तफ़सीर-ए-इबादत
मुहसिन हद से ज़्यादा सीधा आदमी था। गो वो मौलवी था मगर आज-कल का सा नहीं। सचमुच का मौलवी, जिसके ज़ेह्न में चालाकी और अय्यारी का गुज़र ही न हो सकता था। अंग्रेज़ी के रंग से क़तई ना आश्ना, ज़माने के हाल से बिल्कुल बेख़बर। तहसील-ए-इल्म से फ़ारिग़ हुआ तो दिन भर या क़ुरआन-व-हदीस का मुताला था या मस्जिद और नमाज़। उम्र ज़्यादा से ज़्यादा तेईस साल होगी लेकिन दाढ़ी अल्लाह की इनायत से ऐसी घनादार और इतनी चौड़ी चकली और लंबी कि पूरा जवान मालूम होता था।
जिस रोज़ से सुना था कि वालदैन शादी की फ़िक्र में हैं बाग़ बाग़ था। घर में होता था तो मुँह से ख़ामोश रहता लेकिन जाते जाते किसी बहाने से ठिटक जाता, दूर होता और ये पता चल जाता कि शादी का चर्चा है तो बिला वजह कोई न कोई ज़रूरत पैदा कर पास जा पहुंचता। बराबर की बहनें, आस पास की बड़ी बूढ़ी छेड़तीं, हंसा करतीं तो दुल्हन का नाम सुनते ही बाछें खिल जातीं, माँ भी दिन भर घर के काम धंदों में मसरूफ़ रहती और आने जाने वालों को भी रात ही को फ़ुर्सत होती। कोई साढे़ नौ बजे जमघटा होता और मियां मुहसिन की शादी के मुताल्लिक़ तज्वीज़ें होतीं। उस तज़किरा का इतना असर तो ज़रूर हुआ कि मौलवी मुहसिन जो इशा के बाद डेढ़ दो घंटा वज़ीफ़ा पढ़ते और ग्यारह साढे़ ग्यारह बजे मस्जिद से लौटते, पंद्रह बीस रोज़ तो मारा मार नमाज़ पढ़ पढ़ा कभी नफ़िल छोड़ते, कभी सुन्नतें उड़ाईं दस बजे घर आ पहुंचता। मगर जब ये देखता कि औरतें दस साढे़ दस बजे ही से रुख़्सत हो जाती हैं तो फ़र्ज़ पढ़ने भी दूभर हो गए। ब-मुश्किल तमाम अदा करता। लोग दुआ मांग रहे हैं और वो जूतीयां बग़ल में दबाये घर की तरफ़ सरपट दौड़ रहा है। आख़िर ख़ुदा ख़ुदा कर के मुआमला तय हुआ और शादी हो गई। इस निकाह में मुहसिन के बाप ने इस के सिवा कुछ न देखा कि लड़की नमाज़ी , परहेज़गार और अल्लाह अल्लाह करने वाली हो, चुनाचे कई लड़कियों में से एक ऐसी ही मुंतख़ब हुई और कुंवारे मुहसिन बीवी के शौहर या दुल्हन के दुल्हा बन गए।
पाँच चार महीना तो मियां मुहसिन की ख़ूब गुज़री। निहाल निहाल थे कि ख़ुदा की रहमत कोने कोने से नाज़िल हो रही है। बीवी यानी हबीबा, औरत क्या फ़रिश्ता है कि इधर आधी रात तक और उधर दिन के दस बजे तक तस्बीह, दरूद शरीफ़, पन्जसूरा ग़र्ज़ हर बात में और हर काम में ख़ुदा के सिवा और कुछ नहीं। मगर चंद रोज़ बाद मुहसिन को इस इबादत का पता लगा। ये इबादत उसके वास्ते मुसीबत हो गई और वो इस तरह कि बाप के इंतिक़ाल के बाद मदरसा की जगह उसको मिली और मदरसा का मुहतमिम ऐसा सख़्त कि दस पंद्रह मिनट भी हो जाएं तो फ़ौरन जवाब तलब, यहां बीवी दस बजे नमाज़ छोड़ें। मदरसा का वक़्त पूरे सात घंटे पाँच बजे तक का, रोज़ा हो गया और वो रोज़ा जिसमें सवाब का नाम तक नहीं । दो चार दिन तो भूका मरा और उसके बाद कहना ही पड़ा कि, अगर खाने का कुछ इंतिज़ाम हो जाये तो अच्छा है, दिन भर भूका रहता हूँ।
बीवी: तो क्या में वज़ीफ़ा छोड़ दूँ?
मियां: तौबा तौबा, में कुफ़र की बात क्यों कहूं?
बीवी: कह तो रहे हो।
मियां: रात को पढ़ लिया करो।
बीवी: रात का रात को पढ़ती हूँ और सुबह का सुबह को।
मियां: सुबह का भी रात को पढ़ लिया करो।
बीवी: मुसलमान हूँ, मरना है। तुम्हारे वास्ते ख़ुदा को नहीं छोड़ सकती।
मियां: तो मैं दिन भर भूका मरूं?
बीवी: मर्ज़ी अल्लाह की, उसके हुक्म से ज़्यादा कुछ नहीं।
मियां: पढ़ने में कुछ कमी कर दो।
बीवी: ख़ूब कमी की कही। रात की यासीन शरीफ़, सूरा मुज़म्मिल, सूरा बक़र, सूरा यूसुफ़, सुबह का पंज सूरा, मैं पढ़ती ही क्या हूँ? कूवार पने में तो मैंने एक एक क़ुरआन शरीफ़ रोज़ ख़त्म किया है, अब तो कुछ भी नहीं पढ़ती।
मियां: तो फिर तुम ही कोई तरकीब बताओ।
बीवी: मैं तो कहती हूँ कि तुम रोज़ रोज़ा रख लिया करो।
मियां: हिम्मत न हो तो?
बीवी: ख़ुदा हिम्मत देगा।
मियां: अल्लाह बेहतर करे।
हालात रोज़ रोज़ बढ़ते गए। उधर मियां मुहसिन हफ़्ता में पाँच चार मर्तबा रोज़ा तो नहीं मगर रोज़ा की हद को ज़रूर पहुंच जाते। ज़रूरत थी कि मुहसिन के अम्मां-बावा जो फ़रिश्ता बहू के मुतलाशी थे और अपनी दानिस्त में बेटे को दुनिया ही में हूर दे दी, कुछ रोज़ ज़िंदा रह कर देखते कि लड़का फ़िरदौस-ए-बरीं में कैसी ज़िंदगी बसर कर रहा है। मगर दोनों में से एक भी न रहा वर्ना बाप नहीं तो माँ ज़्यादा नहीं तो फ़ाक़ों से बचा लेती। ये नहीं कि हबीबा ख़ुद खा लेती हो, वो वाक़ई अपने वज़ीफ़ों के आगे किसी चीज़ की परवाह न करती थी और उसका यक़ीन था कि मग़फ़िरत सिर्फ़ ख़ुदा ही की रज़ामंदी है और ख़ुदा की रज़ामंदी नमाज़ रोज़ा पर मौक़ूफ़ है। एक रोज़ जबकि मलेरिया बुख़ार कसरत से फैला हुआ था, दोपहर के वक़्त मुहसिन को भी बुख़ार चढ़ा। हाँपता काँपता घर पहुंचा, दुलाई ओढ़ी, रज़ाई और लिहाफ़ ओढ़े मगर सर्दी किसी तरह कम न हुई। कोई डेढ़ घंटे तक थर थर काँपता रहा, तीन बजे ज़रा सर्दी कम हुई तो बीवी से कहा,
“सरिश्तादार साहब कहते थे कि मलेरिया बुख़ार सब के वास्ते यकसाँ है फिर क्या बात है कि अंग्रेज़ों को कम होता है और हिंदुस्तानियों को ज़्यादा? इसका सबब सिर्फ़ ये है कि हिंदुस्तानी एहतियात नहीं करते।”
बीवी: एहतियात से कुछ नहीं होता। तक़दीर में बीमारी लिखी है तो कौन मिटा सकता है, एक नहीं लाख एहतियात करो।
मियां: ये तो सही है मगर तक़दीर के साथ तदबीर भी है जो लोग मुस्हल लेकर पेट की कसाफ़त उन दिनों में साफ़ कर लेते हैं और कुनैन का इस्तिमाल करते हैं और इसके साथ ही घरों में सील नहीं होने देते कि मच्छर पैदा हों, वो हरगिज़ इस बुख़ार में मुब्तला नहीं होते।
बीवी: उस्तानी बशीरन क्यों मरीं?
मियां: वो तो मोती झरा था।
बीवी: मोती झरा हो या दिक़, ये दिन ही बरसात के थे।
मियां: अब मैं क्या करूं? चला नहीं जाता जो डाक्टर के हाँ जाऊं।
बीवी: रात को उतर जाएगा घबराते क्यों हो? भादूओं का बूख़ार शब-ए-बरात की चपातियां हैं कोई घर ख़ाली नहीं। सुबह को हकीम के पास चले जाना।
बुख़ार मौसमी था सुबह को उतर गया तो मुहसिन डाक्टर के पास गया उसने मुस्हल की दवा दी। ग़रीब ने एक रोज़ की छुट्टी ली और बीवी से कह दिया मुझको बारह बजे खिचड़ी मिलनी चाहिए, मगर कहा उस वक़्त कि बीवी इशराक़ का सलाम फेर हसन-हुसैन का ख़त्म शुरू कर चुकी थीं। साढे़ बारह बजे के क़रीब मुहसिन को भूक लगी तो क्या देखते हैं मुस्तक़िल मिज़ाज बीवी बदस्तूर जाए नमाज़ पर बैठी ख़त्म में मसरूफ़ है। आज मियां को ख़ुदा दोस्त बीवी की क़दर मालूम हुई और जल कर कहा,
तो क्या अब भी फ़ाक़ा करूं!
बीवी: हूँ हूँ ऊँ हूँ हूँ।
मियां: बस तुम तो पढ़े जाओ, मैं सो जाता हूँ।
बीवी: ऊ ऊ हूँ हूँ हूँ।
बीवी फ़ारिग़ हुईं तो एक बज रहा था। खिचड़ी चढ़ाई। पकते पकाते घंटा पौन घंटा और लगा। दो बजे मियां खाने बैठे और बीवी ज़ोहर की नमाज़ को खड़ी हुईं। खिचड़ी में नमक फीका था मगर मांगते किससे और देता कौन, दो चार मिनट राह देख कर ख़ूद ही उठे, कोठरी में गए तो अंधेरा घुप था चारों तरफ़ टटोला, मिर्चें मिलें, धनिया मिला, प्याज़ मिली, लहसुन मिला मगर नमक न मिला। बुख़ार, मुस्हल, फ़ाक़ा, लौटते थे कि दीवार की टक्कर इस ज़ोर से लगी कि बिजली कौंद गई... सर पकड़ कर आ बैठे और पांव फैला कर लेट गए। बीवी नमाज़ में मियां गोते में, बिल्ली को इससे अच्छा मौक़ा कौन सा मिलता, खिचड़ी खाई और शोरबा पिया।
मुहसिन तो क्या फ़रिश्ता भी होता तो उन मुतवातिर अज़ीयतों से उकता जाता। अब उसने ज़रा हाथ पांव निकाले। कुछ मिलने जुलने वालों ने समझाया, कुछ वक़्त ने बताया। ख़ामोश चेहरे पर त्यौरी और खुलते हुए होंटों पर ग़ुस्सा के आसार नमूदार होने लगे। मगर बीवी पर न उस हंसी ने असर किया और न उस ग़ुस्सा ने। वो अपनी धुन में मुनहमक थी। मुहसिन हर चंद बिगड़ता वो परवाह न करती, जब नौबत यहां तक पहुंची कि जन्नत दुनिया उसके वास्ते दोज़ख़ का नमूना बन गई तो एक रोज़ उन हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर हुआ जिनकी वो मुरीद थी और जा कर तमाम दास्तान सुनाई।
हबीबा भी शौहर के ये रंग देख रही थी और जब उसे अच्छी तरह यक़ीन हो गया कि शौहर का वजूद मेरी इबादत में मुख़िल है तो सब से बेहतर तजवीज़ यही समझ में आई कि वक़्त क़रीब है हज को चली जाऊं और अगर हिज्रत नहीं तो साल दो साल ही के वास्ते इस झगड़े से छुटकारा पाऊं। वो अच्छी तरह जानती थी कि ऐसी हालत में कि हक़ीक़ी चचा हज को जा रहे हैं और ख़र्च के वास्ते अपना ज़ेवर काफ़ी है, शौहर या कोई भी इस काम में ख़लल नहीं डाल सकता। चुनाचे ऐसा ही हुआ। मुहसिन की मजाल क्या थी कि बीवी के इस क़सद की मुख़ालिफ़त करता। दिन क़रीब आ गए और हबीबा ने अपना सामान-ए-सफ़र तैयार करना शुरू किया। चचा ने आकर दामाद से दरियाफ्त किया तो ख़ामोशी या बजा के सिवा उसके पास रखा ही किया था। वो भी ले जाने पर रज़ामंद हो गए और ज़ेवर शौहर की मौजूदगी में हबीबा ने चचा को फ़रोख़्त के वास्ते दिया, वो बेच कर ले आए। ये जुमेरात का ज़िक्र है। हफ़्ता की शाम को रवाना होने का क़सद था। जुमा को हबीबा बाद-ए-नमाज़-ए-जुमा सब से मिलने जुलने गई और रात को मैके रह कर हफ़्ता की सुबह को पीर साहब की ख़िदमत में हाज़िर हुई। पीर साहब मुहसिन की ज़बानी मुफ़स्सिल कैफ़ियत सुन चुके थे, आदमी भेज कर उसे भी बुला भेजा। जब हबीबा और मुहसिन दोनों उनके सामने बैठे थे, उन्होंने हबीबा से दरियाफ्त किया,
क्या तुम ने अपने शौहर से इजाज़त ले ली?
हबीबा: जी हाँ, इस नेक काम से कौन मुसलमान इनकार करेगा?
पीर जी: क्यों इनकार न करेगा? अगर कोई इनकार न करता तो तमाम दुनिया ही हज को चली जाती। कुछ हालात होते हैं, कुछ मुआमलात होते हैं, जब तक हालात और मुआमलात इजाज़त न दें हर शख़्स मुख़ालिफ़ राय देने का हक़ रखता है और अगर ये इसलिए कि तुम्हारे शौहर हैं, बखु़शी तुम को इजाज़त न दें तो तुम्हारा हज मेरी राय में हज नहीं हो सकता।
हबीबा: ज़ाहिर है उनको तकलीफ़ होगी।
पीर जी: जब तुम ये जानती हो फिर किस तरह हज का क़सद करती हो? तुम ने मुसलमानों के ख़ुदा को पहचाना नहीं, मेरा ये मतलब नहीं है कि मुसलमानों का ख़ुदा और है बल्कि ये कि इस्लाम के उसूल तुम समझ न सकीं, इस्लाम में जिस क़दर ख़ुदा के ताल्लुक़ात रखे गए हैं, वो महज़ दुनियावी ज़िंदगी की फ़लाह-व-बहबूद के वास्ते न कि इस तरह कि एक आदमी दुनिया को छोड़ छाड़ पहाड़ की चोटी पर बैठा अल्लाह अल्लाह करता मर जाये। तुम ब-हैसियत बीवी के उनकी फ़रमांबर्दार हो और ये ब-हैसियत शौहर के तुम्हारे ग़मख़्वार और मुशीर कार। उनका फ़र्ज़ है कि तुम को ख़ुश रखें और तुम्हारा काम है कि उनको रज़ामंद करो। यही असली हज है। अगर तुम उनको रज़ामंद रख कर मरीं तो मैं यक़ीन दिलाता हूँ कि तुम्हारा हज हो गया। मैं तो सुनता हूँ कि दिन रात वज़ीफ़े और चिल्लों में ऐसी घुसी हो कि घर के काम काज तक की परवाह नहीं करतीं। शौहर फ़ाक़ा से हो तो हो मगर तुम्हारे चिल्ला और वज़ीफ़ा में फ़र्क़ न आए। ये तो जन्नत के नहीं दोज़ख़ के सामान हैं। तुमने शौहर की ज़िंदगी बर्बाद कर दी और तवक़्क़ो ये रखती हो कि ख़ुदा की रज़ामंदी हासिल करूं। तुम इस्लाम को बदनाम करती हो और मैं ये कह सकता हूँ कि तुम्हारी मिसाल दूसरों के वास्ते निहायत मुज़र और तकलीफ़देह है। तुम इस्लाम को नुक़सान पहुंचा कर गुनहगार हो रही हो। क्या तुम को मालूम नहीं कि एक शख़्स जो शब-व-रोज़ इबादत करता था इससे सरवर-ए-दो आलम (स) ने साफ़ फ़रमाया कि वो करो जो मैं करता हूँ, यानी दुनिया की ज़रूरतें भी पूरी करो और दीन की भी। क्या ख़ुद हुज़ूर-ए-अकरम या आपके अहबाब-व-ताबईन ने दिन रात ख़ुदा की इबादत की और दुनिया से क़ता तअल्लुक़ कर लिया, क्या ख़ुदा और उसके रसूल का ऐसा हुक्म कहीं मौजूद है? तुम्हारी जन्नत, तुम्हारी इबादत तो सिर्फ़ ये है कि मुहसिन तुम से राज़ी हो और तुम उससे ख़ुश। मैं फ़तवा देता हूँ कि तुम्हारा ये हज हरगिज़ क़बूल नहीं हो सकता। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि जिस वक़्त हालात इजाज़त देंगे, मौक़ा और महल होगा, ख़ुद मुहसिन इस फ़र्ज़ को तर्क करने वाले नहीं। दोनों मियां बीवी जाना और हंसी ख़ुशी अपना फ़र्ज़ अदा करना।
पीर साहिब की नसीहत हबीबा के दिल में गड़ तो गई मगर एक उम्र की पड़ी हुई आदत आसानी से छुटनी मुहाल थी। उसने रफ़्ता रफ़्ता अपने वज़ाइफ़ में कमी की और साल भर के अंदर ही अंदर कैफ़ियत यह हुई कि फ़राइज़ के बाद वो सब से मुक़द्दम मुहसिन की ख़िदमत समझती थी और इससे फ़ारिग़ होकर जितना वक़्त बचता था वो इबादत में सर्फ़ करती थी और इस पर मुहसिन को भी किसी क़िस्म का एतराज़ न था और वो खुश था कि बीवी की अपनी ख़्वाहिश भी पूरी हो रही है और उसको भी किसी क़िस्म की तकलीफ़ नहीं हो रही। मुहसिन ग़रीब, फ़क़ीर न था। ख़ासा औसत दर्जे का आदमी था, मगर जब तक बीवी वज़ीफ़ों में मसरूफ़ रहीं घर की ख़ाक उड़ रही थी। बिरयानी और मुतंजन भी होता था तो दाल और चटनी से बदतर। मुहसिन पानी के वास्ते बैठा है, निवाला हलक़ में अटक रहा है और बीवी तस्बीह में मसरूफ़। अब इस तग़य्युर ने मुहसिन ही की तमाम तकलीफों का ख़ातमा नहीं किया। बल्कि ख़ूद हबीबा को भी मालूम हो गया कि मैं जो कुछ कर रही थी वो ना दुरुस्त था और मुसलमान औरत का काम ये नहीं है कि वो महज़ नमाज़ रोज़ा कर ले और दुनिया की तमाम ज़रूरतों से बेफ़िक्र हो जाये। एक दिन जब छुट्टी के दिन पानी ज़ोर-व-शोर से पड़ रहा था। हबीबा कहने लगी,
“दस बज गए, पानी तो थमता नहीं, पकने का क्या करूं?”
मुहसिन: मैं तो समझूं बेसन मौजूद है, बेसनी रोटी पका लो, मामा भी आज नहीं आई।
हबीबा ने उठ कर आटा गून्धा और रोटी पका कर आगे रखी। दो आदमियों का पकना ही क्या डेढ़ पाव आटा काफ़ी था।
हबीबा और मुहसिन दोनों बैठे खाना खा रहे थे की इत्तिफ़ाक़ से पीर साहब भी आ गए।
हर चंद हबीबा उठने लगी मगर उन्होंने न माना और कहा,
दोनों खाना खा लो।
उस वक़्त दस्तरख़्वान पर बेसनी रोटी, आम का अचार और लहसुन की चटनी थी। पीर जी ने फ़रमाया,
“मियां सुबह को यहां आया हुआ था, मेंह थमता नहीं। ख़्याल आया कि तुम्हारे पास भी होता चलूं। मुझे इस वक़्त बहुत ही ख़ुशी हुई और मैं कह सकता हूँ कि ये चटनी रोटी जो तुम दोनों मियां-बीवी मिल कर खा रहे हो, बिरयानी, मुतंजन से हज़ार दर्जा बेहतर है, और बी हबीबा तुम्हारी उस इबादत से ये हालत अफ़ज़ल और बेशक ख़ुदा की रजामंदी है।”
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