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क़ासिम

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    अफ़साना घरों में काम करने वाले बच्चों के शोषण पर आधारित है। क़ासिम इंस्पेक्टर साहब के यहाँ नौकर था। वह बहुत कम-उम्र था फिर भी उस से घर-भर के काम लिए जाते थे। इतने कामों के कारण उसकी नींद भी पूरी नहीं हो पाती थी। काम से बचने के लिए उसने एक रोज़़ चाकू़ से अपनी उँगली काट ली। उसका यह तरीक़ा काम कर गया। उसे कई दिन के लिए काम से छुट्टी मिल गई। ठीक होने के कुछ दिन बाद ही उसने फिर से अपनी अंगुली काट ली। मगर जब उसने तीसरी बार उँगली काटी तो मालिक ने तंग आ कर उसे घर से निकाल दिया। दवाई के अभाव में क़ासिम की ताज़ा कटी उँगली में सैप्टिक हो गया। जिस कारण डॉक्टर को उसका हाथ काटना पड़ा। हाथ कटने पर वह भीख माँगने का धंधा करने लगा।

    बावर्चीख़ाने की मटमैली फ़िज़ा में बिजली का अंधा सा बल्ब कमज़ोर रोशनी फैला रहा था। स्टोव पर पानी से भरी हुई केतली धरी थी। पानी का खौलाव और स्टोव के हलक़ से निकलते हुए शोले मिल जुल कर मुसलसल शोर बरपा कररहे थे। अंगेठियों में आग की आख़िरी चिनगारियां राख में सो गई थीं। दूर कोने में क़ासिम ग्यारह बरस का लड़का बर्तन मांझने में मसरूफ़ था। ये रेलवे इंस्पेक्टर साहब का ब्वॉय था।

    बर्तन साफ़ करते वक़्त ये लड़का कुछ गुनगुना रहा था। ये अलफ़ाज़ ऐसे थे जो उसकी ज़बान से बग़ैर किसी कोशिश के निकल रहे थे, “जी आया साहब! जी आया साहब! बस अभी साफ़ हो जाते हैं साहब।”

    अभी बर्तनों को राख से साफ़ करने के बाद उन्हें पानी से धो कर क़रीने से रखना भी था और ये काम जल्दी से हो सकता था। लड़के की आँखें नींद से बंद हुई जा रही थीं। सर सख़्त भारी हो रहा था मगर काम किए बगै़र आराम... ये क्योंकर मुम्किन था।

    स्टोव बदस्तूर एक शोर के साथ नीले शोलों को अपने हलक़ से उगल रहा था। केतली का पानी उसी अंदाज़ में खिलखिला कर हंस रहा था।

    दफ़अ’तन लड़के ने नींद के नाक़ाबिल-ए-मग़्लूब हमले को महसूस करके अपने जिस्म को एक जुंबिश दी और “जी आया साहब” गुनगुनाता फिर काम में मशग़ूल होगया।

    दीवार गीरों पर चुने हुए बर्तन सोए हुए थे। पानी के नल से पानी की बूंदें नीचे मैली सिल पर टपक रही थीं और उदास आवाज़ पैदा कररही थीं। ऐसा मालूम होता था कि फ़िज़ा पर ग़नूदगी सी तारी है। दफ़अ’तन आवाज़ बलंद हुई।

    “क़ासिम! क़ासिम!”

    “जी आया साहब!” लड़का इन ही अलफ़ाज़ की गर्दान कर रहा था, भागा भागा अपने आक़ा के पास गया।

    इंस्पेक्टर साहब ने गरज कर कहा, “बेवक़ूफ़ के बच्चे, आज फिर यहां सुराही और गिलास रखना भूल गया है।”

    “अभी लाया साहब... अभी लाया साहब।”

    कमरे में सुराही और गिलास रखने के बाद वो अभी बर्तन साफ़ करने के लिए गया ही था कि फिर उसी कमरे से आवाज़ आई,“क़ासिम... क़ासिम!”

    “जी आया साहब!” क़ासिम भागता हुआ फिर अपने आक़ा के पास गया।

    “बम्बई का पानी किस क़दर ख़राब है... जाओ पारसी के होटल से सोडा लेकर आओ। बस भागे जाओ, सख़्त प्यास लग रही है।”

    “बहुत अच्छा साहब।”

    क़ासिम भागा भागा गया और पारसी के होटल से, जो घर से क़रीबन निस्फ़ मील के फ़ासले पर था, सोडे की बोतल ले आया और अपने आक़ा को गिलास में डाल कर दे दी।

    “अब तुम जाओ, मगर इस वक़्त तक क्या कर रहे हो? बर्तन साफ़ नहीं हुए क्या?”

    “अभी साफ़ हो जाते हैं साहब!”

    “बर्तन साफ़ करने के बाद मेरे दोनों काले शू पॉलिश करदेना, मगर देखना एहतियात रहे। चमड़े पर कोई ख़राश आए। वर्ना...”

    क़ासिम को ‘वर्ना’ के बाद जुमला बख़ूबी मालूम था, “बहुत अच्छा साहब,” कह कर वो बावर्चीख़ाना में चला गया और बर्तन साफ़ करने शुरू कर दिए।

    अब नींद उसकी आँखों में सिमटी चली रही थी। पलकें आपस में मिली जा रही थीं, सर में पिघला हुआ सीसा उतर रहा था... ये ख़याल करते हुए कि साहब के बूट भी अभी पॉलिश करने हैं, क़ासिम ने अपने सर को ज़ोर से जुंबिश दी और वही राग अलापना शुरू कर दिया।

    “जी आया साहब, जी आया साहब! बूट साफ़ हो जाते हैं साहब।”

    मगर नींद का तूफ़ान हज़ार बंद बांधने पर भी रुका। अब उसे महसूस हुआ कि नींद ज़रूर ग़लबा पाके रहेगी। पर अभी बर्तनों को धो कर उन्हें अपनी जगह पर रखना बाक़ी था। जब उसने ये सोचा तो एक अ’जीब-ओ-ग़रीब ख़याल उसके दिमाग़ में आया, “भाड़ में जाएं बर्तन और चूल्हे में जाएं शू... क्यों थोड़ी देर इसी जगह सो जाऊं और फिर चंद लम्हा आराम करने के बाद...”

    इस ख़याल को बाग़ियाना तसव्वुर कर के क़ासिम ने तर्क कर दिया और बर्तनों पर जल्दी जल्दी राख मलना शुरू कर दी।

    थोड़ी देर के बाद जब नींद फिर ग़ालिब आई तो उसके जी में आई कि उबलता हुआ पानी अपने सर पर उंडेल ले और इस तरह इस ग़ैर मरई ताक़त से जो इस काम में हायल हो रही थी नजात पा जाये मगर पानी इतना गर्म था कि उसके भेजे तक को पिघला देता। चुनांचे मुँह पर ठंडे पानी के छींटे मार मार कर उसने बाक़ीमांदा बर्तन साफ़ किए। ये काम करने के बाद उसने इतमिनान का सांस लिया।

    अब वो आराम से सो सकता था और नींद... वो नींद, जिसके लिए उसकी आँखें और दिमाग़ इस शिद्दत से इंतिज़ार कर रहे थे अब बिल्कुल नज़दीक थी।

    बावर्चीख़ाने की रोशनी गुल करने के बाद क़ासिम ने बाहर बरामदे में अपना बिस्तर बिछा लिया और लेट गया। इससे पहले कि नींद उसे अपने नर्म-नर्म बाज़ूओं में थाम ले, उसके कान “शू शू” की आवाज़ से गूंज उठे।

    “बहुत अच्छा साहब, अभी पालिश करता हूँ।” क़ासिम हड़बड़ा के उठ बैठा।

    अभी क़ासिम शू का एक पैर भी अच्छी तरह पॉलिश करने पाया था कि नींद के ग़लबे ने उसे वहीं सुला दिया।

    सूरज की लाल लाल किरणें मकान के शीशों से नुमूदार हुईं, मगर क़ासिम सोया रहा।

    जब इंस्पेक्टर साहब ने अपने नौकर को बाहर बरामदे में अपने काले जूतों के पास सोया देखा तो उसे ठोकर मार के जगाते हुए कहा, “ये सुअर की तरह यहां बेहोश पड़ा है और मुझे ख़याल था कि इसने शू साफ़ कर लिए होंगे...”

    “नमक हराम! अबे क़ासिम।”

    “जी आया साहब!”

    क़ासिम फ़ौरन उठ बैठा। हाथ में जब उसने पॉलिश करने का ब्रश देखा और रात के अंधेरे की बजाय दिन की रोशनी देखी तो उसकी जान ख़ता हो गई।

    “मैं सो गया था साहब! मगर... मगर शू अभी पॉलिश हो जाते हैं साहब।”

    ये कह कर उसने जल्दी जल्दी पॉलिश करना शुरू कर दिया।

    पॉलिश करने के बाद उसने अपना बिस्तर बंद किया और उसे ऊपर के कमरे में रखने चला गया।

    “क़ासिम!”

    “जी आया साहब!”

    क़ासिम भागा हुआ नीचे आया और अपने आक़ा के पास खड़ा होगया।

    “देखो, आज हमारे यहां मेहमान आयेंगे, इसलिए बावर्चीख़ाने के तमाम बर्तन अच्छी तरह साफ़ कर रखना। फ़र्श धुला हुआ होना चाहिए। इसके इलावा तुम्हें ड्राइंगरूम की तस्वीरें, मेज़ें और कुर्सियां भी साफ़ करना होंगी... समझे! ख़याल रहे मेरी मेज़ पर एक तेज़ धार वाला चाक़ू पड़ा है, उसे मत छेड़ना! मैं अब दफ़्तर जा रहा हूँ, मगर ये काम दो घंटे से पहले पहले हो जाये।”

    “बहुत बेहतर साहब।”

    इंस्पेक्टर साहब दफ़्तर चले गए। क़ासिम बावर्चीख़ाना साफ़ करने में मशग़ूल हो गया।

    डेढ़ घंटे की अनथक मेहनत के बाद उसने बावर्चीख़ाने का सारा काम ख़त्म कर दिया और हाथ पांव साफ़ करने के बाद झाड़न लेकर ड्राइंगरूम में चला गया।

    वो अभी कुर्सीयों को झाड़न से साफ़ कर रहा था कि उसके थके हुए दिमाग़ में एक तस्वीर सी खिच गई। क्या देखता है कि उसके गिर्द बर्तन ही बर्तन पड़े हैं और पास ही राख का एक ढेर लग रहा है। हवा ज़ोरों पर चल रही है जिससे वो राख उड़ उड़ कर फ़िज़ा को ख़ाकस्तरी बना रही है। यकायक इस ज़ुल्मत में एक सुर्ख़ आफ़ताब नुमूदार हुआ जिसकी किरनें सुर्ख़ बरछियों की तरह हर बर्तन के सीने में घुस गईं। ज़मीन ख़ून से शराबोर हो गई।

    क़ासिम दहश्त ज़दा हो गया और इस वहशतनाक तसव्वुर को दिमाग़ से झटक कर “जी आया साहब, जी आया साहब” कहता फिर अपने काम में मशग़ूल हो गया।

    थोड़ी देर के बाद उसके तसव्वुर में एक और मंज़र रक़्स करने लगा। छोटे छोटे लड़के आपस में कोई खेल खेल रहे थे। दफ़अ’तन आंधी चलने लगी जिसके साथ ही एक बदनुमा और भयानक देव नुमूदार हुआ। ये देव उन सब लड़कों को निगल गया। क़ासिम ने ख़याल किया कि वो देव उसके आक़ा के हम शक्ल था। गो कि क़द-ओ-क़ामत के लिहाज़ से वो उससे कहीं बड़ा था। अब उस देव ने ज़ोर ज़ोर से डकारना शुरू किया। क़ासिम सर से पैर तक लरज़ गया।

    अभी तमाम कमरा साफ़ करना था और वक़्त बहुत कम रह गया था। चुनांचे क़ासिम ने जल्दी जल्दी कुर्सीयों पर झाड़न मारना शुरू किया। कुर्सीयों का काम ख़त्म करने के बाद वो मेज़ साफ़ करने के लिए बढ़ा तो उसे ख़याल आया, आज मेहमान आरहे हैं। ख़ुदा मालूम कितने बर्तन साफ़ करना पड़ेंगे। नींद कम्बख़्त फिर सताएगी। मुझसे तो कुछ भी हो सकेगा...

    वो ये सोच रहा था और मेज़ पर रखी हुई चीज़ों को पोंछ रहा था। अचानक उसे क़लमदान के पास एक खुला हुआ चाक़ू नज़र आया... वही चाक़ू जिसके मुतअ’ल्लिक़ उसके आक़ा ने कहा था बहुत तेज़ है, चाक़ू का देखना था कि उसकी ज़बान पर ये लफ़्ज़ ख़ुदबख़ुद जारी हो गए... “चाक़ू तेज़ धार चाक़ू! यही तुम्हारी मुसीबत ख़त्म कर सकता है।”

    कुछ और सोचे बग़ैर क़ासिम ने तेज़ धार चाक़ू उठा के अपनी उंगली पर फेर लिया। अब वो शाम को बर्तन साफ़ करने की ज़हमत से बहुत दूर था और नींद... प्यारी प्यारी नींद उसे बआसानी नसीब हो सकती थी।

    उंगली से ख़ून की सुर्ख़ धार बह रही थी। सामने वाली दवात की सुर्ख़ रोशनाई से कहीं चमकीली। क़ासिम इस ख़ून की धार को मसर्रत भरी नज़रों से देख रहा था और मुँह में गुनगुना रहा था, “नींद, नींद... प्यारी नींद।”

    थोड़ी देर बाद वो भागा हुआ अपने आक़ा की बीवी के पास गया जो ज़नानखाना में बैठी सिलाई कर रही थी और अपनी उंगली दिखा कर कहने लगा, “देखिए बीबी जी।”

    “अरे क़ासिम ये तू ने क्या किया?... कमबख़्त, साहब के चाक़ू को छेड़ा होगा तू ने!”

    क़ासिम मुस्कुरा दिया, “बीबी जी... बस मेज़ साफ़ कर रहा था कि उसने काट खाया।”

    “सुअर अब हँसता है, इधर आ, मैं इस पर कपड़ा बांध दूं... पर अब ये तो बता कि आज ये बर्तन तेरा बाप साफ़ करेगा?”

    क़ासिम अपनी फ़तह पर जी ही जी में बहुत ख़ुश हुआ।

    उंगली पर पट्टी बंधवा कर क़ासिम फिर कमरे में चला आया। मेज़ पर से ख़ून के धब्बे साफ़ करने के बाद उसने ख़ुशी ख़ुशी अपना काम ख़त्म कर दिया। सामने तोते का पिंजरा लटक रहा था। उसकी तरफ़ देख कर क़ासिम ने मसर्रत भरे लहजे में कहा, “अब उस नमक हराम बावर्ची को बर्तन साफ़ करने होंगे... और ज़रूर साफ़ करने होंगे। क्यों मियां मिट्ठू?”

    शाम के वक़्त मेहमान आए और चले गए। बावर्चीख़ाना में झूटे बर्तनों का एक तूमार सा लग गया। इंस्पेक्टर साहब क़ासिम की उंगली देख कर बहुत बरसे और जी खोल कर उसे गालियां दीं। मगर उसे मजबूर कर सके... शायद इस वजह से कि एक बार उनकी अपनी उंगली में क़लम तराश चुभ जाने से बहुत दर्द हुआ था।

    आक़ा की ख़फ़्गी आने वाली मसर्रत ने भुला दी और क़ासिम कूदता फाँदता अपने बिस्तर पर जा लेटा। तीन चार रोज़ तक वो बर्तन साफ़ करने की ज़हमत से बचा रहा। मगर इसके बाद उंगली का ज़ख़्म भर आया... अब वही मुसीबत फिर नुमूदार हो गई।

    “क़ासिम, साहब की जुराबें और क़मीज़ धो डालो।”

    “बहुत अच्छा बीबी जी।”

    “क़ासिम इस कमरे का फ़र्श कितना मैला होरहा है। पानी लाकर अभी साफ़ करो, देखना कोई दाग़ धब्बा बाक़ी रहे!”

    “बहुत अच्छा साहब।”

    “क़ासिम, शीशे के गिलास कितने चिकने हो रहे हैं, इन्हें नमक से अभी अभी साफ़ करो।”

    “अभी करता हूँ बीबी जी।”

    “क़ासिम, अभी भंगन आरही है। तुम पानी डालते जाना, वो सीढ़ियां धो डालेगी।”

    “बहुत अच्छा साहब।”

    “क़ासिम ज़रा भाग के एक आना का दही तो ले आना!”

    “अभी चला बीबी जी।”

    “पाँच रोज़ इस क़िस्म के अहकाम सुनने में गुज़र गए। क़ासिम काम की ज़्यादती और आराम के क़हत से तंग गया। हर रोज़ उसे निस्फ़ शब तक काम करना पड़ता। फिर भी अलस्सुबह चार बजे के क़रीब बेदार हो कर नाशते के लिए चाय तैयार करना पड़ती। ये काम क़ासिम की उम्र के लड़के के लिए बहुत ज़्यादा था।

    एक रोज़ इंस्पेक्टर साहब की मेज़ साफ़ करते वक़्त उसका हाथ ख़ुद-बख़ुद चाक़ू की तरफ़ बढ़ा और एक लम्हे के बाद उसकी उंगली से ख़ून बहने लगा। इंस्पेक्टर साहब और उनकी बीवी क़ासिम की इस हरकत पर सख़्त ख़फ़ा हुए। चुनांचे सज़ा की सूरत में उसे शाम का खाना दिया गया। मगर क़ासिम ख़ुश था... “एक वक़्त रोटी मिली। उंगली पर मामूली सा ज़ख़्म आगया। मगर बर्तनों का अंबार साफ़ करने से तो नजात मिली गई... ये सौदा क्या बुरा है?”

    चंद दिनों के बाद उसकी उंगली का ज़ख़्म ठीक हो गया। अब फिर काम की वही भरमार थी। पंद्रह बीस रोज़ गधों की सी मशक़्क़त में गुज़र गए। इस अ’र्सा में क़ासिम ने बारहा इरादा किया कि चाक़ू से फिर उंगली ज़ख़्मी करले। मगर अब मेज़ पर से वो चाक़ू उठा लिया गया था और बावर्चीख़ाने वाली छुरी कुंद थी।

    एक रोज़ बावर्ची बीमार पड़ गया। अब क़ासिम को हर वक़्त बावर्चीख़ाने में रहना पड़ा। कभी मिर्चें पीसता, कभी आटा गूँधता, कभी कोयले सुलगाता, ग़रज़ सुबह से लेकर शाम तक उसके कानों में “अबे क़ासिम ये कर! अबे क़ासिम वो कर!” की सदा गूंजती रहती।

    बावर्ची दो रोज़ तक आया... क़ासिम की नन्ही सी जान और हिम्मत जवाब दे गई। मगर सिवाए काम के और चारा ही क्या था।

    एक रोज़ इंस्पेक्टर साहब ने उसे अलमारी साफ़ करने को कहा जिसमें अदवियात की शीशियां और मुख़्तलिफ़ चीज़ें पड़ी थीं। अलमारी साफ़ करते वक़्त उसे दाढ़ी मूंडने का एक ब्लेड नज़र आया। ब्लेड पकड़ते ही उसने अपनी उंगली पर फेर लिया। धार थी बहुत तेज़ उंगली में दूर तक चली गई। जिस से बहुत बड़ा ज़ख़्म बन गया।

    क़ासिम ने बहुत कोशिश की कि ख़ून निकलना बंद हो जाये मगर ज़ख़्म का मुँह बड़ा था। सेरों ख़ून पानी की तरह बह गया। ये देख कर क़ासिम का रंग काग़ज़ की मानिंद सपैद हो गया। भागा हुआ इंस्पेक्टर साहब की बीवी के पास गया...

    “बीबी जी, मेरी उंगली में साहब का उस्तरा लग गया है।”

    जब इंस्पेक्टर साहब की बीवी ने क़ासिम की उंगली को तीसरी मर्तबा ज़ख़्मी देखा तो फ़ौरन मुआ’मले को समझ गई। चुपचाप उठी और कपड़ा निकाल कर उसकी उंगली पर बांध दिया और कहा, “क़ासिम! अब तुम हमारे घर में नहीं रह सकते।”

    “क्यों बीबी जी।”

    “ये साहब से पूछना।”

    साहब का नाम सुनते ही क़ासिम का रंग और पीला पड़ गया।

    चार बजे के क़रीब इंस्पेक्टर साहब दफ़्तर से लौटे और अपनी बीवी से क़ासिम की नई हरकत सुन कर उसे फ़ौरन अपने पास बुलाया।

    “क्यों मियां, ये उंगली हर रोज़ ज़ख़्मी करने के क्या मा’नी?”

    क़ासिम ख़ामोश खड़ा रहा।

    “तुम नौकर लोग ये समझते हो कि हम अंधे हैं और हमें बार बार धोका दिया जा सकता है। अपना बोरिया बिस्तर दबा कर नाक की सीध में यहां से भाग जाओ। हमें तुम जैसे नौकरों की ज़रूरत नहीं है, समझे!”

    “मगर... मगर साहब।”

    “साहब का बच्चा... भाग जा यहां से, तेरी बक़ाया तनख़्वाह का एक पैसा भी नहीं दिया जाएगा। अब मैं और कुछ नहीं सुनना चाहता।”

    क़ासिम को अफ़सोस हुआ बल्कि उसे ख़ुशी महसूस हुई कि चलो काम से कुछ देर के लिए छुट्टी मिल गई। घर से निकल वो अपनी ज़ख़्मी उंगली से बेपर्वा सीधा चौपाटी पहुंचा और वहां साहिल के पास एक बेंच पर लेट गया और ख़ूब सोया।

    चंद दिनों के बाद उसकी उंगली का ज़ख़्म बद एहतियाती के बाइ’स सेप्टिक हो गया। सारा हाथ सूज गया। जिस दोस्त के पास वो ठहरा था उसने अपनी दानिस्त के मुताबिक़ उसका बेहतर ईलाज किया मगर तकलीफ़ बढ़ती गई। आख़िर क़ासिम ख़ैराती हस्पताल में दाख़िल हो गया। जहां उसका हाथ काट दिया गया।

    अब जब कभी क़ासिम अपना कटा हुआ टूंड मुंड हाथ बढ़ा कर फ्लोरा फाउंटेन के पास लोगों से भीक मांगता है तो उसे वो ब्लेड याद आजाता है जिसने उसे बहुत बड़ी मुसीबत से नजात दिलाई। अब वो जिस वक़्त चाहे सर के नीचे अपनी गुदड़ी रख कर फुटपाथ पर सो सकता है। उसके पास टीन का एक छोटा सा भभका है जिसको कभी नहीं मांझता, इसलिए कि उसे इंस्पेक्टर साहब के घर के वो बर्तन याद जाते हैं जो कभी ख़त्म होने में नहीं आते थे।

    स्रोत:

    دھواں

      • प्रकाशन वर्ष: 1941

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