तांतिया
कर्फ़यू की रात थी। पतझड़ की तेज़ हवाएं सिसकियाँ भर रही थीं। वीरान गलियों में कुत्ते रो रहे थे। कैसा नवा होटल ख़ामोशी में ऊँघता हुआ नज़र आरहा था। रक़्सगाह के हंगामे सर्द थे। जाम मुँह औंधाए पड़े थे। बावर्चीख़ाने की चिमनी से न धुआँ निकल रहा था, न चिनगारियां उड़ रही थी। बाहर गली में खुलने वाली बावर्चीख़ाने की खिड़की भी बंद थी। तांतिया दीवार की ओट में ख़ामोश बैठा था।
जब बाज़ारों की चहल-पहल उजड़ जाती और रात गहरी हो जाती तो तांतिया इस तंग-ओ-तारीक गली में दाख़िल होता। धुंए में उलझी हुई बावर्चीख़ाने की फीकी फीकी रोशनी देखता और खिड़की पर उभरने वाले इन्सानी साये का इंतिज़ार करता लेकिन जब देर तक कोई नज़र न आता तो वो झुँझला कर चिल्लाने लगता।
अबे क्या अपने बाप को भूल गए। सालो! ये इंतिज़ारी कब तक होगी? बावर्चीख़ाने में बैरे ठट्ठा मारकर हंसते, ख़ानसामां खिड़की से गर्दन निकाल कर कहता, अरे मरा क्यों जाता है, कोई मेज़ तो ख़ाली होने दे। तांतिया मुतमइन हो जाता। झूम कर नारा लगाता,
वाह क्या बात है तेरी। जियो मेरे राजा।
बूढ़े ख़ानसामां को राजा कहलवाने का अरमान था या कोई जज़्बा-ए-हमदर्दी, या महज़ एहसास-ए-बरतरी कि ख़ानसामां को बराबर ये ख़याल सताता रहता कि बाहर अंधेरे में तांतिया बैठा है, सर्दी बढ़ती जा रही है, उसके उलझे हुए मटियाले बाल ओस में भीगते जा रहे हैं, उस की भूकी आँखें खिड़की की तरफ़ लगी हैं। वो विलाएती शराब की तेज़ महक पर जान देता है। उसकी तल्ख़ी उसे मर्ग़ूब है। ख़ानसामां अपने काम में उलझा रहता, बैरे मुस्तइदी से आकर आर्डर पर आर्डर सुनाते और ख़ानसामां को तांतिया का ख़याल सताता रहता। रक़्स गाह में क़हक़हे खनकते रहते, जाम टकराते रहते, ऑर्केस्ट्रा के नग़मे थरथराते रहते फिर कोई मेज़ ख़ाली होती, फिर कोई बैरा झूटी प्लेटों में बचा खुचा खाना लेकर आता, किसी गिलास में बची हुई शराब लेकर आता। ख़ानसामां बचे खुचे खाने को एक प्लेट में उंडेल कर ज़रा क़रीने से लगाता और उस पर गिलास की झूटी शराब छिड़क देता, आगे बढ़ता और खिड़की पर जाकर खड़ा हो जाता, तांतिया उसे देखते ही बे-ताबी से झपटता, लेकिन ख़ानसामाँ पीछे हट कर तांतिया की बेसब्री से लुत्फ़ उठाता, साले इतनी जल्दी, बेटा असली शराब पड़ी है, यूं थोड़ी मिलेगी। तांतिया की गुरसना आँखें चमकने लगतीं, होंट फड़फड़ाने लगते और बिखरी हुई मूँछें दाँतों से उलझने लगतीं। वो ख़ुशामद करने लगता।
अरे क्यों जला रहे हो, पेट में आग लग रही है।
ख़ान सामाँ को मअन बैरों के सुनाए हुए आर्डर याद आजाते, मैनेजर की डाँट-डपट याद आ जाती, वो जल्दी से हाथ बाहर निकालता और प्लेट तांतिया के हाथ में थमा देता, तांतिया प्लेट लेकर फ़ौरन दोनों एड़ियां जोड़ता और एक हाथ उठा कर ख़ालिस फ़ौजी अंदाज़ से स्लयूट करता, मज़े ले-ले कर हर चीज़ खाता, पास खड़े हुए आवारा कुत्तों को धुतकारता। ख़ानसामां को ज़ोर ज़ोर से गालियां देता और ख़ानसामां बेवक़ूफ़ों की तरह हँसता रहता। शायद उसे गालियां खाने का भी अरमान था।
लेकिन आज खिड़की बंद थी। तांतिया चिल्लाया भी, ख़ुशामद भी की और गालियां भी दीं। बूढ़े ख़ानसामां को न राजा कहलवाने का अरमान पैदा हुआ, न रग-ए-हम्ददर्दी फड़की, न एहसास-ए-बरतरी ने सताया और न गालियों पर उसे हंसी आई। चंद घबराए हुए बैरों के साथ वो भी बावर्चीख़ाने में सहमा हुआ बैठा रहा।
खिड़की खुल न सकी। तांतिया ने मायूस हो कर अंधेरे में गली के फ़र्श को दोनों हाथों से टटोलना शुरू कर दिया। सूखे हुए टोस्टों के कुछ टुकड़े उसे मिल गए। उसने टुकड़ों को मुँह में भर कर चबाना शुरू कर दिया। बासी मक्खन के खट्टेपन पर उसे शराब की तल्ख़ी याद आरही थी, नज़दीक ही एक मरियल कुत्ता मज़े से हड्डी चिचोड़ रहा था। तांतिया को उसके इस तरह हड्डी चिचोड़ने पर उलझन होने लगी। उसने जल कर उसके एक लात जमा दी। यहां तो बैठे तरस रहे हैं और ये साले मौज उड़ा रहे हैं। कुत्ता चीख़ता हुआ भागा और उसकी चीख़ें फ़लक-बोस इमारतों से टकरा कर गली की गहराइयों में गूँजने लगीं।
गली के नुक्कड़ पर लैम्पपोस्ट की बत्ती जल रही थी। उसकी धुँदली रोशनी में पुलिस वालों के साये नज़र आए। वो गश्त पर निकले थे। अचानक किसी ने चीख़ कर पूछा, कौन है गली में? साथ ही टार्च की तेज़ रोशनी तांतिया के जिस्म पर पड़ी। वो बदहवास हो कर दूसरी सिम्त भागा। बंदूक़ चलने की तेज़ आवाज़ ख़ामोशी में उभरी। गोली तांतिया के पैर के पास से छीलती हुई गुज़र गई। वो दीवारों के अंधेरे में दहकता हुआ उस सड़क पर आगया जो कुशादा भी थी और रोशन भी।
तांतिया घबरा कर एक कोठी के खुले हुए फाटक में दाख़िल हो गया। उसने लॉन उबूर किया और बैरूनी बरामदे में पहुंच गया, सब दरवाज़े बंद थे, मगर कोने वाले कमरे की खिड़की खुली रह गई थी, वो उस पर चढ़ कर अंदर कूद गया और झट खिड़की बंद कर दी।
जब पुलिस वालों के भारी, भारी बूटों की आवाज़ें दूर हो गईं और सड़क पर सन्नाटा छा गया तो वो सँभल कर खड़ा हो गया। कमरे में अंधेरा छाया था। रोशनदान से रोशनी की हल्की हल्की शुआएं फूट रही थीं। उसने देखा दीवार के पास एक लंबी मेज़ थी। उस पर कुछ किताबें बिखरी हुई थीं, कुछ काग़ज़ात फैले हुए थे। सिगरेट का एक डिब्बा भी मौजूद था, कमरा ख़ाली था, वहां कोई न था। कोठी के दूसरे हिस्से में भी न कोई आहट थी और न आवाज़। ख़ामोशी बहुत गहरी थी, वो मेज़ के पास चला गया। सिगरेट का डिब्बा उठा कर खोला, सिर्फ़ एक सिगरेट निकाली और फिर उसी तरह मेज़ पर रख दिया। मगर उसने सिगरेट सुलगाई नहीं, बल्कि बराबर वाले कमरे का दरवाज़ा खोल कर झाँकने लगा। वहां भी कोई नज़र न आया। वो कमरे में चला गया। उस कमरे में भी धुँदली रोशनी थी। फ़र्श पर पुराने अख़बारात बिखरे हुए थे। दीवार के पास दो ख़ाली पलंग पड़े थे। सामने खूँटी पर एक पुराना गाउन लटक रहा था। तांतिया ने उसको छू कर देखा। गाउन ऊनी कपड़े का बना हुआ था। तांतिया को सर्दी का एहसास शिद्दत से होने लगा। उसने गाउन उतारा और उसे पहन लिया। टहलता हुआ दूसरे कमरे में इस तरह चला गया जैसे ख़्वाब में चल रहा हो। उस कमरे में रोशनी थी। वो आहिस्ता-आहिस्ता पुकारने लगा,
अरे कोई है यहां?
कोई है यहां?
कोई है?
तीनों मर्तबा उसकी आवाज़ दीवारों से टकरा कर ख़ामोशी में डूब गई। वो खोया, खोया सा आगे बढ़ा और एक सोफ़े पर जा कर नीम दराज़ हो गया। इस तमाम अर्से में पहली बार उसे थकान महसूस हुई। उसका जिस्म सर्दी से थरथरा रहा था। उसने सोचा कि भूक से ज़्यादा उसे आराम की ज़रूरत है। वो ख़्वाबीदा नज़रों से आतिशदान पर रखे हुए धात के मुजस्समे को देखने लगा। मुजस्समा उसे अपनी तरह तन्हा और ऊँघता हुआ मालूम हुआ।
वो उठकर आतिशदान के पास गया, मुजस्समे को उठाया और फिर इस तरह घबरा गया जैसे वो कोई पुर असरार ताक़त थी जो धात में सिमट कर मुंजमिद हो गई थी। जैसे वो सदियों से भटका हुआ कोई राही था जो निढाल हो कर ठहर गया था। तांतिया ने चौकन्ना नज़रों से हर तरफ़ देखा, कमरे में हल्की हल्की रोशनी थी। दीवारों का सब्ज़ रंग बड़ा ख़्वाबनाक़ मालूम हो रहा था। ख़ामोशी बहुत गहरी थी और तांतिया का जिस्म सर्दी से थरथरा रहा था। उसे आराम की ज़रूरत थी। मगर उसने आराम न किया। दरवाज़ा खोल कर दूसरे कमरे में घुस गया। ये कमरा भी ख़ाली था। उसमें भी अंधेरा था। बाहर से आनेवाली रोशनी को खिड़की पर पड़े हुए पर्दे ने रोक रखा था। तांतिया ने अंधेरे से वहशतज़दा हो कर पर्दे पर हाथ मारा और उसे नोच कर फेंक दिया। रोशनी अचानक कमरे में फैल गई। तांतिया मुस्कुराने लगा। उस कमरे में कोई पलंग न था और फ़र्श बहुत ठंडा था। तांतिया के ब्रह्ना पैरों के तलवे सनसनाने लगे।
सामने दीवार से लगी हुई दो अलमारियां थीं। उसने एक को खोला। अलमारी में मैले कपड़े भरे थे। उसने झुँझला कर कपड़ों को उठाया और बाहर फेंक दिया। फिर अलमारी को इत्मिनान बख़्श नज़रों से देखने लगा। अलमारी इतनी कुशादा थी कि वो उस में दुबक कर सो सकता था। मगर उसने ऐसा किया नहीं। उसका जी चाहा कि एक-बार फिर सब कमरों में जाये। उसने अलमारी बंद कर दी। दरवाज़े के एक पट में आईना आवेज़ां था। अलमारी का दरवाज़ा बंद करते ही आईना सामने आगया। उसने अपना अक्स देखा, उलझे हुए मटियाले बाल, बिखरी हुई घनी मूँछें, गंदी बे-तर्तीब डाढ़ी और इस धुँदले, धुँदले चेहरे पर छाई हुई वीरानी। उसने ख़ुद को पहचान कर भी पहचानने से इनकार कर दिया। नागवारी से धात का मुजस्समा उठाया और आईने पर दे मारा। आईना एक छनाके से टूट कर टुकड़े टुकड़े हो गया और अलमारी के पीछे से चौदह पंद्रह बरस की एक कमसिन सी लड़की चीख़ कर बाहर आगई।
तांतिया ने ख़ौफ़ज़दा हो कर कहा, कौन है री तू?
लड़की घबराए हुए लहजे में बोली, मैं निम्मो हूँ।
तांतिया की सरासीमगी जाती रही। उसे ख़ुद पर ग़ुस्सा आया कि वो इस कमज़ोर लड़की से डर क्यों गया। झुँझला कर चीख़ा,
हरामज़ादी! तू यहां क्या कर रही थी?
लड़की सहमी हुई थी। उसने झीजकते हुए कहा, मैं तो डर कर यहां छुप गई थी।
तांतिया पूछने लगा, तू यहां अकेली ही है और कोई नहीं?
लड़की ने बताया, डाक्टर साब शाम ही को चले गए। मैंने कहा मुझे भी अपने साथ मोटर में लेते चलो। लेकिन वो मुझे अपने साथ नहीं ले गए। वो मुझे अपने साथ ले भी कैसे जाते। हवाई जहाज़ में दो ही आदमियों की तो जगह थी। ये बताते बताते लड़की के चेहरे पर बच्चों की सी मासूमियत छा गई। वो भी चले गए, बीबी जी को भी लेते गए और बाबा को भी ले गए।
लड़की उदास हो गई।
तांतिया ने पूछा, ये बाबा कौन था?
लड़की का चेहरा निखर गया। उदासी का ग़ुबार छट गया, चहक कर बोली, उनका नन्हा, बहुत भोला भाला था। बड़ा प्यारा सा, बिल्कुल रबड़ का सा लगता था, आओ तुमको भी दिखा दूं। वो बराबर वाले कमरे की तरफ़ मुड़ गई। तांतिया ख़ामोशी से उसके पीछे पीछे चलने लगा। लड़की ने कमरे में दाख़िल हो कर दीवार पर लगी हुई एक ख़ूबसूरत बच्चे की तस्वीर दिखाई, जो एक लुढ़कती हुई गेंद के पीछे भाग रहा था। उसके चेहरे पर हंसी की धूप थी और हाथ फैले हुए थे।
लड़की कहने लगी,देखो! कितना प्यार है!
तांतिया सोचने लगा कि बच्चा जिस गेंद पर लपक रहा है वो गेंद नहीं निम्मो है। निम्मो जो अब उसे नहीं मिल सकती। निम्मो जो उसके लिए उदास है। लेकिन बच्चा हंस रहा था। वो क्यों उदास हो। उसको कोई और निम्मो मिल जाएगी। तांतिया ने सोचते सोचते ग़ज़बनाक हो कर हाथ बढ़ाया, तस्वीर एक झटके से खींची और फ़र्श पर पटक दी।
लड़की ख़ौफ़ज़दा हो कर बोली, ये क्या किया तुमने?
तांतिया कहने लगा,तू बिल्कुल उल्लू की पट्ठी है। ये भी तो उसी डाक्टर का बेटा है जो तुझे अकेला छोड़कर चला गया। लड़की की समझ में कुछ नहीं आया। उसने टूटी हुई तस्वीर उठाई और उसे गुहर नज़रों से देखने लगी। तांतिया सोचने लगा कि ये लड़की वाक़ई उल्लू की पट्ठी है और इसका अपना जिस्म सर्दी से थरथरा रहा है, इसके पैर के नासूर में टीस उठ रही है। उसने निम्मो से कहा,ए लड़की! ज़रा कड़वा तेल ले आ, मैं अपने पैर के ज़ख़्म पर मलूँगा।
निम्मो उसके क़रीब आगई।
क्या हुआ तुम्हारे पैर में?
तांतिया ने बताया नासूर हो गया है।
लड़की उसके ज़ख़्म में दिलचस्पी लेने लगी, तो इसका ईलाज क्यों नहीं करवाते।
तांतिया ने बताया, बहुत ईलाज करवाया, हस्पताल में भर्ती हो गया। पर ये डाक्टर होते ही बदमाश हैं। सालों ने ईलाज तो कुछ किया नहीं, कहने लगे कि तुम अपना पैर घुटने पर से कटवा दो। नहीं तो सारी टांग सड़ जाएगी। मैं भी एक ही सयाना निकला। जिस रोज़ उन्होंने ऑप्रेशन का इंतिज़ाम किया, मैं रात ही को वार्ड की खिड़की फाँद कर भाग आया। फिर किसी डाक्टर-वाक्टर के पास नहीं गया। अपना तो कड़वे तेल से ही काम चल जाता है।
निम्मो ने झट शलवार चढ़ा कर अपनी पिंडली दिखा दी, देखो ये कितना बड़ा निशान है। मेरा तो इतना बड़ा घाव डाक्टर साब ने अच्छा कर दिया।
तांतिया सोचने लगा कि उसका अपना पैर बड़ा घिनावना है। इस पर चीथड़े लिपटे हैं। नासूर से पानी बह रहा है और निम्मो की पिंडली बहुत ख़ूबसूरत है। उस के चेहरे पर कुँवारियों का अछूतापन है, नर्मी है, जवानी की शगुफ़्तगी है। फिर निम्मो, निम्मो न रही सिर्फ़ एक लड़की, एक औरत रह गई। तांतिया सोचता रहा कि इस घर में सब कुछ उसका है। ये ख़ूबसूरत कमरा, ये नर्म नर्म सोफा, ये लहराते हुए पर्दे, ये निखरी निखरी साफ़-शफ़्फ़ाफ़ दीवारें, और ये निम्मो सिर्फ़ एक लड़की, एक औरत, और औरत को कभी उसने इतने क़रीब नहीं पाया था।
निम्मो ने तांतिया के चेहरे को देखा। उसके चेहरे की वहशत को देखा और गंदी गंदी आँखों का वो अंदाज़ जिसे देखकर वो शर्मा भी गई, घबरा भी गई। उसने झट अपनी पिंडली छुपा ली। तांतिया झुँझला कर निम्मो की तरफ़ बढ़ा वो ख़ौफ़ज़दा हो कर पीछे हटने लगी। तांतिया की झुँझलाहट बढ़ती गई। उसने झपट कर निम्मो को बे ढंगे पन से दबोच लिया। उसके लिबास को तार-तार कर दिया। उसके रुख़्सारों को चबा डाला। उसकी नर्म नर्म छातियों को, उसकी गुदाज़ बाँहों को और उसके तमाम जिस्म को दाँतों से नोचना शुरू कर दिया। निम्मो दहशतज़दा हो कर उसे देखती रही फिर चीख़ने लगी, फिर वो बेहोश हो गई।
निम्मो का ब्रहना जिस्म फ़र्श पर पड़ा था। उसके जिस्म पर जगह जगह दाँतों के निशान थे। रुख़्सार नीले पड़ गए थे और होंटों से ख़ून बह रहा था। कमरे में गहरी ख़ामोशी छाई थी, बाहर ज़मिस्तानी हवाएं सिसकियाँ भर रही थीं।
तांतिया ने निम्मो के ब्रहना जिस्म पर पुराना गाउन डाल दिया और उसके क़रीब बैठ कर सिगरेट पीने लगा।
तांतिया बैठा हुआ चुप-चाप सिगरेट पीता रहा। धुंए के पेच-ओ-ख़म लहराते रहे। कमरे में ख़ामोशी छाई थी। यकायक रात के गहरे सन्नाटे में मिली जुली इन्सानी आवाज़ों का हल्का हल्का शोर उभरने लगा। तांतिया बैठा हुआ चुप-चाप सिगरेट पीता रहा। शोर बढ़ते बढ़ते क़रीब आगया। फिर कोठी के अहाते की चारदीवारी फाँदने की आवाज़ें सुनाई देने लगीं। कोठी के बैरूनी बरामदे में क़दमों की आहटें रुक रुक कर उभरने लगीं। फिर कुछ लोग दरवाज़ा खोल कर कमरे के अंदर आगए। वो सब बलवाई थे, उनके हाथों में ख़ंजर थे। बल्लम थे और लाठीयां थीं। चेहरों पर ढाटे बंधे थे। तांतिया ने उनको देखा और इस तरह इत्मिनान से बैठा हुआ सिगरेट पीता रहा जैसे वो उनको पहले भी देख चुका था जैसे वो उनको हमेशा से जानता था।
फिर उनमें से किसी ने पूछा, अबे तू कौन है?
तांतिया।
हिंदू है या मुसलमान?
ये तो मैंने बहुत मुद्दत से सूचना छोड़ दिया कि मैं कौन हूँ? तांतिया ने बेनियाज़ी से जवाब दिया।
क्या बकता है? एक बलवाई ने बढ़कर उसके मुँह पर-ज़ोर का थप्पड़ मारा ठीक ठीक बता।
मैं झूट नहीं बोल रहा हूँ। तांतिया ने उनको मुतमइन करने की कोशिश की मगर वो मुतमइन न हुए। तांतिया के गाल पर एक और करारा थप्पड़ पड़ा। किसी ने डपट कर पूछा, सीधी तरह बताता है कि नहीं। उसने झलकता हुआ ख़ंजर उसके सामने कर दिया, इसे देखा है।
तांतिया ख़ामोशी से उठ खड़ा हो गया और अपनी मैली चीकट पतलून के बटन खोलने लगा। उन्होंने उसे हैरत से आँखें फाड़ कर देखा, ये क्या कर रहा है?
पतलून उतार रहा हूँ।
पतलून क्यों उतार रहा है?
ताकि तुम अपनी आँखों से देखकर तस्दीक़ कर लो कि मैं कौन हूँ। तांतिया ने मिस्कीन सी शक्ल बना कर कहा और ऐसी नज़रों से उनकी तरफ़ देखने लगा जैसे कह रहा हो तुमने मुझे अब तक नहीं पहचाना, फिर उन्होंने जैसे उसे पहचान लिया। अच्छा तो ये तू है! हमसे पहले ही यहां पहुंच गया। वो ठट्ठा मार कर हँसने लगे। फिर उन्होंने निम्मो की जानिब हाथ उठा कर पूछा।
ये कौन है?
तांतिया ने कहा, लड़की! और वो मुस्कुरा दिया। उसकी मुस्कुराहट में तंज़ भी था और बेबाकी भी।
वो निम्मो के जिस्म को घेरकर खड़े हो गए। किसी ने गाउन हटा दिया और हैरतज़दा हो कर कहने लगा, अरे ये तो बिल्कुल नंगी है। सब झुक कर देखने लगे।
वो झुके हुए भूकी नज़रों से उसे देखते रहे!
फिर किसी ने उनमें से कहा, अरे ये तो मर गई है। क्या देख रहे हो?
सब अलैहदा हो कर बिखर गए। निम्मो के जिस्म पर गाउन डाल दिया गया। और वो तजस्सुस अंगेज़ नज़रों से हर तरफ़ देखने लगे फिर कोई बोल उठा,
डाक्टर साला सब कुछ ले गया। अब यहां क्या धरा है। वो तांतिया की तरफ़ देखने लगे।
अबे तू यहां क्या कर रहा है। साले क्या तू भी जल कर मर जाना चाहताहै।
एक बलवाई ने तांतिया को दरवाज़े की तरफ़ ढकेल दिया, चल भाग यहांसे।
तांतिया ने घूर कर उसकी तरफ़ देखा, तो मार क्यों रहे हो। सीधी तरह क्यों नहीं कहते, मैं कोई यहां बैठा रहूंगा।
तांतिया मुड़ा और आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ कोठी से निकल कर बाहर आगया।
बाहर आकर तांतिया ने महसूस किया कि सड़क वही है। झिलमिलाती हुई रोशनियां वही हैं, सामने डाक्टर की कोठी भी वही है और ये कोठी उसकी नहीं हो सकती कमरा उसका नहीं हो सकता, नर्म नर्म सोफा उसका नहीं हो सकता, लहराते हुए पर्दे उसके नहीं हो सकते। वो सिर्फ़ तांतिया है, गाउन उसने निम्मो को ओढ़ा दिया था, धात का मुजस्समा फेंक दिया था और सिगरेट ख़त्म हो चुकी थी। देखते ही देखते डाक्टर की कोठी से धुआँ उठने लगा, शोले लाल लाल ज़बानें निकाल कर उभरने लगे। दरवाज़े चटख़ कर शोर मचाने लगे फिर कोठी के अंदर निम्मो की घुटी हुई चीख़ें सुनाई देने लगीं। तांतिया कोठी की तरफ़ पलट पड़ा, निम्मो अभी ज़िंदा थी और निम्मो उसे अभी चाहिए भी थी।
तांतिया शोलों से उलझता हुआ कोठी में घुस गया। निम्मो के पास पहुंचा। निम्मो देखते ही उससे चिमट गई। तांतिया ने उसे उठा कर अपने कंधे पर डाल लिया। वो उसे लेकर बाहर निकलने लगा। उसके चारों तरफ़ धुआँ फैला हुआ था। शोले भड़क रहे थे। लकड़ियाँ चटख़, चटख़ कर गिरतीं तो चिनगारियां दूर तक बिखर जातीं, वो शोलों के दरमियान से गुज़रता, धुंए में ठोकरें खाता हुआ बाहर आगया। उसका चेहरा झुलस गया था। डाढ़ी जल कर और ख़ौफ़नाक हो गई थी। निम्मो ने आँखें खोल कर उसे देखा। वो क़िस्से कहानियों के भूतों की तरह भयानक मालूम हुआ। उसने डर कर आँखें बंद करलीं। तांतिया उसे अपने कंधे पर उठाए हुए एक-बार फिर सड़क पर आगया और फुटपाथ पर दीवारों के किनार किनारे चलने लगा।
तांतिया दीवारों की ओट में चलता रहा। उसके चेहरे पर जलन होती रही और निम्मो बाज़ूओं से चिम्टी रही। फिर एक पुलिस लारी उसके पास आकर रुक गई। दो कांस्टेबल उतरकर नीचे आए और उसको ठहरा लिया।
कहाँ से आरहा है?
तांतिया ने निम्मो को सामने कर दिया, मैं तो इस लड़की को आग से निकाल कर ला रहा हूँ।
उन्होंने गाउन उठा कर देखा। निम्मो ख़ौफ़ज़दा नज़रों से उन को देखने लगी। तांतिया ने झट हाथ हटा दिया। ए इसको न खोलो, ये बिल्कुल नंगी है।
वो हँसने लगे। तो साले इसको लिए कहाँ जा रहा है?
तांतिया ने हैरत से पूछा, क्यों?
वो बेबाकी से हँसने लगे, अबे इसे खड़ा तो कर।
तांतिया ने निम्मो को फुटपाथ पर खड़ा कर दिया, निम्मो बिल्कुल चुप थी, तांतिया भी चुप था। वो आँखें फाड़ फाड़ कर देखते रहे। फिर उन्होंने निम्मो का बाज़ू पकड़ कर एक तरफ़ कर लिया।
ये हमारे साथ लारी में जाएगी। रात भर थाने में रहेगी और सुबह रिफ्यूजी कैंप में पहुंचा दी जाएगी।
वो निम्मो को लेकर लारी की तरफ़ चलने लगे। निम्मो अब भी ख़ामोश थी।
तांतिया कहता रहा, ये मेरे पास रहेगी। मैंने इसको आग से बचाया है। इसे मेरे पास रहना चाहिए।
मगर उन्होंने एक न सुनी। निम्मो को लारी में बिठाया और ख़ुद भी बैठ गए। ड्राईवर ने लारी का इंजन स्टार्ट किया और वो आगे बढ़ गई। तांतिया लारी को ख़्वाबनाक़ नज़रों से देखता रहा। लारी दूर होती गई निम्मो दूर होती गई। निम्मो जिसका जिस्म लहराते हुए पर्दों की तरह नर्म था, जिसके चेहरे पर कुँवारियों का अछूतापन था। नर्मी थी और जवानी की फूटती हुई शगुफ़्तगी थी। निम्मो सिर्फ़ एक लड़की, एक औरत, जिसे उसने अपने क़रीब महसूस किया था, जिसे उसने छूकर देखा था।
लारी अंधेरे में ओझल हो गई। तांतिया ने ग़ुस्से से फ़र्श पर थूक दिया और पुलिस वालों को गालियां देता हुआ आगे बढ़ने लगा।
तांतिया सड़क पर थका हुआ सा चलता रहा मगर वो जाता भी कहाँ, सामने मकान जल रहे थे, शोले लहरा रहे थे। धुंए के बादल बुलंदियों पर फैलते जा रहे थे, जलते हुए मकानों से इन्सानी चीख़ें उभर रही थीं। वो आगे न गया एक नीम कुशादा सड़क पर मुड़कर नशेब में उतर गया। क़रीब ही गंदा नाला था जो सड़क के नीचे से गुज़रता था। तांतिया नाले की पुलिया के नीचे घुस गया।
पुलिया के नीचे अंधेरा था। कीचड़ थी और बड़ी तेज़ बदबू फैली हुई थी। उसने माचिस जलाकर देखा क़रीब ही एक ब्रहना लाश पड़ी थी। लाश फूल कर अकड़ी थी। ज़बान बाहर निकली हुई थी। आँखें कुछ इस तरह फटी हुई थीं जैसे कह रही हों देखो मुझे कितनी बेदर्दी से क़त्ल कर दिया गया, मैंने इंतिक़ाम नहीं लिया। मुझे इंतिक़ाम लेना चाहिए था।
वो वहां से हट कर दूसरी तरफ़ चला गया। जहां ज़मीन ख़ुश्क थी वो ज़मीन पर बैठ गया।
तांतिया अंधेरे में बैठा हुआ सोचता रहा कि उसके चारों तरफ़ तारीकी है। कीचड़ है और क़रीब ही एक लाश पड़ी सड़ रही है जिसकी ज़बान बाहर निकल आई है और आँखें फट गई हैं, बाहर तेज़ हवाएं सिसकियाँ भर रही हैं।
एक आदमी घबराया हुआ पुलिया के सामने आकर ठहर गया। तांतिया उसे देखता रहा। मगर जब वो अंदर आकर लंबी लंबी साँसें भरने लगा तो तांतिया ने कहा, वहां कीचड़ में क्यों खड़े हो, इधर आ जाओ। यहां ज़मीन साफ़ है।
वो ख़ौफ़ से चीख़ कर बोला, तुम कौन हो?
तांतिया ने जल कर कहा, मैं कोई भी हूँ, कीचड़ में खड़े होने का शौक़ है तो वहीं खड़े रहो, नहीं तो उधर चले आओ।
वो तांतिया के क़रीब आया और ज़मीन पर बैठ गया।
ज़रा ही देर बाद उसने तांतिया से पूछा, तुम हिंदू हो या मुसलमान?
तांतिया झुँझला कर बोला, मैं कोई भी हूँ। अबे हिंदू मुसलमान के बच्चे पहले ये बता कि कोई सिगरेट विगरेट भी है?
मेरे पास सिगरेट नहीं है, न जाने किस तरह जान बचा कर भागा हूँ, तुम्हें सिगरेट की पड़ी है।
तांतिया ठट्ठा मार कर हँसने लगा। अबे जा बे, तू भी यूंही रहा।
अजनबी ज़रा देर ख़ामोश रह कर बोला, यहां तो बड़ी बदबू है।
तांतिया ने माचिस जलाई और सड़ती हुई लाश दिखलाने लगा, देखो ये कोई मरा हुआ आदमी पड़ा सड़ रहा है।
वो ख़ौफ़ज़दा हो कर तांतिया के नज़दीक सरक गया फिर आह भर कर रिक़्क़त अंगेज़ लहजे में बोला, हाय बेचारा, यार दुख तो मुझे भी हो रहा है पर ये सरकार भी उल्लू की पट्ठी है। इतना गोश्त बेकार सड़ कर जा रहा है। तांतिया आहिस्ता-आहिस्ता बोल रहा था, यही पिछली जंग की बात है हम लोग बर्मा के जंगलों में जापानियों के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे, एक दफ़ा ऐसा हुआ कि जापानियों ने हेडक्वार्टर वाली सड़क बमबारी कर के तबाह कर दी। सड़क बंद हुई तो हमें राशन मिलना बंद हो गया। बस पूछो न कि क्या बीती। हमने सामान ले जाने वाली गाड़ीयों के खच्चरों को मार मार कर खाना शुरू कर दिया। मगर ख़च्चर का गोश्त बहुत ख़राब होता है। साला हज़म ही न होता था। फिर हवाई जहाज़ों से राशन फेंका जाने लगा। उसमें हमें ऐसा गोश्त मिलता जिसे सुखा कर डिब्बों में बंद कर दिया गया था। सच कहता हूँ, क्या मज़े का गोश्त होता था। अब तुम्हीं बताओ कि रोज़ जो इतने बहुत से आदमी बलवे और फ़साद में मर रहे हैं, कितना गोश्त बेकार जा रहा है, सरकार उसको सुखाकर क्यों नहीं रख लेती। काल के दिनों में काम देगा फिर काल तो यूं भी पड़ रहा है, कितने ही भूकों का भला हो जाएगा। कहो उस्ताद, कैसी कही? तांतिया ने उसकी पीठ पर ज़ोर से धप मारा, अबे तू तो बहुत तगड़ा है! मरेगा तो बहुत सा गोश्त निकलेगा और ढेर चर्बी भी निकलेगी।
अजनबी ख़ौफ़ से उछल पड़ा। उसकी जेबें रूपों की झनकार से खनक उठीं।
तांतिया ने झट उसकी गर्दन दबोच ली, अबे तेरे पास तो बड़ी रक़म है, ला निकाल।
वो घुटी हुई आवाज़ में बोला, मेरी गर्दन तो छोड़ दो। तांतिया ने उसकी गर्दन छोड़ दी।
वो गिड़गिड़ाने लगा, मुझ सताए हुए को सता कर तुम्हें क्या मिलेगा?
तांतिया हँसने लगा, सीधी सी बात है, रक़म हाथ लगेगी और क्या। वो धक्का देकर उसके सीने पर चढ़ बैठा। दोनों हाथों से गर्दन दबा कर कहने लगा, अबे सीधी तरह निकालता है या घोंट दूं गला।
वो बदहवास हो कर बोला, सब कुछ अंदर की जेब में है निकाल लो।
तांतिया ने उसकी जेबें टटोलीं। नोट निकाले, रुपये निकाले और रेज़गारी तक निकाल ली।
वो ख़ुशामद करने लगा, मेरे पास कुछ तो छोड़ दो।
तांतिया फिर हँसने लगा, अबे बहुत दिन तुमने ठाठ किए हैं, कुछ दिन यूंही सही।
तुम्हारे दिल में ज़रा रहम नहीं, मेरा घर जल रहा है, सब कुछ लुट गया, बीवी को भी मार डाला, बच्चों को भी क़त्ल कर दिया, मेरी जवान लड़कियों को उठा कर ले गए, अब मेरे पास रह ही क्या गया है, इज़्ज़त तो थी वो भी बर्बाद हो गई। वो आदमी बड़ा उदास मालूम हो रहा था। मगर तांतिया हँसता रहा, अबे तो इसमें घबराने की कौन सी बात है, तेरी लड़कियों को कोई न कोई तो ले ही जाता, कोई और न ले गया वो ले गए। क्या फ़र्क़ पड़ता है?
अजनबी ख़ामोश बैठा रहा। उसे तांतिया से नफ़रत महसूस हो रही थी। वो यहां से निकल जाना चाहता था मगर उसे अपनी जान भी प्यारी थी वो वहीं बैठा रहा। तांतिया ने उसे फिर छेड़ा।
अबे ख़ामोश क्यों बैठा है, कुछ बातें ही कर।
वो झुँझला कर बोला, तुमने आज तक लोगों को दुख ही पहुंचाया है या और भी कुछ किया है।
तांतिया ने तिलमिला कर कहा, अबे! मैंने क्या किया है, मैंने चिलचिलाती धूप में सड़कों पर मेहनत की है, कड़कड़ाती सर्दीयों में पहरेदारी की है। फ़ौज में भर्ती हो कर गोलियां खाई हैं। चोरियां की हैं। जेल काटी है, मार खाई है, गालियां सुनी हैं। तांतिया तेज़ी से बोलते बोलते अचानक बेनियाज़ी से हँसने लगा, और अब मैं भूकों मरता हूँ, शराबियों का बचा खुचा खाना खाता हूँ, गोश्त के एक एक टुकड़े के लिए कुत्तों से लड़ता हूँ, सर्दी में सुनसान सड़कों पर ठिठराता फिरता हूँ। बताओ उस्ताद तुमने ये सब कुछ किया है और नहीं किया तो तुम्हारी ऐसी की तैसी। तांतिया ने उसके मुँह पर कस के थप्पड़ मारा। साला! उल्लू का पट्ठा! ख़्वाहमख़्वाह रोब झाड़ता है।
वो आदमी सहमा हुआ ख़ामोश बैठा रहा। मगर तांतिया से अब उकता चुका था। इस आदमी से उकता चुका था। अंधेरे और घुटन से उकता चुका था। वो उठा और पुलिया के नीचे से निकल कर सड़क पर आगया। ख़िज़ां की तेज़ हवाएं सिसकियाँ भर रही थीं। रात और गहरी हो गई थी। वीरान इमारतों की पुश्त पर चांद की ज़र्द, ज़र्द रोशनी उभर रही थी। पतझड़ के मारे हुए सूखे दरख़्त तार अन्कबूत की तरह उलझे हुए नज़र आरहे थे, तांतिया दरख़्तों के नीचे चलने लगा, ख़ुश्क पत्ते उसके क़दमों के नीचे हल्की हल्की आहट पैदा कर रहे थे।
सुनसान सड़क पर उसका साया भूतों की तरह डरावना मालूम होता, वो आहिस्ता-आहिस्ता चलता रहा। फिर एक मोड़ पर किसी ने टोका,
कौन आरहा है?
तांतिया ने घबरा कर देखा एक फ़ौजी सिपाही राइफ़ल सँभाले हुए उसकी तरफ़ आरहा था। तांतिया पलट कर दीवारों के सायों में दुबकने लगा।
मुसल्लह फ़ौजी ने ललकारा, है! ठहर जाओ।
मगर तांतिया न रुका। उसने अपनी चाल और तेज़ कर दी।
नागाह, रात के पुरहौल सन्नाटे में राइफ़ल चलने की आवाज़ गूँजी। गोली तांतिया की पसलियों को तोड़ती हुई गुज़र गई। वो फ़र्श पर गिर पड़ा। सिपाही उसके क़रीब आकर ठहर गया।
तांतिया ने उसकी तरफ़ देखा, हाँपते हुए लहजे में बोला, जवान! तुम्हारा निशाना बहुत अच्छा है, कभी मैं भी इतना ही सच्चा निशाना लगाता था, पर इन ख़ूबियों की कौन क़द्र करता है, जंग ख़त्म हो गई और मेरा हाल तुमने देख ही लिया। तांतिया ने हाथों में दबे हुए नोट, रुपये और रेज़गारी सब कुछ सड़क पर फेंक दिया। फ़ौजी अपनी राइफ़ल सँभाले हुए हैरत से देखता रहा।
तांतिया उसकी बेनियाज़ी पर भन्ना गया। जल कर बोला, अबे देख क्या रहा है, इसको उठा ले, साले अकड़ता क्यों है, कहीं एक दिन तेरा भी यही हाल न हो, अबे उस वक़्त ये रक़म काम आएगी।
फ़ौजी ने झुँझला कर तांतिया की कमर पर ज़ोर से लात मारी और रुपया उठा कर चल दिया।
तांतिया के ज़ख़्म से ख़ून बहता रहा, उसका जिस्म सुनसान सड़क पर फड़कता रहा, हवाएं सिसकियाँ भरती रहीं और वीरान गलियों में कुत्ते रोते रहे।
ये कर्फ़यू की रात थी, फ़सादात की रात थी, तांतिया की ज़िंदगी की आख़िरी रात थी। तांतिया मर गया लेकिन उसकी फटी हुई आँखों में अभी तक भूक ज़िन्दा थी।
- पुस्तक : लौह (पृष्ठ 251)
- रचनाकार : मुमताज़ अहमद शेख़
- प्रकाशन : रहबर पब्लिशर्स, उर्दू बाज़ार, कराची (2017)
- संस्करण : Jun-December
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