब भी मेरे तसव्वुर ने उसे इस पगडंडी के हर मोड़ पर खड़ा करके देखा कि वो वहाँ कितनी ख़ूबसूरत लगती है।

    मेरे होंट उन्ही बोलों को गुनगुनाते रहे,

    मंडिया मैं मछली तू जाल

    मंडिया मैं मछली तू जाल

    लेकिन मेरा ये सपना जागते में देखा हुआ सपना था।

    इस मक़ाम पर जब मेरे दिल को किसी तरह क़रार नहीं आया तो मैंने माँ से सफ़ेद शलवार माँगी। अपने बड़े भाई की शहर से धुल कर आई हुई स्त्री की हुई क़मीस पहनी। सर पर क्लिफ़ लगी पगड़ी बाँधी और इस तरह अपनी तरफ़ से पूरा छीला बन कर मैं गूगलियानी के डेरे की तरफ़ चल दिया। शाम के वक़्त वहाँ अच्छा ख़ासा जमघट लगता था।

    गूगलियानियों के मर्दों की भट्टियाँ जिनमें दिन के वक़्त वो किसानों के लिए दरांतियाँ-ओ-खुरपियाँ बनाया करते थे, शाम के वक़्त वो अलाव में तब्दील हो जातीं, इनमें एक तरफ़ गूगलियानियाँ खाना बनातीं और दूसरी तरफ़ मर्द आग सेंकते रहते, गोद होल के वक़्त जब किसान और चरवाहे लौटते तो उनके जलते हुए अलाव के गिर्द कभी-कभी गाने बजाने के प्रोग्राम भी हो जाते। उस दिन शाम के धुंदलके में जब मैं वहाँ पहुँचा तो वैसा ही जमघट लगा हुआ था। सब लोग इर्द-गिर्द खड़े थे और मेरी लाड़ी बीच मैदान में बूढ़े नंबर-दार के हाथों में हाथ डाले नाच रही थी गा रही थी,

    आया सियालकोट का लाड़ा

    ये तो मन का मीत हमारा

    मैंने ऐसी जोत जलाई

    उसकी लौट जवानी आई

    उसको मिल गए बीते साल

    बूढ़े ला मिस्री का थाल

    लाड़ी बे-सिद्ध हो कर गा रही थी। वही शमा की तरह दहकता चेहरा, वही नागन सी लहराती उसकी चोटी और...

    मेरे दिल पर चोट लगी। ये तो मेरी लाड़ी है सिर्फ़ मेरी और ये किसी दूसरे के साथ नाच रही है। ज़ख्मी साँप की तरह फुँकारे मारता मैं उल्टे पाँव वापस लौट आया तो लाड़ी ने आधे रास्ते में ही मुझे दबोचा, तुम लौट आए नाराज़ होकर... अरे पगले ये तो हमारी रोज़ी-रोटी है। नंबर-दार के साथ तो मैं ढोंग कर रही थी। लेकिन मेरा ग़ुस्सा काफ़ूर नहीं हुआ। मैं आँखों में आँसू भरे लौट आया।

    उस रात मैंने खाना नहीं खाया, अगले दिन भी नहीं। सारा दिन अपने घर की पिछली अंधेरी कोठरी में रज़ाई में दुबका पड़ा रहा। वो रात वो दिन मेरे लिए ज़िंदगी की सबसे अंधेरी रात थी, जिसमें मेरे तन-बदन पर काँटे चुभते रहे, रूह लहू-लुहान होती रही। अगले दिन गूगलियानी आई तो उसे दादी से पता चला कि मैंने कल से कुछ नहीं खाया। जब उसके आवाज़ देने पर भी में बाहर नहीं आया तो वो ख़ुद ही अंदर गई। आते ही मेरे साथ रज़ाई में लेट गई। मुझे सीने से लगाकर प्यार किया। अपने दोपट्टे से मेरे आँसू पूँछे, मेरे माथे और गालों को चूमा।

    इतने में उसके इशारे पर दादी मेरे लिए चावलों की थाली भर के ले आई। उसने अपने हाथों से एक-एक लुक़मा कर के मुझे चावल खिलाए। आख़िरी लुक़्मे पर बोली, ले ये भी खा ले, इतने प्यार से तो मैंने अपने ख़सम को भी खाना नहीं खिलाया होगा। फिर वो पास खड़ी दादी से बोली, सरदारनी तुम्हारा ये पोता भी अब जवान हो गया है। इसके लिए भी बढ़िया सी लाड़ी ढ़ूँढ़ तो फिर मैं इसके ब्याह की घोड़ी गाने आऊँगी।

    तू क्या देगा रे, सियालकोट के लाड़े, मुझे अपनी घोड़ी गाने का। उसने बड़े प्यार से ठोड़ी से मेरा चेहरा ऊपर उठाते हुए कहा।

    तमाकरे जैसी सुंदर चाँद सी बहू। मैंने कहा।

    ये बात हुई कुछ।

    लेकिन वो मेरी लाड़ी की बहू होगी, नंबरदार की लाड़ी की नहीं। मैंने शरारत भरी नज़र से उसकी तरफ़ देखते हुए कहा और उसकी हँसी के साथ ही उस अंधेरी कोठरी का कोना-कोना मेरी लाड़ी के हुस्न की चमक से जगमगा उठा। मैंने देखा उसके चेहरे पर माँ की ममता छलक रही थी और महबूबा का प्यार भी।

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए