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सुअरों के हक़ में एक कहानी

असद मोहम्मद ख़ाँ

सुअरों के हक़ में एक कहानी

असद मोहम्मद ख़ाँ

MORE BYअसद मोहम्मद ख़ाँ

    स्टोरीलाइन

    यह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण, सावन के बरसते बादल जो कई गंगा बना देते हैं और ये सब नीचे बारहमासी ताल बनाती हैं। ताल में सिंघाडे, घास और खर-पतवार हैं। ताल में एक आदमी खड़ा है। वह आदमी है, सुअर नहीं। लेकिन उन्हीं सुनने वालों और सुअरों के बीच फै़सला सुनाया जा चुका है।

    बहुत बुलंदी से एक पहाड़ी उतरती है।

    जिस तरह मस्जिद-ए-जामा’ की धुली धुलाई सीढ़ियां मतानत के साथ क़ाज़ी-ए-शहर के पापोश चूमती हुई, नीचे आ’मतुन्नास की धुआँ लिपटी दुनिया में उतर रही हों।

    ठीक उसी तरह एक पहाड़ी उतरती है।

    तो शाम के झुटपुटे में और कभी धुंद में शायद कई लाख फ़ीट की बुलंदी से एक पहाड़ी, कभी हल्के कभी गहरे बादलों वाले आसमान से सावन की दो तीन सौ निरझरों की उंगली थामे क़दम-क़दम उतरती है और ताल के किनारे जा पहुँचती है और सावन का ये जलूस बावन गंगा कहलाता है और जो गिनती करने बैठो तो उन गंगाओं की तादाद बावन नहीं रहती, दो तीन सौ से ऊपर पहुंच जाती है। मगर सावन में गिन कौन सकता है, ये तो बे हिसाबी की रुत है।

    तो ये कई सौ गंगाएं नीचे पहुंच कर एक बारहमासी ताल बनाती हैं जिसकी सतह सिंघाड़े की बेलों से और जल कुंभी से और तीन क़िस्म के कंवल से ढकी रहती है। ताल में बहुत से छोटे-छोटे टापू हैं जो आदमी के क़द जितनी ऊंची, गहरे हरे रंग की, चिकने तिकोने डंठल वाली आबी घास पहने रहते हैं। इस घास के डंठल इस क़दर चिकने, इतने आबदार और लचकदार हैं कि लगता है अंदरूनी आराइश करने वालों की सहूलत के ख़्याल से उन्हें ठोस नायलोन से बनाया गया है और ये कोई बहुत पाएदार, वाशेबल क़िस्म की आराइशी चीज़ है। कभी लगता है कि ये डंठल किसी सख़्त-गीर स्कूल मास्टर की लहराती हुई छड़ियां हैं जिनके सिरों पर मास्टर ने सजावट के लिए चार-चार पाँच-पाँच शाख़ों वाले तुर्रे लगा रखे हैं। इन शाख़ों से पोर-पोर बराबर पतली लोज़ेन्जेज़ की शक्ल की सख़्त हरी पत्तियाँ चिपकी होती हैं, जैसे कनखजूरे के बदन से उसकी हज़ारों बेचैन टांगें चिपकी हों और जिस वक़्त ये आबी घास भीगी हुई हवा के साथ लहरा रही होती है तो बेख़्याली में यादें उसकी तमाम लहरों के ख़ुतूत-ए-हरकत को ख़ुद पर नक़्श कर लेती हैं और पता भी नहीं चलता और तीस-चालीस बरस गुज़र जाते हैं। फिर अचानक एक एक लहर अक़लीदसी इशकाल मैं ख़ुद को दुहराती आती है और आँखों की पुतलियों के पीछे बिजलियां सी कौंदने लगती हैं।

    तो ये सारे टापू इस आबी घास से पटे पड़े हैं और ये आबी घास कभी पीली नहीं पड़ती, सदा हरी-भरी रहती है इसलिए कि सावन रहे ना रहे, ताल के इस दूर दराज़ हिस्से में भी कमर-कमर पानी तो सारे साल ही रहता है, फिर ये हरी-हरी पत्तियाँ और हरे डंठल काहे को पीले पड़ने लगे। सारे-सारे साल टापूओं के ये मास्टर सड़क पर चलने वाले इक्का-दुक्का मुसाफ़िरको छड़ियाँ लहरा-लहरा कर धमकाते रहते हैं, कि घन-गरज के साथ दुबारा सावन जाता है। सावन में ये टापू एक दम घोंट देने वाली तेज़ सब्ज़ बू उछालते हैं जो मछलियों के जीते-जीते सुर्ख़ गलफड़ों से गुज़रती हुई सारी दुनिया में फैल जाती है और क़रीब के राहगीरों को (टब में बैठे हुए शरीर बच्चों की तरह) शराबोर कर देती है।

    शाम गहरी होते इधर से कम ही लोग गुज़रते हैं। वो शायद गहरे हरे रंग के इस अंधेरे से ख़ौफ़ खाते होंगे या शायद वो अपनी यादों को ज़्यादा तुंद-ओ-तेज़ चीज़ों से भरना नहीं चाहते, वो हल्के फुल्के रहते हुए जीना चाहते हैं मगर क्या हल्के फुल्के रहते हुए जीना मुम्किन है?

    मैंने ताल किनारे एक उजड़ी हुई अमराई को भरपूर सावन में भी, सब क़िस्सों क़ज़ियों, सब चीज़ों से अलग-थलग पड़े देखा है और मेरी समझ में नहीं आता कि हल्के फुल्के रहते हुए जीना कैसे मुम्किन है। ये अमराई ताल में और ताल के आस-पास और पहाड़ी पर जो कुछ हो रहा है उससे अलग-थलग और उसके बीचों बीच मौजूद है और धीरे धीरे मरती जा रही है।

    यूं है कि ताल के बाएं किनारे से जो एक छोटी सी मिस्कीन पहाड़ी उठती है और बावन गंगाओं वाली पहाड़ी की दुसराथ के ख़्याल से कुछ दूर चलती हुई फिर हमवार सतह-ए-मुर्तफ़े में गुम हो जाती है (जैसे ब्याह में आए होई पड़ोसी दुआ’-सलाम के बाद रिश्ते नाते वालों से ज़रा हट कर एक तरफ़ को जा बैठें)। तो पहाड़ी की गोद में ये छोटी सी अमराई पड़ी है और ये धीरे-धीरे मरती जा रही है। सौ दो सौ बरस पहले यहां आम के बेगिन्ती पेड़ों पर बेहिसाब तोते और कोयलें इकट्ठा होते और पुकार करते थे। अब सन्नाटा रहता है। गिनती के दस-बीस बूढ़े गंजे दरख़्त बकरियों के रेवड़ सँभाले बज़ाहिर सुकून से खड़े रहते हैं। जहां अब मेंगनियों की बिछात बिछी है, कभी मस्त महक वाले आमों का बौर फ़र्श किए रहता था और दरख़्तों तले उगी हुई कमज़ोर हरी घास पर चमकीले धारीदार गाउन पहने गिलहरियाँ दौड़ लगाती थीं, भूरे कोट वाले लंगूर उधम करते थे और चालाक गिरगिट पल-पल में लिबास बदलते थे। ये सब अब ऊपर चले गए हैं, कि ऊपर अब भी सीताफलों के टेढ़े-मेढ़े दरख़्तों के बीच मीठे करौंदों और अचारों की झाड़ियाँ हैं और तेज़ बसंती रंग में रंगे हुए शहद भरे क़ुमक़ुमों के झाबे उठाए तेंदू के दरख़्त खड़े हैं और बेल के तनावर पेड़ हैं जो मीठी मिट्टी के मीठे फलों के दरमियान संतरियों की तरह अपनी मौजूदगी का यक़ीन दिलाते हुए छोटी पहाड़ी पर चढ़ते चले जाते हैं और फूलों में अमलतास है और टेसू है और गेंदे की झाड़ियाँ हैं और इस छोटी पहाड़ी पर बिखरे हुए बरसहाबरस की धूप खाए, करोड़ों बरसातें झेले, टेढ़े तिर्छे पत्थरों को सरका सरका कर क़ीमती एलोवीइल मिट्टी ने पैवंद लगा दिए हैं जहां किसी भी वक़्त कुछ भी उगने लगता है। जहां-जहां मिट्टी का जस कमज़ोर पड़ जाता है वहां भुरभुरी मिट्टी में ख़रगोशों के क़बीले सुरंगें खोद लेते हैं और सीहा का इक्का दुक्का ख़ानदान अपना भट्ट बना लेता है और रात गए अपनी सीलोलाइड की ज़िरह बक्तरें पहन कर घूमने निकलता है तो अपने निशानात छोड़ जाता है। फिर सतह-ए-मुर्तफ़े पर बने हुए घरों से भीगी हुई हवा में सूँ सूँ करते होई बहुत से बच्चे उतरते हैं और ये सीलोलाइड की क़लमें इकट्ठी करते हैं और अपने दफ़्ती के डिब्बों में सँभाल कर रख देते हैं कि तीस-चालीस बरस बाद वो उन्हें अपनी पलकों से चुनेंगे और तीस चालीस बरस पुरानी भीगी हुई हवा में सूँ सूँ करेंगे।

    और स्याह एलोवीइल मिट्टी के पैवन्दों में गोमची के नीमक़द दरख़्त बैठे अपनी मालाओं के स्याह सुर्ख़ नासुफ़ता मनके बिखेरते रहते हैं और चाहते हैं कि इस तेज़ हरे गिर्द-ओ-पेश में उनका लाया हुआ सुर्ख़ और उनका लाया हुआ स्याह भी चमकता रहे।

    तो बेशुमार चमकीले रंगों का ये तूफ़ान छोटी मिस्कीन पहाड़ी पर आया हुआ है जिसकी गोद में सबसे बेता’ल्लुक़ ये मरती हुई अमराई पड़ी है और छोटी मिस्कीन पहाड़ी बावन गंगाओं वाली विशाल पहाड़ी की बाज़गश्त है कि उसके पहलू से आकार कहती हुई उठी है और उस आकार को गिलहरियाँ और लंगूर और गिरगिट और ख़रगोशों के क़बीले और सीहा का इक्का-दुक्का ख़ानदान और भीगी हुई हवा में सूँ सूँ करते हुए बच्चे ही सुन सकते हैं और बावन गंगाओं वाली पहाड़ी मल्हार है और मेघ राज के पुरशोर रथ में जुते होई घोड़ों की गर्दनों को चूमता हुआ जब दामिनी का कोड़ा लशकता है तो यही विशाल पहाड़ी एक भयंकर रूपी रागनी है जिसे रौंगटे खड़े कर देने वाली वहशी मसर्रत के साथ ताल के कमर-कमर पानी में खड़ा हुआ ये आदमी सुन रहा है।

    ये सुनता जाता है कि उसकी बंद आँखों की पुतलियों के पीछे स्मृतियों की बिजलियां कौंद रही हैं।

    तो ये आदमी है, सुअर नहीं है।

    सो उस आदमी को हाथ पकड़ कर टापूओं की संगत से और सिंघाड़े की बेलों और जल कुंभी की संगत से और तीन किस्म के कंवल की संगत से खींच लो।

    कि सुनने वालों और सुअरों के दरमियान तुम अपना फ़ैसला सुना चुके हो।

    सो उसे हाथ पकड़ कर खींच लो और उस दूसरे को, उस सुअर के तुख़्म को ले आओ जो नाक पर रूमाल रखे अमराई में दुबका बैठा है। ये दूसरा अपने बुल डोज़र और अर्थ मुवर और कुल्हाड़े और छीनीयां लेकर आएगा और तीन सौ निरझरों को रोक देगा, एक नक़ली आबशार बनाएगा और ताल किनारे टापूओं की हरी-हरी घास खींच कर वहां सीमेंट के ब्लॉक जड़ देगा और किराए के मोटरबोट चलाएगा। फिर सिंघाड़े की बेलों पर और जल कुंभी पर और तीन क़िस्म के कंवल पर सिगरेटों के बट, काग़ज़ के गंदे रूमाल और इस्ति’माल शूदा रबर फेंके जाऐंगे और छोटी मिस्कीन पहाड़ी पर चूने से नक़्शे बनना शुरू होंगे और गिलहरियाँ और लंगूर और रंगीन लिबासों वाले गिरगिट और रूई के धनके हुए ख़रगोश और सीह और सूँ सूँ करते हुए सब बच्चे पहाड़ी से चले जाऐंगे और चमकीले रंगों वाली पहाड़ी की आकार डूब जाएगी... बस फ्लश टैंकों की गुर्राहटें रह जाएँगी, कि ट्रम्पेट की आख़िरी साँसों तक सुनी जा सकेंगी।

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