सोन गुड़ियाँ
तब वो दिन-भर की थकी हारी दबे पाँव उस कोठरी की तरफ़ बढ़ती, जहाँ दिन-भर और रात गए तक काम ख़िदमत में मसरूफ़ रहने के बाद आराम करती, और फिर एक बार इधर-उधर नज़र डालने के बाद कि आस-पास कोई जागता या देखता तो नहीं, वो कोठरी के किवाड़ बंद कर लेती। ताक़ पर से डिब्बे उठाती और खोल कर कोठरी के बीचों-बीच धर देती और फिर यके-बाद-दीगरे गुड़ियाँ निकल-निकल कर अपने-अपने कार से लग जातीं। पहले सक़्क़ा आता और पानी छिड़क जाता। फिर ख़ाक-रूब आता और झाड़ू लगा जाता। फ़र्राश फ़र्श बिछाता, मसनद तकिया लगाता। महफ़िल सज जाती, तब सोन गुड़ियाँ ज़र्क़-बर्क़ लिबासों में नमूदार होतीं, और रक़्स-ओ-सुरूद, नाओ-नोश की महफ़िल दरहम-बरहम होती, और जो जहाँ होता वहीं रह जाता।
तब वो बी-बी सद आह भरती। गुड़ियों को समेट कर डब्बे में रखती, और कहती, जो बी-बी थी, लौंडी बनी, जो लौंडी थी सो बी-बी बनी।
तो मैं बस ये कहानी यहीं तक सुन पाता कि बे-सुध हो जाता था। हर रात मैंने इस उम्मीद पर ये कहानी सुनने की ज़िद की। कभी तो सोन गुड़ियों के अंजाम तक कहानी पहुँचेगी ही और हर रात मैं उस बी-बी के इस फ़िक़रे तक पहुँचते-पहुँचते क़िस्से-कहानी और परियों के अस्ल देस यानी ख़्वाब की दुनिया में पहुँच जाता।
और अब ज़ह्न में इतनी देखी और अनदेखी, सुनी और अनसुनी कहानियाँ गड-मड हैं कि मैं ख़ुद ये तमीज़ नहीं कर पाता कि उनमें से कौन-सी कहानियाँ मैंने सुनी हैं और कौन-सी देखी हैं। लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि मेरे अंदर अब हक़ीक़तें भी कहानी बन कर आती हैं, और अब मैं नहीं कह सकता कि आगे जो बात मैं बयान करूँगा वो किस कहानी, किस दास्तान का हिस्सा है। ये कहानी अगर मुझे किसी ने नहीं सुनाई, तो फिर ये मेरे अंदर कहाँ से आई है और ये क़िस्सा मेरे अंदर कुछ इस अंदाज़ में सर उठाता है।
वो कि इस वीराने में दश्त-नवर्दी करता था, भूक लगती तो खजूर के चंद दाने नोश फ़रमाता और छागल से चंद घूँट पानी ले कर हल्क़ तर करता और फिर आसमान की तरफ़ मुँह उठा कर देखता ही चला जाता कि ऐसे मौक़ों में आसमान और भी नीला और पुर असरार नज़र आता है... फिर यों हुआ कि एक सुबह वो यूँ ही फ़र्श रेग पर पाँव फैलाए बैठा था कि पच्छिम यानी मग़रिब की जानिब से एक आहनी चिड़िया परवाज़ करती हुई आई और हद-ए-नज़र के उस तरफ़ ठहर गई। फिर एक मर्द सफ़ेद फ़ाम गंदुम-गूँ बालों और कुंजी आँखों वाला उसकी तरफ़ तेज़ क़दमों चलता हुआ आया और उसकी फैली हुई टाँग को अपनी छड़ी से छू कर यूँ गोया हुआ।
ऐ जवान-ए-रा'ना! यूँ टाँग पसार कर बे-फ़िक्री से बैठा है। उठ तेरी दौलत इस रेगज़ार के क़ल्ब में मौजें मार रही है। उठ कि तेरी जबीं सितारा-ए-होश-मंदी... नहीं मैं भूला। सितारा-ए-मुराद-मंदी से दमक रही है। ऐ हातिम! मुज़्दा हो कि तू दोनों हाथों से दौलत लुटाएगा और अपने कासा लैसों की हिर्स-ओ-आज़ का तमाशा करेगा।
तब वो जवान निहायत हिक़ारत से यूँ गोया हुआ कि तेरी तमाम बातों से झूट और मक्र की बू आती है। अव्वल तो ये कि ये आजिज़ उम्र के उस दौर को तय कर चुका है, जब कि इसको जवान-ए-रा'ना के लक़ब से मुख़ातिब किया जाए। दोयम ये तूने मुझे हातिम के नाम से पुकारा कि हातिम नाम का एक शख़्स गुज़रा है। बहुत पहले क़बीला-ए-तै में कि उसकी दाद-ओ-दिहिश का चर्चा सारे मशरिक़ में है। कहाँ हातिम ताई, कहाँ ये आजिज़-ओ-बे-नवा, तब वो सफ़ेद-फ़ाम उसकी हिक़ारत पर बड़े सब्र से मुस्कुराया और गोया हुआ, मर्द-ए-दाना की बात को मान, चूँ-ओ-चिरा से काम न ले। तेरे हिस्से की दौलत और रा'नाई को ढूँढना मेरा काम है और तेरा काम फ़क़त उसको दोनों हाथों से लुटाना और इस दर्जा फेंकना है कि हातिम ताई को भी शर्मा दे। तू मुझे फ़क़त इतनी इजाज़त दे कि मैं तेरी दौलत की तलाश में कुँओं में बाँस डालूँ और उनको अच्छी तरह खँगालूँ।
तो बस ये कुछ उसी क़िस्म का क़िस्सा था, जो कुछ दिन से मेरे तहत-श्शुऊर या ना-मा'लूम कौन से शुऊर में भटक रहा था। मगर उन दिनों कि जब मैं अभी कॉलेज में ज़ेर-ए-ता'लीम था और ग्रैजुएशन की तैयारी कर रहा था, मेरे ख़्याल में कभी न आता था। और फिर जब मैंने इम्तिहान में थर्ड डिवीज़न ली, जब भी ज़ेह्न के किसी गोशे से कभी इस गोशे ने सर न उठाया, तो ख़ैर उस वक़्त की बात और थी और मेरे वह्म-ओ-गुमान में भी न था कि मेरी ये थर्ड डिवीज़न ऊँट के गले की बिल्ली बन जाएगी। फिर पै-दर-पै मुझ पर ये इन्किशाफ़ हुए कि क्लर्की की जिस पोस्ट के लिए मैंने दरख़ास्त ख़ुद टाइप की थी, उसके लिए पाँच सौ फ़र्स्ट, बारह सौ सेकंड और हज़ारों थर्ड डिवीज़न वाले ख़्वाहाँ थे। चुनाँचे इस पोस्ट को इसलिए एबॉलिश कर दिया गया कि जब एक अनार सौ बीमारियों की चारा-गरी नहीं कर सकता तो उसको दरिया-बुर्द कर देना ही मुनासिब है।
क्लर्की की इस नायाब पोस्ट के इलावा मैंने बहरी, बर्री और फ़िज़ाई अफ़्वाज की भरती के दफ़ातिर से भी हर क़िस्म के फ़ार्म हासिल करके पुर किये थे कि सुना था कि यहाँ भर्ती का बाज़ार गर्म और नफ़री की माँग शदीद होती है। मगर वा-ए-नाकामी और इन दफ़ातिर के यके-बाद-दीगरे कई इंटरव्यू देने के बाद मुझ पर चंद ज़रूरी इन्किशाफ़ात हुए, यानी ये कि मेरी नज़र हद से ज़्यादा कमज़ोर है, इसलिए कम पॉवर वाले बल्ब में रात गए तक ग़लत रुख़ बैठ कर पढ़ने की बिना पर मेरी ऐनक के शीशों के नंबर नफ़ी की जानिब ज़्यादा माइल हैं। फिर ये कि मेरा क़द काफ़ी छोटा निकलता, या फिर ज़रूरत से ज़्यादा लंबा निकलता। उसी तरह मेरा वज़्न भी ग़ैर-मो'तदिल पाया गया और इनके अलावा जो मैंने प्राइवेट इंटरव्यू दिए, उनके नताइज हस्ब-ए-ज़ैल रहे:
(1) इस पोस्ट पर सिलेक्शन तो पहले ही हो चुका था, और ये इश्तिहार तो फ़क़त ये जायज़ा लेने के लिए दिया गया था कि मुल्क में बे-रोज़गारी के आदाद-ओ-शुमार क्या हैं।
(2) आपको धक्का दे कर इस दरवाज़े में दाख़िल करने वाला कोई न था।
(3) अरसा तक बीमार रहने की बिना पर आपके आसाब मुश्तइल या फिर मुज़्महिल हो चुके हैं और ऐसी सूरत में हम आपको मुल्क-ओ-क़ौम की ख़िदमत का अह्ल नहीं समझते।
ख़ुलासा ये कि हमें अफ़सोस है।
और वाक़या ये है कि अफ़सोस तो मुझे भी था कि अब मुझ में सौतेले चचा की वो चुभती हुई नज़रें बर्दाश्त करने की क़ुव्वत भी घटती जा रही थी। वो मुझ पर इसलिए डालते थे कि मेरे दोनों ट्यूशनों की मजमूई आमदनी सिर्फ़ तीस रूपये बनती थी और ये कि मकान का सारा कराया उन्ही को देना पड़ता था। हमने बिजली के बिल भी एक मुद्दत से अदा नहीं किए थे और सबसे ज़्यादा ये कि जब हम माँ-बेटा उन्ही की छत तले बैठ कर बग़ैर बघरी दाल से तंदूरी रोटियाँ खाते थे, तो उनके वक़ार को सदमा पहुँचता था। चुनाँचे वो मेरे दिल से बही ख़्वाह थे और ये कि दिली आरज़ू थी कि मेरे खाने में कम से कम डालडा घी ही शामिल हो।
तो ये ठीक ही था कि वो उन दिनों मेरी माँ पर बुरी तरह गरजते बरसते थे कि अपने साथ लड़के का दिमाग़ भी अर्श-ए-मुअल्ला पर पहुँचा रही है और जो ये सोचो कि मेरे लड़के की बराबरी करो, तो मेरे लड़के की बात और है। मैंने उन पर एहसान किया था। बस एहसान ही समझो। वो एहसान की तफ़सीलात में जाने वाले थे।
तो उन्होंने ये गर्मागर्मी जिन दिनों दिखाई, उन दिनों शह्र में एक अजीब-ओ-ग़रीब होटल खुलने वाला था कि उसके मुतअल्लिक़ जो भी बात सुनी, ऐसी कि यक़ीन न आए। ऐसे जैसे अहमक़ों की ख़्याली जन्नत की बात और चचा ने अपनी या मेरी उस जन्नत का ज़िक्र कई दिन इस तरह लगातार किया कि मुझे उनकी और अपनी दोनों ही की दिमाग़ी सेहत पर शक होने लगा और फिर एक दिन वो आया कि वो मेरी माँ पर पिछले तमाम दिनों से ज़्यादा बढ़-चढ़ कर गरजे-बरसे, और फिर उन्होंने उनको धमकी दी कि 'अदम-ए-त'आवुन की सूरत में उनका आख़िरी फे़ल ये होगा कि वो हमारा सामान उठा कर गली में फेंक देंगे। चुनाँचे फिर ख़ुश्क होंटों, सूखी आँखों और थरथराते जिस्म के साथ माँ ने अह्द किया कि वो जिस बात में उनका तआवुन माँगते हैं, वो उनको मिलेगा। अलबत्ता बात तो पता चले कि क्या है।
चुनाँचे वो बात ये पता चली कि भरती होने के बाद मैं अपना छोटा सा ट्रंक उठा कर तेज़-गाम की तलाश में स्टेशन की जानिब रवाना हुआ, ताकि बड़े शह्र जा कर उस बड़े होटल में वेटर और बटलर की बाक़ायदा तरबियत लेने और ब-हैसियत एप्रेंटिस काम करने के बाद यहाँ वापस आ कर अपने इस मोअज़्ज़िज़ ओहदे का चार्ज सँभालूँ कि एक थर्ड डिवीज़न में पास ग्रेजुएट तो इस तनख़्वाह का तसव्वुर ख़्वाब-ओ-ख़्याल में भी नहीं कर सकता।
तब मैंने उस शहर की जागती-जगाती रातों में बारहा सोन गुड़ियों की कहानी को नहीं मा'लूम कि सुना, देखा या सोचा था और मेरा ख़्याल था कि ये सोन गुड़ियाँ और उनका ख़्याल मुझे फ़क़त उसी शह्र की रौशन रातों में सताता है, जिसकी सड़कें और शाहराहें दिन को निस्बतन ख़ामोश और चुप-चाप नज़र आती हैं।
मैं उस नई ज़िंदगी में ख़ासा फ़िट हो गया था, इसलिए कि अब वो सेट पर से घिसी हुई पतलून मैंने एक साइल को दे दी थी और मार्केट की दुकानों में सजी रहने वाली कई पतलूनें अब मेरी अपनी मिल्कियत थीं और फिर ये कि ट्रेनिंग और काम के दौरान हमको अजीब-ओ-ग़रीब क़तअ' की और रंगों की यूनिफ़ॉर्म पहनने को मिलती थीं, जिनमें हमारे रंग-ओ-रूप तो ख़ासे चमक जाते थे लेकिन उनको पहन कर हममें से अक्सर को अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों में मसख़रों और अहमक़ों के वो बहरूप और लिबास याद आ जाते थे, जिनको पहन कर हम कालेज स्टेज पर दनदनाते फिरते थे और नाज़रीन पर अपने टैलेंट (TALENT) की धाक बिठाया करते।
चंद ख़र-दिमाग़ लड़के हमारे तरबियती ग्रुप में ऐसे भी शामिल थे, जो इस रंगा-रंग यूनिफ़ॉर्म को न पहनने और महज़ सफ़ेद क़मीस पतलून में सर्विस करने पर मुसिर हुए। ये एक अच्छा ख़ासा हंगामा रहा, ता-वक़तीके उनके हाथ में बरख़्वास्तगी के परवाने न थमा दिए गए। हम जैसों ने उनको हैरत की नज़र से देखा कि वो अपनी मार्केट से ख़रीदी पतलूनों के बंडल समेत इस वसीअ-ओ-अरीज़ शह्र की सड़कों पर धक्के खाने रवाना हो गए।
तो चुनांचे एक दिन ऐसा भी आया कि मैं चंद सौ रूपयों के अलावा कट-पीस के कई अच्छे टुकड़ों और अहमद के हलवे समेत फिर अपने शह्र वापस आया और दूसरे दिन अपनी वालिदा समेत उस मौजूदा फ़्लैट में दो कमरों में मुंतक़िल हो गया।
इस फ़्लैट के फ़र्श साफ़ हैं और इसमें एक नए बने हुए ने'मत-ख़ाने में कई तरह के खाने की चीज़ें रखी मिल जाती हैं। दीवार में जो अलमारियाँ हैं, उसमें सच-मुच के कपड़े यानी मेरे अपने ख़रीदे और सिलवाए हुए लिबास मौजूद हैं। मगर अब क़िस्सा ये है कि अब फ़र्ज़ाना मुझसे नहीं मिलती। पहले वो चचा के घर आती तो मैं उसके डर से अपने पुराने जूते और ख़स्ता कोट छिपाता फिरता था और अब तो मेरे दो जोड़े जूते सामने ही शू रैक पर रखे रहते हैं और मेरा और कोट सामने खूँटी पर टँगा हुआ है। मगर वो मुझसे ब-दस्तूर नाराज़ है।
वो मुझे कहते हैं इससे बाज़ आओ मैं तुम्हें सोन गुड़ियों की कहानी सुनाऊँ। मगर ये कुछ ऐसा चलता-फिरता वक़्त है कि कौन किसी की सुनता है और कौन सुनने के क़ाबिल बात बोलता है। और अब तो मुझे इतनी भी तमीज़ नहीं कि कौन सी कहानी सुनी थी, कौन सी देखी थी, और कौन सी ख़ुद सोची थी। ज़िंदगी की रवा-रवी में सारी कहानियाँ गड्डमड्ड हो रही हैं और हम सुबह से रात तक मुख़्तलिफ़ शिफ़्टों की शक्ल में रंग-बिरंगी मसख़री-मसख़री वर्दियों में बे-तहाशा खानों से लबरेज़ ज़ुरूफ़ से लदी फंदी मेज़ों के इर्द-गिर्द मँडलाते और खाने वालों को चुँधियाते रहते हैं कि किस तरह अपने दस रूपये फ़ी-कस को ज़्यादा से ज़्यादा वसूल कर लें।
हम यहाँ खाने वालों को चुँधाएं, या फिर उनके सामानों और मुक़फ़्फ़ल कमरों के रख-रखाव का ख़्याल रखें, जो उधर स्विमिंग पूल के इधर-उधर रंग-बिरंगी कुर्सियों पर कम-लबासी और बे-फ़िक्री के साथ धूप में पड़े (TAN) हो रहे हैं, यानी अपने आपको भूरा कर रहे हैं, मगर क्यों? गंदुम-गूँ बालों, कुंजी आँखों वाले सफ़ेद फ़ाम किस ख़ब्त में मुब्तिला हैं? मैंने अभी-अभी सोचा था, और साथ ही मेरे ज़ह्न में वो कहानी उभरी है। मैं और मेरे साथी जो हर वक़्त इस ख़ौफ़ में मुब्तिला हैं कि कभी कहीं इन मेज़ों पर आ कर वो लोग न बैठ जाएँ, जो हमारे हम-जमाअत, हम-प्याला-ओ-हम-निवाला हुआ करते थे, तो फिर इस ख़्याल से बचने के लिए हम ख़ूब सोचते हैं, हत्ता कि चीज़ें जो हमें पकड़ाई जाती हैं, हमारे साथियों से फिसल-फिसल जाती हैं।
तो चुनाँचे फिर वो कहानी यूँ गड्डमड्ड हुई कि उन दिनों मैं हातिम-ए-दौराँ की आमद-आमद का ग़ुलग़ुला बंद हुआ कि उसको किसी मर्द-ए-दाना ने मुज़्दा दिया था और दौलत को दोनों हाथों से लुटाने की तलक़ीन की थी। फिर उसका शिकार ये ठहरा कि सर्दियाँ गर्म मशरिक़ी इलाक़ों के सैर-ओ-शिकार में गुज़रतीं और गर्मियाँ अर्ज़-ए-मग़रिब के निशात-ख़ानों में और बाक़ी वक़्त उसी वीराने में शिकरे से चिड़ियों के शिकार में गुज़र जाता लेकिन उसके इर्द-गिर्द लोग जमा रहते कि वो अह्ल-ए-तमअ' का तमाशा करे।
चुनाँचे वो जवान-ए-राना कि अपनी उम्र के चालीस साल से ऊपर कई साल गुज़ार चुका था, आया और बड़ी शान से आया था, उसने अह्ल-ए-तमअ' का तमाशा किया और हमने उसका और सबका तमाशा किया कि इस दौर के हातिम का दस्तूर भी नया था।
कि जिसके पास है उसको दिया जाएगा।
चुनाँचे जिसके पास था, उन्होंने उसके गिर्द हल्क़े को तंग किया और फिर उस हल्क़े में सोन गुड़ियों का अमल-दख़्ल हुआ कि नए हातिम के इर्द-गिर्द हल्क़ा डालने वालों और मुसाहिबीन को महफ़िल-ए-तरब भी जमाना थी।
चुनाँचे सोन गुड़ियों की कहानी मेरे ज़ेह्न में यूँ गडमड हुई कि अब आधी रात को कोई बी-बी डिब्बे न खोलती। बल्कि यूँ होता कि आधा पहर दिन गुज़ारने के बाद हम अज़ सर-ए-नौ मेज़ें सजाते। फूल दानों के फूल बदलते, मशरूबात के दौर तैयार करते और तब वो मर्द-ए-हातिम और उसके साथी नीचे आते और सोन गुड़ियाँ अज़-ख़ुद नज़र-फ़रेब और दिलरुबा लिबासों में आ कर उसके गिर्द घेरा डाल लेतीं और उस हल्क़े के बाहर एक और घेरा तैयार होता कि वो अह्ल-ए-ग़रज़ और अह्ल-ए-तमअ' और मर्द-ए-हातिम के साथी सोन गुड़ियों के साथ हंगामा-ओ-नाओनौश तैयार करते, और अच्छा वक़्त गुज़ारते और अच्छा हाथ मारते। ये सब कुछ होता मगर मर्द-ए-हातिम इस सबके ए'न वस्त में एक नन्हे से न्यूकलस के मानिंद तन्हा अपने गिर्द अमल-ए-ज़र्बी को तेज़ी से मसरूफ़-ए-कार देखता, तमाशा करता, और मुस्कुराता कि इसका काम और मक़सद हंगामा-ए-नाओनोश बरपा करना था, बल्कि अह्ल-ए-ग़रज़ का तमाशा करना था और सोन गुड़ियों की बे-बिज़ाअती पर मुस्कराना था कि वो अह्ल-ए-ग़रज़ और उसके मुसाहिबीन के दरमियान वसीला बन कर अपने आप में बहुत बाला थीं।
कहानी जब यूँ गडमड होती, तो मैं अपने साथी को कि मैं और वो मर्द-ए-हातिम की शब-ओ-रोज़ ख़िदमत पर मा'मूर हुए थे कहता, दोस्त मैं तुमको उन गुड़ियों की कहानी नहीं सुना सकता, जो आधी रात को टीन की संदूक़ची से निकल कर महफ़िल-ए-तरब जमाती थीं। अब तुम उन सोन गुड़ियों को देखो कि दिन के उजाले और शाम के झुटपुटे में बे-मुहाबा महफ़िलें बरपा करती हैं और किसी को ज़रूरत महसूस नहीं होती कि इधर-उधर देख कर इत्मीनान करे कि कोई देखता तो नहीं, और यूँ मेरे ज़ह्न में अनसुनी कहानी उभरती कि मुझे एतराफ़ है कि दाद-ओ-दिहिश के इस सिलसिले में मेरा भी हिस्सा रहा और मेरी सारी जेबें बहुत गर्म रहने लगीं। तब हमने एक और फ़्लैट बदला और मैंने और मेरी माँ ने सौतेले चचा से यूँ तर्क-ए-ताल्लुक़ किया कि मुबादा वो अपने उस एहसान के बदले चुकाने हमारे पास आ जाएँ, जो उन्होंने आख़िरी मर्तबा हंगामा करके मुझे यूँ फ़िट करवा कर किया था।
लेकिन फ़र्ज़ाना का मुआमला क़दरे पेचीदा था कि हमारे नए फ़्लैट में पहुँचने के बाद उसके रवैये में नर्मी आ गई थी और उसने बार-बार ये कहना छोड़ दिया था, मगर तुम्हारी इज़्ज़त क्या है। अब तो कई बार वो ख़ुद मुझसे मिलने आई थी, मगर क़िस्सा ये है मैंने सोन गुड़ियों की कहानी चश्म-दीद तौर पर देखी और उनकी क़ुव्वतों और बाला-दस्ती का नज़ारा किया। अब मुझे सुबह का सितारा डूबने से पहले टीन की पिटारी को बंद करते-करते... जो रंडी थी सो बीवी बनी, जो बीवी थी वो बाँदी बनी... कहने वाली ख़ातून से क्या दिलचस्पी हो सकती है। चुनाँचे मेरा और मेरे थर्ड डिवीज़न में पास होने वाले तमाम दोस्तों का फ़ैसला यही था कि इस डिग्री और ऐसी अहमक़ ख़ातून कि बीवी से लौंडी बन जाए, कि मुक़ाबले में सोन गुड़ियाँ ब-दर्जहा बेहतर साबित होती हैं।
मगर ये रुमूज़ फ़र्ज़ाना जैसी लड़कियों के कब समझ में आ सकते हैं कि सुबह-सुबह काली नक़ाब मुँह पर डाल कर और दाहिने हाथ में नोट्स की कॉपी उठा कर वो अपने मुस्तक़बिल के उजालों की तलाश में बसों के धक्के और कंडक्टरों की घुड़कियाँ खाने घर से निकल पड़ती हैं।
जब कि सोन गुड़ियों की बात और है। मैं ऐसी ही एक पिटारी की तलाश में हूँ कि जिसमें एक या कई सोन गुड़ियाँ बंद हों।
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