Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

ताई जी

MORE BYआसिफ़ इज़हार अली

    हिन्दुस्तान की आज़ादी का बिगुल बज चुका था। दुनिया के नक़्शे पर पाकिस्तान ने जन्म लिया तो था लेकिन उसके वुजूद में आते ही फ़सादात की एक ऐसी आग भड़क उठी थी जिस ने मुल्क के तमाम लीडरान की नींद हराम करके रख दी थी। हिन्दू-ओ-पाक की सरहद लहू के दरिया से खींची जा रही थी। इतनी वहशत, इतनी र्बबादी और इस क़दर मार काट कि इंसानियत लरज़ उठी। मज़हबी जुनून का मारा इंसान दरिंदगी की तमाम हुदूद पार कर चुका था। उन्हीं ख़ौफ़नाक दिनों में अली बाक़र अपने दोस्त ठाकुर विजय पाल सिंह के घर बुख़ार में पड़े तप रहे थे। अली बाक़र उसी शह्​र में सरकारी मुलाज़िम थे। बीवी बच्चे मेरठ में रहते थे। सरकारी क्वार्टर नहीं मिला हुआ था, लेकिन तीन चार दिनों पहले वो बीमार हुए तो विजय सिंह उन्हें अपने घर ले आए। अली बाक़र और विजय सिंह की दोस्ती बहुत पुरानी थी। दोनों साथ साथ पले बढ़े थे। उन की उस बे-मिसाल दोस्ती को सारा मोहल्ला अच्छी तरह जानता था। वो अक्सर विजय सिंह के घर आते बल्कि खाना तो उन्हें विजय सिंह के साथ ही खाना पड़ता वरना भाभी रूप कौर ख़फ़ा हो जातीं। भाभी के हाथ की पकी गर्म मकई की रोटी चने और सरसों का साग अली बाक़र को बहुत पसन्द था। खाना खा कर दोनों दोस्त बाहर बैठक में निकल जाते और फिर घण्टों शेर-ओ-अदब की बातें होतीं। मुल्क के सियासी हालात पर बहस होती। हिन्दुस्तान अफरा-तफरी में तो था ही। अंग्रेज़ मुल्क के टुकड़े करके ही वतन से बाहर जाएँगे। इसका अन्दाज़ा भी था लेकिन हालात इतने संग़ीन हो जाएंगे यह तो सोचने वाले शायद बहुत कम लोग थे। वरना अली बाक़र भी चार रोज़ पहले अपने घर मेरठ चले गए होते लेकिन अब तो वो फँस चुके थे। दो दिन से शह्​र में क़त्ल-ओ-ग़ारत-गरी का बाज़ार गर्म था। झगड़ा शुरू’ होने से पहले ही ठाकुर विजय सिंह जल्द आने का वा’दा करके किसी ज़रूरी काम से अपने गाँव चले गए थे। घर में उनकी बूढ़ी माँ, बीवी और दो बच्चे थे और एक बीमार अली बाक़र। यह पूरा मोहल्ला सिर्फ़ हिन्दुओं का था। ज़ियादा तर लोगों को मा’लूम था कि अली बाक़र विजय सिंह के घर में मौजूद है, रात ग्यारह बजे के क़रीब चारों तरफ़ से शोर-ओ-ग़ुल की आवाज़ें बुलन्द होने लगीं। लोग हाथों में जलती मशालें लिए जय बजरंग बली और हर हर महादेव के नारे लगाते जुलूस की शक्ल में मोहल्ले के बाहर जाने की तय्यारी कर रहे थे। जुलूस ठाकुर विजय सिंह के घर के क़रीब पहुँचा तो किसी ने ज़ोर से कहा पहले उसे मारो। विलय सिंह के घर मुसलमान छिपा है। आँखों-आँखों में इशारे हुऐ कुछ लोगों ने रोकना चाहा मगर हुजूम के आगे किसी की चली। हाथों में बल्लम और चाकु सभाँले लोगों की एक फौज ने विजय सिंह के घर पर धावा बोल दिया।

    “दरवाज़ा खोलो विजय सिंह, आज एक-एक से हिसाब लेंगे। बाक़र को बाहर निकालो...” दरवाज़ा खोलो... नहीं तो दरवाज़ा तोड़ डालेंगे।

    अली बाक़र ज़र्द पत्ते की तरह लरज़ रहे थे। मौत बन्द दरवाज़े के पीछे खड़ी थी। रूप कौर की समझ में नहीं रहा था कि वो क्या करे। क्या लोग मेरे ही घर में मेरे ही सामने मार डालेंगे देवर जी को नहीं ऐसा मैं हरग़िज़ नही होने दूँगी मैं इस दोस्ती पर आँच नही आने दे सकती। ठकुराइन हूँ मैं भी और ठकुराइन रूप कौर ने चारे के ढेर में रखा हुआ गंडासा उठा लिया। भगवान का नाम लिया और दरवाज़ा खोल कर तन कर बीच दरवाज़े पर खड़ी हो गई।

    लम्बी चौड़ी जाट औरत हाथ में गंडासा थामे चण्डी देवी का रूप नज़र रही थी। कौन है? कौन कहता है अली बाक़र को बाहर निकालने को... सामने आए...

    हम कहते है। इन मुसलमानों ने हमारे देश के टुकड़े करवा दिए। हम उन्हें मुआ’फ़ नहीं कर सकते। पाकिस्तान बन चुका है। अब जाएँ यह पाकिस्तान। क्यों छिपे बैठे हैं हमारे मुल्क में।

    अली बाक़र भाई है मेरा... ये वतन छोड़ कर नहीं जाएगा।

    कैसे नहीं जाएगा भाभी... हम तो उसे अभी परलोक पहुँचा देते हैं। ग़ुस्से में पागल नौजवान चिल्ला उठे।

    तो ठीक है। यह लो गंडासा... और पहले मुझे ख़त्म कर दो।

    तुम रास्ते से हट जाओ भाभी।

    नहीं। मैंने उसे राखी बाँधी है। मैं अपने भाई को तुम जानवरों के हवाले नहीं कर सकती, पहले मुझे मारो। मारो डरते क्यों हो। शर्म नहीं आएगी तुम्हें एक बीमार निहत्ते पर हाथ उठाते हुए।

    भाभी... हमारे सीने में आग लगी है। आग तो उसके सीने में भी लगी।

    उसका भी मुल्क है ये। उसके मुल्क का भी बँटवारा हुआ है। आज़ाद हिन्दुस्तान में तुम्हारी तरह उसे भी जीने का हक़ है और कान खोल कर सुन लो अली बाक़र तक मेरी लाश से गुज़र कर ही पहुँचोगे तुम। यह कहते-कहते रूप कौर ने गंडासा उठा कर अपने ऊपर वार करना चाहा।

    नहीं भाभी। एक लड़के ने आगे बढ़ कर उन का हाथ पकड़ लिया। यह मत करो। मगर हाँ उस मुसलमान को अपने घर से जल्द ही निकाल दो वरना अच्छा नहीं होगा। यह वो लोग थे जो अली बाक़र के साथ हँस-हँस कर बातें किया करते थे। बहस किया करते थे। एक ही रात में गिरगिट की तरह रंग बदल लिया था उन्होंने।

    मजमा वापस लौट गया। अली बाक़र के कमज़ोर हाथ दुआ के लिऐ उठे हुए थे और आँखों में एहसान-मंदी के आँसू छलक आए थे। ठाकुर विजय सिंह दूसरे दिन वापस लौट आए। उन्होंने सड़कों पर, रेल गाड़ियों और बसों में जो वहशत-नाक मनाज़िर देखे थे। उन्होंने आँखों में शदीद कर्ब और बेचैनी पैदा कर दी थी। विजय सिंह ने फौज़ की गाड़ी में रातों रात अली बाक़र को उनके बच्चों के पास मेरठ पहुँचवाया।

    लोग धड़ाधड़ पाकिस्तान जा रहे थे। रेलवे स्टेशनों पर स्पेशल गाड़ियाँ मुसाफिरों से अटी पड़ी थीं। चेहरो के रंग उड़ गए थे। अली बाक़र के ज़ियादा-तर रिश्तेदार पाकिस्तान जा चुके थे। मगर अली बाक़र किसी क़ीमत पर वतन छोड़ने को तय्यार थे। यह उन का अपना वतन है। इस मिट्टी से उनका जन्म-जन्म का नाता है। उससे बिछड़ कर वो भला कैसे जिंदा रहेंगे। यह सिर्फ़ वक़्ती जुनून है वरना विजय सिंह जैसे लोगों की मुल्क़ में कमी नहीं।

    लिहाज़ा वो पाकिस्तान नहीं गए। अलबत्ता बम्बई जाकर ज़रूर बस गए थे। बिज़नेस अच्छा चल निकला बच्चे पढ़ लिख कर जवान हुए। अली बाक़र और कोई नहीं मेरे अपने वालिद हैं। ठाकुर विजय सिंह का एहसान हमारा ख़ानदान कभी नहीं भूला। अब्बा ने पच्चीस साल पहले बिज़नेस के लिए बम्बई आने का फैसला किया तो ताया विजय सिंह भी हमारे साथ ही बम्बई गए और बिज़नेस में अब्बा का हाथ बटाने लगे। वो हमारे घर के ही एक फ़र्द बन चुके थे। हम बच्चों के लिए वो एक चलती फिरती मिठाई की दुकान थे। घर में घुसते तो हमेशा मिठाई के डब्बे। टाफ़ियाँ और फलों से लदे फंदे होते। हम चारों तरफ़ से उन्हें घेर लेते और हो हो करके वो भारी भर कम क़हक़हे लगाया करते। उन्हें उर्दु और फ़ारसी बहुत अच्छी आती थी शेर-ओ-अदब का जौक़ ताया जी ने ही मुझे में पैदा किया। मगर ताई जी हमें बिल्कुल याद नहीं थीं बस ज़िक्‍र ही सुना करते थे। कभी अम्माँ से कभी अब्बा से और कभी ताया जी से। ताया जी बम्बई में होते तो उनका ख़ूब ज़िक्‍र किया करते। तेरी ताई जी ऐसा करती हैं। तेरी ताई जी वैसा करती हैं। बड़ी बहादुर हैं तेरी ताई जी। अकेली रहती हैं। कचौड़ियाँ और गुलाब जामुन बड़े बढ़िया बनाती हैं तेरी ताई जी। एक ख़याली ख़ाका बचपन से ताई जी का हमारे ज़ेहन में बन गया था। वो यूपी के मुज़फ़्फ़र नगर शह्​र में अपने बच्चों के साथ रहती थीं। ताया जी चन्द रोज़ के लिए तीसरे चौथे महीने वहाँ चले जाया करते लेकिन एक बार वो गए तो फिर बम्बई लौट कर ना सके किसी बीमारी ने ऐसा दबोचा कि जाँबर हुए। ताई जी बिल्कुल अकेली रह गईं और आज एक मुद्दत के बा’द वही ताई जी बम्बई रही थीं। एक तो अब्बा अम्माँ का बहुत इस्‍रार था दूसरे उनके बेटे सुंदर को भी बम्बई में कोई ज़रूरी काम निकल आया था। ताई जी के आने की ख़बर से पूरा घर जैसे ख़ुशी के ताल पर थिरक उठा था। हमेशा ख़ामोशी और संजीदगी से घर के काम में मसरूफ़ रहने वाली अम्माँ के दूधिया दाँत बार-बार अपनी छलक दिखा कर घर में उजाला बिखेरने लगे अब्बा की आँखों से भी ख़ुशी की किरनें फूट रही थीं। नीतू गेस्ट रूम की सफाई में जुटा पड़ा था।

    ताई जी को लेने हम सब स्टेशन पहुँचे। लम्बी चौड़ी। गोरी चिट्टी। सीधे पल्लु की सफ़ेद साड़ी बाँधे साठ पैंसठ साल की एक ख़ातून डब्बे से उतरीं तो अम्माँ भाभी जी कह कर उन से लिपट गईं। उन्होंने नाज़ुक सी अम्माँ को नन्हीं बच्ची की तरह आग़ोश में समेट लिया। दोनों की आँखें भीग रही थीं। अब्बा को भी शायद ताया जी की याद आई थी वो उदास नज़र रहे थे। ताई जी ने उनके सर पर भी हाथ फेरा। हमें लिपटाया और हम सब घर लौट आए। ताई जी के साथ उन का बड़ा बेटा सुंदर भी था। सुंदर तो ताई जी की तरह दिल खोल कर हम से मिला था और ही हमारे साथ ख़ुश नज़र आता था। गुमसुम। अपने ही ख़यालात में खोया हुआ। कभी-कभी वो सुब्ह से शाम तक घर से ग़ायब रहता। वो एक दो बार शिव सेना के आॅफ़िस के क़रीब भी नज़र आया था मुझे। मगर मैंने इसे इत्तिफ़ाक़ ही समझा। ताई जी एक हफ़्ते के लिए आई थीं। एक हफ़्ता तक हमारे घर में गोश्त नहीं पका। कभी दाल कभी सब्ज़ी, दही और पूरी, कभी ताई जी के हाथ की लज़ीज़ कचौड़ियाँ। कभी गुलाब जामुन और बेसन के लड्डू और मटरी। हम सब बहुत ख़ुश थे एक हफ़्ता के बा’द ताई जी मुझसे दिसम्बर की छुट्टियों में आने का वा’दा लेकर मुज़फ़्फ़र नगर लौट गए।

    ताई जी के ख़ुतूत बराबर आते रहे। हर ख़त में वो हमें बुलाने का इस्‍रार करतीं इत्तिफ़ाक़ से दिसम्बर में मेरा वहाँ जाने का प्रोग्राम भी बन गया। एक इंटरव्यू देने जाना था। अब्बा की ताकीद थी कि ताई जी के घर ही ठहरूँ लेकिन यहाँ आकर एहसास हुआ कि फिरका-परस्ती पूरे यूपी में शिद्दत के साथ फैली हुई है लोग एक दूसरे को शक की निगाह से देख रहे हैं। जगह-जगह जलसे हो रहे हैं। जुलुस निकाले जा रहे हैं मुझे वहशत सी हुई।

    ये सब क्या हंगामा है ताई जी?

    कुछ नहीं बेटा। वोट की राजनीति है। सब ठीक हो जाएगा।

    सुन्दर के रंग-ढंग इस बार मुझे कुछ और पुर-अस्‍रार लगे। उसने कभी मुस्कुरा कर मुझसे बात नहीं की। ख़फ़ा-ख़फ़ा सा रहा। घर में तो वो रहता ही नहीं था। अक्सर देर रात गए हाथ में कुछ पैकेट संभाले अन्दर आता और तेज़ी से अपने कमरे में जा कर कमरा तय्यार कर लेता। खाना भी बहुत कम घर में खाता था। ताई जी परेशान थीं। उन्हें अन्दाज़ा हो गया था कि फ़िरक़ा-परस्ती का ज़हर सुन्दर घोंट-घोंट कर पी रहा है। अक्सर वो उसे रोकतीं बाहर जाने से मना करतीं लेकिन वो हिक़ारत से मेरी जानिब देखता। सुर्ख़-सुर्ख़ आँखें माँ पर डालता और तेज़ी से बाहर निकल जाता।

    मैं बम्बई वापस जाने वाला था। हालात ठीक नहीं थे। कब क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता था। रेडियो, टी.वी. पर बार-बार गर्मा-गर्म ख़बरें नश्‍र हो रही थीं। अक्सर रात को थालियाँ पिटने, शंख बजने और ज़ोर-ज़ोर से नारे लगने की आवाज़ें आतीं मैं ताई जी से वापस जाने की इजाज़त ले चुका था। काफ़ी रात में सुन्दर घर आया तो उस से मुलाकात की गरज़ से मैं उसके कमरे की तरफ़ गया। मुझे देखते ही उसने कुछ कागज़ात छिपाने की कोशिश की। मैंने उसे बताया कि मैं कल सुब्ह वापस जा रहा हूँ और अलविदा कह कर चला आया। रात के पिछले पहर किसी शोर से मेरी आँखें खुलीं, मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा बाहर आँगन की तरफ़ भागा। वहाँ एक अजीब ही मंज़र नज़र आया, ताई जी सद्​र दरवाज़े पर हाथ में पिस्तौल लिए चण्डी के रूप में ख़ड़ी थीं। सहन में वो काला सन्दूक़ खुला पड़ा था। जो कल शाम सुन्दर अपने साथ कहीं से लाया था। सन्दूक़ में तरह-तरह के हथियार, लोहे के बड़े-बड़े त्रिशूल और छोटे-छोटे कई बम रखे थे। यह समझते देर लगी कि सुन्दर किसी फ़िरक़ा-परस्त जमात का सरगर्म रुक्न था जिसके ज़िम्मे हथियार जमा करना और लोगों तक पहुँचाना था।

    देखा असद, ताई जी मुझे देखते ही दर्द भरी आवाज़ में बोलीं। देख रहे हो तुम... यह मेरा अपना ख़ून है, उस औरत का ख़ून जिस ने अपनी जान पे खेल कर तेरे बाप की हिफ़ाज़त की थी और यह पापी बेगुनाहों के ख़ून से हाथ रंगना चाहता है। कल रात जब यह बक्सा लेकर आया था तभी मुझे शक हुआ था और अब यह चोरों की तरह सामान लेकर घर से निकल रहा था। मैं इसे कैसे जाने देती भला।

    अम्माँ...! मुझे जाने दे। मेरा आज जाना बहुत ज़रूरी है। सुन्दर ने ताई जी के हाथ से पिस्तौल झपटने की नाकाम कोशिश की।

    नहीं सुन्दर। अब तू मेरे जीते जी ये सामान लेकर कहीं नहीं जा सकता। मैं तुझे इस क़ाबिल ही नहीं छोड़ूँगी, मेरे हाथ में यह भरा हुआ पिस्तौल है। आज या तो तू नहीं या मैं नहीं। देशद्रोही है तू। तुझ जैसे लोग ही देश के टुकड़े करवाते हैं।

    आँगन में फैली चाँदनी और बल्ब की ज़र्द रौशनी में ताई जी का पुर-अ’ज़्म चेहरा कुन्दन की तरह दमक रहा था। यह उस बची खुची नस्ल का चेहरा था जो सचमुच वतन को आज़ाद और ख़ुशहाल देखना चाहती है।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए